भारतीय साहित्य और अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में ओड़िआ महाभारत का अनुशीलन / बिश्वजीत कलता

भारतीय साहित्य और अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में ओड़िआ महाभारत का अनुशीलन
- बिश्वजीत कलता

शोध सार : इस आलेख में भारतीय साहित्य और अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में ओड़िआ महाभारत का अनुशीलन किया गया है। प्रारंभ में ही भारतीय साहित्य की अवधारणा एवं ओड़िआ भक्ति काव्यों के सन्दर्भ में अनुवाद के महत्व को रेखांकित किया गया है। इसमें ओड़िआ महाभारत को अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करने से पहले भारतीय साहित्य में महाभारत  लिखने की परम्परा को दिखाया गया है, जिसमें दक्षिण भारतीय भाषाओं से लेकर बंगाली, मराठी, ओड़िआ  आदि प्रांतीय भाषा में अनुदित महाभारत  को उल्लेखित किया गया है। उसके बाद सारला दास रचित ओड़िआ महाभारत  की विषयवस्तु का तुलनात्मक रूप से अल्पीकरण, विस्तृतिकरण, संक्षेप और निक्षेप जैसे बिन्दुओं के द्वारा विश्लेषित कर अनुदित एवं मौलिक प्रसंगों का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। यह सारला महाभारत  शास्त्रीय एवं प्रांतीय संस्कृति का अद्भुत मिश्रण है, जिसे महाभारत  में वर्णित शास्त्रीय प्रसंगों एवं किम्वदंतीमूलक प्रसंगों के सहारे व्याख्यायित किया गया है।

मूल आलेख : भारतीय साहित्य का अर्थ है भारतीय भाषाओँ का साहित्य। भारत में हिंदी, संस्कृत, बंगाली, ओड़िआ, मराठी, गुजराती, पंजाबी, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगू, असमी, कश्मीरी, उर्दू आदि अनेक भाषाएँ हैं। इन सभी भाषाओँ में भारतीय जनता की चित्तवृतियां, परम्पराओं, लोकविश्वासों, राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों और समस्याओं का चित्रण एक समय में समान्तर रूप में हुआ है। ये भाषाएँ भले ही अपनी भाषाई संरचना में भिन्न हैं परन्तु इनकी एक साझी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के चलते इन सभी भाषाओं के साहित्य की आतंरिक प्रवृत्तियाँ हर समय एक जैसी विद्यमान रही है। हमें उसे समझने के लिए तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुवाद-पद्धति की आवश्यकता है। अनुवाद और तुलनात्मक अध्ययन द्वारा विभिन्न भाषाई साहित्य के बीच सेतु, संवाद और सम्प्रेष्ण के साथ-साथ भारतीय साहित्य की अवधारण को भी बल मिलता है।

भक्ति आन्दोलन भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के क्रम में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह भारत के हर एक प्रान्त के समाज, संस्कृति और साहित्य को मिलाने वाली एक कड़ी के रूप में जाना जाता है। इस समय हर भाषा में भक्ति साहित्य का सृजन एवं पुनर्सृजन हुआ जिसमें अनुवाद की एक बड़ी भूमिका रही थी। संत और कवियों ने संस्कृत के पुराण एवं महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रांतीय भाषा में अनुवाद करके हर वर्ग तक इसे पहुंचाने का प्रयास किया। रामायण, महाभारत  का अनुवाद दक्षिण की भाषओं से लेकर हिंदी, असमी, बंगाली, ओडिया, मराठी आदि प्रांतीय भाषाओं में क्रमश: होने लगा। ओड़िआ भाषा में भी पुरे मध्यकाल में यह काम सारला दास तथा अन्यभक्त कवियों ने किया। ओड़िशा में सारला दास के आलावापंचसखाने इस काम को करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें जगन्नाथ दास, बलराम दास, अच्युतानन्द दास, जसोवंत दास, एवं अनन्त दास आते हैं। ये पंचसखा 1510. में श्रीचैतन्य के आदेश अनुसार संस्कृत के महत्वपूर्ण गर्न्थों को प्रांतीय भाषा में अनुवाद करने लगे-

जगन्नाथंक मुख चाहीं, कहान्ति चैतन्य गोसाईं।

पंचसखा को आज्ञा कर, पुराण येते ग्रन्थ सार 1

रामायण, भागवत महापुराण, हरिवंश आदि लोकप्रिय गर्न्थों को जनसामान्य तक पन्हुचानें में इन्होनें अद्वित्तीय भूमिका निभाई। इस शोध आलेख में सारला दास रचित ओड़िआ महाभारत को भारतीय साहित्य और अनुवाद सन्दर्भ में विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है।

प्रांतीय भाषाओं में महाभारत लिखने की परंपरा

संस्कृत साहित्य के लोकप्रिय ग्रंथ महाभारत का अनुवाद कार्य अपने संस्कृति अस्मिता को साथ लेकर चलता गया। सर्वप्रथम तेलुगू भाषा में 11वीं शताब्दी में महाभारत को रचने का प्रयास किया गया था। चालुक्य राजा नरेंद्रदेव 10वीं सदी के राजत्वकाल में तेलुगु कविनानया भट्टने संस्कृत महाभारत के आधार पर तेलुगु महाभारत लिखना प्रारम्भ किया था। अवश्य इसके लिए खुद को चंद्रवंशी कौरव के वंशधर मानने वाले राजा नरेन्द्र देव उन्हें संस्कृत महाभारत का अनुवाद करने के लिए नियुक्त किया होगा। 12वीं सदी से 14वीं सदी के बीच कुछ कन्नड़ कवियों ने कन्नड़ भाषा में महाभारत लिखने का मन बनाया था, उसमेंनागणप्पाने मूल संस्कृत महाभारत के 10 पर्वों का अनुवाद किया था। यह एक असंपूर्ण रचना होने के बावजूद कन्नड़ साहित्य में महत्वपूर्ण प्रभाव रखता है। इसके शेष पर्व कवि तमन्ना के द्वारा लिखा गया। इससे पहले ही श्रेष्ठ कन्नड़ कविपम्पाने 10वीं शताब्दी में महाभारत कथा को लेकरविक्रमार्जुन विरलम्ग्रंथ की रचना की थी। इसे पम्पा महाभारत भी कहा जाता है, जिसमें अर्जुन को नायक के रूप में स्थापित किया गया है। मलयालम साहित्य में महाभारत लिखने का सूत्रपात कविरामानुज एहुतायामऔरएलुत्ताकानने 16वीं शताब्दी में किया था। इन्होनें इसके अलावा रामायण और भागवत का भी अनुवाद किया था। इन ग्रंथों में उनकी मौलिकता भी देखने को मिलती है। इनकी रचना की संपूर्ण कथावस्तु संस्कृत के अनुसार होने के बावजूद उसमें मलयालम लोक संस्कृति का बहुल प्रभाव देखने को मिलता है, जैसे- इसके युद्ध वर्णन में केरल का युद्ध कौशल दिखता है और दुर्योधन और कौरवों की मृत्यु को संस्कृत महाभारत से ज्यादा मार्मिक और कारुणिक दिखाया है।2

            सोलहवीं शताब्दी में कविमुक्तेश्वरबोलचाल की मराठी भाषा में महाभारत का अनुवाद किया था। उनके ग्रन्थ का वनपर्व, सभापर्व, विराटपर्व और सौप्तिक पर्व मराठी साहित्य में विशिष्ट स्थान रखने  के साथ जनसाधारण के बीच काफी लोकप्रिय भी हैं। समसामयिक समाज के जीवंत चित्र इसमें देखने को मिलते हैं। असमी साहित्य में भी 16वीं शताब्दी में राजा नर नारायण के आश्रय में कविराम सरस्वतीने महाभारत का अनुवाद किया था। इसमें महाभारत के वृतांत के साथ-साथ कृष्ण के आदर्श को बीच-बीच में अत्यधिक आग्रहवश स्थापित किया गया है।3

बंगला साहित्य के विशेष कवि कांशीराम ने बंगला में महाभारत लिखा था यह सारलादास के बहुत बाद की रचना है, क्योंकि मध्यकाल तक सारला महाभारत ही बंगला क्षेत्र में प्रचलित रही। इसलिए कांशीराम ने सारला महाभारत को अपने लेखन का विशिष्ट आधार माना। पंजाब में 1748. मेंकृष्णलालनामक जैनिक कवि ने महाभारत का अनुवाद पंजाबी भाषा में किया था।4

            हिंदी साहित्य में उत्तर मध्यकाल में महाभारत अनुदित होने का लक्ष्य किया गया। यह काम अष्टादश शताब्दी में कविगोकुलनाथ’, ‘गोपीनाथऔरमणिदेवने किया था। जिसका प्रशंसा रामचन्द्र शुक्ल भी करते हैं- “इन तीनों महानुभावों ने मिलकर हिंदी साहित्य में बड़ा भारी काम किया है। इन्होनें समग्र महाभारत और हरिवंश(जो महा भारत का ही परिशिष्ट माना जाता है) का अनुवाद अत्यंत मनोहर विविध छंदों में पूर्ण कवित्व के साथ किया है। कथा प्रवेश का इतना बड़ा काव्य हिंदी साहित्य में दूसरा नहीं बना।5 इसके अलावा हिंदी में दोहा-चौपाई में लिखा गयासबलसिंहका महाभारत भी काफी लोकप्रिय है।

            अन्य प्रांतीय भाषाओं के जैसे ही 15वीं शताब्दी में ओड़िआ भाषा में भी महाभारत की रचना हुई, जिसका श्रेयसारला दासको जाता है।  उत्कल व्याससारला दासने अपनेमहाभारतमें 18 पर्वों में महाभारत  की कथावस्तु को लिखा है और इसके लिए उन्होंने व्यास के संस्कृत महाभारत को ही आधार बनाया है। मूल महाभारत के आधार पर अपना ग्रन्थ अनुवाद करने के बावजूद सारला ने बीच बीच में अनेक नवीन प्रसंग जोड़कर अपनी मौलिकता का भी परिचय दिया है। ये नवीन प्रसंग अपनी दृष्टि, सामाजिक और संस्कृतिक अस्मिता का ही परिचायक है। इतना विशाल ग्रंथ समकालीन भारतीय साहित्य में इस प्रकार पूर्णांग के साथ-साथ मौलिकता बनाए रखने का यह अद्भुत और अद्वित्तीय प्रयास था। इनके समसामयिक अन्य भाषाओं के महाभारत ग्रंथों के बीच में यह ग्रंथ एक स्वतंत्र और विशिष्ट स्थान रखता है। सारला महाभारत का प्रभाव ईसके उत्तोरोत्तर महाभारत लेखको में भी दिखता है, जैसे बंगाल के कांशीराम द्वारा रचित महाभारत का मूल आधार सारला महाभारत ही है।

            सारला महाभारत और व्यास महाभारत में अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाए कि कौन सी कथाओं का अनुवाद हुआ है और कौन मौलिक प्रसंग है इसे चार भागों में अल्पीकरण, विस्तृतीकरण, निक्षेप और प्रक्षेप प्रसंग के रूप में देखा जा सकता है। ईससे पहले संस्कृत महाभारत और सारला महाभारत के पर्व सूची को इस प्रकार देखा जा सकता है-

 


व्यास महाभारत

1.         आदि पर्व

2.         सभा पर्व

3.         वन पर्व

4.         विराट पर्व

5.         उद्योग पर्व

6.         भीष्म पर्व

7.         द्रोण पर्व

8.         कर्ण पर्व

9.         शल्य पर्व

10.       सौप्तिक पर्व

11.      स्त्री पर्व

12.      शान्ति पर्व

13.      अनुशासनिक पर्व

14.      आश्रमवासिक पर्व

15.      महाप्रस्थानिक पर्व

16.      अश्वमेध पर्व

17.      मौसल पर्व

18.      स्वर्गारोहण पर्व

सारला महाभारत

1.    आदि पर्व

2.    मध्य पर्व

3.    सभा पर्व

4.    वन पर्व

5.    विराट पर्व

6.    उद्योग पर्व 

7.    भीष्म पर्व

8.    द्रोण पर्व

9.    कर्ण पर्व

10. शल्य पर्व

11. गदा पर्व

12. काइंशिक पर्व

13. नारी पर्व

14. शांति पर्व

15. आश्रमिक पर्व

16. अश्वमेध पर्व

17. मुषली पर्व

18. स्वर्गारोहण पर्व6


 

दोनों ग्रंथों के पर्वों और उनकी क्रम को देखें तो एक दो पर्व के इधर उधर होने के बावजूद अन्य पर्वों और उनकी क्रम में साम्यता है। व्यास का आदि पर्व 80 अध्यायों की अनुक्रमणिका से युक्त हैं, परन्तु सारला दास मूल ग्रन्थ से इन पूर्ववर्ती प्रसंगों(देवताओं के साथ गरुड़ युद्ध से भरत अभिषेक तक) को छोड़कर अपने महाभारत तथा आदिपर्व का आरंभययाति उपाख्यानयाकुरु वंश की उत्पत्तिसे करते हैं। भले ही सारला ने कुछ पूर्ववर्ती प्रसंगों को त्याग किया है लेकिन उन्होंने इसकी पूर्ति अन्य पर्वों में अपनी मौलिकता से की है। इसीलिए मूल महाभारत में जहाँ श्लोक संख्या 1 लाख है वहीं सारला महाभारत की पद संख्या 1 लाख 40 हजार है।

भले ही सारला ने अपनी मूल कथानक व्यास महाभारत से लिया है तब भी अनेक प्रसंगों में मौलिकता देने का प्रयास भी किया है, उसे हम अल्पीकरण, विस्तृतीकरण, निक्षेप और प्रक्षेप के नाम से विश्लेषित किया है।

अल्पीकरण

व्यास रचित मूल महाभारत के कुछ विस्तृत प्रसंगों को सारला दास ने अपने महाभारत में संक्षिप्त कर दिया है। जैसे-

        है मूल महाभारत के वन पर्व में पांडवों के तीर्थ भ्रमण का जो विस्तृत वृत्तांत है उसमें से अधिकांश को सारला ने त्याग किया है जिन कुछ प्रसंगों को सारला ने लिया है वह भी संक्षिप्त रूप में। इसका कारण है कि व्यास सम्पूर्ण भारत के संदर्भ में तीर्थस्थल का वर्णन करते हैं वहीं सारला अपने क्षेत्र के कुछ स्थलों को इसमें स्थान देकर अन्य को संक्षिप्त कर देते हैं।

        मूल महाभारत का शांतिपर्व 365 अध्यायों से युक्त एक बृहद पर्व है परन्तु सारला ने अपने महाभारत में यह पर्व सबसे छोटा और तीन विशिष्ट अध्यायों में समाप्त कर दिया है।

        भीष्म पर्व में प्रदत्त अष्टाध्यायी गीता को सारला ने मात्र कुछ पंक्तियों में वर्णन कर दिया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि सारला नीति प्रचार से ज्यादा रस उद्रेक को बल देते थे।

        विराट राज्य के यहाँ गो हरण प्रसंग में जो युद्ध होता है यह सरला ने व्यास की उपेक्षा काफी सिमित वर्णन किया है।

        इसके अलावा व्यास के मूल ग्रंथ में महादेव-अर्जुन युद्ध, नलोपाख्यान, पृथुलागाभी चरित, नहुष उपाख्यान के साथ और अनेक प्रसंगों को भी सारला दास ने अपने महाभारत में संक्षिप्त कर दिया है।7

 

विस्तृतीकरण

व्यास ने मूल महाभारत में अनेक प्रसंगों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया था उन प्रसंगों को सारला दास ने अपनी मार्मिक स्थल चुनाव और कल्पना शक्ति के सहारे विस्तृति देकर अपने महाभारत की श्रीवृद्धि की है।

       महाभारत में सुभद्रा हरण एक महत्वपूर्ण प्रंसंग है जहां एक साथ प्रेम, श्रृंगार और वीरता देखने को मिलती है। व्यास ने आदिपर्व में इस प्रसंग को रेवत पर्वत पर सुभद्रा के लिए अर्जुन के मन में प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न होते हुए दिखाया है। श्रीकृष्ण के परामर्श के उपरांत अर्जुन ने सुभद्रा का हरण करके विवाह किया था। परन्तु सारला ने इसे मध्यपर्व में विस्तृत और मौलिक रूप से प्रस्तुत किया है। प्रथम सुभद्रा अर्जुन के प्रति आकर्षित हुई और प्रेम निवेदन करती है। किन्तु अर्जुन चरित्र की पराकाष्ठा बचाने के चलते उन्हें बार बार निराश करते हैं। निरुपाय सुभद्रा तब सत्यभामा की सहायता से मायादेवी वशीकरण मंत्र से अर्जुन के पास पहुँच जाती हैं। ऐसे अनेक प्रसंग जो सुभद्रा अर्जुन के मिलन और विवाह के अनुकूल है सारला ने कल्पना करके इस प्रसंग को विस्तृत और खुबसूरत बनाया है।

        मूल महाभारत में भीम के हाथों से जरासंध का वध दिखाया गया है। सारला ने इसे तीन काल्पनिक प्रसंग पूर्वा चरित्र, सिमली पेड़ वृतांत एवं गधा चरित्र को मिलाकर पूरा करते हैं।

        व्यास के महाभारत में पांडवों की दिग्विजय, राजस्व यज्ञ, शिशुपाल वध प्रसंग आदि को संक्षेप में वर्णन किया गया है। सारला ने अपने महाभारत में इन स्थलों को अपनी कल्पना के सहारे विस्तृति देकर ग्रंथ के कलेवर को बढ़ाया है।

       द्रौपदी वस्त्रहरण प्रसंगमूल ग्रन्थ में सारला महाभारत  की तुलना में संक्षिप्त रूप से वर्णित है। परन्तु सारला दास इस मार्मिक प्रसंग पर ठहरकर इसे कुछ और प्रसंगों के साथ जोड़कर विस्तृत वर्णन किया है।

भीम तथा ऋष्यश्रुंग जन्म विवरणी संस्कृत महाभारत में संक्ष्पित रूप में वर्णित है लेकिन सारला ने अपनी महाभारत में इसे विस्तृत और मनोरम रूप में प्रस्तुत किया है। सारला के मार्मिक स्थल चुनाव के चलते और भी ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ वे ठहरकर आगे बढ़ते हैं।8

निक्षेप प्रसंग

व्यास महाभारत के ऐसे अनेक प्रसंगों को सारला ने अपने महाभारत में अंतर्भुक्त नहीं किया है जैसे-

       धृतराष्ट्र के अंधा होने का वृतान्त व्यास ने दिया है कि व्यास का उग्र रूप देकर अंबिका आंखें बंद कर लेती है इसलिए धृतराष्ट्र अंधा पैदा होता है। पर सारला दास इस पर कुछ नहीं लिखते हैं।

        मूल महाभारत में अभिमन्यु मृत्यु के बाद व्यास पांडवों को उपदेश और सांत्वना देते हैं, जिसे 16 अध्यायों में व्यक्त किया गया है। परंतु सारला ने इसे भी अपनी महाभारत में सम्मिलित नहीं किया है।

        संस्कृत महाभारत के शल्यपर्व में दुर्योधन के उरुभंग प्रसंग में सारस्वत उपाख्यान, गांधारी-श्रीकृष्ण प्रवोधना, नंदिघोष में उत्पन्न भयंकर अनल से कृष्ण का अपदस्त होना आदि प्रसंगों को भी सारला ने परिहार किया है।9

प्रक्षेपित प्रसंग

सारला महाभारत में ऐसे अनेक प्रसंग या उपाख्यान हैं जो मूल महाभारत में देखने को नहीं मिलते। यह सब सारलादास की कल्पना प्रसुत मौलिक उद्भावना है जो अपने उद्देश्य, सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और प्रतिभा से निर्मित है। ऐसे कुछ प्रसंग हैं-

 सहाडा वृक्ष का महात्म्य सारला महाभारत के आदिपर्व में धृतराष्ट्र-गांधारी विवाह प्रसंग में वर्णित किया गया है। शिव-बृषभ को संदर्भित कर इस प्रसंग को विस्तार मिलता है। धृतराष्ट्र जन्म के समय में ब्रह्म राक्षस दोष से युक्त हुए थे। वह जिस कन्या से विवाह करते, उसकी मृत्यु हो जाती थी इस प्रकार 108 कन्या काल को ग्रसित हो चुकीं थीं। इस प्रकार गांधार देश की राजकुमारी गांधारी भी अमावस्या की रात को पैदा होने के कारण विषाक्त थी और वह आरंभ के 22 वरों के साथ विवाह कर उन्हें मृत्यु के पास भेज चुकी थी। संयोगबस इन दोनों का विवाह स्थिर हुआ। व्यास के निर्देश से पहले गांधारी का सहाडा वृक्ष के साथ विवाह किया गया, वह वृक्ष फौरन जल गया पर गांधारी दोषमुक्त हो गयी और धृतराष्ट्र के साथ उनका विवाह सफल हुआ।

● वन पर्व में सारला दास ने एक मौलिक प्रसंगसत्य आम कथाकी उपस्थापना की है। पांडव वनवास के समय समय में दुर्योधन परीक्षा के लिए एक ब्राह्मण दूत को भेजता है। जो शरद ऋतु में जाकर पांडवों से आम मांगता है पांडव श्रीकृष्ण के परामर्श से एक आम की गुठली को पोतकर और पानी देकर एक आम का वृक्ष पैदा तो कर देते है पर फल नहीं लगता। तब श्रीकृष्ण कहते हैं सब अपना अपना सत्य कहेंगे तब जा के आम फलेगा। तब पांच भाई अपने अपने सत्य कह देते हैं और आखिर में द्रौपदी अपना सत्य कहती हैं कि वह पांच भाई के अलावा कर्ण को भी चाहती है, यह बात सत्य है और तब पेड़ पर आम लगता है।

उद्योग पर्व मेंवावना भूत कहानीसारला की मौलिक सृष्टि है तुन्गभद्रा नदी के तट पर ज्ञानपूर नाम का एक गांव है जहाँ मृत्यु के पश्चात सभी लोग भूत बन जाते हैं। इसके अलावा और भी अनेक प्रसंग हैं जो मूल महाभारत में नहीं है परन्तु सारला महाभारत में देखे जा सकते हैं। यह सहाडा बृक्ष या ज्ञानपुर जैसे किम्वदंतीमूलक प्रसंग स्थानीयता वोध और लोक संस्कृति के कारण सारला के मस्तिक की उपज होंगे तो वहीँ उनके पुराण और शास्त्र अनुश्रुत ज्ञान के कारण भी अनेक शास्त्रीय प्रसंगों की उद्भावना हुई है।10

सारला दास ने अपनी महाभारत में अनेक विविध प्रसंगों का समाहार भी किया है जो मूल संस्कृत महाभारत में नहीं है वह सब प्रसंग संस्कृत के अन्य पुराण और अन्य रचनाओं से उद्धृत है जैसे- उषाहरण प्रसंग और वाणासुर वधहरिवंश पुराणसे, नरकासुर वध और पारिजात हरणविष्णुपुराणसे, शंखासुर से वेद उद्धारपद्मपुराणसे, श्रीकृष्ण-बलराम विद्याशिक्षा और संदिपनी को गुरु दक्षिणा देनाहरिवंश और विष्णुपुराणसे, राधा-कृष्ण रासक्रीडा वर्णनगीत गोविंदसे प्रभावित, शिव विवाह कथास्कंदपुराण’, गणेश जन्म प्रसंगशिवपुराणऔरबावन पुराणआदि शास्त्रों से लिए हैं। सारला दास ने अतापी-बतापी मृत्यु कथा का उल्लेख किया है जो वाल्मीकि रामायण से लिए है। तथा श्रीमंदिर और जगन्नाथ जैसे अनेक लोक और शास्त्रीय प्रसंगों में सारला की मौलिक चिंतन, जनश्रुति, स्थानीयता बोध, संस्कृति और शास्त्रीयता का एक अद्भुत मिश्रण दिखता है।11

वस्तुतः सारला महाभारत को मूल संस्कृत महाभारत का पूर्ण अनुवाद होते हुए भी उसका अंशानुवाद कहना गलत नहीं होगा। व्यास महाभारत सम्पूर्ण भारत के सन्दर्भ में है तो सारला का ओडिशा के संदर्भ में। उनके महाभारत में मौलिकता, विविध नवीन प्रसंग उद्भावना तथा संक्षेपण और विस्तार आदि दिखता है यह तात्कालिक ओड़िआ की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का परिणाम है।

निष्कर्ष : उपर्युक्त आलोचना से यह देखा जा सकता है कि भारतीय साहित्य में भक्ति काव्य को साझी परंपरा में लाने में प्रांतीय भक्त कवि और अनुवाद दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। दक्षिण भारतीय साहित्य में महाभारत का अनुवाद संपूर्ण रूप से संस्कृत से प्रभावित हुआ है जबकि पूर्वी भारतीय भाषाओं विशेषकर ओड़िआ में मूल संस्कृत का अनुवाद होने के साथ साथ उसमें उससे मुक्ति एवं नवीन प्रसंगों को स्थान देने का प्रयास भी किया गया है। पुनश्च ओडिआ भक्ति काव्यों में सारला दास ने अपने महाभारत के अनुवाद के ज़रिए प्रांतीय साहित्य को भी उजागर किया है। इस ओड़िआ महाभारत ग्रन्थ की कथावस्तु एवं अनुवाद की दृष्टि पर विचार किया जाए तो सारला ने अधिकांशत: मूल ग्रंथ का अनुवाद करने के साथ साथ अपनी मौलिकता का निर्वहन भी किया है जो अपनी प्रांतीय सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता का परिचायक है। इसके आलावा वे समसामयिक सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को अपने काव्य में समाहित कर प्रांतीय ओड़िआ साहित्य के साथ सम्पुर्ण भारतीय साहित्य को भी समृद्ध करते हैं।

 सन्दर्भ :

1.    सर्वेश्वर, दास, महापुरुष जगन्नाथ दास, ग्रन्थ मंदिर कटक, प्रथम संस्करण 1994, पृष्ठ-5
2.    सुरेन्द्र कुमार, महारणा, सारला साहित्य परिक्रमा, ओडिशा बूक स्टोर कटक, प्रथम संस्करण 1981, पृष्ठ-2-6
3.    वही, पृष्ठ- 3-4
4.    Dr. Sukumar, Sen, History of Bengali literature, Sahitya Academy, New Delhi ,1960, page-71
5.    आचार्य रामचंद्र, शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रभात पेपरबैक्स नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ-315
6.    सारला, दास, सारला मह्भारत, सांस्कृतिक व्यापार विभाग ओड़िशा, 2011, अनुक्रमणिका
7.    सुरेन्द्र कुमार, महारणा, सारला साहित्य परिक्रमा, ओडिशा बूक स्टोर कटक, प्रथम संस्करण 1981, पृष्ठ-2-4
8.    वही, पृष्ठ-3-6 
9.    सुरेन्द्र, महान्ति, ओड़िआ साहित्यर आदिपर्व, कटक बूक स्टोर, अष्टम संस्करण 2004, पृष्ठ-102-104
10.   वही, पृष्ठ-164-191
11. प्रो. उदयनाथ, साहू, सारला महाभारत  सृष्टिर भूमिपर्व, चिन्मय प्रकाशन कटक, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ-9-69
 
बिश्वजीत कलता
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
kaltarilu@gmail.com, 8917461954

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

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