अनुवाद का उत्तर अध्ययन
- श्रीनारायण समीर
भूमंडलीकरण के बाद की नई विश्व-व्यवस्था में समय के अनुरूप अपडेट बने रहने के लिए अनुवाद हमारीजरूरत है। इस जरूरत का संरचना और सरोकार की दृष्टि से अध्ययन बड़ा दिलचस्प हो गया है। इसी अध्ययन में इसकी पारंपरिकता तथा आधुनिकता की गांठें खुलती हैं। तब जबकि कोई भी दो भाषाएँ शब्द, अर्थ, संरचना तथा जातीय एवं सांस्कृतिक अभिलक्षणों की अभिव्यक्ति के मामले में एक समान नहीं होतीं; अनुवाद से उम्मीद की जाती है कि वह मूल के समान हो। यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि आदमी ने अनुवाद का विकास किया और अनुवाद ने आदमी का। इस विकास की परिणति अनुवाद में राजनीति की घुसपैठ के रूप में हुई।
सूचना क्रांति के बाद के विश्व ग्राम में और महाशक्तियों के सत्ता संतुलन की कश्मकश में तथा कॉर्पोरेट पूँजी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मांग को पूरा करने में अनुवाद में राजनीति और राजनीति में अनुवाद की जिस तरह से पैठ बढ़ी है, उसने अनुवाद की पारंपरिक धारणा को पूरी तरह से बदल दिया है। अनुवाद अब ‘कथन का पुनर्कथन’ होने से बहुत आगे निकल चुका है। भूमंडलीकरण के बाद उभरे विश्व बाजार ने अपने व्यावसायिक हित में विज्ञापनों का जिस तरह से इस्तेमाल शुरू किया है, उसके असर से अनुवाद भी अछूता नहीं है। तथापि इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि परंपरावादी, कट्टर एवं बंद समाजों में, जहाँ आमतौर पर नए विचारों का प्रवेश वर्जित है; अनुवाद बदलाव की बयार होता है। अनुवाद अगर नहीं होता तो युद्ध की विभीषिका झेल रहे बहुभाषी दुनिया के देशों में शांति और सद्भाव स्थापित करना कठिन होता। भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में पिछड़े और विकासशील देशों को बाजार के गुर सीखने में एवं बाजार का लाभ उठाने में एक समर्थ संसाधन के रूप में अनुवाद की भूमिका को कोई कैसे नकार सकता है! आज के समय में मशीन अनुवाद के हकीकत बनने और उसकी दुनिया भर में मांग बढ़ने से अनुवाद की महत्ता एवं अपरिहार्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। अनुवाद की यह उत्तर कथा है, जिसमें प्रोद्योगिकी, पूँजी तथा बाजार के खेल नित नये-नये पैंतरों के साथ खेले जा रहे हैं। पूँजी के इस खुल्लमखुल्ला खेल के प्रति चौकन्ना रहने की सख्त जरूरत है और इसी जरूरत के तहत अनुवाद का उत्तर अध्ययन अपेक्षित है।
अनुवाद का उत्तर अध्ययन किसी भाषिक पाठ को दूसरी भाषा में फिर से रचने के क्रम में दो भाषाओं में शब्दगत एवं संरचनागत समानता तथा विच्छिनता मात्र का अध्ययन नहीं है। यह भाषाओं की आपसी भिन्नता के चलते कथन और पुनर्कथन में अंतर का अध्ययन भी है। यह मूल पाठ से अनूदित पाठ में अर्थ तथा अभिप्राय की समानता और उससे प्रस्थान का अध्ययन भी है। साथ ही यह अनुसृजन के शिल्प में अनुवादकर्ता के भाषा - व्यवहार के कला - कौशल का अध्ययन भी है। पुनरपि अनुवाद का उत्तर अध्ययन पाठ के स्रोत भाषा के बंधन से मुक्त होकर अन्यान्य भाषाओं में व्यक्त होने के सर्जनात्मक उद्यम का अध्ययन भी है। अनुवाद का इस तरह से अध्ययन करना निश्चय ही उसे कथन और पुनर्कथन में सीमित करने वाली रूढ़ धारणा से मुक्त करना है और भूमंडलीकरण के जमाने में उसकी अपरिहार्यता एवं व्यापक संवादी भूमिका पर विचार करना है।
अनुवाद वस्तुतः व्यवहार-कर्म है। स्वभावतः इसका शास्त्र भी व्यवहार प्रधान है। दूसरे विषयों की तरह अनुवाद केवल विवेचन, विश्लेषण और प्रयोग पर आधारित होने से नहीं होता है। अनुवाद में एक भाषा के कथन का दूसरी भाषा में अंतरण करते समय कथन के अर्थ और अभिप्राय का तथा उसकी संरचना के शिल्प का हूबहू रूपांतरण कठिन होता है। ऐसा भाषाओं के भिन्न स्वभाव तथा उनके बीच पाये जाने वाले शब्दगत, अर्थगत, संरचनागत और शैलीगत अंतर के कारण होता है। बावजूद इसके, अनुवाद होता है, किया जाता है तथा पाठक की कामना होती है कि अनुवाद को इतना स्वाभाविक होना चाहिए कि उसे पढ़ते हुए मूल रचना पढ़ने का सुख मिले।
अनुवाद दो भाषाओं के बीच संपन्न होने वाला अंतरभाषिक कर्म है। किसी भाषिक कथन के दूसरी भाषा में फिर से रचने का कर्म। तब जबकि कोई भी दो भाषाएँ शब्द, अर्थ, संरचना तथा जातीय एवं सांस्कृतिक अभिलक्षणों की अभिव्यक्ति के मामले में एक समान नहीं होतीं; अनुवाद से उम्मीद की जाती है कि वह मूल के समान हो। इसलिए अनुवाद को मूल के जैसा रचना बड़ी और नाजुक जवाबदेही होती है। इस जवाबदेही का निर्वाह अनुवादक को अपने ज्ञान, अनुभव और कौशल से करना होता है। उदाहरण के लिए
:- She
is a capital hand at cooking/ वह खाना बनाने में निपुण है।
अनुवाद स्वयं में कोई स्वायत्त सत्ता नहीं है। यह किसी भाषा में निबद्ध ज्ञान को दूसरे भाषा भाषियों के बीच ले जाने तथा उन्हें उससे अवगत कराने का माध्यम है। दो भाषाओं के आपसी व्यवहार और टकराव, दो भाषाओं के आदान और प्रदान तथा दो भाषाओं के समन्वय और संघर्ष का यह कर्म, किसी कथन या पाठ के अंतरण में घटित होता है। इसमें दो भाषाओं के दो छोर होते हैं, जो संरचना, अर्थ एवं अभिप्राय के मामले में मूल पाठ तथा अनूदित पाठ को एकीकृत करते हुए उन्हें एक-दूसरे का पर्याय बनाते हैं। वैसे भी, अनुवाद का मतलब है दो भाषाओं की ऊपरी भिन्नताओं की तह में जाकर मानवीय अभिव्यक्ति के समान तत्त्वों की तलाश करना तथा उनकी आवाजाही को सतह पर लाना।
कहना न होगा कि कोई भाषिक कथन, भाषा की परिधि में ध्वनियों, शब्दों और वाक्यों की अभिव्यक्ति मात्र नहीं होता। यह अनुभूति को सामूहिक बनाने का उद्यम होता है। यह निजी भावों एवं विचारों को सामाजिक बनाने का प्रस्ताव होता है। यह भाषा की व्यवस्था में ऐसा प्रयास है, जो उद्भावना में एकल होता है, मगर प्रभाव में सामूहिक। अनुवाद में किसी भाषिक कथन और उसके अभिप्राय को दूसरी भाषा में अंतरित करने के लिए अपनायी जाने वाली प्रक्रिया और प्रविधि बड़े काम की होती है ।
अनुवाद : सभ्यता संवाद :
अनुवाद को अक्सर भाषा संवाद कहा जाता है। ‘भाषा संवाद’ एक महत्त्वपूर्ण पद है। इससे भाषाओं में आपसदारी और विचारों के आदान-प्रदान का बोध होता है। मोटे तौर पर एक भाषा में प्रकट विचार को दूसरी भाषा में फिर से प्रस्तुत करना भाषा संवाद है। संवाद अपरिचय अथवा चुप्पी का प्रतिकारी होता है। संवाद में विचारों का परस्पर आदान-प्रदान होता है। संवाद दो या दो से अधिक मनुष्यों के बीच परिचय एवं पारस्परिकता से शुरू होता है। आगे चलकर यह हमारी बहुत सारी वैयक्तिक भ्रांतियों का निवारक तथा स्वस्थ मानसिकता का प्रोत्साहक बनता है। संवाद स्वभाव से सकारात्मक और प्रगतिशील होता है। हमारा संसार आज जैसा है, वैसा हर्गिज न होता, अगर संवाद न होता।
संवाद भाषा में होता है और यह चाहे भाषा से भाषा का हो या दो भाषा-भाषियों का अथवा विभिन्न भाषा-भाषी समूहों एवं सभ्यताओं के बीच, अनुवाद इसे संभव करता है। अनुवाद संरचना की दृष्टि से पारंपरिक होता है, किंतु सरोकार में यह अत्यंत आधुनिक और ज्ञान प्रसारी। किसी भाषिक ज्ञान के दूसरी भाषा में अंतरण और प्रसार के जरिए अज्ञान का अँधेरा मिटाने वाला अनुवाद असल में दो भाषा-भाषी समाजों और बृहत्तर स्तर पर दो सभ्यताओं के बीच संवाद का माध्यम है। आदमी के आदिम से आधुनिक बनने का एक ऐसा संवादी माध्यम, जिसके अस्तित्व में आने से समाज में ज्ञान का प्रकाश फैला। आदमी ने अनुवाद का विकास किया और अनुवाद ने आदमी का। अनुवाद अगर न होता तो हमारा समाज और हमारी सभ्यता का रंग-ढंग वैसा बिल्कुल न होता, जैसा आज है। अनुवाद अपने उद्भव काल से ही मानव समाज को सभ्य, सुसंस्कृत और सुविज्ञ बनाने का हेतु कर्म रहा है। इसलिए यह कहना सर्वथा उचित है कि अनुवाद अपने सरोकार एवं अभिप्राय में सभ्यता संवाद है। विख्यात विखंडनवादी भाषाविद् जैक देरिदा ने तो अनुवाद को दर्शन का उद्गम माना है । उनके अनुसार – “ The origin of philosophy is translation ”.
1 अर्थात, अनुवाद दर्शन का उद्गम है।
अनुवाद का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना कि हमारी सभ्यता का इतिहास। आदमी के आदिम से आधुनिक बनने में तथा भिन्न भाषा-भाषी समाजों, राष्ट्रीयताओं और संस्कृतियों में आपसी संवाद कायम करने में अनुवाद की भूमिका असंदिग्ध रही है। भारत में टीका या भाषा टीका का चलन था। अनुवाद का विकास बहुत बाद में हुआ। किंतु जब अनुवाद होने लगा तो वह समाज में आधुनिक चेतना के प्रसार के साथ-साथ भारतीय नवजागरण के उदय का कारण बना। इसमें अंग्रेजी भाषा की भूमिका प्रगतिकामी और प्रतिगामी दोनों तरह की रही। आधुनिक चेतना के निर्माण में अंग्रेजी का ज्ञान भारतवासियों के लिए संबल बना तो अंग्रेजों के दमन और जुल्म के प्रतिकार का सशक्त माध्यम भी। भारत में नवजागरण की चेतना के उभार के पीछे अंग्रेजी शिक्षा और अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। अंग्रेजी साहित्य के इतिहासकार एमिल लोगूइस ने भी लिखा है
:- “The ground of Renaissance became
fertile in the deep layers of
translatin.” 2 अर्थात् , “अनुवाद की गहरी परतों से नवजागरण की भूमि उर्वर हुई।”
भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी में हुए अंग्रेजी तथा यूरोपीय साहित्य के अनुवाद ने नवजागरण को सशक्त करने में उत्प्रेरक का काम किया। यह नवजागरण था, जो आगे चलकर दो संस्कृतियों और दो सभ्यताओं की टकराहट से उत्पन्न एक प्रबल रचनात्मक भावधारा बना, जिसके मूल में सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने का सत्प्रयास था तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता की आकुल आकांक्षा थी। तब से शुरू हुई अनुवाद की यात्रा अनवरत जारी है और अंग्रेजी-हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के बीच आपसी संवाद साधने में इसका कोई जोड़ नहीं। भूमंडलीकरण के बाद की नई विश्व व्यवस्था में तो समय के अनुरूप अद्यतन (अपडेट) रहने के लिए अनुवाद हमारी जरूरत बन गया है। आज के समय में मशीन अनुवाद के विकास में अचानक तेजी आने तथा इसकी दुनिया भर में मांग बढ़ने से अनुवाद की महत्ता एवं अपरिहार्यता का अनुमान लगाया जा सकता है।
अनुवाद की प्रक्रिया :
अनुवाद भाषा व्यवहार की एक सर्जनात्मक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया मूल पाठ पर अनुवादक की प्रतिक्रिया से शुरू होती है और अनुवादित पाठ की रूप रचना तक प्रभावी होती है। अनूदित पाठ को मूल पाठ के समतुल्य एक स्वायत्त पाठ के रूप में देखने का सिलसिला उत्तर-आधुनिक समय में शुरू हुआ। इससे अनुवादक की भूमिका अचानक से महत्त्वपूर्ण हो गयी। साथ ही अनुवाद की प्रक्रिया में उसके पाठ-पठन, पाठ-विश्लेषण, स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अंतरण, पुनर्गठन और पुनरीक्षण जैसे चरणों का महत्त्व और उन्हें साधने की विधि भी उद्घाटित हुई। इसी अनुवाद-प्रक्रिया के अध्ययन और विश्लेषण से भाषाओं का मशीन साधित विश्लेषण तथा वर्गीकरण शुरू हुआ और मशीन ट्रांसलेशन की शुरुआत हुई।
अनुवाद की प्रक्रिया दरअसल अनुवादक की सक्रियता और सावधानी का विवेचन होती है। अनुवादवेत्ता नाइडा, न्यू मार्क तथा भारतीय अनुवादशास्त्री भोलानाथ तिवारी एवं रवींद्रनाथ श्रीवास्तव के अनुवाद चिंतन यही प्रतिपादित करते हैं। हालांकि इन विद्वानों ने अनुवाद प्रक्रिया को अपने-अपने ढंग से समझा और व्याख्यायित किया है, इसलिए इनके विवेचन में अनुवाद की विधियों को लेकर भी भेद मिलता है। तथापि इनके विवेचन अनुवाद की प्रक्रिया का शास्त्र रचते हैं । इस शास्त्र की विशद जानकारी के लिए लेखक की पुस्तक ‘अनुवाद की प्रक्रिया, तकनीक और समस्याएँ’ (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद) का अवलोकन किया जा सकता है।
अनुवाद और राजनीति :
जिस ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उस साम्राज्य के अफसरों ने भारत पर आधिपत्य कायम करने के लिए ओछा और अमानवीय कृत्य करने से भी परहेज नहीं किया। भारतीय कला, कौशल और शिल्प का मुकाबला नहीं कर सकते थे तो शिल्पकारों तथा कारीगरों के हाथ काट दिए। हमारे परंपरागत ज्ञान, जीवन मूल्य और आस्था को पिछड़ा एवं हीन बताने के लिए अनुवाद को हथियार बनाया और साजिश के तहत भारतीय ग्रंथों के गलत अनुवाद कराए। फिर उन दोषपूर्ण अनुवादित ग्रंथों को आधार बनाकर हमारे ज्ञान, आस्था तथा महान सांस्कृतिक विरासत पर हमले करने शुरू किए। इसके पीछे उनकी यह सोची-समझी मान्यता थी कि जब तक भारतीय जनता के ज्ञान, जीवन मूल्य और आचरण पद्धति को पुरातन एवं पिछड़ा साबित नहीं किया जाएगा, भारतीय विद्या को गतानुगतिक और अप्रासंगिक नहीं बताया जाएगा तथा उसकी सांस्कृतिक विरासत को हीन एवं प्रतिगामी सिद्ध नहीं किया जाएगा, तब तक भारतीय लोक-चेतना को कुंद नहीं किया जा सकता तथा उसके मनोबल को तोड़ा नहीं जा सकता। और जब तक ऐसा नहीं होगा , भारत पर लंबे समय तक शासन करना असंभव होगा। इसके लिए अंग्रेजी हुकूमत ने भारत पर आधिपत्य कायम करते ही यहाँ की मौलिक देशी शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने का अभियान चलाया। कुख्यात ‘अंग्रेजी शिक्षा नीति’ के जनक लॉर्ड मेकाले के द्वारा 02 फरवरी, 1835 को प्रस्तुत ‘मैकाले मिनट’ में बड़े दंभ से कहा गया कि “अच्छे यूरोपीय साहित्य का अकेला शेल्फ सम्पूर्ण भारतीय और अरबी साहित्य से कहीं श्रेष्ठ है।” ‘मैकाले मिनट’ को तत्कालीन गवर्नर जेनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने 07 मार्च, 1835 को मंजूरी दी और उसके आधार पर विद्वेषपूर्ण तथा विभाजनकारी आदेश जारी किये गये।
तदनंतर भारत में अंग्रेजी सत्ता ने अभियान चलाकर प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के दोषयुक्त अनुवाद करवाए। फिर उन अनूदित ग्रंथों से मनगढ़ंत उदाहरण प्रस्तुत कर अंग्रेज भारतीय जनता के मन में हीनता के भाव भरने लगे। इससे अनुवाद की पवित्रता भंग हुई और ज्ञान के प्रसार में उसकी भूमिका संदिग्ध हो गयी। यही से अनुवाद में कुटिलता की पैठ हुई और अनुवाद की राजनीति उग्र हो उठी। अब अनुवाद भाषा संवाद न रहकर, प्रभुत्व यानी सत्ता का संवाद बन गया। इसके चलते अनुवादकों का दायित्व अचानक से बढ़ गया। अनुवाद जटिल हो चला। मूल पाठ के शब्दों के लिए अनुवादित पाठ में उपयुक्त विकल्प तय करते समय बहुत सावधान रहने की आवश्यकता होने लगी। यहाँ तक आते-आते अनूदित पाठ के अर्थ ग्रहण में मनुष्य की बुद्धि भी कुटिल हो गई। भाष्यकारों ने निर्दिष्ट उद्देश्य के लिए न मालूम कहाँ-कहाँ से तर्क जुटाए। वे व्याख्या एवं भाष्य के नाम पर पंक्तियों, पदों, शब्दों, विरामचिह्नों और उच्चारण के आरोह-अवरोह से पाठ के अर्थ एवं आशय निकालने लगे। वे अनुवाद में ऐसी-ऐसी व्यंजना डालने लगे, जिसकी कल्पना मूल सर्जक ने भी न की होगी। अवान्तर कामनाओं को पूरा करने के उद्देश्य से अपनाई गई उस पद्धति को भाष्यकार अनुवाद की अधुनातन और शास्त्रीय दृष्टि बताने लगे। अंग्रेजी सत्ता के हितार्थ हो रहे ऐसे अनुवाद कर्म से खुद अनुवाद का बहुत नुकसान हुआ। अनुवाद व्यवहार कर्म से इतर शास्त्रीय कर्म भी समझा जाने लगा। अलबत्ता इसके कुछ फायदे भी हुए। अनुवाद में व्याख्या-पद्धति का विकास हुआ और अनुवादकों के कौशल में निखार आया।
किंतु भारतीय लोक की चेतना को कुंद कर उसका मनोबल तोड़ने तथा उसे गुलाम बनाने की अंग्रेजों की कुटिल चाल में अनुवाद को हथियार बनाने की पूरे देश में और विशेषकर हिंदी विद्वत समाज में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। अनुवाद की राजनीति उग्र से उग्रतर हुई और समानांतर अनुवाद का अभियान शुरू हुआ। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, काशीप्रसाद खत्री, लाला सीताराम, श्रीधर पाठक, तोताराम वर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्याम सुंदर दास, कामता प्रसाद गुरु जैसे मनीषियों द्वारा अनूदित यूरोपीय साहित्य से परिचित होने और पश्चिम के ‘श्रेष्ठता-बोध’ को रेशा-दर-रेशा जानने का व्यापक लाभ मिला। भारतीय जन मानस में घर कर रही हीनता-बोध को मिटाने, उनके खंडित मनोबल को ऊँचा उठाने और उनमें गर्व का भाव भरने में इन मनीषियों के अनुवाद कार्यों और उनके ऐतिहासिक अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। इन अनुवाद कार्यों से हिंदी प्रदेश में बुद्धिवाद प्रबल हुआ, नवजागरण की चेतना बलवती हुई और स्वाधीनता की आकांक्षा जागृत हुई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद राष्ट्रों के भू-राजनीति समीकरण ही नहीं बदले, पूरी दुनिया बदल गयी। बदली हुई दुनिया में बहुभाषिक विश्व की कूटनीति में संवाद के लिए अनुवाद अपरिहार्य हो गया। अनुवादकों का दायित्व अचानक से बढ़ गया। अनुवाद में समानार्थी शब्दों के सही विकल्प और भाषा-संरचना के उपयुक्त फलक तय करने की सावधानी अनिवार्य हो गई।
सूचना क्रांति के बाद के विश्व ग्राम में, महाशक्तियों के सत्ता संतुलन की कश्मकश में और कॉर्पोरेट पूँजी तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मांग को पूरा करने में अनुवाद में राजनीति एवं राजनीति में अनुवाद की जिस तरह से पैठ बढ़ी है, उसने अनुवाद की पारंपरिक धारणा को पूरी तरह से बदल दिया है। भूमंडलीकरण के बाद उभरे विश्व बाजार ने अपने व्यवसायिक हित में विज्ञापन का जिस तरह से इस्तेमाल शुरू किया है, उसके असर से अनुवाद भी अछूता नहीं है। अब अनुवाद में अपेक्षा तथा आकांक्षा के अनुरूप मांग एवं पूर्ति का चलन है। फलस्वरूप इस क्षेत्र में भी पेशेवर लोगों का बोलबाला बढ़ा। यह भी एक किस्म की अनुवाद की राजनीति है। इस राजनीति में पूँजी का जलवा है।
अनुवाद स्वभाव से संवादी है। संवाद अनुवाद की अन्तःप्रेरणा शक्ति है। संवाद चाहे दो भाषा भाषियों के बीच हो अथवा अलग-अलग भाषा समाजों के बीच, माध्यम बनता है अनुवाद। इसीलिए अनुवाद को भाषा संवाद कहा जाता है। अनुवाद की आवश्यकता और महत्ता तब समझ में आती है, जब यह एकदम से अपरिचित भाषा भाषी समाजों में संवाद का हेतु बनता है। पर इस हेतु का सबसे ज्यादा फायदा वे शक्तियाँ उठा ले जाती हैं, जो सामर्थ्यवान होती हैं। अनुवाद के लिए तब विकट स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जब उसका उपयोग समाज और मानवता के हित में होने के बजाय लाभ और लोभ के लिए होने लगता है। अनुवाद में राजनीति और अनुवाद की राजनीति यहीं से शुरू होती है।
सवाल उठता है कि अनुवाद के क्षेत्र में आजकल जो व्यापक और बहुविध व्यावसायिक कार्य हो रहे हैं तथा मशीन साधित अनुवाद के लिए जो अनुसंधान-कार्य चल रहे हैं, वे क्या मात्र संयोगवश हैं या किसी मांग और पूर्ति के लिए हैं अथवा इनके पीछे किसी तरह की कोई शक्ति क्रियाशील है? अनुवाद का सुसंगत अध्ययन और अनुसंधान के कार्य अंततः दुनिया के विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा ही क्यों हो रहे हैं? क्या अनुवाद के पीछे भी पूँजी का खेल है? ‘रियल टाइम ट्रांसलेशन’ की संकल्पना और इस वास्ते अनुसंधान तथा विकास में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े पैमाने पर पूंजी-निवेश का क्या मतलब है? क्या अनुवाद और बाजार में कोई संगति है? क्या अनुवाद आजकल विचार निरपेक्ष रह गया है? क्या जन भावना को प्रभावित करने में अनुवाद को माध्यम तो नहीं बनाया जा रहा है? सूचना क्रांति और भूमंडलीकृत दुनिया में बाजार की अनुवाद में अभिरुचि बढ़ने का क्या तात्पर्य है ? ऐसे ही बहुतेरे सवाल हैं। अनुवाद पर विचार करते हुए इन सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अनुवाद को प्रायः अनुरचना कहा जाता है। अनुरचना रचना की होती है। मतलब साफ है कि अनुरचना के लिए पहले किसी रचना का होना जरूरी है। रचना के लिए संस्कृत के आचार्य रुद्रट ने प्रतिभा , कल्पना और अभ्यास को जरूरी बताया है।
रचना की ये जरूरी शर्तें केवल संस्कृत भाषा में रचना करने की नहीं ; बल्कि वैश्विक हैं और सभी भाषाओं के लिए समान रूप से लागू हैं। रचना एक कला है और भाषा में रचना यानी साहित्य-सृजन करना, दूसरी कलाओं की तुलना में अधिक श्रम तथा साधना की मांग करता है। साहित्यिक रचना अपने कथ्य, शब्द, अर्थ, लय, शैली, भाव, शिल्प, प्रयोजन और प्रासंगिकता जैसे गुणों के चलते दूसरे कला रूपों की तुलना में विशिष्ट होती है। ऐसी विशिष्ट रचना की अनुरचना करते समय अनुवादक को रचनाकार की भाव दशा में जाना पड़ता है , मूल पाठ के अर्थ और उसके अंतस् में निहित भाव को पकड़ना पड़ता है तथा कथन का सटीक अनुकथन रचने के क्रम में यथा आवश्यकता परिवर्तन और परिवर्द्धन करना पड़ता है। वैसे भी, भाषा में कथन के अंतरण की प्रक्रिया यथार्थ जगत के किसी पदार्थ को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने जैसा नहीं होता। भाषिक अभिव्यक्ति का माध्यम बदलने से कथन`में भी बदलाव आता है। ऐसा दो भाषाओं के शाब्दिक, संरचनागत तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अंतर के कारण होता है। इसलिए रचना की दूसरी भाषा में अनुरचना करते समय मूल में किंचित परिवर्तन अथवा परिवर्द्धन स्वाभाविक होता है। ऐसा अनुवाद को मूल के समान प्रभावी एवं संप्रेष्य बनाने के निमित्त होता है। जॅक देरिदा ने भी माना है कि अनुवाद मूल का परिवर्द्धन होता है। उनके अनुसार, अनुवाद एक शिशु की तरह होता है, जो बेशक प्रजनन के नियमों के अनुरूप जन्म लेता है, किंतु उसका एक अपना स्वर होता है, जो उसके जन्मदाताओं से अलग और खास होता है।
अनुवाद में परंपरागत और आधुनिक विचार का द्वंद्व :
जाहिर है, अनुवाद को लेकर परंपरागत विचार और आधुनिक विचार में बड़ा दिलचस्प द्वंद्व देखने को मिलता है। परंपरागत अनुवाद शास्त्र अनुवाद को मूल की छाया मानता है, जबकि आधुनिक अनुवाद चिंतन अनुवाद में मूल पाठ के परावर्तन (
reflection ) को अस्वीकार करता है और उसे मूल का अपवर्तन (
refraction ) कहता है। बेल्जियमी अनुवाद चिंतक आंद्रे लेफेवेरे ( एंड्रे अल्फोंस लेफिएवर ) की स्थापना है कि अनुवाद मूलतः पुनर्लेखन है और प्रत्येक पुनर्लेखन के पीछे एक निश्चित विचार क्रियाशील होता है। अनुवाद भी इतिहास , आलोचना , लेखन , संपादन आदि की तरह ही एक पुनर्लेखन है, जो अपने युग के अनुसार संचालित होता है। लेफेवेरे ने अपनी पुस्तक ‘Translation , Rewriting & The Manipulation of
Literary Fame’ में अनुवाद में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है और स्थापना दी है कि अनुवाद मूल पाठ का परावर्तन (reflection) नहीं, बल्कि मूल का अपवर्तन (refraction) होता है। “Translation is not just reflection of the original
text, but refraction ”.4
लेफेवेरे के अनुसार अपवर्तन में पदार्थ या भाव का बोध वस्तुरूप में नहीं होता, गतिशील होता है और उसकी स्थिति परिवर्तित हो जाती है। अनुवाद में भी ऐसा ही होता है। अनुवाद भाषा का कर्म है और प्रत्येक भाषा का अपना सामाजिक - सांस्कृतिक तर्क होता है, जो दूसरी भाषा से सर्वथा भिन्न होता है। इसलिए अनुवाद में मूल से विचलन संभव है। कदाचित यह भी एक तर्क रहा होगा , जिस वजह से अंग्रेज कवि - अनुवादक एडवर्ड फित्जगेरॉल्ड ने उमर खय्याम की रुबाइयों का अनुवाद करते समय काफी छूट ली और एक तरह से उनका पुनर्लेखन करना श्रेयस्कर समझा। इस प्रसंग में उनके उस मशहूर पत्र का प्रायः उल्लेख किया जाता है, जिसे उन्होंने अपने मित्र प्रोफेसर कॉवेल को लिखा था। फित्जगेरॉल्ड ने लिखा - “यह कितना विस्मयकारी है , जब मैं सोचता हूँ कि कितनी छूटें मैंने इन फारसी कवियों का अनुवाद करते हुए ली हैं : ये इतने बड़े कवि नहीं हैं कि इसका वे विरोध करें, बल्कि मैं तो सोचता हूँ, वे ऐसी मदद के इच्छुक हैं, जिससे उनकी कला सँवरती है।” 5
हालाँकि फित्जगेरॉल्ड के इस पत्र में अंग्रेज मानस एवं अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व एवं श्रेष्ठताबोध की झलक साफ-साफ दिखती है, जो किसी रंगभेद से कम नहीं है। यह रंगभेद भाषायी भी है और पिछड़े समाजों की भाषा-कला के प्रति भी। अंग्रेजी भाषा के ऐसे स्वभाव पर तंज करते हुए अंग्रेजी के ही भारतीय विद्वान डॉ हरिवंशराय बच्चन ने लिखा है - “अंग्रेजी बिना लेशमात्र कृतज्ञता अनुभव किए ‘थैंक यू’ कह सकती है। जब यह ‘सॉरी’ कहती है, तब अफसोस इसे शायद ही कहीं छूता हो। ‘आई एम अफ्रेड’ से इसका तात्पर्य बिल्कुल यह नहीं होता कि यह जरा भी डरी है और इसकी उक्ति ‘एक्सक्यूज मी’ ( यानी मुझे माफ करें ) आपके गालों पर थप्पड़ लगाने की भूमिका भी हो सकती है।”6
आशय स्पष्ट है। भाषा प्रथमतः और अंततः अभिव्यक्ति का माध्यम होती है तथा वह जिस वक्ता समाज में बोली जाती है, उसके सम्पूर्ण आचरण एवं व्यवहार को प्रतिबिंबित करती है। उपनिवेशवादी समाज की भाषा में औपचारिकता, पटुता, प्रदर्शन और धोखाधड़ी के भाव का होना स्वाभाविक है; क्योंकि भाषा के ये भाव असल में भाषा के नहीं होते, बल्कि उसके वक्ता समाज के होते हैं, जो उपनिवेशों की स्थापना तथा शासन में अचूक अस्त्र की तरह काम आते हैं। ऐसे में अनुवाद राजनीति से कैसे और कब तक बच सकता है?
वैसे, अनुवाद का कोई रचनात्मक कॉपीराइट नहीं होता कि एक कृति का एक ही अनुवाद होगा। एक कृति के कई-कई अनुवाद हो सकते हैं और होते हैं। मूल और अनुवाद में किसे कितना महत्त्व मिले और कौन-सा अनुवाद प्रतिष्ठित हो, यह सत्ता की राजनीति और विचारधारा निर्धारित करती है। अनुवाद की राजनीति और अनुवाद में राजनीति का खेल यही से शुरू होता है।
आज के दौर में सत्ता और एकाधिकारवाद की राजनीति ने अनुवाद को उसके ज्ञान प्रसारी स्वभाव से इतर उसे चयन आधारित बना दिया है। इससे कुछ बेहद जरूरी, सर्जनात्मक और वैज्ञानिक साहित्य अनुवादित होने से वंचित हो जा रहे हैं; जबकि उद्यम, प्रबंधन, पूँजी - प्रबंध, कौशल-विकास आदि से संबंधित पुस्तकों के अनुवाद से बाजार अंटे पड़े हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र में जो अनुसंधान के कार्य हो रहे हैं, उनसे संबंधित करीब ढाई लाख पृष्ठों का शोध साहित्य हर साल प्रकाशित होता है। इनमें से करीब 50 हजार पृष्ठों का तत्काल अनुवाद भारत को हर साल चाहिए, जबकि होता गिने-चुने पृष्ठों का ही है। इनमें भी अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओं में। सवाल है कि हमें जिस ज्ञान-साहित्य का अनुवाद चाहिए, वह होता नहीं है और जो नहीं चाहिए, उससे हमारा बाजार पाट दिया गया है। अनुवाद में इस तरह की कार्रवाई के स्पष्ट निहितार्थ हैं। इसे समझना होगा। इसमें पूँजी का खेल है, बाजार की दखल है और बाजार पर कब्जा करने के लिए विकसित देशों की आपसी होड़ भी है। ऐसे में अनुवाद के लिए प्राथमिकता और वरीयता का सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
यद्यपि अनुवाद की क्रिया में अनुवादकर्ता की स्वप्रेरणा और स्वांतः सुखाय का भाव महत्त्वपूर्ण होता है, तथापि आजकल अनुवाद में कतिपय अवांतर चीजें भी सक्रिय हैं। यह मांग और पूर्ति से भी प्रचालित होने लगा है और बाजार ने इसे अर्थोपार्जन का साधन भी बना दिया है। सत्ता की दखल और उसकी नीतियों एवं राजनीति के अनुकूल रचना को प्रश्रय देना अनुवाद में अब आम हो गया है। सोवियत संघ के जमाने में वहां की सत्ता द्वारा रूसी साहित्य का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद सुलभ कराने के पीछे यही प्रश्रय - भाव था। आज के बाजारवादी समय में बाजार को ताकत पहुंचाने वाली अंग्रेजी प्रबंधन की पुस्तकों के दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद एवं प्रसार में व्यापारिक पूंजी की ताकत साफ-साफ समझ में आती है। अब तो अनुवाद में इस बात पर भी गौर किया जाने लगा है कि जमाने के चलन के अनुसार किस प्रकार के साहित्य का भाषांतरण और मुद्रण फायदेमंद होगा।
अनुवाद रचना की अनुरचना होकर सफल और सिद्ध होता है। इस सिद्धि में मूल के प्रति वफादारी अनुवाद का धर्म रहा है। यही उसकी गुणवत्ता का मानक भी है। किंतु आज के दौर में अनुवाद की गुणवत्ता क्या इस बात से तय होती है कि वह मूल के प्रति कितना वफादार है ? क्या अनुवाद आजकल रचना की वैचारिकी, उसकी प्रासंगिकता और राजनीति से प्रेरित होकर नहीं हो रहे हैं ? अनुवाद की गुणवत्ता जब इस बात से निर्धारित होने लगे कि वह किस रचना की अनुरचना है तो इसके पीछे की राजनीति को जानना जरूरी हो जाता है।
अनुवाद की सामाजिकता :
साहित्य की सामाजिकता यानी सृजन की सामाजिकता की भाँति, अनुसृजन की भी सामाजिकता होती है। आप चाहे जितने अध्ययनशील हों, किंतु यदि आपने जमाने की रीति के अनुरूप चीजों का अध्ययन नहीं किया है, तो आप वैचारिक रूप से पिछड़े माने जाएंगे। आजकल साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति हाशिए का विमर्श है। हाशिए का विमर्श यानी स्त्री, दलित और आदिवासी केंद्रित रचनाओं का सृजन, अध्ययन तथा अनुशीलन। इससे नावाकिफ होना साहित्य की सामाजिकता में पिछड़ा होना है। मसलन बांग्ला कथाकार महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ और ‘हजार चौरासीवें की माँ’ एवं मराठी लेखक श्रवण कुमार लिंबाले की जीवनी ‘अक्करमासी’ यदि आपने नहीं पढ़ी है तो आप साहित्य की सामाजिकता में पिछड़े माने जाएंगे। यही बात हिंदी दलित लेखक ओम प्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ और मैत्रयी पुष्पा की स्त्री विमर्श केंद्रित कथा ‘अल्मा कबूतरी’, ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ के बारे में कही जा सकती है। हिंदी भाषा की इन चर्चित कृतियों की बात फिर कभी। किंतु साहित्य की सामाजिकता तथा अपने समय की प्रवृत्तियों से बाबस्ता होने की शर्त यदि ‘जंगल के दावेदार’ और ‘हजार चौरासीवें की माँ’ तथा ‘अक्करमासी’ का अध्ययन हो जाय तो जाहिर-सी बात है कि इन्हें पढ़ने के लिए बांग्ला एवं मराठी से इतर भाषा भाषियों को अनुवाद का सहारा लेना होगा। इन पंक्तियों के लेखक ने भी इन्हें अनुवाद के माध्यम से ही पढ़ा है।
निश्चय ही ‘जंगल के दावेदार’ और ‘हजार चौरासीवें की मां’ तथा ‘अक्करमासी’ समकालीन भारतीय कथाधारा की सशक्त एवं महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। इनकी प्रासंगिकता असंदिग्ध है। ये रचनाएँ अपनी अंतर्वस्तु एवं विमर्श के कारण हमें आज भी प्रभावित करती हैं। बिना इस तथ्य की पड़ताल किए कि इन कृतियों के अनुवाद में मूल का कितना कुछ अनूदित होने से रह गया है, हम इनके अनुवाद भी पूरी सहृदयता और उपकार भाव से पढ़ते हैं। हम इन कृतियों के अनुवाद के गुण-दोष के विषय में जरा भी नहीं सोचते, जबकि सच्चाई यह है कि इनके अनुवाद में मूल के कई अंशों का कुछ-न-कुछ छूट गया है। फिर भी इन अनुवादों के गुणावगुण या सौंदर्य पक्ष पर विचार करना हम जरूरी नहीं समझते। हमारे लिए ज्यादा जरूरी होता है अपने समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना। हमारे लिए इन मशहूर कृतियों के आधे-अधूरे अनूदित पाठ से गुजरना तथा इनकी कथावस्तु से अवगत होना ही परम संतोष का विषय होता है। क्या ऐसा अनुवाद की राजनीति के कारण नहीं होता है ?
समाज और राष्ट्र के जीवन में एक दौर ऐसा भी आता है कि जिसमें सृजन का रूप एवं उसका कलात्मक सौंदर्य बहुत मायने नहीं रखते। मायने रखते हैं जमाने का नजरिया, प्रचलित विमर्श और साहित्य की अंतर्वस्तु। अनुवाद इनसे बच नहीं पाता। उसे विमर्श आधारित रचना की अनुरचना तुरत और तत्काल करनी होती है। ऐसे में सबसे ज्यादा अनुवाद की गुणवत्ता प्रभावित होती है। फिर भी कोई सवाल उठाने की जहमत नहीं करता। अनुवाद में राजनीति ऐसे काम करती है।
अनुवाद में राजनीति हो या अनुवाद की राजनीति, आखिरकार यह होती है सत्ता की राजनीति। ज्ञान शक्ति (knowledge power) के जमाने में अनुवाद, संवाद की शक्ति का आश्रय होता है। हालाँकि यह कहना भी एक प्रकार की राजनीति है। वैसे राजनीति अनुवाद का इस्तेमाल करने में सदैव आगे रहती है, जबकि अनुवाद के द्वारा राजनीति के इस्तेमाल का उदाहरण विरले मिलता है। अनुवाद यानी अनुसृजन, सृजन से सम्बद्ध होता है; जबकि सृजन नैतिकता से बँधा होता है और वह अनुवाद में भी इसे नहीं छोड़ता। साहित्य के अनुवाद में तो मूल का रंच मात्र भी लोप पूरी अंतर्वस्तु और सौन्दर्य को नष्ट कर सकता है। इसके ठीक विपरीत राजनीति के लिए सफलता ही नैतिकता होती है। राजनीति इस बात की परवाह नहीं करती कि अनुवाद मूल के समान है अथवा मूल से भिन्न; क्योंकि वह जानती है कि अनुवाद में मूल अपने किसी नुकसान के लिए कभी झगड़ने नहीं आएगा।
लेकिन ध्यान रहे, अनुवाद का ऐसा बेजा उपयोग कॉरपोरेट पूंजी और बड़े देशों के द्वारा किया जा रहा है , जिसका लक्ष्य दुनिया में अपना दबदबा कायम करना एवं अपने उत्पादों के जरिए बाजार पर कब्जा जमाना है। निस्संदेह अनुवाद की यह उत्तर कथा है , जिसमें प्रोद्योगिकी , कॉरपोरेट पूँजी तथा बाजार के खेल नित नये-नये पैंतरे के साथ खेले जा रहे हैं। मशीनी होते जा रहे समय में मनुष्यता के हक में पूँजी के इस खुल्लमखुल्ला खेल के प्रति चौकन्ना रहने की सख्त जरूरत है।
भूमंडलीकरण के बाद की दुनिया पहले वाली नहीं रही। परंतु विकसित दुनिया की चाहतें वही की वही हैं। विकसित देशों द्वारा टेक्नोलॉजी और बाजार के बल पर विश्व बिरादरी में दबदबा कायम करने की बिसातें फिर से बिछायी जाने लगी हैं और महाशक्तियों की दुरभिसंधियाँ इतनी गहरी और कलुषित हैं कि रूस तथा यूक्रेन के बीच पिछले 32 महीने से भी अधिक समय से युद्ध जारी है। इसी तरह इजराइल और फिलिस्तीनी हमास विगत 12 महीने से एक-दूसरे पर लगातार बम एवं मिसाइलें दाग रहे हैं। तथापि टकराव को रोकने और युद्ध को खत्म कराने में कूटनीतिक संवाद या आपसी वार्ता का तरीका ही अकाट्य एवं समय सिद्ध उपाय है। तब जबकि बहुभाषी विश्व-बिरादरी में जो भी संवाद होता है, अनुवाद के माध्यम से होता है। अनुवाद आज दो भाषा-समाजों, राष्ट्रीयताओं और देशों के बीच न केवल विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है; बल्कि हमारे सामाजिक विश्वासों, सामूहिक तर्कों तथा सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के भाषांतरण के द्वारा हमारे साझा चिंतन और साभ्यतिक आचरण को व्यापक, पारदर्शी और मानवीय बनाने एवं आपस में संवाद स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहा है। यह अनुवाद की सर्वथा नई और विशिष्ट भू-राजनीतिक भूमिका है, जो उसकी अब तक की भाषायी तथा सामाजिक भूमिका से बिल्कुल अलग है। अनुवाद की इस भूमिका का उद्घाटन तथा सम्यक् विश्लेषण होना अभी बाकी है। उत्तर सत्य के खोजी दौर में, अनुवाद अपनी इस नयी भूमिका में निश्चय ही पहले से ज्यादा प्रभावी और प्रासंगिक हुआ है।
सेवानिवृत्त निदेशक, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, दिल्ली
snsamir1@gmail.com
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