भारत वर्ष अनेक भाषाओं का देश है। इनमें से अनेक भाषाओं का अपना साहित्य है जो प्राचीनता, गुणवत्ता, वैविध्यऔर परिमाण की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं। यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के ही साहित्य का संग्रह किया जाए, तो उसका विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाएगा। इनमें से प्रत्येक भाषा के साहित्य का अपना स्वतंत्र और विशिष्ट अस्तित्व है जो अपने प्र्देश के व्यक्तित्व की मुद्रा लिये हुए है। उदाहरण के लिए दक्षिण की भाषाओं का उद्गम एक है। सभी द्रविड़ परिवार की भाषाएं हैं। फिर भी इन भाषाओं और इनके साहित्य की अलग-अलग पहचान स्पष्ट है। लेकिन भारतीय भाषाओं का यह पार्थक्य आत्मा का नहीं, केवल बाह्य आकृति और उपकरणों का है। जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचारधाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है, उसी प्रकार अनेक भाषाओं और अभिव्यंजना-पद्धतियों और प्रेरणा श्रोतों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता स्पष्ट लक्षित होती है। भारतीय साहित्य की यह मौलिक एकता अत्यंत रमणीय है और स्पृहणीय भी।
भारत की इस सांस्कृतिक और साहित्यिक
एकता को सुरक्षित करने में ’मध्यदेश’ की भाषा तेलुगु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आर्य और द्रविड़ सभ्यताओं के संगम स्थल इस तेलुगु प्रांत ने आर्य संस्कृति को अपनाकर आर्य भाषाओं की सराहनीय सेवा की है।
तेलुगु
प्राँत में हिंदी विरोध की
स्थिति कभी नहीं रही। तेलुगु भाषियों ने हिंदी को शुरू से ही बड़े आत्मीय भाव से स्वीकारा है, अपनाया है
और उसमें अपनी योग्यता बढ़ाने की कोशिश की है। शासकीय स्तर पर भी हिंदी को अपनाने का ही परिणाम है कि पिछले साठ -सत्तर वर्षों से स्कूलों और कालेजों में और अब कई दशकों से कई विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है और सुदूर प्रांतों में भी मील के पत्थरों पर
तेलुगु और अंग्रेजी के साथ हिंदी विराजती है।
मध्यकाल को देखें तो हिंदी साहित्य को अप्रतिम रूप से प्रभावित करनेवाले वल्लभाचार्य तेलुगु भाषी ही थे। वल्लभ संप्रदाय ने हिंदी साहित्य को जो अक्षय निधियाँ प्रदान की हैं, वे किसी से छिपी नहीं हैं।
पद्माकर भट्ट मध्यकालीन हिंदी सहित्य के एक प्रमुख कवि रहे हैं। वे भी तेलुगु भाषी ही थे। इसी परंपरा में आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवि बालकृष्ण राव का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनके अलावा अनेक तेलुगु भाषी ऐसे हैं जिन्हॊंने हिंदी में साहित्य सृजन किया है और अब भी कर रहे हैं।
20 वीं शताब्दी के आरंभ में महात्मा गांधी
की सत्प्रेरणा से दक्षिण भारत में नियमित रूप से हिंदी का शिक्षण और
प्रचार-प्रसार
आरंभ हुआ। गांधीजी ने
हिंदी के प्रचार को स्वतंत्रता आंदोलन के रचनात्मक कार्यक्रम का एक प्रमुख अंग
ही बना दिया तो हिंदी सीखना हर भारतवासी का पुनीत कर्तव्य बन गया। जेलों और जेलों के बाहर राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने ही नहीं, साधरण
जनता ने भी हिंदी सीखी और उसके प्रचार-प्रसार
में भाग लिया।
1918 में चेन्नई में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई, जिसकी आदर्शोक्ति थी "एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक हृदय हो भारत जननी" यही संस्था आगे चलकर पूरे दक्षिण में हिंदी प्रचार के क्षेत्र में एक राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था बन गई। पूरे दक्षिण में प्राथमिक, माध्यमिक, राष्ट्रभाषा, प्रवेशिका, विशारद,राष्ट्रभाषा प्रवीण, राष्ट्रभाषा प्रचारक आदि विभिन्न परीक्षाओं का संचालन कर इस संस्था ने हिंदी का प्रचार किया। इन परीक्षाओं के संचालन द्वारा इस सभा ने दक्षिण में विद्यार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही हिंदी सीखने के लिए प्रेरित नहीं किया, बल्कि उन असंख्य छोटी-छोटी नौकरियाँ करनेवालों, अविवाहित लड़कियों, गृहिणियों, किसानों, व्यापारियों आदि को भी हिंदी द्वारा अपनी
पढ़ाई को फिर से शुरू करने
का उचित अवसर दिया जिनकी पढ़ाई आर्थिक, पारिवारिक या अन्य किन्हीं कारणों से छूट गई थी। स्त्रियाँ घर संभालते हुए, बच्चों का लालन-पालन करते हुए पाठ्यपुस्तकें
मंगवाकर पढ़ने लगीं और प्राईवेट्ली सभा की ये परीक्षाएँ देकर अपनी शैक्षिक योग्यता बढ़ाने लगीं तो पुरुष अपना काम-धंधा देखते हुए फुर्सत के समय में हिंदी सीखने का आनंद उठाने लगे। एक तरह से हिंदी के प्रचार ने पूरे दक्षिण में प्रौढ़ शिक्षा या सतत शिक्षा
(continuing education) विभाग की भूमिका निभाई है और अब भी निभा रहा
है। यानी हिंदी के प्रचार-प्रसार ने असंख्य अर्ध शिक्षित
लोगों को
सुशिक्षित
होने का अवसर दिया है और इस प्रकार हिंदी साहित्य का आनंद लेने योग्य बनाया। जब मुक्त विश्वविद्यालय या पत्राचार कार्यक्रम द्वारा शिक्षा देनेवाली कोई संस्था नहीं थी, उस समय से दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
ऐसी एक सशक्त संस्था की भूमिका निभाती आ रही है। इस सभा ने दक्षिण के लोगों को हिंदी जैसी बड़ी, साहित्य संपन्न और राष्ट्रव्यापी
भाषा से जोड़ा और उनके मानसिक क्षितिज को विस्तृत किया। यही नहीं, इस सभा ने अपनी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में तेलुगु, तमिल आदि दक्षिण की भाषाओं के साहित्य को भी स्थान देकर उन भाषाभाषियों
को अपनी भाषा और साहित्य से भी जोड़ा है, यह बहुत बड़ी बात है। इसके अलावा हिंदी के पठन-पाठन द्वारा अनेकों के लिए जीविका का एक नया रास्ता भी
खोल दिया था। एक अल्प शिक्षित
और संतानबहुला गृहिणी को मैं निकट से जानता हूँ, जिन्होंने
इन परीक्षाओं के द्वारा अपनी छूटी
हुई पढ़ाई को फिर से शुरू करके
हिंदी साहित्य में पीएच। डी। डिग्री तक ली थी और बाद में हिंदी शिक्षिका बन गई थीं। ऐसे उदाहरण अनेक हैं। यह हिंदी शिक्षण का ही चमत्कारी प्रभाव था। इस महोपकार के लिए दक्षिण के लोग हिंदी तथा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
के कृतज्ञ हैं।
प्रसन्नता की बात है कि सभा की वह आदर्शोक्ति, वह कल्पना कि ’एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक हृदय हो भारती जननी’ आज साकार हुई है। आज हिंदी स्पष्टतः भारतीयता और भारतीय साहित्य का प्रतिनिधित्व कर रही है। वह बड़ी सहजता से सभी भारतीय भाषाओं की अनेक विशिष्टताओं को अपने में समाहित करती जा रही है। अनेक विदेशी भाषाओं के साहित्य के साथ सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य अनूदित होकर हिंदी में आ रहा है और उसके साहित्य-भंडार को समृद्ध बना रहा है। साथ ही हिंदी का साहित्य भी सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अनेक विश्व की अनेक महत्त्वपूर्ण भाषाओं मेंअनूदित होकर साहित्य के क्षेत्र में भारत के यश को फैला रहा है।
मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि हिंदी की उन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने
में हम लोगों को अधिक कठिनाई नहीं होती थी। स्कूल की
पढ़ाई करते हुए हिंदी की ये परीक्षाएँ देनेवाले हम विद्यार्थी 15-16 साल की आयु में ही कुछ उच्चतर हिंदी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम
में निर्धारित निर्मला, सेवासदन, गबन जैसे प्रेमचंद के उपन्यास, जयद्रथ वध, पंचवटी, पथिक जैसे मैथिली शरण गुप्त , रामनरेष त्रिपाठी जैसों के खंडकाव्य, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध,माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, निराला, दिनकर आदि की कविताएँ, उपेंद्रनाथ अश्क , जगदीश चंद्र माथुर जैसों के नाटक एवं एकांकी बड़े चाव से पढ़ते थे। कारण था, हिंदी और तेलुगु दोनों भाषाओं में पाई जानेवाली संस्कृत शब्दावली की समानता। इस कारण से भी हिंदी साहित्य में हमारी रुचि बढ़ती गई। आज भी हिंदीतर प्रांतों में हिंदी की जो स्वीकृति है, उसका एक महत्त्वपूर्ण कारण इन भाषाऒं में समान रूप से उपलब्ध संस्कृत शब्दावली ही है।
हिंदी प्रचार को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए आंध्र प्रांत की एक अलग शाखा 1920 में बनाई गई। इसके अधीन जगह-जगह हिंदी प्रेमी मंडलियाँ बन गईं, जहाँ से हिंदी सीखकर अनेक युवक विभिन्न प्रांतों में जाकर हिंदी का प्रचार करते हुए स्कूलों में हिंदी शिक्षकों की माँग की पूर्ति करने लगे। इस प्रकार इन हिंदी प्रेमी मंडलियों ने हिंदी प्रचारकों की एक पलटन ही तैयार कर दी।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय जेलों में हिंदी प्रचार का जोर रहा। अनेक तेलुगु भाषी राजनेताओं ने अपने इस कारावास- काल में हिंदी सीखी।
आज मिडिल तथा हाई स्कूल की कक्षाओं में अनिवार्य रूप से हिंदी पढ़ाई जा रही है। लगभग सभी जूनियर तथा डिग्री कालेजों में हिंदी की शिक्षा एक ऐच्छिक विषय के रूप में दी जा रही है, यहाँ के पांच विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर
कक्षाओं तथा शोध तक की व्यवस्था है। हिंदी साहित्य के अनेक विषयों पर
इन विश्व विद्यालयों में शोध हो रहा है। इस शोध का प्रमुख भाग हिंदी-तेलुगु साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन है। आशा की जा सकती है कि यह तुलनात्मक
अध्ययन भारत की
भावात्मक एकता
को सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा।
हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति प्रेम बढ़ने लगा, तो तेलुगु भाषियों में हिंदी की रचनाओं का तेलुगु में अनुवाद करने की सहज प्रेरणा उत्पन्न हुई तो वे हिंदी की उत्तम रचनाओं का तेलुगु में अनुवाद करने लगे। उसके बाद वह समय आया जब उन लोगों को लगा कि हिंदी पर उनका इतना अधिकार हो गया है कि अब वे तेलुगु से हिंदी में अनुवाद कर सकते हैं। इस आत्मविश्वास के बल पर कई तेलुगु भाषियों ने तेलुगु से हिंदी में अनेक अनुवाद किये और स्वतंत्र रचनाओं का भी प्रणयन किया। हिंदी में
अनुवाद के अतिरिक्त मौलिक रचना कर चुके तेलुगु भाषियों में श्री आरिगेपुडि रमेश चौधरी और डा। बाल शौरि रेड्डी। आलूरि बैरागी, बालकृष्ण राव, आदि के नाम प्रमुखता से लिये जाते हैं।
श्री वारणासि राममूर्ति
रेणु ने हिंदी कविता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। हिंदी पद्यकाव्यों के अनुवाद के अलावा इन्होंने तेलुगु और हिंदी के साहित्यकारों तथा साहित्यिक गतिविधियों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित विद्वत्तापूर्ण लेख भी लिखे हैं। श्री आलूरि बैरागी ने हिंदी में अनेक अच्छी कविताएँ लिखी हैं। ’पलायन’ और ’बदली की रात’ नाम से इनके दो
कविता -संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। तेलुगु की प्रगतिवादी-प्रयोगवादी कवियों की चुनी हुई कविताओं का अनुवाद भी इन्होंने किया है।इनके अलावा।भीमसेन निर्मल। दंडमूडि महीधर,
आदेश्वर राव, सी। हेच। रमुलु,, मोहन सिंह, यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद,विजय राघव रेड्डी, । डा।रंगय्या, कोम्मिशेट्टि मोहन, वै। सी। पी। वेंकट रेड्डी, पी। वी। नरसा रेड्डी, दयावंती, शांता सुंदरी,पारनंदि निर्मला, सुमनलता, डा। जे।एल। रेड्डी आदि अनेक अनुवादकों
ने तेलुगु की
पद्य और गद्य रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया है।
असंख्य तेलुगु भाषियों के लिए कई दशकों से
हिंदी अपनी साहित्यिक
अभिव्यक्ति का साधन बनी हुई है तो मुख्य रूप से अनुवादों के माध्यम से। जिन लोगों ने
तेलुगु में
भी कभी कोई रचना नहीं की है, वे लोग भी तेलुगु से हिंदी में और हिंदी से तेलुगु में अनुवाद करके
अपनी रचनात्मक तृषा बुझाते आए हैं।। इस क्रम में दोनों भाषाओं में परस्पर अनुवाद बहुत हुआ है। पहले हिंदी से तेलुगु में आई रचनाओं को लें तो कहना होगा कि हिंदी का प्रचुर साहित्य तेलुगु में आया है। बहुत पहले ही मुंशी प्रेमचंद के। गोदान, प्रेमाश्रम, सेवासदन, रंगभूमि, निर्मला आदि उपन्यास तथा कहानियां तेलुगु में आईं और तेलुगु पाठकों के
बीच उनको बहुत लोकप्रियता प्राप्त हुई,।प्रेमचंद के अलावा जय शंकर प्रसाद,
राहुल सांकृत्यायन,जैनेंद्रकुमार, इला चंद जोशी, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, यशपाल,भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, हजारी प्रसाद द्विवेदी,उपेंद्र नाथ अश्क, फणीश्वर नाथ रेणु, आदि के उपन्यास तथा कहानियाँ प्रबुद्ध तेलुगु पाठकों के लिए सुपरिचित हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के तो एकाधिक अनुवाद हुए हैं। काव्य कृतियों में कबीर के दोहे, जयशंकर प्रसाद की कामायनी , आंसू, राम नरेश त्रिपाठी का पथिक, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर,धर्मवीर भारती आदि की कविताएं आदि भी तेलुगु में आई हैं।
इस संबंध में अनूदित कहानियों
को समर्पित तेलुगु मासिक पत्रिका ’विपुला’ की चर्चा करना आवश्यक है। हर महीने इस
पत्रिका में प्रकाशित होने वाली देश-विदेश की भाषाओं की अनूदित कहानियों में हिंदी कहानियों की संख्या बहुत होती है। इस पत्रिका के द्वारा हिंदी के वर्तमान और अतीत के अनेक कहानीकारों की कहानियां तेलुगु पाठकों तक पहुंच रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व अनूदित होकर तेलुगु में आई प्रो. हरिमोहन झा की अनूठी रचना ’खट्टर काका’ तो तेलुगु पाठकों का कंठहार ही बनी हुई है। निर्द्वंद भाव से कहा जा सकता है कि बांग्ला के बाद हिंदी से ही सब से अधिक रचनाएं
तेलुगु में आई हैं।
अब तेलुगु से हिंदी में अनूदित होकर आई रचनाओं की बात करें तो श्रीमद्भागवत और रंगनाथ रामायण
जैसे प्रचीन पद्य काव्यों, प्राचीन शतकों , मध्य युग के जनकवि वेमना के पद्यों और त्यागराजु की कृतियों से लेकर आधुनिक
युग के गुर्रम जाषुआ, सी।। नारायण रेड्डी , कुंदुर्ति आंजनेयुलु, के। शिवा रेड्डी जैसे कवियों की कविताएं, दिगंबर कविता, स्त्रीवादी कविता, प्रगतिवादी कविता, माईनारिटीवादी कविता जैसी काव्यधाराओं
की कविताएं, हिंदी में आई हैं। गद्य साहित्य भी प्रचुर मात्रा में आया है। यह सब तेलुगु भाषियों के उत्साह और उनको प्राप्त नई शक्ति का ही परिणाम है। क्योंकि हिंदी ने अनेक लोगों को साहित्यिक संस्कार और साहित्यिक उपलब्धि के योग्य बनाया है। हिंदी के माध्यम से वे लोग पूरे भारतीय
सहित्य से जुड़ रहे हैं और उसकी संपन्नता में यथाशक्ति योगदान दे रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में अपनी ऐसी भूमिका की
बहुत कम लोगों ने कल्पना की होगी।
इन अनुवादों के प्रकाशन की बात करें, तो निजी प्रकाशन संस्थानों ने ये अनुवाद कम ही छापे हैं। बंकिम, रवींद्रनाथ, शरत, महाश्वेता देवी, के। एम। मुंशी, जैसों की रचनाओं के अनुवाद तो ये धडल्ले से छापते रहते हैं, पर तेलुगु जैसी दक्षिण भारतीय भाषाओं की रचनाओं को छापने से कतराते रहते हैं। इस से पता चलता है कि ऐसे अनुवादों की खपत कम है और ये प्रकाशक किसी प्रकार का जोखिम उठाना नहीं चाहते।
साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारतीय ज्ञानपीठ,
ये प्रकाशन संस्थान ही
ऐसे अनुवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं। साहित्य अकादमी ने अडवि बापिराजु, नोरि नरसिंह शास्त्री,
पालगुम्मि पद्मराजु, गोपीचंद, काली पट्नम रामा राव, इल्लंदुल सरस्वती देवी,
राचमल्लु रामचंद्रा रेड्डी, कोडवटिगंटि कुटुंब राव, आदि के उपन्यास, कहानी संकलन आदि प्रकाशित किये हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट से
रंगनायकम्मा,वासिरेड्डी सीता देवी, डा। केशव रेड्डी, महेंद्र, बुच्चिबाबु, वोल्गा, श्रीदेवी आदि के उपन्यासों के अनुवाद, तथा एक- दो प्रतिनिधि
कहानी संकलन प्रकाशित हुए है। भारतीय ज्ञानपीठ ने श्री विश्वनाथ सत्यनारायण के बृहदाकार उपन्यास
’वेयि पडगलु’ का प्रकाशन ’सहस्रफण’ नाम से किया है। इस उपन्यास के अनुवादक हैं। भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री पी। वी। नरसिंह राव। इसके अलावा बलिवाडा कांता राव, रावूरि भरद्वाज आदि के कहानी संकलन, सी। नारायण रेड्डी के काव्य "विश्वंभरा" आदि का प्रकाशन किया है। हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में तेलुगु कहानियों और कविताओं के अनुवाद छपते रहते हैं। इन पत्रिकाओं में छपने वाले अनुवादों और अनुवादकों की संख्या बहुत है।
आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी ऐसे अनुवादों को प्रकाशन अनुदान देती है। इस कारण अनेक पद्य -गद्य रचनाओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। पर इन में से अधिकांश रचनाएं तेलुगु प्रांत से बाहर आ नहीं पाई हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि लंबे समय से तेलुगु से हिंदी में अनुवाद होता आ रहा है। हिंदी में आई छोटी-बड़ी तेलुगु रचनाओं और उनके अनुवादकों की सूची बनाने लगें तो वह बहुत लंबी हो जाएगी। परंतु इस अनुवाद साहित्य के परिमाण और अनुवादकों के परिश्रम के अनुरूप हिंदी में तेलुगु साहित्य की पहचान नहीं बन पाई है। व्यापक पाठकवर्ग तक ये रचनाएं नहीं पहुंच पाई हैं। कुछ तेलुगु साहित्यकारों के नाम साहित्य के गंभीर अध्येताओं को अवश्य मालूम
हो गए हैं और वे ऐसी रचनाओं में
रुचि दिखाते रहते हैं।
भारतीय तथा अनेक विदेशी भाषाओं का प्रचुर सृजनात्मक साहित्य अनूदित होकर हिंदी में आ रहा है। ऐसी रचनाओं की एक बाढ़ सी आती दिखाई देती है। इस बाढ़ में तेलुगु से आई रचनाएं शायद अपना स्थान नहीं बना पाई हैं।
इस स्थिति के कुछ अपवाद अवश्य हैं। उदाहरण के लिए कुछ वर्ष पूर्व आई कुछ रचनाओं को हिंदी पाठकों की सराहना मिली है और वे अनुवादकों की स्वतः प्रेरणा से हिंदी से भारत की कई दूसरी भाषाओं में अनूदित हुई हैं। उदाहरण के लिए केशव रेड्डी के ’उसने जंगल को जीता’। ’आखिरी झोंपड़ी’, ’भूदेवता’, पेद्दिंटि अशोक कुमार रचित ’जिगरी’ जैसे लघु उपन्यासों को लिया जा सकता है।इन लघु उपन्यासों के अनुवादक हैं, जे। एल। रेड्डी जिन्होंने अपने मित्र श्री सुरेश द्विवेदी के सहयोग से ये अनुवाद किये हैं।
इन कारणों से जब हम हिंदी और तेलुगु के परस्पर अनुवाद की या आदान-प्रदान की बात करते हैं, तो हिंदी से तेलुगु को में अनुवाद तो बहुत हुआ दिखाई देता है और तेलुगु साहित्य
में हिंदी साहित्य की उपस्थिति स्पष्ट लक्षित होती है। पर तेलुगु से हिंदी में अनुवाद की परम्परा अधिक दिखाई नहीं पड़ती, जब कि जैसा कि पहले कहा जा चुका है, तेलुगु से हिंदी में अनुवाद बहुत हुआ है। असल में हिंदी में अनुवाद ही हिंदी शिक्षित
अनेक तेलुगु भाषियों की सर्वाधिक प्रचलित साहित्यिक गतिविधि रही है। इतना होने पर भी हिंदी में
तेलुगु साहित्य की उपस्थिति आश्वस्त नहीं करती, तो
इसका एक बहुत बड़ा कारण है
उन अनुवादों में
गुणवत्ता की कमी और रचनाओं के चयन में असावधानी।
मेरे विचार में लगभग यही स्थिति अन्य दक्षिण भारतीय भाषओं के संबंध में भी है। दक्षिण भारतीय भाषा-भाषियों को
हिंदी साहित्य का जितना ज्ञान है, उतना हिंदी भाषाभाषियों को दक्षिण भारतीय भाषाओं के साहित्य का नहीं है। यह बहुत बड़ी कमी है। हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा होने से यह कमी और भी खलती है। यह कमी देश के शिक्षाविद अनुभव कर रहे हैं, और उसे दूर करने के उपाय भी किये जा रहे हैं। कई विश्वविद्यालयों में हिंदी पाठ्यक्रम में हिंदीतर भारतीय भाषाओं के साहित्य को स्थान दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी आनर्स के पाठ्यक्रम में हिंदीतर भारतीय भाषाओं के साहित्य के कुछ अंश सम्मिलित किये गये थे। अब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय अपने स्नातकोत्तर
हिंदी पाठ्यक्रम में भी यही कर रहा है। इस पाठ्यक्रम के निर्माण में तेलुगु के प्रसिद्ध कथाकार श्री कालीपट्नम रामा राव की एक बहुचर्चित कहानी ’जीवधारा’ को स्थान दिया गया है।
चूंकि दक्षिण की भाषाओं को जाननेवाले हिंदी भाषी बहुत कम है, इन लोगों में इन भाषाओं के साहित्य के प्रति रुचि उत्पन्न करने क एक प्रभावी उपक्रम यही हो सकता है कि हिंदी के पाठ्यक्रम में इन भाषाओं के साहित्य को स्थान दिया जाए और अब धीरे-धीरे यह हो भी रहा है।
अनुवादक दो भाषाओं के बीच सांस्कृतिक सेतु का काम करता है और दो समाजों के बीच भावात्मक एकता स्थापित करता है। विश्व साहित्य के विकास में सदा से ही उसने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उसने अनेक भाषा-भाषी समाजों को प्रेरित और पुनरुज्जीवित किया है। मैक्समूलर ने जिस तरह कहा है कि जो व्यक्ति केवल एक ही धर्म को जानता है, वह किसी धर्म को नहीं जानता, उसी तरह गेटे ने कहा है कि जो व्यक्ति केवल एक ही भाषा जानता है, वह किसी भाषा को नहीं जानता। इस दृष्टि से भी उसकी भूमिका मूल्यवान है। उत्कृष्ट अनुवाद सृजनात्मक लेखन की कोटि तक पहुंच जाता है और महत्त्व की दृष्टि से मौलिक रचना के बाद दूसरा स्थान उसी का होता है। सुदूर १२वीं शताब्दी के अर्ध-विस्मृत एक फारसी कवि खय्याम से आधुनिक संसार का परिचय कराने के अतिरिक्त उसे विश्व के अग्रणी कवियों की पंक्ति में बिठाने का श्रेय तो एड्वर्ड फिट्जेरल्ड के अंग्रेजी अनुवाद की जादुई ताकत को ही जाता है। रवींद्रनाथ ठाकुर तथा अन्यान्य नोबेल पुरस्कार तथा अन्य बड़े-बड़े पुरस्कार विजेताओं की सफलता के पीछे भी उनकी रचनाओं के सफल अनुवादक है, इसमें संदेह नहीं है।
वैसे रचना का पूरा स्वाद तो मूल में ही संभव है। अनुवाद में वह प्रायः अपनी कांति खो देती है। जैसा कि किसी ने कहा है- मूल रचना अगर धारोष्ण दुग्ध है, तो अनूदित रचना सपरेटा, दही या मट्ठा है। मूल और अनुवाद के आस्वाद में कितना अंतर होता है, इसका अनुमान श्री विष्णु प्रभाकर के इस कथन से लगाया जा सकता है--"आवारा मसीहा पर काम आरंभ करने से पहले बांग्ला सीखकर मैंने शरत की रचनाएं मूल बांग्ला में पढ़ीं। वहां जिस शरत से मेरा साक्षात्कार हुआ, वह वे नहीं थे जिनको मैं पहले जानता था। वे तो एक दम नए शरत थे।" ऐसी स्थिति में अनुवादक का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। क्योंकि अनुवाद की गुणवत्ता रचना का प्राण हुआ करती है।
अनुवाद का क्षेत्र बहुत व्यापक है। ज्ञान की शाखा-प्रशाखाएं तथा सर्जनात्मक साहित्य की सभी विधाएं इसकी परिधि में आती हैं। अनुवादक को कितने प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, इसकी जानकारी अधिक लोगों को नहीं है। चूंकि शब्द अपनी भाषा के सांस्कृतिक संभार को वहन करते हैं, इसलिए साहित्य का अनुवाद संस्कृति के अनुवाद के समान होता है जो निश्चय ही सरल नहीं है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, जिन तेलुगु भाषियों ने हिंदी को
अपनी जीविका और आत्माभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है, उनमें से अधिकांश लोगों की साहित्यिक क्रियाशीलता अनुवाद तक ही सीमित रही है। यह उन लोगों की सीमा और विवशता भी
है। क्योंकि सीखी हुई भाषा में सृजनात्मक लेखन करना प्रायः संभव नहीं होता। समालोचनात्मक क्षमता भी उन लोगों में कम ही देखी गई है। इसलिए थोड़े से अपवादों को छोड़कर वे लोग अनुवाद को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाते आए हैं।
लेकिन अनुवाद के क्षेत्र में भी गतिरोध से बच पाना उनके लिए संभव नहीं रहा है। क्योंकि सीखी हुई भाषा में सशक्त अनुवाद करना भी सरल नहीं होता। अनुवाद पुनर्सॄजन
है और अनुवादक को लक्ष्य भाषा की प्रकृति, मुहावरा और उसके साहित्यिक संस्कार से घनिष्ठ परिचय होना चाहिए। नहीं तो वह शाब्दिक अनुवाद तक सीमित रहता है और कभी-कभी तो उसके भी लाले पड़ जाते हैं। मूल कृति के सौंदर्य का प्रतिस्थापन तो बहुत दूर की बात है। इन कारणों से तेलुगु से हिंदी में अनुवाद करनेवालों को अपनी कृति को हिंदी का सहज संस्कार देकर उसे जीवंत रूप में प्रस्तुत करने में कठिनाई होती है। अनुवादक के दायित्व और उसके भाषा सामर्थ्य के विषय में तेलुगु के अनुवाद चिंतक राम चंद्रा रेड्डी ने लिखा है,
"अपेक्षा की जानी चहिए कि अनुवादक अपनी भाषा में लगभग निष्णात हो, समस्त भाषा सामर्थ्य का उसे बोध हो, और भाषा के चमत्कार तथा उसके चित्र-विचित्र प्रयोग उसकी जिह्वा पर रचे-बसे हों।वह उस भाषा का सृजनशील लेखक हो तो और भी अच्छा। आप कहेंगे कि ये सब तो शेखचिल्ली के सपने हैं।" शेख चिल्ली के
सपने भले ही हों, अनुवादक जब
इन कसौटियों पर खरा उतरेगा, तभी वह सफल अनुवाद कर सकेगा। श्री रामचंद्रा रेड्डी की
इन अपेक्षाओं को हमारे कितने अनुवादक पूरा कर सकते हैं, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। इसीलिए बच्चन जी
ने लिखा है,
" मैं उन्ही लोगों को अपनी रचनाओं का अनुवाद करने की अनुमति देता हूं, जो अपनी मातृभाषा में अनुवाद करते हैं।"
नोबेल पुरस्कार विजेता ओर्हन पामुक कहते हैं "यदि मेरे पाठक दुनिया के अनेक देशों में हैं, तो अनुवाद के कारण ही। मैं दुनिया भर के पाठकों के लिए लिखता हूं। मैं अपने अनुवादकों के साथ लग कर काम करता हूं। वे हमेशा सही नहीं होते। इसीलिए एक बार मैं अपने जर्मन अनुवादक पर चीखा था, "मैं जो लिखता हूं, उसका अनुवाद मत करो। उसका अनुवाद करो, जो मैं कहना चाहता हूं।"
वैसे भी अनुवाद अपनी भाषा में होना चाहिए
और संसार में अधिकांशतः ऐसा ही होता आया है। क्योंकि साहित्य में क्या बात कही जा रही है, उस से अधिक महत्त्वपूर्ण यह होता है कि वह बात कैसे कही जा रही है। अनुवाद भी सृजनात्मक लेखन है और वह लेखक की मातृभाषा में ही भलीभांति हो सकता है। अनुवाद की चरम सफलता यही मानी गई है कि वह अनुवाद न मालूम होकर मौलिक रचना प्रतीत हो। जिस अनुपात में अनुवाद मौलिक प्रतीत होगा , उसी अनुपात में उसे सफल माना जाएगा, इसलिए बच्चन जी
का अपने अनुवादक के संबंध में वह आग्रह असंगत नहीं लगता। बच्चनजी भाग्यशाली थे, उनकी शर्त निभ गई। लेकिन यदि तेलुगु के या दक्षिण की दूसरी भाषाओं के रचनाकार भी ऐसी शर्त रखें,
तो उनकी नब्बे फीसदी रचनाएँ हिंदी
पाठकों के कर कमलों में नहीं पहुँचेंगी, इस में जरा भी संदेह नहीं है। ऐसी स्थिति में हम तेलुगु और अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं के हिंदी अनुवादकों को उलटी गंगा बहानी पड़ रही है, जो अत्यंत श्रमसाध्य ही नहीं, बहुत बार निष्फल प्रयास भी होता है। मूल कृति अनूदित होकर कुछ न कुछ हतप्रभ वैसे भी हो जाती है।
कविता के अनुवाद में तो और भी अधिक कठिनाइयां हैं। यहां तक कहा गया है कि अनुवाद में जो गायब हो जाता है, वही कविता है, अनुवादक अधिक से अधिक कविता के भाव और किंचित अनुभूति का अनुवाद कर सकता है। कविता का नाद सौंदर्य ,लय और अभिव्यक्ति की शक्ति तो अनुवाद में प्रायः नहीं आ पाती। तेलुगु कविता के अनुवाद में भी प्रायः यही हुआ है।
दक्षिण भारतीय भाषाओं से हिंदी में हो रहे अनुवादों के संबंध में एक कठिनाई और शिकायत यह भी है कि हिंदी से अपनी भाषा में करें या अपनी भाषा से हिंदी में, कुछ अपवादों को छोड़कर यह काम उन भाषाभाषियों को ही करना पड़ रहा है। ये लोग अधिकांश में हिंदी प्रांत से दूर रहकर कार्य कर रहे हैं। इस कारण हिंदी भाषा के पुस्तकीय रूप से तो वे परिचित होते हैं, पर उसके व्यावहारिक रूप तथा मुहावरे पर उनका अधिकार अपर्याप्त होता है,
विशेषकर सर्जनात्मक साहित्य के अनुवाद के लिए।
हिंदी में हमारे लिए
एक कठिनाई और भी है। सृजनात्मक साहित्य की भाषा में सहज प्रवाह लाने के लिए उसमें यथोचित उर्दू और संस्कृत शब्दों के प्रयोग की जानकारी भी अपेक्षित है। क्योंकि हिंदी
में हिंदी, संस्कृत और उर्दू तीनों भाषाओं की शब्दावली समांतर रूप से चलती है और हिंदीतर भाषी अनुवादक दुविधा में पड़ जाता है कि इन भाषाओं में से किस भाषा के शब्द का कहां प्रयोग उपयुक्त होगा। तेलुगु में लिखने वाले लेखक को ऐसी दुविधा का सामना कम ही करना पड़ता है। तेलुगु के अनुवादक संस्कृत शब्दावली से तो परिचित होते हैं, पर उर्दू शब्दों के प्रयोग के संबंध में वे आश्वस्त नहीं रह पाते।
बांग्ला,मराठी, गुजराती जैसी भाषाओं से हिंदी में होने वाले अनुवादों की स्थिति तेलुगु से आने वाले अनुवादों की स्थिति से बहुत अच्छी है। क्योंकि हिंदी के अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकार सीधे इन भाषाऒं से अनुवाद करते आए हैं। बांग्ला साहित्य के संबंध में यहां तक कहा जा सकता है कि इस भाषा के साहित्य को हिंदी में लाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर हिंदी साहित्यकारों ने बांग्ला भाषियों को उस दायित्व से सर्वथा मुक्त ही कर दिया है। इसके अलावा ये भाषाएं भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं, भाषिक संरचना की दृष्टि से भी हिंदी के पर्याप्त निकट हैं।
हम तेलुगु के हिंदी अनुवादक
अपने अनेक श्रेष्ठ रचनाकारों की रचनाओं को हिंदी में लाने में असफल रहे हैं। उदाहरण के लिए स्त्री विमर्श के पुरोधा चलम की रचनाओं को ही लें। चलम तेलुगु साहित्य में वैचारिक क्रांति के अग्रदूत, स्त्री की स्वतंत्रता और उसके अधिकारों की दृष्टि से समाज को नया संस्कार और स्वरूप देने के
अपने प्रचंड अभियान में तिरस्कार और बहिष्कार का सामना करने वाले रहे हैं। उनके जितना विवादास्पद और उनसे अधिक उद्वेग से लिखने वाला लेखक तेलुगु साहित्य में दूसरा नहीं हुआ है। चलम के समस्त साहित्य के केंद्र में है स्त्री-भुक्ति। वे स्त्री का पक्ष लेकर पुराणपंथी समाज पर आक्रमण का शंखनाद करनेवाले कलम के महारथी थे। यह सब उन्होंने अस्सी-नब्बे वर्ष पहले तब किया था जब स्त्रीवाद का नाम भी साहित्य में नहीं आ पाया था। यही कारण है कि वे तेलुगु साहित्य में स्त्रीवाद के जनक माने जाते हैं।
इसी प्रकार समाज की रूढियों पर आघात करने वाले श्रीपाद सुब्रह्मण्य शास्त्री, सशक्त कथाकर रवि शास्त्री, चासो,
कोडवटिगंटि कुटुंब राव जैसे रचनाकारों की कुछ छुट्पुट रचनाएं ही अब तक आ पाई हैं। गुरजाडा अप्पा राव का ’कन्याशुल्कम’
तेलुगु का
सर्वाधिक चर्चित - प्रशंसित नाटक है उसके अच्छे अनुवाद की अभी प्रतीक्षा है। तेलुगु की प्रगतिवादी धारा के वैतालिक तथा उसके आधार स्तंभ माने जाने वाले, आधुनिक तेलुगु कविता के प्रांगण में क्रांति एवं विप्लव का शंखनाद करते हुए अवतरित होकर कलम को हथियार के रूप में धारण करनेवाले योद्धा श्री श्री
जैसे कवि की रचनाएं भी सशक्त अनुवाद में हिंदी में आनी चाहिए थीं। पर नहीं आ पाईं है।
मूल लेखक की ख्याति ही सब से पहले पाठक को उसकी रचनाओं के अनुवादों की ओर आकृष्ट करती है। यह सुविधा या संबल तेलुगु अनुवादकों को नहीं है। यह हमारी सब से बड़ी कठिनाई है। ज्ञानपीठ जैसे बड़े पुरस्कार विजेता की रचनाएं साहित्यिकों का ध्यान आकृष्ट करती हैं और उन रचनाओं के अनुवाद की मांग होने लगती है तो अनूदित होकर वे रचनाएं प्रचार में आती हैं। तेलुगु साहित्य में तीन रचनाकार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं। इन में दो कवि हैं। श्री विश्वनाथ सत्यनारायण और डा। सी नारायण रेड्डी। विश्वनाथ सत्यनारयण के महाकाव्य ’रामायण कल्पवृक्षमु’ के अनुवाद को तो कोई विकट साहसी ही हाथ लगा सकता है। डा. नारायण रेड्डी की पुरस्कृत कृति
’विश्वंभरा’
का अनुवाद तो हुआ है पर उसे विशेष मान्यता नहीं मिल पाई है। शायद कविता होने के कारण। तीसरे हैं रावूरि भारद्वाज जो मुख्य रूप से कथाकर हैं। उनकी दो-तीन रचनाएं ही हिंदी में आ पाई हैं। वे भी उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने से बहुत पहले।
मूल लेखक की ख्याति के साथ अनुवादक की ख्याति भी रचना की ओर पाठकों का ध्यान खींचती है। रवींद्रनाथ ठाकुर जब कबीर का अनुवाद करते हैं, तब दुनिया कबीर के प्रति उत्सुक हो उठती है। यही बात बांग्ला से हिंदी में आई रचनाओं के साथ हुआ है। बांग्ला से अनुवाद करनेवालों में अज्ञेय, दिनकर, मैथिली शरण गुप्त, निराला, हजारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, जैसे दिग्गज साहित्यकार रहे हैं और उनके यश से भी अनूदित रचना को प्रचार का लाभ मिला है। तेलुगु रचनाओं के अनुवादक अधिकांशतः अज्ञातकुलशील वाले हैं। ऐसे अनुवादकों
के नाम से मूल को क्या लाभ होने वाला है?
अनुवाद को अनुसृजन और अनुवादक को साहित्य का राजदूत, नवीन अभिरुचियों एवं प्रवृत्तियों
का संवाहक या भाषाओं के मध्य सेतु , पारदर्शी आईना आदि कहकर उसे महिमान्वित तो किया जाता है, पर व्यवहार में उसकी यह भूमिका प्रायः अनादृत ही है। वह अपने अध्यवसाय के अनुरूप प्रतिफल नहीं पाता। कई निजी प्रकाशक तो अनुवादक का नाम तक देना नहीं चाहते। वे समझते हैं कि ऐसा करने से रचना का मूल्य घट जाएगा। वे उसे मूल रचना के रूप में ही प्रस्तुत करना ही पसंद करते हैं।
हिंदीतर भाषी अनुवादकों के प्रति सदय होकर अनुवादों का केवल यथावत प्रकाशन करना या उनका मन रखने के लिए प्रशंसा के दो वाक्य कहना या पुरस्कृत करना समूचे अनुवाद साहित्य के प्रति अन्याय है। आवश्यकता है हिंदी का सहज संस्कार देकर उन्हें सशक्त रूप में प्रस्तुत करने की। यदि यह काम हिंदीतर भाषी नहीं कर सकता, तो उसे यह काम किसी ऐसे हिंदी-भाषी से संयुक्त होकर करना चाहिए, जिसे हिंदी मुहावरे की समझ हो। या फिर प्रकाशन संस्थानों को चाहिए कि वे अपने स्तर पर योग्य पुनरीक्षकों-संपादकों द्वारा यह काम करवा लें।
दुःख की बात है कि ऐसे अनेक कारणों से तेलुगु की श्रेष्ठ कृतियों के साथ अनुवाद में न्याय नहीं हो पा रहा है और वे अपने सशक्त रूप में हिंदी पाठकों के सामने नहीं आ पा रही हैं।इस स्थिति में सुधार तभी होगा जब हिंदी के कुछ साहित्यकार तेलुगु सीखेंगे और तेलुगु की उत्तम रचनाओं को हिंदी में लाने में हमारा साथ देंगे। हमें उस समय की प्रतीक्षा है। तब तक हम लोग अकेले ही यह दायित्व निभाते रहेंगे।
एक टिप्पणी भेजें