शोध सार : हिन्दी गद्य का विकास हिन्दी साहित्य के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण घटना है। हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल को प्रतिष्ठित करने का बहुत कुछ श्रेय खड़ी बोली के गद्य साहित्य को है। हिन्दी में गद्य साहित्य दो रूपों में मिलता है- 1. कथा साहित्य तथा 2. कथेतर साहित्य। कथा साहित्य वह है, जिसमें काल्पनिकता होती है। नाटक, कहानी, उपन्यास आदि कथा साहित्य के अंतर्गत आते हैं जबकि कथेतर साहित्य उसे कहते हैं जो यथार्थ और वास्तविकता पर आधारित होता है। निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, आलोचना, आत्मकथा, जीवनी, रिपोर्ताज, डायरी, पत्र, यात्रा वृत्तांत, साक्षात्कार आदि कथेतर साहित्य के अंतर्गत आते हैं। बदलते समय के साथ हिन्दी में कथेतर साहित्य का चलन बढ़ा है। भोगे हुए यथार्थ पर आधारित होने के कारण पाठकों के बीच कथेतर की मांग बढ़ी है। कथेतर हिन्दी गद्य की प्रमुख विधाओं में से एक संस्मरण, लेखक के जीवन की किसी घटना या व्यक्ति से संबंधित स्मृति आधारित व्यक्तिगत अनुभव होते हैं जिन्हें वह भावप्रवणता के साथ प्रस्तुत करता है। हिन्दी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने कथेतर को पाठकों के बीच लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। ‘सरस्वती’, ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ जैसी पत्रिकाओं ने संस्मरण के प्रचुर प्रकाशन द्वारा कथेतर की इस विधा को नयी ऊंचाई प्रदान की। इस क्रम में समकालीन हिन्दी पत्रिकाओं में ‘तद्भव’ ऐसी पत्रिका है जिसमें प्रकाशित संस्मरणों ने हिन्दी के कथेतर साहित्य में नयी पहचान बनाई। प्रस्तुत शोध-आलेख में कथेतर हिन्दी साहित्य में संस्मरण विधा की स्थिति को देखते हुए ‘तद्भव’ में प्रकाशित संस्मरणों का विवेचन-विश्लेषण किया गया है।
बीज शब्द : कथेतर, हिन्दी गद्य, गद्य-विधा, संस्मरण, तद्भव, पत्रिका, हिन्दी, साहित्य, साहित्यिक-पत्रिका, हिन्दी संस्मरण, हिन्दी गद्य की विधाएँ, काल्पनिकता, यथार्थ, स्मृति, वास्तविकता।
मूल
आलेख
: 'कथेतर' संज्ञा हिंदी साहित्य में अपेक्षाकृत नई है, किंतु कथेतर की परंपरा हिंदी साहित्येतिहास में आधुनिक गद्य साहित्य के आरंभ से ही विद्यमान रही है। स्वाधीनता पूर्व निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं ने कथेतर हिंदी गद्य को समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतेंदु हरिश्चंद्र और भारतेंदु मंडल के लेखकों ने निबंध, समालोचना, आत्मकथा, जीवनी, यात्रा वृत्तांत आदि विधाओं के जरिये कथेतर हिंदी गद्य के निर्माण के लिए नींव का पत्थर रखा जिससे आगे चलकर हिन्दी साहित्य में कथेतर की मजबूत इमारत खड़ी हुई तथा समय के साथ स्वयं को विविध रूपों और शैलियों में ढाला। वास्तव में परिवेशगत बदलावों के फलस्वरूप नयी स्थितियों का सामना पुराने औजारों के साथ नहीं किया जा सकता। हिन्दी में कथेतर के अंतर्गत नए नए रूपों और शैलियों का जन्म इसी आवश्यकता का प्रतिफलन है। इसे स्पष्ट करते हुए डॉ. नगेन्द्र अपने संपादित ग्रंथ ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में कहते हैं- “हिंदी के अद्यतन गद्य-साहित्य में जटिल से जटिलतर होते हुए जीवन-वास्तव की प्रखर चेतनात्मक अभिव्यक्ति मिलती है। आज के प्रत्येक जागरूक रचनाकर्मी की चेतना पर परिवेश का प्रभाव- दबाव इतना प्रबल है कि वह अनेक प्रश्नाकुलताओं, समस्याओं, स्थिति-परिस्थिति के घात-प्रतिघात से उत्पन्न चुनौतियों, वैचारिक दिग्भ्रमों और मूल्यों के संकट के इस दौर में यथार्थ की जमीन पर ही यथार्थ को देखने, झेलने और रचने को विवश है। हमारे नये इतिहास के काल प्रवाह के साथ-साथ साहित्य संबंधी अभिरुचि में बदलाव आया है। पाठक की अपेक्षाएँ आज के रचनाकार से भिन्न प्रकार की हैं। परिणामतः प्रचलित साहित्यरूपों की अभ्यस्तता को तिरस्कृत करते हुए नए साहित्यरूप, नयी अभिव्यक्तियाँ तथा नयी शैलियाँ जन्मीं हैं।”1 नये युग और नये जीवनबोध के साथ सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के परंपरागत प्रतिमान पुराने पड़ जाते हैं, इसी से नये रूप और शैलियों का विकास होता है।
विगत कुछ वर्षों में कथेतर ने हिंदी पाठकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई है तो इसके मूल में यथार्थ की वह प्रमाणिकता है जो कथेतर गद्य में दिखाई देती है। बदलते परिवेश में रचनाकार कविता, कहानी, नाटक जैसे हिंदी के सीमित अनुशासनों के बीच अपनी अभिव्यक्ति को अपर्याप्त पा रहा है जिस कारण वह संस्मरण, यात्रावृत्तांत, आत्मकथा, जीवनी, रेखाचित्र, निबंध जैसी विधाओं की ओर मुड़ रहा है और इन विधाओं में कई पठनीय रचनाएँ पाठकों के सामने आ रही हैं। हिंदी साहित्य की इस नई प्रवृत्ति पर कथाकार और संपादक अखिलेश कहते हैं – “नयी
सदी में हमारे रचनाकारों ने कहानी, उपन्यास, आलोचना से भिन्न गद्य के अभिव्यक्ति रूपों में अपनी सक्रियता तथा हलचल बढ़ायी है। न केवल इतना बल्कि कई बार वे नये रूपों को आविष्कृत करने का जोखिम भी उठा रहे हैं। गद्य की जैसी समृद्धि और चहल-पहल पिछले कुछ वर्षों से दिखाई दे रही है वह विरल है। संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी, यात्रा वृत्तांत, साक्षात्कार, डायरी, पत्र, रिपोर्ताज नामालूम कितने माध्यम हैं जिनमें बहुत सशक्त लेखन किया जा रहा है। इस तरह के लेखन की जितनी यादगार पुस्तकें पिछले कुछ वर्षों में दर्ज हुई हैं, उतनी संभवतः समूची सदी में नहीं हुई होंगी। जाहिर है यह अत्युक्ति सा लगता कथन हम केवल हिन्दी साहित्य में कथेतर और गैर आलोचनात्मक गद्य के बारे में कर रहे हैं।”2
हिन्दी साहित्य में कथेतर की इस लोकप्रियता के कारणों पर जब हम नजर डालते हैं तो पाते हैं कि- 1) मध्यवर्ग के उभार और 2) बदलते परिवेश में वैयक्तिकता के प्रति आग्रह; ये दो वजहें हैं जिसके कारण पाठकों का रुझान कथेतर की ओर बढ़ा है। क्योंकि कथा साहित्य की कल्पनाशीलता के बरअक्स भोगे हुए यथार्थ का वर्णन कथेतर में प्रमुखता से होता है। अपने एक साक्षात्कार में अखिलेश जी इस तथ्य को रेखांकित करते हुए कहते हैं- “अभी जो वातावरण मुझे महसूस हो रहा है उसमें लोगों का रुझान सृजनात्मक गद्य की ओर बढ़ा है और उसका कारण यह भी है कि जब से हमारे समाज में आधुनिकता की प्रक्रिया तीव्र हुई है, निजता का उभार अधिक हुआ, इंसान की अपनी निजता की गरिमा का मूल्य बढ़ा है, उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है, तब से संस्मरण, डायरी आदि की तरफ आकर्षण बढ़ा है। दूसरी ओर यह भी है कि समाज में जो मध्य वर्ग का विस्तार हो रहा है...यह आप मानेंगे कि भूमंडलीकरण के बाद हमारे भारतीय समाज में मध्य वर्ग का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है वह भी सृजनात्मक गद्य- नॉन-फिक्शन के प्रति रुझान बढ़ने का कारण है।"3
कथेतर के विकास में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी गद्य के विविध रूपों के विकास में हिन्दी पट्टी से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं का बड़ा योगदान है। दूसरे शब्दों में कहें तो “साहित्य के इतिहास में पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्त्व होता है। साहित्य की नयी प्रवृत्तियाँ, उसमें होने वाले प्रयोग और नूतन दृष्टिकोण सर्वप्रथम पत्रिकाओं के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाते हैं।”4 इस रूप में हम 21वीं सदी की शुरुआत में कथाकार अखिलेश के संपादन में लखनऊ से निकलने वाली 'तद्भव’ पत्रिका को अपने बीच पाते हैं। ‘तद्भव’ अपने प्रकाशन के आरंभ से ही कथेतर को लेकर बेहद सजग रहा है। कथा विधा के अतिरिक्त इसने कथेतर गद्य में कई उत्कृष्ट रचनाएँ हिन्दी साहित्य जगत को दी हैं। इनमें ‘लखनऊ मेरा लखनऊ’, ‘नंगा
तलाई का गांव’, ‘बिसनाथ
का बलरामपुर’, ‘रवि
कथा’, ‘कितने
शहरों में कितनी बार’(संस्मरण); ‘मुर्दहिया’,
‘मणिकर्णिका’, ‘मुड़
मुड़ के देखता हूँ’, ‘जीवन
क्या जिया’(आत्मकथ्य); ‘बादलों
में बारूद’, ‘जो
नहीं हो सके पूर्णकाम’, ‘हरे
जादू की जमीन’(यात्रा साहित्य); ‘जिन्दा
जुनूनों का कोलाज’, ‘अस्तर
की कतरनें’(डायरी) जैसी रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। इस तरह कथेतर गद्य की अनेक विधाओं जैसे आत्मकथा, डायरी, यात्रा वृत्तांत, साक्षात्कार, संस्मरण आदि को न केवल ‘तद्भव’ ने महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है बल्कि इनके लगातार प्रकाशन द्वारा ऐसी रचनाओं को अधिकाधिक सामने लाने का प्रयास हिन्दी साहित्य की ‘तद्भव’ जैसी पत्रिका के माध्यम से किया जा रहा है। इसी संदर्भ में कथेतर की महत्वपूर्ण विधाओं में से एक संस्मरण विधा के आलोक में समकालीन हिंदी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका 'तद्भव’ में प्रकाशित संस्मरणों का विवेचन किया गया है।
स्मृति के आधार पर जब किसी विषय या व्यक्ति का वर्णन किया जाता है तो उसे संस्मरण कहते हैं। संस्मरण में “जीवन की किसी अतीत घटना, व्यक्ति या वस्तु के प्रति लेखक की भावात्मक प्रतिक्रिया का प्रकाशन होता है”।5 व्यक्तित्व चित्रण, आत्मीयता, चित्रात्मकता, स्मृति, कथात्मकता, प्रमाणिकता और तठस्थता संस्मरण की विशेषताएँ हैं। हिंदी साहित्य में यह अपेक्षाकृत नई विधा है जिसकी शुरुआत द्विवेदी युग से होती है। अन्य गद्य विधाओं के विकास के अनुरूप ही संस्मरण साहित्य का विकास भी सर्वप्रथम पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ। “प्रायः प्रत्येक नई विधा अपने आगमन की घोषणा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से करती है। संस्मरण साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। 'सरस्वती' इस युग की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पत्रिका थी और संस्मरण साहित्य ने इसके माध्यम से ही अपने अस्तित्व की सूचना दी।”6 बाद में हिंदी की प्रायः सभी पत्रिकाओं ने संस्मरण साहित्य को प्रमुखता दी जिसके फलस्वरूप कथेतर की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक विधा के रूप में इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी।
'तद्भव' की पहचान हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में इसके विशिष्ट रचना संचयन और सृजनात्मक गद्य को लेकर है। 'तद्भव’ में हिंदी साहित्य के विविध रूप और विषय पूरी उदारता के साथ प्रकाशित होते हैं। इस क्रम में हिंदी के कई बेहतरीन संस्मरण सर्वप्रथम 'तद्भव' के जरिये हिन्दी साहित्य जगत में पहचाने और सराहे गये। इनमें मनोहर श्याम जोशी की ‘लखनऊ मेरा लखनऊ’, विश्वनाथ त्रिपाठी की ‘नंगा तलाई का गाँव’, हबीब तनवीर की ‘विलायत के वाकिये’, ममता कालिया की ‘रवि कथा’, रवींद्र कालिया की ‘बेचैन रूह का मुसाफिर’, विश्वनाथ त्रिपाठी की ‘फिराक वार्ता’, तथा ‘बिसनाथ का बलरामपुर’, ममता कालिया की ‘कितने शहरों में कितनी बार’, समीक्षा ठाकुर की ‘थी वो इक शख्स के तस्ववुर से...’, मैनेजर
पांडे की ‘बाबा नागार्जुन को याद करते हुए’ जैसी रचनाएँ अत्यंत पठनीय हैं। ‘तद्भव’ में प्रकाशित संस्मरण एक ओर जीवन के विविध क्षेत्रों यथा- साहित्य, कला, रंगमंच, उद्योग, गायन आदि से जुड़े विशिष्ट लोगों से संबद्ध है तो दूसरी ओर अति सामान्य समझे जाने वाले मनुष्यों से भी।
‘नंगातलाई का गांव’ में विश्वनाथ त्रिपाठी अवध क्षेत्र के अपने गाँव बिस्कोहर को कुछ इस तरह से याद करते हैं कि यह पुरानी ग्राम्य संरचना, उसमें रहने वाली विभिन्न जातियों, उनके रहन-सहन और आर्थिक स्थिति का रोचक शैली में समाजशास्त्रीय अध्ययन मालूम पड़ता है। उनकी सृजनात्मकता में समाजशास्त्र घुल-मिल गया है। ‘नंगातलाई का गाँव’ में उन्होंने तिरबेनी तिवारी, फागू मिसिर, बुधरात दुबे के साथ, महरिन दाई, लख्खा बुआ, बल्दी बनिया, शमशेर प्रधान, कसेर बाबा, शिवबालक साहू, शकूरे धुनिया, किन्नू कुंजड़े को भी याद किया है। ये चरित्र मिलकर गांव की जातिगत विविधता, उनके बीच के आर्थिक स्तर व सामाजिक रहन-सहन को बयान करते हैं। गाँव की जातिगत संरचना के बारे में बताते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं- “तेवारी, दूबे, मिसिर के घरों के पास धरकार ठठेर, कसेर, लहेर, दमगड़, कुंजड़ों के घर थे। कुंजड़े मुसलमान थे।”7 बिस्कोहर तब कितना जातिगत विविधता से भरा हुआ था इसे बताते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं- “पटेर स्त्रियों के आभूषण संबंधी धागे की चीजें बनाते थे जैसे चोटी, फुंदना आदि। लहेर लाख का काम करते थे। पास ही हीरा लहेर रहते थे। एक जरगर जाति थी, जो हिंदुओं में सुनार होता है उसे मुसलमानों में जरगर कहते हैं। धानुक बांस की चीजें बनाते थे। चिड़िमार यानी बहेलिए भी थे। डफाली डफ बजाते थे, बिस्कोहर में ताजिये बनते थे। कुछ दफादार, अग्रहार थे।...चिकवा बकरा काटते थे। और भी अनेक जातियां थीं जो अब बिस्कोहर में भी नहीं रह गयी हैं या धीरे धीरे खत्म हो रही हैं।”8 व्यावसायिक आधार पर गाँवों में पहचानी जाने वालीं अनेक जातियाँ अब धीरे-धीरे गायब हो चुकी हैं। आधुनिकता के प्रवेश और पलायन ने गाँवों से इन जातियों को अपना परंपरागत पेशा छोड़कर मजदूर में तब्दील हो जाने को विवश किया है।
इन विविध व्यावसायिक जातियों के अतिरिक्त विश्वनाथ त्रिपाठी ने गाँवों के सामाजिक सौहार्द, द्वेष, शरारतों और सांप्रदायिक एकता का भी वर्णन किया है। धर्मनिरपेक्षता ऐसी की मुसलमान शमशेर बिस्कोहर के आजीवन प्रधान रहे, द्वेष ऐसा कि जरा सी बात पर खेत और घर जला दिये जाते और सहयोग की भावना ऐसी कि घर की आग बुझाने वालों में सहायता के लिए सबसे आगे वही रहता जिसने आग लगाई होती थी। बिस्कोहर के सांप्रदायिक सौहार्द का वर्णन करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं- “गाँव में सबसे बड़ा सांस्कृतिक या धार्मिक पर्व मोहर्रम होता था।...जो बेड़िनें या वेश्याएं थीं उस दिन व्रत रखती थीं, स्नान करते केश खुले रखतीं और दो दिन का उपवास रखतीं। उनके चेहरे भक्ति भावना से आपूरित होते। वे सामूहिक रूप से या अकेले में मर्सिया गाती थीं।...बिस्कोहर में जिनका साहित्य और संगीत से कोई संबंध नहीं है उनके भी रक्त में मर्सिया की धुन और करुणा बसी होगी। रामचरितमानस और मर्सिया दोनों का प्रभाव बिसनाथ के रक्त में समान भाव से डूबा हुआ है।”9 विश्वनाथ त्रिपाठी का संस्मरण बिस्कोहर की कथा के बहाने भारतीय ग्रामीण जीवन सभ्यता का आख्यान है जिसमें लोक सौंदर्य की मिठास और अवधी की सरलता है।
चरित्रांकन संस्मरण की एक प्रमुख विशेषता होती है। किसी विशिष्ट व्यक्ति, वस्तु या स्थान के चरित्र को उभारना संस्मरण लेखक का उद्देश्य होता है। ‘नंगातलाई के गाँव’ में नायक ‘बिस्कोहर’ है अतः संस्मरणकार ने विभिन्न वस्तु-स्थितियों के द्वारा बिस्कोहर का समग्र चित्र पाठकों के सामने खींचा है। वहीं मनोहर श्याम जोशी ने ‘लखनऊ मेरा लखनऊ’ में लखनऊ में बिताए अपने छात्र जीवन के बहाने तत्कालीन छात्र राजनीति और लखनऊ के परिवेश को याद किया है। जोशी जी ये स्वीकार करते हैं कि उनके व्यक्तित्व निर्माण में लखनऊ का खासा योगदान रहा है। “इस नगरी में ही वह कल के वैज्ञानिक से आज के कलमघिस्सू बने और यहीं उन्होंने खालिस बगावत और इंटेलैक्चुअलता के चंद साल गुजारे।”10 लखनऊ में ही उनका परिचय कम्युनिस्ट मंडली और अमृतलाल नागर, यशपाल, रघुवीर सहाय जैसे हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों से हुआ। जोशी जी ये स्वीकार करते हैं कि उन्हें भाषा ज्ञान अपने पहले साहित्य गुरु अमृतलाल नागर से मिला जिनसे उनकी पहली मुलाकात लखनऊ लेखक संघ में हुई थी। लखनऊ में साहित्यिक माहौल का आलम यह कि यहीं आकर जोशी जी “लेखक वेखक बन गये। गोष्ठियों में जाने लगे। काफी हाउस में काफी पिलाने वालों की संगत करने लगे। लेखक बनने के लिए तब का लखनऊ एक आदर्श नगर था। यशपाल, भगवती बाबू और नागर जी ये तीन तीन उपन्यासकार वहाँ रहा करते थे। तीनों से जोशी जी का अच्छा परिचय हो सका।”11 सहज भाषा-शैली में लिखा गया यह संस्मरण तत्कालीन लखनऊ के बौद्धिक और साहित्यिक परिवेश पर व्यंग्य विनोद शैली में लिखा सहज आख्यान बन पड़ा है।
‘तद्भव’ में विशिष्ट व्यक्तित्व के चरित्रांकन से संबंधित संस्मरण अधिक हैं जिनमें पूरी आत्मीयता के साथ संस्मरणकार से जुड़े व्यक्ति के व्यक्तित्व को विभिन्न कार्यकलापों और घटनाओं के माध्यम से उभारा गया है। ‘रवि कथा’ में ममता कालिया जी ने अपने हमसफर, हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कहानीकार और ‘वागर्थ’, ‘नया
ज्ञानोदय’, ‘वर्तमान
साहित्य’ जैसी कई महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादक रवींद्र कालिया जी को याद किया है। ममता जी के इस भावपूर्ण संस्मरण में न केवल रवीन्द्र कालिया जैसी शख्सियत से परिचित होने का मौका मिलता है बल्कि इसके माध्यम से एक फिक्रमंद पत्नी, एक प्रेमिका की नाजुक भावना भी देखने को मिलती है जो बात-बात में अपने प्रेमी को बड़ी मासूमियत से याद करती है। संस्मरण का आरंभ कालिया जी की बीमारी और उनके आखिरी दिनों के वर्णनों से होता है किंतु शीघ्र ही ममता कालिया जी खुद को संभालते हुए सुखद क्षणों और संघर्ष के दिनों की याद साझा करने लगती हैं। रवींद्र कालिया जी के व्यक्तित्व को याद करते हुए वे लिखती हैं- “रवि एक आजाद तबीयत इंसान थे। जब तक कोई उनकी आजादी में खलल नहीं डालता, वे दत्तचित्त अपना काम करते रहते। ऊर्जा इतनी की दफ्तर से आकर कहानी लिखने बैठ जाते। मन होता तो मेरे साथ समुद्र तट की सैर कर आते। लौटकर कुछ देर हम दोनों अनुवाद का काम करते।”12 पूरी आत्मीयता और अंतरंगता में डूबकर लिखा गया यह संस्मरण एक जुझारू साहित्यकार व संपादक, फिक्रमंद पिता, पति और प्रेमी, दूसरों की सहायता करने को हमेशा तत्पर रवींद्र कालिया को नजदीक से समझने का अवसर देता है।
इसी आत्मीयता व अंतरंगता से लिखी गई दूसरी संस्मरण कृति ‘फिराक वार्ता’ है जो कि ‘तद्भव’ के सातवें अंक में प्रकाशित हुई थी। उर्दू के जाने माने शायर रघुपति सहाय ‘फिराक’ की शख्सियत विरोधों का पुंज रही है। वे अपनी शायरी के लिए जितने मशहूर थे, अपने बारे में प्रचलित किस्सों को लेकर उतने ही बदनाम। संस्मरणकार विश्वनाथ त्रिपाठी की उनसे नजदीकी रही है लेकिन उनके साथ हुई शुरुआती मुलाकात उतनी ही नाटकीय। इस बारे में याद करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी अपने संस्मरण में लिखते हैं- “एक दिन सुबह मैं अकेले उनके घर गया। मैंने देखा कि एक आदमी लान पर सिगरेट पी रहा है और इस तरह से पी रहा है जैसे एक ही कश में सिगरेट को खत्म कर देगा। मैंने अनुमान लगाया कि यही होंगे फिराक साहब।...तो मैं उनके पास गया और पूछा कि फिराक साहब आप ही हैं? तो उन्होंने कहा कि हाँ जनाब रघुपति सहाय फिराक मैं ही हूँ; आइए बैठिए।...मैंने उनको अपना परिचय दिया तो जैसे उनका अंदाज था उन्होंने छूटते ही कहा कि अच्छा हिन्दी में एम.ए. कर रहे हो?...इसके
बाद उन्होंने हिन्दी कविता को, हिन्दी वालों को इतने हास्यास्पद ढंग से बुरा भला कहा कि मेरी खोपड़ी झनझना गयी। फिर मैंने हिन्दी के बड़े बड़े लेखकों का नाम लेना शुरु किया..लेकिन मैं जिस भी लेखक का नाम लूँ फिराक साहब एक एक करके सबको गालियाँ दें और आखिर में उन्होंने द्विवेदी जी को भी कुछ कहना शुरू किया। मैंने उनसे कहा कि साहब द्विवेदी जी के बारे में कुछ मत कहिए, वे मेरे गुरु हैं। तो उन्होंने और ज्यादा कहा, अंग्रेजी में कहा-जिसका मतलब था बीसवीं सदी में मूंछें रखने का क्या मतलब (द्विवेदी जी मूंछें रखते थे।) तो अजीब बात ये हुई कि मैंने उनसे कहा कि फिराक साहब मैं आपको ढेला मार के भागूँगा और आप मुझे पकड़ नहीं पाएँगे। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, वैसा ही गुस्सा जो एक देहाती लड़के का गुस्सा होता है। मेरी बात सुनकर फिराक साहब बड़ी जोर से हँसने लगे और कहा कि तुम तो असली हिन्दी वाले हो।”13 विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार फिराक साहब ‘परस्पर विरोध के पुंज’ होते हुए भी असीम प्रतिभा के धनी थे। अजीब थी उनकी शख्सियत कि “जिस तरीके से फिराक साहब की बातों से विकर्षण पैदा होता था उसी तरह से साथ साथ एक आकर्षण भी पैदा होता था कि ये अजीब किस्म का आदमी है जो सबको गाली देता है और इतना बड़ा शायर कहा जाता है। ये अपनी पी.सी.एस. की या कुछ लोग तो कहते हैं कि आई.सी.एस. की नौकरी छोड़कर स्वाधीनता आंदोलन में जेल गया था। जवाहरलाल नेहरू के साथ रहा है। मोतीलाल नेहरू का सेक्रेटरी था।”14 इस विस्तृत संस्मरण में बड़ी साफगोई से फिराक गोरखपुरी के निजी एवं पेशेवर जीवन, उनके व्यवहार एवं विचारों को याद किया गया है।
हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह पर ‘तद्भव’ में प्रकाशित संस्मरण हिन्दी के इस प्रकाण्ड विद्वान और ठसक से भरपूर अपनी खास छवि के लिए प्रसिद्ध नामवर सिंह के उस पक्ष से हमारा परिचय कराते हैं जो भावुक है, उदार है और वत्सल भी। हालांकि साहित्यकार नामवर सिंह का आभामंडल घर में भी उसी प्रकार है। बनारस आने पर भाई काशी कुछ इस तरह सेवाभाव में जुट जाते मानो साक्षात् भगवान घर आए हों। बच्चे पहले से ही नहा-धोकर भगवान की अगवानी के लिए दरवाजे पर खड़े मिलते। दिल्ली से बनारस आने का ऐसा ही एक वर्णन काशीनाथ सिंह के पुत्र सिद्धार्थ सिंह अपने संस्मरण ‘नामवर सिंह और नामवर बाबूजी...’ में
करते हैं- “जिस क्षण का इंतजार था वो घड़ी भी आ गई। नामवर बाबूजी का आगमन हुआ। छः बच्चों की फौज साफ सुथरे कपड़ों में बाल वाल टे कर दरवाजे पर तैनात, अपने पापा के भगवान को भरपेट देखने के लिए और सिर्फ यह उम्मीद के लिए कि शायद वह हम लोगों को एक नजर भर के देखें तो सही। उन्होंने हमें देखा कि नहीं देखा, याद नहीं। लंबे लंबे डग भरते हुए वे घर में घुसे। लोलार्क कुंड, भदैनी के नीचे के कमरे में ले जाते हुए उनके पीछे हैं पापा; अति उत्साहित, अति सुरक्षात्मक और बालसुलभ हरकतें करते हुए, मानो कोई उनके भगवान को उनसे छीन न ले। हम भी भगवान से उनकी दृष्टि रूपी प्रसाद की आकांक्षा लिए उनके पीछे पीछे।”15 दूसरी ओर भगवान का वह रूप भी है जो सहज, सरल और वत्सल है। आलोचक के जीवन में यह परिवर्तन तब आता है जब बिटिया गीता (समीक्षा ठाकुर) पिता के साथ रहने दिल्ली आती हैं। सिद्धार्थ सिंह कहते हैं- “इस लाडली बिटिया ने नामवर बाबूजी के जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया, अब वह ज्यादा चहकने लगे, खुश रहने लगे और ठहाके लगाने लगे।”16
नामवर सिंह जी की पुत्री समीक्षा ठाकुर पिता पर लिखे अपने संस्मरण ‘थी वो एक शख्स के तसव्वुर से...’ में
ऐसी ही एक घटना को याद करती हैं जो नितांत निश्चल और संतान वत्सल है- “एक दिन आलोचना का प्रूफ देखते हुए अचानक नानू ने आवाज लगाई- ‘जल्दी आओ’- जब मैं नीचे आई तो उन्होंने कहा-“जरा बैठो! और सुनो महान कवि फेदरिको गार्सिया लोर्का की यह कविता-
मां
चांदी कर दो मुझे
बेटे बहुत सर्द हो जाओगे तुम
मां
पानी कर दो मुझे
बेटे
जम जाओगे तुम
मां
काढ़ लो न मुझे तकिए पर
कशीदे की तरह
कशीदा
हां
आओ।”
पाठ के दौरान उनकी आंखों में छलकता दूधिया वात्सल्य मैं साफ साफ देख पा रही थी। इसके बाद एक कागज पर इस कविता को लिखकर उन्होंने दिया। अपनी पसंद की कविताओं को एक कागज पर लिखकर दिया करते थे। इसी क्रम में त्रिलोचन की ‘चंपा काले काली अच्छर नहीं चीन्हती’ भी लिखा था। साथ ही मुझे चिढ़ाते हुए बोलते- चंपा पढ़ लो, पढ़ लेना अच्छा है। और मैं कहती- सुंदर ग्वाला है, गाय भैंसे रखता है। यही नहीं इन कविताओं पर पोस्टर बनाने के लिए भी प्रेरित करते।”17 हिन्दी आलोचना को रचनात्मकता की ऊँचाई देने वाले विद्वान नामवर सिंह पर ‘तद्भव’ में प्रकाशित इन संस्मरणों को विश्वनाथ त्रिपाठी के ‘हक अदा न हुआ’ और काशीनाथ सिंह के ‘घर का जोगी जोगड़ा’ की अगली कड़ी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।
विधाओं की सीमाएँ हिंदी गद्य में आज टूट रही हैं, इसका कारण है कि जीवन के नए दबावों के फलस्वरूप नए भावबोध का प्रकटीकरण साहित्य के बंधे-बंधाए खांचे में नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज अधिकतर लेखक अपनी रचना को किसी विशेष विधा के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाना पसंद नहीं करते। विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी रचना ‘नंगातलाई का गांव’ को स्मृति आख्यान कहा है। ममता कालिया कि ‘कितने शहरों में कितनी बार’ सिर्फ संस्मरण नहीं हैं, वे ममता कालिया के आत्मलेख जैसे हो गए हैं। किंतु इसके मूल में जो है, जिसके कारण किसी कृति को संस्मरण कहा जा सकता है, वह है-स्मृति। संस्मरण दरअसल अतीत का सम्यक स्मरण है। अतीत का यह स्मरण स्मृति द्वारा होता है, इसलिए इसे स्मृति-चित्र भी कहते हैं। अतः संस्मरणों में सत्यता, तथ्यात्मकता और वस्तुपरकता का प्रश्न हमेशा खड़ा होता है। कथाकार अखिलेश कहते हैं- “दरअसल संस्मरण कभी भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकते। क्योंकि लिखनेवाले के पास पूरी की पूरी याद नहीं बची रह पाती है। कभी उसकी पूंछ पकड़ में आती है, कभी कोई हाथ या कभी उस हाथ की सिर्फ उँगलियाँ या कभी कभी एक उँगली भर”।18 वस्तुतः संस्मरण अतीतजन्य विशिष्ट अनुभव होते हैं जिन्हें स्मृति के सहारे संस्मरण-लेखक शब्दबद्ध करता है। इनमें लेखक का निजत्व रहता है। ये वास्तविकता, जीवन-यथार्थ और तथ्य पर आधारित होते हैं तथा इनमें अनुभव की प्रामाणिकता होती है। यही कारण है आज संस्मरण बहुतायत में लिखे और पढ़े जा रहे हैं। इन्हें लोकप्रिय बनाने में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं का खासा योगदान है। ‘तद्भव’ में प्रकाशित संस्मरण इन्हीं स्मृतियों के सहारे अपने देखे-भोगे अनुभव को न केवल प्रामाणिकता के साथ रचनात्मक शैली में दर्ज करते हैं, बल्कि कथेतर की संस्मरण विधा को भी समृद्ध करते हैं।
निष्कर्ष : इस प्रकार हम देखते हैं कि कथेतर हिन्दी गद्य के क्षेत्र में ‘तद्भव’ ने उल्लेखनीय कार्य किया है। ‘तद्भव’ कथेतर के क्षेत्र में आरंभ से ही अपनी प्रकाशन नीतियों को लेकर स्पष्ट रहा है यही कारण है कि पत्रिका के हर अंक में कथेतर विधाओं के लिए पर्याप्त अवकाश रहता है। कथेतर हिन्दी गद्य की संस्मरण विधा को समृद्ध करने में ‘तद्भव’ का महत्वपूर्ण योगदान है। विषय वैविध्य की दृष्टि से भी ‘तद्भव’ में प्रकाशित संस्मरणों का अपना महत्व है। श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र कालिया, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, कृष्णा सोबती, नागार्जुन जैसे हिन्दी के ख्यातिलब्ध साहित्यकारों के अलावा उर्दू के प्रसिद्ध शायर फिराक गोरखपुरी, प्रसिद्ध उद्योगपति और ज्ञानपीठ संस्था के न्यासी आलोक प्रकाश जैन पर ‘तद्भव’ में संस्मरण प्रकाशित हुए हैं। तो वहीं इलाहाबाद, बिस्कोहर, लखनऊ, इंदौर और दिल्ली जैसे स्थान भी संस्मरण का विषय बने हैं। ‘तद्भव’ के ग्यारहवें अंक में प्रकाशित प्रसिद्ध लेखक और अभिनेता हबीब तनवीर की ‘विलायत के वाकिये’ रंगमंच कलाकारों के साथ उनके यूरोप यात्रा का संस्मरण है। हिन्दी साहित्य जगत में संस्मरणात्मक कृतियों का इतनी विविधता और बहुलता से प्रकाशित होना कथेतर हिन्दी गद्य के भविष्य के लिए सकारात्मक संकेत है।
1. सं. नगेंद्र, हरदयाल : हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स प्रकाशन, नयी दिल्ली,
2020, पृष्ठ 658
2. अखिलेश : संपादकीय, तद्भव, जनवरी, 2007, अंक-15
3. बनास जन-विशेषांक : आख्यान में अखिलेश, सं.- राजीव कुमार, जनवरी-जून, 2015, अंक 11, पृष्ठ 260
4. सं. नगेंद्र, हरदयाल : हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020, पृष्ठ 587
5. डॉ. मधु धवन : लेखन कला एक परिचय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2015, पृष्ठ 42
6. सं. नगेंद्र, हरदयाल : हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020, पृष्ठ 509
7. तद्भव, जनवरी, 2004, अंक-10, पृष्ठ 122
8. वही, पृष्ठ 130
9. वही, पृष्ठ 129
10. तद्भव, अप्रैल, 2000, अंक-3, पृष्ठ 153
11. वही, पृष्ठ 176
12. तद्भव, नवंबर, 2016, अंक-34, पृष्ठ 205
13. तद्भव, अप्रैल, 2002, अंक-7, पृष्ठ 134
14. वही, पृष्ठ 135
15. तद्भव, नवंबर, 2017, अंक-36, पृष्ठ 239
16. वही, पृष्ठ 243
17. तद्भव, जुलाई, 2021, अंक-43, पृष्ठ 207
18. अखिलेश : वह जो यथार्थ था, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृष्ठ 68
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