शोध आलेख : ज्ञान साहित्य के रूप में इतिहास एवं राजनिति विषयक कृतियों की उपादेयता / सिद्धार्थ सिंह

ज्ञान साहित्य के रूप में इतिहास एवं राजनिति विषयक कृतियों की उपादेयता
सिद्धार्थ सिंह

इतिहास एवं राजनीति विज्ञान विषय ज्ञान साहित्य का विस्तार करते हैं। इतिहास और राजनीति विषय एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं और भिन्न भी हैं। इतिहास में जहाँ अतीत की घटनाओं की प्रमुखता होती है वहीं राजनीति विज्ञान में वर्तमान की घटनाओं का अध्ययन प्रमुख होता है। यह सत्ता द्वारा पोषित संस्थाओं के कार्यों, साथ ही उसके समानांतर चल रहे  संस्थाओं की भूमिका को सिद्धांत रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। यह वर्तमान जब अतीत की ओर बढ़ता है तब यह भी इतिहास का अंग हो जाता है।

इतिहास क्या है? यह प्रश्न आज और भी प्रासंगिक हो गया है। इतिहास केवल अतीत की घटनाओं की जानकारी देता है? इतिहास अतीत के तथ्यों का संकलन मात्र है? इतिहास का वर्तमान पर क्या असर पड़ता है? ये सारे प्रश्न इतिहास की रूप रेखा तय करते हैं।

मानव सभ्यता के उदय से पहले का भी इतिहास है। मानव सभ्यता का उदय होना इतिहास की प्रमुख घटना है। मेसोपेटामिया की सभ्यता कितनी पुरानी है? यह कार्बन डेटिंग या तकनीकी मदद से जरूर पता लगाया जा सकता है और उसकी कोशिश भी हो रही है। लेकिन मेसोपेटामिया की सभ्यता से आज की आधुनिक सभ्यता तक मनुष्य की प्रगति इतिहासकारों की व्याख्या की मोहताज है।

इतिहास में तथ्यों की भरमार होती है। आग की खोज, धातु की खोज, पहिये का अविष्कार या फिर परिवार और राज्य जैसी संस्थाओं का उदय, ये सारे तथ्य ऐतिहासिक तथ्यों में कैसे बदलते हैं या फिर ऐतिहासिक तथ्य क्या हैं, इस बात का निर्णय करना कठिन है। इ.एच.कार तथ्यों के बारे में कहते हैं कि मूलभूत तथ्य सबके लिए समान होते हैं, इन तथ्यों को जानना इतिहासकार का दायित्व है गुण नहीं। इन तथ्यों की पहचान कर उसकी व्याख्या कर उसे स्पष्ट करना इतिहासकार का गुण है। “तथाकथित मूलभूत तथ्य हर इतिहासकार के लिए समान होते हैं, और उसके लिए कच्चे माल की तरह होते हैं। वे इतिहास का कच्चा माल नहीं होते बल्कि इतिहासकार का कच्चा माल होते हैं...पिरान्दली के एक चरित्र ने कहा था तथ्य बोरे की तरह होते हैं जब तक उनमें कुछ भरा न जाए वे खड़े नहीं होते।”[1] यह तथ्य नहीं व्याख्या है जो इतिहासकार को दुसरे इतिहासकार से भिन्न बनाती है| 1857 में क्रांति हुई, स्वतंत्रता संग्राम हुआ या फिर बलवा हुआ, यह इतिहासकार की दृष्टि पर निर्भर करता है|

तथ्यों के ऐतिहासिक बनने की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए स्टेली ब्रिज वेक्स में घटी एक घटना का उदाहरण देते हैं। 1850 में जिंजरब्रेड के एक खोमचे वाले को एक क्रुद्ध भीड़ ने मामूली सी बात पर पीट-पीट कर मार डाला था। वह सवाल करते हैं कि क्या यह ऐतिहासिक तथ्य है? और स्वयं जवाब देते हैं कि अभी नहीं। लेकिन वह संकेत करते हैं कि अगले बीस या तीस सालों में यह एक ऐतिहासिक तथ्य बन जाए और 19वीं शताब्दी के इंग्लैंड का चित्र प्रस्तुत करे। या ऐसा भी हो सकता है कि वह अतीत के अनैतिहासिक तथ्यों की भीड़ में विस्मृत हो जाए। इस तथ्य के ऐतिहासिक बनने या नहीं बनने के सम्बन्ध में इतिहास की व्याख्या निर्णायक होगी। रोमिला थापर भी यही कहती हैं “इतिहास अतीत की समझ है। यह सही और गलत के फेर में नहीं पड़ता।[2]” अतः इतिहासकार तथ्य को समझने के लिए तमाम तरीके इजाद करता है ताकि वह तथ्य की व्याख्या कर सके।

इतिहास को अतीत की प्रयोगशाला के रूप में भी चिह्नित किया जाता है। परन्तु आधुनिक युग में इतिहास मात्र अतीत के तथ्यों की अध्ययन करने वाला अनुशासन नहीं है। बल्कि इ.एच्.कार के शब्दों में कहें तो इतिहास का अर्थ है व्याख्या। वह आगे कहते हैं कि “इतिहास के तथ्य मछुआरे की पटरी पर पड़ी हुई मरी मछलियाँ नहीं हैं, ये जीवित मछलियों की तरह हैं जो एक विशाल तथा अगाध समुद्र में तैर रही हैं।” तथ्य जीवित होते हैं वो वर्तमान से जुड़े होते हैं इसलिए कई बार इतिहासकार को वही तथ्य मिलते हैं, जिनकी वह खोज करता है। इतिहास हमेशा वर्तमान से जुड़ा होता है इतिहास को हम वर्तमान की आँख से देखने के लिए हम बाध्य होते हैं।

तथ्यों का चयन इतिहासकार के लिए चुनौती तो है लेकिन तथ्यों के बारे में सही जानकारी होना उससे बड़ी चुनौती है। मोहनजोदड़ो की ऐसी तमाम लिपियाँ ऐसी हैं जिनको आज तक पढ़ा नहीं जा सका है। लिपियों की इस अपठनीयता ने हमारे सामने अभी तक एक रहस्य बनाये रखा है। भाषाविद लगातार इस दिशा में काम कर रहे हैं। लेकिन भारतीय सन्दर्भ में आज यह चुनौती और भी बढ़ गयी है। भारत एक बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक वाला देश है। जहाँ तमिल, संस्कृत, बांग्ला, मराठी, हिंदी, फ़ारसी, उड़िया जैसी भाषाओं का एक प्राचीन इतिहास है। बल्कि आज ये कई रूपों में बदली हुई भी नजर आती हैं। पुरानी संस्कृत, पुरानी तमिल और पुरानी बांग्ला जैसे शब्द आज व्यवहार में हैं। सिर्फ भाषाओं का ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है बल्कि उनके बदलते रूपों और शब्दों के बदलते अर्थ का ज्ञान होना भी अनिवार्य है। इस ज्ञान के अभाव में एतिहासिक तथ्यों की सारगर्भित व्याख्या बहुत ही मुश्किल है।

आज एक नई बहस शुरू हो चुकी है। पिछले एक दशक से स्थापित इतिहासकारों को ख़ारिज किया जा रहा है और एक ‘नया’ इतिहास लिखने की कोशिश हो रही है। इसके मूल में कुछ अहम सवाल छिपे हैं- इतिहास और मिथ का सम्बन्ध, भाषाओं का ज्ञान, साहित्य की जरूरत। मिथ को इतिहास के रूप में पेश करने की कोशिश हो रही है। पिछले कुछ सालों से प्राचीन भारत सम्बन्धी विख्यात इतिहासकार रोमिला थापर पर खास तरीके से हमले हो रहे हैं कि संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना वह प्राचीन भारत को कैसे समझ सकती हैं। जबकि प्राचीन भारत में संस्कृत, पाली, प्राकृत जैसी भाषाएँ व्यव्राहित होती थी। उस समय की लिपियाँ इन्हीं भाषाओं में हैं। तो उसकी समझ कैसे बनी?

रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब जैसे इतिहासकार वर्षों से यह कह रहे हैं कि इतिहास लेखन एक व्यक्ति के साथ नहीं बल्कि टीम वर्क के साथ ही संभव है। जिसमें विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता और शोधार्थी शामिल हों। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लम्बे समय से प्राचीन इतिहास के शोधार्थियों को संस्कृत, पाली, प्राकृत और मध्यकालीन इतिहास के शोधार्थियों को फ़ारसी और अरबी जैसी भाषाओं में प्रशिक्षण लेना अनिवार्य है। यहाँ यह बताना अनुचित न होगा कि रोमिला थापर जेएनयू में इतिहास जैसे विषय के अध्ययन की आधारशिला रखने वालों में से एक हैं।

इतिहास के बहाने वर्तमान में तमाम सामाजिक बहसों का उदय होता है या कई बार वर्तमान की बहस इतिहास की ओर देखने को मजबूर करती है। उदाहरण के लिए राष्ट्रवाद की बहस। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ 200 वर्षों तक लड़ने वाले आम भारतीयों के लिए राष्ट्रवाद एक बहुत ही प्यारा शब्द है। इस शब्द का सीधा अर्थ वह यही लेते हैं कि राष्ट्र के हित में सोचना। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तेजी से उभरा राष्ट्रवाद, जिसे टैगोर नस्लीय चेतना कहते हैं, द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनता है। भारत के सन्दर्भ में यह राष्ट्रवाद दो रूपों में दिखता है पहला औपनिवेशिक शासन के खिलाफ और स्वतंत्रता के पक्ष का राष्ट्रवाद और दूसरा साम्प्रदायिकता के आधार पर हिन्दू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद। डॉ. अम्बेडकर ने इसी साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए लिखा यह राष्ट्रीय भावना दोधारी भावना है। यह एक ही समय में अपने स्वजनों के लिए साहचर्य की भावना है और उन लोगों के लिए साहचर्य-विरोधी भावना है जो उनके परिजन नहीं हैं। जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रवाद की तरफदारी करते हुए भी यह लिखा कि “राष्ट्रवाद एक संकीर्ण विचार है अगर वह खुद में किसी व्यापक अवधारणा से जुड़ा हुआ नहीं है।”[3] उन्होंने इसके उद्भव की परिस्थतियों को समझाते हुए कहा कि “जब भी कोई देश या दुनिया संकट का सामना करती है तो वहाँ राष्ट्रवाद तुरन्त हावी हो जाता है।”[4] संचार के साधनों में हुई बेतहासा वृद्धि आज हमारे सामने आभासी दुनिया का एक मकड़जाल बना रखा है। इन्टरनेट और सोशल मीडिया का कारोबार एक नये उद्योग के रूप में हमारे सामने उपस्थित है। इस उद्योग के परिणामस्वरूप तमाम चुनौतियाँ आज हमारे सामने उपस्थित हैं जिससे कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी उत्पन्न होते हैं| साइबर क्राइम के इस युग में क्या आभासी संकट भी पैदा किया जा सकता है? क्या इस आभासी संकट से उपजे राष्ट्रवाद का गलत उपयोग हो सकता है?

रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद का सम्बन्ध अभिमान से बताते हैं और ‘अभिमान’ से उपजी परिस्थियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि “अभिमान कैसा भी हो, अंततः वह दृष्टिहीनता का कारण ही बनता है। इसका असर उन सभी बनावटी उत्तेजक पदार्थों की तरह है, जो पहले तो चेतना में प्रकाश फैलाते हुए लगते हैं, संज्ञा को ऊँचे पायदान पर ले जाते हैं और फिर बढती खुराक ऐसी गड़बड़ पैदा करती है कि उससे हासिल उमंग और मदहोशी सही-गलत को पहचानने का ताकत छीन लेती है।”[5] वास्तव में यह अभिमान ही है जो इतिहास को एक अनुशासन और ज्ञान की शाखा की तरह न देखकर उसे अभिमान या गर्व का विषय बना देता है और इतिहास से प्रेरणा या सीख लेने के बजाय सभ्यता के उस पुराने पायदान पर जाकर बैठ जाता है, जिस पायदान को हमने काफी पीछे छोड़ दिया था। और यह भ्रम होता है कि इतिहास अपने आप को दुहराता है।

अनुवाद की आवश्यकता ही मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम है। भिन्न भाषा-भाषी होने के बावजूद दूसरी भाषाओं के ज्ञान को सिरजने की लालसा अनुवाद के कारणों में एक है। आज राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समाचार हों या फिर साहित्य, एक बड़ा वर्ग उसे जानने और पढ़ने की इच्छा रखता है। इस इच्छा के परिणामस्वरूप उस पर प्रतिक्रिया भी देता है| संचार क्रांति और भूमंडलीकरण ने दुनिया को जिस ‘ग्लोबल ग्राम में तब्दील किया है उसकी तमाम आलोचना के बावजूद, उसने एक ऐसा वर्ग तैयार किया है जो सचमुच में राष्ट्र की सीमाओं में यकीन, मनुष्यता से ज्यादा नहीं करता है। वो बुद्धिजीवी वर्ग सचमुच में मानव समाज के कल्याण के लिए एकजुट हैं और इस एकजुटता को अनुवाद  संभव बनाता है। इतिहास भी एक ऐसा विषय है जिसे पढ़ने, समझने के लिए लोग ललायित हैं| विश्व साहित्य की भांति विश्व इतिहास को भी लोग इसी तरह पढ़ते हैं और अपने मानक बनाते हैं| इन्हीं मानकों पर स्थानीय और राष्ट्रीय इतिहास को कसने की कोशिश करते हैं|  

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा प्रकाशित इतिहास की पाठ्य-पुस्तक की भूमिका में दर्ज निलाद्री भट्टाचार्य की धारणा में “अक्सर किन्हीं विशेष घटनाओं का इतिहास पश्चिम की विजयी यात्रा की बड़ी कहानी का ही हिस्सा था। समस्त विश्व में साम्राज्यवादी प्रभुत्व अतीत की इसी अवधारणा पर आधारित था। वह यह मानता था कि विश्व को सभ्य बनाना, सुधार करना व करवाना, विभिन्न देशों के मूल निवासियों को शिक्षित करना, व्यापार और बाजारों का विस्तार करना उसकी खास जिम्मेवारी है। क्या आज हमें इस समझ पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए? ऐसा करने के लिए हमें विश्व इतिहास देखना होगा।”[6] आज औपनिवेशिक विचारों की जकड़बंदी से निकलने की बेचैनी बहुत करीब से देखी जा सकती है। इस मानसिक गुलामी से निकलने के लिए हमें एक नई विश्व दृष्टि विकसित करनी होगी। सवाल यह है कि विश्व इतिहास को देखने की यह दृष्टि विकसित कैसे होगी? क्या हम साम्राज्यवादी नजरिये से लिखे गये इतिहास या वहाँ के साहित्य का अध्ययन भाषा की सीमा को पार किये बिना कर सकते हैं? इतिहास के मूल स्रोत तक पहुँचने के लिए हमें अनुवाद की आवश्यकता अवश्य ही पड़ेगी। यहाँ तक कि भारतीय इतिहास को जानने के लिए उसके मूल स्रोतों तक पहुँचने के लिए विभिन्न भाषाओं का ज्ञान जरूरी है। स्रोत सम्बन्धी : भारतीय इतिहास के सही अनुसन्धान के लिए संस्कृत, पाली, फ़ारसी, उर्दू, ब्रज अवधी, भोजपुरी...यानी भाषाओं के बहुत बड़े संसार का गहनतम ज्ञान जरूरी है। एक व्यक्ति के लिए सभी भाषाओं का ज्ञान अर्जित कर पाना नामुमकिन है। भाषा वहाँ पर सीमा खड़ी कर देती है। अतः उन भाषाओं से सम्बंधित दस्तावेजों, साहित्य के ज्ञान के लिए अनुवाद की आवश्यकता होगी।

अनुवाद की आवश्यकता और मनुष्य की जिज्ञासा के मूल में ज्ञान है। इतिहास जैसे विषय के ग्रंथों की अनुवाद की आवश्यकता के कई कारण हैं-

  1. औपनिवेशिक मुक्ति
  2. जातीय चेतना
  3. राष्ट्र निर्माण

औपनिवेशिक प्रभाव सिर्फ उपनिवेशवाद तक नहीं था। आज तीसरी दुनिया के लोग उस मानसिक गुलामी से मुक्ति का रास्ता खोज रहे हैं जो सभी विकास का पैमाना उन्हीं संस्कृतियों को बना दिया है जिन्होंने हमें गुलाम बनाया था। हीनता बोध से छुटकारा खुद को महान बताने के लिए नहीं है। बल्कि एक ऐसी दृष्टि विकसित करने की मांग है जहाँ हम पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। खुद को सभ्य दिखाने के लिए हमें दूसरी संस्कृतियों की नक़ल न करनी पड़े। यह प्रयास आज शुरू नहीं हुआ है। इसके बीज नवजागरण में देखे जा सकते हैं। ‘आयातित ज्ञान’ और भारतीय ज्ञान में एक कशमकश चल रहा था। रामविलास शर्मा जैसे व्यक्ति उन्हीं में एक हैं जो मार्क्सवादी दृष्टि से परम्पराओं को, मूल्यों को दुबारा देखने की वकालत कर रहे हैं। वह भारतीय साहित्य की परम्परा को न तो स्थापित करना चाह रहे हैं न ही ख़ारिज। लेकिन ऐसा करने में जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है उसमें से एक है उपेक्षा का भाव। ज्ञान को भी स्वीकार्यता आवश्यक है। नया लेखन, नयी दृष्टि आपको लम्बे समय तक मुख्यधारा में आने से रोक सकती है। रामविलास शर्मा के इतिहास लेखन की उपेक्षा के इसी भाव को चिह्नित करते हुए हितेंद्र पटेल लिखते हैं कि  “उन्होंने जिस तरह हिंदी में भारतीय इतिहास के विविध पहलुओं को एक भारतीय दृष्टि से देखने परखने की कोशिश की है उसे अभी तक इतिहासकार ज्यादा महत्त्व नहीं देते हैं लेकिन फिर भी उनकी उपस्थिति को अनदेखा नहीं किया जा सकता”[7]

औपनिवेशिक शासन ने ज्ञान की भाषा के रूप में जिस तरह अंग्रेजी को स्थापित किया उससे हम आज तक निकल नहीं पाए हैं। स्वतंत्रता के बाद भी कोर्ट-कचहरियों की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है। हिंदी का विकल्प होते हुए भी अंग्रेजी की वरीयता बनी हुई है। जबकि कई सर्वे इस बात की ओर इशारा करते हैं कि भारत देश में अंग्रेजी जानने वालों की संख्या एक चौथाई से भी कम है।

हिंदी जाति के निर्माण में इतिहास और अनुवाद का योगदान -

औपनिवेशिक शासन की मार झेलते भारतीयों में अपने प्राचीन गौरव बोध की रक्षा का भाव बढ़ता ही गया। यही कारण है कि 19वीं शताब्दी में हिंदी के लेखकों में इतिहास में दिलचस्पी बढ़ती गयी। वह कविता कहानियों में तो आ ही रही थी लेकिन भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे लेखक इस ओर सायास प्रयास भी कर रहे थे। वह पुरातत्व सम्बन्धी शोध पर नजर बनाए रखते थे। वह एशियाटिक सोसायटी और पुरातत्त्व सम्बन्धी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली सामग्री को गहरी दिलचस्पी से पढ़ते थे; उन्होंने उनकी खोजों को खुद अपनी पत्रिकाओं में अनूदित और प्रचारित किया और जिस भी प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री उनके हाथ लगी, उसे उन्होंने प्रकाशित अनूदित, संक्षिप्त एयर एकत्र किया: शिलालेख, इतिवृत्त, और निजी व्यापारिक संग्रहों के दस्तावेज।[8]

पार्थ चटर्जी अपनी पुस्तक नेशन एंड इट्स फ़्रैगमेन्ट्स; में इस बात पर बल देते हैं की ब्रिटिश इतिहासों पर निर्भर होते हुए भी भारतीय इतिहासकारों ने अंग्रेजी राज को भारतीय इतिहास का चर्मोतकर्ष होने के सम्मान देने से इंकार कर दिया। ऐसा उन्होंने सबसे पहले इतिहास के सब्जेक्ट (कर्ता, प्रजा) के रूप में ब्रिटिश ‘हम’ की बजाय भारतीय ‘हम को अपनाया, आर्य पूर्वजों पर बल देकर दूसरे, इतिहास को सत्ता के इहलौकिक खेल के रूप में देखा, जहाँ विजय विजेताओं को अनिवार्य रूप से नैतिक श्रेष्ठता नहीं प्रदान करती।[9]

1924 में देहरादून में हिंदी साहित्य सम्मलेन के वार्षिक अधिवेशन में राष्ट्रवादी लखपति शिवप्रसाद गुप्त ने भारतीय इतिहास की जरूरत पर बल देते हुए कहा था “जिस राष्ट्र का अपना प्रमाणिक इतिहास नहीं है, वह जीवित राष्ट्र नहीं। भारतीय स्कूल, कॉलेजों में जो इतिहास की पुस्तक पढाई जाती हैं, वे बहुत ही अविश्वसनीय और भ्रमात्मक होती हैं। शिवाजी जैसे हमारे राष्ट्रीय वीरों को लुटेरा कहा जाता है। हमारे वेद को चरवाहों और किसानों के गीत कहे जाते हैं। क्या ऐसे इतिहास की पुस्तकों को इतिहास का नाम दिया जा सकता है?”[10] शिक्षा के बुनियादी स्वरूप को लेकर हुई ये बहस वास्तव में उसी औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति का रास्ता तो तलाश रही थी जहाँ आने वाली पीढ़ियों को उनके ही नायकों के बारे में संशय में डाला जा रहा था। साथ ही साथ इतिहास को ऐसे ही राजाओं या नायकों तक सीमित भी कर रही थी और इतिहास लेखन को अनचाहे ही सत्ता केन्द्रित भी कर रही थी|

स्वंत्रता पश्चात आज अनुवाद और इतिहास दोनों का फलक विस्तार हुआ है| इतिहास लेखन की शैलियों में अंतर भी आया है और नई शैलियों का प्रादुर्भाव भी हुआ है| अनुवाद के सत्ता विमर्श ने अनुवाद की तमाम कमियों को चिह्नित भी किया है और अनुवादकों को सजग भी किया है| हिंदी भाषा में आज जहाँ इतिहास लेखन भी हो रहा है तो इतिहास की महत्वपूर्ण किताबों का अनुवाद भी हो रहा है और उन अनूदित किताबों पर बहस भी हो रही है| लेकिन वह बहस तब तक अधूरी होगी जब तक उसके अनुवाद पर बहस नहीं होगी| राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में इतिहास और अनुवाद एक दुसरे से गुंथे हुए हैं|

संदर्भ :


[1] इतिहास क्या है  इ एच् कार पृष्ठ संख्या-87 
[2] https://youtube.com/shorts/VIxQZriEXnY?si=GVrMT04KAzRt4O-G, रोमिला थापर
[3] भारतीय राष्ट्रवाद एक अनिवार्य पाठ सम्पादक एस.इरफ़ान हबीब पृ. 213  राजकमल पेपरबैक्स दूसरा संस्करण 2023
[4] वही से
[5]  हबीब, एस.इरफ़ान (सं.). भारतीय राष्ट्रवाद एक अनिवार्य पाठ, पृ. 158
[6] भट्टाचार्य, नीलाद्री. विश्व इतिहास के कुछ विषय, पृ. 4
[7] उद्भावना अंक 241 रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि पर एक अधूरी टिपण्णी हितेंद्र पटेल
[8] वसुधा डालमिया, हिन्दू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण अनु संजीव कुमार पेज न 244
[9] पार्थ चटर्जी नेशन एंड इट्स फ़्रैगमेन्ट्स पेज न 86
[10] सम्मेलन पत्रिका  अंक XII ,4-5 पेज न 216-217  


सिद्धार्थ सिंह

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

Post a Comment

और नया पुराने