अनुवाद के सामाजिक सरोकार (अफ़्रीकी साहित्य के हिंदी अनुवाद के विशेष संदर्भ में) / आनन्‍द स्वरूप वर्मा

अनुवाद के सामाजिक सरोकार
(अफ़्रीकी साहित्य के हिंदी अनुवाद के विशेष संदर्भ में)
- आनन्‍द स्वरूप वर्मा

अपनी चेतना-सम्‍पन्‍न प्रतिबद्धता के वशीभूत आपातकाल से पहले की हलचलों में शामिल होने के कारण अनुवाद-चेतना से आपाद-मस्‍तक भरे अनुवादक आनन्द स्वरूप वर्मा तत्‍कालीन सत्ता द्वारा आकाशवाणी के समाचार सेवा से निकाल दिए गए। पर उन्‍होंने ने अपनी सक्रियता और सरोकार नहीं छोड़े। स्वतंत्र लेखन, संपादन, अनुवाद में डटे रहे। पत्रकारिता, भ्रमण और वैचारिक लेखन के अलावा दुनिया भर के जनसंघर्षों को मुखर करनेवाली कृतियों के अनुवाद द्वारा अपने देसी नागरिक को चेतना-सम्‍पन्‍न करते रहे। उनके द्वारा अनूदित दो दर्जन से अधिक कृतियों में प्रमुख हैं -- ‘आज का भारत’,’ ‘भारतीय जेलों में पांच साल’, ‘प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा’, ‘भारत में बंधुआ मजूदर’, ‘नन्हा भिक्षु’, ‘श्वेमो की चुनी कहानियां’, ‘खोखला पहाड़’, ‘लाल पोस्ते के फूल’, ‘झील और पहाड़ का रोमांच’ आदि। यहाँ प्रस्‍तुत है भारतीय भाषा केन्‍द्र, जे.एन.यू. नई दिल्‍ली में उनके व्‍याख्‍यान का अविकल लिप्‍यन्‍तरण।

आपातकाल के दौरान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अध्यापकों ने हम जैसे छात्रों की खूब मदद कि थी, तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय आना मेरे लिए ख़ुशी की बात है। आज का विषय है -- अनुवाद के सामाजिक सरोकार। बहुत पहले, मैं शायद इण्टरमीडिएट का छात्र रहा होऊंगा, एक किताब मुझे पढ़ने को मिली, जिसका अनुवाद नेमिचंद जैन ने किया था, जूलियस फ्यूचिक की किताब थी,फांसी के तख्ते से। चूँकि नेमिचंदजी नाटककार थे और नाट्य विधाओं में भी उनका लेखन होता था, वे जाने माने साहित्यकार थे; उस अनुवाद को पढ़ने के बाद, मेरे दिमाग में बराबर यह बात घूमती रही कि जूलियस फ्यूचिक को उन्होंने अनुवाद के लिए क्यों चुना? उसके बाद तो ऐसी बहुत सारी किताबें दिखाई देने लगीं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस समय Centre For Chinese And South East Asian Studies में एक शिक्षक हैं, डॉ.बी. आर. दीपक जिन्होंने अनुवाद के बारे में बात की है। हम पूरी दुनिया के परिपेक्ष्य में बात करें तो, चीन के एक अनुवादक हुए, जिन्होंने कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम्, विक्रमोर्वशीयम् और हमारे यहां और जो दो महाकाव्य हैं -- महाभारत और रामायण; उसमें से रामायण का अनुवाद किया, उनका नाम है जी. शियालीन। चीनी भाषा में उन्होंने यहां के ग्रंथों का अनुवाद किया, कुछ का संस्कृत से कुछ का हिंदी से अनुवाद किया। डॉ.बी.आर. दीपक ने उनके बारे में जो एक ग्रंथ लिखा है तकरीबन सात सौ पेज का। अनुवाद में जिन लोगों की दिलचस्पी है, या जो लोग अनुवाद पर अध्ययन करना चाहते हैं, उनको वह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए। क्योंकि अनुवाद के कौन-कौन से स्वरूप हो सकते हैं, अनुवाद करने में किस तरह की सावधानियां बरती जाए, अच्छा अनुवाद क्या होता है? अनुवाद का सामाजिक सरोकार क्या होता है? इन सारे विषयों पर बहुत विस्तार के साथ उस पुस्तक में लिखा गया है और वह पुस्तक प्रकाशन संस्थान से छपी है। प्रकाशन संस्थान के जो कर्ता-धर्ता है, यहां बैठे हैं, मैं उनसे चाहूंगा कि वे छात्रों के लायक कोई संस्करण उसका निकालें और सस्ते कागज़ पर छापें और कहीं से सब्सिडी मिल जाए तो वह लें, क्योंकि अनुवाद के बारे में वह अद्भुत किताब है। वह किताब मैंने बहुत गंभीरता से पढ़ी है, हालांकि वह बहुत मोटी पुस्तक है, लेकिन बहुत अच्छी पुस्तक है।

अनुवाद के सामाजिक सरोकार के संदर्भ में देखें तो, अफ्रीकी साहित्य के अनुवादक एवं पत्रकार के रूप मैंने लगभग चालीस पुस्तकों का अनुवाद, संपादन और मूल लेखन किया होगा। इनमें दस किताबें अफ्रीका से संबंधित हैं। मतलब स्पष्ट है कि अफ्रीकी साहित्य के बारे में दिलचस्पी थी। बहुत सारे लोग मुझसे सवाल करते हैं कि अनुवाद के लिए आपने अफ्रीका को ही क्यों चुना? इसलिए अफ्रीका में मेरी दिलचस्पी कब हुई, इसका बहुत संक्षेप में मैं आपको बताना चाहूंगा।...जिस समय मैं इंजीनियरिंग का छात्र था, गोरखपुर में रहता था और वहां एक दुकान थी ‘पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस’, वहाँ मास्को से छपी हुई तमाम पुस्तकें होती थीं। साहित्‍य में मेरी रुचि बचपन से ही थी, मैं उपन्यासों की तलाश में वहाँ जाता था। वहां दोस्तोवस्की, तुर्गेनेव, गोर्की इन लोगों के उपन्यास थे, वह भी बहुत सस्ते दामों में मिल जाते थे। तो उन्हीं दिनों मुझे एक पुस्तक मिली जो ‘पैट्रिक लुमुंबा’ के बारे में थी। पैट्रिक लुमुंबा कांगो के एक नेता थे। कांगो, बेल्जियम की कॉलोनी था और पैट्रिक लुमुंबा आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। वहां इलेक्शंस हुए और उसमें पैट्रिक लुमुंबा की फ्रीडम पार्टी चुनाव जीत गई और उनको प्रधानमंत्री बनाया जाना था। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति सब कुछ संविधान के अनुसार था। वे सर्वोच्च पद पर उस समय नियुक्त भी हुए, लेकिन किसी साजिश के तहत साम्राज्यवादी सरकार के द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी हत्या कर दी गई। पैट्रिक लुमुंबा जिस समय जेल में बंद थे, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के तत्‍कालीन महासचिव ‘डैग हजलमार एग्ने कार्ल हैमरस्कजॉल्ड’ को पत्र लिखा था। उस पत्र के एक अंश में पैट्रिक लुमुंबा ने बताया था कि मेरी हत्या की जा सकती है और संयुक्त राष्ट्र को दखल देना चाहिए। उस दिनों बाइपोलर वर्ल्ड में दुनिया द्विध्रुवीय थी -- एक धूरी पर अमेरिका था, एक धूरी पर रूस था। दोनों के बीच जबरदस्त प्रतिद्वंद्विता चल रही थी। पैट्रिक लुमुंबा कोई कम्युनिस्ट नहीं थे। एक डेमोक्रेटिक व्यक्ति थे, लेकिन साम्राज्यवाद के खिलाफ थे, और उस समय जो भी साम्राज्यवाद के खिलाफ होता था, वह अमेरिका की निगाह में कम्युनिस्ट मान लिया जाता था। अगर आप साम्राज्यवाद के खिलाफ हैं, तो निश्चित रूप से कम्युनिस्ट हैं। वे साम्राज्यवाद के खिलाफ थे, जनता भी शोषण के खिलाफ थी, जन पक्षधरता उनकी राजनीति थी, जो मोटे तौर पर कम्युनिस्ट के करीब जा सकती थी, लेकिन किसी भी तरह से वे कम्युनिस्ट नहीं थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में भी बताया है वे कभी कम्युनिस्ट नहीं थे, लेकिन उनकी हत्या हो गई। तो मुझे बहुत हैरानी हुई कि जो व्यक्ति बता रहा है कि मेरी हत्या हो सकती है और संयुक्त राष्ट्र बचा नहीं पाया। इतनी चेतावनी के बावजूद इतना सब हुआ। तो वहां से अफ्रीका की खिड़की मेरे लिए खुल गई और मैं धीरे-धीरे अफ्रीका की राजनीति और अफ्रीका के साहित्य के बारे में अध्ययन करने लगा और उस अध्ययन के क्रम में मुझे लगा कि हम लोग जो तमाम यूरोप का साहित्य देखते हैं, एक्चुअली कई सारी बातें उस समय परिभाषित नहीं हो रही थी, धीरे-धीरे वह भी मेरे दिमाग में चलने लग गई थी। आगे जाकर जब उसको मैं परिभाषित कर सका तो दिमाग में आया कि जो मानसिकता हमारी बनी हुई है यूरोसेंट्रिक होने की, उसको छोड़ा जाए और आगे बड़ा अध्ययन करने पर लगा। यह जो कॉलोनाइजेशन हुआ, उसका हमारे माइण्‍ड पर जो असर हुआ, शायद उसके खिलाफ इन चीजों को पढ़ने के बाद कोई उथल-पुथल हमारे भीतर उठे। यदि ‘हाउ टु डिकोलोनाइज आवर माइंड’, सारा मुद्दा यहां आकर रुक गया। माइण्‍ड का कॉलोनाइजेशन गौर करने लायक है। हम दो सौ सालों तक ब्रिटेन के गुलाम रहने के कारण हमारी पूरी सोच कॉलोनियल हो गई है और इसका कभी हमारी तरफ से कोई प्रयास भी नहीं हुआ कि इससे कैसे बाहर निकला जाए। आजादी मिलने के बाद भी हमारा प्रयास उस तरफ नहीं हुआ। राजनीतिक आजादी जो 1947 में मिली, उसके बाद भी कभी हमारी तरफ से सचेत प्रयास नहीं हुआ। अपने माइंड को डिकॉलोनाइज करने का यह प्रयास नहीं हुआ। उल्टे 1990 में जब ग्लोबलाइजेशन हुआ तो हमारा पूरा माइंड रीकॉलोनाइजेशन का शिकार हो गया। एक तो हम पहले से ही कॉलोनाइज्ड मानसिकता के थे, डिकॉलोनाइज्ड हो भी नहीं पाए कि ऊपर से यह रीकॉलोनाइजेशन हो गया। करेले की बेल नीम पर चढ़ गई।

तो मुझे लगता था कि यह जो तीसरी दुनिया का साहित्य है, खास तौर पर जब हम अफ्रीका का साहित्य पढ़ते थे, उसके साथ तादात्म्य स्थापित हो जाता था। उसको पढ़कर हम आईडेंटिफाई कर लेते थे, उनके कैरेक्टर्स के साथ बहुत सारी बातें, उनकी स्थितियां, हमारी स्थितियां काफी हद तक मिलती-जुलती थीं। हमारा देश भी कृषि प्रधान और अफ्रीका के सारे देश लगभग कृषि प्रधान थे। हम भी कॉलोनियल औपनिवेशिक गुलामी को झेल चुके थे, वह भी झेल चुका था। वैसे उन्होंने तो बहुत ज्यादा झेला था, अफ्रीका में तो तकरीबन 54 देश हैं।

अफ्रीका के कॉलोनाइजेशन की बात जो मैं बता रहा था, इत्तेफाक देखिए कि 1985-86 में एक तरफ इतना बड़ा संघर्ष चल रहा था; दुनिया के 6-7 साम्राज्यवादी देश अपने हिस्से में बर्लिन में बैठकर पूरे अफ्रीका महाद्वीप को बांटने में लगे थे। जैसे उन्होंने टेबल पर अफ्रीका का नक्शा बिछा लिया हो कि यह हमारा यह तुम्हारा; यह तुम्हारा यह हमारा। और, ये जो बाँटने में लगे हैं वे कौन देश हैं -- ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, पुर्तगाल, बेल्जियम और स्पेन, जर्मनी। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा मिला ब्रिटेन को और फ्रांस को। अफ्रीका का नक्शा उठाकर देखेंगे तो सहारा डेजर्ट से नीचे जो है, जहां से दक्षिण अफ्रीका शुरू होता है, वहीं एक जांबेजी नदी बहती है, तो सहारा मरुस्थल से नीचे जांबेजी नदी के बीच वाला जितना हिस्सा था, वह सारा इन लोगों ने आपस में बांट लिया और केन्या, नाइजीरिया युगांडा, मलावी ब्रिटेन के हिस्से में गए और पश्चिम अफ्रीका के बहुत सारे देश जो हैं -- सेनेगल, माली, बुर्किना फासो, बेनिन, गिनी, आइवरी कोस्ट, सेलेगल और नाइजर... ये सब देश फ्रांस के हिस्से में गए। अंगोला, मोजांबिक और गिनी बिसाऊ -- ये तीन देश पुर्तगाल ने ले लिए। इस तरह से इसको इतिहास में कहा गया -- ‘ए स्क्रैंबल फॉर अफ्रीका’। हिंदी में कहें, तो अफ्रीका की लूटखसोट। साम्राज्यवादी देशों द्वारा यह स्क्रैंबल फॉर अफ्रीका था। तो मैंने देखा कि केन्या, नाइजीरिया, युगांडा, ये जितने भी ब्रिटिश उपनिवेश थे, उनकी बहुत सारी स्थितियां हमारी स्थितियों से मिलती-जुलती रही है, क्योंकि हम भी ब्रिटिश उपनिवेश थे। यहां तक की मैं जब केन्या में गया, नैरोबी के देखने के लिए गया, तो रेलवे स्टेशन पर सब कुछ लग रहा था जैसे मैं गोरखपुर के रेलवे स्टेशन पर घूम रहा हूं। वहां की रेलवे कॉलोनी देखने गया, हूबहू वैसे ही सारे क्वार्टर बने हुए थे, जैसे गोरखपुर की रेलवे कॉलोनी में है। तो बहुत सारी चीज़ें मिलती-जुलती रही हैं, वह चाहे नाइजीरिया हो, केन्या या युगांडा हो, या मलावी हो। कम से कम दो देशों में, नाइजीरिया और केन्या में तो मैंने ऐसा ही देखा।

तो इनके साहित्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जैसे नाइजीरिया के लेखक हैं चिनुआ अचेबे और वोले शोयिंका। जिनको नोबल प्राइज मिला। चिनुआ अचेबे के जितने उपन्यास हैं ‘नो लोंगर एट पीस’, ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’, ‘ए मैन ऑफ़ द पीपल’, ‘एरो ऑफ़ गॉड’ ... ये चार ऐसे उपन्यास हैं, जो धड़ाधड़ लिखे गए थे और काफी चर्चित भी हुए थे। तो इन उपन्यासों को अगर आप पढ़ें, तो वहां का पूरा जन जीवन ऐसा लगता है, जैसे भारत के किसी गांव का जनजीवन हो। चौपाल पर बैठकर जिस तरह से लोग बातचीत करते हैं, उसी तरह वहां के लोग बातचीत कर रहे हैं और सारा कुछ मिलता-जुलता है; केवल एक चीज है, जो केन्या में जितनी है, नाइजीरिया में उतनी नहीं मिलती; वह है क्रिश्चियनिटी। क्रिश्चियनिटी का जो दबदबा वहाँ था वह यहाँ उस तरह से नहीं दिखाई देता। बाकी सब चीज वैसे ही मिलती-जुलती हैं। उस पर तो केन्या के एक विचारक ने कहा; हालांकि लोग इसे जोमो केन्याटा का कथन कहते हैं, लेकिन यह उनका कथन नहीं, किसी और का कथन है कि ‘जब अंग्रेज यहां आए तो उनके हाथ में बाइबल थी और हमारे हाथ में जमीन थी, पर जब वे गए तो हमारे हाथ में बाइबल थी और उनके हाथ में जमीन थी’। तो इससे पता चलता है किस तरह से उपनिवेशवादियों ने काम किया है। यह सब सोच कर मेरे दिमाग में ख्याल आया कि आया कि हिंदी में यूरोप के बहुत सारे लेखकों की रचनाओं के अनेक अनुवाद उपलब्ध थे, लेकिन किसी भी अफ्रीकी लेखक का उपन्यास मैंने हिंदी में नहीं देखा था। जब मैंने हिंदी में अफ्रीकी साहित्य पर लिखना शुरू किया तो उन दिनों आलोचना पत्रिका नामवर सिंह संपादित कर रहे थे। उन दिनों, 1970 में मैंने पहला लेख अफ्रीकी कथा साहित्य लिखा। वह लेख बहुत लंबा था, ‘साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियां’। इस नामवर जी ने टिप्पणी की कि कोई तो लिखता ही नहीं है अफ्रीका पर और तुमने इतना लंबा लेख लिख दिया। तो हमने कहा ‘देखिये कैसा है’? तो वह लेख काफी लोगों ने पसंद किया था और उसके जरिए अफ्रीकी साहित्य को लोगों ने पढ़ना शुरू किया। उस समय लोग बहुत गंभीरता के साथ आलोचना पत्रिका पढ़ते थे। अब पता नहीं कितनी गंभीरता है, वैसे तो मैं खुद भी कभी नहीं पढ़ पाता।

लेकिन उस लेख को पढ़कर लोगों के अंदर दिलचस्पी पैदा हुई। फिर जब मैंने भी देखा कि लोगों कि दिलचस्पी है, तो अफ्रीका पर लिखना शुरू किया और साहित्य में से भी उस साहित्य को ढूंढ कर निकलना शुरू किया। उन्हीं रचनाओं को मैंने चुना, उन्हीं कृतियों को चुना, जो भारत के पाठकों को और हिंदी के पाठकों को अपने से तालमेल स्थापित करने मदद कर सकें। इसी तरह केन्या के ‘न्गुगी वा थ्योंगो’, जो उपन्यासकार तो अच्छे हैं ही, बहुत अच्छे विचारक भी हैं, आप सब लोग जानते ही हैं। उनकी भाषा और संस्कृति के बारे में जो विचार है, उनको पढ़ते समय हमेशा यह लगता है, जैसे भारत के में बारे में कोई लिख रहा हो और उनका जो उपन्यास है, जिसका मैंने अनुवाद किया (पेटल्स ऑफ़ ब्लड) ‘खून की पंखुड़ियां’ नाम से, उसकी पृष्ठभूमि में किसान आंदोलन है। वैसे उनके जितने भी उपन्यास हैं, सबमें किसी न किसी रूप में किसान आंदोलन मौजूद है। ‘माऊ-माऊ आंदोलन’ के नाम से केन्या में एक बहुत जबरदस्त किसान आंदोलन हुआ था, जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को हिला दिया था।

जैसे हमारे यहां शहीद भगत सिंह थे, वैसे ही उनके यहां एक नेता थे, भगत सिंह जैसे तो नहीं पर हम बिरसा मुंडा जैसे कह सकते हैं, उनके यहाँ केन्या के एक जुझारू किसान नेता थे- देदान किमाथी। देदान किमाथी पर एक नाटक भी लिखा गया है ‘The Return of DedanKimathi’। तो न्गुगी वा थ्योंगो के उपन्यासों में किसान आंदोलन केंद्र में मिलता है। उनके यहाँ आप माओ माओ आंदोलन की बेशुमार झलक मिलेगी, जो लोग अंग्रेजों को भागने के आंदोलन में शहीद हुए, जिन्होंने अपना सर्वश्व निछावर कर दिया, आजादी मिलने के बाद वे वहीं के वहीं पड़े रह गए। और जो लोग उस समय अंग्रेजों की दलाली कर रहे थे वे मंत्री बन गए और बड़े बड़े पदों पर चले गए। तो ये सारी चीजें ऐसी थीं कि भारत की तस्वीर इसमें दिखाई देती थी। यह उपन्यास, जो सत्तर के दशक के आरंभिक समय में छपा था, उस समय कंप्यूटर नहीं थे, मैंने उसका अनुवाद शुरू कर दिया। मैंने सोचा इस किताब को जरूर हिन्दी में आना चाहिए, लोगों को पढ़ना चाहिए। उस समय मैं हाथ से नहीं लिखता था, सीधे डिक्टेशन देता था, टेक्स्ट (पाठ) सामने रख कर टाइपराइटर पर, उस समय तो टाइपराइटर ही थे तो सीधे डिक्टेशन देते हुए मैंने करीब तीस पेज का अनुवाद कर दिया था। तीस पेज करने के बाद और कामों में लग गया। फिर वह किताब रह गई, जो मैंने सत्तर के दशक में शुरू किया था। सन् 2018 में शायद गार्गी प्रकाशन से बातचीत हुई, तो उन्होंने कहा कि अगर आप इस उपन्यास का अनुवाद कर दें। मैंने कहा कर तो रहा था मैं, पर अब पता नहीं कहाँ है वह, खैर, फिर मैंने खोजा और टाइपराइटर से टाइप किए हुए पेज मिल गए, परन्तु उसको मैंने वैसे ही रख दिया, क्योंकि अब मैं नए सिरे से करना चाहता था। लेकिन जब मैंने नए अनुवाद को देखा और पुराने अनुवाद को पढ़ा तो हैरानी हुई कि ये दोनों अनुवाद एक ही व्यक्ति ने किए हैं, वह अनुवाद बहुत ही अच्छा था, जो कई वर्ष पहले मैंने किया था। इधर जो किया था, उतना अच्छा नहीं लगा। दोनों मैंने ही किया था। खैर मैंने बदल दिया, उस पुराने वाले अनुवाद को ही रख लिया, लेकिन इससे मैंने सोचा, ऐसा क्यों हुआ कि दोनों अनुवादों में इतना अंतर दिखाई दिया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जब मैंने उस उपन्यास को पहली बार पढ़ा तो मैं इतना चार्ज्ड था कि उपन्यास को पढ़कर तुरंत मैंने अनुवाद करना शुरू कर दिया था; तो अनुवाद भी ऐसा चार्ज्ड था कि उसका रिफ्लेक्शन उपन्यास के अनुवाद में दिखाई दे रहा था। मैंने थोड़ा क्षेपक के तौर पर यह बात बता दी।

विषयांतर करते हुए कि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक ही पाठ का पहले किसी खास मनःस्थिति में किया गया अनुवाद और किसी अलग मनःस्थिति में किए गए अनुवाद में कितना फर्क हो सकता है।

इसी तरह अफ्रीकी कहानियों का भी जो अनुवाद किया, उसमें जो अफ्रीकी कहानियों का संकलन है, अगर आपमें से किसी को मिला हो तो आप देखिएगा कि हर कहानी से पहले मैंने उस देश की सांस्कृतिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि के बारे में लिखा है, उस देश के सम्पूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक विवरण को मैंने पहले स्पष्ट किया है फिर वह कहानी दी है।

मेरा ये मानना है कि भारत में ही अगर आप तमिल में अनुवाद कर रहे हैं या मलयालम से अनुवाद कर रहे हैं, या अन्य किसी भारतीय भाषाओं से कहानियों का अगर कोई संकलन छप रहा हो तो अनुवादक को चाहिए कि जिस भाषा से अनुवाद हो रहा है वहाँ की सम्पूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक विवरण लिखे या किसी से लिखवाए। तमिल कहानियां हैं, तो तमिल के सांस्कृतिक जीवन के बारे में टिप्पणी दें। इस महत्त्वपूर्ण प्रयास से कहानी की संप्रेषणीयता बढ़ जाती है। आप लोगों को एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। दक्षिण अफ्रीका में जब रंग भेद नीति थी, तो वहाँ की सरकारी नीति थी जिसमें ग्यारह बजे रात में एक सायरन बजता था। जब सायरन बजता था तो जितने भी ब्लैक्स थे, उन्‍हें तुरंत सड़क से कहीं जाकर छिप जाना होता था; फिर जब व्हाइटस आयेंगे तो सड़क पर एक भी ब्लैक दिखाई नहीं देना चाहिए। यदि दिखाई देगा तो उसे जेल में डाल देंगे। तो सायरन बजते ही और ये ब्लैक कोशिश करते थे की ग्यारह बजे के पहले अपने घर लौट जाएं, लेकिन नहीं लौट सके तो सायरन बजते ही वे कहीं छिप जाएँ।

डेनिसविंसेंट ब्रूटस (Dennis Brutus) की कविताओं का एक संकलन है, शीर्षक है -- Sirens, Knuckles And Boots इसके साथ ही और भी बहुत सारी कविताएं हैं। जिसमें सायरन की आवाज आती है और दहशत भी होती है। अगर आप अनुवाद कर रहे हैं तो सायरन की आवाज से जो दहशत पैदा हो रही है, उसका आपने अनुवाद कर दिया और जो पाठक है, उसने पढ़ भी लिया और काफी कुछ संप्रेषित भी हो गया, वह दहशत संप्रेषित भी हो गई, लेकिन उसे यदि यह पृष्टभूमि पता हो की सायरन बजने का यहाँ क्या मतलब होता था, तो शायद उस कविता की संप्रेषणीयता और भी बढ़ जाएगी। इसलिए कोशिश यह होनी चाहिए जहां तक संभव हो, जिस देश की कविता है और कविताओं में खास तौर पर, क्योंकि कविताओं में बहुत सूक्ष्म रूप से बातें कही जाती हैं। इसलिए अगर आप अनुवाद कर रहे हैं तो उसका वह विवरण जरूर हो, जो सांस्कृतिक और राजनीतिक झलक दे सके। इससे पाठक के लिए वह संप्रेषणीय होगा। इसलिए ये जो उपनिवेश वाले देश थे इनकी रचनाओं का अनुवाद करने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

दक्षिण अफ्रीका के बारे में एक बात और यहाँ करनी आवश्यक है। नेल्सन मंडेला ने जब जेल में सात साल ही बिताए थे, उस समय मेरा पहला आर्टिकल नेल्सन मंडेला पर छपा था। उस समय बहुत सारे संपादकों को यह भी नहीं पता था कि नेल्सन मंडेला किसी देश का नाम है, या किसी व्यक्ति का नाम है। वे सत्ताइस साल जेल में रहे और वहीं सत्ताइस साल निरंतर लिखते रहे। मैं मूल रूप से पत्रकार हूं, वर्ष 1966 में मैंने पत्रकारिता शुरू की थी। पत्रकार के रूप में ही मैंने बहुत सारी रिपोर्टिंग की थी। मैंने दक्षिण अफ्रीका के चुनाव की रिपोर्टिंग जनसत्ता के लिए की थी। हिंदी का और कोई पत्रकार नहीं था वहाँ मेरे अलावा। अंग्रेजी का भी कोई नहीं था। हुआ ये कि जब जनसत्ता में लीड छपने लगी, एक दो दिन छपा तो कुछ अंग्रेजी के पत्रकारों, अखबारों के मालिकों को शर्म लगी होगी कि हिंदी का आदमी तो चला गया अंग्रेजी का गया नहीं। तो The Hindu से एक सज्जन को भेजा गया था, मलयालम से जरूर दो तीन लोग वहाँ थे। दक्षिण अफ्रीका के साहित्य में अपनी दिलचस्पी का उल्‍लेख कर चुका हूँ। मैं बताना चाहता हूँ कि वर्ष 1948 में वहां की नेशनलिस्ट पार्टी की सरकार ने रंग भेद की नीति को ऑफिशियल पॉलिसी बनाई। मुझे लगा कि वहाँ की रंगभेद की नीति के बारे में यहां के लोगों को जानकारी दी जाए, लेकिन साथ ही यह बताया जाए की हमारे यहां जो रंगभेद की नीति है वह तो दक्षिण अफ्रीका से भी गई गुजरी है। हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिण अफ्रीका को बायकॉट करने की बात करते हैं। हमने सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र में दक्षिण अफ्रीका का बायकॉट किया, और संयुक्त राष्ट्र में हम कालों के अधिकारों के बारे में बातें करते रहे हैं। हमारे यहां की जो वर्ण व्यवस्था है, पूरी दुनिया में वर्ण व्यवस्था से घृणित व्यवस्था नहीं है। दुनिया भर में कोई भी व्यवस्था ऐसी नहीं है, जिसमें प्रसूति घर में ही कोई बच्चा पैदा हो, और उसे अछूत घोषित कर दिया जाए। इस तरह से जो फासिस्ट सत्ताएं हैं, अपने आप को सत्ता में बनाए रखने के लिए जो तानाशाह शासक हैं, इस वर्ण व्यवस्था का सहारा लेते रहे हैं। अतीत की तारीख से आज की तारीख तक वे भी महत्त्वपूर्ण हैं। दक्षिण अफ्रीका में ब्लैक के साथ बहुत भेदभाव था, लेकिन व्हाइट्स के घरों में जाकर के ब्लैक मेड्स किचन में खाना बनाती थी, उसके लिए नाश्ता तैयार करती थी, उनके बर्तन मांजती थी, उनके बच्चों को आया के तौर पर स्कूल ले जाती थी; लेकिन भारत में तो आप कल्पना नहीं कर सकते कि किसी दलित को कोई अपने किचन में खाना बनाने के लिए रखते हों। तो मैंने यही देखा की इतनी घृणित व्यवस्था तो कहीं नहीं है।

दक्षिण अफ्रीका के उपन्यासों को लेकर जो लोग संघर्ष भी कर हैं या थे और कुछ ऐसा संयोग भी होता गया की उनको दक्षिण अफ्रीका के लेखकों से बातचीत करने का मौका भी मिलता गया। जैसे वर्ष 1970 में एफ्रो-एशियन कॉन्फ्रेंस दिल्ली में हुआ था, उसमें साउथ अफ्रीका से एलेक्स ला गुमा आए थे और उनको लोटस प्राइज दिया गया था। जब एलेक्स ला गुमा आए थे, तो दिनमान चाहता था कि एलेक्स ला गुमा का इंटरव्यू हो, क्योंकि एलेक्स ला गुमा के अभी तक तीन उपन्यास छप चुके थे और उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिल चुकी थी। साउथ अफ्रीका के थे, पर रहते वे इजराइल में। रघुवीर सहाय जी संपादक थे, उन्होंने प्रयाग शुक्ल जी से कहा कि एलेक्स ला गुमा का इंटरव्यू कर दें। अब प्रयाग शुक्ल के सामने बड़ी दिक्कत हुई, कि एलेक्स ला गुमा का उन्होंने नाम ही नहीं सुना था; उनकी कोई रचना भी नहीं पढ़ी थी, तो इंटरव्यू कैसे करें। तो उन्होंने अपनी दिक्कत मंगलेश डबराल को बताई। अच्छा, शाम को हम लोग बैठते थे, मंगलेश, दिनेश, प्रभात...और भी बहुत सारे लोग थे। मैं दिन भर पढ़ता था, अफ्रीकी साहित्य पढ़ता था और शाम को इन लोगों के साथ बैठता था; नोट्स लेता था; इसलिए मंगलेश ने सोचा कि हो सकता है कि आनंद को कुछ पता हो एलेक्स ला गुमा के बारे में; तो बात करते हैं! इसलिए प्रयाग शुक्ल से कहा कि सुनो तुम शाम को आ जाना, आनंद से बात करते हैं। तो मंगलेश ने मुझसे पूछा कि सुनो यार तुम एलेक्स ला गुमा के बारे में जानते हो? तो मैंने कहा कि हां खूब जानता हूं। उन्होंने पूछा कैसे? तो मैं उनके दो तीन उपन्यास पढ़ चुका था, उन पर नोट्स भी बहुत लिए हैं; वहाँ प्रयाग जी भी थे; उन्‍होंने कहा कि कल नोट्स लेकर आप दिनमान कार्यालय आ सकते हैं? मैंने कहा, जी आ सकता हूं। अब जो वे नोट्स थे, वे गोरखपुर के थे, जब मैं गोरखपुर था, तब वे नोट्स लिए थे। मैं नोट्स लेकर गया। प्रयाग जी मुझे रघुवीर सहाय के पास ले गए। इस तरह मेरी मुलाकात रघुवीर जी से हुई। दिनमान के दफ्तर में जाने का मेरा पहला अवसर था, जबकि मैं गोरखपुर से कुछ ही महीने पहले आया था। दिनमान तो बहुत पहले बंद हो गया, आप लोगों को देखने का मौका नहीं मिला होगा, उस समय दिनमान ही ऐसी पत्रिका थी, जिसको हर कोई पढ़ना और उसमे छपना चाहता था। इसकी शुरुआत हिंदी की बड़े कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय जी ने की थी। एकदम मझे साहित्यकारों का उन्‍होंने मंडल बनाया था, उनके बाद रघुवीर सहाय ने उसका संपादन किया और सबकी इच्छा होती थी कि दिनमान में छप जाएं, दिनमान में पाठकों के पत्रों में कभी किसी का पत्र भी छप जाता था, तो वह उसे बड़े संभाल कर रखता था। जब मैं रघुवीर सहाय के पास गया तो उन्‍होंने नोट्स की उस फाइल के कुछ पन्ने उल्टे और अपने माथे पर दोनों हाथ टीका के बैठ गए और प्यार से कहा, मैं हैरान हूं कि विदेशी साहित्य के बारे में मेरी इतनी दिलचस्पी है, फिर भी मैं कभी अफ्रीकी लेखकों के बारे में इतना नहीं जान सका। उस समय मेरे पास एलेक्स ला गुमा, न्गुगी वा थ्योंगो और वोले शोयिंका तीनों पर नोट्स थे। अलग-अलग एक मोटी फाइल थी जिसको देखकर उन्होंने कहा कि गोरखपुर में रहकर इस नौजवान ने कैसे इतना सब काम कर लिया?

मैंने बताया कि मेरी दिलचस्पी थी तो उन्होंने कहा कि तो फिर ऐसा है कि एलेक्स ला गुमा का इंटरव्यू आप करेंगे। फिर मैंने कहा कि ‘ठीक मैं कर दूंगा’ तो बाहर जब हम आए तो प्रयाग जी ने हमसे धीरे से कहा कि आनंदजी आपके साथ मैं भी चल सकता हूं क्या? हमने कहा बिल्कुल, अरे आप क्यों नहीं चलेंगे? तो प्रयाग जी भी साथ गए। दिनमान की वह कवर स्टोरी थी। मेरी पहली ही रचना दिनमान की कवर स्टोरी बन गई और यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। मेरे परिचितों के लिए भी बहुत बड़ी बात थी। मेरी रचना दिनमान में छपी थी, सबसे बड़ी बात यह देखिए कि आज का अगर कोई संपादक होता ना तो सबसे पहले मेरा प्रवेश ही वर्जित कर देता अपने कार्यालय में; क्योंकि संपादक से ज्यादा मैं जाना जा रहा था। आज के संपादक इतनी हीनग्रंथि से ग्रस्त हैं कि वह ज्यादा पढ़े-लिखे, ज्यादा समझदार लोगों को अंदर ही नहीं आने देता, क्योंकि वहाँ केवल राजनीति हो रही है, सब जगह यही चल रहा है। अगर आप ज्यादा जानकार हैं तो जानकारी छुपा कर रखें, अगर आपने प्रकट किया तो फिर आपका पत्ता कट जाता है। इस इंटरव्यू के बाद सहाय जी ने मुझे बुलाया और उन्होंने पूछा कि क्या राजनीति पर भी आप लिख सकते हैं? मैंने कहा ‘हां क्यों नहीं’? तो फिर सन् 70 से 75 तक नियमित तौर से मैं, जब तक इमर्जेंसी नहीं लगी, दिनमान में लिखता रहा।

तो, इस तरह मैं दक्षिण अफ्रीकी साहित्य के प्रति मेरी दिलचस्पी बढ़ती गई। और भी बहुत सारी बातें हैं लेकिन उसके पीछे मूल बात यही थी कि वहां के रंगभेद से मैं भारत में दलितों के साथ हो रहे अन्याय की तुलना किया करता था। मैंने सोचा कि यह उससे तो कई गुना ज्यादा है। इस पर भी लिखा जाना चाहिए। मैंने अपनी पहली किताब दक्षिण अफ्रीका पर लिखी -- ‘गोरे आतंक के खिलाफ काली चेतना’। वह अभी उपलब्ध नहीं है। उस पुस्तक की भूमिका में मैंने यह बात लिखी कि यहां के वर्ण व्यवस्था से उनकी रंग भेद नीति की तुलना हमको करनी चाहिए। यही मेरी यात्रा है, अनुवाद के सामाजिक सरोकार और मेरे लेखन के पीछे की यही कुछ प्रेरणाएं रही हैं।

आनंद स्वरूप वर्मा
विशिष्ट अनुवादक एवं पत्रकार
asverma1943@gmail.com 

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54सितम्बर, 2024

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