अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद और रूपांतरण (अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद सिद्धांत) / अनुराधा पाण्डेय

अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद और रूपांतरण
(अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद सिद्धांत)
- अनुराधा पाण्डेय

शोध सार : भाषा मानव के विचारों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। भाषा प्रकट करने की शक्ति अथवा एकनियोजित क्रम में अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता विशेषता के कारण ही मानव को अन्य प्राणियों से अलग समझा जाता है। मानव ऐसा प्राणी है जिसमें जानने-समझने के साथ बात कहने की भी शक्ति होती है। इस शक्ति से जो सार्थक अर्थवान ध्वनि निकलती है उसे भाषा की श्रेणी में रखा जाता है। भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन की शाखा को भाषाविज्ञान कहा जाता है। इसके अंतर्गत भाषा की उत्पत्ति, विकास, भाषा संरचना, विशेषता और अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का अध्ययन किया जाता है। भाषाविज्ञान की एक उप-शाखा के रूप में प्रतीकविज्ञान का अध्ययन होता है। भाषाविज्ञानी चार्ल्स सेंद्रे पियरे और फर्डिनांड सस्यूर को प्रतीकविज्ञान की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है। इन्होंने भाषा को प्रतीक के रूप में स्थापित किया और भाषा की संरचना रुपरेखा को प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट किया। चार्ल्स सेंद्रे पियरे का नाम सस्यूर के पश्चात् याद किया जाता है। इन्होंने भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों को प्रतीक के सिद्धांत रूप में स्थापित किया। अनुवाद का अध्ययन भाषा पर आधारित है और भाषाविज्ञान की एक उप-शाखा के रूप में अनुवाद का अध्ययन एक अनुशासन के रूप में किया जाता है। अनुवाद के अंतर्गत प्रतीक सिद्धांत के हवाले से अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद सिद्धांत का विकास हुआ। अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद सिद्धांत को अनुवाद के क्षेत्र में लाने का श्रेय प्रसिद्ध अनुवाद शास्त्री रोमन याकोब्सन को दिया जाता है। इन्होंने पियरे द्वारा विकसित और सस्यूर द्वारा स्थापित प्रतीक के सिद्धांत को अनुवाद के क्षेत्र में अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद सिद्धांत के रूप में स्थापित किया। रोमन याकोब्सन ने अनुवाद के तीन प्रकार बताए थे। इसके अंतर्गत क्रमशः अंतःभाषी अनुवाद, अंतरभाषी अनुवाद और अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद आते हैं। अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद की व्याख्या थोड़ी जटिल है। इसकी जटिलता का मुख्य कारण इसका कम प्रयोग किया जाना और इस पर कम काम का होना है। रोमन याकोब्सन वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अनुवाद के इस प्रकार पर चर्चा की और इसे अनुवाद के एक प्रकार के रूप में स्थापित किया। प्रस्तुत पत्र अनुवाद के अंतर-प्रतीकात्मक प्रकार पर आधारित है। एक अनुशासन की दृष्टि से अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद की क्या सैद्धांतिकी है, प्रतीकविज्ञानियों ने इसे किस रूप में स्पष्ट किया है और आधुनिक समय में अनुवाद के इस प्रकार का कितना महत्त्व है, इस प्रश्नों के आलोक में प्रस्तुत पत्र को तैयार करने की कोशिश की गई है।

बीज शब्द : भाषा, भाषाविज्ञान, अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद, सस्यूर, पीयरे, रोलां बार्थ, थॉमस सेबोक, उम्बेर्तो एको।

मूल आलेख अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद का इतिहास सर्वाधिक प्राचीन रहा है। भाषा को प्रतीकों की व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है। भाषा के ये प्रतीक यादृच्छिक होते हैं। इनकी मान्यता एक सामाजिक समूह द्वारा निर्धरित होती है। अलग-अलग सामाजिक समूहों में इनका भाषिक नाम बदलता जाता है। भाषा का सबसे पहले उद्गम मानव मस्तिष्क में होता है। अर्थात् किसी वाक्य को बोलने से पहले हम उसे अपने मन-मस्तिष्क में सोचते हैं। उसे क्रमबद्ध करते हैं और साथ-साथ यह परीक्षण भी करते हैं कि वह अर्थयुक्त है या नहीं। फिर, इन प्रक्रियाओं के बाद हम उसे अपने मुख से उच्चरित करते हैं। मुख से उच्चारित होने के बाद वह वाक्य एक सफल अर्थ को प्रकट करता है। यह प्रकट अर्थ कई प्रकार के शाब्दिक एवं अर्थिय प्रतीकों को अपने में समाहित किए हुए होता है। भाषा एक प्रतीक है और यह क्रमशः अनूदित और अंतरित होते हुए उच्चरित होती है। यकिन और टोतु, 2014 के अनुसारसंकेत विज्ञान, भाषाविज्ञान की एक शाखा है, जिसमें प्रतीकों का अध्ययन एवं सामाजिक जीवन में प्रतीकों की उपस्थिति का अध्ययन किया जाता है[1]अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद मूलतः भाषाविज्ञान के अनुप्रयुक्त पक्ष अनुवाद के एक प्रकार के रूप में विकसित हुआ है। संकेत शब्द ग्रीक भाषा के सेमेसीयोन से विकसित हुआ है, जिसका अर्थ प्रतीक होता है। सेमैनोन शब्द का अर्थ संकेतक और सेमैनोमनोन का अर्थ संकेतित अथवा जिसकी तरफ संकेत किया जा रहा वह होता है। सामान्यतः संकेत प्रतीकों का अध्ययन है। इसमें सामाजिक जीवन से प्रतीक किस रूप में संबंधित है यह इस विषय की व्याख्या करता है[2] अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद के अंतर्गत हम एक भाषिक प्रतीक का दूसरे भाषिक प्रतीक के रूप में अनुवाद करते हैं। जैसे किसी लिखित पाठ का अनुवाद रूप में फिल्मांकन करना, किसी के विचारों की पेंटिंग के रूप में चित्र तैयार करना अथवा किसी लिखित कहानी का किसी चित्रात्मक शैली के माध्यम से रूपांतरण करना। ये सभी विशेषताएं अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद के अंतर्गत आती हैं। अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद का इतिहास बहुत प्राचीन और सर्वाधिक समृद्ध रहा है। यह मानव विकास के इतिहास से जुड़ा हुआ है। प्राचीन काल में पाषण युग से लेकर आधुनिक काल तक में मानव अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति किसी किसी रूप में करता आया है। पाषण काल में पत्थरों पर किए गए विभिन्न प्रकार की खुदाई, पत्थरों की शिल्पकारी आदि इसके उदाहरण हैं। इनमें अजंता, एलोरा की गुफाएं विश्व प्रसिद्ध हैं। विभिन्न प्रकार के पत्थरों से निर्मित आकृतियां आदि भी इसके उदाहरण हैं। अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद में पाश्चात्य विद्वानों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। इससे जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण विद्वानों के सिद्धांत निम्नलिखित हैं।।।

  1. चार्ल्स सेंडर्स पियर्स (Charles Sanders Peirce): इनका जन्म 10 सितंबर, 1839 को और मृत्यु 19 अप्रैल, 1914 को हुई थी। ये अमेरिकी मूल के एक प्रसिद्ध दार्शनिक, तर्कशास्त्री, गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे। इन्हें संकेतविज्ञानी के रूप में भी जाना जाता है। संकेतविज्ञान के क्षेत्र में ये पहले ऐसे व्यक्ति थे जिनसे संकेतविज्ञान की शुरुआत होती है। इनका नाम एक तर्कशास्त्री के रूप में विशेष रूप से जाना जाता है। इन्होंने तर्कशास्त्र को संकेतविज्ञान की एक संबद्ध शाखा के रूप में माना और इसकी संयुक्त रूप में व्याख्या की है। इनके द्वारा स्थापित सिद्धांतों का प्रयोग विद्युतीय स्विचिंग सर्किट्स के विकास में किया गया और डिजिटल कंप्यूटर के विकास में भी इनके सिद्धांतों का उपयोग हुआ है। इनके बारे में पॉल वेइस्स्से जो एक दार्शनिक थे सन् 1934 में यह कहा कि पियरे अमेरिका के सबसे बेहतरीन दार्शनिक और सबसे महान तर्कशास्त्री थे।पीयरे का प्रतीक सिद्धांत अथवा संकेतविज्ञान संकेतीकरण, प्रस्तुतीकरण, संदर्भ और अर्थ की प्रक्रिया है।[3] इन्होंनेसंकेत’(सेमियोसिस) की व्याख्या किसी वस्तु की पहचान करने या किसी उद्देश्य, तर्क को निर्धारित करने अथवा किसी बिंदु को प्रभावित करने हेतु एक नियामक के रूप में प्रयुक्त होने वाले माध्यम रूप में स्वीकार किया। संकेत किसी वस्तु या बिंदु की विवेचना करने या निर्वचन करने हेतु उपयुक्त होने वाला एक साधन है। संकेतों का उपयोग किसी भी चीज को तर्कपूर्ण ढंग से संरचनात्मक व्याख्या करने हेतु उपयोग किया जाता है। इस व्याख्या का बिंदु या उद्देश्य किसी भी वस्तु का गुण, कारण, नियम या उसका प्रकार्यात्मक पक्ष भी हो सकता है। इसके माध्यम से किसी भी बिंदु की तात्कालिक व्याख्या करना भी एक कारण हो सकता है। संकेत एक व्याख्या करने का माध्यम होता है और यह डायनामिक या त्वरित व्याख्या करना भी हो सकता है। प्रतीक के कई प्रकार के अर्थपूर्ण संबंध होते हैं। पियरे ने संकेत के अर्थ के पक्ष की और उसके वाक्य पक्ष की भी व्याख्या अपने स्पेक्युलेटिव व्याकरण के अंतर्गत की है। इन्होंने संकेत को एक प्रकार्यात्मक प्रतीक के रूप में स्वीकार किया है और जिसकी व्याख्या तर्क के माध्यम से की है और इसके अध्ययन पर बहस और चर्चाएं भी हुई हैं। पियरे नेसाइन की व्याख्या में लिखा है किएक प्रतीक, अथवा प्रस्तुतीकरण का माध्यम, एक ऐसा माध्यम या साधन होता है जिसके द्वारा किसी भी वस्तु की तरफ इशारा करने या संकेत करने का प्रयत्न करते हैं। इसमें कुछ स्वाभाविक गुण और क्षमताएं होती हैं। संकेत किसी व्यक्ति के तरफ संकेत करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। इनका उद्भव मष्तिष्क में होता है और यह व्यक्ति के हिसाब से समानता लिए होते हैं। वे संकेत जिनका हम उपयोग करते हैं उसे मैं विवेचना करने का पहला संकेत मनाता हूं। संकेत किसी ना किसी के लिए अनिवार्य रूप से संबंधित होते हैं यह पूर्णतः कोई उद्देश्य नहीं होता है, लेकिन संदर्भों के रूप में संकेत एक विचार होते हैं।[4] पियरे संकेत को किसी चीज को प्रदर्शित करने का एक माध्यम रूप में मानते हैं। इनके अनुसार किसी परिणाम को प्राप्त करने के लिए संकेत एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से किसी चीज को प्रदर्शित किया जाता है। संकेत विज्ञान के क्षेत्र में पियरे का योगदान बहुत ही महत्त्व रखता है। इनको संकेतविज्ञान की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। इसके बारे में एनसयाक्लोपीडिया कम्युनिकेशन एंड इन्फोर्मेशन में लिखा है कि- “पीयरे का संकेत विज्ञान की संकल्पना मूलतःप्रतीक का सैद्धांतिक विज्ञानऔर अर्थ का प्रगैतिक तरीकाप्रतीक का व्यवहार’ (संकेतीकरण) है। इसका दर्शनशात्र, मनोविज्ञान, सैद्धांतिक जीवविज्ञान और संज्ञानात्मक विज्ञान है[5]
  2. फर्डिनांड सस्यूर (Ferdinand de Saussure): सस्यूर का जन्म 26 नवंबर, 1857 को और मृत्यु 22 फरवरी, 1913 को हुई थी। ये स्विस मूल के भाषाशास्त्री और प्रतीकशास्त्री थे। इनके विचारों से 20वीं शताब्दी के दौरान भाषाविज्ञान के क्षेत्र में और संकेतविज्ञान के क्षेत्र में कई प्रकार के क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। इनको 20वीं शताब्दी के भाषाविज्ञान के जनक के रूप में जाना जाता है। संकेतविज्ञान के क्षेत्र में चार्ल्स सेंद्रे पियरे के बाद सस्यूर का नाम संकेतविज्ञानी के रूप में प्रसिद्ध है। इन्होंने भाषाविज्ञान के अतिरिक्त दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान और मानवविज्ञान के क्षेत्र में भी काम किया था। सस्यूर ने भाषा की व्याख्या एक संरचना के रूप में की थी। इनका मानना है कि भाषा यादृच्छिक प्रतीकों की एक संरचनात्मक प्रक्रिया है। इसमें प्रत्येक बिंदु की एक निर्धारित स्थिति होती है। जैसे भाषा का निर्माण क्रमशः ध्वनि, शब्द, अर्थ, रूप, पद, वाक्य और प्रोक्ति के रूप में होती है। ध्वनियों के मिलने से शब्दों का निर्माण होता है, शब्दों का अर्थयुक्त होना आवश्यक होता है। अर्थवान शब्दों के समुच्चय को रूप कहते हैं। एकाधिक रूपों के समुच्चय को पद कहा जाता हैं। एकाधिक पदों का समुच्चय वाक्य होता है और वाक्यों का समुच्चय प्रोक्ति। इस प्रकार भाषा एक संरचना है। इसमें प्रत्येक बिंदु का क्रम निर्धारित है। यही कारण है कि सस्यूर को संरचनात्मक भाषाविज्ञानी के रूप में भी जाना जाता है। इनका संबंध संरचनात्मक स्कूल से रहा है। इनको ही संरचनात्मक भाषाविज्ञान का जनक माना जाता है। संकेत विज्ञान के क्षेत्र में सस्यूर के सिद्धांत को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।अपने सैद्धांतिक भाषाविज्ञान पुस्तक में सस्यूर लिखते हैं कि- यह एक ऐसा विज्ञान है सामाजिक जीवन के एक अहम पक्ष के रूप में प्रतीकों की भूमिका का अध्ययन करता है। यह सामाजिक मनोविज्ञान और सामान्य मनोविज्ञान का एक हिस्सा हो सकता है। हम इसे संकेतविज्ञान कहते हैं को ग्रीक के सेमेइओन शब्द से विकसित शब्द साइन से निर्मित हुआ है। इसके अंतर्गत प्रतीकों की प्रकृति और इनके संचालन के नियमों का अध्ययन किया जाता है।[6] इन्होंने संकेत के अध्ययन हेतु कुछ बिंदुओं को आधारभूत संरचना के रूप में स्वीकार किया है। ये निम्नलिखित हैं

o   संकेतक (Signifier): संकेतित वस्तु बाह्यजगत में स्थित इकाई है। इसका संबंध इसके भाषाई सामाजिक समूह से घनिष्टतम रूप में होता है। इसकी संकल्पना दूसरे भाषाई सामाजिक समूह के लिए समान रूप में नहीं हो सकती। यह प्रायः कम ही होता है कि किसी एक भाषा समाज की संकेतित इकाई किसी दूसरे भाषाई समाज के लिए समान रूप में स्वीकार्य हो।

o   संकेतित (Signified): इसका संबंध मानसिक स्थिति से होता है। संकेतार्थ मन में स्थित उस इकाई की संकल्पना है जिसे किसी भाषाई समाज का सदस्य होने के नाते व्यक्ति उस वस्तु को लेकर अपने भावबोध का निर्माण करता है। वस्तुतः यह भावबोध उस भाषाई समाज का सदस्य होने के कारण उसे समाज से परंपरा रूप में मिलता है। अतः उसकी उपस्थिति बोधात्मक होकर भी सामाजिक होती है। यह अपने आप में सबके लिए एक समान रूप में मानसिक अर्थ ग्रहण किए हुए होती है। इसके आकार, संरचना और बनावट में समानता होती है।

o   यादृच्छिकता (Arbitrariness): भाषिक प्रतीक यादृच्छिक होते हैं। अर्थात् इन्हें एक भाषाई समूह द्वारा निर्धारित किया जाता है। इनका अपने आप में कोई पूर्व निर्धारित रूप नहीं होता है। ये एक भाषाई समाज विशेष तक ही सिमित होते हैं।

o   संबंधित (Related): भाषिक प्रतीक अपने अर्थ से संबंधित होते हैं। अर्थात् उस शब्द विशेष के माध्यम से एक निर्धारित वस्तु, व्यक्ति, जीव आदि का ही अर्थ ग्रहण किया जा सकता है।

o   संरचनात्मक संबद्धता (Structural Relativity): किसी भी प्रतीक को भाषा की संरचना के बाहर जाकर नहीं अभिव्यक्त किया जा सकता। इन प्रतिकों की अभिव्यक्ति के लिए भाषाई माध्यम का होना आवश्यक होता है। सस्यूर द्वारा दिए गए संकेत सिद्धांत को भाषा विज्ञान के एक आधारभूत सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाता है।

  1. वलेंतिन वोलोशिनोव (Valentin Voloshinov): इनका जन्म 1895 में और मृत्यु 1936 में हुई थी। ये सोवियत-रसियन मूल के भाषाशास्त्री थे। इनका काम लिटरेरी थियरी और मार्क्सिस्ट थियरी के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। प्रतीकों के बारे में वोलोशिनोव लिखते हैं कि- “जहां कहीं भी प्रतीक है वहां पर वैचारिक पक्ष भी अवश्य है।[7] सन् 1920 के लगभग इनकी पुस्तक मार्कसीज्म एंड फिलोसोफी ऑफ़ लैंग्वेज प्रकाशित हुई। इन्होंने सस्यूर के काउंटर में अपने सिद्धांत दिए थे। वोलोशिनोव की यह पुस्तक भाषाविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें लेखक ने भाषा का दर्शन और मार्क्सवाद हेतु इसका महत्त्व विषय पर बात करते हुए भाषा दर्शन का वैचारिक अध्ययन, भाषा का दर्शन और मनोविज्ञान का उद्देश्य विषय को स्पष्ट किया है। दूसरे खंड में भाषा का मार्क्सवादी दर्शन और भाषा निर्माण में वाक् के प्रतिरूप विषय को स्पष्ट किया है।
  2. रोलां बार्थ (Roland Barthes): इनका जन्म 12 नवंबर 1915 को और मृत्यु 26 मार्च 1980 में हुई थी। ये फ्रेंच मूल के दार्शनिक, भाषाशास्त्री, आलोचक और प्रतीकविज्ञानी थे। इन्होंने भाषा विज्ञान के क्षेत्र में विविध प्रकार के सिद्धांतों को लेकर एक व्यापक रूप में लेखन किया। इन्होंने संरचनात्मक भाषाविज्ञान, प्रतिकविज्ञान, सामाजिक सिद्धांत, डिजाइन सिद्धांत, मानवविज्ञान और उत्तर संरचनात्मकवाद आदि पर लेखन किया है। बार्थ्स के लेखन में डेथ ऑफ़ ऑथर और राइटिंग डिग्री जीरो (1953) आदि बहुत ही प्रसिद्ध हैं। प्रतीक विज्ञान के क्षेत्र में इन्होंने माइथोलोजिज (1975) नामक पुस्तक के माध्यम से प्रतीक और मिथकों के संबंधों को स्पष्ट करते हुए अपने प्रतीक सिद्धांत की व्याख्या की है। बार्थ प्रतीक के दो प्रकार मानते हैं। इन्होंने मिथ और मिथक को भी एक प्रतीक अर्थ के रूप में स्वीकार किया है। इनके अनुसार किसी शब्द का अर्थ मिथक रूप में भी द्योतित होता है और मिथक प्रतीक का ही एक रूप होता है। इनका उपयोग इनके समाज और संस्कृति से बहुत करीबी संबंध होता है। ये उदाहरण देते हुए लिखते हैं किकिसी भी शब्द का अर्थ और किसी भी मिथक का अर्थ उसके संस्कृति और समाज से बहुत जुड़ा होता है। जैसे कि कोई बुर्जुवा समाज अपने चीजों को जिस रूप में श्रेष्ठ बनाकर दूसरे समाज के लोगों पर थोपता है और अपनी ही चीजों को सर्वश्रेष्ठ मानता है और इसे स्थापित करने का भी प्रयत्न करते हैं। बुर्जुआ समाज के लोगों के अनुसार शराब और फ्रांसीसी समाज के अंदर जिस रूप में स्वीकृत होती है वही स्वीकृति सब जगह नहीं हो सकती। इनके अनुसार शराब एक शक्तिवर्धक पेय है। यह स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर करता है। इस शराब को बार्थ एक संकेत के रूप में संबोधित करते हुए स्पष्ट करते हैं कि इस तरह के संकेत किसी विशेष समाज, समुदाय आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं।[8]बार्थ ने प्रतीक सिद्धांत की व्याख्या बहुत ही स्पष्ट रूप में की है। प्रतीक सिद्धांत पर इनकी कई पुस्तकें हैं जैसे एलिमेंट्स ऑफ़ सेमियोलोजी (1967), माइथोलोजिज (1972), एफिल टावर एंड अदर माइथोलोजिज (1979), एंपायर ऑफ़ साइन्स (1983), सेमियोलोजी चैलेन्ज (1994) आदि इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।
  3. थॉमस सेबोक (Thomas Sebeok): इनका जन्म 9 नवंबर, 1920 को और मृत्यु 21 दिसंबर, 2001 को हुई थी। ये हंगरी मूल के विद्वान थे। ये चार्ल्स डबल्यू मूरिस के छात्र थे। इन्हें एक अमेरिकन प्रतिकविज्ञानी के रूप में ख्याति मिली। इनके सिद्धांत के अनुसार यद्यपि पशु-पक्षी जानवर आदि बात करने में सक्षम नहीं हैं लेकिन वे भी संकेतों का प्रयोग करते हैं। इस सिद्धांत के लिए इन्होंने जानवरों पर शोध किए और मानवेतर संकेतों के उदाहरण एकत्र किए और फिर इनके माध्यम से संकेतों की व्याख्या की। संकेत की व्याख्या हेतु इन्होंने मानव मस्तिष्क का भी अध्ययन किया मस्तिष्क दर्शन शास्त्र की व्याख्या की। इनका मानना है कि सभी प्रकार से संवाद या संपर्क किसी प्राणी और उसके जलवायु पर निर्भर करती है। जिस जलवायु और पर्यावरण में वह निवास करता है उसका असर भी उसपर विकसित होता है। इस माध्यम से ही इस संपर्क को संभव बनाया जा सकता है। इस सिद्धांत को इन्होंने सेमियोसिस और लाइफ के रूप में शीर्षांकित किया। बाद में इन्होंने कोपेनहेगन-तार्तु बायो सेमिओटिक स्कूल की स्थापना की।
  4. उम्बेर्तो एको (Umberto Eco): इनका जन्म 5 फरवरी, 1931 को और मृत्यु 19 फरवरी, 2016 में हुई थी। इन्हें इटली के प्रसिद्ध उपन्यासकर, आलोचक, दार्शनिक और संकेत विज्ञानी आदि के रूप में जाना जाता था। सन् 1980 में प्रकाशित इनका उपन्यास नेम ऑफ़ रोज बहुत प्रसिद्ध हुई थी। इस उपन्यास की ऐतिहासिक उपलब्धि रही है। इन्होंने संकेत विज्ञान के क्षेत्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण लेखन किया। इनके सिद्धांत को एक नए सिद्धांत के रूप में प्रसिद्धि मिली। इनके प्रतीकविज्ञान सिद्धांत को व्याख्यात्मक प्रतीकविज्ञान के रूप में जाना जाता है। इनकी संकेत विज्ञान पर लिखी पुस्तकें निम्नलिखित है-

एब्सेंट स्ट्रक्चर  (1968), थीयरी ऑफ़ सेमियोटिक्स (1975), रोल ऑफ़ रीडर (1979), सेमियोटिक्स एंड फिलासफी ऑफ़ लैंग्वेज (1997), लिमिट्स ऑफ़ इंटरप्रिटेशंस (1990), फ्रॉम ट्री टू लेबीरिंथ: हिस्टोरिकल स्टडीज ऑन साइन एंड इंटरप्रिटेशन (2014) इन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से भी प्रतीक की संकल्पनाओं को स्पष्ट किया है। संकेत विज्ञान के क्षेत्र में इनके काम को बहुत ही महत्त्व दिया जाता है।

  1. सी एच एस एन मूर्ति: स्टडी ऑफ़ सेमियोटिक्स इन इन्डियन एनसीएंट स्प्रिचुअल: एक्सप्लोरिंग पाथवे टू डेसीफर सेमीयोटिक्स इन पोएटिक वर्क्स ऑफ़ मेल्लाचेरुवु सुब्रह्मण्यम शास्त्री: इस शोध पत्र में मूर्ति ने भारतीय प्रतीकशास्त्र की परंपरा को वैदिक साहित्य के माध्यम से स्पष्ट किया है। सी एच एस एन मूर्ति ने सुब्रह्मण्यम शास्त्री के काव्यात्मक लेखन की व्याख्या की है। इसमें श्री निर्जन और श्री कृष्ण रासलीला योगत्रयीमहाभारत, भागवत इत्यादि में प्रस्तुत प्रतीकों की व्याख्या की है। इन्होंने वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण और महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत की महानता के विविध पक्षों में से एक महत्वपूर्ण पक्ष इनमें प्रयोग किए जाने वाले प्रतीकों की व्यवस्था को माना है। इनमें प्रस्तुत बिंब, विचार, मूल्य, परंपरा, दृष्टि, उद्देश्य, संस्कार आदि सभी के लिए प्रतीक यानी साइन्स, सिम्बल्स और कोड्स का प्रयोग किया गया है जो सेमियोटिक्स यानी प्रतीकविज्ञान का निर्माण करते हैं। इनका मानना है कि इन महाकाव्यों से संबंधित प्रतीकों पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों जैसे  गेरोव 1984, पिआतीगोर्सकी और ज़िबर्मन आदि के द्वारा अध्ययन किया गया है लेकिन यह अध्ययन उस रूप में नहीं संभव हो सका है जिस ढंग से किसी भारतीय विद्वान द्वारा संभव होगा। क्योंकि भारतीय संस्कृति एवं महाकाव्यों की परंपरा को एक भारतीय विद्वान जिस ढंग में समझ सकता है उस रूप की समझ एक विदेशी भाषा के अध्ययनकर्ता द्वारा संभव नहीं। भारतीय साहित्य की प्रतीक समृद्धि के बारे में बताते हुए ये लिखते हैं कियह सत्य है कि प्राचीन अध्यात्मिक साहित्य ने आधुनिक भाषाओं की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्राचीन साहित्यिक कवि-विद्वानों जैसे वाल्मीकि, व्यास, श्री हर्ष, कालिदास (4-5वीं शताब्दी), गुणाढय (6वीं शताब्दी) आदि संस्कृत के विद्वानों से लेकर तेलुगु के बम्मेरा पोताना (1450-1510), श्री श्री कुंदुरती अन्जनेयुलू (1922-1982) आदि का नाम महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरक्त संस्कृत के अलंकारशास्त्र, छंद, संधि और समास, श्लेष, धातु, नादी कर्म आदि व्याकरणिक व्यवस्थाएं प्राचीन अध्यात्मिक साहित्य वेद, रामायण, महाभारत से होकर आधुनिक साहित्य में पहुंची हैं।[9] इस शोध का दूसरा पक्ष वेस्टर्न फाउन्डेशन ऑफ़ सेमियोटिक्स पर आधारित है। इसमें चार्ल्स सैंडर्स पीयरे के सेमियोटिक्स, सेमियोलॉजी के प्रयोग, सस्यूर की प्रतीक संकल्पना आदि को स्पष्ट किया गया है।
  2. एडविन। गेरोव। 1984 लैंग्वेज एंड सिम्बल्स इन इंडियन सेमियोटिक्स: इस आलेख में भारतीय परंपरा में प्रतीकों की चर्चा मीमांसा और न्याय में किस ढंग से की गई है, इसको स्पष्ट किया है। इसके बारे में गेरो लिखते हैं कि- “भारतीय अध्यात्म की प्रतीकोपासना पद्धति बहुत ही विशेष है। यहां प्रतीक का अर्थ कोई मूर्ति, कोई दैविक चिह्न आदि हो सकता है। यहां प्रयोग किए जाने वाले आध्यात्मिक चिन्ह अनिवार्य रूप से किसी किसी देवता से अथवा उसके किसी किसी स्वरुप से अनिवार्य रूप से जुड़े होते हैं। यहां पर सामान्य रूप से प्रचलित प्रतीकों में भगवान विष्णु, कृष्ण, राम, देवी काली आदि की मूर्तियां हो सकती हैं। यहां पर देवताओं को स्वीकारने या मानने के पीछे का श्रद्धा और भक्ति अथवा असीम विश्वास होता है। जितने बड़े देवता होते हैं उनकी दयालुता भी उतनी ही बड़ी होती है। यहां पर संकेत और संकेत करने वाला दोनों ही एक होता है। जैसा कि, यदि भगवान कृष्ण की मूर्ति के स्थान पर किसी गधे की मूर्ति को रख दिया जाए तो वह क्या उसी देवता के रूप में पूजित अथवा स्वीकृत हो सकता है क्या? तो इसका जवाबहांहै। इसे बताते हुए स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि इसके पीछे का कारण असीम विश्वास का होना है। यहां पर इश्वर की प्रतिमा के द्योतक रूप में आप किसी गधे का, किसी बंदर का, चाहे जिसकी मूर्ति रख दीजिए, यहां पर उसकी पूजा उसी ढंग से होगी जिस ढंग से उस देवता की होती है। यहां पर देवता की प्रतिमा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं जीतनी उससे संबंधित श्रद्धा-भक्ति की भावना है[10]

निष्कर्ष अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद सिद्धांत के अंतर्गत साहित्यिक कृतियों पर आधारित किसी अन्य माध्यम रूप में किए गए अंतरण को समझा जा सकता है। इसमें साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्म, नाटक, नौटंकी, नृत्य, गीत, पेंटिंग आदि शामिल है। अनुवाद अध्ययन के अंतर्गत इसे अंतर-प्रतीकात्मक रूपांतरण के रूप में देखा जाता है लेकिन रूपांतरण का क्षेत्र बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत हो चुका है। अन्य ज्ञानानुशासनों से इसके संबंध को अंतर-माध्यम रूपांतरण के रूप में संबोधित किया जा रहा है। अनुवाद अध्ययन का क्षेत्र दिन प्रति दिन विस्तृत होता जा रहा है। अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद में फिल्मांकन के साथ-साथ सबटाइटल अनुवाद, वौइस्-ओवर आदि किया जा रहा है। यह अंतरण अंतःभाषी एवं अंतरभाषी रूपों में किया जा रहा है। अंतःभाषी रूपांतरण में हिंदी साहित्य की कृतियों पर आधारित हिंदी फिल्मों को एवं अंतरभाषी रूपांतरण में पाश्चात्य भाषाओं की कृतियों पर आधारित फिल्मों को समझा जा सकता है। इसमें शेक्सपीयर आदि साहित्यिकारों की कृतियों के रूपांतरण महत्त्वपूर्ण हैं। अनुवाद अनुशासन में अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद के सिद्धांतों का अनुकरण पाश्चात्य विद्वानों के सिद्धांतों का किया जा रहा है जबकि अनुवाद में भाषाई अंतरण और देश काल वातावरण का अंतरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण पक्ष होता है। ऐसे में यह महत्त्वपूर्ण बिंदु है कि भारतीय भाषाओं के साहित्य को आधार बनाकर और यहां के समाज, संस्कृति, देश काल वातावरण के आधार पर सिद्धांतों को प्रस्तुत करने एवं सिद्धांत निर्मित करने की कोशिश की जाए।

संदर्भ  :
      Roland. Barthes. Image Music Text. (Trans. by) Stephen Heath. Fontana Print London 1977.
      D. Chandler. Semiotics the Basics. Taylor and Francis Group. Routledge New York 2017.
      Umberto Eco A Theory of Semiotics Bloomington Indiana Print 1976
      J. Fitzgerald. Peirce’s Theory of Signs as a Foundation for Pragmatism The Hague Mouton 1966
      M A K Halliday Language as social semiotic: The social interpretation of language and meaning University Park Press Maryland 1978
      G.Kress.& Van Leeuwen T Reading Images: The Grammar of Visual Design Routledge London 1996
      C. S. Peirce. Studies in Logic (Trans By) Members of The Johns Hopkins University Ed Charles S Peirce Little Brown Press Boston 1883.
      –––Semiotics and Signifies (Ed by) Charles Hardwick Bloomington Indiana University Press 1977
      –––The Essential Peirce Volume 2 (Ed by) Peirce edition Project Bloomington Indiana University Press 1998
      D Savan An Introduction to CS Pierce's Full System of Semiotic Toronto Semiotic Circle Toronto 1988
      Thomas A Sebeok Signs: An Introduction to Semiotics U Toronto Print 2001
      Leeuwen T Van Introducing Social Semiotics Routledge New York 2005
[1]  Semiotics, one of the linguistics branches, is the study of signs or the existence of signs in societal life Cited by- Yakin & Totu 2014
[2]  Semiotic derives from the Greek semesion, meaning sign, semainon which means signifier and semainomenon meaning signified or indication Generally, semiotic is the study of signs or an epistemology about the existence or the actuality of sign in societal life Cited in- The Semiotic Perspectives of Peirce and Saussure: A Brief Comparative Study By- Mohd।।Halina Sendera Yakina & Andreas Totu
[3]  Peirce’s Sign Theory, or Semiotic, is an account of signification, representation, reference and meaning. https://platostanfordedu/entries/peirce-semiotics/ 
[4] A sign or representamen, is something which stands to somebody for something in some respect or capacity It addresses somebody, that is, creates in the mind of that person an equivalent sign That sign which it creates I call the interpret ant of the first sign The sign stands for something, its object not in all respects, but in reference to a sort of idea https://enwikipediaorg/wiki/Semiotics
[5] Peirce’s concept of Semiotics as the “formal science of signs”, and the pragmatic notion of meaning as the ‘action of signs’ (semiosis), have had a deep impact in philosophy, psychology, theoretical biology, and cognitive sciences. Cited in- Encyclopedia of Communication and Information. Edited by- Jorge Reina Schement. vol.2 p. 706.
[6] In his Course in General Linguistics, Saussure wrote that: It is … possible to conceive of a science which studies the role of signs as part of social life. It would form part of social psychology, and hence of general psychology. We shall call it semiology (from the Greek semeion, 'sign'). It would investigate the nature of signs and the laws governing them. Saussure. Ferdinand de. 1983. Course in General Linguistics. Translated by- Wade Baskin. London. Fontana. Page- 15-16.
[7] Voloshinov declared, "whenever a sign is present, ideology is present too". Voloshinov. Valentin N. 1973. Marxism and the Philosophy of Language. New York. Seminar Press. Page- 10.
[8] The portrayal of wine in French society as a robust and healthy habit is a bourgeois idea that is contradicted by certain realities that wine can be unhealthy and inebriating He found semiotics, the study of sign, useful in these interrogations Barthes explained that these bourgeois cultural myths were ‘second order signs’ or ‘connotations’ A picture of a full, dark bottle is a signifier that relates to specific specified: a fermented, alcoholic beverage However, the bourgeois relate it to a new signified: the idea of healthy, robust relaxing experience Motivations for such manipulations vary, from a desire to sell products to a simple desire to maintain the status quo These insights brought Barthes in line with similar Marxist theory. https://en.wikipedia.org/wiki/Roland_Barthes
[9] It is also clear that the ancient spiritual literature has contributed to the enrichment of modern language in a number of ways if one takes a dispassionate look at the literature produced by the ancient poet-scholar such as Valmiki, Vyas, Sriharsh, Kalidas (4-5th century) Gunadhya (6th century) of Sanskrit to Bammera Pottana (1450-1510) Sri Sri, Kundurti Anjaneyulu (1922-1982) to Telugu, Alankaras (figure of speech) Chhandas (prosody) Sandhis (vowel+vowel combination/ vowel+consonants leading to sound transformation) Samasaas (interpreting a word) Sleshas (a word derives two meanings at a same time- one has Root Word (Dhatu) and another as a Noun/Adjective) Nadi Karmas (idioms) etc. have steamed from the ancient spiritual literature such as Vedas, Ramayana and Mahabharata. Cited by- C. H. S. N. Murthy.
[10] Indian spirituality Pratikopaasana (worshipping an Idol) is very much prevalent Here ‘Prateeka’ means an idol - a sign, signifying a particular form of deity. In the normal practice, the ‘Prateeka’ could be an idol of Lord Vishnu, or Lord Krishna, or Lord Rama, or Lord Kali The intense ones' faith in the idols cited here. The greater the manifestation of God’s kindness is Here the sign and its signifier both are the same. However, if in the place of Lord Krishna's Idol, an idol of donkey is placed will it lead to manifest the presence of God? The answer here is ‘Yes’ strictly a ‘Yes’. Here the interpretation by Swami Vivekananda (1863-1902) is that ‘the immense faith’ in the symbol/idol, be it a donkey or a monkey, is important not idol perse What counts here is ‘the potential’ of faith and devotion, and nothing else. Cited by- Edvin Gerow.

अनुराधा पाण्डेय
पोस्ट डॉक्टोरल फेलो, आई.सी.एस.एस.आर, नई दिल्ली 
anu.pantran@gmail.com 

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54सितम्बर, 2024


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