भारत एक बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक देश है। यहाँ जनजातियों के जातीय जीवन और उनकीजीवन पद्धतियों का अपना-अपना जीवन राग है। ‘जीवन राग’ जो अमूमन किसी भी समाज की जीवन पद्धति से निकलकर आता है। यह जीवन राग लोकगीतों, लोक कथाओं और लोक संस्कारों में बद्धमूल होता है। झारखण्ड की आदिवासी लोक संस्कृति और लोकभाषा का संसार बेहद सुरमय है। यहाँ की जीवन पद्धति का नाम ‘‘कत्थादिम डण्डी एकना दिम तोकना’’ (चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत) है। मैं जिस भाषा में जन्मी, पली-बढ़ी और आज जी रही हूँ, उस लोकभाषा का नाम कुडुख है। इसका शाब्दिक अर्थ ‘मनुष्य’ है। यह द्रविड़ परिवार की भाषा है। इस भाषा की लिपि तोलोंग सिकी है, जिसके आविष्कारक नारायण उराँव है। यह हम उराँव जनजातियों की भाषा है। हमारी इस भाषा के अपने लोकगीत हैं और उनकी अपनी गेयता भी है। यहाँ होने वाले पर्वों, उत्सवों एवं संस्कारों में इन गीतों का गाया जाना एक उत्सवधमी क्रिया के समान है। उराँव जनजाति समूह द्वारा प्रमुख रूप से करमा (भादो माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को), सरहुल (जिसको कुडुख में ‘खद्दी’ भी बोला जाता है; चैत माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को) जतरा (जेठ, अगहन व कार्तिक अमावस्या को पशुओं के सम्मान में) और फग्गु (फागु माह में) पर्व मनाए जाते हैं। इन पर्व-त्योहारों के अतिरिक्त शादी-ब्याह, जन्म-मरण से संबंधित कुडुख के कई लोकगीत सुनाई पड़ते हैं, जो कि अत्यंत ही मधुर, मनोरम एवं भाव विशेष उत्पन्न करने वाले होते हैं। अभी मेरे सामने मेरी लोकभाषा कुडुख के लोकगीत हैं। इस आलेख में मैं इन्हीं लोकगीतों के प्रमुख अंशों का हिन्दी अनुवाद करूँगी और मेरी यह कोशिश होगी कि हिन्दी में भी उनकी गेयता भंग न हो।
चूँकि ‘सरहुल’ जनजातियों का सबसे बड़ा पर्व है, इसलिए सरहुल पर्व एवं उससे संबंधित लोकगीतों से मैं अपनी बात प्रारंभ करूँगी। गीतों की ओर बढ़ने से पहले ‘सरहुल पर्व’ के विषय में कुछ बातें जान लेना अति आवश्यक है। विस्तार की अपेक्षा हम यहाँ संक्षेप में ही जानें —सरहुल वास्तव में प्रकृति संबंधी त्योहार है, जिसे फूलों के त्योहार के रूप में भी जाना जाता है। यह बसंत के मौसम में मनाया जाता है। इस पर्व में साल वृक्ष का विशेष महत्त्व है। आदिवासियों की ऐसी मान्यता है कि साल के वृक्ष में उनके आराध्य देवता बोंगा निवास करते हैं। इस पर्व में चार दिनों तक धार्मिक कार्यविधियाँ सम्पन्न होती हैं। इसमें प्रथम दिवस मछली के अभिषेक किया हुआ जल घर का छिड़का जाता है। दूसरा दिवस उपवास वाला होता है एवं गांव के पुजारी द्वारा गाँव के हर घर की छत पर साल का फूल रखा जाता है। तीसरे दिवस में पाहन अर्थात पुरोहित उपवास रखता है तथा पूजा स्थल पर सरई के फूलों (सखुए का कुंज) की पूजा करता है। इसके साथ ही बलि की गयी मुर्गी और चावल को मिलाकर सुड़ी नामक खिचड़ी बनायी जाती है, जिसे बाद में प्रसाद स्वरूप बाँटा जाता है। और, चौथे दिवस गिड़िवा नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है। इस पर्व की एक खासियत यह भी है कि परंपरा के निर्वहन के दौरान गाँव का पुजारी मिट्टी के तीन पात्रों में ताजा पानी भरता है। उसकी अगली सुबह मिट्टी के तीनों पात्रों को देखा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यदि पात्रों में पानी का स्तर घट जाए तो वह अकाल का संकेत है और यदि पानी का स्तर सामान्य है तो उत्तम वर्षा का संकेत।
सरहुल लोकगीतों की कुछ पंक्तियाँ एवं उनका मेरे द्वारा किया गया अनुवाद -
इन पंक्तियों में जंगल के फूलों की ताजगी एवं खूबसूरती का वर्णन है।
इस गीत में युवती ससुराल जाने की अपेक्षा कमाने के लिए बाहर जाने की बात करती है।
अनुवाद- ‘‘कूटने के लिए गयी तुम, लड़की
कूटने गयी टंगरा में सोच रही हो क्या,
सरहुल की सुबह तुम गयी, लड़की।’’
कूटने के लिए टंगरा में गयी युवती का यहाँ मनोरम चित्रण है जो किसी सोच में डूबी हुई है।
सरहुल की तरह करम पर्व का भी जनजातियों के जीवन में विशेष महत्त्व है। यह त्योहार भी प्रकृति से संबंधित है। इस पर्व में बहन भाई की दीर्घायु की कामना में उपवास रखती है। इस पर्व में अखड़ा (नृत्य मैदान) में करम वृक्ष की दो डालियाँ गाड़ दी जाती हैं तथा पाहन द्वारा लोगों को करमा कथा (करमा एवं धरमा नामक भाइयों की कथा) सुनाई जाती है। इस त्योहार में रात भर नाच-गान का कार्यक्रम चलता है।
करम पर्व से संबंधित लोकगीतों की पंक्तियाँ एवं उनका मेरे द्वारा किया गया अनुवाद-
‘‘ओर्मर गे करम डौड़ा
हय एंगदा करम डौडा गेम चीं-खी हो
हय एंगदा करम डौडा गेम चीं-खी;
और बरना पे-ट बरआ चीतों बिटीगो
करम डौड़ा खें-दोन चिओन हो,
करम डौड़ा खें-दोन चिओन;
और बरना पे-ठ बरआ चीतो बिटीगो
साड़ी घंघर खें-दोन चिओन।’’4
अनुवाद- ‘‘सबके लिये आया करम डलिया
करम डलिया के लिए रोती हो हाय मेरी बेटी,
करम डलिया के लिए, रोती हो हाय मेरी बेटी
आने दो अगला बाजार, बेटी
करम डलिया खरीदूँगी मैं तेरे लिए
आने दो अगला बाजार बेटी
खरीदूँगी, साड़ी घँघरा।’’
यहाँ करम डलिया का महत्त्व दर्शाया गया है।
‘‘करम डौडानूं पेल्लो कोय
बबु निंग्हैं चीं-खा लगी हो
बबु निंग्हैं चीं-खा लगी;
जों - खसिम तम्बस पेल्लोदिम तंग्गयो,
बबु निग्ंहैं चीं-खा लगी हो
बबु निग्ंहैं चीं-खा लगी।’’5
अनुवाद - ‘‘करम डलिया में लड़की
रो रहा है, बच्चा तुम्हारा,
रो रहा है, बच्चा तुम्हारा,
उसका बाप है वो लड़का, उसकी माँ है वो लड़की
रो रहा है बच्चा तुम्हारा
रो रहा है बच्चा तुम्हारा’’
यहाँ करम पर्व में व्यस्त माँ-बाप के रोते बालक का चित्रण है।
‘‘किवदी अयो-2 दिन सगर अयो किवदी रे,
रतिसगर अयो किबदी;
ई राजी मला बरओन रे
ई देशन देश मल बओन।’’6
अनुवाद- ‘‘दिन भर गाली देती हो तुम, माँ
रात भर गाली देती हो तुम, माँ
चली जाऊँगी निकलकर मैं, माँ
नहीं लौटूँगी यह राज्य, मैं
इस देश को नहीं बोलूँगी देश, मैं।’’
यहाँ माँ की डाँट-फटकार से तंग आकर युवती दूसरे राज्य जाने की बात करती है।
‘‘गोला अड्डो जनम रे लण्डी
नाल नम्हय मरेचा रई
गोला अड्डोन बीसोन मनेखा खें-दोन
नाल नम्हय - चोतोर मनो।’’7
अनुवाद- ‘‘बहुत कोढ़िया भूरा बैल
नहीं जुता खेत हमारा
काड़ा खरीदो बेचो भूरा बैल
कीचड़ होगा तब हमारा खेत।’’
इन पंक्तियों में रोपनी से पहले की तैयारी वर्णित है।
विवाह संबंधी लोकगीतों की कुछ हृदय स्पर्शी पंक्तियाँ एवं मेरे द्वारा किया गया अनुवाद-
‘‘एंग्है रःना गूटि बबा होय
निंग्है एड़पानूं झांझ मान्दर मनो-2
एंग्गन बीसोय होले बबा होय
निंग्है एड़पा राए सुना मनो-2।’’8
अनुवाद- ‘‘मेरे रहने तक बाबा
बजेगा तुम्हारे घर में मांदर-झांझ
ब्याह कर भेजोगे मुझको बाबा,
होगा सूना घर तुम्हारा।’’
‘‘पोसओ बीरि पूसकी अयो
पल्हो बीरि पल्हचकी
ए-रा उच्चा पुल्लकी
ओन्दिम डाड़ा बालका गेम नन्नर चाली नंजकी
नन्नर बलि नंजकी
ओन्दिम टिप्पा सिन्दरीगेम नन्नर चाली नंजकी
नन्नर बलि नंजकी।’’9
अनुवाद- ‘‘पाल-पोस की हो माँ तुम, छोटपन से,
पाली हो छोटपन से,
नहीं रख सकोगी अब मुझको तुम
हल्दी के एक टुकड़े के लिए, साड़ी के लिए
भेजोगी तुम दूसरे के आँगन
सिंदूर की एक बूँद के लिए
भेजोगी तुम दूसरे के आँगन।’’
‘‘एंग्है रःना गूटी बबा होय
अन्न धन मंजुराआ लगी-2
एंग्गन बीसोय होले अयोगे
चीलीनूं छटेका गड़ओय बबा होय
बालीनूं डिलगिन गड़ओय।’’10
अनुवाद- ‘‘मेरे रहने तक बाबा,
धन-दौलत खत्म होता तुम्हारा
ब्याह करोगे मुझको तो
छटका गाड़ोगे अँगना में तुम
डिलगिन गाड़ोगे दरवाजे में तुम।’’
विवाह संबंधी इन लोकगीतों में लड़कियों का अपने घर के प्रति मोह, ससुराल नहीं जाने के लिए उनके द्वारा दिये जाने वाले तर्कों को प्रदर्शित किया गया है।
‘सेंदरा’ उराँव जनजाति की संस्कृति एवं परंपरा से संबंधित त्योहार है। इसका शाब्दिक अर्थ ‘शिकार’ होता है। उराँव महिलाओं द्वारा शिकार खेलने की परंपरा को ‘मुक्का सेंदरा’ कहा जाता है। इस त्योहार में पूरे दिन महिलाएँ पुरुष के वस्त्र पहनकर शिकार करती हैं। इस पर्व के विशेष उद्देश्य हैं- आत्मरक्षा, युद्ध विद्या में निपुणता, भोजन एवं अन्य आवश्यकताओं को पूरा करना। उराँव जनजाति के लोग हर वर्ष वैशाख में बिसू सेंदरा, फागुन में फागु सेंदरा तथा वर्षा ऋतु की शुरूआत में जेठ सेंदरा करते हैं।
फग्गू सेन्दरा से संबंधित लोकगीत एवं अनुवाद-
‘‘ने लवआ केरा
गुदुम गूला मुइयां चोचा, टोगारी मइय्यां
पेलो लवआ केरा
गुदुम गूला चोचा, टोगारी मइय्यां।’’11
अनुवाद- ‘‘मारने गया कौन,
टोंगरी के ऊपर, ह्रष्ट-पुष्ट खरगोश
मारने गयी लड़की
टोंगरी के ऊपर, ह्रष्ट-पुष्ट खरगोश।’’
(छटका - अनाज रखने के लिए बाँस की ऊँची वस्तु, डिलगिन - बड़ा डलिया)
‘‘सेन्देरा कादय भइया कारेगा कादय
मझी मझी भइया अमके मना
सेन्दरा टोंका नू खरा मइर मनी
मझी मझी लिहो लिहो बअदय
मझी मझी भइया अमके मना।’’12
अनुवाद- ‘‘खेलने जाते हो शिकार भाई,
बीच-बीच मत होना भाई
मारपीट होता वहाँ खेलना नहीं शिकार
बीच-बीच मत होना भाई
देखरे, देखरे कहते कुत्ते को पकड़कर
बीच-बीच मत होना भाई।’’
जतरा दशहरे के दस दिन बाद आयोजित किया जाता है। यह उराँव जनजाति के लिए आस्था का प्रतीक है। इस मेले के आयोजन में 40 पड़हा के पाहनों का योगदान रहता है। इस मेले में कलश की स्थापना की जाती है जो सूर्य व धरती का प्रतीक है। इस कार्यविधि के दौरान जतरा खूटा की पूजा की जाती है तथा मुर्गे की बलि दी जाती है। इस मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है।
जतरा से संबंधित लोकगीत एवं अनुवाद मेरे द्वारा-
‘‘कूम घाटीनूं हीरा बझझरा
हीरा निंग्है एवं उल्ला रओ;
हीरन बीसोय मुक्का खेन्दोय,
मुक्का निंग्है एवं उल्ल रओ
हीरा निंग्है एवं उल्ला रओ।‘‘13
अनुवाद- ‘‘कूम घाटी फँसा हीरा
रहेगा दिन कितने तुम्हारा हीरा,
कन्या खरीदोगे, बेचोगे हीरा
रहेगी दिन कितने तुम्हारी लड़की
रहेगा दिन कितने तुम्हारा हीरा।’’
‘‘चोतोर बारि उला, कोरदय,
खेड्डन नो-ड़य मिन्दीका मला
पईरी बीरि उला कोरदय
खेड्डन नो-ड़य मिन्दीका मला।’’14
अनुवाद- ‘‘अंदर घुसते हो तुम साथ लिए कीचड़
सुनते हो कि नहीं पैर धोओ
अंदर घुसते हो सुबह के समय
सुनते हो कि नहीं पैर धोओ।’’
‘‘कादन-2 बःदी कोय पेल्लो,
खेडन्तो धलिन खे़त्तर कलय
पईरी बीरि बःदी कोय पेल्लो
खेडन्ता धूलित खेत्तर कलय।’’15
अनुवाद- ‘‘कहती हो लड़की जाती हूँ, जाती हूँ
पैर की धूल झाड़ के जाओ,
कहती हो सुबह में जाती हूँ
पैर की धूल झाड़ के जाओ।’’
जतरा संबंधी गीतों में मिट्टी-धूल से सने पैरों की सफाई पर जोड़ दिया गया है।
अगहनी जतरा के राग एवं उनका मेरे द्वारा अनुवाद-
‘‘बोथा ओना बोथा ओना को कलम काचा
हुदि निंग्हय किचीरिन, एंग्गगे घेतेला रअई
पैइरी न पुतबारी कलम काचा
हुदि निंग्हय किचीरिन, एंग्गगे घेतेला रअई।’’16
अनुवाद- ‘‘कलम चलाते हो हड़िया पी-पी के
कपड़ा ले जाओ तुम्हारा, मेरे लिए पटिया काफी है,
सुबह न रात कलम चलाते हो,
कपड़ा ले जाओ तुम्हारा, मेरे लिए पटिया काफी है।’’
‘‘जम्बू अतेखन लबआ दादा, बिड़ियो कमओन।
संगे संगे भेजा बेचोगे;
जम्बू अतखन लवआ दादा, बिड़ियो कमओन।’’17
अनुवाद- ‘‘मारो दादा जामुन पत्ता, कानफूल बनाओ
खेलूँगी साथ साथ तब मैं
सुबह में पत्ता गिराओ, कानफूल बनाओ
पहनकर खेलूँगी उसको, साथ तुम्हारे।’’
‘‘एका लेखा निंगीडी मनी
निंग्हय हेद्दे नू भेजा बीची।
ताची ममू निंगीड़ी मनी
निंग्हय हेद्दे नू भेजा बीची।’’18
अनुवाद- ‘‘कैसी लगती है तुम्हारी बहन,
नाचती है जो तुम्हारे साथ-साथ
बेटी है फुफ़ा-फुफु की
नाचती है जो तुम्हारे साथ-साथ।
ऊपर के इन गीतों में भाई-बहन का प्रेम झलकता है।’’
इन मौसमी लोकगीतों के अलावा युद्ध वर्णन संबंधी लोकगीत की छटा भी कुडख में मिलती है। ऐसे ही कई कुडुख गीत आज प्रकाश में आ रहे हैं। इसके लिए लेखकों एवं प्रकाशकों द्वारा किये जाने वाले कार्य सराहनीय हैं। क्लिष्ट होने के बावजूद कुडख भाषा संबंधी पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन इस भाषा की लोकप्रियता एवं शोधपरक दृष्टि की परिचायक है। इन लोकगीतों के जरिये जनजातीय जीवन की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा एवं संघर्षशील जीवन से हमारा रिश्ता जुड़ता है।
1. डॉ० नारायण भगत, कुंडुख साहे डण्डी, भाग-1, झारखण्ड, झरोखा, प्रथम संस्करण, 2017, पृ. 39
3. वही
4. वही, पृ. 102
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, एस.एस.एल.एन.टी. महिला महाविद्यालय, धनबाद
nirjaaxaxa186@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें