शोध आलेख : हिंदी नवजागरण के विकास में अनुवाद की भूमिका / कमलेश कुमारी

हिंदी नवजागरण के विकास में अनुवाद की भूमिका
-  कमलेश कुमारी

शोध सार : भारतीय साहित्य और अनुवाद की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध रही है। प्राचीन काल से हीभारतीय समाज में अनुवाद का महत्त्व रहा है, चाहे वह संस्कृत से पालि में हो या अन्य भारतीय भाषाओं में।मध्यकाल में संतों ने संस्कृत और पालि के साहित्य का अनुवाद कर जनजागरण का कार्य किया। वैद्यक, ज्योतिष, और व्याकरण जैसे विषयों पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद कर हिंदी भाषा के विकास में भी योगदान दिया। उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में भारतीय प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद कार्य तेजी से हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, और हरिवंश राय बच्चन जैसे साहित्यकारों ने अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, और मराठी साहित्य का अनुवाद कर हिंदी साहित्य को नई दिशा दी। नवजागरण भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है, जिसने भारतीय समाज को परंपरा से आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव में भारतीयों ने अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और पहचान पर पुनर्विचार करना शुरू किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने ब्रिटिश शासन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों को देखा। भारतीय समाज ने अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को नए सिरे से परिभाषित कर आधुनिकता और प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। अनुवाद के माध्यम से भारतीय भाषाओं के बीच वैचारिक आदान-प्रदान हुआ, जिससे हिंदी साहित्य का संवर्धन हुआ और राष्ट्रीय एकता को बल मिला। संस्कृत के नाटकों का अनुवाद राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने के लिए और शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद मानव को रूढ़ियों से मुक्त करने के लिए किया गया। 

बीज शब्द : नवजागरण, पुनर्जागरण, अनुवाद, अनुवादक, उपनिवेशवाद, साहित्य, आधुनिकता, बहुभाषिकता, संस्कृति, रचनात्मकता

मूल आलेख : हिंदी नवजागरण वह ऐतिहासिक काल अथवा आंदोलन है जिसमें कला, संस्कृति, विज्ञान और साहित्य में नई चेतना और विचारों का उदय हुआ। नवजागरण को पुनर्जागरण, पुनरुत्थान, नवजीवन, नवजागृति, और नवोत्थान आदि शब्दों के माध्यम से भी जाना जा सकता है किंतु इनमें तात्विक भिन्नताएं हैं। पुनर्जागरण पश्चिम समाज द्वारा प्रदत्त है जो नवजागरण के रूप में भारतीय समाज में प्रचलित हुआ। हिन्दी नवजागरण सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत भारत में आए राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण से है। हिंदी नवजागरण की सबसे प्रमुख विशेषता हिंदी प्रदेश की जनता में स्वातंत्र्य चेतना का जाग्रत होना है। इसका पहला चरण प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इसका दूसरा चरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से शुरू हुआ और तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी से शुरू होकर आगे बढ़ा। प्रत्येक साहित्यकार देश और समाज के हित की भावना से भावित मन में ब्रिटिश शासन व्यवस्था के प्रति आक्रोश धारण किए हुए था। वे जनता को अपने हकों के प्रति जागृत करना चाहते थे।हमे सारे देश में एक विचार स्त्रोत बहा देना है। सारे देश में एक ही उमंग, एक ही आवेग, एक ही सहनुभूतिमय हृदय उत्पन्न करना है।1 नवजागरण के लिए सभी को साथ मिलाकर एक ही उद्देश्य के लिए एक ही दिशा में सोचना आवश्यक था। फलस्वरूप सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रियता बढ़ी। तत्कालीन साहित्यकार मातृभूमि प्रेम, स्वदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, गोरक्षा, बालविवाह निषेध, शिक्षा का महत्त्व, मद्य निषेध आदि विषयों पर आधारित साहित्य पर लेखनी चलाने लगे। समाज सुधारकों के विचारों ने जन-जीवन को प्रभावित किया। नवजागरण की यह लहर बंगाल से शुरू हुई उसके बाद इस धार्मिक सामाजिक सुधार जागरण की लहर महाराष्ट्र तक पहुंची। मध्यदेश इससे अछूता ही रह गया इसका एक कारण शिक्षा का प्रसार तो था ही अपितु समाज सुधारकों का अभाव भी था। गोपाल राय भी यह स्वीकारते हुए लिखते हैं - “सामाजिक नवजागरण आंदोलन के बिहार, युक्त प्रांत और उसके आसपास के हिंदी क्षेत्र में फैलने का एक कारण इस क्षेत्र में राजा राममोहन राय, डेविड हेयर, अलेक्जेंडर डफ, द्वारकानाथ टैगोर, ईश्वरचंद विद्यासागार, अक्षयाकुमार दत्त जैसे शिक्षाशास्त्रियों और समाजसुधारकों का होना भी है।2

नवजागरण भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है, जिसने भारतीय समाज को परंपरा से आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव में भारतीयों ने अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और पहचान पर पुनर्विचार करना शुरू किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने ब्रिटिश शासन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों को देखा। भारतीय समाज ने अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को नए सिरे से परिभाषित कर आधुनिकता और प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया।यह नवजागरण औपनिवेशिक गुलामी के विरुद्ध था। यद्यपि उस समय इस आंदोलन का रूप और दिशा स्पष्ट नहीं थी, पर इसके मूल में जो असंतोष था, वह राजनीतिक स्वतंत्रता की दिशा में ही जाता था। आसमान में निराशा, असंतोष और बेचैनी के बादल जमा हो रहे थे, जो 1857 में जनविद्रोह के रूप में उमड़ पड़े। उत्तर और मध्य भारत में ब्रिटिश शासन को लगभग बहा ले गए।3 इक्कीसवीं सदी में यह विषय विविध विमर्शों का हिस्सा बन गया है। यह एक असमाप्त सफर है जिसे शंभुनाथ ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक 'भारतीय नवजागरण एक असमाप्त सफर' में रेखांकित करते हुए कहा है- “19वीं सदी का नवजागरण अपने अंतर्विरोधों के बावजूद एक आलोक स्तंभ के रूप में दिखता है। भारत ने एक बड़ा मन लेकर अपना नया सफर शुरू किया था। कहना होगा कि वह सफर असमाप्त है, अभी पूरा होना बाकी है।4

भारत में नवजागरण का स्वरूप उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में उभरा। वैचारिक उद्वेलन की प्रक्रिया शुरू हुई, पुरानी परंपराओं को नए परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने की आवश्यकता महसूस हुई जिसने सांस्कृतिक आधुनिकता को जन्म दिया। इन सभी कारकों ने मिलकर भारतीय समाज को एक नई दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया, जिससे नवजागरण का मार्ग प्रशस्त हुआ। हिंदी नवजागरण भारतीय समाज के सांस्कृतिक, सामाजिक, और साहित्यिक पुनर्जागरण का युग था, जिसमें अनुवाद ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनुवाद ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में अनेक महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को केंद्र में रखा। हिंदी साहित्य लेखन की परंपरा में समाज की विभिन्न समस्याओं और विषयों को केंद्र में रखकर रचनाएँ हुईं, जिनमें से कई अनुवाद के माध्यम से संभव हो सकीं। अनुवाद ने केवल नई विधाओं को जन्म दिया, बल्कि साहित्यिक निधि को भी समृद्ध किया। संस्कृत, उर्दू, अरबी-फारसी और अंग्रेज़ी जैसी भाषाओं के शब्दों के अनुवाद ने हिंदी की शब्द संपदा में भी वृद्धि की। हिंदी भाषा का विकास, लिपि निर्धारण और मानकीकरण जैसे प्रश्नों का समाधान भी अनुवाद के माध्यम से हुआ। संस्कृत साहित्य, बांग्ला साहित्य और पाश्चात्य साहित्य के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का अनुवाद करके हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया गया। अनुवाद ने विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के साहित्य को हिंदी में लाकर एक समेकित रूप प्रदान किया। नवजागरण अनुवाद के माध्यम से रचनात्मक ऊर्जा उत्पन्न कर सका। यह प्रक्रिया केवल साहित्यिक विकास तक सीमित नहीं रही, बल्कि समाज के सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण को भी उन्नत किया। अनुवादकों ने अपने सामाजिक और राजनीतिक विचारों को ध्यान में रखते हुए इन कृतियों का अनुवाद किया। एक भाषा की सामग्री का दूसरी भाषा मेंअंतरणअनुवाद कहलाता है। सफल अनुवाद में सांस्कृतिक संदर्भों का खंडित होना ही माना जाता है। अनुवाद सांस्कृतिक सेतुबंध का कार्य करता है।स्रोत भाषा के सांस्कृतिक संदर्भ लक्ष्य भाषा में समान रूप से प्रेषित हों। संस्कृति में लोगों की जीवन पद्धति, आचार-विचार, व्यवहार, तौर-तरीके, खान-पान, रहन-सहन और सामाजिक विशेषताएं आदि सभी बातें सम्मिलित रहती हैं।5 अनुवाद में संप्रेषणीयता को महत्त्वपूर्ण मानते हुए डॉ. किशोरीलाल कलवार ने लिखा है, “एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करते समय उसमें निहित भावों और विचारों की व्याख्या का सम्प्रेषण महत्त्वपूर्ण हो जाता है।6

अनुवाद ने हिंदी नवजागरण में एक महत्त्वपूर्ण उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। किंतु जहां एक तरफ अनुवाद ने भारतीय जनमानस में लोकजागरण की लहर को प्रबल करने में मदद की तो पुनर्जागरण के समय इसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार में अनुवाद ने महती भूमिका निभाई। इस प्रकार जब स्वाभिमान के लिए स्वभाषा का प्रश्न सामने आया और अपनी भाषा को सशक्त बनाने की बात आई तो अनुवाद को किस प्रकार का होना चाहिए इस पर भी विचार विमर्श हुआ। हजारी प्रसाद  द्विवेदी जी कहते हैं-“अंग्रेजी भाषा कासिण्टैक्सहिन्दी भाषा केसिण्टैक्ससे भिन्न है। अनुवाद का मुहावरा भी विशेष प्रकार की कला है जो गहन अभ्यास से प्राप्त होता है। अन्यथा भाषा कई बार ऐसी हो जाती है जैसे अंग्रेजी का अनुवाद किया गया हो। उससे अंग्रेजी की गंध अंत तक नहीं छूटती। जब लोग बांग्ला से अनुवाद करते हैं तब लगता है वह बांग्ला का छोंक है या बांग्ला की बू है।7 इस प्रकार हिंदी को केवल अनुवाद की भाषा ही नहीं बनाया गया, इसमें नए शब्द जोड़े गए और आवश्यकता अनुरूप नए शब्दों की उत्पत्ति भी हुई। इसके माध्यम से केवल हिंदी भाषा का निर्माण और विकास हुआ, बल्कि नए साहित्य और समाज का निर्माण भी अनुवाद के माध्यम से हुआ। अनुवाद ने हिंदी भाषा को एक व्यापक और विस्तृत स्वरूप दिया, जो समाज के सभी वर्गों के लिए ग्राह्य और संप्रेषणीय बना। अनुवाद ने हिंदी भाषा के साहित्य और समाज में अनेक परिवर्तन किए। हिंदी साहित्य में अन्य भाषाओं की सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय कृतियों का अनुवाद करके साहित्यिक धरोहर को उन्नत किया गया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही हिंदी भाषा में अनुवाद की व्यवस्थित परंपरा की शुरुआत हुई क्योंकि यह गहरे में महसूस किया जाने लगा था कि उनकी आत्मसमृद्धि के लिए अनुवाद एक सशक्त माध्यम है। अनुवाद के संदर्भ में भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा सन् 1877 मेंहिंदी की उन्नति पर व्याख्यानविषय पर दिया गया वक्तव्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उनका यह भाषण पद्य शैली में लिखा है जिसमें अंग्रेजों के द्वारा अनुवाद से अपनी भाषा और साहित्य को विकसित करने के प्रयासों से सीखते हुए हिंदी वालों से अनुवाद करने पर बल दिया। इस व्याख्यान के अनुसार ज्ञान के क्षेत्र पर राज करने हेतु अंग्रेजों द्वारा अपनी भाषा छोड़ने और अनुवाद के माध्यम से विभिन्न देशों की कला और ज्ञान से उसे समृद्ध करने के लिए उनकी प्रशंसा की।

पढ़ि विदेश भाषा लहत सकल बुद्धि को स्वाद,
पै कृतकृत्य होते ये बिन कछु करि अनुवाद
पै सब विद्या कि कहूँ होई जो पाय अनुवाद,
निज भाषा मँह तो सबै याको लहई स्वाद।
आल्हा बिरहु को भयो अंग्रेजी अनुवाद,
या लखि लाज आवहि मनहीं होत बिखाद।8

भारतेंदु का यह व्याख्यान अनुवाद के महत्त्व एवं हिंदी की दृष्टि से अनुवाद के द्वारा खुद को विकसित करने वाला दस्तावेज है। भारत भाषाई वैविध्यता का समाज रहा है। मौखिक परंपरा पर आधारित भारतीय सभ्यता में सम्प्रेषण और संवाद के अतिरिक्त ज्ञान प्राप्ति, सृजन, संवर्धन तथा अनुप्रयोग में अनुवाद का प्रयोग होता रहा है। भारतीय साहित्य और अनुवाद की परंपरा अत्यंत प्राचीन और सशक्त रही है। प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में अनुवाद का महत्त्व रहा है, चाहे वह संस्कृत से पालि में हो या अन्य भारतीय भाषाओं में। मध्यकाल में संतों ने संस्कृत और पालि के साहित्य का अनुवाद कर जनजागरण का कार्य किया। वैद्यक, ज्योतिष और व्याकरण जैसे विषयों पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद कर हिंदी भाषा के विकास में भी योगदान दिया। उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में भारतीय प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद कार्य तेजी से हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, और हरिवंश राय बच्चन जैसे साहित्यकारों ने अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, और मराठी साहित्य का अनुवाद कर हिंदी साहित्य को नई दिशा दी। अनुवाद के माध्यम से भारतीय भाषाओं के बीच वैचारिक आदान-प्रदान हुआ, जिससे हिंदी साहित्य का संवर्धन हुआ और राष्ट्रीय एकता को बल मिला। संस्कृत के नाटकों का अनुवाद राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने के लिए और शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद मानव को रूढ़ियों से मुक्त करने के लिए किया गया। रामचंद्र शुक्ल ने जर्मनी के प्रसिद्ध प्राणिशास्त्री एवं भौतिकवादी शास्त्री हेक्केल की पुस्तक 'रिडल ऑफ यूनिवर्स' का अनुवाद 'विश्व प्रपंच' नाम से कर नए ज्ञान-विज्ञान का परिचय कराया। इस प्रकार अनुवाद ने भारतीय प्रौद्योगिकीपरक और सांस्कृतिक क्रांति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस दृष्टि से, अनुवाद केवल दूसरे दर्जे का कार्यक्षेत्र नहीं रहा, बल्कि यह विश्व की एकता और राष्ट्र की एकता को मजबूत करने वाला महत्त्वपूर्ण कार्यक्षेत्र बन गया है। इक्कीसवीं सदी में भी अनुवाद की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण हो गई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संवाद, ज्ञान-विज्ञान का प्रसार, सांस्कृतिक और सामाजिक आदान-प्रदान और भारत जैसे बहुभाषी देश में अंतः सम्प्रेषण के लिए अनुवाद की अनिवार्यता स्पष्ट है। साहित्य में अनुवाद 'वसुधैव कुटुंबकम्' की भावना को साकार करता है और मानव जाति के समग्र जीवन का दिग्दर्शन कराता है। अनुवाद केवल भाषायी बाधाओं को पार करता है, बल्कि वैश्विक समझ और सहयोग में भी बढ़ावा देता है।

उपनिवेश काल में व्यापार तथाकथित वैध नियमों से देश की संपत्ति हथियाने, प्राकृतिक, आर्थिक और मानवीय संसाधनों के लिए राजनीतिक आधिपत्य स्थापित किया तथा बौद्धिक संसाधनों, ज्ञान परंपरा को हथियाने का माध्यम अनुवाद बना। हिंदी अनुवाद के विकास में अंग्रेजी पादरियों का विशेष योगदान रहा है। इनमें से प्रमुख व्यक्ति विलियम केरी थे, जिन्होंने न्यू टेस्टामेंट का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित कराया। इससे धार्मिक और सांस्कृतिक साहित्य हिंदी भाषी लोगों तक पहुंचा। आगरा में एक स्कूल बुक ऑफ सोसाइटी की स्थापना हुई, जिसने 1894 में इंग्लैंड के इतिहास और प्राचीन इतिहास काकथासारनाम से अनुवाद किया। इस प्रकार के अनुवाद ने भारतीय पाठकों को विदेशी इतिहास और संस्कृति से अवगत कराया। राजाराम मोहन राय ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने वेदांग सूत्रों का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित कराया, जिससे संस्कृत ग्रंथों का ज्ञान हिंदी भाषी जनता तक पहुंचा। इसके अलावा, हितोपदेश और राजा लक्ष्मण सिंह के कालिदास के नाटक 'अभिज्ञान शाकुंतलम' के अनुवाद भी इस दौर में हुए, जो भारतीय साहित्य की वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण रहे। 

हिंदी साहित्य को समृद्ध करने और लेखन को नई दिशा देने में अनुवाद ने महती भूमिका निभाई है। नवजागरण का समय हर भाषा में अपनी विशिष्टता रखता है। भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग भाषाओं में तत्कालीन समय में ऐसी अनेक रचनाएँ लिखी जा रही थी जो देशवासियों को एकता के सूत्र में पिरोने के साथ भारतीय समाज को पुनर्गठित करने का कार्य कर रही थीं।तमिल में सुब्रह्मण्य भारती इस नयी चेतना के अग्रदूत हैं यद्यपि उनसे पहले रामलिंग अहडिल तथा गोपालकृष्ण भारती इसकी आधार पीठिका रख चुके थे। तेलुगु में यह कार्य कन्दकूरी वीरेशलिंगम् पन्तुल एवं जी. वी. अप्पाराव ने किया (सन् 1861- 1915 ) उन्होंने लोकसाहित्य की परम्परा को पुनर्जीवित कर उसे सामाजिक प्रतिरोध का विषय बनाया। .आर. राजवर्मा (सन् 1863-1938) ने काव्य में सामाजिक सरोकारों को उभारा। उड़िया में यही कार्य राधानाथ राय ने अपने काव्य के द्वारा किया और जनमानस को जाग्रत किया। महाराष्ट्र में केशव सुत (सन् 1866-1905) ने अपनी कविताओं के द्वारा राष्ट्रीय भावनाओं को जाग्रत किया। गुजरात में दलपत राय, और असम में गोपीनाथ चक्रवर्ती ने साहित्य के माध्यम से जन-जागृति का कार्य किया। गुजरात : मोहनदास कर्मचन्द गाँधी की विदेश से वापसी विशेष प्रेरणादायक रही। काका कालेलकर, (सन् 1806) कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (सन् 1887) के नाम इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेखनीय हैं। बंगाल में कवीन्द्र रवीन्द्र एवं उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर की उपलब्धियाँ इस दिशा में विशेष महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं। इस युग की समूची कविता मानवतावाद की सूचना देती है।9

अनुवाद के माध्यम से ही एक स्वर पूरे भारत में गुंजायमान हो पाया। भारतेंदु से पूर्व संस्कृत ग्रंथों के हिंदी में अनुवाद की परंपरा पहले से मौजूद थी। भारतेंदु युग में इस परंपरा के आगे बढ़ने के कारण हिंदी साहित्य में नया मोड़ आया। इस युग में उपन्यास, नाटक और निबंध के साथ-साथ इन विधाओं के अनुवाद भी महत्त्वपूर्ण रहे। अंग्रेजी, बंगला, संस्कृत, मराठी और अन्य भाषाओं के साहित्यिक कृतियों का अनुवाद हुआ, जिसने हिंदी साहित्य को नए आयाम दिए। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने स्वयं कई महत्त्वपूर्ण अनुवाद किए और अपने समकालीन साहित्यकारों को भी इस दिशा में प्रवृत्त किया। भारतेंदु ने अपने साहित्य और अनुवाद के माध्यम से केवल साहित्य में अभिवृद्धि की अपितु उनका साहित्य अद्भुत नवीनता लिए हुए है। विशेष रूप से इनके नाटक तो नाट्य शास्त्रीय परंपरा के नाटक हैं ही पश्चिम की नकल है। तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उनमें नए रूपों और शिल्प का प्रयोग हुआ है। विलियम शेक्सपियर के नाटक मर्चेंट ऑफ़ वेनिस का दुर्लभ बंधु शीर्षक से (संवत् 1937) अनुवाद किया। यह अनुवाद शेक्सपियर के नाटक काहिंदीकरणहै। भारतेंदु ने अंग्रेजी और संस्कृत के साथ-साथ बांग्ला में अनुवाद किया। 1868 में बांग्ला अनुवाद से चौरपंचाशिका का हिंदी में अनुवाद किया। उनके अनुवाद कार्य ने हिंदी नाटकों को नई दिशा दी और साहित्यिक समृद्धि में योगदान दिया। भारतेंदु युग में विशेषतया: शेक्सपियर के नाटकों का ही अनुवाद हुआ। लाला सीता राम, ठाकुर जगमोहन सिंह, श्रीनिवास दास, तोताराम, और बाबू रामकृष्ण वर्मा जैसे अन्य प्रमुख अनुवादकों ने भी महत्त्वपूर्ण कार्य किए। लाला सीताराम ने लार्ड बायरन के प्रिजनर ऑफ़ सिलानका अनुवादसिलोन का कैदीके नाम से किया। श्रीधर पाठक ने ओलिवर गोल्डस्मिथ की हरमिट और डेजर्टेड विलेज का क्रमश: एकांत योगी 1886 और ऊजड़ ग्राम 1889 में अनुवाद किया। जयपुर दरबार के पुरोहित गोपीनाथ एम.. ने शेक्सपियर के नाटक ऐज यू लाइक इट का मनभावन नाम से 1896 में तथा 1897 मेंरोमियो एंड जुलियटका प्रेमलीला नाम से अनुवाद किया। रत्नचंद वकील ने शेक्सपियर के कामेडी ऑफ एरर्सका हिंदी अनुवाद 1882 में भ्रमजाल नाम से हुआ। 1886 में मथुरा प्रसाद मैकबथ का अनुवाद साहसेन्द्र साहस के नाम से किया। इस युग में हुए अनुवाद कार्यों ने हिंदी साहित्य को व्यापक रूप से सम्पन्न किया और इसे नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

द्विवेदी युग हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण काल है, जिसमें अनुवाद कार्यों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युग में हिंदी साहित्य को नए आयाम देने के लिए कई प्रमुख लेखकों ने अनुवाद कार्य किए। गोपीनाथ पुरोहित ने शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक 'रोमियो और जूलियट' का अनुवाद 'प्रेमलीला' नाम से किया। यह अनुवाद हिंदी पाठकों को अंग्रेजी साहित्य के महान कृतियों से परिचित कराने में सहायक रहा। पं. मथुरा प्रसाद चौधरी ने शेक्सपियर के दो प्रमुख नाटकों का अनुवाद किया। 'मैकबेथ' का अनुवाद 'साहसेंद्र साहस' और 'हेमलेट' का अनुवाद 'जयंत' नाम से किया। इन अनुवादों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया और शेक्सपियर के महान कार्यों को हिंदी भाषी पाठकों के लिए सुलभ बनाया। श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी साहित्य की कृतियों का सुंदर और परिष्कृत अनुवाद किया। उन्होंने गोल्डस्मिथ की रचनाओं का अनुवाद 'श्रांत पथिक', 'उजड़ ग्राम' और 'एकांतवासी योगी' शीर्षक से किया। ये अनुवाद हिंदी साहित्य में उच्च मानक स्थापित करने वाले माने जाते हैं। इनके अलावा मैथिली शरण गुप्त ने भी कई महत्त्वपूर्ण अनुवाद कार्य किए, जिससे हिंदी साहित्य को नए आयाम मिले और पाठकों को विश्व साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों से परिचित होने का अवसर मिला। हरिवंशराय बच्चन ने फिट्जेराल्ड की रचना का हिंदी में 'मधुशाला' नाम से अनुवाद किया। यह अनुवाद बहुत प्रसिद्ध हुआ और हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर साबित हुआ।

निष्कर्ष : हिंदी नवजागरण के विकास में अनुवाद की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण रही है। अनुवाद ने केवल हिंदी साहित्य में अभिवृद्धि की बल्कि भारतीय समाज में आधुनिकता, वैज्ञानिकता और तर्कसंगत सोच का प्रसार किया। अनुवाद के माध्यम से भारतीय समाज ने वैश्विक विचारों और साहित्यिक धरोहरों से परिचित होकर अपने समाज और संस्कृति को एक नई दिशा देने का कार्य किया। अनुवाद के माध्यम से पश्चिम विचारों, विज्ञान, राजनीति, समाजशास्त्र और साहित्य के महत्त्वपूर्ण कार्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हुए। अनुवाद ने विभिन्न विषयों पर शिक्षा सामग्री को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाया जिससे शिक्षा का स्तर बढ़ा और अधिक लोगों तक ज्ञान पहुंचा साथ ही समाज सुधारकों और राजनैतिक नेताओं के लिए वैश्विक विचारों आंदोलनों की जानकारी को सुलभ बनाया जिससे भारतीय समाज में सामाजिक सुधार और स्वतंत्रता को बल मिला। धार्मिक ग्रंथों और दार्शनिक विचारों के अनुवाद ने विभिन्न मतों और विचारधाराओं को समझने में मदद की जिससे समाज में धार्मिक सहिष्णुता और दार्शनिक विचार-विमर्श का विकास हुआ। इस प्रकार, अनुवाद ने हिंदी नवजागरण में एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्तमान युग में भी अनुवाद की परंपरा अनवरत है और हिंदी साहित्य में अनुवाद कार्यों की भरमार है। अनुवाद कार्य ने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के साथ-साथ इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं।

संदर्भ :

  1. द्विवेदी, हज़ारी प्रसाद, भाषा,साहित्य और देश, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2009,पृ 14
  2. राय, गोपाल, उन्नीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण,2015 पृष्ठ 156
  3. वही; पृ 145
  4. शंभुनाथ, भारतीय नवजागरण एक असमाप्त सफर, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ 35
  5. डॉ.कलवार, किशोरी लाल, हिंदी अनुवाद परंपरा एक अनुशीलन, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2009, पृष्ठ 394
  6. वही, पृष्ठ 13
  7. द्विवेदी हज़ारीप्रसाद, भाषा,साहित्य और देश, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2009,पृ 21
  8. संपादन अवधेश कुमार सिंह, हिंदी अनुवाद विमर्श, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, संस्करण 2019, पृष्ठ 29
  9. राजे,सुमन,हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011,पृ 229
कमलेश कुमारी
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़
kumaridrkamlesh@gmail.com

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54सितम्बर, 2024

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