शोध सार : विभिन्न ज्ञानानुशासनों में विशिष्ट एवं निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होने वाले शब्द पारिभाषिक शब्द कहलाते हैं। ऐसे पारिभाषिक शब्दों का समग्र रूप पारिभाषिक शब्दावली कहलाता है। इस प्रकार पारिभाषिक शब्दावली का आशय अनुशासन विशेष में विशिष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली शब्दावली से है। भाषिक संरचना की दृष्टि से सामान्य शब्द एवं पारिभाषिक शब्द में कोई अंतर नहीं होता है लेकिन अर्थ-संरचना की दृष्टि से ये परस्पर भिन्न हैं। अर्थ संरचना के स्तर पर सामान्य शब्दों से भिन्न होने के कारण ही इन्हें प्रयोग के आधार पर दो वर्गों-परिभाषिक एवं अर्द्ध-पारिभाषिक में बाँटा जा सकता है। पारिभाषिक शब्दावली का विकास दो प्रकार से होता है। पहली प्रक्रिया, सहज विकास-प्रक्रिया है, जिसमें वैज्ञानिक लेखन को शामिल किया जाता है। पश्चिमी देशों में वैज्ञानिक साहित्य रचे जाने के कारण वहाँ की भाषाओं में पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण सहज विकास-प्रक्रिया से होता रहा है। भारत में संस्कृत की समृद्ध शास्त्रीय परंपरा होते हुए भी भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक साहित्य के लेखन की परंपरा विकसित नहीं हुई। इसलिए नियोजित विकास-प्रक्रिया द्वारा पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण व्यक्तिगत एवं संस्थागत स्तर पर किया गया। आज़ादी के बाद हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण का कार्य वैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा किया जाने लगा।
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मूल आलेख : पारिभाषिक शब्दावली के स्वरूप पर विचार करने से पूर्व शब्द की अवधारणा पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि है, लेकिन स्वतंत्र रूप से भाषा की सबसे छोटी इकाई शब्द है। “किसी भी भाषा की लघुतम, सार्थक एवं स्वतंत्र इकाई शब्द कहलाती है।” शब्द के संबंध में उपर्युक्त पंक्ति तीन महत्वपूर्ण बातों को स्पष्ट करती है- 01) शब्द भाषा की लघुतम इकाई है। 02) शब्द स्वतंत्र इकाई है। एवं 03) शब्द का अस्तित्व या सत्ता अर्थ पर आधारित है। सार्थक होना शब्द की अनिवार्य शर्त है। प्रत्येक शब्द का एक निश्चित अर्थ होता है।
भाषाई आधार पर वर्णों के मेल से शब्दों की निर्मित होती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक व्यवहार में परस्पर विचार-विनिमय के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है। भाषा के मौखिक एवं लिखित रूप दोनों में शब्दों की अहम भूमिका होती है। शब्दों के बिना भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती। किसी भाषा की समृद्धि उसकी शब्द-संपदा और उसके प्रयोग पर निर्भर करती है। यद्यपि किसी भाषा के शब्द उसकी अपनी निर्मिति होते हैं तथापि सामाजिक, वैज्ञानिक आदि आवश्यकताओं के लिए शब्दों को आयातित किया जाता है और सायास निर्मित भी किया जाता है। पारिभाषिक शब्दावली सायास शब्द निर्माण प्रक्रिया के द्वारा अस्तित्व में आई है।
पारिभाषिक शब्द स्वयं में विशिष्ट अर्थ को व्यक्त करने वाले होते हैं। ‘पारिभाषिक’ शब्द की रचना ‘परिभाषा’ शब्द में ‘इक’ प्रत्यय के जुड़ने से हुई है। व्याकरणिक दृष्टि से ‘पारिभाषिक’ एक विशेषण है, जिसका आशय है- परिभाषा संबंधी। व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘परिभाषा’ शब्द की निर्मिति ‘भाष्’ धातु में ‘परि’ उपसर्ग जोड़कर हुई है। ‘भाष्’ धातु का आशय है-कथन और ‘परि’ उपसर्ग विशिष्टता का अर्थ देता है। इस प्रकार ‘परिभाषा’ का आशय विशेष शब्द या कथन की पहचान के स्पष्टीकरण से है। पारिभाषिक शब्द का संबंध किसी भी विषय अथवा विषय वस्तु, अर्थ, क्षेत्र या संदर्भ से हो सकता है। इस प्रकार पारिभाषिक शब्द विशिष्ट शब्द है। पारिभाषिक शब्द के पर्याय के रूप में ‘तकनीकी’ शब्द भी प्रयोग किया जाता है। पारिभाषिक या तकनीकी शब्द के लिए अंग्रेजी भाषा में ‘टेक्निकल टर्म’ (Technical Term) का प्रयोग होता है। पारिभाषिक शब्दावली को अनेक विद्वानों ने परिभाषित किया है। डॉ. दंगल झाल्टे के शब्दों में, “जो शब्द सामान्य व्यवहार की भाषा में प्रयुक्त न होकर ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विषय एवं संदर्भ के अनुरूप विशिष्ट किंतु निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, उन्हें पारिभाषिक शब्द कहते हैं। इसे तकनीकी शब्दावली भी कह सकते हैं।”1
डॉ. गोपाल शर्मा के अनुसार, “पारिभाषिक शब्द वह शब्द है, जो किसी विशेष ज्ञान के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होता हो तथा जिसका अर्थ एक परिभाषा द्वारा स्थिर किया गया हो।”2
डॉ. रघुवीर ने बहुत ही सरल और सामान्य शब्दों में पारिभाषिक शब्द और सामान्य शब्द के अंतर को स्पष्ट किया है। उनके मतानुसार, “पारिभाषिक शब्द किसको कहते हैं? जिसकी परिभाषा की गई हो। पारिभाषिक शब्द का अर्थ है, जिसकी सीमाएं बाँध दी गई हों। जिन शब्दों की सीमा बाँध दी जाती है, वे पारिभाषिक शब्द हो जाते हैं और जिनकी सीमाएं नहीं बाँधी जातीं वे साधारण शब्द होते हैं।”3
डॉ. भोलानाथ तिवारी के शब्दों में, “पारिभाषिक शब्द’ ऐसे शब्दों को कहते हैं, जो रसायन, भौतिकी, दर्शन, राजनीति आदि विभिन्न विज्ञानों या शास्त्रों के शब्द होते हैं तथा जो अपने-अपने क्षेत्र में विशिष्ट अर्थ में सुनिश्चित रूप से परिभाषित होते हैं। अर्थ और प्रयोग की दृष्टि से निश्चित रूप से परिभाषित होने के कारण ही यह शब्द पारिभाषिक शब्द कहे जाते हैं।”4
श्री जीवन नायक के अनुसार, “विशेष ज्ञान के क्षेत्र में जब कोई शब्द निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होता है तो उसे पारिभाषिक शब्द कहते हैं।”5
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट है कि पारिभाषिक शब्द का संबंध विभिन्न ज्ञानानुशासनों से होता है और ये उनमें विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किए जाते हैं। एक प्रकार से ये असामान्य शब्द होते हैं, जिनका प्रयोग किसी विषय-विशेष में निश्चित अर्थ में किया जाता है। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले पारिभाषिक शब्दों के समग्र रूप को पारिभाषिक शब्दावली कहा जाता है। रचना प्रक्रिया की दृष्टि से सामान्य एवं पारिभाषिक शब्दों के निर्माण में कोई विशेष अंतर नहीं होता है। बस पारिभाषिक शब्द सामान्य शब्दों की तुलना में विशिष्ट अर्थ प्रदान करते हैं। प्रयोग के आधार पर पारिभाषिक शब्दावली का वर्गीकरण भी किया गया है। डॉक्टर गोपाल शर्मा के शब्दों में, “पारिभाषिक शब्द तीन प्रकार के होते हैं: 01) पूर्ण पारिभाषिक 02) मध्यस्थ तथा 03) सामान्य ।”6
डॉ. भोलानाथ तिवारी ने स्रोत, रचना, प्रयोग, अर्थवत्ता, पदीय इकाइयों एवं विषय इन छह आधारों पर पारिभाषिक शब्दावली का वर्गीकरण किया है।7 उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त आधारों पर पारिभाषिक शब्दावली का वर्गीकरण करने पर कई भेद-प्रभेद तक विस्तार होता चला जाता है। वस्तुत: पारिभाषिक शब्दावली के वर्गीकरण का कोई निश्चित आधार मान्य नहीं किया जा सकता। प्रयोग की दृष्टि से पारिभाषिक शब्द को दो ही भागों में वर्गीकृत करना उचित है- पारिभाषिक शब्दावली एवं अर्द्ध-पारिभाषिक शब्दावली। पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग विषय-विशेष में निश्चित अर्थ में किया जाता है। अर्द्ध-पारिभाषिक शब्दों की स्थिति पारिभाषिक एवं सामान्य शब्दों के मध्य में होती है। ऐसे शब्दों का प्रयोग सामान्य जीवन-व्यवहार के साथ-साथ किसी विशिष्ट ज्ञान-क्षेत्र के संदर्भ में भी किया जाता है। डॉ. विनोद गोदारे ने अर्द्ध-पारिभाषिक शब्दों को ‘परिभाषिकोन्मुख सामान्य शब्द’ की संज्ञा भी दी है।8
विषय की स्पष्टता तथा अर्थ की एकरूपता की दृष्टि से पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग आवश्यक है। पारिभाषिक शब्दावली की विकास-प्रक्रिया सहज और नियोजित दो प्रकार की होती है। सहज रूप से पारिभाषिक शब्दावली की विकास-प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होने पर नियोजित विकास-प्रक्रिया का सहारा लिया जाता है। जब किसी नई संकल्पना, उपकरण आदि का नामकरण उसके आविष्कर्ता विशेषज्ञ द्वारा स्वयं किया जाता है, तब पारिभाषिक शब्दावली का सहज विकास होता है। इस तरह पारिभाषिक शब्दावली की सहज विकास-प्रक्रिया मौलिक लेखन तथा अनुसंधान के साथ होती है। पारिभाषिक शब्दावली की नियोजित विकास-प्रक्रिया में किसी अन्य भाषा में निर्मित और व्यवह्रत पारिभाषिक शब्द को अपनी भाषा में प्रयोग में लाने के लिए नियोजित प्रयास करना पड़ता है। प्रो. महेन्द्र सिंह राणा के अनुसार, “सायास या नियोजित विकास-प्रक्रिया का अभिप्राय है किसी अन्य व्यक्ति या संस्था द्वारा व्यवहार में लाए जाने वाली मूल भाषा के तकनीकी रूपों के आधार पर स्व-भाषा में नवीन भाषा-रूपों को विकसित करने का प्रयास करना। यह प्रयास मूल/स्रोत भाषा के समान सहज या प्राकृतिक न होकर एक प्रकार की कृत्रिमता लिए होता है क्योंकि यह ग्रहीता भाषा की सहज या प्राकृतिक विकास प्रक्रिया नहीं होती। इस प्रकार के विकास को नियोजित करना पड़ता है ताकि नवीन भाषा-रूपों के विकास को सही दिशा दी जा सके।”9
पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की परंपरा भारत में व्यक्तिगत और सरकारी स्तर पर बनी रही है। इतिहास पर दृष्टि डालें तो भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले सत्रहवीं शताब्दी में शिवाजी के शासनकाल में शब्दावली निर्माण के प्रमाण मिलते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अंग्रेज़ों के सत्ता में आ जाने के बाद व्यक्तिगत एवं संस्थागत स्तर पर शब्दावली निर्माण का काम चलता रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक शिक्षा जगत में अनेक नए अनुशासन स्थापित होने लगे थे। शिक्षा-संस्थानों में विज्ञान की शिक्षा का प्रसार बढ़ता गया और इसलिए तकनीकी शब्दावली की आवश्यकता बढ़ती गई। पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के प्रति संस्थागत प्रयासों पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि कई महत्वपूर्ण संस्थाओं ने पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण का कार्य किया है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा, प्रयाग स्थित विज्ञान परिषद् एवं भारतीय हिंदी परिषद् आदि संस्थाओं ने विविध ज्ञानानुशासनों की पारिभाषिक शब्दावली बनाने का कार्य किया। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक विज्ञान, मानविकी, सामाजिक विज्ञान, प्रशासनिक एवं विधि से संबंधित पारिभाषिक शब्दावली के कई कोश प्रकाश में आ चुके थे।
पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण में डॉ. रघुवीर का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। संस्कृत की धातुओं, उपसर्गों तथा प्रत्ययों को आधार बनाकर डॉ. रघुवीर ने विभिन्न विद्वानों के सहयोग से, लगभग बारह वर्षों के अथक परिश्रम के पश्चात् पारिभाषिक शब्दावली कोश- ‘A Comprehensive English Hindi Dictionary of Government and Educational Words and Phrases’ तैयार किया। डॉ. रघुवीर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान पारिभाषिक शब्दावली का अंग्रेज़ी-हिंदी कोश ‘Consolidated Great Indian Dictionary of Technical Terms’ है। आज़ादी के बाद हिंदी भारत की राजभाषा बनी। अंग्रेज़ी सहभाषा के रूप में रही। प्रशासनिक कार्यों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई प्रयास किए गए। उस समय राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सरकारी स्तर पर पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की आवश्यकता अनुभव की गई। सन् 1950 में भारत सरकार ने वैज्ञानिक तकनीकी बोर्ड की स्थापना की। हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली की निर्मिति के उद्देश्य से 01 अक्टूबर, 1961 को वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना की गई। आयोग विविध अनुशासनों की पारिभाषिक शब्दावली के संकलन, निर्माण एवं समन्वय का कार्य कर रहा है।
भारत में पारिभाषिक शब्दावली निर्माण की कई विचारधाराएं रही हैं, लेकिन वर्तमान में सरकार द्वारा समन्वयवादी विचारधारा का प्रयोग कर पारिभाषिक शब्दावली की निर्मिति की जा रही है। पारिभाषिक शब्दावली के स्वरूप और निर्माण प्रक्रिया को समझने के लिए पारिभाषिक शब्दावली निर्माण के विभिन्न संप्रदायों या विचारधाराओं से परिचित होना आवश्यक है।
पहली विचारधारा शुद्धतावादी विचारधारा है। इस विचारधारा के समर्थक भारतीय शब्द संपदा को संस्कृतनिष्ठ बनाना चाहते हैं। शुद्धतावादी विचारधारा को पुनुरुद्धारवादी, राष्ट्रीयतावादी, संस्कृतवादी, प्राचीनतावादी आदि नाम से भी जाना जाता है। इस विचारधारा के प्रबल समर्थक रहे डॉ. रघुवीर का मानना था कि संस्कृत शब्द निर्माण का अनंत स्रोत है। इस विचारधारा के समर्थकों ने प्राचीन भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध शब्दों का उद्धार किया और अंग्रेजी के पारिभाषिक शब्दों के समान नए शब्दों की रचना प्रक्रिया में संस्कृत भाषा की व्याकरणिक पद्धति का प्रयोग किया। इस संबंध में डॉ. रघुवीर के मत का उल्लेख करते हुए गार्गी गुप्त ने अपनी पुस्तक में लिखा है, "जो भाषा विजातीय हैं और जिनकी जड़ें हमारी धरती से नहीं उपजी हैं, उनके शब्द हमारे लिए उधार के शब्द होते हैं और इसीलिए रंगीन शीशे की तरह धूमिल होते हैं। उनके पार सायास देखना पड़ता है।... इसके विपरीत संस्कृत हमारी अपनी भाषा है। लगभग सभी भारतीय भाषाओं में (उर्दू और कुछ सीमा तक तमिल को छोड़कर) उसकी जड़े फैली हुई हैं। इसलिए उसके आधार पर बनाए गए शब्द हमारे लिए स्पष्ट और पारदर्शी होंगे।”10 अत्यधिक संस्कृतनिष्ठ होने के कारण इस शब्दावली को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली।
शुद्धतावादी विचारधारा के विपरीत हिंदुस्तानी विचारधारा थी। इसके समर्थकों ने हिंदी को सरल और बोधगम्य बनाने के लिए संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी, तद्भव, देशज आदि की सहायता से मिली-जुली शब्दावली का निर्माण किया। किंतु इस शब्दावली की व्याकरणिक रूप रचना भाषा की प्रकृति के अनुकूल नहीं थी। हिंदुस्तानी विचारधारा के समर्थकों में हैदराबाद स्थित उस्मानिया विश्वविद्यालय के डॉ. जाफर हसन तथा इलाहाबाद स्थित हिंदुस्तानी कल्चर सोसायटी के प्रमुख पंडित सुंदरलाल प्रमुख थे।
अंतरराष्ट्रीयतावादी विचारधारा अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करने का समर्थन करती है। इस विचारधारा को शब्द ग्रहणवादी, आदानवादी, अंग्रेज़ीवादी आदि नामों से भी जाना गया। इसके समर्थकों का मत है कि वैज्ञानिक विकास पश्चिमी देशों की देन है। इसलिए जिन अवधारणाओं और वस्तुओं के लिए हिंदी में शब्द नहीं हैं, उनके अंग्रेज़ी एवं अंतरराष्ट्रीय पारिभाषिक शब्दों को यथावत अथवा किंचित् परिवर्तन या अनुकूलन कर हिंदी में स्वीकार कर लिया जाए।
पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की लोकवादी विचारधारा को ‘स्वभाषावादी विचारधारा’ भी कहा जाता है। लोकवादी विचारधारा जन-प्रचलित शब्दों के प्रयोग से पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण का समर्थन करती है, लेकिन इस विचारधारा की कमी यही है कि सभी प्रकार की पारिभाषिक शब्दावली जन-प्रचलित शब्दों के योग से नहीं बनाई जा सकती।
समन्वयवादी दृष्टि पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण में समन्वय पर बल देती है। इस विचारधारा के समर्थकों ने भारतीय भाषाओं की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए शब्द-ग्रहण एवं नए शब्दों के निर्माण पर बल दिया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के मतानुसार, “नए शब्द जो तकनीकी आवश्यकताओं की दृष्टि से अथवा अन्य भाषाओं के विशेष शब्दों और अभिव्यक्तियों के सही अर्थ की दृष्टि से बनाए जाएं, पहले अन्य प्रांतीय भाषाओं और बोलियों से लिए जाने चाहिए। यहाँ तक कि विदेशी भाषाओं से अपने शुद्ध रूप से प्राप्त शब्द भी बिल्कुल ही बहिष्कृत न किए जाएं। अधिकांश शब्द-निर्माण का प्रधान स्रोत संस्कृत होनी चाहिए, किंतु इस प्रसंग में विशुद्धता और पंडिताऊपन से बचना चाहिए और हमारा यह प्रयत्न होना चाहिए कि संस्कृत से ऐसे शब्द बनाए जाएं जो बोली जाने वाली भाषा के विन्यास और प्रकृति में ठीक-ठीक बैठ जाएं और अपनी सरलता के कारण जनता को प्रिय हों।”11
भारत सरकार द्वारा स्थापित वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग पारिभाषिक शब्दावली निर्मिति के साथ-साथ उसकी एकरूपता, समरूपता एवं मानकीकरण का दायित्व भी संभाल रहा है। पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के लिए आयोग ने समन्वयवादी एवं व्यापक दृष्टिकोण को अपनाया है। पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की प्रक्रिया के चार महत्वपूर्ण आयाम हैं- पहला है, ‘अंगीकरण’। जटिल एवं दुरुह अवधारणा के अंतरराष्ट्रीय शब्दों को यथावत ग्रहण करना लेना अंगीकरण कहलाता है। दूसरा ‘अनुकूलन’ है। अनुकूलन का आशय शब्द में किंचित् परिवर्तन करते हुए उसे अपनी भाषा के अनुरूप ढाल लेना है। अनुकूलन को ‘रूपांतरण’ की संज्ञा भी दी जाती है। ‘नवनिर्माण’ पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की प्रक्रिया का तीसरा आयाम है। पारिभाषिक शब्दों के नव-निर्माण के लिए धातु में उपसर्ग-प्रत्यय लगाकर या संधि-समास विधि का प्रयोग कर शब्द निर्मित किए जाते हैं। पारिभाषिक शब्दावली निर्माण प्रक्रिया का चौथा और अंतिम आयाम अनुवाद है। किसी नई संकल्पना को दूसरी भाषा में व्यक्त करने के लिए अनुवाद पद्धति का प्रयोग किया जाता है और इस तरह निर्मित शब्द अनुवाद पर्याय कहलाता है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग पारिभाषिक शब्दों की रचना विधि का कार्य कई प्रकार से करता है। “1) संस्कृत के उपसर्ग, प्रत्यय, समास और संधि। 2) हिंदी के तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों के साथ हिंदी के उपसर्ग, प्रत्यय, समास तथा संधियों का मेल। 3) भारत की आधुनिक भाषाएं जिनसे हिंदी अधिक संपर्क में आती रहती है। 4) अंतरराष्ट्रीय भाषाएं विशेषत: अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, अरबी, फारसी, तुर्की आदि।”12 पारिभाषिक शब्द-संपदा के निर्माण और व्यवहार से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएं निरंतर समृद्ध हो रही हैं। आवश्यकता है कि पारिभाषिक शब्दों को यथासंभव विभिन्न ज्ञानानुशासनों में व्यवहार में लाया जाए ताकि ये पारिभाषिक शब्द व्यवहार में रच-बस कर जटिल न लगें। पारिभाषिक शब्दावली से समाज का परिचय जितना अधिक होगा, उतना ही हमारी भाषाओं का विस्तार होगा।
निष्कर्षत: प्रत्येक भाषा समाज को किसी नए विचार, संकल्पना के सामने आने पर उसकी अभिव्यक्ति के लिए नए-नए शब्दों की आवश्यकता होती है। पारिभाषिक शब्दों के निर्माण से किसी भी भाषा की शब्द संपदा समृद्ध होती है। विभिन्न ज्ञानानुशासनों में विशिष्ट एवं निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होने वाले शब्द पारिभाषिक शब्द कहलाते हैं। ऐसे पारिभाषिक शब्दों का समग्र रूप पारिभाषिक शब्दावली कहलाता है। इस प्रकार पारिभाषिक शब्दावली का आशय अनुशासन विशेष में विशिष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली शब्दावली से है। भाषिक संरचना की दृष्टि से सामान्य शब्द एवं पारिभाषिक शब्द में कोई अंतर नहीं होता है लेकिन अर्थ-संरचना की दृष्टि से ये परस्पर भिन्न हैं। अर्थ संरचना के स्तर पर सामान्य शब्दों से भिन्न होने के कारण ही इन्हें प्रयोग के आधार पर दो वर्गों-परिभाषिक एवं अर्द्ध-पारिभाषिक में बाँटा जा सकता है। पारिभाषिक शब्दावली का विकास दो प्रकार से होता है। पहली प्रक्रिया, सहज विकास-प्रक्रिया है, जिसमें वैज्ञानिक लेखन को शामिल किया जाता है। पश्चिमी देशों में वैज्ञानिक साहित्य रचे जाने के कारण वहाँ की भाषाओं में पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण सहज विकास-प्रक्रिया से होता रहा है। भारत में संस्कृत की समृद्ध शास्त्रीय परंपरा होते हुए भी भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक साहित्य के लेखन की परंपरा विकसित नहीं हुई। इसलिए नियोजित विकास-प्रक्रिया द्वारा पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण व्यक्तिगत एवं संस्थागत स्तर पर किया गया। आज़ादी के बाद हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण का कार्य वैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा किया जाने लगा। पारिभाषिक शब्द-संपदा के निर्माण और व्यवहार से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएं निरंतर समृद्ध हो रही हैं।
- दंगल झाल्टे, प्रयोजनमूलक हिंदी: सिद्धांत और प्रयोग, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2002, पृष्ठ 100
- गोपाल शर्मा, सामाजिक विज्ञानों की पारिभाषिक शब्दावली का समीक्षात्मक अध्ययन, एस चाँद एंड कंपनी, दिल्ली, 1968, पृष्ठ 192
- गार्गी गुप्त, संपादक, पारिभाषिक शब्दावली की विकास यात्रा, भारतीय अनुवाद परिषद्, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ 19
- भोलानाथ तिवारी, पारिभाषिक शब्दावली: कुछ समस्याएं, शब्दकार, दिल्ली, 1978, पृष्ठ 16
- रवींद्रनाथ श्रीवास्तव एवं कृष्ण कुमार गोस्वामी, संपादक, अनुवाद: सिद्धांत और समस्याएं, आलेख प्रकाशन, दिल्ली, 1985, पृष्ठ 131
- गोपाल शर्मा, सामाजिक विज्ञानों की पारिभाषिक शब्दावली का समीक्षात्मक अध्ययन, एस चाँद एंड कंपनी, दिल्ली, 1968, पृष्ठ 10
- भोलानाथ तिवारी, पारिभाषिक शब्दावली: कुछ समस्याएं, शब्दकार, दिल्ली, 1978, पृष्ठ 18 से 20
- विनोद गोदारे, प्रयोजनमूलक हिंदी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991, पृष्ठ 160
- महेन्द्र सिंह राणा, प्रयोजनमूलक हिंदी के आधुनिक आयाम, हर्षा प्रकाशन, आगरा, 2003, पृष्ठ 366
- गार्गी गुप्त, संपादक, पारिभाषिक शब्दावली की विकास यात्रा, भारतीय अनुवाद परिषद्, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ 03-04
- गोपाल शर्मा, सामाजिक विज्ञानों की पारिभाषिक शब्दावली का समीक्षात्मक अध्ययन, एस चाँद एंड कंपनी, दिल्ली, 1968, पृष्ठ 92
- डॉ. नसीम ए आजाद, प्रयोजनमूलक हिंदी, संजय प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृष्ठ 35
प्रीति सागर
प्रोफ़ेसर, हिंदी साहित्य विभाग, साहित्य विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा-442001, महाराष्ट्र
psagarhv20@gmail.com 8055290238/ 9322592319
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