शोध सार : अनुवाद मात्र शब्द नहीं, एक कला है तभी इसे अनुवादकला कहा जाता है। यह मात्र शब्दार्थ नहीं,बल्कि सही शब्द का उचित जगह प्रयोग भी है जिससे रचना संप्रेषणीय बने। नाटक और रंगमंच के संदर्भ में जब हम इस कला पर विचार करते हैं तो इसकी बरसों पुरानी परंपरा सामने आती है। मगर इसे दोयम दर्जे की मानकर इतना महत्त्व नहीं दिया गया जितने की यह अधिकारी है। इस लेख को लिखते समय उनमें कुछेक में ही केवल नाटककार द्वारा वक्तव्य है। कुछ जगह निर्देशक के भी विचार हैं लेकिन अनुवादक को मात्र भाषा रूपांतरकार मानकर नाम, उल्लेख भर कर दिया गया है। जबकि एक भाषा से दूसरी भाषा में अंतरण करके लाने वाले अनुवादक और उसके अनुभव भी मायने रखते हैं। नाटक को नाटककार लिखता है, निर्देशक मंच तक लाता है और अभिनेता/अभिनेत्री रंगमंच पर प्रस्तुत करते हैं। रंगमंच अभिनय में एक शब्द आता है जिसे ‘परकाया प्रवेश’ कहते हैं। इसका शब्दार्थ है किसी का (भाव/गति/लय आदि कोई भी स्तर) दूसरी काया में प्रवेश। परकाया प्रवेश का संबंध ‘अभिनय’ से जोड़ा जा सकता है। एक चरित्र का आरोप अपने पर लेना, जैसे राम एक आदर्श चरित्र हैं, उन्हें जानने के लिए स्वयं उनका आना संभव नहीं जबकि अभिनय के द्वारा यह संभव हो जाता है। अनुवाद भी यही ‘परकाया प्रवेश’ है जहाँ मूल लेखक के भाव को लक्ष्य भाषा द्वारा अनुवादक पहुँचाता है। लेकिन यह सरल नहीं। यहाँ भी शब्द, समय, भाव, भाषा आदि का तालमेल बनाकर अनुवाद को साकार करने का ध्येय रहता है। इसीलिए इस बात का पुरजोर समर्थन होना चाहिए कि अनुवाद कला और अनुवादक को उचित स्थान मिले।
बीज शब्द : अनुवाद, नाटक, रंगमंच, अनुवादक, नाटककार, नाट्य पत्रिकाएँ, नटरंग, रंग प्रसंग, अभिनेता/अभिनेत्री, साहित्यानुवाद, नाट्यशास्त्र, राष्ट्रीय रंगमंच, भारतीय भाषाएँ, हिंदी, मराठी, कन्नड़, बांग्ला, अंग्रेजी।
मूल आलेख :
अनुवाद का अर्थ एवं महत्त्व -
‘वद’ धातु में ‘घञ’ प्रत्यय लगाने से ‘अनुवाद’ शब्द की व्युत्पत्ति मानी गई है। संस्कृत वांग्मय में इसका अर्थ ‘पूर्व कथित बात’ के संदर्भ से लिया गया है। डॉ. महेन्द्रनाथ दुबे के अनुसार “‘कहे हुए को फिर से कहना’, ’जाने-समझे हुए को दूसरे को जनाना या समझाना’ अर्थ में अनुवाद शब्द का प्रयोग भारतीय वांग्मय-वेद, वेदांग, अष्टाध्यायी, निरुक्त आदि में होता रहा है।”1
अंग्रेजी में अनुवाद का अर्थ एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तित करने से लिया गया है जिसे ‘ट्रांसलेशन’ कहा जाता है। प्रश्न यह भी उठता है, अनुवाद महज भाषा परिवर्तन है या इससे भी बढ़कर कुछ है? यहाँ आशय ‘भाव’ से है। स्पष्टत : केवल ‘शब्दानुवाद’ अनुवाद नहीं बल्कि शब्द, भाव और शैली का तालमेल अनुवाद का आदर्श रूप है। वैसे तो अनुवाद के बहुत सारे क्षेत्र हैं जैसे साहित्यिक। उसमें भी विविध रूप (गद्य,पद्य), बैंकिग, बीमा, वैज्ञानिक, तकनीकी, प्रशासनिक, विधि आदि आते हैं। इसका क्षेत्र विस्तृत है। डॉ. कृष्ण कुमार गोस्वामी के अनुसार अनुवादकर्ता की जिम्मेदारी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं- “अनुवादकर्मी एक ऐसा कलाकार है जिसे आलोचक, भाषाविद और रचनाकार - तीनों स्थितियों से एक साथ गुजरना पड़ता है। वह आलोचक के रूप में मूल कृति से बीज का पता लगाता है। भाषाविद के रूप में उस बीज को अन्य भाषा की जमीन, जलवायु, वातावरण को समझते हुए उस जमीन पर प्रतिरोपित करता है और तभी वह पौधा बनकर अनूदित कृति के रूप में प्रस्फुटित और पल्लवित होता है।”2
साहित्य विधाओं में अनुवाद की लंबी परंपरा है। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अनुवाद हुआ है। यहाँ हम केवल हिंदी अनुवाद को केंद्र में रखे तो अन्य भाषाओं की कविता, कहानी, नाटक, आलोचना, जीवनी आदि का हिंदी भाषा में अनुवाद होता आ रहा है। साहित्य का यह अनुवाद ‘साहित्यानुवाद’ कहलाता है। इस अनुवाद में भी अर्थ और मूल रचयिता का भाव केंद्र में रखकर कार्य किया जाता है। इस बारे में डॉ. रणवीर के अनुसार- “साहित्यिक कृति के माध्यम से पाठक-रूपी अनुवादक उस तक जो अर्थ पहुँचाना चाहता है और उसके भीतर जो पहले से विद्यमान होता है, उन दोनों का संगम सहज नहीं हो पाता। कृति में से जो अनुवादक की ओर आता है उसे पाने और पचाने में उसकी अपनी भीतरी पूँजी का, उसकी संस्कारिता का भी, योग रहता है। इसके परिणामस्वरूप वह कृति को ग्रहण करते-करते अंजाने में उसे अपने रंग में भी रंगता जाता है। इसलिए यह मानना पड़ता है कि किसी सर्जनात्मक कृति का अनुवाद मात्र अनुवाद नहीं होता, उससे कुछ अधिक होता है। वह लक्ष्य भाषा में एक प्रकार से मूल कृति की पुनःसर्जना (ट्रांसक्रिएशन) जैसा होता है।”3
नाटक एवं रंगमंच में अनुवाद -
अगर यह कहा जाए कि नाटक और रंगमंच में अनुवाद बहुत अधिक हुआ है तो गलत नहीं होगा। हिंदी भाषा पर ध्यान केंद्रित करके विश्लेषण करें तो पाएँगे भारतीय भाषाओँ के अनेक नाटकों का अनुवाद हिंदी में होता रहा है। इस लेख का उद्देश्य अनुवाद की शैली बताना नहीं बल्कि उसके समाजीकरण को बतलाना है। यह जानना भी लक्ष्य है कि कैसे एक प्रदेश का नाटक दूसरे प्रदेश से जुड़ा। उनके इस मिलन में निश्चित रूप से भाषा ही माध्यम बनी । यहाँ केवल नाटक अनूदित होकर हिंदी रंगमंच से जुड़े बल्कि नाट्य-रंगमंच विषयक लेख और पुस्तकों का भी हिंदी में अनुवाद हुआ है। अनुवाद के माध्यम से एक सांस्कृतिक आदान-प्रदान अवश्य हुआ है। यहाँ भारतीय नाटक और रंगमंचीय क्रियाओं को जानने का आधार ग्रंथ भरतमुनि रचित पंचमवेद ‘नाट्यशास्त्रम्’ है। लेकिन यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में होने के कारण सभी रंगकर्मियों के लिए सहज गाह्य नहीं था। इसे सुलभ बनाया वर्तमान में संस्कृत के विद्वान आचार्य राधाबल्लभ त्रिपाठी ने हिंदी में ‘संक्षिप्तनाट्यशास्त्रम्’ की रचना करके। इस पुस्तक में भरत के संस्कृत सूत्रों का अनुवाद और व्याख्या है। जो नाटक और रंगमंच में अनुवाद के महत्त्व को स्पष्टत: साकार करती है, भूमिका में लेखक के शब्दों से – “नाट्यशास्त्र भारतीय नाट्यचिंतन, कला और सौंदर्यशास्त्र का आगार और आकर ग्रंथ है। पर मूलतः यह नाट्यप्रयोग से जुड़े लोगों के लिए लिखा गया है। यह विडंबना है कि आज का रंगकर्मी भरत के नाट्यशास्त्र से पूरी तरह परिचित नहीं और नाट्यशास्त्र उसके लिए दुर्लभ है।
संक्षिप्त नाट्यशास्त्र का यह संस्करण मूल पाठ के और हिंदी अनुवाद के साथ इस दृष्टि से तैयार किया गया है कि नाट्यशास्त्र जिनके लिए रचा गया है, उन्हें सुलभ हो सके।”4
भारत का विविध भाषी परिदृश्य जब रंगमंच से मिला तब राष्ट्रीय रंगमंच का स्वरूप उभरकर आया। इस स्वरूप में हिंदी क्षेत्र के मंच से श्यामानंद जालान, सत्यदेव दुबे, इब्राहिम अल्काजी, हबीब तनवीर, वर्तमान में देवेंद्रराज ‘अंकुर’, रामगोपाल बजाज, सतीश आनंद, कीर्ति शर्मा, त्रिपुरारी शर्मा, वी.के.शर्मा, रामजी बाली, सुरेन्द्र शर्मा आदि। बांग्ला से शंभु मित्र, उत्पल दत्त और बाद के वर्षों में ऊषा गांगुली आदि। मराठी से अरविंद देशपांडे, विजया मेहता और वर्तमान में जब्बार पटेल, वामन केंद्रे आदि। गुजराती से दीना पाठक, चंद्रिका शाह, तारक मेहता, प्रागजी आदि एवं कन्नड़ से गिरीश कर्नाड और ब.व.कारंत आदि निर्देशकों (इनमें से कुछ नाटककार और कलाकार भी) ने राष्ट्रीय रंगमंच में सृजनात्मक योगदान दिया है। इन निर्देशकों की रंग चेतना ने पुराने और नवीन का समन्वय कर कथ्य एवं शैली का वो रूप रचा जो संवेदना और जीवन बोध से जुड़ा है। सही मायनों में जुड़ने का यही भाव राष्ट्रीय रंगमंच की शक्ति है; इस रंग-चेतना को नए रंगमंच आंदोलन से जोड़कर रंगालोचक सुरेश अवस्थी कहते हैं- “नए रंगमंच आंदोलन की इस व्यापक लहर का प्रभाव हमारे रंगमंच के क्रियाकलाप के दूसरे पक्षों पर भी पड़ रहा है। प्रदर्शन और अभिनय के साथ-साथ रंगसज्जा, वेशभूषा और प्रकाश योजना में भी पिछले एक दशक में अधिक कलात्मक और कल्पनाशील काम हुआ है....यह भी अपने आप में एक रोचक बात है कि इस आंदोलन में इतनी शक्ति है कि वह एक ओर तो नितांत शौकिया नाट्यकर्म को भी प्रभावित कर रहा है, तो दूसरी तरफ पेशेवर रंगमंच पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।”5
स्वातंत्र्योत्तर राष्ट्रीय रंगमंच के विस्तार से ही हिंदी भाषी दर्शक और पाठक अन्य भाषा के नाटकों से परिचित हुआ जिसमें बांग्ला में बादल सरकार के ‘बाकि इतिहास’, ‘पगला घोड़ा’, ‘एवं इंद्रजीत’, मराठी में विजय तेंदुलकर के ‘शांतता कोर्ट चालू आहे (खामोश अदालत जारी है), ‘घासीराम कोतवाल’, कन्नड़ में आद्य रंगाचार्य के ‘केलु जन्मेजय’ (सुनो जन्मेजय), गिरीश कारनाड के ‘तुगलक’, ‘रक्तकल्याण’, ’अग्नि और बरखा’,‘नागमंडल’ आदि गिने जा सकते हैं। इनके साथ गैर हिंदी भाषी प्रदेश भी हिंदी के महत्वपूर्ण नाटकों से परिचित हुए। उन्होंने भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद के अलावा धर्मवीर भारती (अंधा युग), मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस एवं आधे-अधूरे) आदि आधुनिक नाटककारों और उनकी रंगदृष्टि से परिचित हुए। नाटक और उसकी प्रस्तुति शैली पर जब एक साथ विचार-विमर्श हुआ तो भौगोलिक सीमाओं के बंधन से अलग राष्ट्रीय रंगमंच की बात की जाने लगी। इस सबमें भारतीय नाट्य शैली को पुन: खोजने और प्रतिस्थापित करने की कवायद भी साफ नजर आने लगी। इस बारे में प्रसिद्ध रंग निर्देशक इब्राहिम अल्काजी लिखते हैं- “भारतीय रंगमंच के विकास में छठा दशक अनेक कारणों से बहुत ही समृद्ध और महत्वपूर्ण कालों में से माना जाएगा। सबसे स्पष्ट और सबसे प्रमुख कारण यही है कि इन वर्षों से रंग कला की अनुषांगिक शाखाओं-नाट्यलेखन, अभिनय, निर्देशन, मंच परिकल्पना एवं प्रकाश व्यवस्था ने विशिष्ट प्रतिभाओं के जरिए प्रौढ़ता प्राप्त कर ली है। वह व्यापक उत्कर्ष आकस्मिक नहीं था, क्योंकि इसके पीछे धीमे लेकिन दृढ और समर्पित प्रयत्न के दस-पन्द्रह वर्ष हैं।”-6
वास्तव में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के नाटककारों एवं निर्देशकों ने ऐसा रंग परिवेश बनाया जो सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय रंगमंच का मूल सूत्र था। अनेक संस्थाओं, शौकिया नाट्य मंडलियों, नाट्य एवं साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा विविध रंग गतिविधियों को रचा गया। इन्हीं प्रयासों के कारण हिंदी रंगमंच पर प्रत्येक भारतीय भाषाओँ के महत्वपूर्ण नाटक मंचित हुए। सांस्कृतिक स्तर पर हिंदी रंगमंच का यह प्रयास अन्य भाषाओँ के रंगमंच से जुड़ने एवं उन्हें अपने साथ जोड़ने का है; आज अपने इसी रूप में हिंदी रंगमंच सांस्कृतिक आदान-प्रदान और लेखन से लेकर प्रस्तुति के हर स्तर पर अपना प्रभाव स्थापित कर रहा है। राष्ट्रीय रंगमंच के परिप्रेक्ष्य में अन्य भाषाओँ के पारम्परिक नाट्य रूपों को हिंदी नाटक और रंगमंच ने सहर्ष अपनाया है। इस कड़ी में हबीब तनवीर द्वारा अपनाई छत्तीसगढ़ी शैली(चरणदास चोर,बहादुर कलारिन,मिट्टी की गाड़ी), बाबा कारंत द्वारा यक्षगान शैली (बरनम वन),के.एन. पणिक्कर द्वारा प्रयोग कूडीअटटम शैली (उरुभंग),रतन थियम की मणिपुरी शैली(अंधायुग) और भानु भारती द्वारा राजस्थानी शैली गवरी(पशु गायत्री) आदि उल्लेखनीय रंग प्रयोग हैं।
इन रंग प्रयोगों को दर्शकों तक पहुँचाने में पत्र-पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सन १९५० के बाद नाटक और रंगमंच पर केंद्रित पत्रिकाओं के प्रकाशन ने हिंदी रंग परिवेश को समृद्ध किया है। उस समय आगरा से ‘अभिनय’ और दिल्ली से नेमीचंद्र जैन के संपादन में ‘नटरंग’ पत्रिका की शुरुआत हुई। ये दोनों पत्रिकाएँ अनेक रंगपत्रिकाओं की प्रेरणा स्त्रोत बनीं। बहरहाल इन पत्रिकाओं से प्रभावित होकर या प्रेरित होकर नाट्यवार्ता, रंगभारती, कलावार्ता, छायानट, रंग प्रसंग आदि, जैसी अनेक पत्रिकाओं ने रंग क्षेत्र को समृद्ध और उन्नत करने का मोर्चा संभाला। इन पत्रिकाओं ने वो धरातल दिया जिससे राष्ट्रीय रंगमंच की अवधारणा एवं रंगकला के विकास को ठोस आधार मिला है। एक क्षेत्र के रंगमंच को लेखों एवं समीक्षाओं के द्वारा दूसरे क्षेत्र के रंगमंच से जोड़कर वैचारिक स्तर पर भारतीय रंगमंच को समृद्ध किया गया है। इन पत्रिकाओं द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं के नाटकों का हिंदी अनुवाद पहली बार किया गया। इसके बाद जब इनका मंचन हिंदी में हुआ तो हिंदी एवं भारतीय रंगमंच ने नया स्वरूप लेना शुरू कर दिया। इस तरह हिंदी रंगमंच को एक परिदृश्य से जोड़ने में पत्रिकाएँ अपनी प्रेरक भूमिका निभाती हैं। रंगमंच ने भी विविध प्रदेशों से जुड़कर और उन्हें आपस में जोड़कर राष्ट्रीय रंगमंच की संकल्पना को साकार करने का कार्य किया है और लगातार प्रयासरत है। हिंदी रंगमंच इस ध्येय की प्रमुख कड़ी है, जिसमें नाटकों का लेखन, अनुवाद, मंचन द्वारा रंग सक्रियता जारी है।
भारतीय रंगमंच को आगे बढ़ाने के लिए अनुवाद की महती भूमिका है। हमारा भारतीय रंगमंच किसी भी अन्य रंगमंच से कम नहीं। आवश्यकता नाटकों के सतत लेखन और रंगकर्म की है,इस बारे में इब्राहिम अल्काज़ी का कथन पठनीय है- “आज का भारतीय रंगमंच विश्व के किसी भी रंगमंच से हीन या कमतर नहीं है। कमी है तो सिर्फ उच्चस्तर के प्रदर्शनों की नियमितता और उनका स्तर बरक़रार रखने की। हमारे यहाँ एक ऐसा बड़ा (राष्ट्रीय) रंगमंडल होना चाहिए, जो देश की सभी भारतीय भाषाओँ के उत्कृष्ठ नाट्य-प्रदर्शनों का नियमित और निरंतर प्रदर्शन करता रहे। इसी से नाट्य-प्रेमी दर्शक समुदाय भी बढ़ेगा।”7
जबकि राजिंदर नाथ हिंदी रंगमंच को ही राष्ट्रीय रंगमंच मानते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय रंगमंच के लिए हिंदी नाटकों की कमी को अनुदित नाटकों के माध्यम से पूरा किया है। एकाध अपवाद छोड़ दें तो वह विदेशी नाटकों को प्रस्तुत करने से बचते रहे हैं।
नाटक में अनुवाद पर केंद्रित करके आगे बढ़ें तो इसके अंतर्गत गद्य और पद्य की तमाम विधाएँ सम्मिलित हैं। नाट्य विधा को केंद्र में रखकर ही हम चिंतन करेंगे। नाटक का अनुवाद करते समय देशकाल एवं वातावरण, पात्रों की भाषा,संस्कृति,परिवेश आदि बहुत-सी बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है। लेकिन साथ में नाटक के मंचित स्वरूप ‘रंगमंच’ की तरफ भी सोचना आवश्यक है। इस बारे में डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल का कथन उल्लेखनीय है – “नाटक चूँकि रंगमंच पर मंचन हेतु होते हैं व इनका दर्शक जनसामान्य से लेकर उच्च शिक्षित तक होते हैं,इसलिए भाषा प्रयोग व संवाद ही नाटक के प्राण होते हैं।क्या इन शब्दों को मूल नाटक की भान्ति मुहावरेदार चुटीली भाषा में अनुदित किया जा सकता है? संभवतः उसी प्रयोगशीलता से नहीं परंतु कठिन परिश्रम से उसके निकट पहुँचा जा सकता है। ...नाटक के अनुवाद में व्यंजना मूलक अर्थ एवं रंगमंच प्रयोगों में व्यवधान पहुँचाए बिना अर्थ संप्रेषण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। हिंदी साहित्य में नाटकों के अनुवाद की काफी लंबी परंपरा है। संस्कृत से हिंदी में तथा अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित नाटकों की संख्या काफी अधिक है।”8
महाकवि कालिदास के संस्कृत नाटक ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ का अनुवाद अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में एक से ज्यादा बार हो चुका है। भारतेंदु युग में राजा लक्ष्मण सिंह ने हिंदी में ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ का अनुवाद किया तो वर्तमान युग में राधावल्लभ त्रिपाठी ने भी शाकुंतल का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद किया है। कालिदास के नाटकों का अनुवाद लाला सीताराम द्वारा करने का उल्लेख भी मिलता है- “महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी कालिदास की आलोचना’ (हिंदुस्तानी,1898) लेखमाला में लाला सीताराम द्वारा कालिदास के नाटकों के अनुवादों की व्याकरण संबंधी अशुद्धियों को ही रेखांकित किया। अनुवाद की रंगक्षमता अथवा संभावनाओं पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की।”9
भारतेंदु ने शेक्सपियर के नाटक का हिन्दी में अनुवाद किया था। लेकिन यह केवल शेक्सपियर के नाटक ‘मर्चेट ऑफ़ वेनिस’ का कोरा अनुवाद नहीं था बल्कि पाश्चात्य परिवेश का भारतीय परिवेश में परिवर्तन भी कहा जा सकता है। भारतेंदु ने “पात्रों व स्थानों के नाम भी भारतीय परिवेश के अनुकूल डाला है। एंटोनियो पात्र को अनंत,बैसेनियो को वसंत तथा पोर्शिया को पुरश्री एवं शाइलॉक को शैलाक्ष नाम दिए। उन्होंने पात्रों का धर्म भी भारतीय परिवेश को ध्यान में रखते हुए हिंदू व जैन धर्मों में बदल दिया। इस प्रकार उन्होंने पाठ की नाटकीय अन्विति एवं मूल धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में तालमेल बिठाया है। इस प्रकार नाटक का अनुवाद सजीव बन पड़ा है।”10
भारतेंदु युग में ही ‘वीणा’ पत्रिका के अंक जनवरी 1940 में पहली बार जापानी नाटक ‘नो’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ था। निश्चित रूप से अनुवाद कार्य सरल नहीं , उसकी सीमाएँ और संभावनाएँ असीम है। भारतेंदु युग में नाटक अनुवाद कार्य के ये प्रयास सराहनीय माने जाएँगे।
स्वतंत्रता के बाद के रंगमंच परिदृश्य की बात करें तो गुजराती,मराठी,पंजाबी,कन्नड़,बांग्ला आदि सभी भाषाओं के चर्चित नाटकों का हिंदी में अनुवाद हुआ है। जिससे कस्तूरी मृग, रजनीगंधा, सापउतारा, तुगलक़, सुनो जन्मेजय, काचन रंग, छलावा, ख़ामोश अदालत जारी है, तुगलक़, एवं इंद्रजीत आदि नाटक अखिल भारतीय स्तर पर प्रेक्षकों और रंग-कर्मियों से जुड़े। बांग्ला नाटककार बादल सरकार के लगभग सभी चर्चित नाटकों का अनुवाद हिंदी में हुआ है। अगर उनके नाटक ‘एवम् इंद्रजीत’ की बात करें तो इस नाटक का अनुवाद केवल हिंदी ही नहीं बल्कि गुजराती और कन्नड़ भाषा में भी हुआ है। इस नाटक का हिंदी अनुवाद प्रतिभा अग्रवाल ने किया है, अपने अनुवाद विषयक अनुभव में वह लिखती हैं- “एवम् इंद्रजित’ का अनुवाद एक बड़ा सुखद और साथ ही तृप्तिकारी अनुभव रहा है। आज से प्राय: तीन साल पहले जब इस नाटक को देखा तो बहुत ही अच्छा लगा था और इच्छा हुई थी कि इसे हिंदी में किया जाए,किंतु बांग्ला रंगमंच पर इसकी सफलता हम लोगों पर भी कुछ ऐसी हावी थी कि साहस नहीं हो पाता था। अत: अनुवाद करने का प्रश्न भी नहीं उठता था। उसके बाद इस नाटक को दो बार और देखा और यह धारणा दृढ़ होती गई कि इसे अवश्य ही प्रस्तुत करना चाहिए। शीघ्र ही न भी प्रस्तुत किया जाए तो कम-से-कम अनुवाद तो कर ही डाला जाए। इस निर्णय ने अनुवाद करने को प्रेरित किया और उसमें हाथ लगाया।”11
अनुवाद के बाद नाटक ,मूल नाटककार का ही रहता है अथवा अनुवादक का भी होता है? ऐसा संशय आना स्वाभाविक है। वो भी तब जब नाटककार बनाम निर्देशक को केंद्र में रखकर लंबा रंग-विमर्श चलता रहा है। इस बारे में और एवम् इंद्रजीत’ में मौजूद कविताओं के बारे में अनुवादिका लिखती हैं- “वैसे तो अपना कृतित्व अच्छा लगता ही है, यह हम सबकी सहज स्वाभाविक दुर्बलता है, किन्तु यह कृतित्व मुझे विशेष रूप से अच्छा लगा,इस अतिरिक्त दुर्बलता को स्वीकार करती हूँ। स्वयं बार-बार पढ़ने पर कविताएँ मन को और रमाती हैं, अपने प्रवाह में बहा ले जाती हैं। अवश्य ही बादल सरकार के कृतित्व का मेरे कृतित्व से अधिक योगदान है, फिर भी थोड़ा अंश तो मेरा है ही ।”12
गिरीश कारनाड मूलतः कन्नड़ नाटककार थे लेकिन उनके भी अधिकांश नाटकों का अनुवाद हिंदी में हुआ है। प्रख्यात निर्देशक ब.व. कारंत ने इनके ‘तुगलक़’ और ‘हयवदन’ नाटक का अनुवाद हिंदी में किया है। कारंत का ये अनुवाद हिंदी भाषी जनता का गिरीश करनाड के नाटकों से परिचय कराता है। ये दोनों ही नाटक साठोत्तरी नाटकों में विशेष स्थान रखते हैं। तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को उभारने,लोक शैली यक्षगान और समसामयिक संदर्भों की दृष्टि से ये नाटक विशिष्ट हैं। कारंत ने इन नाटकों का अनुवाद और निर्देशन दोनों किया जिससे अनुवाद नाटक और रंगमंच दोनों के लिए सहायक बना है। उनके बारे में स्वयं नाटककार (गिरीश कारनाड) लिखते हैं- “कारंत ने सारे नाटक की लोकधर्मिता का पूर्ण उपयोग इस दृष्टि से किया और पात्र कल्पना के फलक पर टंगे चित्रों से उतर कर जैसे क्रियाशील होने लगे – मुखौटों जैसी रूप-सज्जा, मंच पर उत्सवी रंग जैसी मांगलिक क्रियाएँ, वेश-भूषा में लोक-पक्षीय शैली और पौराणिकता।”13
इसके कन्नड़ गीतों का भी अनुवाद सांत्वना द्वारा हुआ जो पुस्तक के अंत में परिशिष्ट14 में दिए गए हैं । एक उदाहरण मंगलाचरण का -
इसी तरह ‘तुगलक़’ (1964) नाटक अनूदित होकर जब पूरे भारत में खेला जाता है तो एक विशेष प्रभाव स्थापित करने में सफल होता है। इसकी विविध रंगमंचीय प्रस्तुतियों के संदर्भ में रीतारानी पालीवाल लिखती हैं - “इधर विभिन्न निर्देशकों ने महत्त्वपूर्ण नाटकों का प्रदर्शन भिन्न-भिन्न भाषाओँ में या एक ही भाषा में अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के अनुसार किया है। जैसे अल्काज़ी ने तुगलक़ उर्दू में, पद्मिनी ने अंग्रेजी में, कारंत ने कन्नड़ में,देशपांडे ने मराठी में ,श्यामानंद जालान ने बांग्ला में प्रस्तुत किया है।”15
मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर के नाटकों ‘शान्तता कोर्ट चालू आहे’ का हिंदी अनुवाद ‘खामोश अदालत जारी है’ नाम से हुआ है। इनके ही नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ का हिंदी अनुवाद वसंत देव द्वारा किया गया है।जो 2007 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इस पुस्तकाकार नाटक में अनुवादक का वक्तव्य नहीं है लेकिन लेखक ने अपने वक्तव्य में बहुत महत्वपूर्ण बात कही है, जिसका उल्लेख अनिवार्य है-“मेरी निगाह में ‘घासीराम कोतवाल’ एक विशिष्ट समाज-स्थिति की ओर संकेत है। वह समाज-स्थिति न पुरानी है और न नई।न वह किसी भौगोलिक सीमा-रेखा में बंधी है,न समय से ही। वह स्थल- कालातीत है, इसलिए ‘घासीराम’ और ‘नाना फड़नवीस’ भी स्थल-कालातीत हैं। समाज-स्थितियाँ उन्हें जन्म देती हैं,देती रहेंगी। किसी भी युग का नाटककार उनसे अछूता नहीं रह पाएगा।”16
अनुवाद मात्र शब्दों और वाक्यों का भाषा परिवर्तन नहीं है। मूल भाव को सुरक्षित रखते हुए नाटक के अनुवादक की जिम्मेदारी उसे रंगमंचीय दृष्टि से अनुकूल भी बनाना है ।इस संदर्भ में रघुवीर सहाय का कथन पठनीय है जो उन्होंने शेक्सपियर के ‘मैकबेथ’ नाटक का ‘बरनम वन’ नाम से पद्यानुवाद की भूमिका में लिखा है - “जहाँ शेक्सपियर मेरी समझ में अकारण ही विलंबित और दुरूह होते हैं या फिर आज के रंगमंच पर उतना स्पष्टीकरण आवश्यक नहीं जितना वह करते हैं, वहाँ उनका अनुकरण नहीं किया है। इस तरह यह अनुवाद प्राय: प्रत्येक पंक्ति का अनुवाद है, किंतु वास्तव में यह पंक्तियों का नहीं, वाक्यों की आवाज़ का अनुकरण करता है और वही गूँज पैदा करने की कोशिश करता है जो एलिजाबेथ-युग के मंच पर होती रही होगी।”17(प्रस्तावना )
इस अनुवाद से निर्देशक कारंत पूर्णत: संतुष्ट होते हुए लिखते हैं-“नाटक के अनुवाद को रघुवीर सहाय ने यक्षगान के लिए किसी प्रकार से सीमित नहीं किया है,वह मूल के समानान्तर पूर्ण है और किसी भी शैली में प्रस्तुत किया जा सकता है।”18
मैकबेथ के इस अनुवाद से पहले छठे दशक के अंतिम वर्षों में हरिवंश राय बच्चन द्वारा इसका अनुवाद किया गया था। इस हिंदी रूपान्तर में उनकी पत्नी तेजी बच्चन ने ‘लेडी मैकबेथ’ का अभिनय किया था। वो इस प्रस्तुति की निर्माता भी थी।(नाट्य पत्रिका,विंटर,संख्या 1958-59) बहरहाल रघुवीर सहाय द्वारा ‘मैकबेथ’ का पद्यानुवाद कई मायनों में विशेष है।इसने रंगमंचीय संभावनाओं के नए द्वार खोले हैं। अनुवाद कला की दृष्टि से भी रंग-समीक्षकों ने इसे सराहा है-“रघुवीर सहाय द्वारा ‘मैकबेथ’ का यह अनुवाद हिंदी की एक शताब्दी की लंबी अनुवाद परंपरा के संदर्भ में और भी अधिक महत्त्व रखता है।.........इस अनुवाद की एक विशेषता यह है कि हिंदी में शेक्सपियर के किसी नाटक का पहला अनुवाद है जो कि प्रदर्शन के लिए किया गया है,और जिसमें अनुवादक नाटक के अनुवाद,संपादन और अभ्यास की पूरी प्रक्रिया में बराबर निर्देशक,और कुछ सीमा तक,अभिनेताओं से संबद्ध रहा है।”19
जब रंग आलोचक सुरेश अवस्थी इसके बारे में समीक्षा करते हैं तो बहुत से उपयोगी प्रश्नों को भी साथ में उठाते हैं- “...प्रदर्शन की परंपरा से अनुवादों के न जुड़ने के कारण ही आज तक हिंदी में संस्कृत के एक नाटक का भी अच्छा अनुवाद उपलब्ध नहीं है।”20
इससे ये बात सत्य रूप में उभरकर आती है कि जिस भाषा के नाटक का अनुवाद नहीं हुआ और जो रंगमंच से नहीं जुड़ा वे नाटक कहीं न कहीं कम चर्चित हुआ। यह बात आजादी से पहले और उसके बाद के नाटक, अनुवाद कर्म और रंगमंच तीनों पर लागू होती है। कुल मिलाकर हिम्मतमाई (मदर करेज) ब्रेख्त का अनुवाद नीलाभ द्वारा, तुगलक़ और हयवदन का अनुवाद कारंत द्वारा, मैकबेथ का अनुवाद रघुवीर सहाय द्वारा, एवम् इंद्रजीत का अनुवाद प्रतिभा अग्रवाल द्वारा, अभिज्ञानशाकुंतलम का अनुवाद राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा, ऑथेलो और पगला घोड़ा का अनुवाद आदि उल्लेखनीय हैं।
नाट्य पत्रिकाओं द्वारा नाटक अनुवाद कार्य को प्रोत्साहन -
जैसा कि पहले भी बताया गया है कि पत्रिकाओं ने अनुवाद के द्वारा नाटक और रंगमंच विषयक उपयोगी सामग्री समक्ष प्रस्तुत की है। अनेक नाटक पहली बार अनूदित होकर इन्हीं पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आए हैं। अंग्रेजी एवं भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित/ रूपांतरित नाटक जो नाटक व रंगमंच की चार महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं - नटरंग,रंग-प्रसंग,नाट्यम और छायानट में प्रकाशित हुए हैं। इनके संपादकों जैसे नेमिचंद्र जैन (नटरंग) और राधावल्लभ त्रिपाठी(नाट्यम्) ने स्वयं भी अनेक हिंदी अनुवाद किए हैं। राधावल्लभ त्रिपाठी की बात की जाए तो इनके चिंतनशील व्यक्तित्व की छाप पत्रिका पर स्पष्ट है। नाट्यम् पत्रिका के अनेक अंकों में प्रकाशित अधिकांश उपलब्ध-अनुपलब्ध संस्कृत नाटकों एवं प्रहसनों का हिंदी अनुवाद संपादक द्वारा विशिष्ट भाषा में हुआ है। यह भाषा संस्कृत नाटकों के लिए एक नई रंगभाषा गढ़ती है। भाषा का यह रूप इस पत्रिका की उपलब्धि है। यह उपलब्धि ही पाठकों,रंगकर्मियों और दर्शकों को नाटक और रंगमंच से जोडती है।
इनके अलावा भी बहुत सी पत्रिकाओं में हिंदी में अनूदित नाटक प्रकाशित हुए हैं। ऐसा नहीं कि केवल हिंदी में ही अनुवाद कार्य हुआ है। संस्कृत समेत बहुत-सी भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में भी हिंदी नाटकों से अनुवाद कार्य हुआ है। यहाँ हिंदी की केवल दो महत्त्वपूर्ण नाट्य पत्रिकाओं की बात करें तो निम्न अनुवाद कार्य सामने आता है-
(क) नटरंग पत्रिका (1965) -
1. भगवदज्जुकम् (संस्कृत,बोधायन) : अनुवादक - नेमिचन्द्र जैन,अंक 3, 1965
2. हाथी का बच्चा (ब्रेख्त): अनुवादक- कमलाकर सोनटक्के,अंक 8, 1968
3. परतें(लंकेश): अनुवाद-ब.व.कारंत, अंक 12,1969
4. शय्या(रत्नाकर मतकरी): अनुवादक-प्रतिभा मतकरी, अंक 12,1969
5. नीला घोड़ा(मारिया क्लारा माशाड़ो): अनुवादक-अनंत दत्त’अग्नि’, अंक 13, 1970
6. हयवदन(कन्नड़,गिरीश करनाड): अनुवादक-ब.व.कारंत,अंक 17,1971
7. गिनीपिग(मोहित चटर्जी):अनुवादक-सान्त्वना निगम,अंक-20,1972
8. इबरागी: अनुवादक - नेमिचन्द्र जैन,अंक 20,1972
9. उरुभंग (संस्कृत,भास):अनुवादक-भारतभूषण अग्रवाल,अंक 28,1977
10. मत्तविलास(संस्कृत,महेंद्र विक्रम):अनुवादक- नेमिचंद्र जैन/उर्मि गुप्ता,अंक 28, 1977
11. पापा खो गये(मराठी,विजय तेंदुलकर): अनुवादक: कुसुम कुमार,अंक 29, 1977
12. शिकायत(रत्नाकर मतकरी):अनुवादक-सुशीला कशालकर, अंक 29, 1977
13. धूर्तसमागम(संस्कृत,ज्योतिश्वर): अनुवादक-इंदुजा अवस्थी,अंक 38-39,1982
14. बाघ(शिशिर कुमार सिन्हा):अनुवादक-रणजीत साहा,अंक 58,1993
(ख) रंग प्रसंग (1998) -
1. तीसवीं शताब्दी(बांग्ला,बादल सरकार):अनुवादक-रामगोपाल बजाज,अंक 2,1998
2. मकन जी(गुजराती,सितांशु यशचंद्र):अनुवादक-शीला रोहेकर,अंक 3,1999
3. रामानुजर (तमिल,इन्दिरा पार्थसारथी):अनुवादक-के.आर.उषा,अंक 4,1999
4. साहिल और उजाड़,सिलसिला-ए-मीडिया,नज़ारों के चौखटे में आर्गों के जहाजी बेड़े –नाट्य को लाज (अंग्रेजी,हाइनर मूलर):अनुवादक-रामगोपाल बजाज,अंक 9,2002
5. इस कम्बख्त साठे का क्या करें(मराठी,राजीव नाइक),अनुवादक-ज्योति सुभाष,अंक 10,2002
6. आईना(जापानी,चियोमि हारा):अनुवादक-अरुण चतुर्वेदी/तोमिओ मिजोकामि,अंक 10,2002
7. मध्यम व्यायोग(संस्कृत,भास):पद्यानुवाद-भारतरत्न भार्गव,अंक 11,2003
8. तैया-तैयम(मलयाली,के.एन.पाणीक्कर):अनुवादक-भारतरत्न भार्गव,अंक 17,2005,
9. मौसम-दर-मौसम(अंग्रेजी,अर्नोल्ड बेस्कर):अनुवादक-नंदकिशोर आचार्य,अंक 18,2005
10. सम्राट(के.जयकुमार):अनुवादक-गिरधर राठी,अंक 21,2006
11. नगर उदास(कश्मीरी,मोतीलाल क्येमू):अनुवादक-गौरीशंकर रैणा,अंक 22,2006
12. दशचक्र (बांग्ला,शांति बसु):अनुवादक-नेमिचंद्र जैन,अंक 24,2006
13. मित्र(मराठी,शिरीष आठवले),अंक 25,2007
14. नागपाश में इच्छा (पाब्लो पिकासो):अनुवादक-बाफा यूनियल और रजनी खोसला,अंक 42,2014
15. महामारी में महाभोज(अलेकज़ान्द्र पुश्किन):अनुवादक-नीलाभ,अंक 42,2014
16. छोटी-ठोकर..(लॉरेंस फ़र्लेगेटी):अनुवादक-अतुल भारद्वाज, अंक 42,2014
ये सभी नाटक हिंदी रंगमंच के चर्चित नाटक हैं जो अलग-अलग मंडलियों द्वारा बहुत बार खेले गए। इनके अनुवाद द्वारा हिंदी भाषी दर्शक इन नाटकों से जुड़ पाया और उन्हें समझ पाया, यही राष्ट्रीय रंगमंच की सार्थकता है।
निष्कर्ष : भारत के बहुत से विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू हो चुकी है, कहीं पर जल्द लागू करने की तैयारी में है। इस शिक्षा नीति के मसौदे में अनेक बिंदुओं पर क्रमवार चर्चा है। उन बिंदुओं में एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा अनुवाद पर चर्चा करता है। अगर अनुवाद दोयम होता या अध्ययन का महत्त्वपूर्ण ज़रिया न होता तो शिक्षा नीति 2020 इसे प्राथमिकता न देती। इसमें स्पष्टत: लिखा है- “भारत शीघ्र ही अनुवाद एवं विवेचना से संबंधित अपने प्रयासों का विस्तार करेगा, जिससे सर्वसाधारण को विभिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में उच्चतर गुणवत्ता वाला अधिगम सामग्री और अन्य महत्त्वपूर्ण लिखित एवं मौखिक सामग्री उपलब्ध हो सके। इसके लिए एक इंस्टिट्यूट ऑफ़ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रेटेशन (आईआईटीआई) की स्थापना की जायेगी। इस प्रकार का संस्थान देश के लिए महत्त्वपूर्ण सेवा प्रदान करेगा साथ ही अनेक बहु-भाषी और विषय विशेषज्ञ तथा अनुवाद एवं व्याख्या के विशेषज्ञों को नियुक्त करेगा। जिससे भारतीय भाषाओं को प्रसारित और प्रचारित करने में मदद मिलेगी।”21 अनुवाद मात्र एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण नहीं है। यह भाव, भाषा, परिवेश, विचार और प्रासंगिकता का भी अंतरण है। भारत में अनुवाद की परम्परा लंबी है। जैन और बौद्ध साहित्य के प्रचार-प्रसार में अनुवाद की भूमिका रही है। अशोक के शिलालेख अलग –अलग भाषाओं में रूपांतरित हुए हैं।
नाटक और रंगमंच के संदर्भ में हिंदी भाषा पर ध्यान केंद्रित करके विश्लेषण करें तो पाएंगे कि भारतीय भाषाओँ एवं बाद के वर्षों में अंग्रेजी के अनेक नाटकों का अनुवाद हिंदी में होता रहा है। विभिन्न नाटकों का अनुवाद हिंदी रंगमंच आंदोलन का प्रेरक बना है। इसने राष्ट्रीय रंगमंच की अवधारणा को साकार रूप दिया है। अन्य भाषा का अनुवाद जब हिंदी में हुआ तो दिल्ली समेत उत्तर भारत के अन्य राज्यों में उन नाटकों का मंचन सहज हुआ। यह नाट्य से रंगमंच की यात्रा है जो ज्यादा जन तक अनुवाद के माध्यम से जुड़ पाई। अपने लेख में मैंने कुछ नाटकों का उल्लेख किया है जो हिंदी में अनूदित होकर हिंदी रंगमंच से जुड़े हैं। लेकिन ये मात्र संकेत है, सही संख्या इससे अधिक है। संस्कृत से हिंदी,तमिल से हिंदी, कन्नड़ से हिंदी, मराठी से हिंदी,गुजराती से हिंदी,अंग्रेजी से हिंदी आदि में अनूदित नाटकों की संख्या बहुत है।
एक प्रदेश का नाट्य और रंगकर्म जब दूसरे प्रदेश से जुड़ता है तो उसमें अनुवाद की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। आधुनिक नाटककारों और रंगकर्मियों ने इसे ‘राष्ट्रीय रंगमंच’ का नाम दिया है। जब हिंदी रंगमंच ने एक आंदोलन का रूप लेकर अनेक रंगमंचीय पक्षों पर पुनर्विचार करना शुरू किया तब राष्ट्रीय रंगमंच की अवधारणा भी आकार लेने लगी। इस चिंतन से, अनेक शैलियों और उनके तत्वों के अन्वेषण से राष्ट्रीय रंगमंच की अपनी एक नई पहचान बननी प्रारंभ हो गई। वैसे भी नाटक और रंगमंच मात्र मनोरंजन के साधन कभी नहीं रहे। बल्कि ये तो जीवन के संघर्ष, उसकी समस्याओं का बोध कराने वाले और उन समस्याओं के समाधान सुझाने वाला जीवंत दृश्य माध्यम रहा है। इस जीवंत माध्यम का लाभ सभी भाषा-भाषियों को मिले इसके लिए अनुवाद कला का विकास और महत्त्व समझना आवश्यक है। हिंदी नाटक और हिंदी रंगमंच हो या भारतीय रंगमंच में नाटककार और निर्देशक,अभिनेता/अभिनेत्री, पाठक और प्रेक्षक सभी के बीच साधारणीकरण करने में अनुवाद कला सक्षम है। अंततः समाज को जोड़ना अनुवादकला का ध्येय और सार्थकता है।
1. डॉ.महेन्द्रनाथ दुबे (सृजन एवं संपादन), अनुवाद-कार्यदक्षता भारतीय भाषाओँ की समस्याएँ, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, आवृति संस्करण 2016, पृष्ठ 14
3. डॉ. रणवीर रांग्रा, अनुवाद विज्ञान: सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, वर्ष 1993, पृ.194
4. राधाबल्लभ त्रिपाठी, संक्षिप्तनाट्यशास्त्रम्, प्रथम वाणी संस्करण 2008, भूमिका
5. सुरेश अवस्थी, हे सामाजिक, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2000, पृष्ठ-237-239
6. इब्राहिम अल्काजी, आज के रंग नाटक, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1973, पृष्ठ-11
7. जयदेव तनेजा, रंग साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन दिल्ली, परिवर्द्धित संस्करण 2014, पृष्ठ 86
11. बादल सरकार, अनुवाद- प्रतिभा अग्रवाल, ‘एवम् इंद्रजित’ अनुवादक का वक्तव्य, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, तीसरा संस्करण 2014, पृष्ठ 7
13. गिरीश कारनाड, अनुवाद-बी.वी.कारंत, हयवदन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली,प्रथम संस्करण 1975, पृष्ठ 8-9
14. गिरीश कारनाड, हयवदन, अनुवाद-बी.वी.कारन्त, राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 1975, परिशिष्ट
15. रीतारानी पालीवाल, रंगमंच : नया परिदृश्य, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृष्ठ 264
16. विजय तेंदुलकर, घासीराम कोतवाल, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पाँचवी आवृत्ति 2015,
पृष्ठ 6
17. रघुवीर सहाय, बरनम वन: शेक्सपियर के मैकबेथ का पद्यानुवाद, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1980 प्रस्तावना
18. वही, ब.व.कारंत, निर्देशकीय
19. डॉ,सुरेश अवस्थी, हे सामाजिक, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2000, पृष्ठ 275
20. वही, 276
21. भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति का संवर्धन 22.14, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, पृष्ठ 90 https://www.education.gov.in/sites/upload_files/mhrd/files/NEP_final_HINDI_0.pdf
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
pratibha@ss.du.ac.in
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