शोध-सार : इस लेख का उद्देश्य भारत में देशज समुदायों के बीच लोक-ज्ञान के अनुवाद या अंतरण का निरीक्षणऔर विश्लेषण करना है। देशज समुदायों के लोक-साहित्य में लोक-ज्ञान शामिल होती है और उन्हें मौखिक और प्रदर्शनात्मक तरीकों से अंतरित किया जाता है। इन लोक-ज्ञान का अनुवाद कलाकारों की यादों पर निर्भर करता है जो वे अभ्यासों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। स्मृति- विमर्श का अध्ययन लोक-ज्ञान की पुनरावृत्ति के माध्यम से किया जा सकता है जो अभ्यासों के द्वारा आगे बढ़ाया जाता है। इस लेख में भारत में तीन समुदायों, अर्थात् राजबंशी, कोठिया और सिलहट के साहित्य में अंतर्निहित लोक-ज्ञान को अंतरित करने में कलाकारों की स्मृति की भूमिका पर चर्चा की गई है। अभ्यासों के द्वारा अर्जित और अंतरित ज्ञान की चर्चा उनके लोक-नृत्यों के संदर्भ में की गई है। इन अभ्यासों को आगे बढ़ाने में शरीर और स्मृति की भूमिका के बारे में भी शोध पत्र में बताया गया है।
बीज शब्द : लोक-ज्ञान; लोक-साहित्य; लोक-नृत्य; स्मृति- विमर्श; अभ्यास-सिद्धांत; देशज समुदाय; अनुवाद- अध्ययन; ज्ञान- अंतरण; मौखिक अनुवाद; प्रदर्शनात्मक अनुवाद
मूल आलेख :
स्मृति और अनुवादः लोक-ज्ञान के अंतरण-अभ्यासों पर एक चर्चा -
भारत में देशज समुदायों का लोक-साहित्य ज्यादातर अलिखित और गैर-दस्तावेजी रहा है। फलस्वरूप, इस तरह के साहित्य का अंतरण वाहकों की स्मृति के आधार पर मौखिक रूप से हुआ है। वाहक समुदाय के भीतर के लोग हैं जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अनुवादकों के रूप में कार्य किया है। इस प्रक्रिया में, वाहक/ अनुवादक/ कलाकार का काम संदेश/ विषयवस्तु/ कला को जारी रखना होता है। इस लेख में अनुवाद अध्ययन ऐसी ही अंतरण की प्रक्रिया की जांच करता है और लोक-साहित्य के स्मृति-अंतरण में शरीर की भूमिका का भी आलोचनात्मक विश्लेषण करता है। अनुवाद अध्ययन के सिद्धांतकार शेरोन डीन-कॉक्स लिखती हैं“ स्मृति और अनुवाद के बीच कई और विविध संस्पर्श स्थल हैं, और इन प्रतिच्छेदनों का अनुसंधान दोनों प्रथाओं के निर्मित और निर्माण आयामों में महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि खोलती है क्योंकि वे समय, भाषाओं, सांस्कृतिक और भू-राजनीतिक सीमाओं और मीडिया में एक साथ काम करते हैं।“[1] लोक-साहित्य के अन्तर्गत लोक-गीत, लोक-नृत्य, लोक-कला, लोक-कथा, लोक-रीति इत्यादि शामिल है। इन वर्गों में देशज समुदायों का लोक-ज्ञान युक्त रहती है। इस लेख का उद्देश्य देशज समुदायों के लोक-ज्ञान में स्मृति-अंतरण अथवा स्मृति-अनुवाद के विमर्श को देखना है। अनुवाद और अंतरण शब्द यहाँ विनिमेय हैं क्योंकि वे दोनों समय और स्थान के अनुसार ज्ञान की विविधता को दर्शाते है।
बीसवीं शताब्दी के सबसे महत्त्वपूर्ण व्याख्याशास्त्र के दार्शनिक, हंस-जॉर्ज गैडमेर और पॉल रिकोर, 'अनुवाद' को एक विमर्शात्मक समुदाय से दूसरे में अर्थों का 'वहन' करना मानते हैं[2]। लोक-साहित्य देशज समुदायों का एक अभिन्न अंग है। ये साहित्य समुदायों के लिए भी लोक-ज्ञान या विश्व की दृष्टिकोण का गठन करते हैं। इसलिए, लोक-साहित्य के अंतरण या अनुवाद में ज्ञान का अंतरण या अनुवाद भी शामिल है। क्योंकि लोक-ज्ञान का अंतरण वाहकों की स्मृति पर आधारित होता है; उनका अनुवाद भी याद रखने और व्यक्त करने के साथ एक हो जाती है। इस लेख को तीन खंडों में विभाजित किया जाएगाः स्मृति अनुवाद और लोक-ज्ञान, लोक-नृत्यों में स्मृति और ज्ञान का विमर्श , और अंत में लोक-ज्ञान के अनुवाद अध्ययन में अभ्यास सिद्धांत।
स्मृति अनुवाद और लोक-ज्ञान -
लोक साहित्य में, स्मृति अनुवाद मुख्य रूप से मौखिक स्मृति और कार्यात्मक स्मृति में पाया जाता है। मौखिकता एक तरल रूप है जो लोगों और उनकी भाषा के साथ चलती है। वाल्टर जे. ओंग के शब्दों में, किसी भी भाषा की मूल मौखिकता स्थायी है।[3] मौखिकता के माध्यम से ज्ञान का अंतरण कई समुदायों में मौजूद रहा है। वास्तव में, वेदों जैसे प्राचीन भारतीय साहित्य में भी ज्ञान प्रसार ने इसी पद्धति का पालन किया था। समकालीन अनुवाद सिद्धांतकार और कॉनकॉर्डिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, पॉल बंदिया का मानना है कि मौखिक प्रसारण, रिकॉर्डिंग या लेखन सभी अंतरापृष्ठ या इंटरफेस (Interface) हैं जो भाषा या विभिन्न संचार माध्यमों में अनुवाद के कार्य पर निर्भर करते हैं। इसी तरह, लोक-साहित्य में लोक-ज्ञान का प्रसार काफी हद तक उन वाहकों या कलाकारों पर निर्भर करता है जो स्रोत साहित्य के अर्थ को समझते हैं और इसे मौखिक रूप से कलाकारों के अगले समूह में प्रसार करते हैं। इसलिए, वाहक या कलाकार स्वयं इस तरह के ज्ञान के प्रसार में एक अंतरापृष्ठ की तरह ही कार्य करते हैं। इस प्रकार का प्रसार एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में जारी रहती है। पॉल कॉनरटन ने अपनी पुस्तक हाउ सोसाइटीज रिमेम्बर(How
Societies Remember) में भी दिखाया है कि किसी भी समुदाय की स्मृति विभाजित हैं और उनकी कथाएँ पीढ़ियों के साथ बदलती हैं।[4] अंतरण की इस प्रक्रिया में, उनकी मौखिक और कार्यात्मक स्मृति के अन्तर्निहित लोक-ज्ञान का अनुवाद करने में सहायता करती है और कलाकारों की सृर्जनशीलता उनके मौखिक और कार्यात्मक प्रदर्शनों में देखी जाती है, जैसे कि लोक गीतों, लोक नृत्यों और अन्य लोक रीतियों में।
अनुवाद अध्ययन के सिद्धांतकार डगलस रॉबिन्सन ने अपनी पुस्तक 'बिकमिंग ए ट्रांसलेटर' में विभिन्न प्रकार की स्मृति के बीच अंतर किया है जो एक अनुवादक को एक पाठ को एक भाषा से दूसरी भाषा में ले जाने में सहायता करती है। रॉबिन्सन द्वारा स्मृति वर्गीकरण में दो महत्त्वपूर्ण प्रकार जो मौखिक साहित्य के अनुवाद में उपयोगी है : प्रक्रियात्मक स्मृति और प्रतिनिधित्वात्मक स्मृति। रॉबिन्सन के अनुसार, अनुवादक की अवचेतन स्मृति उस ज्ञान को संगृहित करती है जो उसने बिना सख्ती से जाने सीखा है।[5] प्रक्रियात्मक स्मृति अनुवादक के इस तरह के अनुभवों को जमा करती है। दूसरी ओर, प्रतिनिधित्वात्मक स्मृति अनुवादकों की अनिवार्य सीखने की प्रक्रिया और उनके सचेत प्रदर्शन पर जोर देती है। मौखिक स्मृति दोनों को आत्मसात करती है क्योंकि लोक-रीतियाँ एक निश्चित रूप या पैटर्न का पालन करने का प्रयास करती हैं।लोक रीतियों को पालन करने वालों को अनुवादक मानते हुए, हम उनकी प्रथाओं को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। पहला भाग प्रतिनिधित्वात्मक स्मृति द्वारा शुरू किया जाता है जहाँ सभी प्रतिरूपित व्यवहार अस्तित्व में आ सकते हैं। यह स्मृति उन कलाकारों के लिए महत्त्वपूर्ण है जो सचेत रूप से सीखने, याद रखने और दोहराने की कोशिश करते हैं। दूसरी ओर, प्रक्रियात्मक स्मृति उन अनुभवों को जमा करती है जिन्हें अवचेतन रूप से सीखा गया था। एक कलाकार की कार्यात्मक स्मृति इन दोनों यादों का उपयोग उस चीज़ को दोहराने के लिए करती है जो उसने सचेत रूप से सीखी है और प्रदर्शन के दौरान वह जो सहज कार्यों में सुधार करता है, उन्हें समायोजित करता है।
लोक-नृत्यों में स्मृति और ज्ञान का विमर्श -
लोक-नृत्य द्वारा लोक-ज्ञान का स्मृति अनुवाद समझने के लिए हम तीन लोक नृत्यों के अध्ययनों पर गौर करेंगे: सिलहट का धमाइल नृत्य, आंध्र प्रदेश का डिमसा नृत्य और उत्तर बंगाल का मेचेनी नृत्य।
बांग्लादेश के सिलहट जिले[6] की महिलाओं द्वारा अभ्यास किया जाने वाला धमाइल नृत्य शादी के दौरान किया जाता है। महिलाएँ इस नृत्य को एक वृत्त में प्रस्तुत करती हैं। वे अपने पैरों को जमीन से तेजी से उठती हैं और उछलकर बारी-बारी से घड़ी की विपरीत दिशा में अंदर और बाहर की ओर मुड़ती हैं। साथ ही में कलाकार आगे या पीछे कूदते समय दो या तीन की ताल में अपने हाथों से ताली बजाती हैं। धमाइल गीत आम तौर पर कृष्ण पंथ से संबंधित हैं, लेकिन वे दुल्हन और दूल्हे के बीच वैवाहिक संबंध का भी सूक्ष्मता से उल्लेख करते हैं।
आंध्र प्रदेश का डिमसा नृत्य भी कोठिया समुदाय की महिलाओं द्वारा किया जाता है जो ओडिशा से प्रवास कर चुकी थीं। इस नृत्य में, महिलाएं अपने हाथों को आपस में जोड़कर, या दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर एक जंजीर बनाती हैं। वे वाद्ययंत्रों और नृत्य की लय के अनुसार अपने कदम रखती हैं। महिलाओं द्वारा बनाई गई इस श्रृंखला की चाल अक्सर जमीन पर सांप की चाल से मिलती-जुलती है। डिमसा नाच[7] फसल काटने के त्योहार में या शादियों के दौरान भी किया जाता है।
पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में राजबंशी समुदाय के मेचेनी नृत्य को शोधार्थी ने अपनी पीएचडी परियोजना के दौरान देखा है। यह नृत्य फसल कटाई का उत्सव है और तिस्ता नदी की पूजा करने का कार्य भी है। राजबंशी महिलाएं एक छतरी ले जाती हैं, जो मेचेनी देवी या तिस्ता नदी का प्रतीक है। वे देवी की पूजा के लिए बनाए गए गीत गाते हैं। नृत्य वृत्ताकार या आयताकार रूप में किए जाते हैं और कलाकार ताली बजाते हुए दो कदम आगे और फिर पीछे कूदते हैं। मेचेनी गीत ज्यादातर मेचेनी और शिव की कहानियों का वर्णन करते हैं।
इन सारे लोक-नृत्यों में कार्यात्मक स्मृति और प्रक्रियात्मक स्मृति के ज़रिये लोक-ज्ञान का अंतरण देखा जा सकता है। कार्यात्मक स्मृति संदेश के निर्माण में सहायता करती है जिसका एक विमर्श होता है, या तो संवादात्मक या प्रदर्शनात्मक। संवादात्मक विमर्श का मुख्य उद्देश्य एक बाहरी संदर्भ के बारे में एक संदेश देना है। प्रदर्शनात्मक कार्य का उद्देश्य विमर्श की जटिल बहुस्तरीयता और उनके अर्थों की विभिन्न प्रकार की व्याख्याओं पर केंद्रित है। समुदाय की सामूहिक स्मृति काफी हद तक इस कार्यशील स्मृति पर आधारित होती है। जब ये महिलाएं लोक नृत्य करती हैं, वे नृत्य के बारे में अपने पूर्वजों के संदेशों को भी अगली पीढ़ी तक पहुँचाती हैं।समुदाय की सामूहिक स्मृति काफी हद तक इस कार्यात्मक स्मृति पर आधारित होती है। जबकि महिला लोक नृत्य करती हैं, वे नृत्य के बारे में अपने पूर्वजों के संदेशों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाती हैं। उदाहरण के लिए, डिमसा नृत्य के कदम प्रकृति और मनुष्य के बीच घनिष्ठ संबंध का संदेश देती हैं। कलाकारों द्वारा नृत्य में सांप के चलने की नकल से यह समझ में आता है। इसी तरह, राजबंशी महिलाएँ भी तिस्ता नदी और शिव के बीच के संबंध को याद करती हैं जब वे मेचेनी गीत गाती हैं। यह केवल नदी की पूजा करने का एक उदाहरण नहीं है, बल्कि प्रजनन की अवधारणा पर भी संकेत देता है। मेचेनी गीतों के बोल नृत्य के साथ कृषि उत्पादन के साथ - साथ मानव प्रजनन का जश्न मनाने का संकेत बन जाते हैं। यहां भी हम नदी जैसे प्राकृतिक अस्तित्व के साथ समुदाय का एक विचित्र जुड़ाव पा सकते हैं। मेचेनी पूजा की अवधारणा एक देवी की अलौकिक शक्ति को उत्पादन के साथ जोड़ने का एक प्रयास है। तिस्ता और मेचेनी नदी के बीच खींची गई समानता को उन महिलाओं के प्रतीक के रूप में पढ़ा जा सकता है जो उत्पादक और विनाशकारी दोनों हैं। छतरी को एक आश्रय के रूप में पढ़ा जा सकता है जो एक महिला भविष्य में जन्म लेने वाले बच्चों को प्रदान करती है। समुदायों की कार्यात्मक स्मृति नृत्यों के माध्यम से उत्सव और अस्तित्व का संदेश देती है। यह उनकी सामूहिक स्मृति के संवादात्मक कार्य के रूप में कार्य करता है।
दूसरी ओर प्रदर्शनात्मक विमर्श नृत्य के दौरान कलाकारों के द्वारा किए गए तात्कालिक परिवर्तन या सुधारों में पाया जा सकता है। यह उनके कलात्मक और काव्यात्मक गुणों की पुष्टि करता है। यहाँ विषय-वस्तु के बजाय लोक कथा का रूप प्रमुख हो जाता है। लोकनृत्यों की विषय-वस्तु को कारण और प्रभाव के संदर्भ में नहीं, बल्कि अर्थ-निर्माण के संदर्भ में देखा जाता है। एक कलाकार की मौलिकता जो वह लोक नृत्य में जोड़ती है, उसी से एक समकालीन ज्ञान की एक छोटी इकाई पैदा होती है। इसी तरह, कलाकारों की एक पीढ़ी कला रूप में अपने विभिन्न विशेषता को जोड़ती है, जो बाद में लोक कला के लिए उस समय की निशानी बन जाती है। उदाहरणस्वरूप सिलहटियों का धमेल नृत्य वधू - वर के वैवाहिक संबंध का जश्न मनाने का एक लक्षण है। परंतु जब धमाइल के गीत वैवाहिक संबंध से राधा-कृष्ण के प्रेम और भक्ति के वर्णन में बदलते हैं तब वैष्णव धर्म का प्रभाव भी दिखाई देता है।
इसके अलावा, कलाकारों की प्रक्रियात्मक स्मृति भी लोक-ज्ञान के अंतरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उदाहरण के लिए, नृत्य के दौरान, यदि कोई कलाकार एक कदम या एक चाल भूल जाता है, तो वह दूसरों को देखती है और उसे अपने आप में जोड़ लेती है। साथ ही, यदि नृत्यों, या उनके साथ आने वाले गीतों में कोई नवीन जोड़ है, तो कलाकार इसका जवाब देते हैं या दोहराते हैं। व्यक्ति को समुदाय के अन्य कलाकारों द्वारा कला की सामग्री और रूप के बारे में अवचेतन रूप से याद दिलाया जाता है। इस प्रकार, व्यक्तिगत स्मृति सामुदायिक स्मृति के साथ एकीकृत होती है। यदि एक कलाकार एक कदम या एक नियम भूल जाता है, तो समूह के अन्य कलाकार उसे इसकी याद दिलाते हैं। इस प्रकार, व्यक्तिगत स्मृति सामूहिक स्मृति के साथ एक हो जाती है।
राजबंशियों का मेचेनी नृत्य और सिल्हेटियों का धमाइल नृत्य उलू की पवित्र ध्वनि से शुरू होता है। उलू ध्वनि भी एक सामूहिक काम या कला है जो किसी व्यक्ति के प्रवेश या अनुष्ठान की शुभ मुहूर्त घोषणा करता है। यह कार्य समूह में किया जाता है और नए कलाकार बुजुर्गों को अनुकरण करते हुए सिख जाते है। लोक-कलाकारों के बीच इस प्रकार की आदतन सीख ऐसी प्रथाओं के कारणों के बारे में कोई भी सवाल या जांच नहीं करती है। कलाकार और अनुवादक ऐसे ही अनुकरण करते हुए अपनी अवचेतन शिक्षा में लोक-ज्ञान की परंपरा को जोड़ते रहते है। अर्थात कलाकार का शरीर भी ऐसे ज्ञान को हासिल करने में सहयोग देती है। इस प्रकार, प्रक्रियात्मक स्मृति में कलाकारों की शारीरिक स्मृति भी शामिल है।
लोक-ज्ञान के अनुवाद अध्ययन में अभ्यास-सिद्धांत -
अब तक हमने निबंध में चर्चा की है कि लोक-ज्ञान के अंतरण के लिए स्मृति अपरिहार्य है और यह ज्ञान के अंतरण के लिए विभिन्न तरीकों से काम करता है। अब हम यह देखने जा रहे हैं कि अनुवाद अध्ययन ने विषय के व्यापक आयाम के भीतर ऐसी प्रथाओं को कैसे सिद्ध किया है। समाजशास्त्र के साथ अनुवाद अध्ययन की अंतर्विषयकता इस संबंध को स्थापित करने में मदद करती है। समाजशास्त्र में अभ्यास सिद्धांत का प्रस्ताव है कि ज्ञान स्थित और सन्निहित है। मेइव ओलोहान इस सिद्धांत का उपयोग अनुवाद में अभ्यास और ज्ञान के बीच एक संबंध की अवधारणा के लिए करते हैं, जिसे वे 'अभ्यास-में-ज्ञान' यानी 'knowing-in-practice' कहते हैं। उनके अनुसार,“ज्ञान विशिष्ट संदर्भों में अंतर्निहित है, जानकार से अविभाज्य है, और सामाजिक बातचीत द्वारा बनाए रखा जाता है।“[8] इसी को वह अभ्यास-में-ज्ञान कहती है।
ओलोहान ने थियोडोर शात्ज़की को उद्धृत करते हुए कहा है कि हम अभ्यासों को "सन्निहित, भौतिक रूप से मध्यस्थ मानव गतिविधि की व्यूहें, जो केंद्रीय रूप से साझा व्यावहारिक समझ के चारों ओर संगठित है"[9] समझ सकते है। वह एंड्रियास रेकवीट्ज़ की परिभाषा का भी उपयोग करती है जो अभ्यास को "शरीरों का संचालन, विषयों का उपचार, चीज़ों का विवरण करने का, और विश्व को समझने का एक नियमित तरीका"[10]
मानता है। शात्ज़की और रेक्विट्ज़ के सिद्धांतों को यदि एक साथ रखा जाए, तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अभ्यास एक साझा ज्ञान है जिसे लोग अपने शरीर में वहन करते है और समय और स्थान के हिसाब से प्रदर्शन करते हैं। ओलोहान अनुवाद को भी अभ्यास का एक रूप मानते है जहाँ ज्ञान स्थित, संगठित, भौतिक रूप से मध्यस्थ, समाविष्ट, और संबंधात्मक होता है।
ओलोहन की दृष्टिकोण को इस लेख में लोक-ज्ञान के अध्ययन पर भी लागू किया जा सकता है। ऊपर चर्चा की गई देशज समुदायों में कलाकार लोक-ज्ञान के अभ्यास का वाहक होते हैं। इस ज्ञान को वहन करने का एक स्थानिक-सामयिक आयाम में स्थित है। कलाकार अन्य कलाकारों, वस्तुओं, कला के स्थान आदि के साथ स्थानिक-सामयिक आयाम में ही जुड़ते हैं। उदाहरण के लिए, मेचेनी की छतरी वह वस्तु है जो विशेष रूप से अनुष्ठान या मेचेनी नृत्य के दौरान राजबंशी लोगों के लिए एक दिव्य संकेत रखती है। उपरोक्त देशज नृत्यों के दौरान नर्तकियों के बीच समन्वय इंगित करता है कि लोक-ज्ञान का उनका अभ्यास उनके लिए एक संगठित गतिविधि है। हालाँकि उनके ज्ञान का अंतरण मौखिक और निष्पादक है, फिर भी इस ज्ञान के अंतरण पर उनकी सहमति स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, नृत्यों का समय कलाकारों के स्मृति में निर्धारित रहता है; चालों की अवधि, आवृत्ति भी समन्वित होती है, और वे संगीत की परिवर्तन के अनुसार तुरंत अपनी गतिविधियों को समायोजित करते हैं। लोक ज्ञान की भौतिक मध्यस्थता को हम लोक नृत्य या लोक गीत में उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के बदलाव में देख सकते है। उदाहरणस्वरूप, मेचेनी की छतरी पहले बांस से बनी होती थी लेकिन अब कपड़े से बदल दी गई है।
लोक-ज्ञान का मूर्त रूप शायद इस लेख में अभ्यास सिद्धांत का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। क्योंकि कलाकार अपने शरीर के माध्यम से सीखते हैं और प्रदर्शन के माध्यम से लोक ज्ञान को भी अंतरित करते हैं। प्रदर्शन में उनके शरीर -सिर से पैर की उंगलियों तक, मन से काया तक - का सक्रिय जुड़ाव भी शामिल रहता है। कलाकार जिन भौतिक वस्तुओं के साथ जुड़ते हैं वे भी प्रदर्शन के अभ्यास को आकार देते हैं। जैसा कि शोधार्थी ने देखा,डिमसा कलाकारों के कपड़े बदल जाते हैं। जब वे एक मंच पर बाहरी दर्शकों के लिए प्रदर्शन करते हैं,तो वे एक ही रंग और ढांचे के आधाचीरा पहनते हैं। दूसरी ओर,जब वे एक अनुष्ठान के बाद नृत्य करते हैं तो उनके कपड़े रंग और ढांचे के विविध होते हैं। परिधानों में इस तरह के परिवर्तन का मतलब है कि कलाकारों का शरीर और मन दोनों नृत्य में शामिल हैं और वे अभ्यास के ज़रिये अपनी प्रक्रियात्मक स्मृति का उपयोग कर रहे होते हैं। मंच प्रदर्शन के दौरान एक ही रंग और पोशाक के पैटर्न का उपयोग करना कलाकारों के सचेत मन को दर्शाती है जिनसे वे बाहरी लोगों के सामने अपने लोक-ज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अंत में,कलाकारों के संबंधात्मक ज्ञान का अर्थ है कि एक व्यक्तिगत कलाकार ने दूसरे कलाकारों के साथ और दूसरे कलाकारों के बीच में ज्ञान प्राप्त किया है। उनके बीच जानने की एक साझा अभ्यास है। बड़ों की नकल करने की प्रथा से शुरू करते हुए नई पीढ़ी को सिखाने का अभ्यास उनकी लोक-ज्ञान का संबंधात्मक रूप है। इसलिए लोक-ज्ञान का स्मरण और अभिव्यक्ति भी उस बात से संबंधित है जो एक व्यक्तिगत कलाकार जानता है बनाम जो दूसरे जानते हैं। इस प्रकार, यदि किसी प्रदर्शन में कोई नियम या चाल केवल एक कलाकार जानता है और दूसरों को जानकारी नहीं है, तो या तो उस चाल या नियम को बाकी लोगों द्वारा सीखा जाएगा या भुला दिया जाएगा। इसी तरह,अभ्यास सिद्धांत के माध्यम से ज्ञान भी स्मृति में जुड़ते या मिटते हैं।
निष्कर्ष
: भारत में देशज समुदायों का लोक-ज्ञान विविध और विशाल है। इस ज्ञान के अंतरण में स्मृति एक अभिन्न भूमिका निभाती है। अनुवाद अध्ययन, अनुसंधान का एक अंतर्विषयी क्षेत्र होने के नाते, स्मृति अध्ययन और समाजशास्त्र जैसे अन्य विषयों से सैद्धांतिक तत्वों को एक साथ लाने की संभावना को समायोजित करता है। इस लेख में स्मृति अनुवाद और अभ्यास सिद्धांत के दृष्टि से देशज समुदायों के लोक-ज्ञान को विश्लेषण किया गया है।
इस लेख में यह देखने की कोशिश की गई है कि लोगों की अभ्यास द्वारा स्मृतियों से लोक-ज्ञान के अंतरण को कैसे बढ़ाया जाता है। अनुवाद अध्ययन में अभ्यास सिद्धांत एक उभरती हुई अवधारणा है और इसका उपयोग लोक-साहित्य के विश्लेषण के लिए उपयुक्त रूप से किया जा सकता है। हालांकि इस लेख में भारत में तीन देशज समुदायों के लोक-नृत्यों में कलाकारों की भूमिका पर चर्चा की गई है, लेकिन इस सिद्धांत का उपयोग करके लोक-साहित्य के अन्य रूपों का भी पता लगाया जा सकता है।
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असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, वीआईटी, एपी विश्वविद्यालय, अमरावती, आंध्र प्रदेश
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