वरिष्ठ समाजशास्त्री आनंद कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के समाजशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। वे भारतीय समाजशास्त्र परिषद के अध्यक्ष रह चुके हैं। आनंद कुमार ने 1972 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU), वाराणसी से समाजशास्त्र में एम.ए. किया; 1975 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU), नई दिल्ली से समाजशास्त्र में एम.फिल. किया; और 1986 में शिकागो विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की।लोहिया और जयप्रकाश नारायण से प्रभावित आनंद कुमार समाजवादी राजनीति के अगुवा रहे हैं। विद्यार्थी जीवन में वे बीएचयू छात्र संघ, जेएनयू छात्र संघ और जेएनयू अध्यापक संघ के लोकप्रिय अध्यक्ष रहे हैं। वे आम आदमी पार्टी के सदस्य रह चुके हैं। उन्होंने 2014 के भारतीय आम चुनाव में उत्तर पूर्वी दिल्ली संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ा था। आनंद कुमार 1979 से 1989 तक BHU में समाजशास्त्र के व्याख्याता के रूप में कार्य किया, 1990 से 1998 तक JNU में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर रहे, और 1998 से JNU में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे। इसके अलावा उन्होंने जर्मनी में इंडिया चेयर (अल्बर्ट लुडविग विश्वविद्यालय, फ्राइबर्ग), GSP स्कॉलर (हंबोल्ट विश्वविद्यालय, बर्लिन, जर्मनी) के रूप में भी पढ़ाया और जनवरी से मई 2013 तक टफ्ट्स विश्वविद्यालय (अमेरिका) में फुलब्राइट विजिटिंग स्कॉलर रहे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने इंसब्रुक विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रिया) में अंतर्राष्ट्रीय फैकल्टी, FLACSO (ब्यूनस आयर्स, अर्जेंटीना) में GSP फैकल्टी, NEHU (शिलांग) और कश्मीर विश्वविद्यालय (श्रीनगर) में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी सेवाएं दी हैं। हाल ही में उनकी किताब 'आपातकाल की अंतर्कथा' प्रकाशित हुई है। वे फिलहाल गोवा में रह रहे हैं और उनकी अकादमिक सक्रियता जारी है। यह आलेख 29 अप्रैल 2024 को जेएनयू में उनके द्वारा दिये गए वक्तव्य का लिप्यंतरण है।
नमस्कार मित्रों, गंगा जी द्वारा इस व्याख्यान हेतु निमंत्रण देना मेरे लिए जरूरी प्रतीक्षित अवसर था क्योंकि अनुवाद के सन्दर्भ में समाज विज्ञान का पक्ष अत्यन्त उपेक्षित है। पिछली आधी शताब्दी की हमारी पढाई से यह स्पष्ट हुआ कि भारतीय और वैश्विक समाज-विज्ञान में मूल साहित्य अंग्रेजी में कम रचा गया है लेकिन अनुवाद की प्रक्रिया प्रबल थी। जर्मनी, फ्रांस, इटली, लैटिन अमेरिका और कुछ मायने में एशिया के विचारक थे, सिद्धान्तकार थे; उनसे अंग्रेजी भाषी लोगों की दुनिया लगभग ख़त्म हो गई। इसके बावजूद अंग्रेजी में समाज-विज्ञान फले-फूले, इसमें कमाल अनुवाद प्रक्रिया और अनुवाद की गम्भीरता का था। भारत की इतनी समृद्ध भाषिक परम्परा के बावजूद भारत में समाज विज्ञान का विमर्श अंग्रेजी में ही सही हो पाता है। हम उस पीढ़ी के हैं जिसको आप संक्रमण की पीढ़ी कहेंगे क्योंकि हम लोग आज़ादी के बाद पैदा हुए और आज़ादी के दो दशकों में हम लोगों की तरुणाई आयी। फिर हम लोग प्रभावशाली विद्यार्थी बने और उस समय भाषा का संकट अपने चरम पर था। ऐसा आत्मविश्वास विहीन व्यक्तित्व था कि वो भाषा की तरफ देखना ही नहीं चाहता था। जबकि भारतीय राजनीति का नवनिर्माण करते समय भाषावार राज्यों की रचना एक बड़ा विवादित प्रसंग था और फिर विदेशी भाषा की जीत हुई थी। मद्रास प्रेसिडेंसी में से तमिलनाडु, मलयालम के केरल, कन्नड़ के कर्नाटक, तेलुगु के आंध्रप्रदेश की नई राजव्यवस्था बनी। उड़िया, पंजाबी, बंगाली, हरियाणवी, मैथिली आदि भाषाओं का एक तरह से स्वीकार हुआ और साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट, ये दो मंच बने जिन्होंने अनुवाद के जरिये देश की भाषाओं की निकटता बढ़ाई। उसके बावजूद जैसा गंगा सहाय मीणा जी कह रहे थे कि न्यायालय की भाषा अंग्रेजी, विधानमण्डल की भाषा अंग्रेजी, प्रशासन की भाषा अंग्रेजी; तो एक अजीब किस्म का विरोधाभास, एक अजीब किस्म का संकट, अजीब किस्म का ढोंग जो आपकी पीढ़ी को कबूल नहीं होगा और हमारी पीढ़ी को तो कत्तई कबूल नहीं होगा।
हम लोगों की पीढ़ी के समय में एक आन्दोलन हुआ, जिसके तीन नाम रखे गए-कुछ लोगों ने उसे भाषा आन्दोलन कहा, कुछ ने उसे हिन्दी आन्दोलन कहा तो कुछ लोगों ने उसे अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन कहा। लेकिन तीनों संज्ञाओं के बावजूद उस पीढ़ी के मन में भारतीय भाषाओं के प्रति एक अलग तरह का सम्मान भाव, अपनत्व और ज़िम्मेदारी का भाव रहा। मैं खुद इस प्रक्रिया से गुजरा। मैं जब जे. एन. यू. आया तो उससे पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में एक विवाद हो चुका था, 60 के आखिरी वर्षों में। डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक जी, जो बाद में बहुत बड़े पत्रकार हुए, वे यहां के विद्यार्थी थे। उन्होंने अपना शोध निबंध ‘अफगानिस्तान की विदेश नीति’ विषय पर हिन्दी में लिखा और उसको स्वीकार कराने में उनको एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा। लेकिन सौभाग्य से उस समय संसद में कांग्रेस सहित तमाम दलों के प्रवक्ता और नायकों ने वेद प्रताप वैदिक के उस अधिकार की रक्षा की। उनका हिंदी में थीसिस मान्य हुआ। मुझे लगा कि वैदिक जी ने रास्ता बना दिया है, उस पर हम भी चलेंगे। आपके आने के पहले यहां एम.फिल. की पढ़ाई भी होती थी। एम. ए., एम फिल, पीएचडी तीन सीढ़ियां चढ़नी होती थी। एम.ए. तो हमने बनारस से किया था और वहां दो भाषाओं में उत्तर लिख सकते थे। केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के नाते अंग्रेजी में लिख सकते थे या हिंदी में। जो लोग अंग्रेजी हटाओ आंदोलन की पीढ़ी के थे ऐसे हम तमाम लोगों ने हिन्दी में उत्तर लिखा, और यह निश्चित था कि हिन्दी में लिखने पर आपके नंबर काम आएंगे। मेरा सौभाग्य था कि इस सब के बावजूद नंबर अच्छे आए, बल्कि बहुत अच्छे आए, सबसे अच्छे आए। मैं जेएनयू आ गया। जेएनयू में मेरे मन में जो छिपी इच्छा थी, उसे मैंने तब तक छिपाए रखा, जब तक कि हमारा कोर्स वर्क चलता रहा। कोर्स वर्क में सब टर्म पेपर अंग्रेजी में करना होता है। एक शिक्षक भोजपुरी इलाके के थे, बस्ती के। एक शिक्षक पटना के थे। एक शिक्षक मलयालम क्षेत्र के, केरल के। एक तमिलनाडु के थे, एक मैसूर के थे, दो कन्नड़ से, एक राजस्थान के थे। लेकिन सारी पढ़ाई अंग्रेजी में ही होती थी। जब एम. फिल. शोध प्रबंध लिखने का समय आया तो मैंने बहुत विनम्रता से कहा कि मैं इस विषय पर काम करना चाहता हूं, काम मंजूर हो गया। फिर मैंने बिल्ली को झोले से बाहर निकाला। हमने कहा, हमको हिंदी में लिखना है। एकदम जैसे बम फट गया। मेरी पूरी काउंसलिंग शुरू हुई कि आपकी हिंदी की थीसिस किस काम की, कौन पढेगा! मैंने कहा, इसके लिए तो मैं लिख नहीं रहा हूँ! ये तो एक मर्यादा है कि थीसिस लिखनी है, प्रबन्ध होना चाहिए, कुछ स्तरीय होना चाहिए, इसलिए इसको मैं लिखूंगा। लेकिन भाषा इसकी हिन्दी होगी। अभी पीएच. डी. के लिए इजाजत मिल चुकी है तो एम. फिल. तो इससे छोटी डिग्री है। बहुत विवाद हुआ लेकिन उस समय के जो शिक्षा नायक थे, कुलपति थे, वे दूरदर्शी लोग थे। उन्होंने कहा ये परेशानी का कारण बनेगा और मैं तब तक जेएनयू छात्र संघ का प्रेसिडेंट भी हो गया। एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। जे.एन.यू एस.यू से उसे वक्त टकराना मुश्किल था। आज तो सिर फोड़ दीजिए फिर भी उनको कोई डर नहीं है। मैंने हिंदी में अपनी थीसिस लिखी थी लेकिन वह हिन्दी में लिखी पहली और आखिरी थीसिस हमारे विभाग की। ऐसा क्यों हुआ? जब मैं अमेरिका गया पीएच.डी. करने के लिए तो वहां पर एक प्रक्रिया है कि अगर आपने एम.ए. के स्तर का निबंध लिखा है तो आपको एक साल के कोर्सवर्क से छुट्टी मिल जाती है यानी आप चार साल की बजाय तीन साल में कोर्स वर्क खत्म कर सकते हैं। हमने कहा कि हमने एम.फिल. की थीसिस लिखी है तो उन्होंने कहा लाइए। फिर हमने थीसिस दी जिसमें कि यहां पर ए माइनस मिला था। उस समय भी एक समस्या हुई थी कि गाइड कौन करेगा? तो हमने कहा कि आप में से एक पटना के हैं और एक बस्ती के हैं। आप दोनों मेरे गाइड बनेंगे। आप अगर हिंदी में नहीं इजाजत देंगे, पटना के और बस्ती के, तो कौन देगा? अब किसी मलयाली या तमिल या तेलुगु भाषी से तो अपेक्षा नहीं कर सकते। वे इस तर्क से पराजित हुए और कहा, ‘हां चलो ठीक है। लेकिन इसमें क्वालिटी में कोई कम्प्रोमाइज़ नहीं होगा’। हमने कहा, ‘वह आप जानिएगा और आपके एग्जामिनर जानेंगे’। ‘आपके थीसिस का परीक्षक कौन होगा’? बाद में हमारे चांसलर हुए, प्रो. दामले, वह पूना में थे । खोज-खाज करके उनको परीक्षक बनाया गया। उन्होंने पढ़ा, तारीफ की, अपनी रिपोर्ट में। लेकिन शिकागो विश्वविद्यालय के अध्यापकों ने कहा ये तो दूसरी भाषा है। हमारी भाषा तो अंग्रेजी है। तो आपने जो थीसिस लिखी है, इसका अनुवाद हमको दीजिये। तब डिपार्टमेंट तय करेगा कि यह एम. ए. के समकक्ष है या नहीं? अगर है तो आपको एक साल की छूट मिलेगी। अगर नहीं है तो आपको एक और थीसिस लिखनी पड़ेगी। मैंने अनुवाद किया और उन्होंने उसको प्रामाणिक माना। लेकिन जब हमने यही बात अपने टीचर सर्योदय सिंह जी को बताई, जो उसे समय विभागाध्यक्ष और मेरे सुपरवाइजर थे, वे बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा, “मैंने कहा था तुमसे, तुम सारी जिंदगी इसके लिए पछताओगे। अब देखो तुमको लिखना पड़ गया। तुमको ये पॉजिटिव पनिशमेंट मिला है।” लेकिन भाषा की सेवा में, अपनी भाषाओं के नव निर्माण में, अपनी भाषाओं को शक्तिशाली बनाने में पीढ़ियों को लगना पड़ता है। जापानी लोगों के साथ यही हुआ था। जापानी में मेधावी विद्यार्थियों को चुन-चुनकर यूरोपीय और अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भेजा गया। पढ़ाई उन्होंने अंग्रेजी में की लेकिन लौटकर उन्होंने जापानी भाषा को समृद्ध किया और जो मूल ग्रन्थ थे, सबका जापानी में अनुवाद हुआ। चीन में यही हुआ, रूस में यही हुआ, जर्मनी में यही हुआ तो भारत में यह क्यों नहीं हो सकता? भारत में यह इसलिए अभी तक नहीं हुआ कि हम सब में जिनको प्रोफेसर, डीन, डायरेक्टर, वाईस-चांसलर, शिक्षा मंत्री बनने का अवसर मिला, हर एक के सामने एक ही यक्ष प्रश्न था भाषा के समान्तर अभी नहीं, बाद में कुछ किया जाएगा। गांधी जी का यह दावा था कि अगर एक दिन के लिए मुझे तानाशाह बनाया गया तो मैं पहली कलम से अंग्रेजी की सार्वजनिक जीवन में केंद्रीयता को समाप्त करूंगा। यह राष्ट्रीय आंदोलन का संकल्प था और वह संकल्प शुद्ध था। लेकिन जैसा कि गंगा सहाय जी ने बताया हम लोगों को जब खुद अपना मौलिक शोध करना पड़ा तो उसमें अंग्रेजी में न हो ऐसा दुराग्रह नहीं था। गरीबी की भाषा तो ओड़िआ और हिंदी है। उस पर कोई शोध हो रहा है रपट बन रही है तो उसमें नहीं होगा यह कैसे काम चलेगा? हमारे आपके सौभाग्य से अब राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में नेतृत्व भी ऐसा हो गया कि देशज है, देशी भाषाओं का है। वो चाहे भी तो अंग्रेजी को अपने माथे पर नहीं रख सकते क्योंकि उनको अंग्रेजी आती ही नहीं है। वे अपने बच्चों को जरूर अंग्रेजी पढ़ाना चाहते हैं। लेकिन वह भी पढ़ाई छोड़-छोड़ कर भागते हैं। बिहार में, तमिलनाडु में, कर्नाटक में, बंगाल में ममता बनर्जी कितनी प्रभावशाली वक्ता हैं लेकिन किस भाषा में? जैसे ही वह बंगाल से अंग्रेजी में उतरती हैं तो उनकी मर्यादा और सीमा पता चल जाती है। एक सज्जन हमारे परिचित हैं, मुख्यमंत्री थे एक बड़े राज्य के, उन्होंने तो अंग्रेजी बोलने को मजाक का एक तरीका बना दिया था। लोकसभा में जब वह बोलते थे तो पहले वह अपनी बात हिंदी में बोल लेते थे। फिर कहते थे स्पीकर महोदय अब मैं जरा अंग्रेजी में भी कुछ बोलने की अनुमति चाहता हूं फिर अंग्रेजी की ऐसी की तैसी कर देते थे जिससे कि और अंग्रेजी बोलने वाले अपनी अंग्रेजी ज्ञान का अहंकार न करें।
सामाजिक विज्ञान के अनुवाद की चुनौतियों की समस्या में सुपक्ष यह है कि अंग्रेजी भाषा में समाज विज्ञान का बहुत जबरदस्त ज्ञान प्रसार हुआ है। लेकिन समाजशास्त्र में जो चार मूल सामाजिक चिंतक माने गए हैं, वह तब समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, इतिहास अलग-अलग नहीं होता था और जिसको आप अंतर-अनुशासनिक अध्ययन कहते हैं, इंटरडिसीप्लिनरी स्कॉलरशिप, उसका उस जमाने में एक बहुत बड़ा नाम था अगस्त कॉम्ट। अगस्त कॉम्ट फ्रेंच थे। अंग्रेजी में उन्होंने एक लाइन नहीं लिखी थी किन्तु उनको हम लोग समाजशास्त्र का पिता कहते हैं। फिर दूसरे हैं इमाईल दुर्खीम, उन्होंने सामाजिक संगठन, धर्म, राजनीतिक परिवर्तन, विचलनकारी आचरण; इन सब चीज़ों पर मौलिक अध्ययन किया। इतना अच्छा अध्ययन किया कि आज भी उनके सिद्धांत सर्वमान्य हैं। लेकिन इमाईल दुर्खीम ने फ्रांसीसी में लिखा है। कार्ल मार्क्स का सारा अध्ययन जर्मन में है। अनुवाद होता रहा अंग्रेजी में। ऐसा लगता ही नहीं कि उनकी मूल भाषा जर्मन थी। उनके नोट्स आज से दो दशक पहले छपे। वे नोट्स जर्मन में लिखे गए थे। दास कैपिटल उन्होंने जर्मन में लिखा था। समाजशास्त्र के आदि पुरुषों में मैक्स वेबर बहुत बड़ा नाम है। वह जर्मनी के प्रोफेसर थे, जर्मन में लिखा था। लेकिन अमेरिका ने उनका अनुवाद किया और प्रामाणिक अनुवाद किया। अनुवाद की अपनी समस्या जरूर है। उसकी शब्दावली की समस्या है, प्रमाणिकता की समस्या है, स्थिरता की समस्या है। अनुवाद के कई स्रोत होते हैं। एक अनुवाद भाषा का लोक करता है और एक अनुवाद शास्त्र करता है। लोक वाला अनुवाद धीरे-धीरे जुबान पर चढ़ता चला जाता है जैसे मुंबईया हिंदी का आमची। जाने क्या-क्या शब्द कहां-कहां से ला करके अभिव्यक्ति हो जाती है। और शास्त्र का अनुवाद एक मजाक में शुरू हुआ। आज से 30-40 साल पहले जब हिंदी को कुछ नई जिम्मेदारियां मिलीं तो कुछ हिंदी विरोधियों ने कहा, देखो क्या अनुवाद होगा रेल के डिब्बे का या रेल की पटरी का! लौहपथगामिनी! पता ही नहीं चलेगा यह बिहारी की कविता पढ़ रहे हैं कि रेलगाड़ी का वर्णन आ रहा है। तब धीरे-धीरे हमें लोक और शास्त्र के बीच कुछ समझौते की जरूरत महसूस हुई। कुछ शब्दावली आयोग बनाए गए प्रमाणिक शब्दों के लिए। लेकिन जैसा सरकारी काम में होता है, उन आयोग के शब्दकोश नागरी प्रचारिणी सभा से लेकर शिक्षा मंत्रालय तक विचरण करते रहे लेकिन लड़कों और लड़कियों की जबान पर चढ़ नहीं पाए। विश्वविद्यालय में उसका प्रवेश नहीं हुआ।
मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि भारतीय भाषा केन्द्र में अनुवाद के बारे में एक पूरा अध्ययन-अध्यापन शुरू हुआ है। यह सही बात है कि आपके पास केवल दो ही अध्यापक हैं। ये दोनों तपस्वी हैं, हठ योगी हैं। कोई और होता, मैं होता इनकी जगह तो मैं कहता, यार! कहां झंझट में पड़ रहे हो अनुवाद के! लेकिन कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, समीक्षा पढ़ाने और अनुवाद पढ़ाने पर अनुवाद वाला पढ़ाना भारी रहेगा आने वाली पीढियों के लिए, क्योंकि बिना अनुवाद के एक बड़ी खिड़की रखे हुए, बिना अनुवाद के एक बड़ा दरवाजा रखे हुए कोई भाषा समर्थ नहीं हो सकती। फिर वह कूपमंडूक भाषा रह जाएगी। अनुवाद से हिन्दी के भी नए आयाम खुलेंगे। यह भी ज्ञान की भाषा हो सकती है। इसमें भी यूनिवर्स को प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन सब ऐसा नहीं करते। इसमें जोखिम होता है। एक तो जोखिम होता है अपने कैरियर का। जिसकी जिंदगी का यही मकसद है कि पढ़े, डिग्री पाई, नौकरी पाई, लेक्चर हुए, रीडर हुए, प्रोफेसर हुए, ज्यादा हुआ तो कुलपति हुए। नहीं हुआ तो कुलपति बनने की इच्छा में मर गए। यही हमारे जीवन की पूरी कहानी हो गई। ऐसे लोगों के लिए भाषा का संस्कार करना कभी आता ही नहीं। जो हमारे करियर में ठीक हो वह तो चलेगा, पर जो हमारे करियर में ठीक नहीं है वह हम नहीं करेंगे। नई लीक बनाना, नई राह बनाना, नई सड़क बनाना- यह विकास की कार्यनीति है लेकिन सब बना नहीं पाते। पुरानी लीक पर चलते रहिए या कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगाते रहिए। समय तो बीत जाएगा और आपको भी यश और कैश जो मिलना है मिलेगा। मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विकास के पैमाने में इस बात पर ज्यादा ध्यान देता हूं क्या नया विमर्श शुरू हुआ है, किन विषयों में नए अध्ययन शुरू हुए हैं। एक समय हमारे समाज विज्ञान संकाय में राजनीति-शास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन पढ़ाया जाता था। एक सज्जन ने पाया के दर्शन का एक अलग विभाग होना चाहिए तो उन्होंने दर्शन का एक नया विभाग बनाया । ऐसे ही लॉ एण्ड गवर्नेंस को लेकर यूरोप में कानून और प्रशासन को लेकर अलग-अलग अध्ययन करने की जरूरत थी क्योंकि उनके राज्य का निर्माण समाज के समानांतर हुआ है। हमारे यहां राज्य का निर्माण कृत्रिम तरीके से हुआ है। पहले हमने कब्ज़ा किया फिर एक राज्य स्थापित किया, कॉलोनियल स्टेट। उसके बाद हमने आंदोलन किया, उनका उठाकर फेंक दिया। फिर हमने लोकतांत्रिक राज्य बनाया। लेकिन राज्य का विमर्श, कानून की भूमिका, आरक्षण का कानून, महिलाओं के सशक्तिकरण का कानून, मनरेगा का कानून- यह सब समाज के परिवर्तन के पल बने, लेकिन यूरोप में कानून बाद में बने। यह परिवर्तन का दूसरा तरीका होता है, इसके लिए एक अलग विभाग होना चाहिए स्कूल आफ सोशल साइंसेज। लॉ एंड गवर्नेंस का एक नया डिपार्टमेंट बनाया। ऐसे ही अर्थशास्त्र के विभाग में उन्होंने श्रम अर्थशास्त्र यानी लेबर इकोनॉमिक्स के लिए एक अलग डिपार्टमेंट बनाया।
समाज विज्ञान में अनुवाद की चुनौतियों को दो हिस्से में आपके सामने रखना चाहता हूं। उसमें यह चार चुनौतियां तो सामान्य चुनौतियां हैं जो भाषा के संसार की चुनौतियां हैं। बहुत अच्छा हुआ कि दोनों आचार्यों ने भाषा का संदर्भ आपके सामने कुछ बातें रखी और भाषा और समाज का जो रिश्ता है, भाषा और इतिहास का जो रिश्ता है, भाषा और भविष्य का जो रिश्ता है, उसको उन्होंने समझने की कोशिश की। फिर तीन सवाल ऐसे हैं जो समाज विज्ञान के खास सवाल है लेकिन यह जो चार सामान्य प्रश्न है सामान्य चुनौतियां हैं। भाषा संस्कृति का अंग है। कभी-कभी लगता है कि भाषा राजनीति का अंग है क्योंकि भारत में भाषा की अपनी राजनीति है और राजनीति की अपनी भाषा है। लेकिन भाषा संस्कृति का अंग है और जो संस्कृति उठ रही है, फैल रही है, जीवंत है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने जिम्मा ले रखा है कि हर साल अंग्रेजी भाषा का शब्द संसार संपन्न हो रहा है। नए शब्द आ रहे हैं, उसकी सूची बनाते हैं। हजार-बारह सौ शब्द हर साल अंग्रेजी ग्रहण करती है। उसमें गुरु है, कुर्ता है। यह सब भारत से चला गया। अन्य भाषाओं से, रूसी भाषा से, चीनी भाषा से, जापानी भाषा से, वह ग्रहण करते हैं। अंग्रेजी की शब्दावली के बारे में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी जो शब्दकोश निकलता है, उसमें आप देखेंगे कि हर शब्द का उसकी उत्पत्ति का काल भी है। पहली बार यह शब्द अंग्रेजी भाषा के विमर्श में कब उपयोग में हुआ, यह भी है। यह वे खोज-खोज के करते हैं और इस आधार पर वह अपनी भाषा का संस्कार करते हैं। शब्दकोश हमारे पास बहुत हैं, लेकिन उससे मिलता-जुलता कोई शब्दकोश जो भाषा और शब्दों का इतिहास बता सके, वह हमारे पास नहीं है। और जब तक वह नहीं होगा तब तक हम अपने भाषा के संसार को समझ नहीं पाएंगे। अनुवाद की चुनौतियों में भाषा के सवाल को लेना पड़ेगा। भाषा संस्कृति का अंग है। हर संस्कृति में कई भाषाएं होती हैं और हर संस्कृति के उत्थान और पतन की अपनी कहानी होती है। उसका भाषा पर भी असर पड़ता है। कभी-कभी भाषाएं संस्कृत से स्वतंत्र हो जाती हैं। जैसे अंग्रेजी भाषा है, यह अब एंग्लो और ब्रिटिश संस्कृति से स्वतंत्र हो चुकी है। एक औपनिवेशिक अध्ययन की परंपरा है, वह ना अंग्रेजों की बनाई है औपनिवेशिक बुद्धिजीवियों की बनाई हुई है। फिर एक पोस्ट कॉलोनियल इंग्लिश लिटरेचर है, जिसमें ये लोग मिडनाइट चिल्ड्रन (सलमान रश्दी) या गायत्री स्पीवाक हैं। यू आर अनंतमूर्ति कन्नड़ में ज्यादा लिखा पढ़ाते थे। अफ्रीका में, दक्षिण एशिया में, पाकिस्तान में, भारत में, बांग्लादेश में अंग्रेजी में जो लिखा जा रहा है उसका अपना एक अलग विन्यास है। संस्कृति और भाषा का एक मां और संतान का संबंध है। यह एक स्थापना अपने ध्यान में रखिएगा।
दूसरी भाषा संपदा भी एक चीज होती है। जैसे आपके बैंक के खाते में कितना रुपया है! कम होगा तो आपका दिल बैठ जाएगा कि हाय रे हम तो बहुत गरीब हैं। कुछ नया कर ही नहीं सकते। एक किताब भी खरीदने के लिए सोचना पड़ेगा। अगर बैंक बैलेंस ठीक-ठाक है तो कुछ समय तक हम लोग राजा की तरह आचरण करते हैं। यह भी खरीद लेंगे, वह भी खरीद लेंगे। भाषा की संपत्ति यह होती है कि भाषा किन-किन तरीकों से संपन्न हुई है और अभी इसकी क्या स्थिति है। इसका एक वैज्ञानिक मूल्यांकन करना पड़ता है। तुलनात्मक मूल्यांकन करना पड़ता है। हमारी मातृभाषा है, इस पर गर्व है लेकिन हमारी मातृभाषा अमुक-अमूक भाषा की तुलना में बेहतर है, जैसे मलयालम के साथ अगर हम हिंदी की तुलना करें, बंगाली के साथ हिंदी की तुलना करें, मराठी के साथ हिंदी की तुलना करें तो हिंदी वालों के तमाम घमंडी दावों के बावजूद उनको बंगाली, मराठी या मलयालम की भाषा संपदा का सम्मान करना होगा और ग्राह्य तरीके से उसको सम्मिलित करना पड़ेगा।
औपनिवेशिक काल में हम लोग कुछ पिछड़े इलाके में रहे होंगे और कुछ इलाके अग्रणी हो गए। मुंबई, कोलकाता और मद्रास के इर्द-गिर्द विकास की परछाई थी लेकिन शेष भारत बहुत पिछड़ा था। ओरिजिनल डेवलपमेंट एक अलग विषय है अर्थशास्त्र का। ऐसे ही अंतरराष्ट्रीय व्यापार और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नीतियां, यह अलग विषय है। तीन विषय एक ही फ्रेम में, एक ही अनुशासन में, उसकी तीन डिग्री हैं। ऐसे ही अनुवाद को लेकर मैंने पूछा, आपके दोनों आचार्यों से। उन्होंने बताया कि 8-10 विश्वविद्यालयों में पढ़ाई हो रही है और मुझे इस बात का गर्व है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय उसमें से एक है। लेकिन इस बात की शर्म है कि वर्धा और अलीगढ़ विश्वविद्यालय की तुलना में जेएनयू का अनुवाद विभाग साधनहीन है, क्षमता विहीन है। लेकिन इन दोनों सिद्ध लोगों को मैं बहुत जमाने से जानता हूं। इसलिए आप इनके हाथों में सुरक्षित हैं, इसका आपको भरोसा होना चाहिए।
मुझे पहली बार अक्करमाशी और गोरा के बारे में नामवर सिंह ने बताया। कहा कि अगर अक्करमाशी को नहीं समझा, पढ़ा, जाना तो स्वाधीनोत्तर भारतीय चेतना के निर्माण का व्याकरण आपको नहीं समझ आएगा और अगर आपने गोरा नहीं पढ़ा तो भारतीय समाज में परम्परा और आधुनिकता की बहस का क, ख,ग, घ भी आपको समझ नहीं आएगा। एक बंगाली का शीर्ष उपन्यास और एक मराठी की आत्मकथा। दलित साहित्य मतलब मराठी कलम, क्योंकि दलित साहित्य जब हिन्दी में लिखा जा रहा है उसमें बहुत सीधा असर मराठी दलित पैन्थर आन्दोलन का है, बाबा साहब अम्बेडकर का है, और लोगों का है। भाषा सम्पत्ति में तटस्थता की जरुरत है, अपनत्व की जरुरत नहीं है। जैसे मेरी माँ सबसे खूबसूरत है मेरे लिए लेकिन मेरी माँ उतनी नहीं पढ़ी जितनी कि महादेवी वर्मा पढ़ी थीं। मेरी माँ उस तरह की लेखिका नहीं है जैसी महाश्वेता देवी हैं।
तीसरी बात है भाषा का सन्दर्भ। हर भाषा का अपना सन्दर्भ होता है। सन्दर्भ विहीन भाषा नहीं होती है। यह देखना होगा कि भाषा का अस्मिता से कोई रिश्ता है कि नहीं। जैसे उर्दू है, न घर की है और न घाट की। उर्दू को पाकिस्तान की अस्मिता का आधार बनाया। लेकिन जब पाकिस्तान बन गया, खास कर बांग्लादेश के टूटने के बाद तो वहां पंजाबी हैं, सिन्धी हैं, बलोच हैं, पख्तुन हैं, और इधर बंगाली हैं। उर्दू का नामलेवा कौन है? उर्दू तो गंगा यमुना के इलाके की भाषा थी। आगरे के आसपास इसका विकास हुआ और मीर, ग़ालिब, फ़िराक और जावेद अख्तर तक ने इसका विन्यास किया। लेकिन उसका समाजिक आधार, उसका सन्दर्भ क्या है? एक तो उर्दू इसलिए प्रदूषित हो गयी, कलंकित हो गयी कि उसको इस्तेमाल किया भारत को तोड़ने में। बहुत सारे भारतदां उर्दू को भारत तोड़ने वाली भाषा मानते हैं। दूसरा उर्दू तो भारत की ही बेटी है लेकिन उसको पकड़ लिया कुछ माध्यम वर्गीय मुसलमानों ने लखनऊ के, आगरा के और अलीगढ़ के। तो जो हिन्दी का रिश्ता था, सगी बहन वाला या जुड़वाँ बहन वाला वो रिश्ता टूट गया। अब वो दोनों बहन एक-दूसरे की तरफ देखना ही नहीं चाहतीं। ‘अरे आप तो बहुत उर्दू वाली भाषा बोलते हैं’ हम लोग जो भाषा बोलते हैं, बनारस की, उसमें आम ज़बान जो सार्वजनिक जीवन में है, उसमें कब कुर्सी आ गयी, कलम आ गयी, खुशबू आ गयी, तारीख़ आ गयी, पता ही नहीं चलता। अब दूसरे लोग संस्कृतनिष्ठ का आग्रह करते हैं। वे कहते हैं हिन्दी और उर्दू को जितनी दूर कर सको, उतना अच्छा है। इसमें दोनों का नुकसान होगा लेकिन भाषा और अस्मिता का अगर सम्बन्ध नहीं है तो भाषा अनाथ हो जाएगी। और अगर भाषा और अस्मिता का सम्बन्ध बन गया तो बोडो भाषा की तरह आग्रह शुरु हो जाएगा। अभी मैं दरभंगा गया था तो वहां के लोकजीवन की भाषा दरभंगा की मैथिली है लेकिन हिन्दी से उनको कोई डर नहीं है। हालाँकि पहाड़ी भाषा के उपयोगकर्ता हिन्दी से बहुत डरते हैं। जैसे-जैसे उत्तर भारत में हिन्दी फ़ैल रही है, उत्तराखण्ड में, हिमाचल में, जम्मू में, कश्मीर में वैसे-वैसे इसकी पढ़ाई से लोग अपने बच्चों को दूर कर रहे हैं। जैसे हिन्दी भाषी इलाके में लोग अपने नई पीढ़ी को अंग्रेजी के साथ जोड़ रहे हैं। मम्मी, डैडी खुद तो कुछ हो नहीं पाए और सारी जिन्दगी अंग्रेजी ठीक से न जानने का कष्ट हुआ तो कहा अपने बच्चे को हम इस सज़ा से नहीं गुजरने देंगे। तो दर्जा ‘ए’ यानी प्ले स्कूल से ही बच्चों को सिखाया जाता है मम्मी, डैडी, गुड मॉर्निंग, गूड इवनिंग। अब उसका भविष्य तो सुरक्षित हो गया लेकिन मस्तिष्क अविकसित रहेगा। अगर मातृभाषाओं में अध्ययन अध्यापन का आनन्द हमने नहीं लिया तो फिर हम हमेशा के लिए बौद्धिक दृष्टि से सीमित क्षमता वाले व्यक्ति रहेंगे। इसलिए भाषा और अस्मिता का सम्बन्ध ध्यान में रखने की जरूरत है। अनुवाद में भी उसका महत्व है।
दूसरा अस्मिता के अलावा, राष्ट्रीयता दूसरी चीज़ है। अगर कोई भाषा किसी राष्ट्रीयता के साथ जुड़ गयी जैसे फ्रेंच, फ्रेंच नेशनलिज़्म से, जर्मन, जर्मन राष्ट्रीयता से, हिन्दी, भारतीय राष्ट्रीयता से, फिर उसकी तरक्की में बहुत सारी सुविधाएँ हो जाती हैं। आप जानते हैं कि हिन्दी के शुरु के संस्कार देने वाले पत्रकार ज्यादातर गैर हिन्दी भाषी थे। बाबूराव विष्णुराव पडारकर एक नाम हुए, ऐसे दर्जनों नाम हैं। खास तौर पर मराठी और बंगाली जिन्होंने हिन्दी पत्रकारिता की भाषा को गढ़ा। अब आजकल हिन्दी वालों के हवाले हो गयी है हिन्दी पत्रकारिता। उसमें हमारे एक मित्र हैं राहुल देव। बड़े पत्रकार हैं जनसत्ता के। वे कहते हैं कि अगर यही नौबत रही तो पंद्रह साल बाद हिन्दी में पत्रकारिता करना कठिन हो जाएगा क्योंकि अंग्रेजी के शब्द ही नहीं लेते हैं। बल्कि हिन्दी की दुर्गती कर रहे हैं हिन्दी के पत्रकार। इतने आलसी हो गए हैं हिन्दी के पत्रकार। उसकी तुलना में हिन्दी पत्रकारिता का संरक्षण जब तक गैर हिन्दी भाषियों के हाथ में था तब तक हम ज्यादा सुरक्षित थे। अब पटना, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद वाले हिन्दी पत्रकारिता में हिन्दी की ऐसी की तैसी कर रहे हैं। । लेकिन अनुवाद में मीडिया भी एक बड़ा माध्यम है, रहना चाहिए। आचरण की भाषा वाला अनुवाद सबसे बेहतर माना जाएगा। जैसे आचरण की भाषा में लालटेन है। लालटेन चल गया। एक पार्टी ने उसे चुनाव चिन्ह भी बना दिया। लेकिन लालटेन जैसा शब्द किसी भी भाषा में नहीं है। होता अंग्रेजी में लैंटर्न है। वह अपने साथ ले आए थे। वह लैंटर्न गांव तक पहुंचते-पहुंचते लालटेन हो गया। अब लालटेन ज्यादा प्रमाणित है लैंटर्न की तुलना में। लोक ने उस भाषा को आत्मसात किया। वैसे ही मजिस्ट्रेट शब्द था। मजिस्ट्रेट हर जगह नियुक्त हुआ। मजिस्ट्रेट जबान पर चढ़ता नहीं। बिहार और उत्तर प्रदेश के किसानों ने मजिस्ट्रेट को मजिस्टर कहा। राममनोहर लोहिया जी का आपने जिक्र किया उन्होंने कहा कि अगर भाषा के तौर पर स्वीकार करना है इन शब्दों को तो हिंदी के लोग व्यवहार का पक्ष है, मजिस्ट्रेट मत लिखो, मजिस्टर लिखो। दूसरा जो मूल शब्द है उनका अंग्रेजी अनुवाद इतना छा गया है कि हम मूल शब्दों के साथ अन्याय करते हैं। रूसी, जर्मन या फ्रेंच के मूल शब्द हैं उनको इस तरह से लिखो जैसे मूल भाषा में लिखा जाता है। जैसे मास्को नहीं है, मस्कवा है। रूसी भाषा में रूस की राजधानी का नाम है मस्कवा है। अंग्रेजी में वह मास्को हो गया तो हिंदी में मस्कवा चलेगा कि मास्को चलेगा? मास्को नहीं चलेगा मस्कवा चलेगा। क्योंकि अंग्रेजी हिंदी की एक तरह से आधारशिला बनेगी। हिंदी अंग्रेजी के कंधे पर बैठेगी जो अंग्रेजी में चलेगा वह हिंदी में आएगा, ऐसा भी आग्रह किया तो यह भाषा का एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ है ।
एक संकल्प गांधी ने किया लेकिन वह अंग्रेजी की खिड़की बंद नहीं करते थे। अंग्रेजी में पत्रिका निकालते थे, अंग्रेजी में चिट्ठी पत्री करते थे लेकिन सार्वजनिक जीवन में भारतीय भाषाओं का सदुपयोग करते थे और यही रवीन्द्रनाथ टैगोर का योगदान था। यह राष्ट्र निर्माण या राष्ट्रीयता में भाषा के संदर्भ के योगदान और इतिहास की कहानी है। किसी कारण से इतिहास में उसको दुर्घटनाग्रस्त किया है तो उसका कारण वह इतिहास है, भाषा नहीं। उसे दुर्घटना का निराकरण करना पड़ेगा। जैसे, चोट लग गई। दुर्घटनाग्रस्त हो गए और पैर टूट गया। या तो जिंदगी भर लंगड़ा के चलिए या हड्डी के डॉक्टर को दिखाइए और वह हड्डी ठीक करें जिससे कि हम पूर्ववत चल सकें। अधिकांश भारतीय भाषाएं भाषाई उपनिवेशवाद की दुर्घटना का शिकार हुई हैं, क्षतिग्रस्त हुई हैं और एक तरह से वे दोषपूर्ण हो गई हैं। उस दोष को निर्दोष में बदलना भाषा वैज्ञानिकों का काम है। साहित्यकारों का काम है समाज का काम है।
एक चौथी बात है। यह बहुत दुखद बात है लेकिन हर भाषा के अंदर एक प्रवृत्ति होती है, भाषा का साम्राज्य होता है। या तो भाषा साम्राज्यवाद की वाहक है या साम्राज्यवाद की शिकार। मैंने बताया कि हिंदी को हम लोग अंग्रेजी की तुलना में साम्राज्यवाद का शिकार पाए हैं लेकिन जाने अनजाने हिंदी का भी अपना एक साम्राज्यवाद है जो मुंडारी को मालूम होता है, भोजपुरी को मालूम होता है, पहाड़ी को मालूम होता है, हरियाणवी को मालूम होता है। मैं तो ठीक ही बोल रहा हूं लेकिन तुम जो बोल रहे हो वह मजाक की भाषा है। हरियाणवी के आजकल सोशल मीडिया पर चुटुकले आते हैं। वह हरियाणवी बोलना शुरू किया और हमने हंसना शुरू किया। हम तो भाई बनारस के हिंदी वाले हैं। हमारी हिंदी तो प्रमाणिक है_रामचंद्र शुक्ल, शिवप्रसाद सिंह, बच्चन सिंह की हिंदी है। उनको तो यह सौभाग्य नहीं मिला ही नहीं। आपका यह दुर्भाग्य है कि भाषा की विविधता का अंदाज नहीं है आपको। नहीं मालूम है कि हरियाणवी की एक अलग कलम है एक अलग भाषा है।
भाषा के साम्राज्यवाद के दो पक्ष हैं: या तो हमारी भाषा साम्राज्यवाद का शिकार हुई है, जैसे कि हिंदी में अनुवाद की जो समस्या है, वह अंग्रेजी भाषा साम्राज्यवाद की दी हुई समस्या है। उसका पाठक ही नहीं है, और उसका लेखक कहां का है। गंगा सहाय जी ने कहा कि हम एक रिपोर्ट बना रहे थे और इसका हिंदी में अनुवाद करना चाहते थे। हिंदी के अनुवाद के बाजार में कई रेट थे—काम चलाऊ ₹50 प्रति पन्ना और अच्छा अनुवाद ₹250 प्रति पन्ना। उन्होंने काम चलाऊ से काम चला लिया। पहले छापने की कोई इच्छा नहीं थी—क्या जरूरत है हिंदी में छापने की? आपको जरूरत नहीं है, हमें जरूरत है; हम इसके सदस्य हैं। हमारी बात का कुछ वजन है। हमने कहा कि आपको बजट बढ़ाना पड़ेगा, लेकिन बजट पहले से था ही नहीं। इसलिए भाषा का साम्राज्यवाद हिंदी में अनुवाद के भविष्य को तब तक परछाई में रखेगा, जब तक हम इसके बारे में सजग नहीं हो जाते। सजग होने का मतलब अंग्रेजी को हटाना या उसका बहिष्कार करना नहीं है, बल्कि अंग्रेजी के कारण जो अवरोध हुआ है, जैसे घर में लड़के और लड़की के बीच का फर्क, उसे समझना है। लड़की पढ़ाई में अधिक तेज होती है, लेकिन बुढ़ापे का सहारा लड़का होता है। इसलिए प्राइवेट इंस्टीट्यूशनों में फीस देकर लड़के को मेडिकल और इंजीनियरिंग पढ़ाया जाता है, जबकि लड़की को कहा जाता है कि वह होम साइंस पढ़ ले या संभव हो तो हिंदी या समाजशास्त्र कर ले, क्योंकि उसकी तो शादी करनी है।
यह भेदभाव समाज द्वारा होता है, वह भाषा के साम्राज्यवाद के कारण भी होता है। एक कामचलाऊ भाषा को सत्ताधारी वर्ग द्वारा हमेशा प्राथमिकता दी जाती है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी हमेशा से सत्ता की भाषा नहीं रही। अंग्रेजों के राजवंशों में, जो आपस में बोलचाल की भाषा थी, वह अंग्रेज़ी नहीं थी। आज भारत के उच्च वर्ग में आपसी संवाद की भाषा अंग्रेज़ी है। "माय डियर, हाउ आर यू, आई लव यू, यू लव मी" जैसे वाक्य सुनाई देते हैं। यदि कोई हिंदी, बंगाली या तमिल में बोले, तो उसे भाषावादी या पिछड़ा समझा जाता है।
फ्रांस में भी कभी फ्रेंच विशिष्ट वर्ग की भाषा थी, लेकिन लंदन के अभिजात वर्ग में फ्रेंच बोला जाता था, जो कुलीन वर्ग की भाषा थी। भारत के कुलीन वर्ग में आजकल अंग्रेज़ी है, लेकिन यह हमेशा नहीं रहेगी; कभी यह फ्रेंच थी। दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान के समय फ्रेंच और फारसी भाषाएँ प्रचलित थीं। अंग्रेजों के आने से पहले फारसी की स्थिति में गिरावट आई। बाहर से पढ़कर आने वाले संस्कृत पढ़ने वाले बेरोजगार रहने लगे। "पढ़े फारसी, बेचे तेल" यह मुहावरा बन गया।
बुद्ध की भाषा संस्कृत नहीं, बल्कि पाली थी। आज पाली का अध्ययन करने वाले बहुत कम लोग हैं। यूपीएससी की परीक्षाओं में अगर अंक लाने हैं, तो पाली का परिचय ले लीजिए; एक छोटा सा पर्चा है और ढेर सारा अंक मिल जाएगा।
इस तरह की विकृतियाँ भाषा के समाजशास्त्र का परिणाम हैं। ये चार बातें अनुवाद की चुनौतियों के संदर्भ में हैं, और यह हर विधा—साहित्य, इतिहास, अर्थशास्त्र, और समाज विज्ञान—में मौजूद हैं।
पहली बात: समाज विज्ञान में मेरी जानकारी मुख्यतः राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र, और थोड़ी बहुत इतिहास पर आधारित है। समाज विज्ञान में विमर्श की एक बड़ी समस्या है। एक विमर्श चलता है, फिर वह चुनौती पाता है और नया विमर्श शुरू हो जाता है। हमारे यहाँ कई उपागम, कई माध्यम, और कई विधियाँ एक ही सत्य को उद्घाटित करने के लिए अपनाई जाती हैं। इसलिए जो प्रभुत्व वाला विमर्श पक्ष है, उसकी किताबें तो लोकप्रिय होती हैं, लेकिन जब तक उनका अनुवाद होता है—10 साल, 12 साल, 15 साल—तब तक विमर्श बदल चुका होता है। 60 के दशक में मार्क्सवाद का बहुत आकर्षण था, और इसी दौरान मार्क्स की किताबों का अनुवाद शुरू हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय का अनुवाद विभाग 70-80 के दशक में अच्छी किताबें प्रकाशित कर रहा था। लेकिन जब तक वे किताबें बाजार में आईं, तब तक मार्क्सवाद का आकर्षण कम हो गया। अब कोई उन्हें पढ़ता नहीं है।
मार्क्सवादी विचारधारा भी बदल गई है, जैसे बंगाल में। आधे लोग तृणमूल में चले गए और आधे हिंदुत्व की ओर। इसके अलावा, समाजशास्त्री C. Wright Mills ने इस विमर्श के संकट पर एक महत्वपूर्ण किताब ‘Sociological Imagination’ लिखी है। उसमें उन्होंने प्रमाणिक, शास्त्रीय भाषा और सार्वजनिक बौद्धिक द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा का उदाहरण दिया। एक पन्ने में 3-4 वाक्य होते हैं और दूसरी ओर सहज भाषा में लिखा गया होता है। आप खुद सोचिए, इनमें से कौन सी अधिक आकर्षक लगेगी? सहज भाषा वाली। इसलिए कभी-कभी पत्रकारों का लिखा विवरण अधिक लोकप्रिय हो जाता है। जैसे एक पत्रकार ने किसानों की भूख और आत्महत्या पर विवरण लिखा, जो हिंदू अखबार में छपा, जबकि कुछ लोगों की किताबें इस विषय पर इतनी भी नहीं पढ़ी जातीं। साईंनाथ की किताब "Everybody Likes a Good Drought" एयरपोर्ट से लेकर बस अड्डे तक बिकती है, और उसका हिंदी में अनुवाद भी हुआ है। इसी तरह, हमारे एक इतिहासकार ने गांधी और जाति के विमर्श पर अंग्रेजी में काम किया, लेकिन उनके प्रकाशक ने कहा कि यह बात हिंदी में आनी चाहिए, क्योंकि हिंदी क्षेत्रों में जाति का विमर्श बहुत जटिल हो गया है। इसलिए, कठिन विषयों को सरल भाषा में रखना अनुवादक की ज़िम्मेदारी होती है, और यह एक बड़ी चुनौती है।
दूसरी बात: समाज विज्ञानों में एक अलग जाति प्रबंधन है। ऊँची जाति और नीची जाति की पहचान करना कठिन है, लेकिन कुछ मान्यताएँ चल रही हैं। कुछ लोगों को मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश मिलता है, जबकि कुछ को अंदर भी नहीं जाने दिया जाता। समाज विज्ञानों में एक श्रेष्ठता और हीनता की व्यवस्था है। औपनिवेशिक देशों में प्रशासन तंत्र का महत्व है, जबकि स्वाधीनता प्राप्त देशों में अर्थशास्त्र का महत्व अधिक है। इसलिए, नीति आयोग में ज्यादातर सदस्य अर्थशास्त्री होते हैं, और अन्य विषयों का महत्व नहीं होता। जब प्रशासन में अर्थशास्त्र का महत्व नहीं है, तो समाजशास्त्र जैसे विषयों को हाशिए पर रखा जाता है। एक बार मैंने झारखंड में समाजशास्त्रियों के सम्मेलन में भाग लिया। एक मंत्री, जो खुद को शिक्षा में कमज़ोर मानते थे, ने कहा कि उन्हें अपने काम में समाजशास्त्रियों की राय की कोई जरूरत नहीं है। जब चुनाव के समय आता है, तो वे जल्दी में होते हैं, और समाजशास्त्रियों के अध्ययन का कोई उपयोग नहीं होता।
जब हम अपने अध्ययन के लिए ग्रांट देते हैं, तब तक हमारी सरकार बदल जाती है। एक हमारे जेएनयू के विद्यार्थी चुनाव आयोग में गए थे। उन्होंने देखा कि रिपोर्टें 1952 से लेकर अब तक भरी हुई थीं, लेकिन किसी ने उन्हें पढ़ा नहीं था। इससे साफ होता है कि समाज विज्ञानों का आंतरिक जाति प्रबंधन अनुवाद की प्रक्रिया को बाधित करता है। अर्थशास्त्र की किताबों का अनुवाद करना अपेक्षाकृत आसान है, लेकिन मानवशास्त्र, मनोविज्ञान, और राजनीति शास्त्र की किताबों का अनुवाद करना थोड़ा कठिन होता है। अनुवाद का अर्थशास्त्र समझना आवश्यक है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति के पास हर काम के लिए पैसा था, लेकिन अनुवाद विभाग को सशक्त करने के लिए नहीं। मैं निवेदन करता हूँ कि इस विभाग का संरक्षण करें।
तीसरी बात: समाज, शिक्षा, और समाज विज्ञान का एक त्रिकोण है। समाज विज्ञान समाज के नियमों का उद्घाटन करता है और समाज की समस्याओं और समाधान के लिए प्रतिबद्ध है। समाज विज्ञान समाज को सत्य का साक्षात्कार कराता है। अगर समाज विज्ञानी और विशेषकर इतिहासकार नहीं होते, तो हम अपनी स्त्रियों की दुर्दशा की कहानी नहीं जान पाते। अनादिकाल से लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, पार्वती जैसी देवियाँ हमारे संस्कार का हिस्सा हैं, लेकिन वास्तविकता में स्त्रियों की स्थिति पर ध्यान नहीं दिया जाता। 1974 में "समानता की ओर" शीर्षक से एक आयोग ने रिपोर्ट प्रस्तुत की, लेकिन हर साल एक नई रिपोर्ट में यह दर्ज होता है कि पिछले साल भारतीय समाज में स्त्रियों, बच्चों और बुजुर्गों पर क्या अत्याचार किए गए। इसलिए अनुवाद, समाज, शिक्षा और समाज विज्ञान का संबंध महत्वपूर्ण है।
लिप्यन्तरण- शिवानी वर्मा एवं ऋषि पाल वसुहंस
सुविख्यात समाजशास्त्री, सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर, जे.एन.यू, नई दिल्ली
anandkumar1@hotmail.com
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