अनुवाद असल में पुनर्रचना है। किसी साहित्य में मौजूद समाज और संस्कृति की गुत्थी को अगर कोई अन्यभाषा का समाज सुलझाना चाहे, तो अनुवाद उस आवश्यकता की पूर्ति करता है। अनुवाद एक ऐसा माध्यम है, जिससे मूल साहित्य में मौजूद सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का आदान-प्रदान होता है। आज विश्व की किसी भी रचना को अनूदित कर अपनी भाषा के पाठकों तक पहुँचाया जा सकता है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से भारत एक समृद्ध देश है। इसकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान यहाँ की कलाओं पर निर्भर करती है। साहित्य उन्हीं कलाओं में से एक है। भारत में ऐसी तमाम साहित्यिक रचनाएं हुईं, जिन्होंने विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया। ‘गीता’ उन्हीं रचनाओं में से एक है। ‘गीता’ को यह वैश्विक पहचान दिलाने में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस विषय पर अशोक कौशिक लिखते हैं- “विश्व की सभी भाषाओं में गीता का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। इसे विश्वमान्य ग्रंथ माना जाता है।”1 ‘गीता’ की मूल भाषा संस्कृत है। संस्कृत में रचित कृतियों का अनुवाद करना एक दुष्कर कार्य रहा है। परन्तु फिर भी यह कार्य बहुत व्यापक रूप में हुआ है। इसका कारण है, इस ग्रंथ की लोकप्रियता। ‘गीता’ को भारतीय भक्ति परंपरा का आधार ग्रंथ कहा जा सकता है। भारत की भूमि से उदित होने वाली भक्ति की अधिकांश अवधारणा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से इस ग्रंथ पर टिकी है। भक्त एवं भक्ति की बात जब भी होगी इस ग्रंथ को अग्रणी माना जायेगा। ‘भगवद् गीता’ पूरे विश्व में एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसका सबसे अधिक अनुवाद हुआ है। भारत में ‘गीता’ का न केवल अनुवाद हुआ है, बल्कि इस पर भाष्य भी सबसे अधिक लिखे गये हैं। इस विषय की ओर ध्यान आकर्षित कराते हुए कैलाशचंद्र भाटिया कहते हैं- “गीता पर जितने भाष्य लिखे गये हैं, संभवत: विश्व में किसी अन्य ग्रंथ पर नहीं होंगे।”2 भारतीय ही नहीं, पाश्चात्य विद्वान भी इस बात का समर्थन करते हैं। प्रो. एडवर्ड सी. डिमोच्क के अनुसार- “भगवद् गीता’ वैदिक धार्मिक पाठों में सबसे प्रसिद्ध और सबसे अधिक बार अनुवादित है।”3 यही कारण है, कि इस ग्रंथ को बाकी सभी भक्ति ग्रंथों की अपेक्षा अधिक लोकप्रियता हासिल हुई है।
‘गीता’ के विभिन्न अंग्रेजी अनुवादों की अलग-अलग विशेषताएं हैं। अनुवाद प्रक्रिया के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखते हुए इसका अनुवाद किया गया है। ‘गीता’ के विभिन्न अंग्रेजी संस्करणों को पढ़ते हुए यह देखा जा सकता है कि अनुवादक ने अनुवाद के स्तर पर किसी भी प्रकार की एकरूपता नहीं बरती है। सभी अनूदित ग्रंथों में मौलिक अंतर दिखाई देता है। सारानुवाद के माध्यम से गीता के समस्त सार को अंग्रेजी में अनूदित किया गया है। वहीं, भावानुवाद तथा अर्थानुवाद को केंद्र में रखते हुए ‘गीता’ के भाव तथा अर्थ का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है। कहीं-कहीं उच्चारण को संस्कृतनिष्ठ रखते हुए उसका लिप्यंतरण इन ग्रंथों में देखा जा सकता है। अनुवाद के स्तर पर अनूदित ‘गीता’ में बहुत भिन्नता है, जो ‘गीता’ के साथ-साथ अनुवाद की व्यापकता को भी दर्शाता है। अंग्रेजी भाषा का साहित्य एक विकसित और समृद्ध साहित्य है। इस भाषा में अनुवाद का कार्य बहुत उत्कृष्ट रूप में हुआ है। विद्वानों का मानना है कि अंग्रेजी में हुए अनुवाद बहुत ही व्यवस्थित और मूल ग्रंथ के अनुकूल हैं। इसलिए अंग्रेजी के अनूदित ग्रंथ को पढ़कर मौलिकता का आभास होता है। इस विषय पर रामचंद्र वर्मा लिखते हैं- “अंग्रेजी में संसार भर की प्रायः सभी भाषाओं के ग्रंथों के अनुवाद हैं। पर कोई अनुवाद देखकर आप सहसा यह नहीं कह सकते कि यह किस भाषा का अनुवाद है। उनकी वाक्य-रचना, क्रिया-प्रयोग, मुहावरे, भाव-व्यंजन की प्रणालियाँ आदि सभी स्वतंत्र और अपनी होती हैं। और यही वे सब तत्त्व हैं जो किसी अनुवाद की उत्तमता प्रकट करते हैं।”4 भारत जब औपनिवेशिक सत्ता के हाथों बंधा था, उस समय कुछ ब्रिटिशों का ध्यान भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को करीब से जानने के लिए आकर्षित हुआ। भारतीय रचनाओं के अंग्रेजी अनुवाद का यह भी एक प्रमुख कारण है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य भी कुछ हद तक यहीं से आरम्भ होता है।
‘भगवद् गीता’ के अंग्रेजी अनुवाद का पहला श्रेय ब्रिटिश भारत के ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी चार्ल्स विलकिंस को जाता है। उन्होंने पहली बार सन् 1784 में ‘गीता’ का संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया। इससे पहले संस्कृत के किसी भी ग्रंथ का किसी भी यूरोपीय भाषा में अनुवाद नहीं हुआ था। चार्ल्स विलकिंस ने बनारस से संस्कृत सीखकर अपने कार्य को मूर्त रूप दिया। वे हिन्दू वैदिक ग्रंथ को न केवल भक्ति से परिपूर्ण रचना मानते हैं, बल्कि उसे मनोरंजन का साधन बताकर उसके अनुवाद का समर्थन भी करते हैं- “भविष्य के मनोरंजन के लिए, अनुवादक को हिन्दुओं के धर्मशास्त्र और पौराणिक कथाओं के अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।”5 इस अनूदित ग्रंथ में श्लोकों का अनुवाद नहीं किया गया है, बल्कि प्रत्येक श्लोक की व्याख्या की गई है। इसका शिल्प ‘भगवद् गीता की तरह ही है, परन्तु इसमें कृष्ण और अर्जुन के संवाद को कथा के रूप में दिखाया गया है। यह अनूदित कार्य अपने आप में बहुत अनूठा है, क्योंकि यहीं से ‘भगवद् गीता’ के अंग्रेजी अनुवाद की परम्परा शुरू होती है। इसलिए इस ग्रंथ ने ‘भगवद् गीता’ के प्रति विदेशी अध्येताओं एवं विद्वानों को आकर्षित किया। इस ग्रंथ में देवनागरी लिपि में अर्थात् संस्कृत भाषा में एक भी श्लोक नहीं है। ‘गीता’ के संवाद को कथा की तरह अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रसंग को आगे बढ़ाया गया है। अर्जुन से जुड़ा एक प्रसंग यहाँ देखा जा सकता है-
विन्थ्रोप सार्जेन्ट का जन्म सैन फ्रांसिस्को के कैलिफ़ोर्निया में हुआ था। वे एक पत्रकार, आलोचक, लेखक और संपादक के रूप में विख्यात हुए। वे संगीत के भी जानकार माने जाते थे। इसलिए संगीत की आलोचना भी लिखा करते थे, जिसे उन्होंने अपनी मृत्यु तक जारी रखा। विन्थ्रोप सार्जेन्ट ने ‘भगवद् गीता’ का बहुत ही व्यवस्थित रूप में अंग्रेजी अनुवाद किया, जो ‘The Bhagavad Gita’ नाम से सर्वप्रथम सन् 1979 में प्रकाशित हुआ। ‘भगवद् गीता’ की वैश्विक विशेषता पर प्रकाश डालते हुए उनकी पुस्तक के संपादक क्रिस्टोफर चैपल लिखते हैं- “भगवद् गीता’ विश्व साहित्य के इतिहास में सर्वाधिक पठित और अनुवादित ग्रंथों में से एक है।”7 उनके द्वारा अनूदित ‘गीता’ में श्लोकों का अंग्रेजी में लिप्यंतरण तथा अनुवाद दोनों किया गया है। अनूदित ‘गीता’ का एक प्रसंग यहाँ दृष्टिगोचर है-
“किम् अकुर्वत संजय।।
kim akurvata samjaya
what they did? Samjaya?”8
‘भगवद् गीता’ का शब्दानुवाद करते हुए संस्कृत के व्याकरण को भी साथ लेकर चलने का कार्य करने वाले अनुवादकों में एनी बेसेंट तथा भगवान दास के विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्होंने न केवल ‘भगवद् गीता’ का संस्कृत से अंग्रेजी अनुवाद किया, बल्कि यह भी ध्यान रखा कि संस्कृत के व्याकरण से पाठक को कोई असुविधा न हो। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संस्कृत व्याकरण का एक परिचय भी पुस्तक में दिया है- “संस्कृत के व्याकरण पर एक संक्षिप्त नोट, पाठक के सामने उसकी कुछ सबसे प्रमुख विशेषताओं को रखते हुए, उपयोगी होने की संभावना के रूप में, यहाँ जोड़ा गया है।”9 उनके द्वारा अनूदित ‘भगवद् गीता’ की अपनी अलग पहचान है। इसमें गीता के श्लोकों का भावानुवाद किया गया है। अर्थात् संस्कृत श्लोक के भाव का अंग्रेजी में अनुवाद करके उसका अर्थ स्पष्ट करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया गया है। उदाहरण के रूप में-
One the holy plain, on the field of Kuru, gathered together, eager for battle, what did they, O Sanjaya, my people and the Pandavas?”10
अशोक कौशिक के संपादन में ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का संस्कृत से हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है। इस ग्रंथ में मूल श्लोक संस्कृत में ही है, परन्तु उसके अर्थ का हिन्दी तथा अंग्रेजी में बड़ी ही कुशलता से अनुवाद हुआ है। वैसे तो संस्कृत में निहित गीता के अर्थ को अधिकतर हिन्दी में ही दिया जाता है, ताकि हिन्दी के पाठक इससे समझ पाएँ। परन्तु अशोक कौशिक जी ने अंग्रेजी में भी श्लोकों का अर्थ देकर इसका दायरा और बढ़ा दिया है। इस कार्य का मूल उद्देश्य अंग्रेजी तथा हिन्दी के समाज तक ‘गीता’ को पहुँचाना है। बकौल अशोक कौशिक- “जिस प्रकार गीता का अनेक भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध है, उसी प्रकार इसकी अनेक टीकाएँ भी उपलब्ध हैं। गीता के प्रस्तुत संस्करण के प्रणयन में यदि उन सभी को नहीं तो उनमें से अधिकांश को दृष्टि में रखा गया है।.... तदपि हमें आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि हिन्दी और अंग्रेजी के पाठक इससे अवश्य लाभान्वित होंगे।”11 पुस्तक के प्रकाशक भी इस अनूदित ग्रंथ की उपयोगिता और उसकी भूमिका पर अपनी बात रखते हैं। श्लोक दर श्लोक अनूदित होना इस ग्रंथ की बड़ी उपयोगिता है, जो पूरे पाठक वर्ग को मूल ग्रंथ के समान ही रसास्वादन प्रदान करने में समर्थ है। प्रकाशक के शब्दों में- “‘श्रीमद् भगवद् गीता’ का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है और प्रत्येक अनुवाद की अलग-अलग तरीकों से समीक्षा और टिप्पणी की गई है। लेकिन ‘भगवद् गीता’ के इस संस्करण की अपनी विशिष्टता है। इसमें मूल संस्कृत पाठ (श्लोक दर श्लोक) अंग्रेजी की तरह हिन्दी में अनुवाद के साथ शामिल है। हमें आशा है कि यह संस्करण न केवल उन पाठकों को ज्ञान देगा जो इसे धार्मिक दृष्टि से पढ़ते हैं, बल्कि उन पाठकों को भी जो इस महान साहित्यिक कृति का अध्ययन करना चाहते हैं।”12 अशोक कौशिक द्वारा संपादित पुस्तक ‘Srimad Bhagavad Gita (Sanskrit, Hindi & English)’ अपने आप में बहुत विशेष है क्योंकि इस ग्रंथ में संस्कृत श्लोक का भावानुवाद हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनों में हुआ है। जिसका एक उदाहरण नीचे देखा जा सकता है-
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ।।
Arjuna, whenever righteousness is on the decline, and unrighteousness is in the ascendant, then I body Myself forth.”13
आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद कृष्ण भक्त एवं दार्शनिक थे। उनकी भक्ति इतनी व्यापक थी कि आज पूरी दुनिया में जो लोग कृष्ण भक्ति से जुड़े हैं, उनसे परिचित हैं। कृष्ण भक्ति तथा वैष्णव दर्शन को विश्व में ख्याति दिलाने में आचार्य प्रभुपाद का नाम अद्वितीय है। उनका जन्म पश्चिम बंगाल राज्य में हुआ था। कृष्ण का महिमा मंडन करने के लिए वे विश्व भर की यात्रा किया करते थे। ‘भगवद् गीता’ के व्यवस्थित अनुवाद की बात जब भी होगी आचार्य भक्तिवेदांत प्रभुपाद जी का नाम बड़े ही सम्मान के साथ स्मरण किया जायेगा। उन्होंने विश्व भर में कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार किया। इसलिए इनके द्वारा अनूदित ‘गीता’ का उद्देश्य भी यही रहा। उनके द्वारा अनूदित ग्रंथ में श्लोक का तो अंग्रेजी अनुवाद निहित है ही, साथ ही साथ उन श्लोकों के एक-एक शब्दों का अर्थ अंग्रेजी में दिया गया है। तत्पश्चात उसके भावार्थ का भी अंग्रेजी में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस तरह के कार्य ‘गीता’ के अनुवाद में बहुत कम ही हुए हैं। श्लोक में निहित प्रत्येक शब्द का अर्थ इस अनूदित ग्रन्थ में मौजूद है। अन्य अनूदित गीता की अपेक्षा इसकी यह विशेषता है। उनके इस कार्य से जरूर अंग्रेजी के पाठकों को मदद मिलती रही है। उदाहरण के रूप में उनके द्वारा अनूदित ‘गीता’ के इस प्रसंग को देखा जा सकता है-
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
pasyaitam pandu-putranam
acarya mahatim camum
vyudham drupada-putrena
tava sisyena dhimata
pasya—behold; etam—this; pandu-putranam—of the sons of pandu; acarya—O teacher; mahatma—great; camum—military force; vyudham—arranged; drupada-putrena—by the son of Drupada; tava—your; sisyena—disciple; dhimata—very intelligent.”14
‘गीता’ के अंग्रेजी अनुवादकों की सूची में सत्यनारायण दास का नाम भी आता है। उनके द्वारा अनूदित ‘भगवद् गीता’ काफी लोकप्रिय है। विदेशों में इसकी मांग अधिक है। ‘गीता’ के अनुवाद की परम्परा को आगे बढ़ाने में उनका कार्य उल्लेखनीय है। वे ‘गीता’ के माध्यम से भारतीय समाज एवं संस्कृति को पाश्चात्य समाज एवं संस्कृति में प्रवेश करवाते हैं। उनके द्वारा अनूदित ‘गीता’ काफी गहन और स्पष्ट है। स्वामी सत्यनारायण दास भारतीय समाज और संस्कृति से भली-भांति परिचित हैं। उनके दार्शनिक दृष्टिकोण ने भारत की वैदिक परम्परा को बहुत ही सूक्ष्म से जानने का प्रयास किया है। ‘भगवद् गीता’ का इतना व्यवस्थित अनुवाद इसी का परिणाम है। केवल भाषा की जानकारी हो जाने से अनुवाद कर कार्य सध नहीं सकता। इसके लिए आवश्यक है, उस भाषा में निहित सामाजिक परिप्रेक्ष्य को जानना। दरअसल यहाँ सामाजिक परिप्रेक्ष्य का आशय रचना की विषयवस्तु से है। अनुवाद के महत्त्वपूर्ण पक्षों पर बात करते हुए कैलाशचन्द्र भाटिया लिखते हैं- “विषयवस्तु की जितनी अच्छी जानकारी होगी अनुवाद उतना ही अच्छा होगा।”15 ‘भगवद् गीता’ का अनुवाद करते हुए सत्यनारायण दास में भी यह चेतना दिखाई देती है। जहाँ वे किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हुए बिना यह कार्य करते हैं- “मैंने यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी ओर से हर संभव प्रयास किया है कि इस पुस्तक में प्रत्येक श्लोक और उसकी सामग्री का सटीक अनुवाद हो, बिना किसी विचार या दर्शन की विशिष्ट धारा के प्रति पूर्वाग्रह के।”16 उनकी सूक्ष्म दृष्टि और उनका व्यापक ज्ञान इनके अनुवाद में बखूबी दिखाई देता है। उन्होंने भी बड़ी ही कुशलता के साथ श्लोक, अर्थ तथा भाव तीनों का अनुवाद किया है। इस आधार पर यह कह सकते हैं कि उनके द्वारा अनूदित ‘गीता’ एक सफल अनुवाद का उदाहरण है। अनुवादक ने यह भरसक प्रयास किया है कि मूल रचना का कोई भी प्रसंग अनूदित रचना से अछूता न रह जाए। उनके इस प्रयास को सफल अनुवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है। जैसा कि डॉ. रामचंद्र वर्मा भी मानते हैं- “अनुवाद वस्तुतः वही अच्छा होता है, जिसमें मूल की सब बातें ज्यों की त्यों आ जाएं। न तो मूल की कोई बात छूटने पाए और न बिगड़ने पाए। जिस अनुवाद में मूल के भावों का अंग-भंग हुआ हो या उसका विकृत अथवा अस्पष्ट रूप उपस्थित किया गया हो, वह कभी अच्छा अनुवाद नहीं कहा जा सकता।”17 इस तरह का कार्य हमें आचार्य प्रभुपाद के ग्रंथ में भी देखने को मिलता है। सत्यनारायण दास और प्रभुपाद के द्वारा अनूदित ‘गीता’ को बहुत हद तक सफल माना जा सकता है। सत्यनारायण दास द्वारा अनूदित ‘गीता’ का एक उदाहरण यहाँ देखा जा सकता है-
yasya—one whose; sarve—entire; samarambhah—undertakings; varjitah—are free; sankalpa—[from] the resolve; kama—[for] enjoyment; karmanam—[and whose] actions; dagdha—are burnt; agni—[by the] fire; jnana—[of] knowledge; tam—that person; budhah—the wise; ahuh—call; panditam—as sagacious.
One whose entire undertakings are free from the desire for enjoyment and whose actions are burnt up by the fire of knowledge called sagacious by the wise.”18
श्री अरविन्द या अरविन्दो घोष योगी एवं दार्शनिक थे। वैदिक दर्शन का उनके जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव रहा। उन्होंने कई वैदिक ग्रंथों की टीकाएँ लिखने का कार्य किया और कई मौलिक ग्रंथ भी लिखे। उन्होंने ‘गीता’ पर बहुत ही विस्तृत ढंग से निबंध लिखा है। ‘Essay on the Gita’ शीर्षक से उनकी पुस्तक दो भागों में प्रकाशित है। इन्होंने ‘गीता’ के कथानक को आधार बनाकर निबंधात्मक शैली में गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया है। अनुवाद विज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो इसे सारानुवाद कहा जा सकता है। अनुवाद की इस प्रक्रिया में रचना के सार का अनुवाद होता है। बकौल कैलाशचंद्र भाटिया- “सारानुवाद में मूलकृति के ‘सार’ का अनुवाद मात्र होता है।”19 ‘The Bhagavad Gita’ नामक ग्रंथ श्री अरविन्द द्वारा अनूदित किया गया, जो कि ‘भगवद् गीता’ का ही अनुवाद है। ‘गीता’ पर लिखे निबंधात्मक पुस्तक को आधार बनाकर ही श्री अरविन्द ने ‘गीता’ का अंग्रेजी अनुवाद किया है। इस विषय पर पुस्तक के प्रकाशक कहते हैं- “यहाँ प्रस्तुत गीता का अनुवाद मुख्य रूप से श्री अरविन्द के गीता पर लिखे निबंध से संकलित किया गया था।”20 (अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद) श्री अरविन्द द्वारा अनूदित गीता का एक प्रसंग इस प्रकार है-
“Dhritarashtra said: On the field of Kurukshetra, the field of the working out of the Dharma, gathered together, eager for battle, what did they, O Sanjaya, my people and the Pandavas?”21
इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे विद्वानों एवं अध्येताओं द्वारा ‘भगवद् गीता’ का अंग्रेजी अनुवाद हुआ है। इसका कारण यह है कि यह ग्रंथ अपने-आप में इतना चर्चित है कि पूरे विश्व में इस ग्रंथ को अपना एक विशेष स्थान प्राप्त है। पश्चिमी देशों की अनुवाद के प्रति सजगता इस ग्रन्थ को विश्वमान्य बनाती है। पश्चिमी देशों में अनुवाद सिद्धांत आज काफी विकसित हो चुका है। परन्तु अनुवाद को अनुशासन तथा परम्परा की तरह ग्रहण करके भी ‘गीता’ जैसे महत्त्वपूर्ण और अति प्राचीन ग्रंथ का अनुवाद करना कोई सहज कार्य नहीं है। यह नहीं कहा जा सकता कि ऊपर वर्णित सभी ग्रंथों का अनुवाद कार्य पूर्ण रूप से व्यवस्थित हुआ है। रचनात्मक साहित्य का अनुवाद करने के लिए यह आवश्यक है कि अनुवादक में सृजन करने की क्षमता हो। अनुवाद का कार्य साहित्य की सभी विधाओं के लिए एक जैसा नहीं हो सकता। भिन्न-भिन्न विधाओं के लिए ये भिन्न-भिन्न होते हैं। इसलिए जब इसके स्वरूप की बात होती है, तो इसे किसी एक परिभाषा में बांधकर नहीं रखा जा सकता है। बकौल डॉ. पूरनचंद टंडन तथा हरीश कुमार सेठी- “जिस प्रकार साहित्य की भिन्न-भिन्न विधाओं का स्वरूप एक-सा नहीं है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न विधाओं के अनुसार अनुवाद का स्वरूप भी परिवर्तित होता रहता है।”22 अनुवादक अगर इस तथ्य को अनदेखा करता है, तो अनुवाद के कार्य में सफल नहीं हो सकता।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साहित्य के क्षेत्र में अनुवाद एक ऐसी विधा है जिसने साहित्य को एक व्यापक फलक प्रदान किया है। अनुवाद साहित्य को सीमित करके नहीं रखता। विश्व की कोई भी प्राचीन संस्कृति सहज ही बोधगम्य नहीं होती। इसे बोधगम्य बनाने का काम अनुवाद का होता है। संस्कृति की बोधगम्यता ही उसके विकास का पर्याय है। अवधेश मोहन गुप्त लिखते हैं- “प्राचीन काल की संस्कृतियों के विकास में अनुवाद का भारी योगदान रहा है।”23 पाश्चात्य तथा भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता आज एक-दूसरे से परिचित हैं, उसके पीछे अनुवाद की भूमिका रही है। ‘भगवद् गीता’ के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य पाश्चात्य एवं भारतीय मूल के विद्वानों ने बड़ी रुचि के साथ किया है। इन अनूदित ग्रंथों ने सही मायनों में अंग्रेजी पाठकों के समक्ष पूरे भारतीय संस्कृति और इतिहास को भिन्न-भिन्न स्वरूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
1. Ashok Kaushik, Srimad Bhagavad Gita, Third Edition, Star Publication Pvt. Ltd., 1994, p. 6.
2. कैलाशचन्द्र भाटिया, अनुवाद : प्रक्रिया और स्वरूप, तक्षशिला प्रकाशन, 2004, पृ. 22.
3. “The Bhagavad-gita is the best known and the most frequently translated of Vedic religious text.”- A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada, Bhagavad-gita As It Is, Collier Macmillan Publishers, 1973, p. 9.
4. रामचन्द्र वर्मा, अच्छी हिन्दी, पाँचवां संस्करण, साहित्य रत्न-माला कार्यालय, 2006, पृ. 202.
5. “The Translator may be encouraged to prosecute the study of the theology and mythology of the Hindoos, for the future entertainment of the curious.” – Charles Wilkins, The Bhagvat-Geeta or Dialogue of Krishna and Arjoon, C. Nourse, 1785, p. 25.
6. Same, p. 34.
7. “The Bhagavad Gita is one of the most studied and most translated texts in the history of world literature.” - Winthrop Sargeant, The Bhagavad Gita, State University of New York Press, Albany, 2009, p. 19.
8. Same, p. 39.
9. “A brief note on the grammar of Sanskrit, putting before the reader a few of the most salient features therefor, is therefore added here, as likely to be of use.” – Annie Besant, Bhagavan Das, Introduction, The Bhagavad-Gita, Theosophical Publishing Society, 1905, p. 1.
10. Same, p. 1.
11. Ashok Kaushik, Srimad Bhagavad Gita, Third Edition, Star Publication Pvt. Ltd., 1994, p. 5.
12. “Srimad Bhagavad Gita has been translated into several languages, and each translation has been reviewed and commented differently. But this edition of the Bhagavad Gita has its distinction. It contains the original Sanskrit text (shloka by shloka) with its translation into Hindi as in English. We hope that this edition will enlighten readers who read it from a religious viewpoint and those who want to study this great literary work.” – Same, p. 7.
13. Same, p. 105.
14. A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada, Bhagavad-gita As It Is, Collier Macmillan Publishers, 1973, p. 68.
15. कैलाशचन्द्र भाटिया, अनुवाद : प्रक्रिया और स्वरूप, तक्षशिला प्रकाशन, 2004, पृ. 22.
16. “I have made every effort on my part to ensure that this book contains an accurate translation of each verse and its contents, without any bias toward a specific stream of thought or Philosophy.”- Satyanarayana Dasa, Introduction, Bhagavad Gita, Jiva Institute of Vedic Study, 2015, p. 11.
17. रामचन्द्र वर्मा, अच्छी हिन्दी, पाँचवाँ संस्करण, साहित्य रत्न-माला कार्यालय, 2006, पृ. 271.
18. Same, p. 77.
19. कैलाशचन्द्र भाटिया, अनुवाद : प्रक्रिया और स्वरूप, तक्षशिला प्रकाशन, 2004, पृ. 21.
20. “The translation of the Gita presented here was compiled mainly from Sri Aurobindo’s Essays on the Gita.”- Sri Aurobindo, The Bhagavad Gita, Sri Aurobindo Divine Life Trust, 2008, p. 3.
21. Same, p. 5.
22. पूरनचंद टंडन और हरीश कुमार सेठी, द्वितीय संस्करण, तक्षशिला प्रकाशन, 2005, पृ. 45.
23. अवधेश मोहन गुप्त, अनुवाद विज्ञान : सिद्धांत एवं सिद्धि, अमृत ज्ञान, 2012, पृ. 26.\
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