शोध सार : साहित्य और कला की वैश्विक विशाल निधि के निर्माण में अनुवाद कार्य की महत्वपूर्ण भूमिका है। अनुवाद के क्षेत्र में विश्व की दो प्राचीनतम सभ्यताओं भारत तथा चीन के योगदान को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। भारत तथा चीन धार्मिक ग्रंथों, प्रवचनों, श्रुतियों, अनुश्रुतियों, भाष्यों, अनुभाष्यों, वाद-विवादों-संवादों की जन्मभूमि रहे हैं। यहाँ ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ दोनों के भाष्यपरक अनुवादों की प्राचीन परंपरा विद्यमान रही है। प्राचीन काल में भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य का क्षेत्र अत्यंत विशाल था। एशिया के प्राय: सभी देश उस समय भारतीय धर्म तथा संस्कृति से प्रभावित थे। चीन और भारत के सांस्कृतिक संबंध का आधार बौद्ध धर्म है। कुल, वर्ण, क्षेत्र, जाति, नस्ल, लिंग-भेद आदि की सीमा से मुक्त गौतम बुद्ध की शिक्षा का प्रचार-प्रसार अनुवाद के कारण ही संभव हो सका। भारत और उसके विविध उपनिवेशों से बहुत से बौद्ध श्रमण और भिक्षु समय-समय पर चीन जाते रहे और उन्होंने वहां के निवासियों को तथागत बुद्ध के धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। भारतीय विद्वान धर्मकीर्ति, कुमारजीव, बोधिरुची, धर्मरक्ष, परमार्थ तथा चीनी यात्री फाह्यान, ह्वेनसांग, इत्सिंग आदि के अनुवाद कार्यों के माध्यम से भारत तथा चीन के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुए। बौद्ध धर्म एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार के क्रम में अनुवाद की श्रीलंकाई, चीनी, कोरियाई एवं जापानी, दक्षिण एशियाई, तिब्बती, यूरोपीय, भारतीय बौद्ध परंपरा की व्यवस्थित पद्धति विकसित हुई।
बीज शब्द : चीन, भारत, बौद्ध, धर्म, साहित्य, अनुवाद, पालि, संस्कृत।
मूल आलेख : प्राचीन काल से ही भारत और चीन का आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संबंध रहा है। ईसवी सन की पहली सदी में चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश हो चुका था। चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु संस्कृत एवं पालि में लिखे गए बौद्ध धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद की आवश्यकता प्रतीत हुई। बौद्ध प्रचारकों तथा चीनी बौद्ध विद्वानों ने ब्राह्मी, पालि, संस्कृत और अन्य बौद्ध लिपियों से अनेकों बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। भारत और चीन के बीच अनौपचारिक संबंध का आधार यही प्रक्रिया थी। भारत और चीन एक दूसरे को अनुवाद के माध्यम से ही जानते थे। प्रारंभिक समय में बौद्ध धर्म ही भारत और चीन के बीच संबंधों का आधार रहा। दोनों देशों के बीच धार्मिक आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही संचालित रहा। स्पष्ट है कि अनुवाद के लिए बौद्ध भिक्षुओं को चीनी भाषा का ज्ञान अर्जित करना पड़ा होगा इसी प्रक्रिया में चीनी लोगों ने पालि और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया क्योंकि बौद्ध ग्रंथ इन्हीं भाषाओं में लिखे गए थे। अनुवाद की इस प्रक्रिया में कई कठिनाई आई लेकिन चीनी विद्वानों ने विभिन्न देशों के विद्वानों के साथ मिलकर इस समस्या का समाधान किया इस प्रकार अनुवाद के परंपरागत ढांचे के आधार पर आधुनिक अनुवाद सिद्धांत का विकास हुआ।
थेरवादी मत के अनुसार बुद्ध-वचन तीन पिटकों में, पांच निकायों में, नव अंगों में, अथवा चौरासी हजार धर्मस्कंधों में संग्रहीत हैं। तीन पिटक प्रसिद्ध हैं- सुत्त-पिटक, विनय-पिटक एवं अभिधम्मपिटक। पालि सुत्त-पिटक पांच निकायों में विभक्त है- दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय एवं खुद्दकनिकाय। 1 चतुर्थ बौद्ध संगीति में अभिधम्म-महाविभाषा की रचना की गई। 2 इस संगति में त्रिपिटक पर विभाषाएं रची गयीं जिनमें प्रत्येक शतसाहस्त्रिका थी। हीनयान का आगम अपेक्षाकृत सीमित और परिगणित है। अपने मूल रूप में अवशिष्ट महायानिक सूत्रों एवं शास्त्रों की संख्या दो दर्जन से अधिक नहीं है,3 परन्तु महायान-साहित्य की वास्तविक विपुलता चीनी और तिब्बती त्रिपिटकों तथा चीनी और तिब्बती यात्रियों एवं इतिहासकारों की कृतियों को देखने से ही विदित होती है। नन्जियो के द्वारा संगृहीत चीनी त्रिपिटक की सूची4 में सूत्र-पिटक के अभ्यंतर 541 महायान-सूत्रों का उल्लेख है। ये सूत्र सात वर्गों में विभक्त हैं पहले वर्ग में एकाधिक प्रज्ञापारमिता सूत्र संग्रहित है, दूसरे में 49 सूत्र हैं जिसमें वृहत सुखावतीव्यूह भी सम्मिलित है, तीसरे में चंद्रगर्भ, क्षितिगर्भ, आकाशगर्भ आदि सूत्र है, चौथ में अवतंसक सूत्र के दो अनुवाद तथा उसके अनेक खंड पृथक रूप में उपलब्ध होते हैं, पांचवें में परिनिर्वाण संबंधी अनेक सूत्र हैं। छठे में सद्धर्मपुंडरीक, स्वर्णप्रभात, ललितविस्तर, लंकावतार आदि सूत्र हैं, तथा सातवें में शूरंगम, महावैरोचन आदि सूत्रों का संग्रह है। नंजियो की सूची के विनयपिटक में उल्लेखित महायान ग्रंथों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एक ‘ब्रह्मजालसूत्र’ है जिसका दीघनिकाय के ब्रह्मजाल से कोई संबंध नहीं है। चीनी ब्रह्मजालसूत्र एक प्रकार से महायान का विनय है। नंजियो की सूची में ‘अभिधम्मपिटक’ के अंतर्गत महायान ग्रंथों में नागार्जुन, असंग आदि के विचारित शास्त्र संग्रहित हैं। चीनी अनुवादों की तिथियां से प्रतीत होता है कि महायान-सूत्रों का रचनाकाल सामान्यतः पहली शताब्दी ईसवी से चौथी शताब्दी तक मानना चाहिए। 5 शोध पत्र में उपरोक्त वर्णित हीनयानी एवं महायानी साहित्य के अनुवादों की चर्चा की जाएगी।
चीन में बौद्ध धर्म एवं अनूदित बौद्ध साहित्य - चीन के प्राचीन वृतांतों के अनुसार पूर्वी हान वंश (20ई.-211ई.) के चीनी सम्राट मिंग-ती के निमंत्रण को स्वीकार कर धर्मरत्न और काश्यप मातंग (67 ई.) नामक भारतीय भिक्षु चीन गए और सम्राट ने राजधानी लोयांग में उनके लिए श्वेताश्व नामक विहार की स्थापना की। ये भिक्षु अपने साथ अनेकों बौद्ध ग्रंथों को भी ले गए थे। उन्होंने अपना शेष जीवन श्वेताश्व विहार में व्यतीत करते हुए अनेक बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। 6 काश्यप मातंग ने ‘द्वाचत्वारिंशत-सूत्र’ का चीनी भाषा में अनुवाद किया। यह पहला बौद्ध (और भारतीय भी) ग्रन्थ था जिसका चीनी-भाषा में अनुवाद हुआ। काश्यप का अनुवाद किया हुआ सूत्र कोई एक सूत्र न होकर कई सूत्रों का सार है। 7 धर्मरत्न तथा काश्यप मातंग का अनुसरण कर बहुत से बौद्ध भिक्षु मध्य एशिया से चीन जाने लगें। ये भिक्षु केवल भारतीय ही नहीं थे अपितु इनमें पार्थिया, सीस्तान, तुखार, खोतान, कुची, सुग्ध आदि अनेक प्रदेशों के लोग भी थे8, जो इस समय तक भारतीय धर्म को स्वीकार कर चुके थे। यहाँ के लोगों के द्वारा संस्कृत ग्रंथों का पठन-पाठन होता था, लिखने के लिए ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों का प्रयोग किया जाता था और राजकीय कार्यों पर परस्पर व्यवहार के लिए संस्कृत भाषा प्रयुक्त की जाती थी। ये सभी प्रदेश भारतीयों से परिपूर्ण थे और इनका स्वरूप भारत के उपनिवेशों के समान था। बौद्ध धर्म के साथ भारतीय साहित्य, कला, संस्कृति आदि का भी चीन में प्रवेश हुआ। चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाले विविध जातियों के विद्वानों एवं भिक्षुओं और उनके द्वारा अनूदित बौद्ध साहित्य का उल्लेख निम्नलिखित हैं-
अन-शी-काउ - मातंग के 81 साल व्यतीत होने के बाद हमें अनुवादों का निरंतर क्रम आरम्भ होता दिखाई पड़ता है। 148 ईस्वी में अन-शी-काउ संस्कृत नाम लोकोत्तम पार्थिया से चीन आए और श्वेताश्व विहार में रहते हुए बीस वर्षों तक चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। कहा जाता है कि उन्होंने 95 बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया था, परन्तु नन्जियो के सूचीपत्र से ज्ञात होता है कि अब उनमें से 55 ही उपलब्ध हैं। अन-शी-काउ के अनुवादों में अधिकांश सुत्तपिटक के आगमों (निकायों) के अंश हैं। 9 उनकी अनुवाद प्रक्रिया इस प्रकार थी- पहले वह एक-एक शब्द का चीनी प्रतिशब्द बोलते जाते थे, जिसे लिपिक चीनी-अक्षरों में लिखता जाता था। फिर वह उनके भाव को किसी चीनी विद्वान को समझाते, जिसे वह उतार लेता और अंत में अनुवाद को उसके अनुसार ठीक कर देता। अन-शी-काउ केवल कुशल अनुवादक ही नहीं थे, बल्कि उनके शिष्यों एवं विद्यार्थियों ने चीन में बौद्ध धर्म की स्थापना में महत्वपूर्ण कार्य किया था। चीनी बौद्ध धर्म में अन-शी-काउ का वही स्थान है, जो सिंहल में महेन्द्र का है।
लोकक्षेम तथा अन-ह्वेन - लोकक्षेम यू-ची (शक) जाति के थे। लोकक्षेम शी-काउ के साथ श्वेताश्व विहार में रहते थे। लोकक्षेम के 23 अनूदित ग्रंथों में से 12 ही अब उपलब्ध हैं। ‘दशसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता’ का अनुवाद करने का श्रेय लोकक्षेम को ही जाता है। 10 लोकक्षेम के बाद आने वाले प्रचारकों में अन-ह्वेन प्रमुख थे। उनमें बौद्ध धर्म-प्रचार के प्रति बहुत लगन थी। उन्होंने चीनी विद्वानों की सहायता से परिपृच्छा-सूत्र का अनुवाद किया। यह महायान के रत्नकूट-सूत्रसमुदाय का एक भाग है, और महायान-साहित्य में ऊंचा स्थान रखता है। अन-ह्वेन ने ‘निदान-सूत्र’ का अनुवाद भी किया। पालि सूत्रपिटक में भी महानिदान-सूत्र (दीघनिकाय) बहुत प्रसिद्ध है और इसे प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत को जानने के लिए बहुत उपयोगी समझा जाता है। पूर्वी हान-वंश (20ई.-211ई.) में सब मिलाकर 434 ग्रंथों का अनुवाद हुआ था, इनमें से लगभग 100 ही अब उपलब्ध है। 11 आरंभ में इतने ग्रंथों का अनुवाद कम नहीं है।
धर्मसत्य,
पो-यंग और ची-चियेन - हान वंश के पतन के पश्चात चीन में तीन छोटे राजवंशों का शासन लगभग अगले 50 वर्षों तक चला। चीन राजनीतिक दृष्टि से आगे बढ़ा परन्तु इस समय बौद्ध धर्म की प्रगति रुकी नहीं। श्वेताश्व विहार से अभी भी शांतिपूर्वक बौद्ध धर्म का प्रचार एवं अनुवाद कार्य हो रहा था। धर्मसत्य (254 ई.) और पो-यंग (256-260 ई.) ने भी श्वेताश्व विहार में रहकर काम किया। धर्मसत्य ने ‘धर्मगुप्तिक निकाय’ के विनय का अनुवाद किया था। पो-यंग के अनुवादों में सुखावती-व्यूह भी था। ची-चियेन इस समय के अन्य महत्वपूर्ण अनुवाद थे जो यू-ची (शक) जाति के थे। उन्होंने 127 ग्रंथों का अनुवाद किया था, जिनमें 49 अब भी उपलब्ध हैं। उनके अनुवादों में ‘अवदान-शतक’ एवं ‘मातंगी-सूत्र’ सबसे जनप्रिय हैं। चि-चियेन के अन्य अनुवादों में विमलकीर्तिनिर्देश, वत्ससूत्र, शालीस्तंभसूत्र, ब्रह्मजालसूत्र भी सम्मिलित हैं। 12
धर्मरक्ष एवं धर्मरत्न - तीन छोटे राज्यों के शासन के पश्चात् पश्चिमी छिन वंश (265-316 ई.) के काल में भी बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद का कार्य निर्बाध गति से चलता रहा। इस समय 15 विद्वानों ने 444 ग्रंथों का अनुवाद किया। पश्चिमी छिन वंश के काल में धर्मरक्ष का अनुवादकों में प्रथम स्थान था। यह शक वंशी थे। इन्होंने 211 ग्रंथों का अनुवाद किया था, परन्तु वर्तमान में 92 ही प्राप्य हैं। 13 284 ई. में वे चीन के छांग-अन आए और वहां उन्होंने एक विहार बनवाया। हजारों विद्यार्थी उनके यहां बौद्ध धर्म का अध्ययन करते थे। 29 वर्ष (284-313 ई.) तक छांग-अन में रहकर उन्होंने धर्म-प्रचार और बहुत से ग्रंथों का अनुवाद किया। उनके द्वारा अनूदित ग्रंथों में प्रज्ञापारमिता, दसभूमिसूत्र14, सद्धर्मपुंडरीक, ललितविस्तर प्रमुख थे। सद्धर्मपुंडरीक का इन्होंने अनुवाद ही नहीं किया, बल्कि इस ग्रन्थ के द्वारा ही चीन में अवलोकितेश्वर की महिमा का प्रचार भी किया। पूर्वी छिन वंश (317-420 ई.) ने दक्षिण-चीन में नानकिंग को अपनी राजधानी बनाया। नानकिंग पहले से ही बौद्ध धर्म का प्रचार का केंद्र बन चुका था। इस काल में 17 अनुवादकों का विवरण प्राप्त होता है। इसी काल में धर्मरत्न ने 110 संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद किया, जिनमें से अधिकांश सूत्रपिटक के आगम (निकाय) थे। उन्होंने दीर्घ-मध्यम-संयुक्त और एकोत्तर आगमों का अनुवाद किया। 15
कुमारजीव - कुमारजीव का भारतीय ग्रंथों के चीनी अनुवादक के रूप में स्थान अद्वितीय है। कुमारजीव के पिता कुमारायन एक भारतीय भिक्षु थे, जो कूचा में जाकर बस गए थे। कुमारजीव की शिक्षा कश्मीर में हुई थी। 16 भिक्षु के रूप में तीस वर्ष तक कुमारजीव ने महायान का प्रचार किया। 401 ई. में कुमारजीव चीन के छांग-अन पहुंचे, जहाँ चीनी सम्राट ने उन्हें राजगुरु बनाया। कुमारजीव की मातृभाषा कूचा में बोली जाने वाली तुखारी थी। कश्मीर में चिरकाल तक रहने के कारण वहां की भाषा पर भी उनका अधिकार था। संस्कृत तो उनके पठन-पाठन और शास्त्रार्थ की भाषा थी। कूचा में चीनियों और तुर्कों की सीमा पर रहने के कारण उनका इन दोनों भाषाओं पर भी अधिकार था। साहित्यिक चीनी लिखने में ऐसी ख्याति शायद ही किसी विदेशी ने प्राप्त की हो। कुमारजीव के चीन आने से पूर्व मध्य एशिया और अन्य स्थान से आने वाले बौद्ध भिक्षु अनुवाद कार्य कर रहे थे। उनकी सहायता के लिए चीनी बौद्ध होते थे, किंतु वह भारतीय शब्दों एवं वाक्य शैली को समझ नहीं पाए थे, इसलिए अच्छे अनुवाद नहीं हो पाए थे। चीनी सम्राट की प्रार्थना पर कुमारजीव ने इस दोष को दूर करने का कार्य किया। 17 कुमारजीव ने 12 वर्षों तक चीन में रहकर 100 ग्रंथों का अनुवाद किया। नन्जियो ने अपनी चीनी बौद्ध ग्रन्थ सूची में इनमें से 40 का उल्लेख किया है। 18
कुमारजीव ने महायानी-ग्रंथों में प्रज्ञापारमिता संबंधी ग्रंथों (पांचविंशतसाहस्त्रिका, दससाहस्त्रिका, वज्रछेदिका-प्रज्ञापारमिता, प्रज्ञापारमिता-हृदय, प्रज्ञापारमिता-सूत्र) का अनुवाद किया। इन माध्यमिक ग्रंथों के अतिरिक्त उन्होंने नागार्जुन की मध्यमकारिका और उस पर आर्यदेव की टीका तथा आर्यदेव के शतशास्त्र का भी अनुवाद किया। कुमारजीव ने हरिवर्मा के ‘सत्यसिद्धिशास्त्र’ का भी अनुवाद किया, जो शून्यवाद का समर्थन करता है। कुमारजीव के अनुवादों में विमलकीर्तिनिर्देश, सद्धर्मपुंडरीक, सुखावतीव्यूह भी है। विमलकीर्तिनिर्देश महत्वपूर्ण महायानी सूत्र है, इसमें प्राणी मात्र के प्रति करुणा का उच्च आदर्श स्थापित किया गया है। कुमारजीव का सद्धर्मपुंडरीक का अनुवाद भी बहुत महत्वपूर्ण है। चीन और जापान दोनों में इस सूत्र के आधार पर बौद्ध संप्रदाय बने हैं। 19 सुखावतीव्यूह में अमिताभ की अनन्य भक्ति और केवल भक्ति के आधार पर प्राणी के निस्तार का उपदेश है। अमिताभ-संप्रदाय चीन और जापान में बहुत प्रसिद्ध है। संक्षिप्त सुखावती का प्राचीनतम चीनी अनुवाद कुमारजीव ने 402 ई. में किया था। 20 पालि सूत्रपिटक के ब्रह्मजालसूत्त (दीघनिकाय) से भिन्न एक महायान ब्रह्मजाल-सूत्र का कुमारजीव ने 406 ई. में अनुवाद किया था। यह ग्रन्थ महायानियों के लिए विनयपिटक के समान है इसमें भिक्षुओं हेतु आचार-नियम दिए गए हैं। 21 कुमारजीव ने बौद्ध-धर्म प्रचार में इतना अधिक कार्य कि उसके परिणामस्वरूप उत्तरी चीन में अनेक बौद्ध विहार स्थापित किये गए और साधारण जनता का 9/10 भाग बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था। उनसे प्रभावित होकर तीन हजार भिक्षुओं ने उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था। 22 इस तरह उन सभी महत्वपूर्ण महायान-सूत्रों का कुमारजीव ने सुंदर अनुवाद किया जो आगे चलकर महायानिक देशों में सबसे अधिक मान्य हुए। कुमारजीव ने अपना सम्पूर्ण जीवन भारतीय विचारधारा, संस्कृति और साहित्य के प्रसार में लगा दिया। वह उन व्यक्तियों में हैं, जिनका स्थान प्रत्येक भारतीय संस्कृति प्रेमी के हृदय में स्थिर रहेगा।
धर्मक्षेम तथा बोधिरुची - पाँचवी शताब्दी के प्रसिद्ध अनुवादकों में धर्मक्षेम का स्थान भी महत्वपूर्ण है। धर्मक्षेम एक भारतीय भिक्षु थे। वे भारत में उत्तर प्रदेश अथवा बिहार के रहने वाले थे। धर्मक्षेम ने हीनयान तथा महायान के ग्रंथों का बीस वर्षों तक अध्ययन किया था। अध्ययन के पश्चात् वे कश्मीर चले गए और वहां से मध्य एशिया होते हुए चीन पहुँचे, जहाँ हूण नरेश ने उनसे बौद्ध धर्मग्रंथों के चीनी अनुवाद करने की प्रार्थना की। धर्मक्षेम ने राजा की बात स्वीकार कर पहले तीन वर्षों तक चीनी भाषा का ज्ञान अर्जन किया, उसके पश्चात उन्होंने कई चीनी अनुवादकों की सहायता से महानिर्वाणसूत्र, महासन्निपातसूत्र, करुणापुंडरीकसूत्र, बोधिसत्वचर्यानिर्देशसूत्र, उपासकशीलसूत्र आदि का अनुवाद किया। 23 धर्मक्षेम का सबसे महत्वपूर्ण कार्य अश्वघोष रचित बुद्धचरित्र का अनुवाद था। इसमें बुद्ध के जन्म से महापरिनिर्वाण प्राप्ति तथा धातु-वितरण तक का वृतांत मिलता है। यह चीनी अनुवाद 414-418 ई. में किया गया था। क्षेम के द्वारा अनूदित एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ सुवर्णप्रभातसूत्र भी था। यह ग्रंथ मध्य-एशिया की बहुत-सी प्राचीन भाषाओं में अनूदित हुआ था। इसका मूल संस्कृत भी उपलब्ध है। चीन और जापान में इसका बहुत प्रचार है तथा इस पर कई टीकाएँ भी लिखी गई है। इसमें राजा के कर्तव्य के बारे में कुछ वचन है इसलिए जापानी राजपरिवार का इसकी और विशेष ध्यान गया था। 24
बोधीरुची उत्तर भारत के त्रिपिटकाचार्य भिक्षु थे। वे लोयांग (चीन) में रहकर (508-535 ई.) तक अनुवाद का कार्य करते रहे। उनके द्वारा अनूदित 39 ग्रंथों में से 30 उपलब्ध हैं। बौद्ध धर्म प्रचार के लिए उत्साहित होकर वे कश्मीर होते हुए हिम-पर्वतों को पार कर मध्य एशिया तथा वहां से 508 ई. में लोयांग पहुंचे। वहां उन्होंने 700 संस्कृतज्ञ भिक्षुओं की सहायता 39 बौद्ध ग्रंथों को अनूदित किया। इनके द्वारा अनूदित ग्रंथों में विशेषचिंता, दशभूमिक, गयाशीर्ष, लंकावतार, धर्मसंगीति विशेष महत्व रखते हैं। 25
परमार्थ - कुमारजीव के पश्चात भारतीय अनुवादकों में परमार्थ का स्थान सर्वप्रमुख है। लियांग-वंश (546-57 ई.) के शासनकाल में परमार्थ ने 19 ग्रंथों का और चेन शासनकाल (557-69 ई.) में 51 ग्रंथों का अनुवाद किया। उनके द्वारा 70 अनूदित ग्रंथों में से 32 ही उपलब्ध हैं। परमार्थ का जन्म उज्जैन के एक शिक्षित ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ब्राह्मण और बौद्ध शास्त्रों के विशद अध्ययन के बाद वे पाटलिपुत्र पहुंचे। 539 ई. में संस्कृत ग्रंथों और किसी बड़े विद्वान की खोज में एक चीनी दूतमंडल मगध पहुंचा। मगधराज ने चीन-सम्राट की आकांक्षा को स्वीकार करते हुए बहुत-सी पुस्तकों के साथ परमार्थ को चीन जाने के लिए तैयार किया। चीन पहुंच कर उन्होंने भारतीय ग्रंथों के चीनी अनुवाद का कार्य प्रारंभ किया। उन्होंने असंग की योगचर्या (सप्तदशभूमिकशास्त्र), स्वर्णप्रभाससूत्र और महायानश्रद्धोत्पादन का अनुवाद किया। महायानश्रद्धोत्पादन अनात्मवाद या शून्यवाद और योगाचार की व्याख्या है। 26 परमार्थ ने शून्यवाद तथा विज्ञानवाद का चीन में सबसे पहले प्रचार किया। अपने ‘वसुबंधु-चरित्र’ में परमार्थ ने वसुबंधु के बड़े भाई असंग के विषय में बहुत-सी अज्ञात बातें लिखी हैं। जापानी विद्वान आचार्य तका-कू-सू ने परमार्थ के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है27- “लियांग वंश के पत्नोन्मुख और और चेन वंश के आरंभिक काल में भारतीय अतिथि (परमार्थ) ने जो साहित्य-साधना और धार्मिक उत्साह प्रदर्शित किया था, उसकी ओर चीनी बौद्ध बहुत आकृष्ट हुए। वे उस समय के सभी राजनीतिक उपद्रवों के होते हुए भी इस नए उपदेष्टा का उपदेश सुनने हेतु बड़ी संख्या में एकत्र होते थे। उनके उपदेश अनेक विषयों पर होते थे किंतु सभी बौद्ध विज्ञानवाद, वसुबंधु और असंग के सिद्धांतों केन्द्रित होते थे। वह इन सिद्धांतों के प्रति लोकरुचि पैदा करने में सफल हुए। उनका अनुवाद कार्य अद्भुत और हर प्रकार से संतोषप्रद था। विज्ञानवाद, वसुबंधु, असंग, ईश्वरकृष्ण कृत सांख्यकारिता तथा उसकी टीका, साथ ही अश्वघोष, वसुमित्र, नागार्जुन और गुणमति के कितने ही ग्रंथों जैसी बहुत-सी महत्वपूर्ण कृतियों को अनुवाद-रूप में सुरक्षित रखने के लिए हम परमार्थ के बहुत-बहुत कृतज्ञ हैं।
चीनी अनुवादक - यहाँ प्रसिद्ध चीनी यात्रियों फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग का उल्लेख करना भी अनिवार्य है। ये तीनों ही अनूदित चीनी बौद्ध ग्रन्थों से असंतुष्ट होकर स्वयं उन ग्रंथों के मूल रूपों को पढ़ने तथा उनको चीन ले जाने की इच्छा से भारत की यात्रा पर आए थे। ये तीनों महान यात्री अपने-अपने साथ सैकड़ो ग्रंथों की पांडुलिपियां ले गए थे, जिनके अनुवाद उन्होंने स्वयं तथा अनेक समकालीन एवं परवर्ती विद्वानों ने किए। इनके द्वारा अनुदित ग्रंथों ने चीन में बौद्ध धर्म एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन तीनों यात्रियों के द्वारा अनूदित ग्रंथों का उल्लेख निम्नलिखित हैं-
फाह्यान - फाह्यान के समय तक बहुत से बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद हो चुका था, किन्तु विनयपिटक के अनुवाद की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। फाह्यान का ध्यान इस ओर गया और वह विनय-ग्रंथों के संग्रह के लिए भारत आया। फाह्यान की भारत की तीर्थयात्रा (399-414 ई.) पहली महत्वपूर्ण यात्रा मानी जाती है। उनके द्वारा अनूदित ग्रंथों में महापरिनिर्वाण-सूत्र की छ: जिल्द और महासांघिक विनय सम्बन्धी ग्रंथों के पाठ की लगभग 40 जिल्द हैं। उसने महासांघिक विनय की पाण्डुलिपि को पाटलिपुत्र के एक बौद्ध मठ से प्राप्त किया था। उन्होंने इसका अनुवाद एक भारतीय बौद्ध विद्वान बुद्धभद्र के साथ मिलकर 424 ई. में किया था। 28 फाह्यान अपने अनुवादों से अधिक अपने यात्रा विवरण ‘बौद्ध साम्राज्यों के दस्तावेज : भारत, श्रीलंका आदि तीस देशों की यात्राओं का रिकॉर्ड’ से अमर हुए।
ह्वेनसांग - ह्वेनसांग का जन्म एक कन्फूसी परिवार में हुआ था, वे चार भाइयों में सबसे छोटे थे। कन्फूसी ग्रंथों की शिक्षा उन्होंने अपने पिता से प्राप्त की और बाद में बहुत से बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया। 20 वर्ष की आयु में वह भिक्षु हो गए। उनकी इच्छा शाक्यमुनि की जन्मभूमि देखने तथा वहां के भिक्षुओं से ज्ञान प्राप्त करने की हो रही थी। 629 ई. में ह्वेनसांग भारत के लिए रवाना हुए। भारत पहुंचकर नालंदा में आचार्य शीलभद्र के पास कई वर्षों तक उन्होंने बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया। 16 वर्ष बाहर रहने के बाद 645 ई. में स्वदेश लौटने पर उनका बड़ा सम्मान हुआ। सम्राट के कहने पर उन्होंने अपना यात्रा विवरण लिखा जो 648 ईस्वी में समाप्त हुआ। उनके दो शिष्यों ने 665 ई. में ह्वेनसांग-चरित पूरा किया। 29 ह्वेनसांग ने 75 ग्रंथों का अनुवाद किया जो लगभग 1300 जिल्दों में थें। 30 ह्वेनसांग ने अधिकतर योगाचार, अभिधर्म, प्रज्ञापारमिता और सर्वास्तिवादी अभिधर्म का अनुवाद किया। सर्वास्तिवाद के प्रमुख ग्रंथों- संगीतपर्याय, विज्ञानकाय, धातुकाय और धर्मस्कंध का उन्होंने अनुवाद किया। इनके अतिरिक्त उन्होंने पिटकों की टीका महाविभाषा का भी अनुवाद किया। 31 अनुवादों के अतिरिक्त ह्वेनसांग ने विज्ञानवादी योगाचार संप्रदाय की चीन में स्थापना की। उन्होंने दिग्नाथ के दो ग्रंथों न्यायमुख और आलंबनपरीक्षा का भी अनुवाद किया। 32
इत्सिंग - इत्सिंग का जन्म 635 ई. में चो-शांग (ची-ली-प्रान्त) में हुआ था। साधारण शिक्षा के बाद 12 वर्ष की आयु में उन्होंने बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन प्रारंभ किया और 14 वर्ष की आयु में भिक्षु हो गए। अगले 19 वर्षों तक वे बौद्ध धर्म का अध्ययन करते रहे। विद्या उपार्जन के बाद पर्यटन का क्या महत्व है यह वे ह्वेनसांग के जीवन से जानते थे। 671 ई. में कान्टन बंदरगाह (चीन) से समुद्री मार्ग द्वारा भारत के लिए निकल पड़े और 673 ई. में वे ताम्रलिप्ति (बंगाल) पहुंचे। इत्सिंग ने 12 वर्ष भारत में बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन में व्यतीत किए और कुल 25 वर्षों (671-95 ई.) तक घूमते हुए अनेक देशों की यात्रा की। 695 ई. में जब वे चीन लौटे तो अपने साथ पांच लाख श्लोकों के बराबर 400 संस्कृत ग्रंथ ले गए थे। उनके द्वारा अनूदित 56 ग्रंथ हैं। 33 इत्सिंग की भारत यात्रा का उद्देश्य विनय ग्रंथों का संग्रह था। इत्सिंग का सर्वप्रमुख कार्य मूलसर्वास्तिवादी पिटक का चीनी अनुवाद था। चीनी त्रिपिटक में इनकी 12 जिल्दें हैं। तिब्बती भाषा में भी इसी निकाय का अनूदित विनयपिटक 12 जिल्दों में हैं। इनके अनुवाद के लिए इत्सिंग की अध्यक्षता में 54 विद्वान सात वर्ष (703-10 ई.) तक लग रहे। विनयपिटक के अतिरिक्त इत्सिंग ने जिनमित्र के ‘मूलसर्वास्तिवादविनयसंग्रह’ और विशाख के ‘मूलसर्वास्तिवादनिकायविनयगाथा’ का भी अनुवाद किया। विनयगाथा को इत्सिंग ने नालंदा में रहते हुए अनूदित किया था। इत्सिंग के अनूदित ग्रंथों में एक छोटा ग्रंथ अध्यर्धशतक है, जिसे कनिष्क के समय में आचार्य मातृचेट ने बुद्ध-स्रोत के रूप में बुद्ध-सिद्धांतों का परिचय कराने के लिए रचा था। इत्सिंग के अनुवादों में एक महत्वपूर्ण पत्र सुहृल्लेख (घनिष्ट मित्र को पत्र) है, जिसे नागार्जुन ने शातवाहन राजा को लिखा था। 34
निष्कर्ष : उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत के प्राचीन इतिहास में अनुवाद की परंपरा सबसे पहले संभवत: बौद्धों ने ही प्रारंभ की थी। बुद्ध की शिक्षा की प्रकृति ही ऐसी थी कि अनुवाद के बिना इसका प्रचार-प्रसार संभव न था। प्रारंभिक समय में चीन में बौद्ध धर्म को किसी धर्म के रूप में नहीं अपितु एक उत्कृष्ट शैक्षिक दर्शन के रूप में जाना जाता था और बौद्ध धर्म को यह अद्वितीय रूप प्रारंभिक अनुवादकों ने प्रदान किया था। यही कारण है कि उनकी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण एशिया में तेजी से हुआ। व्यापारिक गतिविधियों से चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश हुआ और बौद्ध धर्म के कारण दोनों देश सांस्कृतिक रूप से निकट आए, अनुवाद के माध्यम से वैचारिक आदान-प्रदान का क्रम प्रारंभ हुआ। जिन भारतीय अनुवादकों ने बौद्ध धर्म ग्रंथो का चीनी भाषा में अनुवाद किया वे चीन में ही बस गए और बौद्ध धर्म एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में जीवनपर्यंत लगे रहें, लेकिन चीन के जिन अनुवादकों ने बौद्ध धर्म ग्रंथो का अनुवाद संस्कृत अथवा पालि से चीनी में किया वे यात्री के रूप में भारत आए थे। उन्होंने भारत में रहकर संस्कृत तथा पालि भाषा सीखी और बौद्ध धर्म ग्रंथो के चीनी अनुवाद कर अपने देश में बौद्ध धर्म और साहित्य का प्रचार-प्रसार किया। बौद्ध धर्म ग्रंथों के चीनी अनुवादों का अत्यंत विशाल संग्रह अनुवादकों के कठिन परिश्रम का परिणाम है जिन्होंने वर्षों तक किसी शब्दकोश, पारिभाषिक शब्दावली आदि अनुवाद कार्य में सहायक सामग्री के बिना इतने व्यापक अनुवाद कार्य को कृतार्थ कर दिखाया।
1. गोविन्द चन्द्र, पाण्डे, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, षष्ठम संस्करण, 2015, पृष्ठ 183-84
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, इतिहास विभाग, हर्ष विद्या मन्दिर (पी.जी.) कॉलेज, रायसी, हरिद्वार, उत्तराखण्ड
prashantkumar.hvmpg@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें