शोध आलेख : अरुण कमल की कविता 'धार' : एक अध्ययन / डॉ. दीपक कुमार गोंड

अरुण कमल की कविता 'धार' : एक अध्ययन 
-  डॉ. दीपक कुमार गोंड

शोध सार : संगीत, चित्रकला, स्थापत्य कला एवं साहित्य सृजन आदि सभी कलाओं में कलाकार या साहित्यकार कलात्मक ढंग से सम्पूर्ण चेतनाशील परिवेश की अभिव्यक्ति करता है। इस सम्पूर्ण चेतनाशील परिवेश में संगीत कोसुनना, चित्र एवं स्थापत्य कला को देखना साहित्य का आस्वादन करना श्रोता, दर्शक या पाठक का काम है और यह प्रक्रिया आज से नहीं लगभग मानव कला के निर्माण प्रक्रिया से ही इसका आरम्भ हो गया था। वस्तुतः यह प्रक्रिया या परम्परा तब से लेकर आजतक इसलिए चली रही है क्योंकि हर युग का प्रत्येक कलाकार या साहित्यकार अपनी कलात्मकता या सृजनात्मकता से केवल पाठक आदि की भावनाओं को तुष्ट करता है बल्कि अनजाने ही उस सम्पूर्ण चेतनाशील परिवेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म यथार्थ को भी चित्रित करता है। यही कारण है कि इस यथार्थ चित्रण में परम्परा या कैनन के अवलोकनार्थ वह अपना प्रतिमान भी निर्धारित करता रहता है। यदि सृजनात्मक साहित्य के आस्वादन की बात करें, तो कविता का स्थान विशिष्ट है। हिंदी कविता का इतिहास आदिकाल से लेकर समकालीन दौर तक लगभग एक हजार वर्षों से भी ज्यादा का रहा है। उसमें भी गद्य के आविर्भाव ने कविता के क्षेत्र में लगभग सौ वर्षों से ज्यादा का सफ़र पूरा कर लिया है और अभी तक कविता के बारे में बहुत कुछ लिखा, पढ़ा समझा भी चुका है। कविता के बारे में लगभग हर युग के कवियों, विद्वानों ने अपना मत दिया। कविता के बारे में इन मतों के अलावा समकालीन समय में अनेक कवि हैं जिन्होंने केवल कविता कर्म के द्वारा साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया बल्कि स्वयं कविता की सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं गंभीर व्याख्या देने का प्रयास किया। प्रमुखतः अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोकधन्वा, राजेश जोशी, कुमार अंबुज, अनामिका, कात्यायनी, बद्रीनारायण, बोधिसत्व, पंकज चतुर्वेदी, पवन करण, अनुज लुगुन आदि महत्वपूर्ण कवि हैं। इन्होने अपनी कविता के माध्यम से सम्पूर्ण चेतनाशील परिवेश के साथ-साथ कविता के आस्वादन की प्रक्रिया को नए सिरे से देखे जाने के लिए विवश किया है। इन कवियों की कविताओं के भावार्थ अनेक संदर्भों में सन्देश तो देते है लेकिन रसास्वादन में चित्त को शांत करके उसे और बेचैन कर देते है। इसीलिए समकालीन कवि ह्रदय शुन्यता के बजाय सपूर्णता की खोज करता है। हिंदी साहित्य में अरुण कमल और उनकी कविता का स्वर इसी संपूर्णता की तलाश को अभिव्यक्त करता है।

बीज शब्द : धार; कविता; रसास्वादन; मनुष्यता; समकालीनता; मुक्तावस्था; जन चरित्री; उच्छवास; सृजनात्मकता; लोकमंगल; कलाकार; आन्दोलन।

मूल आलेखगोस्वामी तुलसीदास काव्य को 'लोक मंगल' का कारक मानते हुए कहते हैं – “कीरति भणिति भूति भलि सोई सुरसरि सम सबकर हित होई।1 उन्होंने उसी 'भणिति' या काव्य को श्रेष्ठ माना है जिसमें सभी का हित हो और जो लोक कल्याणकारिता हो। रामचन्द्र शुक्ल ने भी कविता के संबंध में लिखा है किकविता मानव एकता की प्रतिष्ठा करने का एक साधन है और यही उसकी उपयोगिता है।2 सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" ने लिखा हैकविता विमल हृदय का उच्छवास है - 'तुम विमल हृदय उच्छ्वास और मैं कान्तकामिनी कविता।3 इसी उच्छ्वास ने पाठक को सहृदयी या आस्वादक बनाया है। सुमित्रानंदन पंत ने भी कविता को 'परिपूर्ण क्षणों की वाणी'4 कहा है। जबकि अज्ञेय का मानना था कि कविता शब्द और अंत में भी यही बात बचती है कि कविता शब्द है। लेकिन इन शब्दों का जो अर्थ है वह अर्थ सम्पूर्ण संसार का भी प्रतिनिधित्व करता है। मुक्तिबोध ने कविता को 'जन चरित्री' कहा है और धूमिल ने तो कविता को आदमी की चीत्कार तक कहा है। तीसरे सप्तक के कवि कुँवर नारायण अपने वक्तव्य में कहते हैं किकविता मेरे लिए कोरी भावुकता की हाय-हाय होकर यथार्थ के प्रति एक प्रौढ प्रतिक्रिया की मार्मिक अभिव्यक्ति है।5 विजयदेवनारायण साही ने भी नयी कविता के ऊपर अपने विचार रखते हुए कहाकविता कवि की भावनाओं तथा परिवेश के बीच संघर्ष की उपज है।6 डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक प्रगति और परम्परा में कविता को एक महान सामाजिक क्रिया माना है जो सामाजिक विकास के समानांतर विकसित होती रहती है।' वहीं नामवर सिंह का मानना था कि कविता सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है। इन सभी मतों में एक बात स्पष्ट है कि कविता सच्चे अर्थो में आमजन के सम्पूर्ण ह्रदय एवं बुद्धि के उच्छवास, मुक्तावस्था, सामाजिकता तथा आस्वाद का विषय है। अर्थात सम्पूर्ण चेतनाशील परिवेश की वाणी है। जिसमें श्रेष्ठता, परिपूर्णता, चरित्र, संघर्ष एवं बुद्धि का भी विकास होता है।

अरुण कमल कविता के बारे में कहते हैं कि मनुष्य के अन्दर, बाहर जो कुछ है, कविता में भी अंततः सब कुछ उसी को व्यक्त करता है। दरअसल अरुण कमल की कविताओं में सम्पूर्णता का भाव निहित है और यह भाव उन्हें शेक्सपियर, तुलसी एवं निराला से मिला है। उनका कविता के क्षेत्र में प्रवेश 80 के दशक में हुआ। यह दौर मूलतः आजादी से मोहभंग का था। भारतीय राजनीति में इंदिरा गाँधी का उदय, भारत-पाक युद्ध, 1975 में घोषित आपातकाल, दो साल बाद के आम चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद नवगठित सरकारें और पुनः से जनता की (नवगठित सरकार) असंतुष्टि, मध्यावधि में कांग्रेस का पुनरागमन, इंदिरा गाँधी की हत्या, नागरिक असंतोष आदि घटनाओं ने मानवीय जीवन के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी गहरा प्रभाव डाला। नई कविता आन्दोलन के बाद सन् 60 के बाद की कविता या साठोत्तरी कविताओं के काल में ही किस्म-किस्म की कविताओं का दौर चला जैसे अकविता, सहज कविता, विचार कविता, नक्सलबाड़ी कविता आदि अनेक तरह की कविताएँ। इसके साथ एक और चीज है वह है अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पूँजीवादी विकसित एवं विकासशील देशों के बीच के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि संबंधों का स्वरूप। इन संबंधों के कारण अधिकांश देश भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पूँजीवादी साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद, नागरिक अधिकार, प्रेस का स्वरूप, सूचना और प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों के अलावा विभिन्न वैश्विक मुद्दों जैसे नस्लवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, बाल-श्रम, नागरिक असुरक्षा, सीमा विवाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, लैंगिक भेदभाव आदि चींजे केवल वैश्विक होकर भारतीय समाज के भी प्रासंगिक मुद्दे हैं। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ आज भी आबादी के नाम पर एक तिहाई हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे हो और जहाँ निरक्षरता, बेरोजगारी, अपराध, कुपोषण आदि का प्रतिशत विश्व के किसी भी देश से ज्यादा होना इस बात की ओर इशारा करता है कि यहाँ आज भी अधिकांश राजनीतिक पार्टियों का नेतृत्व विफल ही रहा है। अरुण कमल की कविताओं में गरीब और कमजोर व्यक्ति की विडम्बना, उनके प्रति पॉवर वालों की हिंसा, लोकतंत्र का नाटक, सत्ता का खेल, उनका स्वार्थ और भूखी जनता की यातनाएँ आदि पर जिस तरह से उन्होंने लिखा है, वैसा उनके समकालीनों की कविताओं में बहुत कम हैं. लोकतंत्र के हर खंभे किस तरह नागरिक समाज से दूर होते जा रहे हैं, एक ओर दुनिया में अमीरों-पूंजिपतियों का वैभव और दूसरी तरह बालमजदूरी करते बच्चे, भीख माँगते बच्चे, भूख से बेहाल आदमी का बीच सड़क पर दम तोड़ना, शांति और अहिंसा, ह्रदय-परिवर्तन आदि पर करारा व्यंग्य करते हुए जनतंत्र की विफलता पर तीखी आलोचना करते हैं –‘प्रजातंत्र का महामहोत्सव छप्पन विध पकवान/जिनके मुँह में कौर माँस का उनको मगही पान

अरुण कमल की कविता के बारे राजेश जोशी जी का मानना हैं अरुण की कविता की एक बहुत बड़ी विशेषता मुझे लगता है यह है कि उसमें समय की कई गतियाँ एक साथ मौजूद हैं। यही कारण है कि अरुण कमल की कविताओं में एक तरफ शेक्सपियर, तुलसी एवं निराला का प्रभाव दिखता है तो दूसरी तरफ नवपूंजीवाद, सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में निजीकरण एवं उदारीकरण की नीतियों से उपजी अनेक समस्याओं का चित्रण मिलता है। अरुण कमल साठोत्तरी लेखन के बाद सक्रिय एवं प्रमुख कवियों में स्थापित हैं। कविता की वापसी वर्ष के रूप में प्रख्यात 1980 में उनकी पहली पुस्तक 'अपनी केवल धार' प्रकाशित हुई और इसी पुस्तक ने उन्हें समकालीन दौर के एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में स्थापित कर दिया। इस पुस्तक की 'धार' शीर्षक कविता पर यदि गंभीरता से विचार करें तो अरुण कमल एवं उनके कवि-कर्म को समझा जा सकता। इसके अलावा उनकी कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं में 'सबूत'(1989) 'नये इलाके में' (1996) और 'पुतली में संसार'(2004) एवं 'मायकोब्सकी' की आत्मकथा का अनुवाद तथा अंग्रेजी में 'वॉयसेज' नाम से भारतीय युवा कविता के अनुवादों की पुस्तक भी प्रकाशित हुई उनके सजग लेखन के लिए उन्हें समयानुसार भारत-भूषण अग्रवाल' पुरस्कार तथा 'शमशेर सम्मान' से सम्मानित किया गया। उनके काव्य संग्रह 'नए इलाके में के लिए उन्हें वर्ष 1998 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। साथ ही उन्होंने कवि-आलोचक, अनुवाद, सम्पादक समाचार-स्तम्भ लेखक के रूप में भी कार्य किया हैं। रूस, चीन, इंग्लैंड देशों की साहित्यिक यात्राएँ एवं ब्राजाविल और कांगो के युवा सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भी इन्होंने भाग लिया। अरुण कमल ने समय-समय पर जो आलोचनात्मक निबंध लिखे हैं, या व्याख्यानादि दिये हैं वे मुख्य रूप से कवि ही हैं एवं आलोचना उनके लेखन का अनिवार्य अंग नहीं है। वे स्वयं आलोचनात्मक लेखन के लिए किसी अतिरिक्त प्रेरणा को आवश्यक मानते हैं। उनका मानना है किबिना नियमित पत्रिका या संस्थान के आलोचना का पोषण कठिन है। आलोचना हमेशा मैदानी यानी आउटडोर खेल है।7 उनका आलोचनात्मक विवेक अपनी परिपूर्ण गंभीरता के साथ लेखन में अभिव्यक्त होता है आलोचनात्मक विवेक की यह शैली, पेशेवर आलोचकों से सर्वथा भिन्न है। उनकी आलोचना, के संबंध में ऐसा कहा जाता है किखासी अनौपचारिक किस्म की आलोचना को प्रचलित शब्द-रूढ़ियों से बचाकर कविता की संवेदनात्मक बनावट में प्रवेश करती है और सहज भाव-बोध की सतह पर उसे उतारती है। सच कहा जाए तो अरुण कमल की आलोचना सतही औसत और विचारधारात्मक हठधर्मिता के दुराग्रह में रचना की पहचान के लिए सक्रिय-सन्नद्ध आलोचना है। यूँ तो कोई भी रचना कभी जीवन-विरोधी नहीं होती, लेकिन ठोस सामाजिक आशय से सम्पृक्त होने पर वह पाठक को अमूर्त भाव-स्थितियों की ओर ले जा सकती है। अरुण कमल के लिए रचना की जीवनधर्मिता का अर्थ है उसकी सामाजिकता के नाम पर भारतीय संस्कृति के प्रति वाम साम्राज्यवादी दुराग्रह और उसके प्रसार की उत्कट लालसा।8 दरअसल समकालीन हिंदी कवियों का एक समूह जो यह मानकर चला कि सृजनात्मकता एवं रचनाधर्मिता के समकालीन बोध के सहारे पुनः हिंदी कविता अपना नया प्रतिमान तलाश लेगी। इसी तलाश ने अरुण कमल और उनके समकालीन कवियों को काव्य लेखन की ओर आकर्षित किया। धारइसी तलाश से उपजी कविता है जिसमें अरुण जी ने 'धार' के इर्द-गिर्द उन लोगों को रखा है जिन्हें इनकी (धार) ज्यादा जरुरत पड़ती है। इस कविता में धार अनमोल है, कुछ के लिए यही मात्र एक विरासत है, संस्कृति है, विकल्प है। जो इस देश में किसी भी गरीब, कमजोर, किसान, मजदूर को शाश्वत एवं सहज ही प्राप्त हो जाती है। गरीब को गरीबी, भूख, यातना, पीड़ा तो विरासत में मिलती है। जिसे वह पुरखों का वरदान समझकर जिन्दगी भर ढोता रहता है। वह इसे अपनी नियति मान लेता है। इस देश में गरीबी, किसानों, मजदूरों की दुर्दशा आदि का मूल कारण केवल यही नियति ही है। जिसे मानकर वह स्वयं लगातार शोषित होता रहता है। इस नियति के सन्दर्भ में अरुण जी कहते हैं कि-

 

'कौन बचा है, जिसके आगे
  इन हाथों को नहीं पसारा"9  

 

इस संसार में अपने को जनता का सेवक या प्रथम या प्रधान सेवक कहिये क्या फर्क पड़ता है के कुशल नेतृत्व प्रयास होने के बावजूद आज भी नागरिक समाज में असंतोष व्याप्त है। इन विभिन्न सेवाओं, सेवकों एवं सेवासदानों के होने के बावजूद देश का किसान, मजदूर हर किसी के आगे अपना हाथ फैला चूका है और यह दुर्भाग्य ही है कि सभी से निराशा होकर भी आज यह वर्ग देश के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है जिन किसानों के हाड़-तोड़ मेहनत की उपज से देश के प्रत्येक जन के रगों में स्वस्थ खून का संचार होता है। जिन मजदूरों के खून-पसीने से आज प्रत्येक देश औद्योगिक संस्कृति, भव्य नगर, इमारत एवं स्मार्ट सिटी का तमगा पहन रहा है। वह केवल उन लोगों से या उन देशों से केवल नियति एवं हुनर का सम्मान भाव ही पाता है। जबकि दशा यह कि -


यह अनाज जो बदल रक्त में
टहल रहा है तन के कोने-कोने
यह क़मीज़ जो ढाल बनी है
बारिश सर्दी लू में
सब उधार का, माँगा-चाहा नमक- तेल, हींग- हल्दी तक
सब क़र्ज़े का?10

आज स्थिति यह हो चुकी है कि उनका सम्पूर्ण जीवन उधार का हो चला है। मौसम के हिसाब से मनुष्य अपने शरीर की रक्षा के लिए अलग-अलग वस्त्र धारण करता है लेकिन उनके पास केवल एक ही कमीज जो हर मौसम में ढाल बनती है और विडम्बना यह कि कमीज भी उधार की है। शरीर का रक्त भी जो अनाज खा कर बनता है शरीर के कोने-कोने में टहलकदमी करके खत्म भी हो जाता है। तात्पर्य है कि देश के इन वर्गों की माली हालत इतनी ख़राब है कि मजदूरी करके या खेती करके भी सब कुछ कर्ज पर ही चल रहा है। जबकि देश के पूंजीपतियों का कर्ज माफ़ किया जा रहा है। दिल्ली की सीमाओं पर पिछले एक साल से ज्यादा समय तक किसानों का आन्दोलन चला। आये दिन मजदूर अपनी मांगों को लेकर हड़ताल करते हैं। विडम्बना कैसी है जिस देश और जिन लोगों के लिए यही किसान और मजदूर सब कुछ करते हैं, उसके लिए आन्दोलन, हड़ताल तो छोड़िये, उन्हें उनका हक मिलने की जगह उधार की जिन्दगी जीनी पड़ती है। कपड़े-लत्ते से लेकर घर की गिरस्ती यहाँ तक की अपने शरीर को भी कर्ज में डूबाना पड़ता है-

'यह शरीर भी उनका बंधक
अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार11

किसान कर्जे से तंग आकर आत्महत्या कर रहा है, मजदूर बेगारी करने पर मजबूर है। यहाँ तक कि स्वयं के अस्तित्व के बारे में सोचने तक का अधिकार छीन लिया गया है। इतनी बधुआयी, गुलामी और बेगारी के बावजूद नियति पुनः धैर्य, शिथिल, समर्पण का पाठ पढ़ाने से नहीं चुकती। वह कहती है जीवन में अपना कुछ भी नहीं। इसलिए कुछ भी पाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। क्योंकि सम्मान, शोहरत, पद, प्रतिष्ठा, अनुसंधान, सिद्धांत एवं उपलब्धि सब कुछ उन लोगों की है जिन्होंने सिद्धांत गढ़े, पूंजी लगाई, नई सभ्यता एवं संस्कृति के द्वार खोले और जिसके बल पर उन्होंने सम्मान और ओहदा पाया। आज भी इतिहास में वही तो दर्ज हैं, लोग राजा अधिक से अधिक सेनानायक को ही याद रखते हैं। क्योंकि कहावत है कि तेल देखो, तेल की धार देखो' ये इन पर ठीक बैठती है। इन्हे केवल काम का प्रतिफल चाहिए, राजा को केवल युद्ध में विजय चाहिए, चाहे हजारों की संख्या में लोग मारे जाय। पूंजीपति को मुनाफा चाहिए, सरकार को विकास चाहिए, देश को तरक्की चाहिए, लोगों को काम चाहिए। इसलिए काम देखो और काम का परिणाम देखो। देश की गरीब, असहाय, बेबस, किसान, मजदूर जनता की दशा से कोई मतलब नहीं है। उन्हें केवल किसान की पैदावार और मजदूर के औजार चाहिए। लेकिन अरुण कमल आगे कहते हैं -

'सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार 12

यहाँ कवि नियति को ही अपनी 'धार' बनाकर तमाम जुल्मों, उपेक्षाओं, अमानवीयताओं को एक ढाल या हथियार रूप में प्रस्तुत करता है। ये किसानों, मजूदरों की धार ही है जो स्वयं उनकी अपनी है। जिसे कोई छीन नहीं सकता, बरसात, हवा, सर्दी से भी कोई हानि होगी। इस धार से ही वह धरती को चीर सका, अन्न उगा सका, पत्थर तोड़ सका, सड़के बना सका, इमारते खड़ा कर सका। बाकि सब कुछ तो उधार है और रहेगा भी। क्योंकि यही उनकी नियति है। इस कविता में कवि 'धार' के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को सचेत करते हुए किसान, मजदूरों पर हो रही अमानवीयता, शोषण एवं उनकी दशा को दर्शाने का प्रयास किया है। उसके पास देने के लिए कुछ नहीं है उसका सम्पूर्ण जीवन कर्ज, गरीबी में ही खत्म हो जाता है। रह जाता है तो केवल ईमानदारी जिसे कवि ने 'धार' शब्द से अर्थवान बना दिया है। यह धार श्रम के क्षेत्र में चाहे औजार की धार हो चाहे ईमानदारी की हो वह उसके लिए सदैव मूल्यवान रही है। जबकि औरों के लिए मूल्यहीन। लेकिन अक्सर देखा गया कि इस धार के बदले उसे (किसान, मजदूर) अपने-आप को बेचना पड़ता है। इस दशा से लगभग हर सरकारें भलीभांति परिचित हैं लेकिन कोई इसे सुधारना नहीं चाहता। सभी को धार चाहिए। इस अनदेखेपन का उदाहरण हमने हाल ही में महामारी के दौर में मजदूरों के विस्थापित होने एवं सड़कों पर दर-दर की ठोकरें खाते, भूखे-प्यासे अपने गाँवों की तरह लौटते देखा है। जिन शहरों को उन्होंने बड़ी-बड़ी इमारते दीं, सड़के दीं, नदी- नाले साफ़ किये, शहरों का कचड़ा साफ़ किया। उन्ही शहरों के लोगो ने उन्हें अनदेखा कर दिया। क्योंकि सभी तेल की धार देखना चाहते हैं। उन्हें उनकी दशा से कोई वास्ता नहीं है। सरकारों की बात करना ही व्यर्थ है।

 

निष्कर्ष : कहना होगा कि अरुण कमल की कविता 'धार' सही अर्थों में शोषक समाज को आईना दिखाती है जिसमें तल्खी नहीं बल्कि बेहद संजीदगी एवं सहजता है। साथ ही इस कविता में धार' का एक साहित्यिक मूल्य भी है अर्थात यह जितना किसान, मजदूर के लिए महत्त्व रखती है उतना ही साहित्यिक मूल्यों एवं रचना-कर्म के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि साहित्य में 'कलम का मजदूर' भी है और किसान 'विप्लव बादल' भी है। अरुण कमल की कविताओं की यह विशेषता रही है कि शून्य अभावशीलता में 'अपनी केवल धार' की सम्पूर्णता ही उन्हें अपने सम्पूर्ण चेतनाशील परिवेश से जोड़ देती हैं। धार कविता के माध्यम से कवि ने प्रगतिशील मूल्यों के साथ-साथ समकालीनता बोध में भी मानवीय मूल्यों की प्रासंगिकता एवं प्रतिष्ठा को महत्त्व दिया है।

 

सन्दर्भ :
1.      रामचरितमानस दोहा 13, चौपाई -5, बालकाण्ड, गीता प्रेस, गोरखपुर, प्रथम सं.2021
2.      रामचंद्र शुक्ल,चिन्तामणि/११कविता क्या है - विकिस्रोत (wikisource.org)
3.      शिवकरण सिन्हा, कला सृजन प्रक्रिया, नागरी प्रेस, दारागंज इलाहाबाद, प्रथम सं 1969, पृष्ठ सं. 158
4.      सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली भाग -1, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 2004, पृष्ठ सं. 163
5.      विद्या निवास मिश्र, अनछुए बिंदु, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, सं. 2008, पृष्ठ सं. 429
6.      डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल, हिंदी आलोचना के नए वैचारिक सरोकार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, चतुर्थ सं. 2021 पृष्ठ सं. 283
7.      अरुण कमल, कविता और समय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2002, पृष्ठ-8.
8.      जयप्रकाशआलोचना पत्रिका, सहस्राब्दी अंक-3 (अक्टूबर-दिसम्बर, 2000), सं० परमानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठ-149.
9.      अरुण कमल, कविता धार कविता कोश से साभार धार / अरुण कमल - कविता कोश (kavitakosh.org)
10.  वही, कविता कोश से साभार, धार / अरुण कमल - कविता कोश (kavitakosh.org)
11.  वही, कविता कोश से साभार धार / अरुण कमल - कविता कोश (kavitakosh.org)
12.  वही, कविता कोश से साभार धार / अरुण कमल - कविता कोश (kavitakosh.org)
 
डॉ. दीपक कुमार गोंड
सहायक आचार्य, कला एवं मानविकी (भाषा) विभाग, क्राइस्ट अकेडमी इंस्टीट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडीज़बेंगलूरु

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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