---Dr. Surya Pal
जब विज्ञान के कारण दुनिया की दूरियां सिमट गयी है और विश्वग्राम की बात उठ खड़ी हुई है, ऐसे समय में समाज के सभी क्षेत्रों में आदान-प्रदान, एक स्वाभाविक और जरूरी प्रक्रिया हो गयी है। इसी के चलते भूमंडलीकरण के दौर में अपरिचित भाषाओं में संवाद हमारे समाज की जरूरत है और अनुवाद इसी जरूरत की पूर्ति करता है।
अनुवाद कोई सतही कर्म नहीं है बल्कि एक सजग गंभीर सांस्कृतिक कर्म है, जो भूगोलों एवं भाषाओं में बंटी हुई दुनिया को गूँथता है जिसके चलते अनुवादक की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
कवि की भाषा, उसके क्षेत्रीय प्रभाव और अध्ययन की उपज होता है। अनुवादक के अपने क्षेत्रीय प्रभाव और भाषा का अपना व्याकरण है, इस तरीके से देखा जाए तो मूल और अनुवाद में विभिन्न स्तर पर वे एक-दूसरे से अलग होते हैं लेकिन फिर भी एक अनुवादक सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद की प्रक्रिया में कौन-कौन सी समस्याओं और चुनौतियों से जूझता है, यह जानकार हम उनके समाधान पर भी चिंतन-मनन कर सकेंगे। लेकिन एक नज़र हम पहले यह देखेंगे कि क्या अनुवाद स्वयं में सृजनात्मक प्रक्रिया है या नहीं ?
निश्चित तौर अनुवाद स्वयं में सृजनात्मक कार्य है। अनुवादक मूलपाठ का पुनः सृजनकर्ता है । वह मूल पाठ को ध्यान में रखकर समतुल्यता बनाने की कोशिश करता है। प्रत्येक भाषा की बनावट भिन्न होती है। अनुवादक दोनों भाषाओं की तह तक पहुँचता है जहाँ से वह वाक् सेतु का निर्माण करता है। रोलां बोर्थ प्रतीक-प्रक्रिया के दो चरण मानते हैं और ‘गुलाब के फूल’ का उदाकरण प्रस्तुत करते हैं। फूल की अभिव्यक्ति गंध, रूप-आकार रूप में होती है। ‘गुलाब का फूल’ मात्र फूल नहीं है, एक प्रेमी, प्रेम को ज़ाहिर करने के लिए प्रतीकात्मक रूप में एक-दूसरे को फूल देते हैं। ऐसे ही अन्य फूलों की भी विशेषताएँ होती है। अनुवादक सम्पूर्ण सन्दर्भ को समझता है तभी वह नये प्रयोग कर पाता है। कई बार अनुवाद मूलपाठ से भी उच्च भूमि प्राप्त कर लेता है जैसा कि उमर खैयाम की रुबाईयां समाज में उतनी प्रचलित नहीं हुई जितनी ‘हरिवंशराय बच्चन’ ने मधुशाला लिखकर ख्याति प्राप्त की। सिसको कहते हैं कि अनुवाद को सृजनात्मक कार्य के रूप में लेना होगा तभी बेहतर अनुवाद संभव हो सकेगा। “स्रोत भाषा की अभिव्यक्ति के लालित्य को अनुवाद में सुरक्षित रख पाना असंभव है। यदि शब्दशः अनुवाद किया तो वह अटपटा होगा और यदि आवश्यकता से विवश होकर पदक्रम या शब्दावली में परिवर्तन तो ऐसा प्रतीत होगा कि मैंने अनुवादक का धर्म नहीं निभाया ।”2 नाट्य प्रस्तुति-प्रक्रिया से हम सभी वाकिफ़ है। नाटककार पटकथा लिखता है अर्थात शब्दों के माध्यम से एक चित्र को उभारता है। वह प्रथम सृजनकर्ता है लेकिन वही पटकथा जब अभिनेता के हाथ में आता है तो वह शब्दों को वाचन, आंगिक और सात्विक अभिनय के माध्यम से जिंदा कर देता है, वैसे ही अनुवादक दूसरी जमीन को धारण करते हुए, कथा का नये ढंग से विस्तार करता है। डॉ. हरीश कुमार सेठी कहते हैं कि “अनुवाद स्वयं में एक सृजनात्मक प्रक्रिया है, किंतु अनुवाद की सृजन शक्ति मूल पाठ की सीमाओं में बंधी हुई होती है जिसे मूलनिष्ठा की अनिवार्यता से जोड़ दिया जाता है। इसलिए अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के होते हुए उसे मूल का ध्यान तो रखना ही पड़ता है।”3
अनुवाद ‘स्वान्तः सुखाय’ के लिए नहीं होता है जब कोई पाठक कृति से अवगत होता है तो चाहता है कि उसमें मानवीय चेतना एवं सांस्कृतिक बोध में वृद्धि हो। हमारी हजारों वर्षों की मानवीय सभ्यता का अनुभव बताता है कि सीमाओं से टकराते हुए ही हमारा कारवां यहाँ तक आ पहुंचा है। सीमाएं होना जरूरी है क्योंकि उनसे ही हमारी अनंत संभावनाओं में गति बनी रहती है। डॉ. अमरसिंह वधान कहते हैं “भारत जैसे बहुभाषी देश में एकता और अखंडता को बरकरार रखने के लिए अनुवाद की और भी अधिक आवश्यकता है। सोवियत रूस के बिखरने के बाद ऐसा लगता है कि सारा संसार एक विश्व सरकार जैसे किसी संगठन का इंतजार कर रहा है। विश्व सरकार जैसा संगठन अस्तित्व में आए अथवा न आए, पर यह एक हकीकत है कि समूचा संसार एक सार्वभौम ग्राम बनता जा रहा है।”4 अनुवाद ने पाठक की यात्रा को आसान कर दिया है, साथ ही सृजन कार्य में भारी बढ़ोतरी आयी है। सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद की पहली शर्त है, अनुवादक की कुशलता अर्थात दोनों भाषओं पर उसका समान अधिकार, दूसरी शर्त है कि जिस विषय का अनुवाद किया जा रहा हो, उस विषय में पर्याप्त जानकारी लेकिन यह आप जानते हैं कि जीवन में एक तरफ कुछ सजोने या समझने का प्रयास किया जाए तो दूसरी तरफ कुछ न कुछ छूंट जाता है इसलिए एक-एक शब्द के अर्थ और प्रयोग की जानकारी की अपेक्षा एक अनुवादक से नहीं की जा सकती है। सभी विषयों का अच्छा ज्ञाता होने के बावजूद अनुवादक या किसी व्यक्ति से पूर्णता में अपेक्षा नहीं की जा सकती है क्योंकि अनुवाद अपने आप में जटिल प्रक्रिया है।
दो अलग-अलग भाषा समुदायों के बीच विचारों का आदान-प्रदान के लिए अनुवाद मध्यस्थता का कार्य करता है। इस बात में भी सत्यता है कि सृजनात्मक साहित्य अपने आप में एक रहस्यपूर्ण प्रक्रिया का परिणाम है। सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद एक जटिल कार्य है किन्तु फिर भी अनुवादक पूरी साधना से इस कार्य में लगा है जिसके चलते ही आज विश्व की अमर कृतियां विश्व के पाठकों तक पहुँच सकी है। प्रो. पूरनचंद टंडन ‘सृजनात्मक साहित्य’ के सन्दर्भ में कहते हैं कि “एक “भिखारी” पर कविता लिखने के लिए कवि उस भिक्षुक के अनुभव से गुजरता है। इस दृष्टि से अनुवादक को दोहरे आयातित अनुभव से गुजरना होता है। अतः काव्य के अनुवाद की यात्रा दोहरे जोखिम की यात्रा है।”5 इसलिए स्पष्ट कह सकते हैं कि सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद एक अनुवादक के लिए सरल कार्य नहीं है। कविता नाद सौन्दर्य लिए होती है। कविता में लयात्मकता होती है लेकिन वहीं जब दूसरी भाषा में कविता का अनुवाद होता है तो उसकी लयात्मकता को बचाकर रखना बहुत चुनौतीपूर्ण है। अनुवाद में हम शब्दों का अनुवाद कर सकते हैं लेकिन लय और गति का रूपांतरण कैसे होगा, यह एक बड़ा प्रश्न है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि “एक तो अंग्रेजी विदेशी भाषा है। शब्द-विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका सामंजस्य नहीं, तिस पर भावपक्ष और विषय प्रसंग भी विदेशी होते हैं। शुरू से आख़िर तक सभी चीज़े अपरिचित हैं, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरम्भ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया अन्न निगलने से होता है।”6 काव्य अनुवादक दो सांस्कृतियों, दो भाषाओं, दो पृष्ठभूमियों के पुल का निर्माण करता है। इसी दोहरी भूमिका के चलते कालिदास, शेक्सपियर, टैगोर, तुलसी आदि को कलासिकी में जगह मिल पायी। अनेक विद्वान् कहते हैं कि ललित साहित्य का अनुवाद मिथ्था कल्पना है, जिसे सामान्यतः अनुवाद के रूप में ग्रहण किया जाता है, वह अनुवाद न होकर दूसरी रचना होती है। काव्यकृति के दो घटक माने जाते हैं- (1.) विषयवस्तु (2.) शैली। इन दोनों को अलग-अलग समझकर अनुवाद का प्रयास अवश्य किया जा सकता है।
जब एक अनुवादक भाषा के उस क्षेत्र में प्रवेश करता है जहाँ समाज विशेष का चिंतन, प्रतीक व्यवस्था का विस्तार संगुम्फित होता है वहीं अनुवादक अपने को असहाय पाने लगता है। साहित्य सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं को समेटे रहता है। उदाहरण के तौर पर “मैला-आँचल” जैसी कृतियाँ जिनमें सांस्कृतिक अनुभव एवं लोक जीवन की विराटता के चलते अनुवादक के सामने समस्याएं पेश करती है। डॉ. जॉनसन का कहना है कि “काव्य का अनुवाद तो हो ही नहीं सकता और किया भी गया तो मुर्खता का द्योतक है।”7 इसी मत को स्वीकारते हुए क्रोचे भी मानते हैं कि “अनुवादक अपनी रचना को मूल की समानार्थी अभिव्यक्तियों की पुनर्रचना तो बना सकता है, परन्तु यथातथ्य प्रतिरूप नहीं।”8 अनुवाद में ‘काव्य-शिल्प’ की समस्याएं देखने को मिलती है। कविता की अपनी भाषा होती है। वर्ण, लय, संगीत सब कविता में समाहित होता है। सूरदास ने ‘भगवान कृष्ण’ की लीलाओं को लेकर मधुर वात्सल्यपूर्ण चित्रण किया है लेकिन अंग्रेजी अनुवाद में आकर कविता अपाहिज नज़र आती है।
साहित्य में उपमान और प्रतीक का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है और कहा भी जाता है कि उसकी भाषा तो प्रतीकों में बात करती है अर्थात भाषा का संस्कृति से घनिष्ठ संबंध होता है और वास्तव में वह काल के अनुरूप परिवर्तित रूप में प्रयोग होती है। हिंदी में दीपक, तिलक आदि शब्द भारतीय संस्कृति की विरासत के साथ जुड़े हैं।
काव्य भाषा का आधार तत्व ‘बिम्ब’ भी है। बिम्ब के पांच प्रकार बताये गये हैं।
1. चाक्षुण या दृश्य बिम्ब
2. श्रोत या नाद-बिम्ब
3. रस्य या आस्वाद-बिम्ब
4. स्पर्श बिम्ब
5. प्राण या गंध बिम्ब।
उदाहरण के तौर पर- Rosy cheeks- गुलाबी गाल, Blue Sky- नीला आकाश, Bitter Reaction- कटु प्रतिक्रिया आदि। इसी सन्दर्भ में डॉ. कृष्णदत्त शर्मा अपनी पुस्तक ‘ड्राइडन के आलोचना सिद्धांत’ में कहते हैं कि “जिस व्यक्ति में कवि प्रतिभा के साथ-साथ मूल लेखक की भाषा और अपनी भाषा पर अधिकार नहीं है वह कविता का अनुवाद नहीं कर सकता है। हमें कवि की भाषा का ही नहीं, उसके विचार और अभिव्यक्ति के हर मोड़ की जानकारी हो, क्योंकि इन विशेषताओं से ही उसके व्यक्तित्व की पहचान बनती है जिसके आधार पर उसे अन्य लेखकों से अलग किया जा सकता है यहाँ तक पहुँच जाने के बाद हम अपने अंदर देखें, अपनी प्रतिभा को उसके अनुरूप बनाएं, उसके विचार को यदि हमारी भाषा बर्दाश्त कर सके या तो कहे या तो वहीं मोड़ दे अन्यथा उसका परिधान दे और उसके सार को परिवर्तित या नष्ट न होने दें।”12
भाषा में अलंकारों का विशेष महत्त्व है। अलंकार दो प्रकार के होते हैं- (1.) अर्थालंकार (2.) शब्दालंकार
उदाहरण- ‘He is adept in killing by Kindness- वह दया माया के द्वारा मारने में सिद्धहस्त है’
अलंकार का अनुवाद अर्थ संदर्भो तथा भाषिक-संस्कार पर निर्भर करता है इसलिए कई बार अनुवाद करना जटिल हो जाता है। हरिवंशराय बच्चन कहते हैं कि “रचनात्मक साहित्य का अनुवाद मौलिक सृजन से कठिन ही होता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि अनुवादक को एक सह्दय पाठक भी होना होता है अन्यथा वह मूल कृति के मर्म को समझ नहीं पाएगा। जिस कृति का अनुवाद किसी अनुवादक को करना चाहिए होता है पहले उसे उसको आत्मसात करना होता है। जब पाठक के रूप में वह सृजित कृति का रसास्वादन करता है और वह कृति के साथ साधारणीकरण की प्रक्रिया से गुजरता है उसके बाद ही उसका अनुवाद कार्य प्रारंभ होता है।”13
भाषा समाज का दर्पण है वहीं विद्वानों का कहना है कि भाषा ही वह मूल तत्व है जो मनुष्य और पशु को अलग करती है। हम सभी अनुभवों का संचार भाषा के माध्यम से करते हैं।
जर्मन कवि-आलोचक गेटे अनुवाद की महत्त्वता को समझते है और कहते हैं कि “अनुवाद की अपूर्णता के विषय में चाहे जो भी कहा जाए, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि अनुवाद विश्व के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और महानतम कार्यों में से एक है।”14 ये सब देखते हुए हम कह सकते हैं कि ‘सृजनात्मक साहित्य’ के अनुवाद में एक बड़ी कठिनाई भाषा की भी है। रेगिस्तान में झुलसाने वाली गर्मी में रहने वाले मनुष्यों में एक बुनियादी समानता के बावजूद जीने की प्रक्रिया में इतनी असमानताएं होंगी कि उनके बीच संवाद स्थापित करना एक चुनौती भरा काम है। एक शब्द के इतने अधिक पर्याय मिल जाते हैं कि उनका अनुवाद कैसे किया जाए ? यह भौगोलिक और सामाजिक परिवेश के रूपांतरण की समस्या है।
कलश, चरणामृत, यज्ञोपवीत जैसे शब्दों का विदेशी भाषा में अनुवाद कैसे किया जाए, यह एक बड़ी समस्या है। भीष्म-प्रतिज्ञा, मंथरा, विभीषण, महाभारत, चीर-हरण आदि अनेक प्रसंग है जिनके पीछे एक मिथकीय प्रतीकात्मकता का सामाजिक अनुभव है और दूसरे समाज की भाषा में ढालना बहुत दुष्कर कार्य है। डॉ. हरीश कुमार सेठी कहते हैं कि “जब अनुवादक दुभाषिए का काम कर रहा है। उदहारण के लिए, अंग्रेजी के एक साहित्यकार के नाम की वर्तनी है- Baodrillard । किन्तु उच्चारण के स्तर पर अनुवादक के लिए यह समस्या बन जाती है कि इस नाम की वर्तनी ‘बौड्रिलार्ड’ लिखे अथवा कुछ और। जबकि इसकी सही वर्तनी है- ‘बौद्रीआँ’। बंगला में प्रणव मुखर्जी नाम को बंगला में ‘प्रनबो मुखर्जी’ के रूप में उच्चारित किया जाता है किन्तु हिंदी में ‘प्रणव मुखर्जी’ ही लिखा और बोला जाता है। इसी प्रकार के कुछ उदाहरण हैं- Borges (बोर्खेस), Rimband (राइमबो), francios (फ्रांसुआ), Don Quixote (डॉन किहोटे) । भारतीय जनमानस के लिए Resturant (रेस्तरां), और विशेष तौर पर दिल्ली के धौला कुआँ क्षेत्र के आसपास रहने, आने-जाने वालों के लिए Benito Juharaz (बेनितो हुआरेज मार्ग) इस प्रकार के कुछ प्रचलित उदहारण है ।”15
भाषा अपने साथ स्थानगत संस्कृति को भी साथ लेकर चलती है ऐसे में जब हम एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते हैं तो कई सन्दर्भगत संस्कृति को समझने में कठिनता का सामना करना पड़ता है तब एक अनुवादक की जिम्मेदारी बनती है कि वह संदर्भगत संस्कृति को समझने पुराकथाओं से जुड़े या उससे सम्बंधित लेखन को देखें।
सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद में एक शब्द के कई पर्याय अर्थ होते हैं लेकिन वाक्यों तथा सन्दर्भ को देखते हुए सटीक शब्द कौन सा होगा ? इसके लिए अनुवादक कोश का सहारा ले सकता है।
समाधान-
भाषा के शब्दों की अपनी विशिष्ठ प्रकृति है, जैसे-
रहीम के दोहे में ‘पानी’ शब्द के तीन अर्थ है, तीनों को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। मोती के परिप्रेक्ष्य में ‘आभा’ और मानस के परिप्रेक्ष्य में ‘इज्जत’, चून के परिप्रेक्ष्य में यहाँ ‘जल’ है। इन संस्कारगत अर्थ को समझकर ही अनुवादक को अनुवाद करना चाहिए। किसी रचना का सफल होने में कथावस्तु का बहुत बड़ा हाथ होता है। कहानीकार अनेक प्रसंगों, चरित्रों, घटनाओं से रचना के मंतव्य को सामने लाता है। काव्यानुवाद में काव्य के तत्वों को पूरी सहजता से रूपांतरण करना चाहिए। आप देख सकते हैं कि किस तरीके से अनुवादक श्री यतेन्द्र कुमार ने प्रेम की कोमल भावनाओं को बारीकी से पकड़ने का सफल प्रयास किया है-
काव्यानुवाद में ‘आगत शब्द’ अर्थात विदेशी शब्द, पदबंध आदि का अनुवाद सोच- समझकर करना चाहिए। हिंदी में ऐसे बहुत से शब्दों का प्रयोग हुआ है। उदाहरण- ‘Golden Touch- सुनहले स्पर्श’, ‘Broken heart- भग्न-ह्दय’, ‘Golden Dream- स्वर्ण स्वप्न’, ‘Heavenly light- स्वर्गीय प्रकाश’, ‘Dreamy smile-स्वप्निल मुस्कान’ तथा ‘Silvery- रुपहले’ आदि।
काव्य की सफलता और प्रस्तुति को लेकर अनुवादक श्री यतेन्द्र कुमार का कहना है कि “भावानुवाद की पद्धति एक प्रकार से मूल रचना के समान्तर नवीन-सृजन है, दोनों (मूल और अनूदित) एक न होकर एक सी होती है। यह एकता भाव-सामग्री की दृष्टि से होती है। इसमें एक आशंका यह होती है कि अधिकतर मूल कवि के रचनात्मक स्वरूप का जिज्ञासु पाठक के लिए कोई अनुमान नहीं हो पाता। तथा मूल कवि की ऐसी देन से जिससे हमारी कविता की अलंकृत और अभिव्यंजना-समृद्ध हो सकती है, हम वंचित रह जाते हैं । यह सच है कि ऐसी वस्तु का बाहुल्य नहीं होता क्योंकि दोनों के समय और समाज के परिवेश भिन्न होते हैं, तो कभी ऐसे कुछ मुहावरे, बिम्ब, छंद तथा अन्यान्य उपकरण जिनमें मूल कवि के व्यक्तित्व का सार्वजनिक रूप प्रकट होता है, अवश्य अनुकूल होने चाहिए।”19 अनुवाद की भाषा सरल होनी चाहिए लेकिन अनुवाद के ही कुछ क्षेत्रों में यह लागू नहीं होता है। वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों की भाषा का अनुवाद सरल नहीं हो सकता है उसके लिए अलग से तकनीकी शब्दावली है। पर्यायवाची खोजने की कोशिश नहीं करनी चाहिए अन्यथा हास्यात्मक परिस्थितियां बन सकती है।
साहित्यिक विधाओं की भाषा जटिल नहीं होनी चाहिए जिससे पाठक बोधगम्य कर सके। एक बार में अनुवाद को देखते पर ये बिल्कुल भी नहीं लगना चाहिए कि यह अनूदित होकर एक नई भाषा में आया है। स्पष्ट तौर पर कहे तो पढ़ने में मूल का आभास होना चाहिए कि ‘शैली’ तथा ‘प्रवाह’ को यथावत रखें। जिससे पाठक के मस्तिष्क में निरंतर एक तस्वीर बनती रहे तभी उसे आनन्द आएगा। सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद में अनुवादक को अतिरंजना का भी प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, कई बार देखा गया है कि ‘अनुवादक’ मूल कृति के नामों तक परिवर्तित कर देता है। श्री जयनारायण वर्मा ‘संतोषी’ लोकोक्तियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि “लोकोक्तियों के भाषांतर में के पद-क्रम में की समस्या को सुलझाने के लिए तो भाषांतर की मूल तथा थोड़ा भाषांतरणीय लोकोक्तियों की भाषाओं के पदक्रम में थोड़ा बहुत परिवर्तन करना ही पड़ेगा क्योंकि प्रत्येक भाषा में प्रायः पद-क्रम भिन्न होता है। मान लिया जाए तो कि हिंदी-लोकोक्तियों का अंग्रेजी-लोकोक्तियों में भाषांतर करना है तो ऐसी स्थिति में पद-क्रम में जहाँ क्रिया कर्ता के तत्काल बाद आई हुई है उसे हिंदी की लोकोक्ति में तो अंत में ही मुख्य क्रिया के कृदन्त या सामाजिक क्रिया के रूप में रखना पड़ेगा क्योंकि हिंदी के व्याकरण-परिनिष्ठित साधारण वाक्य में क्रिया का स्थान वाक्य के अंत में ही होता है पर कभी-कभी इस क्रम को लोकोक्तियों में भावावेश के कारण बदल भी दिया जाए तो कोई विशेष हानि नहीं होगी।”20
लोकोक्तियों के अनुवाद में अनुवादक को शब्द चमत्कार पर बल देना चाहिए और सटीक पर्यायवाची चुनने का प्रयास करना चाहिए।
‘कविता’ कवि के मस्तिष्क की उपज होती है। वह लम्बे थॉट प्रोसेस से गुजरता है उसकी उसमें अनुभूति भी होती है लेकिन वह अनुवाद के क्षेत्र में प्रवेश करती है तो व्यक्ति तो बदलता ही है साथ में थॉट प्रोसेस अनुभूति सब दूसरे सांचे में आ जाते हैं। डॉ. रीतारानी पालीवाल कहती हैं कि “कविता के अनुवादक को बहुत नियमों में बंधने की बजाय कविता की अर्थ-लय और अनुभूति से तादात्म्यीकृत होते हुए उसका अनुवाद करना चाहिए। उसे कविता की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए अनुवाद गद्य या पद्य में करना चाहिए। इस प्रकार काव्यानुवाद असंभव कला नहीं है। हाँ, यह तलवार की धार पर चलनेवाली कठिन कला है।”21 हम कह सकते हैं कि ‘सृजनात्मक साहित्य’ का अनुवाद केवल भाषांतरण नहीं, उसमें भावांतरण बहुत जरूरी है और एकदम वह दु:साध्यत्मक प्रक्रिया है। काव्य का अनुवाद पुनः सर्जना या अनुसर्जना है। काव्य प्रतिभा से संपन्न अनुवादक मूल कृति को लेकर असाध्य साधना कर्म करता है। तभी वह एक ‘जोत’ के माध्यम से सभी को प्रकाशमान कर पाता है। डॉ. मोहसिन खान कहते हैं कि “अनुवादक को स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा परधिकार, भाषिक समाजों की संस्कृति के ज्ञान, इतिहास, लोक-कला, मिथक, परम्परा, लोक-गीत, संस्कार, दैनिक जीवन आदि से गहरे रूप से जुड़े रहना चाहिए। उसे विषय का समुचित ज्ञान होना चाहिए। उसमें रचनाशीलता, विश्लेषण क्षमता का होना जरुरी है। इसके साथ-साथ उसे विभिन्न दोषों से भी बचना चाहिए।”22 अनुवादक कोई सामान्य प्राणी नहीं है, वह समाज में सोचने और समझने की शक्ति पैदा करता है। सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद के चलते ही अन्य तमाम भाषाओं के माध्यम से हमारे ज्ञान में वृद्धि हुई है, विभिन्नता में विस्तार मिला है। डॉ. रीतारानी पालीवाल कहती हैं कि “अंग्रेजो से होने वाले अनुवादकों में उर्दूंदा भाषा का चलन रंगमंच पर काफी रहा है। पारसी रंगमंच से लेकर अब तक यह प्रवृत्ति काफी देखने को मिलती है। आधुनिक अनुवादकों में यह सुझाव ने कभी-कभी बड़े ही रोचक
अनुवाद भी प्रदान किए है जैसे अमृतराय द्वारा ‘हैमलेट’ का अनुवाद।”23
- डॉ. हरीश कुमार सेठी, अनुवाद पत्रिका (अंक- 131-132), भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली, पृष्ठ सं.-18.
- डॉ. हरीश कुमार सेठी, अनुवाद पत्रिका (अंक- 131-132), भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली, पृष्ठ सं.-3.
- सं. डॉ. नगेन्द्र, अनुवाद विज्ञान, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ सं.-2.
- डॉ. अमरसिंह वधान, डॉ. प्रमीला शुक्ल ‘किरण’, अनुवाद और संस्कृति, त्रिपाठी एंड संस, अहमदाबाद, पृष्ठ सं.-19.
- प्रो. पूरनचंद टंडन, डॉ. हरीश कुमार सेठी, अनुवाद के विविध आयाम, तक्षशिला प्रकाशन, पृष्ठ सं.-123.
- डॉ. गार्गी गुप्त, डॉ. पूरनचंद टंडन, अनुवाद बोध, भारतीय अनुवाद परिषद्, दिल्ली, पृष्ठ सं.- 281.
- श्री वाई.एन. शर्मा, श्री सुधीर कुमार, अनुवाद : सिद्धांत और प्राविधि, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, पृष्ठ सं.-60.
- वही पृष्ठ सं.-60.
- संतोष खन्ना, अनुवाद के नये परिप्रेक्ष्य,विविध भारती परिषद, पृष्ठ सं.-181.
- वही पृष्ठ सं.-181.
- डॉ. पूरनचंद टंडन, अनुवादक के गुण एवं दायित्व (लेख), भारतीय अनुवाद परिषद, पृष्ठ सं.-49.
- संतोष खन्ना, अनुवाद के नये परिप्रेक्ष्य,विविध भारती परिषद, पृष्ठ सं.-185.
- वही पृष्ठ सं.- 198.
- सं. डॉ. नगेन्द्र, अनुवाद विज्ञान, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ सं.-4.
- डॉ. हरीश कुमार सेठी,व्यतिरेकी विश्लेषण और अनुवाद (लेख),अनुवाद पत्रिका अंक-156, पृष्ठ सं.-26.
- प्रो. पूरनचंद टंडन, डॉ. हरीश कुमार सेठी, अनुवाद के विविध आयाम, तक्षशिला प्रकाशन, पृष्ठ सं.-129.
- वही पृष्ठ सं.-131.
- वही पृष्ठ सं.-131.
- वही पृष्ठ सं.-133.
- प्र.सं.- श्री मती नीता गुप्ता, अनुवाद शतक (भाग एक), भारतीय अनुवाद परिषद, पृष्ठ सं.-311.
- रीतारानी पालीवाल, अनुवाद प्रक्रिया और परिदृश्य, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ सं.-83.
- डॉ. मोहसिन खान, अनुवाद की भूमिका एवं योग्यताएं (लेख), भारतीय अनुवाद परिषद, पृष्ठ सं.-13.
- रीतारानी पालीवाल, अनुवाद प्रक्रिया और परिदृश्य, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ सं.-89
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