“सांस्कृतिक संवेदनाओं की सरहदों को लाँघने का रचनात्मक प्रयास: ‘अनुवाद’ कार्य ही करता है”। आज किसीभी क्षेत्रा में अगर आपको रोजगार के लिए बढ़ना है तो हर कार्य में दक्षता या Perfection ‘परफेक्शन’ चाहिए। अधिकतर हम आधी-अधूरी मानसिकता के साथ रोजगार की तलाश में निकलते हैं। ऐसे में असफलता ही प्रायः हाथ लगती है। इससे तनाव भी बढ़ता है। हम लोग यह सोचकर आगे जाते हैं कि ‘Try’ (प्रयास) करते हैं...कोशिश करते हैं...हो जाएगा तो बहुत अच्छा...नहीं तो पुनः प्रयास करेंगे! यहीं से गड़बड़ शुरू होती है। अतः आप Determine होकर (लक्ष्य साधकर), कटिबद्ध होकर अपने जीवन के लिए ‘कुछ लक्ष्य’ अवश्य निर्धारित कर लीजिए। ‘कुछ लक्ष्य’ इसीलिए, क्योंकि अब ‘एक लक्ष्य’ निर्धारित कर आगे बढ़ना, खतरे से खाली नहीं है। आपको विकल्प रखने पड़ेंगे। दो-तीन-चार विकल्पों में आपको यह बोध होना आवश्यक है कि इन विकल्पों के आधार पर मैं किस लक्ष्य-प्राप्ति हेतु आगे बढ़ूँगा या बढ़ूँगी और फिर उससे किस प्रकार की नौकरी को ष्ळतंचष् (प्राप्त/लपक) कर लक्ष्य-सिद्धि होगी।
यह तो आवश्यक नहीं कि हम भाषा, साहित्य या अन्य अनुशासनों के सभी विद्यार्थी ‘Teacher’ (अध्यापक) अथवा ‘Professor’(प्रोफेसर) बन जाएँ...। हो सकता है कि हममें से कुछ लोग School Teaching अथवाCollege Teaching में चले भी जाएँ। किंतु यह लक्ष्य कठिन और चुनौतयों से भरा है तथा सफर भी लंबा है।
जो लोग विश्वविद्यालयी शिक्षण-क्षेत्रा (University Teaching Area) में जाने हेतु संघर्षरत हैं, उनमें से किसी से भी चर्चा करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि विगत कुछ वर्षों से Permanent Jobs नहीं है। यही नहीं भी, तो वहाँ तक पहुँचना बहुत कठिन कार्य है। यदि वर्तमान समय की बात करें तो अब कहीं-कहीं संविदा-पदों या अनुबंध नियुक्तियों (Contractual Services) की बात होने लगी है। कहीं अतिथि और तदर्थ पदों (Guest और Ad-hoc Services) की बात हो रही है। आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि बब तो कहीं-कहीं मात्रा Performance-based-services के आधार पर योग्य अभ्यर्थियों को नियुक्तियाँ की जा रही है। यह समस्त स्थितियाँ, यह सारा परिदृश्य इस बात का द्योतक है कि आपको केवल और केवल शिक्षण (teaching) पर निर्भर न करके, अन्य या दूसरे अनुशासनों तथा रोजगार के अवसरों की तरफ भी ध्यान देना चाहिए।
जो छात्रा (सिविल सेवा परीक्षा) Civil Services की तैयारी करते हैं और ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ व्यवस्था का अंग बनना चाहते हैं, उनको भी अगर दो-तीन अवसर, दो-तीन आयाम (Dimensions) न प्रदान किए जाएँ तो असफल होने की स्थिति में उन्हें घोर निराशा का सामना करना पड़ता है। चूँकि दो या तीन बार आपने तैयारी की, परीक्षा दी और गंभीर प्रयास (Attempt) किया परंतु कहीं-न-कहीं अटक गए। तो आपको बहुत परेशानी होती है, तनाव बढ़ जाता है कि जीवन के आठ-दस वर्ष व्यर्थ चले गए और नौकरी प्राप्त हो नहीं सकी। ऐसे में लगता है कि आपको यह थोड़ा ध्यान अवश्य रखना पड़ेगा कि कुछ चुनौतियों के लिए अपने की अवश्य तैयार कर लीजिए।
उपाधि एवं व्यावसायिक डिप्लोमा आदि प्राप्त करने के बाद का ही समय है कि नौकरी प्राप्त करना, हिन्दी के माध्यम से कठिन चुनौती नहीं हैं। केवल और केवल दृढ़-निश्चय (Determination) की आवश्यकता है। संकल्प की आवश्यकता है।
ध्यान रहे कि हिन्दी में तथा अनुवाद के क्षेत्रा में नौकरी प्राप्त करने हेतु कुछ शर्तें हैं, अर्हताएँ हैं और उनके लिए अपने को तैयार करना अत्यंत आवश्यक है। भाषा और साहित्य के अध्ययन क्षेत्रा में अब एक सबसे बड़ी चुनौती है पठनीयता की कमल। आज Readability लगातार घट रही है। हम और आप मोबाइल और कम्प्यूटर पर तो बेहद समय गुजारते हैं किंतु भाषा और साहित्य के अध्ययन में जो समय देना चाहिए, वो हम नहीं दे रहे। अब चूँकि समाज यह चाहता है कि पेशीवर नौकरी (Professiona Jobs) में जाने से पूर्व आपकी दक्षता (प्रत्येक क्षेत्रा में) का मूल्यांकन किया जाए। उसकी उचित परख या पहचान की जाए। यदि आप योग्य (Competent) है तो आज का व्यावसायिक समाज आपको इस क्षेत्रा में ‘सिर-आँखों पर’ बैठाता है। हम लोग सूर-तुलसी-कबीर आदि को पढ़ लेते हैं। संवेदनशील भी हो जाते हैं। कविताएँ और कथन भी पर्याप्त मात्रा में याद कर लेते हैं। यह ठीक है कि परीक्षा तक तो यह सारी चीजें काम आती हैं किंतु जब व्यावहारिक जीवन में हम आगे बढ़ते हैं, तो केवल और केवल साहित्यिक अध्ययन से बात नहीं बनती। साहित्यिक अध्ययन-अध्यापन से इतर क्षेत्रों में जाए बिना अब काम नहीं चलेगा! अतः भाषा और साहित्य शिक्षण के संदर्भ में भाषा-शिक्षण के चार चरण या आयाम स्मरण रखने योग्य हैं।
किसी भी भाषा पर आधिकारिक ज्ञान हेतु उस भाषा विषयक अधिक-से-अधिक पठनीयता होनी चाहिए। खूब पढ़ें। केवल उतना न पढ़ें जितना पाठ्यक्रम (Course) का हिस्सा है या कोर्स में निर्धारित है। दुःख तो इस बात का है कि अब हम उतना भी नहीं पढ़ते, जितना कोर्स में है। अब तो हम मूल पाठ भी नहीं देखते। मूल पाठ्यपुस्तकों की जगह गाइड (Help Book) से तथा कुंजियों से काम चला लेते हैं। अब तो इतनी आधुनिक संस्कृति (Advance Culture) है कि बच्चे मोबाइल फामन पर पाठ (Text) लेकर कक्षा में बैठते हैं। इसका मतलब है कि हम लघुतम मार्ग (Shortcut) अपना रहे हैं। यह अनुवाद तथा रोजगार के क्षेत्रा में एक बड़ी बाधा है क्योंकि आपने मूल-पाठ को देखा ही नहीं है तो सहायक सामग्री (Secondary Source’s) के आधार पर कैसे विषय-बोध होगा। अतः पहले पठनीयता को आदत को अपनाइए, उसे समृद्ध कीजिए।
साहित्य पढ़िए, साहित्येतर सामग्री पढ़िए...। अखबार पढ़िए। पत्रिकाएँ पढ़िए। यदि रेडियो, टेलिवीजन का उपयोग करें भी तो सोचिए कि अर्जन क्या कर रहे हैं? कमा क्या रहे हैं, उनसे? सीख क्या रहे हैं उनसे? यह उद्देश्य ध्यान में अवश्य रखना चाहिए।
दूसरा अब तो मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट, सी.डी., डी.वी.डी. और यू-ट्यूब आदि का जमाना है। अब आडियो-वीडियो का जमाना है। इससे बहुत सारी सामग्री, बहुत सी जानकारियाँ हमारे लिए अत्यंत सहायक (Helpful) साबित हुई हैं। अब तो सरकारें भी इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रही हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ‘Audio-Visuals’ (दृश्य/श्रव्य माध्यम) से हम तात्कालिक लक्ष्य का निर्धारण कर रहे हैं या फिर दूरगामी परिणामों की चिंता भी हमारे जेहन का हिस्सा है? जो भी कुछ आप देख-सुन रहे हैं। जो कुछ आप स्क्रीन पर पढ़ रहे हैं वह कितना और कैसे लाभकारी है? इसकी चिंता भी आपको करनी चाहिए।
तीसरा चरण (Component) है ‘बोलना’। भाषा अगर शुद्ध बोलनी नहीं आ रही। उसका वाचन ठीक नहीं है। उच्चारण ठीक नहीं है। हम शब्दों का वाचन भी उचित प्रकार से या मानक रूप में नहीं कर पा रहे हैं, तो रोजगार के असीम क्षेत्रा स्वयं आपसे दूर हो जाएँगे। आप मीडिया, सिनेमा, मनोरंजन इत्यादि किसी भी क्षेत्रा में यदि देखें तो ठीक उच्चारण की कमी के अभाव में आप वंचित ही रह जाएँगे। अतः इस ओर पूरी गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। क्षेत्राीयता के दबाव से, व्यक्तिगत अज्ञानता-जन्य सीमाओं से, भूल या चूक से, अमानक अध्ययन और अभ्यास की कमी से हम उच्चारण की शुद्धता पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। ‘क्या फरक पढ़ता है’, की मानसिकता से अनर्थ किया है।
आपको भाषा पढ़ने से, समाचार-पत्रा या पुस्तक पढ़ते समय उच्च स्वर में बोलने का अभ्यास करना चाहिए। आपको स्वयं सुनाई दे कि आप क्या बोल या पढ़ रहे हैं। इससे क्या होगा? इसी से उच्चारण दोष का निवारण होगा। आपको स्वयं पता चल जाएगा कि आप शब्दों का उच्चारण ठीक प्रकार से कर पा रहे हैं या नहीं...। अगर कोई समस्या है तो निरंतर अभ्यास से इसे ठीक करने का प्रयास किया जा सकता है। ‘लेखन का अभ्यास’ भाषा अर्जन का एक मुख्य तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू या चरण है। कहा जा सकता है कि काफी हद तक ‘मोबाइल’ और ‘कम्प्यूटर’ ने हमें पंगु (Paralysed) बना दिया है। अब हम स्क्रीन (Screen) पर बैठकर, की-बोर्ड (Keyboard) पर बैठकर तो कार्य करते हैं किंतु हाथ से स्वयं लिखने का प्रयास लगभग समापन की ओर है। इस कारण आपकी स्मरण-शक्ति भी प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। इसके पीछे भी एक महत्त्वपूर्ण कारण है। जब हम किसी ‘शब्द’ या ‘विषय’ को स्वयं अपने हाथ से लिखते हैं तो वह मात्रा कागज पर अंकित न होकर हमारे स्मृतिपटल पर, हमारे मनोमस्तिष्क पर भी अंकित हो जाता है। इसी कारण वह हमें बरसों स्मरण रहता है। वह स्मृति कम्प्यूटर में फीड़ हो जाता है।
मुझे याद है कि मैंने विद्यार्थी जीवन में सन् 70-80 के दशक में जो नोट्स तैयार किए थे। मैं आज भी उन्हें एक नजर देख लूँ तो वह पुनः मुझे याद हो आते हैं। अस्तु, लिखना, पढ़ना, बोलना और सुनना। यदि इन चार-चरणों पर हम अपना ध्यान केंद्रित कर इन्हें साध लें तो निश्चित ही जीवन के साथ-साथ रोजगार के क्षेत्रा में भी हमें सफलता प्राप्त होगी।
सामान्यतः हिन्दी के विद्यार्थियों के सम्मुख एक बड़ी समस्या यह है कि हमें ‘हिन्दी’ ही आती है और वह भी नितांत कम। हम स्वीकार करते हैं कि किसी भी भाषा को सीखने हेतु ‘मात्रा एक जीवन’ बहुत कम है। कोई एक व्यक्ति यह पूर्णतः नहीं कह सकता कि ‘मुझे हिन्दी पूरी तरह से या समग्रतः आती है, या हिन्दी का सब कुछ आता है। अभी भी हमें महसूस होता है कि बहुत कुछ है सीखने को, पढ़ने को। समस्त ज्ञान को अर्जित कर लेना एक जीवन में संभव नहीं है। जरूरत तो यह है कि हम शुद्ध तथा मानक लेखन पर अधिक बल दें। ‘सब चलता है’ की मानसिकता को अब उखाड़ फैंकने की आवश्यकता है। एक मानसिकता यह बन गई है कि भाषा ओर व्याकरण तथा वर्तनी अगर गलत भी हो तो क्या फर्क पड़ता है? हम यह बात भुला देते हैं कि व्यावसायिक क्षेत्रा (Pro-fessional Sector) में यह गलतियाँ बहुत बड़ा महत्त्व रखती हैं। जितनी भी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ (Multinational Companies) हैं। वह इन छोटी-छोटी अशुद्धियों को क्षम्य नहीं मानते।
आज के युग में तो ‘मीडिया’ क्षेत्रा भी मल्टीनेशनल हो गया है। आज यह क्षेत्रा मात्रा भारतीय नहीं है। इसका भी वैश्वीकरण हो चुका है। आज कामकाज या रोजगार के क्षेत्रा में एक मुहावरा प्रायः चलता है
अतः धन या पूँजी का अभाव अब नहीं है। हिन्दी-भाषी कार्यकर्ताओं को भी ‘मुँह माँगा’ पैसा दिया जाता है। बशर्ते वह यह सिद्ध कर दें कि उनसे बेहतर कोई दूसरा नहीं है। जिस समय यह आत्मविश्वास अभ्यार्थी में आ जाता है, उसकी ‘पाँचों उँगलियाँ घी में’ होती हैं।
‘कार्य-साधक ज्ञान’ आज एकाधिक भाषाओं का, दो-तीन अनुशासनों का होना अत्यंत आवश्यक है। यह अन्य अनुशासन हिन्दी के अतिरिक्त अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। आज वर्तमान युग में इनके अभाव में सफलता हासिल करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। यह अन्य अनुशासन ज्ञान के विशिष्ट क्षेत्रा ‘हिन्दी’ एवं ‘अंग्रेजी’ का अधिकारिक ज्ञान प्राप्त कर संपूर्णता को प्राप्त करने में मदद करते हैं। कितना भी कहा जाए कि अंग्रेजी हटाओ! अंग्रेजी को बाहर निकालो...। यह सब राजनीतिक दुष्चक्र (Political Agenda) बनकर रह गया है। वास्तविकता तो यह है कि इस समाज में रहना है और जीवन-यापन करना है तो अंग्रेजी का ‘कार्य-साधक-ज्ञान’ भी होना चाहिए। हम हिन्दी के विद्यार्थी हों, इसतिहास के विद्यार्थी हों या राजनीतिक शास्त्रा आदि के विद्यार्थी हों। हमें हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में आधिकारिक पकड़ बना लेने की आवश्यकता है।
अक्सर अंग्रेजी-भाषी को हिन्दी तथा हिन्दी-भाषी को अंग्रेजी नहीं आती! इस अधूरे ज्ञान से आज के युग में रोजगार की कल्पना करना महज कपोल तथा काल्पनिक यथार्थ की सृष्टि करता है। देखा तो यह भी गया कि अंग्रेजी अभ्यार्थियों को हिन्दी में एक पत्रा लिखने हेतु कह दिया जाए तो उनके ‘हाथ-पाँव’ फूलने लगते हैं। इसके विपरीत हिन्दी के अभ्यार्थियों के साथ भी लगभग यही स्थिति है।
स्थितियाँ विडंबनात्मक और विकराल रूप तब ग्रहण कर लेती हैं जब अंग्रेजी वाला अभ्यार्थी अंग्रेजी तथा हिन्दी वाला अभ्यार्थी हिन्दी भी पूर्णतः शुद्ध एवं मानक नहीं लिख पाता। स्वतंत्रा भारत में यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं है। अंग्रेजी की लंबी रेखा के सामने हमें हिन्दी की उससे भी लंबी रेखा खींचनी होगी। यह तभी संभव होगा जब हम मिलकर हिन्दी के लिए, हिन्दी में काम करेंगे। हिन्दी की बात नहीं, हिन्दी में बात करेंगे।
आज हमें कम्प्यूटर का ‘कार्य-साधक ज्ञान’ भी होना चाहिए! ऐसा इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बिना कम्प्यूटर-ज्ञान के साथ हम रोजगार के अधिकांश क्षेत्रों (अध्यापन-कार्य सहित) में सहज प्रवेश नहीं पा सकते। आज जब स्कूलों में अध्यापकों की नियुक्ति होती है तो उससे भी कम्प्यूटर-ज्ञान के संदर्भ में प्रश्न पूछे जाते हैं। यदि यह ज्ञान न भी हो. ..। ऐसे में यदि कुछ समय संकल्प के साथ प्रयत्न किए जाएँ तो निश्चित रूप से इस क्षेत्रा में ज्ञान तथा सफलता हाथ लगेगी।
यदि आप उपर्युक्त बातों पर अधिकार प्राप्त कर लें तो निश्चित ही नौकरी आपके पास होगी। आज के युग में नौकरियों की असीम बाढ़ है। बशर्तें आपके पास उचित योग्यता के साथ-साथ दक्षता और निपुणता भी हो। आज का युवा जब साक्षात्कार हेतु जाता है तो आधी-अधूरी तथा अधकचरी जानकारी के साथ जाता है। यह प्रमुख कारण भी है कि असफलता हाथ लगती है। ऐसे अयोग्य पात्रा जमाने में यह भ्रम फैलाते हैं कि ‘साहब, हालत बहुत खराब है। नौकरियाँ बिलकुल नहीं हैं। एक मानसिकता हमने यह भी बना ली है कि नौकरी तो मात्रा पहुँच/पैरवी (Approach) से मिलती हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है। यदि हम रोजगार-प्राप्त व्यक्तियों से चर्चा करें तो पता चलता है कि रोजगार क्षेत्रा में योग्यता और दक्षता का महत्त्व आज भी है।
यदि हम ‘अनुवाद’ क्षेत्रा की बात करें तो यह अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान या एप्लाइड लिंग्विस्टिक्स (Applied Lingui Stics) की एक शाखा है। भाषा-विज्ञान के अनुप्रयोग क्षेत्रा की एक शाखा है। इसमें भाषा का व्यावहारिक ज्ञान अपेक्षित है। आपने साहित्य पढ़ लिया। कविताएँ याद कर लीं। वक्तव्य-कथन (Quote Stions) याद कर लिए। मुहावरे व लोकोक्तियाँ भी स्मृति में रखकर कंठस्थ कर लीं किंतु इनका अनुप्रयोग कहाँ करेंगे, किस प्रकार करेंगे? यह बोध न हो सका। तो सब व्यर्थ है। मुहावरों का प्रयोग हम बचपन से ही करते आ रहे हैं। मौंका प्राप्त होते ही प्रयोग कर बैठते हैं। किसी के कार्य न कर पाने की स्थिति में हम बेबाकी से कह देते हैं कि ‘नाच न जाने आँगन टेढ़ा’।
अर्थात् यह व्यावहारिकता अनायास ही हमारे कौशल का अंग बन उभरकर सामने आ जाती है। यही व्यावहारिकता हमें रोजगार हेतु चाहिए।
आपके पास शब्द-संपदा यदि है तो निश्चित ही नियति भी आपका साथ देती है। वैसे भी, हमारे ‘शब्द भंडार’ (Word’s Bank) में उतने ही शब्द भंडारित रहते हैं, जितना हमने अध्ययन किया होता है। अतः अध्ययन का स्तर उच्च होना, व्यापक होना चाहिए। पाठ्यक्रम के इतर भी हमें पुस्तकें पढ़ने एवं ज्ञानार्जन करने की जरूरत है। जिस प्रकार कम्प्यूटर में जितने शब्दों का भंडारण संचित किया जाता है, उसके अतिरिक्त शब्द-खोज करने की स्थिति में वह प्रश्नचिह्न (?) दर्शाता है। ठीक यही स्थिति हमारे मनो-मस्तिष्क के साथ भी घटित होती है। जो पठन में नहीं आया। हम उसका प्रयोग नहीं करना जानते। अतः पठनीयता आवश्यंभावी है। यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि यदि ‘भाषा और साहित्य’ के माध्यम से आपको रोजगार के क्षेत्रा में प्रवेश करना है तो आपकी ज्ञान रूपी जेब भरी होनी चाहिए। आपके पास समृद्ध एवं प्रचुर मात्रा में ‘शब्दावली’ हो! उसके उचित मुहावरेदार प्रयोग (Idiomatic Use) का ज्ञान हो और फिर उचित संदर्भों में प्रयोग की समझ विद्यमान हो। सफलता तभी हाथ लगेगी। “अनुवादक की विवेकशीलता बहुत महत्त्वपूर्ण होती है और इसी विवेकशीलता पर अनुवाद की सफलता-असफलता निर्भर करती है”। इसके लिए हमें कठोर अनुशासन-बद्ध तरीके से चलने और गहन-गंभीर अध्ययन करने की आवश्यकता है। यदि आप ‘विज्ञापन’ के विशाल क्षेत्रा पर गौर करें तो वहाँ ग्लैमर भी है, पैसा भी है। साथ-ही-साथ एक आत्मतोष भी है। इस क्षेत्रा में वह व्यक्ति ही सफलता अर्जित करता है जिसका भाषा पर अधिकार है। जो अभ्यर्थी भाषा को तोड़-मोड़कर प्रयोग करना तथा उसका पल्लवन-संक्षेपण भली-भाँति करना जानता है, वह इस क्षेत्रा में बेहतर परिणाम हासिल कर सकता है। कहाँ कम शब्दों में बात करनी है। कहाँ ज्यादा शब्दों में बात करनी है। कहाँ किस शब्द के आने से प्रभाव पैदा होगा और किस शब्द के प्रयोग से प्रभाव नष्ट हो जाएगा। अगर यह ज्ञान प्राप्त हो जाए तो रोजगार तथा विज्ञापन के क्षेत्रा में असंख्य संभावनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। सटीक एवं सार्थक शब्द चयन की यह कला अभ्यास सापेक्ष है।
यदि मैं बहुराष्ट्रीय कंपनियों (Multinational Companies) में कार्यरत विज्ञापन शाखाओं की बात करूँ तो यह विज्ञापन कंपनियाँ अपनी टंग या पंच लाइन (Punch Line) अपने साथ लेकर आती हैं, मुझे वस्त्रा-धुलाई-जगत की वह पंच लाइन आज भी याद है, जिसने बहुत ख्याति अर्जित की थी ‘ढूँढ़ते रह जाओगे’। ‘दाग’ के लिए उन्होंने इसका प्रयोग किया कि उस वाशिंग पाउडर द्वारा कपड़ों को धोने से आप दाग ढूँढ़ते रह जाएँगे! अब भले ही कुछ नया नहीं इसमें, किंतु एक उपयुक्त जुमला (Appropriate Selection) अवश्य है, जो दशकों जीवित रहा। इसी प्रकार ‘ऊँचे लोग, ऊँची पसंद’।
यहाँ भी कुछ नया नहीं है, किंतु बाजार-मनोविज्ञान (Market Psychology) किस प्रकार भाषा के साथ आगे बढ़ती है। यह इसमें साफ नजर आता है। इस मनोविज्ञान को भाँप लेने के उपरांत ही किस प्रकार का विज्ञापन किस वर्ग के लिए तैयार किया जाना है। इसका बोध किया जाता है। जैसे एक उदाहरण दिया जा सकता है। टाटा (TATA) ने जिस समय के दौरान अपने वाहन बाजार में उतारे। तो इंडिका (Indica) एक महत्त्वपूर्ण कड़ी थी। एक पंच लाइन के साथ यह कार बाजार में ‘Per Car More Car’.
अब एक बड़ा प्रश्न यह है कि इसे हिन्दी में अनूदित करना हो तो कैसे किया जाए? चूँकि अंग्रेजी की पंच लाइन पर यह कार बिक तो रही है किंतु बड़े स्तर पर बिक्री हेतु तो हिन्दी मुहावरे की मुखापेक्षी ही है। हिन्दी का ग्राहक भारत में, अंग्रेजी की तुलना में बहुत अधिक है। अतः यह स्थान एवं समय की आवश्यकता है कि विज्ञापन हिन्दी में हों। ऐसे में अगर कंपनी प्रोडक्ट का सही ‘विज्ञापन-अनुवाद’ हो सका तो गाड़ियाँ धड़ाधड़ बिकेंगी। एक बार ‘इंडिगो’ के लिए तो यहाँ तक कहा गया ‘Spoil Yourself And by Indigo’. यदि इसका सही दर्शन अथवा अर्थ समझ न आए तो इसका अनुवाद कभी ठीक नहीं हो सकता। Spoil का तो अर्थ ही ‘बिगड़ा हुआ’ होता है। इसके पीछे ‘चावकि दर्शन’ है! यह दर्शन कहता है ‘Eat, Drink And Be Merry’ अर्थात्, ‘खाओ, पीओ और मौज करो’।
Spoil Yourself घिस-घिसकर जीवन क्यों जीएँ? यह दोबारा नहीं मिलने वाला। भोग लो...और भोगने के लिए समस्त सुविधाओं से संपन्न कार Indigo कार का इस्तेमाल करो। यह पूरा मनोविज्ञान (Psychology) इसके पीछे कार्यरत है।
एक कार मेटीज़ (Matiz) आई थी डायवु (Daewoo) की! यह कार बाजार में मारुति-800 की प्रतिस्पर्धा स्वरूप लाॅन्च की गई थी। यह दोनों छोटी कारें थीं तथा अपनी-अपनी पंच लाइनों के साथ आई थीं। मेटीज (Matiz) की पंच लाइन थी ‘The Big Small Car...’ इसका अनुवाद इस प्रकार किया गया
यह अनुवाद कंपनी द्वारा बेहद सराहा गया था। संभवतः कंपनी द्वारा इसका इस्तेमाल भी किया गया। इससे यदि अनुवाद भी बेहतर करने की ख्वाहिश जेहन में बनी हो, अनुवाद यह किया जा सकता है ‘छोटी कार, जगह अपार...’।
वास्तव में अनुवाद कोई भी अंतिम नहीं होता। उसमें संवर्द्धन-परिवर्द्धन की संभावना हमेशा रहती है। भाषा में मौलिक लेखन करते हुए भी यही स्थिति रहती है। इसीलिए कहते हैं कि ‘अनुवाद एक अंतहीन यात्रा’ है।
उस समय कम स्थान के अधिकतम उपयोग मैक्सिमम यूटिलाइजेशन ऑफ़ स्पेश (Maximum Utilization of Space Concept) की अवधारणा जोरों पर थी। बाजार तथा उत्पादों में इसका प्रभाव स्पष्ट नजर आता था। रेफ्रिजरेटर थे तो 165 लीटर ही किंतु अंदर Space(जगह) अधिक थी। धीरे-धीरे दीवारें भी 18 से 12 इंच तदोपरांत 9 इंच से 3 इंच तक लघु आकार में प्रयोग में लाई जाने लगीं। यह मनोविज्ञान है। यदि आपको समय और समाज के मनोविज्ञान की परख है तो निश्चित ही बाजार आपकी राह तक रहा है। यदि यह अभ्यास नहीं तो लक्ष्य प्राप्ति दूर है। अतः सदैव स्मरण रखना चाहिए।
एक पूरी दुनिया है विज्ञापन की। सफर के दौरान आपने देखा होगा किस प्रकार से विज्ञापन प्रत्येक क्षेत्रा में अपनी पैठ जमा रहा है। अनुवाद इस क्षेत्रा में रोजगार के द्वार खोलने का काम करता है किंतु सजग अनुवाद के अभाव में अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती। यात्रा के दौरान आपने देखा होगा कि लिखा होता है ‘Accident Prone Area’।तमंष् अर्थात् ‘दुर्घटना ग्रस्त क्षेत्रा’। यह भ्रष्ट अनुवाद है। यदि क्षेत्रा दुर्घटना से ग्रस्त हो ही चुका है तो फिर इसे बंद किया जाना चाहिए? कुछ जगह लिखा होता है ‘दुर्घटना संभावित क्षेत्रा’ अर्थात् यहाँ दुर्घटना होगी! आओ और दुर्घटना करो!
हमें ज्ञात होना चाहिए कि ‘संभावना’ सकारात्मक शब्द (Positive Word) है जबकि ‘दुर्घटना’ नकारात्मक शब्द (Nagative Word)। आखिर दोनों कैसे मिल सकते हैं? हमें सही भाव समझने की आवश्यकता है। अंततः हमने यह शुद्ध अनुवाद किया ‘दुर्घटना आशंकित क्षेत्रा’ अर्थात् यहाँ दुर्घटना की आशंका है इसीलिए गाड़ी सावधानी से चलाएँ। ‘आप’ और ‘हम’ ही नहीं प्रायः ‘हिन्दी-अधिकारी’ भी इस ओर ध्यान नहीं देते। उनको यह लगता है कि हमें अनुवाद कार्य करना है। तो अनुवाद कर दिया। बस...। यह एक चिंतनीय समस्या है। फिर से दक्षता, निपुणता की आवश्यकता पुष्ट होती है।
हाल ही में, केंद्रीय सरकार (Central Government) द्वारा एक बड़ा परिवर्तन अनुवादकों के लिए किया गया है। यह प्रस्ताव पास किया जा चुका है तथा जल्द ही लागू होने जा रहा है। अब ‘Junior Hindi Translator’ पदनाम हटा दिया गया है। अब इसे Junior Hindi Traulation Officer कर दिया गया है। यह जो परिवर्तन अनुवाद क्षेत्रा में आया है। यह इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि आज ‘अनुवादकों’ की सरकार को बहुत बड़े स्तर पर आवश्यकता है। अब कनिष्ठ या वरिष्ठ, ‘अनुवाद अधिकारी’ होंगे।
‘राष्ट्रीय अनुवाद मिशन’ इसका प्रमाण है। “विभिन्न मूल पाठों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाना, शब्दकोशों, विश्व कोशों का निर्माण, अनुवाद कार्य में सहायक कम्प्यूटर साॅफ्टवेयर तैयार कराना, अल्पावधि अनुवाद पाठ्यक्रम चलाना, अंगे्रजी से अन्य भारतीय भाषाओं के मध्य एक भारतीय भाषा से अन्य भारतीय भाषाओं तथा विश्व की प्रमुख भाषाओं के मध्य मशीनी अनुवाद तथा मशीनी संसाधित अनुवाद को प्रोत्साहन देना आदि राष्ट्रीय अनुवाद मिशन के प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य हैं”। हम यदि गौर करें तो पाते हैं कि सरकार इस क्षेत्रा के प्रति सजग एवं सकारात्मक रुख अपना रही है।
हिमाचल सरकार द्वारा भी अपनी संस्कृति हिन्दी में अनूदित-करा अन्य भाषा-भाषी और फिर संपूर्ण विश्व में प्रसारित करने का प्रयास अनुवाद माध्यम से किया जा रहा है।
कर्मचारी चयन आयोग (Staff Selection Commission) प्रतिवर्ष 300-400 पद अनुवादकों के लिए विज्ञापित करता है। यह आयोग 300-400 पदों में से योग्य 100-150 अभ्यार्थियों को ही नियुक्ति-प्रक्रिया में सफलता प्रदान करता है, चूँकि योग्य अनुवादकों का अभाव एक बड़ी समस्या है। कई दफा यह भी होता है कि संस्थाओं द्वारा कहा जाता है कि ‘Nobody Was found Suitable. The Post Maybe Re-advertised.
योग्य अनुवादकों की माँग है। अवसर बेहद हैं किंतु अवसरों का सही प्रयोग करने वाले बेहद कम। स्वयं भारतीय संसद (Parliament) में सैकड़ों अनुवादक कार्य कर रहे हैं। प्रतिवर्ष इन्हें अनुवादक तथा तत्काल भाषांतरकर्ता इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है। माननीय प्रधानमंत्राी, माननीय राष्ट्रपति आदि भी जब विदेश यात्रा पर अथवा अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों में जाते हैं तो तत्काल भाषांतरकर्ता (Interpreter) साथ लेकर जाते हैं। संपूर्ण संसदीय कार्यवाही (Parliamentary Proceedings) अनुवाद पर आधारित है। प्रत्येक सांसद के समक्ष डेस्क पर बटन लगे होते हैं। इस अवस्था में जब कोई अन्य भाषी सांसद अपनी माँग प्रस्तुत करता है तो अन्य भाषी सांसद उस बटन का प्रयोग कर उसका अनुवाद अपनी भाषा में सुन सकते हैं। ‘हाथ के हाथ’ आपको समग्र वक्तव्य अपनी भाषा में सुनने को मिलेगा! इसका मतलब है कि यदि हम चाहें तो हम अनुवाद के क्षेत्रा में रोजगार के तमाम अवसर प्राप्त कर सकते हैं।
अन्य क्षेत्रों पर यदि बात करें तो भारत ने ‘यात्रा एवं पर्यटन’ (Tourism) क्षेत्रा की आय का स्त्रोत पहले कभी नहीं बनाया था किंतु आज वक्त बदला है। टूरिज़्म एक बड़ा व्यावसायिक क्षेत्रा बनकर उभरा है। अब मात्रा भारतीय ही विदेशों में नहीं अपितु विदेशी-जन भी भारत में भ्रमण करने आते हैं। ऐसे में उन्हें एक अनुवादक या आशु अनुवादक (Interpreter) की बड़ी आवश्यकता होती है। यह अनुवादक उन्हें भ्रमण के दौरान उनकी भाषा में पर्यटन स्थलों का इतिहास एवं आवश्यक जानकारियाँ प्रदान करता है। इस एवज में उसे बड़ी मात्रा में पारिश्रमिक या मानदेय प्राप्त होता है।
यदि ‘हिन्दी’ के साथ-साथ आपको अपनी एक रीजनल लैंग्वेज (Regional Language) भी आती है। इसके साथ ही यदि आपने एक विदेशी भाषा (Foreign Language) भी सीख रखी है तो यह आपके लिए ‘सोने-पे-सुहागा’ है। अब आप मार्केट के लिए ‘हाॅट केक’ (Hot Cake) हैं। आपकी डिमांड (माँग) सदैव बनी रहेगी, निरंतर बढ़ती रहेगी।
भारत सरकार के अधीन कार्यरत ‘राष्ट्रीय अनुवाद मिशन’ (National Translation Mission) ने केंद्रीय हिन्दी निदेशालय ने, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग ने संपूर्ण उच्च शिक्षा (Higher Education) प्रत्येक भाषा-भाषी के अध्ययन के दायरे में पहुँचा दी है।
अब सरकारी कार्यालयों में आपको यह संवैधानिक अधिकारी (Constitutional Right) प्रदान कर दिया गया है कि कोई यह कह नहीं सकता कि आप हिन्दी में कार्य मत करो। देश की सर्वोच्च सत्ता एवं सर्वोच्च पद पर आसीन माननीय राष्ट्रपति जी द्वारा आपको यह अधिकार प्रदान किया जा चुका है। अतः “अनुवाद की उपयोगिता इस दृष्टि से भी अधिक है कि उसके आधार पर सरकारी कर्मचारी सरकारी कामकाज में प्रयोग के लिए विकसित होने वाली हिन्दी की भाषाशैली को अपनाएँ”।
अनुवाद ने हिन्दी के गौरव को और अधिक बढ़ाने का कार्य किया है। पहले अंग्रेजी ऊपर हुआ करती थी तथा हिन्दी नीचे। आज हिन्दी ऊपर है तथा अंगे्रजी नीचे। परिवर्तन धीमी गति से किंतु सार्थकता की ओर अग्रसरित अवश्य है।
सिनेमा-जगत एक बड़ा कार्य-क्षेत्रा है। यदि आपका इस बात से परिचय हो कि दुनिया में सर्वाधिक धनार्जन करने का रिकाॅर्ड किस फिल्म के नाम दर्ज है, तो वह फिल्म ‘बाहुबली’ है। क्यों? क्योंकि यह फिल्म विभिन्न भाषाओं में वाइस-ओवरिंग तथा डबिंग-कर (Multilingual Dubbing) प्रस्तुत की गई थी। एक और उदाहरण दें तो सिनेमा-जगत के दो बड़े सितारे हेमा मालिनी तथा श्रीदेवी को अभिनय के दौरान हिन्दी बोलनी नहीं आती थी किंतु अनुवाद कला ने इसे बेहद आसान बना दिया। यह कार्य अनुवादकों द्वारा पूर्ण किया जाता रहा है। इससे पता चलता है कि एक अनुवादक के तौर पर रोजगार की बहुत बड़े स्तर पर संभावनाएँ विद्यमान हैं। यही एक प्रमुख कारण भी है कि अक्सर कहा जाता है
“अनुवाद में सार्थक शब्दों के चयन का विशेष महत्त्व है”।
भाषा प्रयोग-अनुप्रयोग के प्रति उदासीनता एक प्रमुख कारण है कि हम रोजगार हेतु योग्य-पात्रा नहीं बन सके। दरअसल, हम भारतीय लोग अपनी भाषा का सम्मान नहीं करते और मानते हैं कि अंग्रेजी ‘विश्व-भाषा’ है। वास्तविकता तो यह है कि यदि गूगल पर सर्च किया जाए तो दुनिया के मात्रा 5 देशों से अधिक जगह अंग्रेजी नहीं बोली जाती। अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा-भाषी विदेशी क्षेत्रा अपनी ही भाषा पर गौरव अनुभव करते हैं अतः अपनी ही भाषा में बात भी करना पसंद करते हैं।
हिन्दी का सम्मान मात्रा दीप प्रज्ज्वलन करके नहीं होगा। यह तो हिन्दी के प्रति व्यावहारिक समर्पण भाव से होगा। जब तक हम स्वयं योगदान नहीं करेंगे तो कोई भी व्यक्ति या संसार की कोई भी शक्ति हमारी सहायता नहीं करेगी। ”जिस प्रकार किसी देश की उन्नति और वैज्ञानिक प्रगति से संपूर्ण देशवासी लाभान्वित होते हैं। उसी तरह किसी भाषा की साहित्यिक उपलब्धि से अन्य भाषा-भाषी भी परिचित होना चाहते हैं। किंतु दूसरी भाषा को नहीं जानना या ज्ञान का अभाव इसमें बाधा उत्पन्न करता है। इस अभाव को दूर करने में अनुवाद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए सेतु का कार्य करता है”।
मूल बात यह है कि हम जिस देश की रोटी खाते हैं। जिस देश का नमक खाते हैं। उस देश की भाषा का सम्मान नहीं करते। जब हम अपने देश के राष्ट्रध्वज का सम्मान कर सकते हैं। राष्ट्रीय गान का सम्मान कर सकते हैं...तो आखिर अपनी राष्ट्रभाषा का सम्मान क्यों नहीं कर सकते? यह एक बड़ा प्रश्न है।
अंग्रेजी से हम इतने आक्रांत हैं कि हम मान बैठे हैं कि पढ़े-लिखे तो तब दिखाई देंगे, जब अंग्रेजी बोलेंगे। फिर चाहे गलत ही क्यों न बोले। सारा-का-सारा कार्य ‘चोरी की अंग्रेजी से चल रहा है।’ पुरानी फाइलों से काॅपी किया पत्रा बना दिया। ड्राफ्ट बना दिया। टिप्पणी कर दी। इससे हिन्दी का नुकसान बहुत अधिक हुआ है। इस स्थिति के कारण ही मामा वरेरकर ने कहा भी था ”लेखक होना आसान है किंतु अनुवादक होना अत्यंत कठिन”।
आपको स्मरण होगा कि एक फिल्म ‘लगान’ को ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। संपूर्ण देश का मत था कि यह एक नई थीम पर आधारित फिल्म है अतः इसे पुरस्कार मिलेगा। किंतु पुरस्कार मिला नहीं। उस दौरान तत्कालीन खेल मंत्राी सुनील दत्त का साक्षात्कार टेलिविजन पर प्रसारित किया गया था। संवाददाता द्वारा प्रश्न पूछने पर कि ”सर, क्या कारण रहे कि ‘लगान’ जैसी फिल्म को ऑस्कर न मिल सका? “प्रतिउत्तर में दत्त साहब ने बेहद खेद के साथ यह बात कही थी कि ”हमारे देश के लोग अपनी भाषाओं का सम्मान नहीं करते”।
संवाददाता द्वारा पुनः इसका कारण पूछने पर उन्होंने कहा था कि इस फिल्म का जो ‘केंद्रीय विचार’ (Central Idea) था। वह अनुवाद में ठीक-ठीक सामने नहीं आ पाया। यह फिल्म जिस भाव को प्रस्तुत करना चाहती थी। ठीक वही भाव सही अनुवाद के अभाव में सामने न आ सका। उन्होंने फिल्म ‘मदर इंडिया’ के हवाले से अपनी बात कहने का प्रयास किया था कि ‘मदर इंडिया’ जब ऑस्कर के लिए नामित हुई तो इसका केंद्रीय विचार यह रखा गया कि भारतीय महिला कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी गलत बात से समझौता नहीं करेगी। भले ही इसके लिए उसे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। भले ही इसके लिए उसे अपने बेटे की जान ही क्यों न (न्याय की रक्षा हेतु) लेनी पड़े। हम यह संदेश फिल्म के माध्यम से संसार को पहुँचाना चाहते थे किंतु भारतीय नारी के चरित्रा के यह मूल्य (Values) गलत अनुवाद के कारण भ्रामक रूप में निर्णायकों तक संप्रेषित हुए। जिस कारण एक निर्णायक ने यहाँ तक कह दिया कि ‘यह भारतीय बेवकूफ महिला! यह क्यों संघर्ष कर रही है? एक धनी जमींदार इसे घर ले जाना चाहता है। इसके बच्चों का पालन-पोषण करना चाहता है...। यह क्यों नहीं चली जाती, उसके साथ?’ यह सारी-की-सारी दुर्दशा गलत भाषिक अनुवाद के कारण ही हुई थी। यह हमारी अनुवादजन्य विफलता (Failure) थी इसीलिए हम रिजेक्ट (Reject) हुए।
हमारी युवा पीढ़ी ने हमारे बच्चों के मनो-मस्तिष्क में यह बात ठूस-ठूसकर भी दी है कि अंग्रेजी के बिना गति नहीं है। अंग्रेजी अच्छी होगी तो कुछ भी संभव है। भले ही क्लर्क बन जाएँ...। ऐसा कर हमने योग्य तथा प्रतिभाशाली लोगों की प्रतिभा को भी कुंद कर दिया। जूठन या नकल-जीवी संस्कृति का निर्माण कर दिया।
भाषा और साहित्य में असीम अवसर हमारे पास हैं। उनको ‘एक्स्प्लोर’ करना हमें आना चाहिए। बहुराष्ट्रीय संस्कृति में जितने भी अभ्यर्थी विदेशों में भेजे जाते हैं अधिकांश वे लोग हैं, जिनका अनुवाद पर अधिकार है। ठीक इसी प्रकार ‘मीडिया ट्रांसलेशन’ का भी रोजगार की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। जितनी भी खबरें हम देखते हैं। वह सारी-की-सारी अन्य देशों की भाषाओं से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से हिन्दी में तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करके ही प्रसारित या प्रकाशित की जाती है। अंग्रेजी से हमारे यहाँ जब खबरें आती हैं तो यहाँ कार्यरत अनुवादक इसे अंग्रेजी से हिन्दी में तदोपरांत अन्य भाषाओं में अनूदित कर अन्य राज्यों में प्रसारित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। तो यह सारा सिलसिला अनुवाद से जुड़ा हुआ है।
मुझे याद है कि पहले ग्रीटिंग कार्ड्स अंग्रेजी में ही उपलब्ध थे किंतु अनुवाद की सुविधा के चलते आज के समय में यह हमें तमिल-तेलगु-गुजराती आदि देश की लगभग सभी भाषाओं में प्राप्य हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि अब परिदृश्य (Scenario) में बदलाव आया है। यह अनुवादकों की दृष्टि से लाभकारी है।
यदि व्यापार (Business) और अनुवाद के मेल की बात करें तो यह मानकर चलिए कि अनुवाद आपके ‘व्यापार’ को कहीं अधिक विस्तृत कर देगा। अनुवाद से धनार्जन के मार्ग खुलेंगे। एक MBA उत्तीर्ण व्यक्ति, जिसका मानदेय एक लाख रुपये है। वह आपके दरवाजे पर 10 रुपये का साबुन आपकी भाषा में बेचने आता है। क्यों? क्योंकि कंपनी का उत्पाद (Product) बेचकर उनकी पूंजी बढ़ानी है। इसके लिए समाज भाषा मनोविज्ञान की शरण लेनी पड़ती है। यह अनुवाद से भी संभव है। वह आपकी भाषा की मनोवैज्ञानिक कल्पना करने के बाद, आपका मनोविज्ञान समझकर आपके ऊपर अपना प्रभाव अंकित करता है। इसकी बकायदा ट्रेनिंग उन्हें प्रशिक्षण के दौरान प्रदान की जाती है।
अनुवाद के माध्यम से रोजगार प्राप्ति का एक बड़ा मार्ग यह भी है कि आप घर बैठे एक ‘ट्रांसलेशन एजेंसी’ आरंभ कर सकते हैं। इंटरनेट का लाभ लेकर आप कुछ बेहतर अनुवादकों के माध्यम से यह कार्य कर सकते हैं। आप विभिन्न अनुवादकों के पैनल बना ‘जापानी-हिन्दी अनुवाद’, ‘अंग्रेजी-हिन्दी अनुवाद’, ‘हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद’ आदि के माध्यम से यह कार्य कुश्लतापूर्वक कर सकते हैं। आय की दृष्टि से यह एक बेहतर विकल्प है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अनुवाद क्षेत्र (Translation - Sector) में इतना बड़ा बाजार क्षेत्रा आता है। जिसमें अनंत संभावनाएँ व्याप्त हैं। आज बैंक, बीमा कंपनी, अस्पताल, एयरपोर्ट-अथॅरिटी, एयरलाइंस, इत्यादि बिना अनुवाद कार्य के चल ही नहीं सकती। वर्तमान समय में जितने जरूरती दस्तावेज है, फिर चाहे वह पहचान-पत्र (I-Card) हो, राशन कार्ड हो अथवा आधार कार्ड हो, आज सब कुछ अनुवाद के दायरे में आता है। क्यों? क्योंकि ‘संवैधानिक प्रावधान’ (Constitutional Provision) किए गए हैं।
रोजगार हेतु खेल जगत एक रोमांचक क्षेत्रा बनकर उभरा है। खेल कमेंट्री को ही लीजिए। अब यहाँ भी ‘द्विभाषावाद’ (Bilingualism) के आधार पर अनुवादकों की माँग बढ़ी है। आप किसी भी खेल-चैनल को देख लीजिए। आपको उसका हिन्दी-संस्करण अवश्य मिल जाएगा। टेन स्पोर्ट्स (Ten Sports), स्टार स्पोर्ट्स (Star Sports) ऐसे ही चंद बड़े नाम हैं। इनके हिन्दीकरण का एक बड़ा कारण इनकी अधिकतम बिक्री के साथ जुड़ा हुआ है। इसका एक बड़ा प्रभाव ‘कौन बनेगा करोड़पति’ धारावाहिक है। इस धारावाहिक-श्रृंखला को आपने ‘ग्यारह’ (11) बार सराहा तो इसका एक बड़ा कारण ‘हिन्दी’ ही थी। ‘महाभारत’, ‘रामायण’, ‘चाणक्य’ इत्यादि धारावाहिक विभिन्न भाषाओं में प्रसारित-प्रचारित हुए। यह हिन्दी तथा अनुवाद के कारण ही संभव हो सका।
मानसिकता के धरातल पर हम सोचते बहुत कुछ हैं किंतु बोलते कम है। उसको संशोधित करते हैं। संपादित करते हैं। यह सारी प्रक्रिया (Process) अनुवाद के माध्यम से ही पूरी होती है। हमें माता-पिता के सामने, मित्रा मंडली के सम्मुख किस प्रकार शब्दों का चयन-कर, तोल-मोलकर बोलना है। यह सब अनुवाद की ही एक प्रक्रिया से होकर गुजरता है।
साहित्य के क्षेत्रा में अनुवाद की महत्ती भूमिका है। भक्त कवि तुलसीदास हो या रीति कवि सोमनाथ अनुवाद का परचम हर युग में लहराया है। हजार चुनौतियों के बावजूद “सामाजिक रुचि का पार्थक्य होने पर भी सोमनाथ ने अत्यंत सावधानी से अनुवाद किए और उनमें पूर्णतः सफलता हासिल की”। इसके समान ही गोस्वामी “तुलसीदास के अनुवादक रूप पर गंभीर शोधपरक तथा तुलनात्मक विश्लेषणात्मक कार्य की अभी बहुत ही संभावनाएँ शेष हैं”। अतः अनुवादक तथा अनुवाद कार्य प्रत्येक युग की आवश्यकता रहा है।
प्रतिवर्ष कर्मचारी चयन आयोग द्वारा लगभग 300-400 पद रिक्तियों के रूप विज्ञापित होते हैं। पहले की अपेक्षा अब बैंकों के भर्ती मंडलों (Recruitment Board) में भी इजाफा किया गया है। अब यह भर्ती मात्रा ‘एक मंडल’ द्वारा न होकर नवीन स्थापित ‘सात मंडलों’ के आधार पर की जाती हैं और लगभग प्रतिवर्ष इनके अंतर्गत 250-300 पदों पर रिक्तियाँ विज्ञापित की जाती हैं। अनुवाद, हिन्दी कम्प्यूटर ओपरेटर, हिन्दी सहायक, हिन्दी अधिकारी, राजभाषा अधिकारी, आशु अनुवादक आदि की माँग लगातार बढ़ रही है। यदि आपकी शैक्षणिक योग्यता कला निष्णांत (M.A.) है तो आप अनुवादक के आधार पर ‘हिन्दी अधिकारी’ (Hindi Officer) बनकर 60-70 हजार रुपये प्रतिमाह मानदेय से शुरुआत कर सकते हैं। यह पदोन्नति के साथ-साथ बढ़कर एक लाख-दो लाख या अधिक तक बढ़ सकती है।
”विश्व सभ्यता के विकास में अनुवाद की सराहनीय भूमिका रही है।...क्योंकि अनुवाद ही वह अकेला माध्यम है जिसकी सहायता से विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों, धर्मों एवं सामाजिक स्तरों से देश-विदेश में संवाद स्थापित हो पाता है।“9 यह एक बड़ा ‘फैक्टर’ है। क्योंकि देश के संपूर्ण ‘मंत्रालय’ (Ministry) तथा मंत्रालयों की रिपोर्ट्स अनुवाद के स्तंभ पर ही टिकी है।
अनुवाद ‘नए भारत’ की पहचान बनकर सामने आया है। “अनुवाद, वास्तव में जीवन के युद्ध को जीतने का मूल मंत्रा है। आत्मविश्वास प्रदान करने वाला शुद्ध संकल्प है”। सत्य तो यह है कि आज हम जिस युग में जी रहे हैं, वह ‘अनुवाद का युग’ है। यह जिम्मेदारियों से भरा ‘अग्निपथ’ है। यहाँ आधी-अधूरी तथा अधकचरी जानकारी से बात नहीं बनेगी। आपको सिद्ध करना होगा कि आप योग्य-पात्रा हैं। भाषा तथा अनुवाद के माध्यम से देश एवं समाज की आपसे जो भी अपेक्षाएँ हैं। उन्हें आप बतौर अनुवादक सहज रूप से पूर्ण कर सकते हैं। ऐसा कर पाने की स्थिति में निश्चित रूप से आप एक जिम्मेदार अनुवादक बन सकेंगे। फलस्वरूप रोजगार रूपी ध्येय की पूर्ति भी स्वतः ही पूर्ण होगी...।
आज अनुवाद की प्रासंगिकता और उपादेयता प्रतियोगी परीक्षाओं में, प्रवेश-परीक्षाओं में, शिक्षा और उच्चशिक्षा में, कार्यक्रमों के कुशल संयोजन में, रेडियो-टीवी के कार्यक्रमों, धारावाहिकों में, पुस्तक-प्रकाशन आदि क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। सांस्कृतिक समन्वय तथा समेकित संस्कृति के विकास-विस्तार में अनुवाद एक वरदान सिद्ध हो रहा है। विश्व को भारतीय मनीषा से, भारतीय प्रतिभा से, भारतीय कलाओं तथा कलाकारों से, साहित्य, दर्शन, अध्यात्म तथा नीतिगत मूल्यों से, भारतीय चिकित्सा पद्धतियों से, मानव संसृति की ओर उन्मुख तथा समर्पित भारतीय प्रयासों और कदमों से अवगत कराने का सशक्त एवं सरल उपाय अनुवाद ही है। विदेशी अनुवादकों द्वारा बिगाड़ी गई भारतीय छवि को बदलने, उसे उसकी सही पहचान दिलवाने का कार्य भी अनुवाद से ही संभव है। बहुभाषा-भाषी भारतीय समाज और संस्कृति की अस्मिता तथा ज्ञान-गरिमा की रक्षा, विरासत का संरक्षण, पुरानी दुर्लभ पांडुलिपियों, पुस्तकों, शोध उपलब्धियों की रक्षा-सुरक्षा भी अनुवाद से ही संभव है। नए भारत के निर्माण मे अनुवाद के इस शास्त्रा का रचनात्मक उपयोग हमें विश्व ज्ञान से जोड़ता है। हम अद्यतन एवं अधुनातन वैश्विक ज्ञान से आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही कर सकते हैं। आज देश-विदेश के अनूदित साहित्य की आवश्यकता निरंतर बढ़ रही है। पठनीयता एवं उपयोगिता बढ़ रही है। अनुवाद और कम्प्यूटर दक्षता का चोली-दामन का साथ बन रहा है। आयात-निर्यात में भी अनुवाद की रचनात्मक उपादेयता असंदिग्ध हो गई है। बस, आवश्यकता है संकल्प-बद्ध होकर, कटिबद्ध होकर अपनी योग्यता, दक्षता, और निपुणता सिद्ध करने की। भाषा, साहित्य और अनुवाद अब गेयता से, संगीत से, अभिनेयता से भी जुड़ गया है। नाटक, लीलाएँ, सिनेमा, विज्ञापन, शिक्षा, समाज-सेवा, अधिकार चेतना या बोध, नए-नए विमर्श, वैश्विक परिवर्तन और आविष्कार आदि से भी अब अनुवाद और अनुवादक ही अवगत करा रहे हैं। इस साधना-सापेक्ष, परकाय-प्रवेश की साधना से संपृक्त राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य की शक्ति को पहचानने और सशक्त बनने-बनाने की यह विद्या रोजगार के असीम अवसर प्रदान कर रही है। आप सभी का इस क्षेत्रा में स्वागत है, अभिनंदन है।
1. अनुवाद: डाॅ. पूरनचंद टंडन (संपादक), काव्यानुवाद विशेषांक-1, भारतीय अनुवाद परिषद, अप्रैल-सितंबर, 2012, संपादकीय पृष्ठ
2. काव्यानुवाद: विचार-विमर्श और स्वरूप: डाॅ. पूरनचंद टंडन (मुख्य संपादक): प्रथम संस्कार-2014, भारतीय अनुवाद परिषद, प्रिंटर्स, दिल्ली, पृ. 10 3. स्मारिका: प्रोफेसर पूरनचंद टंडन, ‘भारतीय अनुवाद परिषद्’, प्रकाशन वर्ष: 2018, अर्चना प्रिंटर्स, दिल्ली, पृ. 186
7. प्रतिष्ठित अनुवादक: डाॅ. पूरनचंद टंडन (संपादक); प्रथम संस्करण: 2012; भारतीय अनुवाद परिषद, अर्चना प्रिंटर्स, दिल्ली, पृ. 193
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