आलेख : भारतीय अनुवाद का इतिहास और परम्परा / राधावल्लभ त्रिपाठी

भारतीय अनुवाद का इतिहास और परम्परा
- राधावल्लभ त्रिपाठी

साहित्य और भाषा संवर्धन के क्षेत्र में सचेत क्रियाशीलता से जुड़े अनेक सम्मानों को सम्मानित करने वाले, पुरातन और नवता के संगम प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं के ऐसे समन्वयक जिन्होंने प्राचीन लक्षण ग्रंथों के सूत्रों द्वारा आधुनिक साहित्य तक की व्याख्या की है। संस्कृत, पाली, अपभ्रंश, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के क्षेत्र में उनके गहन शोध से नई पीढ़ी के अध्येताओं की दृष्टि साफ होती है। शैक्षिक संस्थानों में कई शीर्षस्थ पदों को सुशोभित करते हुए कभी उनका अध्यवसाय बाधित नहीं हुआ। भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी श्रृंखला में दिनांक 08/11/2021 को भारत की प्राचीन अनुवाद परम्परा पर भारतीय अनुवाद का इतिहास और परम्परा  विषयक वेबिनार में प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी जी द्वारा दिए गए विशिष्ट व्याख्यान का अविकल लिप्यन्तरण।

पहले मैं धन्यवाद देता हूँ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा अध्ययन केन्द्र को कि मुझे यह अवसर मिला आप सभी के बीच में उपस्थित होने का। यद्यपि बहुत अधिक कार्यक्रम हो जाते हैं ऑनलाइन, और मुझे अब थकान भी होने लगी है। कोई न कोई कार्यक्रम, ऑनलाइन व्याख्यान का हर हफ्ते आ ही जाता है। इस कार्यक्रम में सम्मिलित होकर विशेष रूप से मुझे प्रसन्नता हुई कि बहुत अच्छा उपक्रम आप लोगों ने किया है जेएनयू के छात्रों ने और उनके गुरुजनों ने, उसके लिए मैं बधाई देता हूँ। बलराम शुक्ल जी को सुनना तो सदैव रुचिकर और ज्ञानवर्धक होता है। काफी कुछ दिमाग के लिए खुराक वे देते हैं। जब भी उनसे वैसे भी चर्चा होती है, बातचीत होती है, उसमें भी और जब उनको किसी मंच से सुनने का अवसर मिलता है, तब भी। तो मेरे लिए सुविधा भी हुई कि उन्होंने बहुत अच्छी आधारपीठिका भी निर्मित की और बहुत ही महत्त्वपूर्ण सूत्र उन्होंने दिए पूरे भारतीय अनुवाद की परंपरा को समझने के लिए। उसके आगे मैं कुछ जानकारियाँ और उसमें जोड़ सकता हूँ और उनकी बात कुछ आगे बढ़ा सकता हूँ।

आपने विषय रखा है भारतीय अनुवाद का इतिहास और परंपरा । हम दोनों संस्कृत भाषा को केंद्र में रख कर अपनी बात कहने वाले लोग हैं। इस दृष्टि से प्रस्तुत विषय के दो पक्ष हो सकते है – संस्कृत में अन्य भाषाओं से अनुवाद और संस्कृत से अन्य भाषाओं में अनुवाद। जहाँ तक अनुवाद की सैद्धांतिकी का प्रश्न है, उस पर बलराम जी ने अच्छी चर्चा की ही है। उन्होंने बताया कि अनुवाद का क्या स्वरूप संस्कृत के शास्त्रों में और हमारे विमर्श में रहा। मैं कुछ बातें उसमें और जोड़ते हुए अपनी बात कहूँगा। संस्कृत में जो अन्य भाषाओं से अनुवात हुए उसमें विशेष रूप से प्राकृत पर बात बलराम जी ने की ही है। फ़ारसी से जो अनुवाद संस्कृत में हुए हैं उस पर भी कुछ चर्चा हो सकती है। तमिल से जो अनुवाद संस्कृत में हुए उस पर विशेष रूप से बात की जानी चाहिए। ये अनुवाद क्यों हो रहें है? तमिल से आदान-प्रदान कब से शुरू हुआ? इन सवालों पर बात की जानी चाहिये। इन पर कम ध्यान दिया जाता है। एक तमिल संस्कृति है और एक वैदिक संस्कृति है। तो क्या यह एक दूसरे के विरोध में खड़ी हुई हैं, या इनमें निरंतर आदान-प्रदान सचमुच जारी है? अनुवाद तो दुतरफा होते रहे हैं, संस्कृत से तमिल में और तमिल से संस्कृत में अनुवाद बराबर होते रहे हैं और अभी भी हो रहे हैं। यह प्रक्रिया चलती आ रही है। जिस तरह चौथी-पांचवी शताब्दी के बाद से ही फ़ारसी से संस्कृत में और संस्कृत से फ़ारसी में अनुवादों की प्रक्रिया शुरू हो गई। पञ्चतन्त्र की प्रति यहाँ से ईराक गई, पहलवी भाषा में उसका अनुवाद हुआ, पहवी से सीरियाई भाषा में और फिर पुरानी फारसी में उसका अनुवाद हुआ। बलराम जी ने उस पर काम किया है। उन लोगों ने भी शाब्दिक अनुवाद कभी नहीं किया। मैं पञ्चतन्त्र पर एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का संयोजन बनाया गया। संगोष्ठी जर्मनी में हुई। मैं तो चमत्कृत हुआ यह देख कर कि विदेशों में कितना काम इस पर हो रहा है पञ्चतन्त्र के अनुवादों पर। पर इन अनुवादों में दूसरे देश के लोगों ने अपनी संस्कृति और अपनी ज़रूरत के हिसाब से बहुत कुछ नया भी जोड़ा। जिस अर्थ में आज अनुवाद शब्द का प्रयोग हम कर रहे हैं, उस अर्थ में दरअसल ये अनुवाद नहीं हैं। अरब देशों ने जो अडॉप्ट किया है पञ्चतन्त्रको, उससे पञ्चतन्त्र पूरी दुनिया में फैला। दाराशुकोह ने जो अनुवाद कर दिये उनसे उपनिषदों का ज्ञान सबसे पहले योरोप में फैला। दाराशिकोह नहीं कहना चाहिए, दाराशुकोह उनका नाम था और दाराशिकोह का बड़ा विकृत अर्थ होता है, जो औरंगजेब ने बना दिया था; उनका नाम दाराशुकोह से दाराशिकोह कर दिया था। दाराशुकोह ने जो बावन उपनिषदों के सिर्र-ए-अकबर में फ़ारसी में अनुवाद किए, उनसे यूरोप में उपनिषदों का ज्ञान फैला। अनुवादों की, संस्कृत से अनुवादों की, और संस्कृत में होने वाले अनुवादों की, कितनी बड़ी सांस्कृतिक भूमिका रही हमारे देश के लिए और विश्व के लिए --- इस बात को समझा जाना चाहिए। दुनिया की तस्वीर कई बार बदल गई अनुवादों से। एक अनुवाद की किताब आने स दुनिया बदल जाती है। जिसका एक उदाहरण मैं देता हूँ कि जिस तारीख को सर विलियम जॉन्स ने अभिज्ञान-शाकुंतल की किताब 1789 में छापी थी, उसके बाद से दुनिया वह नहीं रह गई, जो उसके पहले थी। इसको मैं कई प्रमाण देकर साबित करता हूँ। दुनिया वैसी रह ही नहीं सकती थी शाकुन्तल छप कर आ जाने के बाद। यूरोप बदल गया। उसके बाद से, हम बदल गए उसके बाद से, सारे पुर्नजागरण की जो तस्वीर थी, उसमें कुछ तब्दीली आई, जैसे ही वह एक अनुवाद की किताब छप कर आ गई। वह अनुवाद भी उस तरह का अनुवाद नहीं था। सर विलियम जॉन्स को कई जगह अनुवाद करने में शर्म लगी और कुछ जगह उन्होंने कहा कि मैं नहीं कर पा रहा हूँ। ये तो ऐसा शरीर का खुला वर्णन है हमारी ईसाई परम्परा में ऐसे हम नहीं कह सकते, तो शाब्दिक अनुवाद तो वह भी नहीं जो कि योरोप के साहब चाह रहे थे कि हम शब्दशः अनुवाद करने की कोशिश करें, उनकी हिम्मत भी टूट गई। यह अनुवादों का जो महत्त्व है, वह हमारे यहां, हमारे देश की देश की धरती पर भी बहुत अधिक रहा है। इस दृष्टि से हमें विशेष रूप से देखना चाहिए और इसी दृष्टि से संस्कृत से जो अनुवाद हुए हैं और संस्कृत में जो अनुवाद का स्वरूप रहा है उसकी चर्चा करूंगा।

बहुत बड़ा विषय है उसके कुछ पक्ष ही यहाँ लिए जा सकते हैं। संस्कृत की शास्त्र परंपरा में अनुवाद शब्द का वह अर्थ नहीं होता जो आजकल हम ट्रांसलेशन से जो ग्रहण करते हैं लेकिन शब्द उस अर्थ में प्रचलित न होने का यह आशय न लिया जाए कि अनुवादनहीं होते थे। संस्कृत में अनुवाद की क्या परंपरा रही है और संस्कृत में तथा संस्कृत से अनुवाद किस प्रकार हुए इस पर चर्चा करते हुए अनुवाद शब्द इस अर्थ में न होने का आशय यह नहीं लिया जाना चाहिए कि अनुवाद की अवधारणा नहीं थी। हमारे यहाँ सौंदर्यशास्त्र की बड़ी संपन्न परंपरा है लेकिन पश्चिम के कुछ विद्वानों ने कहा, मैक्समूलर ने कहा और उसके बाद कुछ और विद्वानों ने भी कहा और बहुत पहले हिंदी के भी किसी आचार्य ने कह दिया कि संस्कृत काव्यशास्त्र में सौंदर्यशास्त्र की परंपरा नहीं है। तो एस्थेटिक्स के लिए सौंदर्यशास्त्र शब्द प्रचलित नहीं था इसका आशय यह नहीं है कि सौंदर्यशास्त्र विषय ही नहीं था क्योंकि सौन्दर्य के लिए तो सैकड़ों शब्द संस्कृत में हैं। उन सबके अलग-अलग बड़े व्यापक आशय हैं। रमणीयता है, चारुता है, रम्यता है और भी कई बड़ी शब्दावली है, उसी तरह अनुवाद के लिए अनुवाद की परिधि में उससे मिलते-झुलते बहुत सारे शब्द संस्कृत में हैं और उन सभी का अभ्यास होता रहा। उन सभी का व्यवहार में परिणति उन सबकी होती रही। 

न्यायदर्शन में तो अभ्यास या कहे हुए को दोहराना, इसको ही अनुवाद कहा गया। इसके उदाहरण गौतम के न्यायसूत्र में रोजमर्रा के जीवन से या कर्मकाण्ड में बोली जाने वाली भाषा से दिये गये हैं। जैसे कोई कहता है – पचत, पचत (पकाओ, पकाओ)। तो यहाँ ‘पचत’ या ‘पकाओ’ की आवृत्ति होने से अनुवाद हुआ। किसी शब्द या वाक्य को समझाने के लिये या जोर देने कर बताने के लिये दोहराना अनुवाद है। यों ही रटने के लिये दोहराना भी अनुवाद कहा जायेगा। जैसे तोते को जो हम राम-राम सिखाते है, वह बोलता है तो अनुवाद करता है, हमारे कहे हुए का। यह अनुवाद का आशय हमारी आचार्य परम्परा ने स्वीकार किया। लेकिन यह अर्थ भी यदि अनुवाद का हम लेंगे तो इसका व्यापक अर्थ लेते हुए ठीक हम अनुवाद से जो आज आशय समझते हैं, उसको भी इसमें शामिल कर सकते हैं; क्योंकि कहे हुए को जब हम दोहराते हैं तो कहे हुए को हम अपने ढंग से दूसरी भाषा में दोहराएंगे, तब भी तो अनुवाद ही उसको कहेंगे। इसलिए अनुवाद शब्द एक सीमित अर्थ में आ रहा है, जिसका आशय दोहराव है।

कण्ठाग्रीकरण या मन्त्रों अथवा अलोकों को याद करने के लिए बहुत सारी प्रविधियाँ अविष्कृत की गई और अपनाई गईं। ऋग्वेद के साढ़े दस हजार से अधिक मन्त्र कई हजार साल तक इन प्रविधियों के द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी  ज्यों के त्यों याद रखे गये। इन प्रवधियों का निरूपण अष्टविकृतियों के नाम से प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। अष्ट विकृतियों के साथ वेद मन्त्रों का पाठ करने वाले भी अभी मिल जाते हैं। ये अष्टविकतियाँ वेद के मन्त्रों के शब्दों को कैसे कैसे दोहरायें – इससे बनती हैं।  तो वे सब अनुवाद के प्रकार हैं। लेकिन उनमें जाते-जाते कहीं न कहीं व्याख्या भी मंत्र की होने लगती है। मंत्र का बोध भी होने लगता है। यह जो अनुवाद का हमारे यहाँ मूल अभिप्राय लिया गया; उसके भी आशय व्यापक हो सकते हैं।

बलराम शुक्ल जी का यह कहना एकदम सही है कि ने कि अनुवाद का जो आशय मोटे तौर पर आज हम लेते हैं – विशेष रूप से एक भाषा से दूसरी भाषा में किसी पाठ का शब्दशः या शाब्दिक अनवाद। उसकी बहुत आवश्यकता प्राचीन काल में हमारे यहाँ पड़ी ही नहीं, क्योंकि हमारे देश में भाषाओं के बीच में आवाजाही बहुत थी। वैदिक काल से लगा कर और मध्यकाल तक और अठारहवीं शताब्दी तक भी यही स्थिति थी। कई भाषाएँ एक साथ प्रचलित हैं। सारा देश बहुभाषी रहा। यह वेदों में ही इस स्थिति का हमको संकेत मिलता है। अथर्ववेद के ऋषि पृथ्वीसूक्त में कहते हैं - 'जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्' इस धरती पर अनेक भाषाएँ बोलने वाले और अनेक धर्मों को पालन करने वाले लोग रहते हैं। उनको यह धरती माता अपनी गोद में बसाए हुए है। भाषाओं में आवाजाही खूब होती थी, जो संस्कृत बोल रहा है, वह प्राकृत में भी बोल रहा है और प्राकृत वाले से बातचीत भी कर रहा है। एक प्राकृत नहीं है, कई प्राकृत हैं। सभी प्रचलन में हैं, बोली और समझी जा रही हैं। 

मृच्छकटिक में तो सत्ताईस तरह की प्राकृत भाषाएं आईं हैं और सभी समझी जा रही है, बोली जा रही हैं। यह क्षेत्रीय रूप है और संस्कृत एक अखिल भारतीय भाषा है। उनमें परस्पर आदान-प्रदान भाषिक स्तर पर होता रहा है, संवाद होता रहा है। यह आवश्यक माना गया हमारे पाठ्यक्रम में, हमारी शिक्षा पद्धति में कि जो हमारे आश्रम के छात्र हैं उनको अन्य भाषाएं सीखाई जायें। शुक्राचार्य ने शुक्रनीति में तो बत्तीस विद्याओं की एक सूची दी है। उसमें उन्तीसवीं विद्या देश भाषा ज्ञान है। यह विद्या पढ़ाई जा रही थी तभी तो विद्याओं में इसकी शुक्र ने गिनती की। यह कहा जाता है कि पहले चार विद्याएँ थी फिर वह चौदह विद्याएं हुई फिर अठारह विद्याएँ हुईं फिर आठवीं-नवीं शताब्दी तक आते-आते बत्तीस विद्याएँ गिनाई गईं, देश में भाषाओं का ज्ञान कराया जाता रहा, जो अलग-अलग देश के अलग-अलग कोनों में जो भाषाएँ प्रचलित हैं। इसीलिए शंकराचार्य केरल से चले और कश्मीर तक वह बातचीत करते हुए, शास्त्रार्थ करते हुए चले गए। तीर्थयात्री भी एक स्थान से चलकर, कश्मीर भी जाते है और कन्याकुमारी भी जाते हैं। कहीं ऐसी भाषा की दिक्कत नहीं होती है क्योंकि कई भाषाओं में बोलने वाले और कई भाषाओं में आवाजाही करने वाले लोग रहते हैं। तो यह देशभाषा ज्ञान जहाँ विद्या के रूप में निर्धारित किया गया हो वहाँ शाब्दिक अनुवादों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वात्स्यायन ने जो चौंसठ कलाएं बताईं उनमें भी एक कला उन्होंने सैंतालीसवीं कला देशभाषा ज्ञान को बताया और कहा कि महिलाओं को भी सिखानी चाहिए चौंसठ कलाएँ। उन्होंने यह कहा कि चौंसठ कलाएँ यदि कोई महिला सीख लेगी तो कभी पति छोड़ कर चला गया, बेरोजगारी का संकट आ गया, खाने पीने को नहीं मिला तो कुछ खा कमा लेगी अपने बूते। यही बात कौटिल्य भी कह गए कि महिलाएँ कुछ काम करने लग जाएँ। उनको काम कराने के लिए बाहर मौके मिल सकते हैं। उसके लिए दूसरी भाषा सीखने पर जोर दिया जाता था। हमारे पाठ्यक्रमों में भी और दैनिक व्यवहारिक जीवन में भी यहाँ के लोग कई भाषाएँ सीखत रहे इसलिए भी शाब्दिक अनुवाद की जरूरत नहीं पड़ी।

पर अनुवाद की हमारी पम्परा में एक अलग संस्कृति पनपी। हमारे पास ट्रेजेडी थी, पर पश्चिम की ट्रेजेडी से अलग। हमारे पास सौन्दर्यशास्त्र था, पहुत सम्पन्न मुकम्मल सौन्दर्यशास्त्र। पर वह पश्चिम के सौन्दर्यशास्त्र के मानकों स बहुत अलग था। इसलिये ट्रेजेडी है, पर ड्रेजेडी का वे वजन का हूबहू शब्द नहीं है। सौन्दर्यशास्त्र हैपर सौन्दर्य़शास्त्र के ले अलग से शब्द नहीं है। यही बात अनुवाद के साथ है। अनुवाद के लिये हूबहू उसके वजन का शब्द संस्कृत में मूलतः नहीं है। पर जैसे सौन्दर्य के लिये संस्कृत में शायद सबसे ज्यादा पर्याय शब्द हैं। हर एक को आचार्यों ने सौन्दर्यशास्त्रीय मानकों के अनुसार परिभाषित भी किया है। उसी तरह अनुवाद की परिधि में आने वाले में बहुसंख्य शब्द हैं। हर एक सुपरिभाषित है।

हमारी परंपरा में अनुवाद के अनेक प्रकार रहे हैं, उनकी एक सूची मेरे पास है। जिस प्रकार सौंदर्यशास्त्र, भारतीय सौंदर्यशास्त्र कैसा हो, कैसा हमारे यहाँ विकसित हुआ, इस पर विचार करते हुए मैंने लगभग 100 शब्दों की एक सूची बनाई जो सौंदर्य के पर्याय हैं। जैसे – चारुता, रमणीयता, रम्यता, लावण्य, लालित्य, वक्रोक्ति, विच्छत्ति, छवि आदि। सब के अलग-अलग प्रकार के अंतर्निहित आशय हैं। वे गहरे अभिप्रायों से शास्त्र परंपरा में प्रयुक्त होते हैं। उसके मुकाबले सौन्दर्य थोड़ा सा सीमित शब्द है। उसी तरह से यह सूची मेरे पास अनुवाद से मिलती-झुलती पदावली की है। इस पदावली की संज्ञाओं को अनुवाद के पर्याय भी आप कह सकते हैं। पर वे अनुवाद के व्यापक अभिप्रायों को द्योतित करते हैं। अनुवाद जिसको हम आज कहते हैं, वह उनके सामने एक सीमित अभिप्राय वाली वस्तु होगी। जैसे - भाष्य और महाभाष्य। पतंजलि का महाभाष्य है। वह संपूर्ण अष्टाध्यायी का अनुवाद भी है, व्याख्या भी है और बहुत महान व्याख्या है। वह तो अपने आप में बड़ा पैराडाइम पतंजलि ने महाभाष्य के रूप में खड़ा किया। विश्वकोश उन्होंने उसको बना दिया। एक अनुवाद का प्रकार यह भी है कि भाष्य भी हो सकता है। समीक्षा यह हमारी जो पारिभाषिक शब्दावली है। उसमें चूर्णिका, पंजिका और वार्तिक है। वार्तिक का लक्षण अलग दिया जाता है उस पर मैं आऊँगा। टीका पर तो बात की है बलराम शुक्ल जी ने। सार संग्रह को लीजिये।  यह भी एक तरीका है किसी कृति को अन्य भाषा या उसी भाषा में प्रस्तुत करने का और संग्रह। यह अनुवाद के पर्याय हमारे यहाँ मिलते हैं। कुछ दर्शन शास्त्रों में शब्दों का इस्तेमाल है। उसके पीछे एक दार्शनिक दृष्टि है। जैसे - प्रतिरूप, छाया, संवाद, प्रतिबिंब, आभास। मैंने जो अनुवादशास्त्रम् नाम से संस्कृत में किताब लिखी उसमें दो सूत्र हैं :

भाष्य-समीक्षा-चूर्णिका-वार्तिक-टीका-पञ्जिका-सारसङ्ग्रह-सङ्ग्रहा अनुवादपर्यायाः। (अनुवादशास्त्रम् , 4.1)
तथा - अनुकृति-प्रतिरूप-च्छाया-संवाद-प्रतिबिम्बाभासा श्चाप्यनुवादपर्यायाः। (अनुवादशास्त्रम् , 5.1)

यह जो दार्शनिक और शास्त्रीय शब्दावली है, इसकी थोड़ी सी नाप जोख यदि हम करते हैं तो हम देखते हैं कि इन लोगों की दृष्टि क्या है। इन लोगों का जो विश्वबोध है, वह कुछ इस प्रकार का है कि एक दृष्टि से तो सारा का सारा जो संसार हम देख रहे हैं, वही अनुवाद है। जो कुछ हम इसमें कर रहे हैं वही अनुवाद है। मनुष्य का हर काम अनुवाद है। जितने शिल्प हैं, जितनी कलाएं हैं, जितनी कविताएं हैं, वह सब अनुवाद हैं, क्योंकि यह जो दुनिया है, ईश्वर के द्वारा लिखी गई कविता है। ईश्वर के भीतर जो परिकल्पना थी संसार की, उसका ट्रांसलेशन उसने किया। अब यह जो ईश्वर की कृति है या दिया हुआ संसार है, इसे इंसान फिर से बनाता है। वह इसकी पुनःसृष्टि करता है-  अपने चित्र में, अपनी मूर्ति में, अपनी कविता में, अपनी कला में। हम देखे हुए, भोगे हुए या जाने पहचाने संसार का अनुकीर्तन, अनुवचन या अनुकरण करते हैं। ऐतरेय महीदास ने उसको अनुकृति कहा है।

ऐतरेय महीदास बहुत बड़े विचारक थे। बहुत बड़े सौंदर्यशास्त्री थे, जिनको कि नीहारंजन राय ने प्राचीन भारतीय कला का अध्ययन शीर्षक अपनी किताब में दुनिया का पहला महान् सौन्दर्यशास्त्री कहा। उन्होंने कहा कि शिल्प दो तरह के होते हैं। एक देव शिल्प है, एक मानुष शिल्प है। यह जो दी हुई दुनिया है वह देवता का रचा हुआ शिल्प है। जो मनुष्य बनता है इस दी हुई दुनिया के समानांतर नई दुनिया, वह मानुष शिल्प है। देवशिल्प का अनुवचन, उसका अनुवाद या उसकी अनुकृति यह मानुष शिल्प है। इस अर्थ में ये जो प्रतिरूप खड़ा करते है और छाया हम रचते हैं-  एक पुरानी कविता की दूसरी कविता में, देखी हुई दुनिया की नई दुनिया में।

तुलसीदास ने तो कितनी छायाएं रची हैं। कितना अद्भुत उन्होंने काव्यजगत् खड़ा किया है रामचरितमानस में 'नाना पुराण निगमागम सम्मतं' से कितनी-कितनी छायाएं और अभिप्राय लेकर हम संवाद करते हैं। इस संवाद पर बहुत गहराई से विचार किया गया कि दो रचनाओं में संवाद हो सकता है। किस तरह से सामना करता है बाद का कवि पिछली कविता का, पहले के कवि का।

प्रतिबिंबकल्प (दर्पण में दिखते अक्स की तरह हू ब हू वैसा ही) हो सकता है, आलेख्यप्रख्य (आलेख्य ता पेंटिग की तरह) हो सकता है। तुल्यदेहितुल्य (दो समान आकृतियों वाले लोगों की तरह, जिनका व्यक्तित्व अलग अलग है) हो सकता है, और परपुरप्रवेशसदृश संवाद हो सकता है। कोई व्यक्ति किसी पुर या नगर में जाता है, वहाँ नगरनियोजन और नगरविन्यास को समझ कर फिर अपना एक नगर उसके आधार पर अपनी परिकल्पना के साथ बसाता है। ऐसे ही अनुवादक मूल में प्रवेश कर के उसके आधार पर कोई रचना करता है। ये सब अनुवाद के प्रकार हैं। एक व्यापक अर्थ में हम किसी पहले की रचना को कैसे प्रस्तुत कर सकते हैं जो कि हम उस रचना को अपने समय में समसामयिक भी बनाते हैं अनुवाद के द्वारा। यही हमारी पद्धति भी रही है कि रामायण का हम अनुवाद करते हैं तो नई रामायण लिखते है तो भी एक अनुवाद का ही प्रकार हमारे लिए हुआ करता है। यह जो हू-ब-हू उसके जैसी आकृति हम खड़ी कर देते हैं, तुल्यदेहितुल्य खड़ी कर देते हैं, फोटो कॉपी जैसी कर देते हैं, यह नया व्यक्तित्व उसको देते हैं, नया जामा उसको पहनाते हैं या किसी दूसरे शहर में हम जा कर और उसका खाका हम समझ कर आते हैं, फिर अपना नया शहर बसाते हैं। हर अनुवाद अनूद्य कृति से संवाद करता है। जिस कृति का हमने अनुवाद किया है। संवाद हर बार नया होता जाता है। इसलिये महान् रचनाओं के बर बार नये अनुवाद होते रहते हैं।  कई बार संस्कृत से संस्कृत में ही अनुवाद किया गया है। संस्कृत से अन्य भाषाओं में किया गया या अन्य भाषाओं की कृति का संस्कृत में जब-जब हमने अनुवाद किया तो उसे हमने कई तरीकों से संवाद किया। अपने जीवन में अपने संदर्भों में पुनर्व्याख्या भी हमने उसकी की।

इसलिए जितनी भी टीकाएँ होती हैं, वे अनुवाद भी हैं। चूर्णिका भी इसी का एक प्रकार है, थोड़ा संक्षेप में टीका लिखी जाती है, तो चूर्णिका होती है। वार्तिक तो उसमें जो कमियाँ रह गई हैं, उसको भी उद्घाटित करता है। इन सबको परिभाषित किया गया है। उसके विस्तार में ज्यादा नहीं जाऊंगा। कहीं पहले की कृति को सूत्रबद्ध किया जाता है। सूत्र का लक्षण यह है –

अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्ववतोमुखम्।
अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः।।

(किसी बात को कम शब्दों में नपे तुले शब्दों में बाँध कर इस तरह कह दिया जाये कि कोई सन्देह या अस्पष्ता न रहे, सार रूप में और समग्रता में सारी बात आ जाये, निरर्थक ध्वनियाँ या बीच में विराम न रहे, कहने में कोई खोट भी न रह जाये, तो सूत्र को जानने वाले उसे सूत्र कहते हैं।)

सूत्र की वृत्ति की जाती है। वृत्ति अपने आप में एक अनुवाद का प्रकार है। पाणिनि के सूत्रों की वृत्ति हुई। बहुत सारे जितने सूत्र ग्रंथ हैं, जो षड्दर्शनों के सूत्र ग्रन्थ हैं, उनकी वृत्ति हुई। पद्धति फिर उसके आगे का एक प्रकार है। 'सूत्रवृत्तिविवेचनं पद्धतिः' -  पद्धति में सूत्र और वृत्ति दोनों का विवेचन एक साथ किया जाता है। उसके आगे का प्रकार भाष्य है। 'आक्षिप्य भाषणं भाष्यम्' - अन्य स्रोतों से भी आक्षेप करते हुए कि अन्यत्र यह कहा गया है और फिर उसकी व्याख्या करता है तो भाष्य हो जाता है। 'अंतर्भाष्यं समीक्षा' - भाष्य की गहराई में यदि जाते हैं, भीतर डुबकी लगाते हैं तो फिर उसको क्रिटीक करते हैं, यह समीक्षा हो जाती है। वार्तिक इन सारी कोटियों से अलग ही है। 'उक्तानुक्तदुरक्तचिन्ता वार्तिकम्' यह वार्तिक का लक्षण आचार्य करते हैं। जो कह दिया गया है, जो छूट गया है, और जो ठीक से नहीं कहा गया है, उन सब को बताया जाये, तो वार्तिक होता है। ये परिभाषाएँ दसवीं शताब्दी में आचार्य राजशेखर ने उद्धृत कीं हैं।

संक्षेप में जो परम्परा रही है हमारे यहाँ अनुवाद के सिद्धांतों के बारे में, उस पर थोड़ी बात करते हैं। संस्कृत में किस तरह की कृतियों के अनुवाद विशेष रूप से हुए, वे क्यों हुए हैं और किस दृष्टि से हो रहे हैं उन पर थोड़ी सी बात करूंगा। जैसी चर्चा हुई है कि गुणाढ्य की जो बड्डकहा है उसके कई अनुवाद हुए। छह अनुवादों की सूची मेरे सामने है। अपने-अपने ढंग से अनुवाद किए गये। बड़े महाकवि थे जिन्होंने अनुवाद किए। गुणाढ्य को पूरी भारतीय साहित्य की परंपरा में संस्कृत के कवियों ने संस्कृत के आचार्यों ने लगभग वही आदर दिया, जो व्यास और वाल्मीकि को दिया जाता है। जबकि गुणाढ्य पैशाची प्राकृत में किताब लिख रहे हैं। संस्कृत में तो लिखा ही नहीं उन्होंने, हालांकि बड़े पंडित थे संस्कृत भाषा के। उसका एक अलग किस्सा है कि संस्कृत में उन्होंने क्यों नहीं लिखा। पैशाची प्राकृत जो पता नहीं कहाँ की कश्मीर के आसपास की, या कहाँ की प्राकृत थी, उसमें उन्होंने लिखा है। बड्डकहा जो गुणाढ्य का पैशाची प्राकृत में ग्रन्थ है उसको रामायण महाभारत जैसा माना गया पूरे भारतीय साहित्य की संस्कृत साहित्य की परंपरा में और उससे अनुवाद लोग कर रहे हैं। वह एक महाकथा है, बड्डकहा तो उसका नाम ही है। तिलक मंजरी में धनपाल कहते हैं –

'सत्यं बृहत्कथाम्बोधेर्बिन्दुमादाय संस्कृते’

अर्थात् ऐसा बड़ा महासागर कि उसकी एक-एक बूँद लेकर संस्कृत के रचनाकार कथाएँ लिख रहे हैं। कथाओं की कई कई सरिताओं बृहत्कथा के महासागर में समा गईं हैं। सोमदेव ने इसी दृष्टि से बृहत्कथा के अपने रूपान्तर को ‘कथासरित्सागर’ कहा। बृहत्कथा की कहानियाँ जो घर-घर में कही जा रही थीं, उनको लोग संस्कृत में भी संगृहीत कर रहे थे अपने ढंग से। बृहत्कथा की किताब भी उनको प्राप्त थी। अभिनवगुप्त के पास उनकी पोथी थी। अभिनवगुप्त के पास ग्यारहवीं शताब्दी में हस्तलिखित ग्रंथों की बड़ी लाइब्रेरी थी। उससे मूल पैशाची प्राकृत से अभिनवगुप्त गाथा उद्धृत करते हैं। उनके पास किताब थी। लेकिन बाद में यह किताब ही लुप्त हो गई। मूल जो प्राकृत में किताब थी वह नहीं मिलती है। अगर मिल जाती तब तो पूरे भारतीय साहित्य के लिए बहुत अद्भुत बात हो जाती। लेकिन उसके इतने रूपांतर मिलते हैं कि यह प्रश्न उठता है कि लोग क्यों कर रहे हैं उसके अलग-अलग रूपांतर?

पाँचवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी ई. के बीच बड्ढकहा के भाषाओं में छह अनुवाद या रूपांतर निर्मित हुए, जो इसप्रकार हैं -

1.   दुर्विनीत नामक राजा के द्वारा किया गया संस्कृत रूपांतर

2.   वसुदेवहिण्डी नाम से शौरसेनी प्राकृत में रूपांतर

3.   तमिलभाषा में रूपांतर – इसका नाम पेरुंगडाइ है तता इसके प्रणेता कोंगु वेळिर हैं। यह अपूर्ण प्राप्त होता है, तथा समग्र बृहत्कथा का संभवतः आठवाँ भाग ही इसमें समाहित हो सका है। 

4.   बुद्धस्वामीविरचित बृहत्कथाश्लोकसङ्ग्रह (संस्कृत में)

5.   क्षेमेन्द्रकृत बृहत्कथामञ्जरी (संस्कृत में)

6.   सोमदेवकृत कथासरित्सागर (संस्कृत में)

इनमें से दुर्विनीत के द्वारा निर्मित रूपांतर कालकवलित हो चुका।

बृहत्कथाश्लोकसंग्रह अपूर्ण है तथा 4539 श्लोकों  में 28 सर्गों तक मिलता है। लाकुत का अनुमान है कि मूल बृहत्कथा  में नरवाहन दत्त ने 28 पत्नियों की प्राप्ति का वृतान्त सुनाया होगा, पर बृहत्कथाश्लोकसंग्रह छठी पत्नी की प्राप्ति के वृत्तांत तक ही सीमित है।

वसुदेवहिंडी - संघदास गणी ने प्राकृत में बृहत्कथा का यह रूपान्तर 500 ई. के आसपास तैयार किया। इसपर बुद्धस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का प्रभाव प्रतीत होता है। बृहत्कथा के मूल पात्रों के स्थान पर पात्रों के नाम भिन्न है, कथा नायक नरवाहन दत्त नहीं, वरन् श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव हैं। और इनके 29 विवाहों की कथा 29 लंभकों में ही इस में प्रस्तुत की गयी है।

प्रद्युम्न के प्रश्न करने पर वसुदेव अपने विवाहों की कथा सुनाते हैं। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वसुदेवहिंडी मूल बृहत्कथा के अधिक निकट है, तथा बृहत्कथा के मूलरूप को खोजने  में सहायक हो सकता है।

धर्मदास गणी ने वसुदेवहिंडी के नाम इस ग्रन्थ की पूर्ति की, जिससे यह सौ लंभकों का हो गया। तथा इस में वसुदेव के 100 विवाहों की कथाएँ पूरी हो गयी ।

क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी में 18 लंभक तथा 7500 श्लोक हैं। सोमदेव का कथासरित्सागर बृहत्कथा के प्राप्त रूपान्तरों में सर्वाधिक विशाल, सर्वाधिक रोचक और सर्वांग पूर्ण है। इसकी रचना कश्मीर के राजा अनंत की रानी सूर्यमती के मनोरंजन के लिए 1063-1082 ई. के बीच की गयी। इसके कुछ ही वर्ष पूर्व क्षेमेन्द्र ने बृहत्कथामंजरी की रचना की थी। पर सोमदेव क्षेमेन्द्र की रचना से परिचित प्रतीत नहीं होते।

पांचवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच बड्डकहा के छह अनुवाद संस्कृत और अन्य भाषाओं में भारतीय साहित्य की परंपरा में मिलते हैं। सबसे पहले तो पांचवी छठी शताब्दी में दुर्विनीत नाम के एक राजा का उल्लेख आता है। दुर्विनीत ने भारवि कृत किरातार्जुनीयम् की टीका लिखी थी। उन्होंने बड्डकहा का संस्कृत में रूपांतर किया -  यह उल्लेख मिलता है। पर उनका रूपान्तर मिलता नहीं है। फिर प्राकृत से ही अन्य प्राकृत में रूपांतर हुआ बड्डकहा का। वसुदेवहिंडी के नाम से शौरसेनी प्राकृत में पैशाची प्राकृत से बड्डकहा का अनुवाद किया गया। यह 500ई. के आसपास किया गया और यह बुधस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह से प्रभावित लगता है। फिर तमिल में उसका रूपांतर जिसको ‘पेरून्गडाई’ कहा जाता है और कोंग प्रेहित उसके प्रणेता हैं। यह पूरा नहीं मिलता है। ऐसा बताया गया क्योंकि मैं तमिल जानता नहीं हूँ। नागास्वामी हमारे बुजुर्ग मित्र हैं। वे ही इस पर लिखते रहे हैं। वे बताते हैं कि  समग्र बड्डकहा का लगभग आठवाँ हिस्सा ही इसमें कुल मिलाकर आ सका। संस्कृत में तीन इसके बहुत अच्छे रूपांतर प्राप्त होते हैं। बुधस्वामी का ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’ बहुत अच्छा रूपांतर है और संग्रह इसमें नाम जुड़ा हुआ है। आप देखते है कि वे संग्रह कर रहे हैं और अविकल रूप से पूरी की पूरी बड्डकहा जैसी की तैसी प्रस्तुत करने का उनका आशय नहीं है क्योंकि वह इतनी बड़ी है, इतनी बढ़ गई है। बड्डकहा  लोक में प्रचलित है। घर-घर में सुनाई जा रही है। कही जा रही है। तो संस्कृत का रचनाकार चाहता है कि वह एक बार संगृहीत हो जाए और एक बार वह संकलित होकर कम से कम संक्षिप्त रूप में आ जाए। बुधस्वामी अच्छे कवि हैं और बहुत सुन्दर उन्होंने संग्रह तैयार किया है। इतनी रोमांचक और रोचक कहानियाँ हैं।

बृहत्कथा तो कहानियों का एक खजाना है। भारतीय कथापरंपरा का एक कोश है। उसके अन्य रूपान्तरों में फिर क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी है। यह दसवीं शताब्दी में रची गई। सोमदेव का कथासरित्सागर है। कथासरित्सागर का एक बहुत संक्षिप्त रूपान्तर मैंने तैयार किया है। जो नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुआ था।

इस सब रूपान्तरों का मिलान करके यदि देखा जाए तो अपने आप में बहुत ही रोचक शोध का विषय होगा, किसी ने इस पर काम नहीं किया। बहुत बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। जितने यह बृहतकथा के रूपांतर हैं, तीन संस्कृत में और एक यह प्राकृत में, एक तमिल में और एक तो खैर मिलता नहीं है। सबसे प्राचीन जो संस्कृत का रूपांतर है। कम से कम जो पाँच मिलते हैं, उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए और कितना जमीन आसमान का अंतर भी हो गया है। इसमें रूपान्तरकार की क्या दृष्टि रही है। जैसे वसुदेवहिंडी में बृहत्कथा जैनधर्म और दर्शन के साँचे में ढल गई है। बृहत्कथा के मूल पात्रों के नाम भी उन्होंने जैन परंपरा में ढाल लिए हैं। जैन परम्परा में एक शलाकापुरुष श्रीकृष्ण के पिता जी वसुदेव हैं। वे इसके नायक हो जाते हैं और उनके 29 विवाहों की कथा चलती है। मूल बड्डकहा या बृहत्कथा में सौ विवाहों की कथा थी। नायक एड्वेंचर करता हुआ यात्राएँ कर रहा है, एक शहर से दूसरे शहर में। कई-कई नायिकाओं की उनसे भेंट होती है। और वह विजय प्राप्त करता है, उसकी शादियाँ इस तरह से होती हैं।

बुधस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में 4500 श्लोक हैं। क्षेमेंद्र की बृहत्कथामंजरी में अठारह लम्भक और 7500 श्लोक हैं। तो क्षेमेन्द्र का रूपान्तर बुधस्वामी की रचना से लगभग दूना है। सोमदेव का रूपान्तर सबसे विशाल है। यह उतना ही रोचक भी है। सोमदेव अच्छे कवि हैं। सुंदर काव्यात्मक अंशों के साथ बहुत खूबसूरत बनाते हुए उसकी कविता और कहानी दोनों का निर्वाह करते हुए वे बृहत्कथा को प्रस्तुत करते हैं। जो कश्मीर की रानी थीं, वे कहानियाँ सुनना चाहती थीं। उन्होंने सोमदेव से कहा कि हमको बड्डकहा की कहानियाँ सुननी है। रानियाँ संस्कृत में सुनना पसंद करती थीं। संस्कृत भाषा व्यवहार की भाषा थी दरबारों में। राजा और रानियों में संस्कृत व्यवहार की भाषा थी। बड्डकहा की जो कहानियाँ मूल भाषा में बोधगम्य नहीं रह गईं थीं। तो संस्कृत में उनको सुनाने के लिए सोमदेव अपना रूपान्तर तैयार करते हैं। बुधस्वामी और क्षेमेन्द्र भी यही करते हैं। 

तीनों ही अनुवादकों ने अपनी भूमिका दी है, संक्षेप में, आरंभ में, क्यों मैं तैयार कर रहा हूँ और वे कहते हैं कि हम अपनी तरफ से तो कुछ जोड़ ही नहीं रहे हैं। गुणाढ्य की बड्डकहा गुणाढ्य के प्रति हमारा ऐसा आदर है कि उसमें कुछ क्यों जोड़ेंगे। आप देखेंगे कि अंतर कितना है, फिर भी क्योंकि उनका पूरा कॉन्सेप्ट ही अलग है। वे मानते हैं कि हमने गुणाढ्य के साथ में कोई विकृति की ही नहीं है। कोई छेड़छाड़ हमने की नहीं है। हम तो गुणाढ्य जो कह गए हैं उसी को प्रस्तुत कर रहें हैं अपनी संस्कृत में। बहुत निर्द्वन्द्व होकर समझाते हैं कि हम तो जस्टिफाई कर रहे हैं गुणाढ्य को ही। जो गुणाढ्य कहना चाहते थे उसको हमने खोल दिया है, वह हमारे लिए ऋषितुल्य हैं। इस भूमिका के साथ जो तीनों अनुवादक अपने अपने ग्रन्थ आरंभ करते हैं। उनकी प्रतिश्रुति है कि जो हमारे पुरखे कह गए उसी को हम प्रस्तुत करेंगे। पर प्रस्तुति की पद्धति बदल जाती है। क्योंकि उनका सम्बोध्य श्रोतृसमाज या टारगेट ऑडिएंस अलग है। बुधस्वामी और क्षेमेन्द्र जन सामान्य के लिये बृहत्कथा को बोधगम्य बनाने के लिये रचना कर रहे हैं। सोमदेव एक राज परिवार को सुनाने के लिए लिख रहे हैं, जो काव्यरसिक है। सोमदेव मूल को सँवारते हुए उसको प्रस्तुत कर रहे हैं। यह दृष्टि भेद भी तीनों ही रूपांतरों में हम देखते हैं। उसके कारण अनुवाद की पद्धति बदल जाती है, तीनों के अऩुवाद भी लग अलग हो जाते हैं।

छाया :  प्राकृत से  संस्कृत में अनुवाद 

दसवीं शताब्दी में उपमितिभवप्रपंचकथा के प्रख्यात रचनाकार सिद्धर्षि ने प्राकृत की चंद्रकेलिचरित नामक कथा का संस्कृत में अनुवाद  किया।

यह परंपरा आगे बढ़ती है। संस्कृत अखिल भारतीय भाषा बनी हुई है और समझी जाती है। अठारहवीं शताब्दी तक गाँव का जो पंडित होता था, वह संस्कृत में जो बोलता था गांव के लोग समझ लेते थे। शादियों में संस्कृत में शास्त्रार्थ होते थे। लोग सुनते थे, समझते थे। निरक्षर लोग भी समझ लेते थे। औपचारिक शिक्षा के बिना भी लोग जो पर्यटन, भ्रमण या तीर्थयात्राएँ करते थे, देश के अलग अलग अंचलों में प्रचलित भाषाएँ सीखते जाते थे। हमारी भाषिक स्थिति के बारे में कुछ गलत तस्वीर खड़ी की जाती रही है। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के बाद प्राकृत भाषाएं लोकव्यवहार से गायब होती जा रही हैं, उनमें साहित्य लिखा जा रहा है गाथाएँ लिखीं जा रही हैं, पर वह साहित्य जनसामान्य की पकड़ से और भी दूर चला गया है। कई बार तो उसका संस्कृत में अऩुवाद करना पड़ता है। लोक में प्राकृत भाषाओं की जगह अपभ्रंश, अवहट्ट और नव्य भारतीय भाषाएँ लेती जा रही हैं। संस्कृत इनके साथ चली आ रही है। तो प्राकृत से संस्कृत में अनुवाद करने पड़ रहे हैं।

आनंदवर्धन ने ध्वनि काव्य के उदाहरण के लिए प्राकृत से लोक काव्य की बहुत सुंदर गाथाएं उद्धृत कीं। जो हमारे समय का लोक काव्य है। उसमें बड़ी ही उत्तम कविता है। उन्होंने प्राकृत की कविता एक के बाद एक बढ़िया कविताएं उद्धृत कीं। आनंदवर्धन के ठीक बाद एक रत्नाकर कवि हुए। उन्होंने ‘ध्वनिगाथापंजिका’ नाम से संस्कृत में एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया और व्याख्या है, जो आनन्दवर्धऩ ने अच्छी कविता के उदाहरण के रूप में अपने ग्रन्थ ध्वन्यालोक में उद्धृत की हैं। रत्नाकर का कहना है कि आनंदवर्धन ने जो बहुत सुन्दर गाथाएँ उद्धृत कीं, ध्वनि काव्य के उत्तम उदाहरण के रूप में, लोग उनको अब नहीं समझ पा रहे हैं, तो मैं उनकी संस्कृत छाया लिख दे रहा हूँ ताकि संस्कृत देखकर समझ जाएंगे कि आनंदवर्धन ने जो बेहतरीन कविता के नमूने प्राकृत कविता के दिए थे वे संस्कृत में ये हैं। प्राकृत को समझाने के लिए संस्कृत में छाया उसकी की जा रही है। उस पर पंजिका लिखी जा रही है।

हम लोगों ने – संस्कृत के आजकल के विद्यार्थियों ने – तो प्राकृत इसी तरह से सीखी। प्राकृत हमारे लिए कठिन थी। संस्कृत आसान थी। प्राकृत की जो रेंडरिंग संस्कृत में होती है जिसको छाया कहते हैं वह मिलती थी। उसी प्राकृत गाथा के नीचे उसको पढ़ कर हम प्राकृत समझ लेते थे। प्राकृत उससे आने लग गई। यह हो सकता है गलत तरीका हो, प्राकृत के जो जैन परम्परा के विद्वान हैं, वे चिढ़ते हैं इस बात से। लेकिन हमने विश्वविद्यालय की आधुनिक शिक्षा पद्धति में इसी तरह से प्राकृत भाषा पढ़ी, पढाई और सीखी। आधुनिक शिक्षा पद्धति में ही क्यों , परम्परा में भी प्राकृत को पढ़ाने का यही तरीका कम से कम पिछले एक हजार सालों से चला आ रहा है। संस्कृत नाटकों के जितने टीकाकार हैं, वे प्राकृत के संवादों की संस्कृत में छाया देते हैं, फिर उन्हें संस्कृत में भी समझाते हैं। प्राकृत को संस्कृत में समझाने का ज़रूरत महसूस की जा रही है। यदि यह ज़रूरत न होती तो टीकाकार यह कह कर आगे बढ़ जाते कि प्राकृत के संवादों पर टीका क्यों लिखें, उनकी व्याख्या क्यों करें, उनको जो सभी समझते हैं।

अनुवाद भाषा सीखने का एक माध्यम है, अच्छा माध्यम नहीं है, यह कोई कह सकता है। तो एक जीवंत परम्परा थी कि संस्कृत में। यह संस्कृत में प्रातों के और लोकभाषाओं के साहित्य के अनुवाद करते जातने की परम्परा थी। प्राकृत की छाया संस्कृत में आसानी से बन जाती। गच्छइ अगर कहा गया प्राकृत में तो गच्छति संस्कृत में कहेंगे। छाया अनुवाद का वह जरिया बन गया, जिससे हम संस्कृत के माध्यम से कई तरह की प्राकृत भाषाएँ समझ या सीख सके। इस तरह संस्कृत एक वाया मीडिया बनी रही। अलग-अलग प्राकृतों के बीच में वह सेतु बन गई।

कथाओं के अन्य रूपान्तर :

एक दूसरी पद्धति जो प्राकृत और लोकभाषाओं के साहित्य को संस्कृत के माध्यम से सम्प्रेषित करने और उसे सुरक्षित रखने के लिये अपनाई गई, वह रूपान्तर या एडाप्टेशन की है। लोककथाओं के संस्कृत में रूपान्तर बहुत हुए। ऐसा भी हुआ कि लोकभाषाओं का या प्राकृत भाषाओं का बहुत सारा साहित्य लुप्त भी हो गया। संस्कृत रूपान्तरों में वह बच गया। जो कथा साहित्य है वह तो बहुत लुप्त हुआ। बृहत्कथा मूल रूप में लुप्त हो गई, उसके संस्कृत रूपान्तर बच गये। बृहत्कथा के अनेक कथाचक्रों के रूपान्तर हुए। पञ्चतन्त्र के भी रूपान्तर होते रहे। पञ्चतन्त्र का एक रूपान्तर हितोपदेश के नाम से बहुत ही लोकप्रिय हुआ, कई शताब्दियों से वह गुरुकलों, विद्यालयों और महाविद्यालयों में संस्कृत के पाठ्यक्रमों में आंशिक रूप से चलता रहा है। कथासाहित्य के कुछ संस्कृत रूपान्तर मिलते हैं उनसे आभास होता है कि क्या कर रहे थे हमारे पुरखे। प्राकृत की जो कथा की परंपरा थी बहुत समृद्ध परंपरा है। उसमें लोक जीवन की कथाएँ हैं। मेरे सामने ऐसी बहुत सारे संस्कृत में लिखे हुए कथा-संग्रह हैं,  जो लोक कथाओं के अडॉप्टेशंस हैं। उनके अनुवाद हैं। कथाकार उसी शैली में लिख रहे हैं जो वाचिक शैली है, कहानी सुनाने की शैली है। एक भरटकद्वात्रिशिंका किताब है, उसमें मूर्खों की कहानियाँ है। बत्तीस कहानियाँ हैं उसमें। मूर्खों के बत्तीस किस्से। उसकी कोई पोथी हिंदुस्तान में नहीं थी। जर्मनी में उसकी दो पाण्डुलिपि यहाँ से गईं थीं। हर्टेल ने उसका एडिशन छापा। मैं जर्मनी गया था उसकी फोटो कॉपी करा लाया। हिन्दी अनुवाद करके मैंने उस किताब को छापा। बहुत ही बढ़िया, बड़ी आनंददायक कहानियाँ हैं उसमें। मूर्खों की कहानियाँ है, पर बुद्धिमत्तापूर्ण कहानियाँ भरटकद्वात्रिशिंका में हैं। उसकी संस्कृत लोकभाषाओं से मिश्रित संस्कृत है, जिसे हाइब्रिड संस्कृत या सधुक्कड़ी संस्कृत भी कहा जा सकता है। उस शैली में संस्कृत में वह पूरी किताब लिखी गई जो लोककथा कहने की शैली थी। उनको सुनते हुए उस किताब के लेखक ने जिसका अब नाम भी नहीं मिलता है, अपनी भाषा में या संस्कृत में उनका उल्था किया।

कथार्णव :

कथार्णव की रचना 1600ई. के आसपास हुई। इसके प्रणेता शिवदास हैं। दुर्भाग्य से यह कथासंकलन अधूरा मिला है। इसकी दो हस्तलिखित प्तियाँ आक्सफोर्ड तथा फ्लोरेंस में हैं। प्लोरेंस की प्रति में आरंभ और अंत का भाग लुप्त है तथा 25 कहानियाँ हैं। आक्सफोर्ड की प्रति में आरंभ की चार कहानियाँ नहीं हैं, और कुल 35 कहानियाँ हैं। इस पर शोध करने वाले विद्वान् पी.ई. पावोलिनी का माना है कि कथार्णव में इसके नाम के अनुरूप  बड़ी संख्या में कहानियाँ रहीं होंगीं।

संग्रह की पहली कहानी राजा गोमुख पर केंद्रित है, जो कथासरित्सागर की बयालीसवीं कहानी में वर्णित नरवाहनदत्त के गोमुख के साथ उड़नखटोले में बैठ कर कर्पूरसंभवनगर जाने के प्रसंग पर आधारित है। नरवाहनदत्त पाशुपत संन्यासी के वेष में कर्पूरिका नामक राजकुमारी से मिलता है और पूर्वजन्म की स्मृति के कारण उसके मन में रूढ़ पुरुषजाति के प्रति घृणा को मिटा देता है। शिवदास ने अपनी कल्पना से इस कथा में परकायप्रवेश, पुरुष का स्त्रीरूप हो जाने आदि के प्रसंग समाविष्ट कर के अनेक परिवर्तन किये हैं। इसी प्रकार रूपमंजरी की कथा भी कथासरित्सागर के पंद्रहवें अध्याय में वर्णित कथा पर आधारित है।

शुकसप्तति :

संस्कृत में शुकसप्तति दो वाचनिकाओं में मिलती है, एक संक्षिप्त वाचनिका है, दूसरी अलंकृत और विस्तृत वाचनिका । अलंकृत और विस्तृत वाचनिका के प्रणेता चिंतामणि भट्ट कहे गये हैं, जिनका समय बारहवीं शताब्दी है। सरस संस्करण प्राकृत मूल के आधार पर निर्मित किया गया प्रतीत होता है। पंचतंत्र का भी उपयोग चिंतामणि ने किया है। इसकी भूमिका में बताया गया है कि मदन नामक एक वणिक् को अपने पिता से एक तोते और एक मैना उपहारस्वरूप प्राप्त हुए। एक बार मदन को दीर्घ प्रवास पर बाहर जाना पड़ा। उसकी पत्नी दुश्चरित्र  स्त्रियों के बहकावे  में आकर स्वैराचार के लिए जाने को उद्यत हुई, तब मैना ने कठोर शब्दों  में भर्त्सना करते हुए उसे बाहर जाने से रोका। परिणामस्वरूप वणिक् की स्त्री मैना को मार डालने को तत्पर हो गयी। तब तोते ने बात सँभालते हुए उसे एक-एक करके कहानियाँ सुनाया आरम्भ किया।

शुकसारिका (मदनप्रबोधिनी) :

शुकसारिका अथवा मदनप्रबोधिनी शुकसप्तति की परंपरा में विरचित कथाकृति है। इसके प्रणेता भाविल हैं। इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ भंडारकर प्राच्यविद्या शोधसंस्थान तथा रायल एशियाटिक सोसायटी मुंबई में हैं। दोनों अपूर्ण हैं। दोनों प्रतियों की आरंभ प्रथम परिच्छेद के सातवें पद्य से होता है, तथा दोनों पंचम परिच्छेद की छठी कथा पर ही समाप्त हो जाती हैं भाविल कवि (जिन्हें ग्रंथ की पुष्पिका में भायिक पंडित भी कहा गया है), ने शुकसप्तति की परंपरा को आधार बना कर एक बृहत्कथा का प्रणयन किया होगा – ऐसा प्रतीत होता है। दोनों हस्तलिखित प्रतियों में ग्रंथ का नाम शुकसारिका दिया गया है, पर उपोद्घात पद्य तथा पुष्पिका में इस का नाम मदनप्रबोधिनी बताया गया है।

मुगलकाल में कथाओं के रूपान्तर :

पंद्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी में एक अलग तरह की संस्कृत में कथा कहना है जो कि मध्यकाल की स्थितियों में और मुगलकाल में जो संस्कृत समझी जाएगी। तो अनुवाद की रूपान्तर की भाषाशैली भी बदलती है। रूपान्तर में समकालीन व्याखाएं समाहित होती जाती हैं। लोककथाओं के अभिप्राय या स्वैरकल्पनाएँ (फैंटेसियाँ) संस्कृत की रचना में उतरती हैं,   जैसे उड़नखटोले पर बैठकर नायक नायिका से मिलने जाता है। तो उसके मित्र ने जो एक बढ़इ है, किस कला से कैसे यह उड़नखटोला तैयार किया यह वर्णन जुड़ जाता है। तो यह दोहरी प्रक्रिया मध्यकाल में चलती रहती है - लोक कथाएं जितनी प्रचलित थीं उनके संस्कृत में अनुवाद और संस्कृत से फिर लोक में जाना।

शेल्डन पोलक (Sheldon Pollock) आदि विद्वानों ने एक तस्वीर खड़ी की, जिसमें वर्नाकुलर्स या नव्य भारतीय भाषाएँ  जैसे ही आ जाती है, क्षेत्रीय भाषाएं जैसे आ जाती हैं तो वे संस्कृत के प्रतिरोध में खड़ी हो जाती हैं। भाषाओं में दूरियाँ और खाई पैदा हो जाती है। यह ग़लत तस्वीर है। इन विद्वानों का ध्यान लोककथा और लोकनाट्यों की संस्कृत में आवाजाही और आदानप्रदानपर नहीं गया, जिसमें अनुवादों और रूपान्तरों की भूमिका रही। टीकाओं, पद्धतियों, चूर्णिकाओं और समीक्षाओं की भी भूमिका रही। लोक कथाओं के रूपांतर और अनुवाद संस्कृत में संस्कृत से फिर लोक में जाना – यह चलता रहा। मैंने अभी कहा कि कुछ कथाचक्र हैं, जैसे  किस्सा तोता मैना, विक्रम और वैताल की कथाएँ, भोज की कथाएँ, राजा नन्द की कथाएँ। ये कथाचक्र लोक में चल रहे हैं और संस्कृत में भी आ रहे हैं। लोक से संस्कृत में संस्कृत से फिर लोक में आवागमन इनका हो रहा है। अद्भुत कथा चक्र है किस्सा तोता मैना का। लोक में भी उसकी परंपरा चली आ रही है। अब दुर्भाग्य से जो पुरानी गुजराती में, पुरानी मराठी में, पुरानी हिंदी में जो रहे होंगे संकलन किस्सा तोता मैना के वह सब अब मिलते नहीं हैं। शुकसप्तति  सबसे पुराना जो संस्कृत में रूपान्तर है, उसकी वाचना हमको मिलती है। शुकसप्तति का अर्थ है तोते के द्वारा कही गई सत्तर कथाएँ। इसमें सत्तर कहानियाँ वणिग्वधू या बनिये का बहू को तोता सुनाता है। बेहद रोचक और जटिल समस्या में अन्त होने वाली है इसकी हर कहानी, और समस्या का हल केवल तोता ही बता पाता है। तो बनिये की मनचली बहू अभिसार पर जाते जाते उससे समस्या का हल और कहानी का अन्त सुनने के लिये रुक जाती है। उसका शील सत्तर दिन तक एक एक कही के जरिये  बचा रहता है, इकहत्तरवें दिन तो उसका पति प्रवास से लौट आता है।

हम लोग बड़े कथा प्रेमी रहे हैं। हिन्दुस्तान के लोग और कथा की जितनी संपन्न परंपरा हमने विकसित दुनिया में दी है, हमने पंचतंत्र दिया, हमने सिन्दबाद की कहानियाँ दीं दुनिया को। इन सब की कहानियाँ मूलतः  हमारे यहाँ थीं। यह जो कथा परंपरा दुनिया की है। हमारी बहुत दिलचस्पी थी किस्से कहानियाँ कहने में, हम लोग उस्ताद रहे हैं किस्से कहानियाँ कहने में। इस तरह के कई कथाचक्र जो हैं, वैदिक काल से लगाकर वेदों में भी मिलते हैं। इस तरह के आख्यान तो जो लोक आख्यान रहे होंगे, वह वेदों से आरंभ हो जाते हैं। पुराणों में तो कहना ही क्या, खजाना है और बाद के साहित्य में। यह जो पूरा एक चाणक्य और नौ नन्दों की कहानियाँ थीं। यह मौर्यकाल से चली आ रही है। बहुत सारे तो इनके वर्जन्स तो लुप्त हो गए, लेकिन बारहवीं-तेरहवीं  शताब्दी के बाद कुछ पोथियाँ मिलती हैं। उसमें थोड़ी सी सुखद बात यह है कि पुरानी गुजराती में पोथियाँ मिलती हैं। नंद और इस तरह की कहानियों के जो राजा नंद थे उनकी कहानियों को लेकर के नंदोपाख्यान। यह जो नंदोपाख्यान की जो कहानियाँ थीं यह भी गांव-गांव में कही जाती थीं। जैसे कि कालिदास ने बताया कि राजा उदयन की कहानियाँ उज्जैन के गांव-गांव में बुजुर्ग लोग सुनाते हैं। राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ घर-घर में कही जाती हैं। उसी तरह से वैतालपञ्चविंशति की परम्परा संस्कृत में चलती है।  क्षेत्रीय भाषाओं में यह बेताल पच्चीसी के रूप में ढल जाती है। दोनों में संवाद भी बराबर चलता है। नन्द और चाणक्य की कहानियाँ  मौर्य काल से चली आ रही है। घर-घर में कही जा रही हैं। नन्दोपाख्यान नाम से तीन छोटी-छोटी पुस्तिकाएं डॉ. फतेह सिंह ने प्रकाशित कीं हैं - नन्दोपाख्यानम्, नन्दबत्रीसी तथा नन्दनृपकथा। । बड़ी रोचक कथाएँ हैं। उन तीनों का अध्ययन करें, तो हम पाते हैं कि एक कथा के रूपान्तर कैसे होते जाते हैं, संस्कृत से लोकभाषाओँ में और लोकभाषाओं से फिर संस्कृत में। नन्दोपाख्यान अज्ञात लेखक की कृति है। उसमें 106 श्लोकों में उसमें राजा नंद की कहानी है। बीच-बीच में गद्य जोड़ते हुए कही गई है। संवत् 1731 में नकल की गई इसकी पोथी मिलती है। इसलिये संवत् 1731 के पहले यह किताब लिखी जा चुकी होगी। दूसरी किताब  नंदबत्रीसी तत्त्वविजयगणि के द्वारा विरचित है तथा नन्दनृपकथा सहस्रऋषि के द्वारा रची गई है। सहस्रऋषि सियालकोट के निवासी थे। नन्दोपाख्यान या राजा नंद की कथाएँ गाँव गाँव में, घर घर में कही जाती रही हैं। संस्कृत के रचनाकारों ने भी इन्हें लोककथा परंपरा से ले कर नन्दोपाख्यानों की कई रूपों में रचना की। इन्होने संवत् 1666 में नन्दनृपकथा की रचना की। इसमें सौ श्लोक हैं। तीनों रचनाएँ संस्कृत में हैं, पर नन्दबत्रीसी का नाम ही नहीं उसकी भाषा भी संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से अनेकत्र अशुद्ध है। तीनों रचनाओं में नंदोपाख्यान जिस तरह कहा जाता था, उसकी झलक मिलती है, अतः तीनों में कुछ अंश समान भी हैं।    

पञ्चतन्त्र के रूपान्तर :

मैक्डॉनल ने सत्य ही कहा है कि भारतीय कथा परम्परा  में पंचतंत्र सबसे महत्त्वपूर्ण कृति है। छठी शताब्दी के पूर्वार्ध  में ईरान के बादशाह अनुशीरवान्न (531-79 ई.) के आदेश से इसका अनुवाद पेहलवी भाषा  में किया गया। 570ई.  में सीरियाई भाषा  में इसका अनुवाद हुआ। इससे सिद्ध होता है कि पाँचवीं शताब्दी तक पंचतंत्र अपने वर्तमान रूप  में प्रसिद्ध हो चुका था। पंचतंत्र के सबसे प्राचीन संस्करण  की पूर्ति तीसरी शताब्दी ई. पू. के लगभग हुई।

नीति की शिक्षा के लिये इसकी ख्याति सुन कर सासानी के बादशाह अनुशीरवान्न ने बुजुर्गमेह्र (इन्हें बुर्ज़ुई या बरजवै तबीब भी कहा गया है)।  नाम के अपने वज़ीर, जो एक चिकित्सक भी बताये गये हैं, को पंचतंत्र की प्रति प्राप्त करने के लिये भारत भेजा। पंचतंत्र की पहलवी भाषा मे अनुवाद बुर्ज़ुई ने ही किया। फारसी तथा अरवी की परंपराओं में पंचतंत्र का यह आद्य रूपांतर कलीलः व दिम्नः के नाम से विख्यात है, जो पंचतंत्र के प्रथम तंत्र संधिकभेद के दो पात्र (करटक तथा दमनक) के नामों का तद्भव है। फारसी में इस शीर्षक को कलीले व दिम्ने तथा उर्दू में कलीला व दिम्ना कहा जाता है। बुजुर्गमेह्र के इस रूपांतर से अरबी तथा फारसी भाषाओं में पंचतंत्र के रूपांतर तैयार किये गये। अरबी भाषा में में सर्वप्राचीन रूपांतर 750ई. में पारसी के विद्वान् अब्दुल्लाह इब्ने मुकफ्फा का था। प्राचीन फारसी से नवीन फारसी में रूपांतर बारहवीं शताब्दी में गजनवी के शासक बहराम शाह के आश्रित मुंशी नसरुल्लाह ने किया। यह रूपांतर बहुत परिवर्धित है।  बुजुर्गमेह्र के अभियान व कर्तृत्व का उल्लेख ईरान के प्राचीन महाकाव्य शाहनामा, अरबी भाषा में पंचतंत्र के रूपांतर कलिल व दमन की भूमिका में किया गया है।

फारसी के महान् कवि मौलाना जलालुद्दीन रूमी (1207-1272ई.) ने अपनी मसनवियों (लंबी कविताओं) में पंचतंत्र की अनेक कहानियों का विलक्षण उपयोग किया है। उन्होने इन कहानियों के नीतिपरक व लौकिक अभिप्रायों को इनका मात्र बाहरी आवरण बताते हुए इनके भीतर के अन्तःसार का उद्घाटन कर के इनके आध्यात्मिक धरातल उजागर कर दिये हैं। सिंहशशककताष गोमायुदुन्दुभिकथा, शशकगजयूथपकथा, मत्स्यत्रयकथा आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं। बलराम शुक्ल जी ने प्रतिमान पत्रिका के जनवरी-जून 2017 के अंक में प्रकाशित अपने लेख रूमी की कीमियागिरी – पंचतंत्र की नैतिक कहानियों का आध्यात्मिक संस्करण  में इसका अच्छा विवरण दिया है।

कथाकौतुक :

कथाकौतुक के प्रेणता श्रीवर कवि हैं। कवि का नाम किसी किसी हस्तलिखित प्रति में श्रीधर भी मिलता है। यह फारसी  में लिखी यूसूफजुलेखा नामक कथा का अनुवाद है। यूसुफ जुलेखा के प्रणेता नूरुद्दीन अब्दुल रहमान मुहम्मद जामी (1414-1492 ई.) अफगानिस्तान के निवासी थे तथा तैमूर के चाचा सुल्तान अबूसईद के आश्रय  में रहे । उनकी कथाकृति का काश्मीर में प्रचार होना और श्रीवर के द्वारा उसका संस्कृत अनुवाद में प्रवृत्त होना फारसी व संस्कृत के कवियों के बीच उस समय आदान प्रदान की जीवंत परंपरा का बोधक है। 

प्रास्ताविक पद्यों में मुहम्मद शाही की प्रशस्ति में अठारह पद्य लिखे हैं, जिनमें श्रीवर ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में धरती आकाश एक कर दिया है। उन्होने शाही के सामने सूर्य को भी निष्प्रभ और इंद्र से अधिक गुणवान् कहा है।

कथानक का विषय प्रेम है, अतः शैवशास्त्र के प्रति आस्था होने पर भी नीलकंठ ने अपने आराध्य शिव को प्रेम का वशवर्ती बताया है, तथा शैवशास्त्रसम्मच सृष्टिप्रक्रिया का भी कथारंभ में निदर्शन किया है। इसी प्रसंग में राग का माहात्म्य बताते हुए वे कहते हैं --

रागिणो रागचषकान्न पिबन्ति सदा जनाः।
सरकं नाम गृह्णीयात् तेषां कोऽपि न कुत्रचित्।। (1.72)

(यदि राग के चषक या प्याले से अपना सकोरा भर भर कर रागी लोग न वियें, तो उनका कोई नाम भी कहीं न लेगा।)

कथाकौतुकम् की योजना 15 कौतुकों (अध्यायों) में की गयी है । श्रीवर ने दावा किया है कि वे मुल्ला जामी के मूल ग्रंथ में जैसा क्रम है, उसका पूर्णतः अनुपालन किया है –

क्रमेण येन भेदार्थो मलाज्यामेन वर्णितः ।
तेनैव हि मया सोऽयं श्लोकेनाद्य निरूप्यते ॥ ककौ. 1/3)

श्रीवर ने अपने गुरु जोनराज को अन्यत्र ज्योत्स्नाकर भी कहा है, जोनराज ज्योत्स्नाराज का तद्भव रूप कहा जा सकता है।

मूल कृति में 4030 पद्य हैं जब कि कथाकौतुक में 1238 अनुष्टुप् हैं। इसका कारण संस्कृत भाषा का सामासिक शैली है, श्रीवर ने मूल रचना में से कुछ भी छोड़ा नहीं है। किंतु उन्होने कथा को दुःखांत के स्थान पर सुखांत में पर्यवसित कर दिया है। आरंभ में ही शैवदर्शन का सार प्रस्तुत करते हैं।

कथाकौतुक की रचना 1451 ई.  में पूरी हुई । श्रीवर ने ही जोनराज के अनंतर कल्हण की राजतरंगिणी की परंपरा में राजतरंगिणी के ही नाम से इतिहास के ग्रन्थ का भी निर्माण किया था। कथाकौतुक  में उन्होंने जोनराज को अपना गुरु बताया है। जोनराज सुल्तान जैनुल् आबदीन (1417-67 ई.) के समकालीन थे। श्रीवर भारतीय शास्त्र परम्परा के तो प्रकांड पंडित थे ही, फारसी भाषा तथा इस्लाम की परम्पराओं  का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। जोनराज तथा श्रीवर दोनों ने ही कश्मीर के प्रसिद्ध सहिष्णु शासक ज़ैन–उल्–आबिदीन (1417–1473) के दरबार में पण्डित के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की। श्रीवर को कथाकौतुकम् के प्रणयन में ज़ैन–उल्–आबिदीन के पौत्र मुहम्मद शाही की ओर से प्रोत्साहन मिला। अपनी कृति के प्रारंभ में उन्होने मुहम्मद शाही के प्रति शुभकामना व्य़क्त करते हुए लिखा है

जीयान्महामदः शाहिर्धर्मप्रवरगर्वितः ।
श्रीमान् कश्मीरभूपालः फुल्लराजीवलोचनः॥ (1/20)।

देलरामाकथासार :

यह कथा राजानक भट्टाह्लादकवि ने लिखी है। इनका समय तथा देशकाल  अनिर्णित है। कथा तेरह सर्गों  में विविध छंदों में निबद्ध है। कथा के आरम्भ  में ही कवि ने बताया है कि यह कथा उसने मुसलमानों की परम्परा से ग्रहण की है-

एषा कथा मौसलशास्त्रदृष्टा भूयिष्ठसद्वाच्यमहाविशिष्टा।
मनोविनोदाय सतां जनानां गीर्वाणवाण्या क्रियते मयाद्य।।

कथा की नायिका देलरामा नामक धूर्त वेश्या है। नायक मुरादबख्श है।

सुलैमच्चरित :

अनंगरंग नामक प्रसिद्ध कामशास्त्रग्रंथ के प्रणेता कल्याणमल्ल (सोलहवीं शताब्दी) ने सुलैमच्चरित में अयोध्या के शासक लाडखान का गुणगान करते हुए सुलेमान और दाऊद (बाइबिल में डेविड और सालोमन) की कथा लिखी है।

काव्य के प्रारंभ में कल्याणमल्ल ने अयोध्यापति अहमदखान की तथा उसके पुत्र लाडखान की प्रशंसा की है। रचना अत्यंत कौतुकवर्धक व आद्यंत अद्भुत रस से परिप्लुत है। कल्याणमल्ल ने अपनी कथाशैली में आख्यान का उज्ज्वल रूप समाहित कर लिया ह। आरंभ उन्होने लाडखान तथा स्वयं के बीत हुए संवाद से इसप्रकार किया है – इस के चार पटल व्ही. राघवन् ने मलयमारुत के तृतीय स्पंद (1973) में प्रकाशित किये हैं।

कल्याण मल्ल ने अनंगरंग नाम से किताब संस्कृत में लिखी थी। वे लाड खान, जो अयोध्या के बादशाह थे, उनके मंत्री रहे। यह लोग बहुत सारे मुस्लिम शासक, बुद्धिमान हिंदू जो पढ़े-लिखे पंडित होते थे, उनको मंत्री बनाते थे। उनको उससे मदद मिलती थी। अनंगरंग – यह किताब उन्होंने लाड खान के अनुरोध पर लिखी थी। सुलेमच्चरितम भी कल्याण मल्ल ने लाड खान के मनोविनोद के लिए लिखा। यह जो किस्सा है सुलेमान का, बहुत बढ़िया किस्सा है। कल्याण मल्ल कहते हैं कि राजा लाड खान के मनोविनोद के लिए मैं यह कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ। वह सुंदर काव्यात्मक भाषा में है। सुलैमच्चरितम् पूरा एक महाकाव्य है।

पंचतन्त्र विश्वसंस्कृति को भारत की जो देन है। लेकिन संस्कृत में भी बराबर अनुवाद होते रहे। ग्रीक लैटिन से भी संस्कृत में अनुवाद हुए। युक्लिड जो मैथमेटिक्स की किताब है। उसका सोलहवीं शताब्दी में जयसिंह ने अनुवाद किया। रेखागणित की किताबों का जो ग्रीक भाषा में थी, उनके अनुवाद संस्कृत में कराए गए। अब इस तरह की बहुत सारी बातें बिसार दी जा रहीं हैं, उन्हें हाशिये पर डाल कर भला देने की कोशिश चल रही है। पूरी संस्कृत की परंपरा को इस तरह से दरकिनार कर दिया गया है। आज वह हमारे लिए कितनी अहमियत रख सकती है इस बात पर हमको विचार करना चाहिए। फारसी से संस्कृत अनुवाद होते हैं और संस्कृत से फारसी में, अरबी में, पहलवी में और सीरियाई में अनुवाद होते रहे हैं। उनसे भारत की बड़ी देन विश्व संस्कृति के निर्माण में सामने आई। लेकिन संस्कृत में भी बराबर अनुवाद होते रहे। 

संस्कृत में अनूदित अन्य मध्यकालीन फ़ारसी ग्रन्थ हैं -- मीनूग् –ख़्रद (परलोकीया मतिः), अवेस्ता  के अंतर्गत यस्ना के बहुत से अंश , ख़ुर्दग् – अवेस्ता (क्षुद्र अवेस्ता), अवेस्ता से प्रतियातु कर्म से सम्बद्ध ग्रन्थ विदेव्दाद आदि। इन ग्रन्थों का श.द. भरूचा के सम्पादकन में  छः भागों में बम्बई से प्रकाशन हुआ ।

मध्ययुग में अरबी भाषा के ज्योतिषविषयक ग्रन्थों में ‘हयत’ और ‘उकरा’ – ये दो ग्रंथ संस्कृत में अनूदित हुए। बीसवीं शताब्दी में सत्यदेव वर्मा ने ‘कुरान् शरीफ’ का सांस्कृतं कुराणम् (1984) नाम से संस्कृतपद्यबद्ध अनुवाद किया।

सम्राट् अकबर (1542–1605) के काल में योजनाबद्ध तरीके से फारसी से संस्कृत तथा संस्कृत से फारसी  अनुवादों का उपक्रम हुआ। अकबर के जीवन तथा शासन पर आधारित सर्वाङ्गीण ग्रन्थ अकबरनामा का महामहोपाध्याय महेश ठक्कुर ने सर्वदेशवृत्तान्तसंग्रह के नाम से सन् 1570 ईस्वी वर्ष में संस्कृत में अनुवाद किया । महेश ठक्कुर 1556 से 1585 तक मिथिला के राजा रहे । उन्होंने अबुल् फज्ल के अकबरनामा लिखने के साथ ही साथ उसका संस्कृत अनुवाद भी प्रारम्भ कर दिया।

संस्कृत तथा अरबी स्रोतों के आधार पर एक दूरवीक्षणयंत्र का निर्माण अरबी ज्योतिषी के एक ब्राह्मण शिष्य के द्वारा तैयार किया गया। 1630 ई. में आसफ खान ने नित्यानंद से अनुरोध किया कि वे ज़िफ-इ-शाह नामक फारसी के ज्योतिष ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद करें, जो आउड्रे ट्रस्के के अनुसार फारसी से संस्कृत में अनुवाद का एक अनोखा व विरल उदाहरण है। 1583 में सूर्यदास ने संस्कृत और फारसी का ज्योतिषशास्त्र विषयक एक द्विभाषी कोश तैयार किया, इसमें म्लेच्छमतनिरूपणम् नाम से एक अध्याय भी उन्होंने रखा। इसमें अरबी ज्योतिष की पदावली को संस्कृत के माध्यम से समझाया गया है। मलाजित् वेदांगराय ने पारसीकप्रकाश में और भी व्यापक विवेचन किया। इसमें उन्होने इस्लामिक तथा शक संवत्सर में परस्पर विनिमय की सारणी भी प्रस्तुत की।

मुगल सम्राट् शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह ने उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीता के फारसी में अनुवाद कर के विश्व में इन महान् ग्रन्थों के प्रचार में चिरस्मरणीय योगदान दिया। इससे विश्व का बौद्धिक जगत् भारतीय चिन्तनपरम्परा से प्रेरित और प्रभावित हुए। दार्शनिकों में शापेनहार, इमर्सन आदि ने उपनिषदों के दर्शन की अर्थवत्ता को पहचाना।

श्रीमद्भगवद्गीता के अंग्रेजी अनुवाद तथा 1801-1802ई. में एंटेकिल डुपरों के द्वारा दाराशिकोह के सिर्र-ए-अकबर में प्रस्तुत उपनिषदों के अनुवादों का लैटिन अनुवाद होने पर जैसे जैसे पश्चिमी जगत् भारतीय मनीषा से परिचित हुआ, भारत के बुद्धिजीवियों का भी अधिकाधिक ध्यान संस्कृत भाषा की तेजस्वी परंपराओं तथा राष्ट्र के नवनिर्माण में उनके विनियोजन की ओर गया। 

तमिल से संस्कृत में और संस्कृत से तमिल में अनुवाद :

संत तिरुमूलार ने कहा है कि संस्कृत और तमिल इन दो भाषाओं की सृष्टि परमेश्वर ने की (Madras and Tamilnadu- An Antholocy, V.Raghavan, p. 244)। अनेकसंतों औऱ कवियों ने तमिल और संस्कृत में अलग अलग नामों से स्तोत्र लिखे(वही)। सोलहवीं शताब्दी में आत्रेय अहोबल ने पेरिय वाचान् पिल्लै की तमिल रचना तनिश्लोकी  का संस्कृत अनुवाद किया। अहोबल ने वाल्मीकिहृदयम् नामसे रामायण की टीका का प्रणयन भी किया। दक्षिण के प्रदेशों में पल्लव, चोल तथा पांड्य राजाओं ने तमिल साहित्य के साथ संस्कृत साहित्य को प्रोत्साहन दिया।

सौम्यजामातृमुनि (1370-1444) के पुत्र अभिरामवर ने अपने पितामह के तमिलग्रंथ उपदेशरत्नमाला का इसी शीर्षक से संस्कृत में अनुवाद किया। गुणभद्र के उत्तरपुराण को आधार बना कर संस्कृत तथा तमिल में अनेक ग्रंथ रचे गये। इनमें यशस्तिलकचंपू, वादिराजकृत यशोधरचरित तथा हरिभद्रकृत यशोधरकाव्य  संस्कृत में हैं, तथा यशोधरकाव्य नाम से ही एक काव्य तमिल में है। एक ही कथा को ले कर विरचित होने पर भी संस्कृत तथा तमिल ग्रंथों में भेद है। तमिल यशोधरचरित में पुष्पदंत के ग्रंथ का आधार लिया गया है, संस्कृत के ग्रंथों में उत्तरपुराण का।  सर्वनंदी ने 458 ई. में तमिल भाषा में 1536 पद्यों में ज्योतिष व गणित पर एक ग्रंथ लिखा था।  मूल ग्रंथ लुप्त हो गया, किंतु बारहवीं शताब्दी में सिंहसूरि के द्वारा किया गया इसका संस्कृत अनुवाद प्राप्त होता है।  बुद्ध मित्र ने ग्यारहवीं शताब्दी तमिल में व्याकरण तथा अलंकार पर वीरचोलीयम् नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ पर संस्कृत के व्यारण तथा साहित्यशास्त्र का प्रत्यक्ष प्रभाव है।

शठकोप यति को तमिल साहित्य में वैदिक ऋषि के समान पूज्य माना गया। उन्होने सहस्र शाखाओं वाले तमिल वेद का साक्षात्कार किया था – यह माना गया। शठकोप यति का निवास कुरुका नामक स्थान में था। उनकी गाथाओं को वकुलाभरणीय कहा जाता है। उनके विषय में वेंकटाध्वरि कहते हैं -

परिदृष्टवते सहस्रशाखां परमां द्राविडसंहितां हितां नः।
गुरवे करवाम नित्यमस्मै शठकोपाय महर्षये प्रणामान्।।
अञ्चाम चिञ्चातरुमद्भुतं तं पञ्चामरद्रूनवधीरयन्तम्।
शठारिसंज्ञं किल यस्य मूले तपःफलं किञ्चिदुदीरितं नः।।
विश्वगुणादर्श, पृ. 364, पद्य 489-90

वेंकटाध्वरी शठकोप को सहस्रशाखाओं वाले, अमृतफलों के प्रसवकर्ता चिंचा या इमली के महाद्रुम से उपमित करते हैं, जिन्होंने सहस्रों शाखाओं वाली द्राविड संहिता का साक्षात्कार किया।  वे उनको महर्षि कहते हैं। संस्कृत के एक यशस्वी आचार्य तथा महाकवि की तमिल के संत की यह प्रशस्ति अनुपम ही है।

तमिल भाषा का शठकोपयतिकृत नालियार्-प्रबन्ध  वेद के समान पूजनीय माना गया है, तथा द्रविडोपनिषद्  कहा गया है। इसका अनुवाद वेदान्तदेशिक ने किया। वेदान्तदेशिक ने शठकोपाचार्य के तिरुवाय्मोलि प्रबन्ध के अनुवाद द्रमिडोपनिषत्तात्पर्यरत्नावली तथा द्रविडोपनिषत्सार में अनुवाद प्रस्तुत किये।

तमिल में आण्डाल आठवीं शताब्दी में बड़ी संत हुई। उनका साहित्य और उनको लेकर संस्कृत में बहुत साहित्य लिखा गया। मेरी किताब है --  संस्कृत साहित्य का समग्र इतिहास । उसमें मैंने इनकी कुछ विवरण दिए हैं। संस्कृत के कवि और पण्डित अण्डाल को गोदा कहते हैं। गोदादेवी कृष्ण की प्रिया हैं, मीरा की तरह। उनके ऊपर काव्य संस्कृत के कवि लिख रहे हैं। उन पर खंडकाव्य भी लिख रहे हैं। उनकी प्रशस्तियाँ लिखी जा रही हैं। चंपू काव्य लिखे जा रहे हैं। उनका साहित्य तमिल से संस्कृत में लाया जा रहा है।

अवेस्ता के संस्कृत में अनुवाद :

भारत में आ कर बस गये ज़रथुस्त मतावलम्बी पारसी संस्कृतज्ञों द्वारा अपने धर्मग्रंथ का संस्कृत में अनुवाद करने का उपक्रम किया गया। 651 ई. में अरब विजेताओं ने ईरान में सासानी वंश का उन्मूलन कर दिया। ईरान में इस्लाम की आँधी आई, जिसके कारण ईरानी जरथुस्तियों का एक दल 10वीं शताब्दी में भारत में आ गया। ये लोग गुजरात में आ कर रहने लगे। इन्ही पारसियों ने संस्कृत सीख कर अपनी धार्मिक पुस्तकों का शीघ्र ही मध्यकालीन फ़ारसी (पहलवी) से संस्कृत में अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया। इसमें से प्रमुख अनुवादक धवल के पुत्र नैर्योसंघ नाम के विद्वान् थे जो पारसी वर्ग के पुरोहित थे। यह अनुवाद बाद के गुजराती भाषी पारसियों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण स्रोत सिद्ध हुआ । नैर्योसंग को गुजरात का निवासी माना जाता है । इनका सर्वप्रथम उल्लेख डुपेरों के द्वारा किया गया था। इनका समय 14वीं सदी का पूर्वार्ध माना गया है । नैर्योसंग ही प्रथम जरथुस्ती पुरोहित हैं जिन्होंने मध्यकालीन फ़ारसी पुस्तकों को पहलवी लिपि से अवेस्ता लिपि में लिखने का कार्य किया । मध्यकालीन पहलवी लिपि प्राचीन अवेस्ता की अपेक्षा कूट तथा कठिन थी। इनके द्वारा अनूदित पुस्तकों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईरान में मर्दान फ़र्रुख़ द्वारा लिखित ग्रन्थ स्कन्द–गुमानिग–विजार है । इस पुस्तक का विषय इस्लाम आदि अन्य मतों का खण्डन तथा पारसी धर्म का मण्डन है ।

नैर्योसंग की भाषा मध्यकालीन मिश्रित संस्कृत है जिसे बौद्ध संकर संस्कृत की तरह विद्वानों ने पारसी संस्कृत का नाम दिया है।  इसमें शब्दसौष्ठव का अभाव है। कई जगह शब्दशः अनुवाद करने के प्रसङ्ग में नवीन मिलते जुलते संस्कृताभासी शब्दों का प्रयोग कर लिया गया है –उदा॰– वस् यजदी अज ची = अस्य इयजदत्वं कस्मात् । इनके संस्कृत की एक बानगी प्रस्तुत है –

नमस्ते स्वामिन् महाज्ञानिन् त्रिधा पूर्वम् अन्यायाः सृष्टेः। नमो युष्मभ्यं हे अमिशास्पिन्ताः, सर्वे एकाभिलाषाः । अत्र सम्प्राप्नोतु स्वामी महाज्ञानी ।अत्र अमराः गुरुतराः अत्र मुक्तात्मनां वृद्धयः अत्र रामो दीर्घं राजा ।

नैर्योसंघ की भाषा सुंदर तथा प्रवाहपूर्ण होते हुए भी अवेस्ता की वाक्यरचना तथा पदावली से आक्रांत है। अवेस्ता का उनका एक उदाहरण प्रस्तुत है -

नाम्ना सर्वाङ्गशक्त्या च साहाय्येन च स्वामिनः अहुरमज्दस्य महाज्ञानिनः सिद्धिः शुभा भूयात्, प्रवृत्तिः प्रसिद्धिश्च उत्तमदीनेर्मज्झईरस्न्या वपुषि च पाटवं दीर्घं जीवनं च सर्वेषाम् उत्तममनसाम्। इदं पेरामई अस्तिनाम पुस्तकं मया नइरिओसंघेन धवलसुतेन पहलवीजंदात् संस्कृतभाषायामवतारित विषमपारसीकाक्षरेभ्यश्च अविस्ताक्षरैर्लिखितं सुखप्रबोधाय उत्तमानां शिक्षश्रोतृणां सत्यचेतसाम्।

...अवेस्ता इति अवेजस्ता अवेज इति निर्मल (स्ता?) इति श्रुति (र्) निर्मलश्रुति (र्) इत्यर्थः।...समस्तेभ्यः पापेभ्यः पश्चात्तप्तो व्यावृत्तोऽहम्। समस्तेभ्यो दुर्मतेभ्यो दुरुक्तेभ्यो दुष्कृतेभ्यो यानि मया पृथिव्यां विचिन्तितानि मया उक्तानि मया कृतानि मया प्राप्तानि मम मूलात् सम्भूतानि तेभ्यः पापेभ्यः मनसा वचसा कर्मणा च तगुना आत्मना इह लोकतया परलोकतया च स्वामिन् व्यावृत्तः पश्चात्तापेन तिसृभिर्वाग्भिः पश्चात्तापेन अस्मि।

मैंने अठारहवीं शताब्दी के पहले संस्कृत में और संस्कृत से अन्य भाषाओं में किये गये अनुवादों की दृष्टि से बात की है। अठारहवीं शताब्दी के बाद आधुनिककाल आ जाता है। इसमें अनुवाद की यह दुतरफा प्रक्रिया और भी व्यापक होती गई है। इसके लिये मेरी पुस्तक संस्कृत साहित्य का समग्र इतिहास के चौथे खण्ड में इसका कुछ विवरण देखा जा सकता है तथा और भी विस्तृत विवरण नारायण दाश के ग्रन्थ संस्कृतेऽनूदितं साहित्यम् में देखाजा सकता है।

लिप्यन्तरण - आशीष कुमार शाह, विशाल लोधा, मानसी कुकुड़े, आकांक्षा तिवारी, प्रिया (परास्नातक हिन्दी अनुवाद), जे.एन.यू. नई दिल्ली


राधाबल्लभ त्रिपाठी

सेवानिवृत्त कुलपति, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली

radhaballabh2002@gmail.com


ऋषि पाल वसुहंस 

शोधार्थी (हिन्दी अनुवाद), जे.एन.यू, नई दिल्ली 

rpvasuhans@gmail.com


नीरंजन राव


संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

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