- नीलोफ़र उस्मानी
शोध सार : भारतवर्ष भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं भाषाई स्तर पर विविधता का देश है। बहुभाषिकता तथाबहुसांस्कृतिकता को सुरक्षित रखने के लिए छोटी से छोटी भाषा को भी महत्व दिया जाना चाहिए। देश ही नहीं अपितु विश्व में भी मैत्रीपूर्ण भाव विकसित करने में अनुवाद अहम भूमिका निभाता है। विश्व-साहित्य और ज्ञान को संग्रहित एवं प्रसारित करने का कार्य अनुवाद ने किया है। एक से अधिक भाषा के बोध से ज्ञान का विस्तार होता है। अनुवाद केवल भाषा का स्थानांतण नहीं है अपितु एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति का स्थानांतण है। अनुवादक ज्ञान,अनुभव और कुशलता से दो भाषाओं के मध्य बहुत-सी असमानताओं के बावजूद उसमें अंतर्निहित सार्वभौमिक तत्वों को उजागर करने का प्रयास करता है। जिससे सांस्कृतिक एकता स्थापित होती है। विचारपरक पाठ की तुलना में भावपरक पाठ का अनुवाद करना कठिन कार्य है। दो संस्कृतियों की दूरी को समाप्त करने के लिए अनुवादक को परिश्रम करना पड़ता है। संभवतः यह दूरी वह तभी समाप्त कर पाता है जब उसको मूल रचना की सामाजिक और भाषिक संरचना की गहरी समझ होती है। एक अच्छा अनुवादक काल और समय की दूरी को पाटता है। संस्कृतिबोध जितना अधिक होगा उतना ही अच्छा अनुवाद होगा। संस्कृति के विकास और पिछड़ने में अनुवाद की अहम भूमिका होती है। समाज के बदलाव में भी अनुवाद का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अनुवाद के द्वारा ही प्राचीन साहित्य को प्रसारित और संरक्षित किया जा सका है। बहुभाषी चिंतक, विचारक, दार्शनिक और साहित्यकार ही महान बन पाता है। किसी भी रचना को कालजयी बनाने में अनुवाद भी अपनी अहम भूमिका निभाता है। अनुवाद भारतीय लोकतंत्र को शक्ति प्रदान करता है। हाशिये के लोगों कि आवाज़ को मुख्यधारा में मिलाने का कार्य अनुवादक करता है लेकिन यह कार्य जोखिम भरा है। यह कार्य वही अनुवादक कर पाता है जो निडर होकर अपने नैतिक दायित्वों का निर्वाह करता है।
बीज शब्द : भारत, भाषा, अनुवाद, संस्कृति, बहुभाषिकता, स्थनांतरण, सांस्कृतिक एकता, समतुल्यता, लोकतंत्र, विश्व-साहित्य, विविधता, संप्रेषण, पूर्व, पश्चिम, विश्व-बंधुत्व, सेतु,।
मूल आलेख : कश्मीर से कन्याकुमारी, गुजरात से सिक्किम तक भारत में खान-पान, रहन-सहन रीति-रिवाज, वेशभूषा तथा भाषा के आधार पर अनेक विषमता एवं विविधता है। इस विशेषता के कारण ही यह देश विश्व प्रसिद्व है। भारत के संदर्भ में एक कहावत चरितार्थ है ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी।‘ मनुष्य स्वभाव से ही बहुभाषी होता है। बहुभाषी से तात्पर्य है वह व्यक्ति जो एक से अधिक भाषा बोलता और समझता हो। भारत जैसे बहुभाषा- भाषी देश में एक से अधिक भाषा का ज्ञान होना अत्यावश्यक है। भूमंडलीकरण की ’एक राष्ट्र, एक भाषा‘ की अवधारणा से बहुत सी भाषाओं का अंत हुआ है। भाषा किसी विशेष क्षेत्र की संस्कृति की संवाहक होती है। संस्कृति क्षेत्र विशेष की प्राकृतिक संपदा (नदी, पहाड़, पेड़-पौधों) सामाजिक संस्कार (रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, रीति-रिवाज) का समावेशी रूप है। भाषा उस विशिष्ट संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम है। शब्द संस्कृति की स्मृति हैं। एक भाषा का समाप्त होना एक संस्कृति का समाप्त होना है। विश्वव्यापी के लिए एक से अधिक भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है। केवल अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझकर ज्ञान का विस्तार नहीं किया जा सकता है। अधिकांश महापुरुषों को एक से अधिक भाषा आती थीं। उन्होंने अपने ज्ञान का विस्तार विश्व साहित्य पढ़कर किया था। “गांधी और टैगोर दोनों के लिए विदेशी भाषा एक ऐसी खिड़की थी जो उन्हें एक अन्य संस्कृति, एक अन्य सभ्यता, दुनिया में रहने के एक अन्य तरीक़े (या तरीक़ों) से दो-चार करवाती थी। उनके लिए अपनी भाषा के इलावा किसी दूसरी भाषा पर पकड़ बनाना स्वयं को कम संकीर्ण करने के साथ-साथ अपने को अधिक व्यापक बनाने का एक तरीका था।’’1
भाषा का निर्माण पृथ्वी पर स्थित हमारे परिवेश के नदी, पहाड़, झरनों की उपस्थिति से होता है। यदि इन प्राकृतिक अवयवों को समाप्त कर दिया जाए तो उसके आस-पास के बसे व्यक्तियों की भाषा का भी क्षरण हो जाता है। भाषा और समाज के बिंब उसके परिवेश से आते हैं। प्रसिद्ध भाषाविद् और साहित्यिक सिद्धांतकार गणेश देवी ने एक आयोजन में जहां विभिन्न भाषाओं के विद्वान एकत्रित थे, उन्होंने कहा था कि, “पेड़-पौधों, नदियों, समुद्र और पर्वतों के स्वास्थ्य को बचाए रखना बहुत ज़रूरी है। इनके नष्ट होने से भाषा नष्ट हो जाएगी, इसके आस-पास की संस्कृतियां नष्ट हो जाएँगी।’’2
लोकतंत्र का भाषा से गहरा संबंध है। ‘विकास’ के नाम पर पेड़-पौधों, पहाडों और नदियों को समाप्त करके हाई-वे, बड़े-बड़े कारखानों का निर्माण किया जा रहा है। जिससे उस स्थान के निवासियों का विस्थापन हो रहा है। विस्थापन केवल मनुष्यों का ही नहीं यह एक भाषा का भी विस्थापन है। धीरे-धीरे विस्थापित मनुष्यों की स्थानीय शब्दावली समाप्त होती जाती है और वह वहाँ की भाषा सीखता जाता है। गणेश देवी के जन भाषा सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 780 भाषायें बोली जाती हैं। प्रत्येक भाषा एक जीवनबोध को प्रकट करती है। लेकिन 22 भाषाओं को ही संविधान में स्थान मिला हुआ है। रमाशंकर सिंह अपने लेख ‘भाषा के सीमांत’ में कहते हैं कि, ‘‘धरती के गीतों के बचे रहने के लिए, धरती पर हर प्रकार की भाषा के बचे रहने के लिए यह एक आवश्यक शर्त है कि मनुष्य महानता का चस्का छोड़े और सबके लिए गुंजाइश बनने दे। धरती पर जब एक कोना काट दिया जाता है, तब भाषा का एक बड़ा भंडार भी समाप्त हो जाता है। जब एक नदी सूखती है तो एक पूरी की पूरी भाषा मर जाती है। वे लोग जो भाषा को बचाने की लड़ाइयाँ लड़ने की घोषणा कर रहे हैं, उन्हें उन लोगों का साथ देना चाहिए जो जंगल, नदी या किसी चिड़िया को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।’’3
बहुभाषिकता को सुरक्षित रखने के लिए सरकार को विकास के आयामों को परिवर्तित करना होगा। आदिवासी और अति पिछड़े वर्ग को मिटाकर नहीं बल्कि उनकी दृष्टि में विकास क्या है उसको समझना होगा। बहुसंस्कृति और बहुभाषिकता ही भारत ही विशेषता है। ‘‘भारत जैसे बहुभाषा भाषी देश में तो अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्व है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्वरूप को निखारने के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।’’4
‘‘वर्तमान युग अनुवाद का युग है। भारत जैसे बहुभाषाओं वाले देश में अनुवाद का महत्त्व बहुत अधिक है। विभिन्न भाषाओं से अनुवाद कार्य का उद्देश्य भाषा और साहित्य की समृद्धि के अतिरिक्त एक दूसरे को समझना तथा इस प्रकार के पारस्परिक अवबोध के सहारे एक दूसरे के अधिक निकट आना है। इसी उद्देश्य से भारत तथा विश्व की भाषाओं में प्रारम्भ से ही अनुवाद कार्य होता रहा है।’’5 अनुवाद के संदर्भ में पश्चिम में ‘बेबल’ की कथा प्रचलित है जिसका सार है कि मनुष्यों की एकता को तोड़ने के लिए ईश्वर ने मीनार बनाने वालों की भाषा अलग-अलग कर दी जिससे मिस्त्रियों में हलचल मच गयी। तब एक-दूसरे की भाषा समझने के लिए अनुवाद की आवश्यकता हुयी। व्यक्ति से समाज बनने की प्रक्रिया में भाषा प्राण तत्व है। भाषा परस्पर संप्रेषणीय होगी तभी आपसी वार्तालाप संभव है। लेकिन एक मनुष्य का एक या दो से अधिक भाषा बोलना और समझना संभव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में संप्रेषण स्थापित करने के लिए अनुवाद का सहारा लेना पड़ता है।
मूलतः अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा की पाठ्य सामग्री का स्थानांतरण नहीं है अपितु एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति में स्थानांतरण है। अनुवादक स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के आंतरिक सामान्य सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करता है। विश्व में भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक भेदभाव होने पर भी मनुष्य के तमाम ऐसे आंतरिक गुण हैं जो सार्वभौमिक हैं। इन सार्वभौमिक तत्वों को छाँटकर अनुवादक अपनी कुशलता से विभिन्न संस्कृतियों को समीप लाता है। ‘‘सभी देशों में अनुवाद की परम्परा इस बात की साक्षी है कि मनुष्य मात्र की अनुभूत्यात्मक संवेदनाएँ एक-सी हैं। परन्तु इन अनुभूतियों को व्यक्त करने वाली भाषाएँ भिन्न हैं। मनुष्य की अनुभूतियाँ ही भिन्न परिवेश में भिन्न मानदण्ड़ों के आधार पर भिन्न संस्कृतियों का रूप धारण करती है और उनकी भिन्न भाषाएँ उनकी वाहक बनती हैं। इस तरह जब एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में अनुवाद किया जाता है तो उसकी विचारधारा और संस्कृति का भी दूसरी भाषा में स्थानांतरण हो जाता है। अतः अनुवाद ही संस्कृतियों की पहचान का सार्थक उपकरण बनता है।’’6 अनुवाद दो भाषाओं के मध्य पारस्परिक संप्रेषण के द्वारा एक भाषा से दूसरी भाषा की सांस्कृतिक शब्दावली का आदान-प्रदान करता है। कैटफोर्ड, फेजर ने इस निकटता को ’समतुल्यता के सिद्धांत’ से रेखांकित किया है।
प्रसिद्ध विद्वान कैटफोर्ड ने अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार दी है, “अनुवाद एक भाषा के पाठपरक उपादानों का दूसरी भाषा के पाठपरक उपादानों के रूप में समतुल्यता के सिद्धांत के आधार पर प्रतिस्थापन है।’’’[1]7
समदृश्यता के द्वारा लक्ष्य भाषा के पाठक को स्त्रोत भाषा की संस्कृति से परिचित कराया जाता है। उदाहरण के लिए हिंदी में ‘मेरा चाँद’, ’मेरा लाल‘, ‘मेरा पुत्तर’ के लिए अंग्रेज़ी में ‘My moon’, ‘My red’ हास्यास्पद अनुवाद होगा। उचित अनुवाद के लिए अंग्रेज़ी में जो प्रिय के समतुल्य शब्द आते हैं, वह ‘My Sweet heart, Honey
आदि शब्द हैं। दूसरा उदाहरण हिंदी मुहावरे ’ईद का चाँद’ होने का भावपरक समतुल्य अंग्रेज़ी का ‘Blue Moon’ मुहावरा होगा। दोनों मुहावरों का भाव अपनी भाषा की प्रकृति के अनुसार एक ही निकल रहा है। मुहावरों और लोकोक्तियों का अनुवाद करना कठिन होता है, इनमें सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता अधिक होती है। यदि दोनों भाषा के मध्य कोई भावपरक समतुल्यता नहीं मिलती है तो अनुवादक व्याख्यापरक सिद्धांत के माध्यम से सांस्कृतिक शब्दावली को पाद-टिप्पणी में व्याख्यायित करता है। दोनों ही स्थिति में सांस्कृतिक एकता का भाव उत्पन्न होता है। ‘‘व्लदीमीर ने एक और सुंदर अवधारणा प्रस्तुत की Source language नहीं Source culture और Target culture में समतुल्यों की तलाश जिसके बिना कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है और अभिव्यक्ति की पूर्णता के लिए यह समझना ज़रूरी है कि लक्ष्य संस्कृति (TC) में अगर इन प्रदत्त तत्वों का अभाव है- वस्तु, अवधारणाएँ, सामाजिक संस्थाएँ, व्यवहार की पद्धतियाँ (object, concept,
social institution, pattern of behaviour) वगैरह तो भाषा निश्चय ही कोई अभिव्यक्ति प्रदान नहीं कर सकेगी, यही अनुवादक का अर्थ है कि वह लक्ष्य भाषा में अभिव्यक्ति प्रदान करे और उन अभावों की पूर्ति करे जो स्त्रोत संस्कृति का समतुल्य नहीं बन पा रहे हैं।’’8 सांस्कृतिक गेप के कारण अनुवादक ऐसी बहुत सी समस्याओं का सामना करता है। अनुवादक को दोनों भाषाओं की संस्कृतियों की गहरी समझ होना अत्यावश्यक है। अनुवादक को किसी कृति का अनुवाद करने से पहले उस कृति के रचनाकाल, इतिहास, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं आर्थिक परिस्थितियों का बोध होना आवश्यक है। यदि अनुवादक क्लासिक साहित्य का अनुवाद कर रहा है तो उसे क्लासिक संस्कृति की समझ होनी चाहिए। अन्यथा वह उचित अनुवाद नहीं हो पाता है। ‘‘संस्कृति के व्यतिरेक के कारण भाषाओं की संरचना एवं अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न हो जाती है और इसलिये एकता के बिन्दु प्रायः नज़र नहीं आते। ऐसी स्थिति में बहुभाषा भाषी विश्वजनता के बीच अनुवाद एक सुदृढ़ सांस्कृतिक सेतु का कार्य करता है। यह एक ऐसा सेतु है जिसके माध्यम से समय तथा दूरी के अन्तराल को पार किया जा सकता है।’’9
जिस रचना की जड़े उसके सांस्कृतिक अंचल में गहरी होती है वह रचना कालजयी बन जाती है। ऐसी रचना का अनुवाद करना कठिन कार्य हो जाता है। नगर से संबंध रखने वाली रचनाओं में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ गूढ़ नहीं होते हैं। मैला आँचल का अनुवाद करना गोदान की तुलना में अधिक कठिन कार्य है। ‘‘प्रमोद तलजेरी ने सांस्कृतिक विशिष्टता का उद्घाटन करते हुए कहा है कि साहित्यिक कृतियाँ अपनी जड़ें इस सांस्कृतिक अवबोध में ही गहरे बनाती हैं और इसकी सार्थकता प्रायः सांस्कृतिक अंचल में ही निहित होती हैं। ये कृतियाँ निश्चित रूप से ऐतिहासिक विकास के किसी मोड़ पर ही प्रकट होती है। लेकिन ऐसी साहित्यिक रचना जिसकी जड़ें किसी सांस्कृतिक अंचल में गहरे होती हैं, वह अपने तत्कालिक ऐतिहासिक दौर की सीमाओं का अतिक्रमण करके काल का निषेध करती हुई क्लासिक बन जाती है।’’10 ऐसी क्लासिक रचनाओं का अनुवाद गहरे संस्कृतिबोध और सृजनात्मकता के बिना संभव नहीं होता है।
आत्मतुष्ट संस्कृति अपने को श्रेष्ठ समझने के कारण किसी दूसरी संस्कृति से कुछ ग्रहण नहीं कर पाती है। अनुवाद तभी होगा जब दूसरी संस्कृति के प्रति आदर भाव होगा। अमेरिका अपनी भाषा और संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ मानता है जिससे वहाँ के निवासी एकभाषी हो गए हैं। पिछले कुछ दिनों में अमेरिका ने अपनी इस सीमा को पहचाना और अपने विद्यालयों में दूसरी भाषाओं का भी अध्ययन कराना प्रारंभ किया है। वर्तमान समय में एकभाषी होना कूपमंडूक होना है। प्रभाकर माचवे कहते हैं कि, ‘‘संस्कृति शब्द के अनेक आयाम हैं-सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक, साहित्य और ललित कला संबंधी, प्रत्येक पक्ष में संस्कृति के विकास में और पिछड़ने में अनुवाद का योगदान, महत्व, द्वन्द्वात्मक प्रभाव लक्षित होता है।’’11
सामाजिक बदलाव में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पश्चिम में अनुवाद की परंपरा का प्रारंभ बाइबिल के अनुवाद से होता है। बाइबिल का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ जिससे अनुवाद-सैद्धांतिकी का निर्माण भी हुआ। इसी कारण पश्चिम में अनुवाद के क्षेत्र में बाइबिल के अनुवाद की ऐतिहासिकता है। ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से बाइबिल का अनुवाद कराया गया था। सेंट जेरोम के विवादास्पद अनुवाद और जॉन विक्लिफ के अंग्रेज़ी अनुवाद ने ईसाई धर्म को एक नया आयाम दिया, जो प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय के रूप में सामने आया। बौद्ध धर्म को प्रसारित करने में भी अनुवाद का बड़ा योगदान है। पूरे एशिया महाद्वीप में अनुवाद के माध्यम से ही यह धर्म फैला था।
प्राचीनकाल की संस्कृति को प्रसारित और संग्रहीत करने का कार्य अनुवाद ने किया है। अरबों ने भारत के गणित, आयुर्वेद, खगोलशास्त्र का अनुवाद अरबी भाषा में किया। रोम ने यवन संस्कृति को अनुवाद के माध्यम से सीखा। पश्चिम में भी भारतीय वेद, उपनिषद एवं पुराणों का अनुवाद अंग्रेज़ी में हुआ। जिस प्रकार से यूरोप के नवजागरण में ग्रीक और लैटिन के अनूदित ग्रन्थों का महत्वपूर्ण योगदान रहा उसी प्रकार से भारतीय नवजागरण में भी पश्चिम के ग्रन्थों का अनुवाद महत्वपूर्ण रहा। अंग्रेज़ जब भारत पर शासन करने आये तो यहाँ की संस्कृति और सभ्यता को समझने के लिए उन्होंने प्राचीन साहित्य का अनुवाद कराया। जिससे उन्हें अपना साम्राज्य स्थापित करने में सहायता मिली। इसी प्रकार से पंचतंत्र का अनुवाद विश्व कथा साहित्य के निर्माण के लिए बहुत सहायक रहा। पंचतंत्र का सर्वप्रथम पहलवी भाषा में अनुवाद सन् 570 में हुआ उसके बाद सिरीयक, अरबी तथा यूरोप की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। ‘‘यह तो अत्यंत प्रसिद्ध है कि जर्मन कवि, नाटककार एवं समालोचक गेथे को ’विश्व साहित्य’ की परिकल्पना को विकसित करने की प्रेरणा शाकुन्तल के अनुवाद को पढ़कर मिली थी। आधुनिक यूरोप में जो भारतीय साहित्य की रचनाएँ अत्यन्त लोकप्रिय हुई, उनमें शाकुन्तल का विशिष्ट स्थान है। इसका अनुवाद 1789 में विलियम जोन्स ने अंग्रेज़ी में किया था और गियार्ग फारस्टर ने 1791 में इसी अनुवाद पर आधारित जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया था।’’12
पूर्व के दार्शनिक चिंतकों का अध्ययन करके ही पश्चिम के दार्शनिक कांट, हीगल, नीत्से और सार्त्र ने दार्शनिक सिद्वांत दिए। अंग्रेज़ी रोमांटिक काव्य ने इटली, यूनान, फ्रांस तथा पश्चिमी एशिया के प्रभावों से अपने को अनुवादों के माध्यम से ही जोड़ा था। अंग्रेज़ों ने जब भारत को अपना उपनिवेश बनाया तो यहाँ सन् 1775 में सर विलियम जोन्स द्वारा स्थापित बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने प्राचीन भारतीय साहित्य का अनुवाद और प्रकाशन कार्य किया। सन् 1798 में सर मोनियर विलियम्स ने कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ का अनुवाद किया। ‘‘भारत में अंग्रेज़ी राज की स्थापना के बाद नवजागरण की जो नवीन चेतना प्रस्फुटित हुई उसमें अनुवाद की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। फ्रांसीसी राज्यक्रांति, यूरोपीय पूँजीवाद उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की शक्तियों और उनके खतरों से हम अनुवाद के माध्यम से ही परिचित हुए थे। पश्चिम में मार्क्स, रूसो, डार्विन और टॉलस्टॉय के विचारों के साथ यूरोप में जिस नवचिंतन का आरंभ हुआ था, उसे भारत तक पहुँचाने के कार्य के लिए भी अनुवाद को बार-बार स्मरण करना पड़ता है। इन अनुवादों से एक नए बुद्धिवाद का उदय हुआ तथा मध्ययुगीन जड़ता का ध्वंस हुआ।’’13 गेथे के अनुवाद और वारान्निकोव द्वारा रामचरितमानस के अनुवाद ने भारत और रूस के संबंध को मज़बूत किया था। जनता में आज विश्व साहित्य को पढ़ने की रूचि बढ़ती ही जा रही है। जिससे अनुवाद की माँग बढ़ी है। महानकवियों का साहित्य अनुवाद के माध्यम से अपने देश तक सीमित नहीं रहता है अपितु विश्व विस्तार पाता है। तॉलस्तॉय, गेटे, रूमी, अमीर खुसरो, शेक्सपीयर, कालिदास, शैली, बायरन, मोपांसा, अरस्तू, प्लेटो, सुकरात, दांते, कार्ल मार्क्स आदि ऐसे दार्शनिक और विद्वान हैं जो आज भी अनुवाद के कारण जीवित हैं। कालिदास, तुलसीदास, रवींद्रनाथ टैगोर केवल भारत के ही लेखक रह जाते, यदि इनकी रचनाओं का अनुवाद अन्य भाषाओं में उपलब्ध न होता। विश्व ही नहीं भारत में भी इतनी भाषाएं हैं एक व्यक्ति का सबको जानना असंभव सी बात है। अनुवादक लक्ष्य भाषा में पाठकों को अन्य भाषाओं की रचनाओं का आस्वादन कराता है। ‘‘पुरातन सभ्यताओं के उदय तथा अस्त की कहानी इस बात की साक्षी है कि यदि तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान, कला तथा साहित्य की रक्षा अन्य भाषाओं के अनुवादकों ने न की होती तो उनकी गौरव गाथाएँ विस्मृति के गर्भ में कब की विलीन हो गई होती।’’14
भारत जैसे बहुभाषा भाषी देश में संचार, तकनीकी और विज्ञान की शिक्षा को सामान्य जन तक पहुँचाने के लिए उनकी भाषा में वह ज्ञान उपलब्ध कराना होता है जोकि अनुवाद के माध्यम से संभव हो पाता है। दैनिक क्रियाकलाप के लिए भी ऐसे समाज को प्रत्येक पग पर अनुवाद की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में यूनेस्को जैसी संस्था विश्व स्तर पर और राज्य स्तर पर साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, ज्ञानपीठ आदि संस्थाएँ भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद कार्य को विकसित कर रही है। अनुवाद के महत्व और आवश्यकता को दृष्टि में रखकर साहित्य अकादमी प्रतिवर्ष 22 संवैधानिक भाषाओं में लेखकों के साथ-साथ प्रत्येक भाषा के अच्छे अनुवादक को भी पुरस्कृत करती है। यह एक सराहनीय कार्य है। जिससे अनुवादक को लेखक से कमतर होने का भाव अनुभव नही होता है। भारत की प्रथम अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत-समाधि’ का डेज़ी रॉकवेल ने ‘Tomb of
Sand’ के नाम से अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद किया है। अंग्रेज़ी विश्व में दूसरे स्थान पर सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। अंग्रेज़ी में अनुवाद होने से इस कृति को अधिक पाठक मिले संभवतः इसी कारण इस उपन्यास को पुरस्कृत किया गया है। पुरस्कार की राशि लेखक और अनुवादक को बराबर-बराबर दी गयी। अनुवाद-कर्म एक श्रम-साध्य कर्म है। इस प्रकार के पुरस्कार अनुवादक को प्रोत्साहित करते हैं। अनुवादक भौगोलिक सीमा पाट कर पाठक के मध्य सांस्कृतिक एकता स्थापित करता है। ‘‘अनुवाद-कर्म वास्तव में राष्ट्रसेवा का कर्म है। संवाद की सशक्त भाषा है ‘अनुवाद’। मौन तोड़ने की दिशा में अनुवाद की भूमिका उल्लेखनीय है। दो भाषाओं, संस्कृतियों, रीति-रिवाजों, धाराओं, धर्मों, समाजों, राज्यों और देशों के मध्य एक ‘सेतु’ का कार्य करता है ’अनुवाद’।’’15
भारत में अनुवाद की परंपरा बहुत पुरानी है। प्रारंभ में टिप्पणी, भाष्य के नाम से अनुवाद को जाना जाता था। आदिकालीन कवि बहुभाषी होते थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में दिखाई देती है। ‘‘भारतीय साहित्य को समझने के लिए तीन भाषाओं का ज्ञान ज़रूरी है ऐसा डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी मानते थे : संस्कृत, तमिल या कोई प्राचीन द्रविड़ भाषा और अंग्रेज़ी। हमारी भाषाओं के मूल ढाँचों और साहित्य के भंडार पर इन तीन स्त्रोतों का गहरा योगदान अनुवाद के माध्यम से हुआ है।’’16 आधुनिककाल के प्रारंभ में भी बंगला, मराठी तथा अंग्रेज़ी भाषा से बहुत से अनुवाद किए गए। वर्तमान युग में तो ज्ञान-विज्ञान, साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में विश्व की लगभग सभी भाषाओं में बहुतायत से अनुवाद हो रहे हैं।
भारतीय लोकतंत्र में अनुवाद कार्य एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। दलितों, स्त्रियों, पिछड़ों और शोषितों की आवाज़ को मुख्यधारा से मिलाने के लिए अनुवाद की सहायता लेनी पड़ती है। सरकारी पत्रिकाओं और सरकारी मंचों पर इस प्रकार की आवाज़ को उठाना जोखिम भरा होता है। अनुवादक को नौकरी एवं जीवन का बचाव करना मुश्किल होता है। राजनीतिक मुद्दों तथा नीतियों को हाशिये पर स्थित व्यक्तियों तक वही अनुवादक पहुंचा सकता है जो अनुवाद के नैतिक दायित्व को समझेगा। तभी राजनैतिक संवाद संभव है। ऐसे अनुवादक स्वतंत्र रूप से अपना यू ट्यूब चैनल बनाकर या फिर साधारण से प्रकाशक से अनूदित सामग्री प्रकाशित कराकर दबी अवाज़ों को उठाते हैं। जो शक्तिहीन समूह अपने अधिकार और समानता के लिए अनुवाद पर निर्भर हैं, अनुवादकों को अनिवार्य रूप से नैतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन चिंताओं, अनुभवों और समस्याओं को अनुवाद के माध्यम से अभिव्यक्त करना दुष्कर कार्य होता है। वर्तमान समय में सत्ताधीन सरकार भारत जैसे बहुभाषी देश को ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति‘ बनाने पर आमादा है। परिणामस्वरूप अल्पसंख्यकों को हीन समझकर दबाया जा रहा है। ऐसे में किसी अनुवादक का सशक्त भाषा में इनका अनुवाद करना मुश्किल कार्य है। प्रसिद्ध अनुवादक अरुनवा सिंहा ने जयपुर लिटरेरी फेस्ट में कहा था कि, “अनुवाद लोकतंत्र की भाषा है । प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से महत्वपूर्ण है, प्रत्येक को सुना जाना चाहिए । इस समय जब हम विविधता को बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं, तब यह आवशयक है कि हम एक-दूसरे को समझें और गैरपन करना बंद कर दें। यहाँ पर अनुवाद अपनी भूमिका निभाता है।”17
अंग्रेज़ी विद्वान निकोले डॉर्र का मानना है कि, “राजनीतिक अनुवाद एक लोकतान्त्रिक प्रभाव डाल सकता है। विभिन्न समूहों का लोकतान्त्रिक संवाद स्वतन्त्र राजनीतिक अनुवादों के लिये एक महत्वपूर्ण तीसरे स्थान के संस्थागतकरण पर निर्भर करता है जो प्रमुख समूहों या परस्पर विरोधी दलों का हिस्सा नहीं बनते हैं”।18 एक दलित और आदिवासी साहित्यकार अधिकांशतः अपनी रचना का सर्जन अपनी भाषा में करना अधिक सुविधाजनक समझता है। अनुवाद केवल हिन्दी अंग्रेज़ी भाषा की रचना का ही नहीं होना चाहिए बल्कि क्षेत्रीय भाषा की रचनाओं का भी मुख्य भाषा में अनुवाद होना चाहिए।
निष्कर्ष : निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में अनुवाद की आवश्यकता कदम-कदम पर पड़ती है। अनुवाद भारत की ‘अनेकता में एकता’ की ‘मुश्तरका तहज़ीब’ को स्थापित करने का सशक्त माध्यम है। भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। अन्य संस्कृतियों से परिचित होने के लिए वहाँ की भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है। बहुभाषिकता व्यक्ति के ज्ञान एवं चिंतन को विस्तार देती है। मनुष्य विद्वान तभी बनता है जब वह अपने मस्तिष्क की मातृभाषा रूपी दरवाज़े के साथ-साथ अन्य भाषाओं की खिड़कियाँ भी खोले रखे। कालजयी चिंतक और साहित्यकार इसका उदाहरण हैं। अनुवाद-कर्म एक जोखिम भरा कार्य है। वह एक संस्कृति की देहरी को पार करते हुए बड़ी कुशलता से दूसरी संस्कृति के द्वार में प्रवेश करता है। अनुवादक दोनों भाषाओं के मध्य उन अंतर्भूत मानवीय मूल्यों को उजागर करता है जो सार्वभौमिक हैं। ‘नयी शिक्षा नीति’ के तहत भी अनुवाद की माँग बढ़ी है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने के उद्देश्य से विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी की अच्छी पुस्तकों का अन्य भाषाओं में अनुवाद कराया जा रहा है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अनुवाद वह सेतु है जिसके माध्यम से पाठक विश्व का भ्रमण करता है।
2. वही, (भाषा के सीमांत पर-रमाशंकर सिंह), पृ. 51-52।
3. वही, पृ. 61।
4. जी० गोपीनाथन, अनुवाद : सिद्धांत एवं प्रयोग, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, द्वितीय सं. 1990, पृ. 14।
5. आरिफ़ नज़ीर, अनुवाद : सिद्धांत और स्वरूप, साहित्य प्रकाशन, आगरा, सं. 1992, पृ. 24।
6. अनुवाद, सं. नीता गुप्ता, (अनुवाद के आईने में संस्कृतियों की खोज-कमल कुमार), अंक 100-101, जुलाई-दिसंबर, 1999, पृ. 310।
7. J.C. Catford, A Linguistic Theory of Translation, Oxford University Press, London, Fifth impression 1978, P. 20.
8. प्रदीप सक्सेना, अनुवाद सैद्वान्तिकी, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), सं. 2000, पृ. 127।
9. जी० गोपीनाथन, अनुवाद : सिद्धांत एवं प्रयोग, पृ. 09।
10. प्रदीप सक्सेना, अनुवाद सैद्धान्तिकी, पृ. 129।
11. अनुवाद, (अनुवाद के आईने में संस्कृतियों की पहचान-प्रभाकर माचवे), पृ. 301।
12. जी० गोपीनाथन, अनुवादः सिद्धांत एवं प्रयोग, पृ. 12।
13. अनुवाद विज्ञान सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, सं. डॉ. नगेन्द्र, पृ. 403।
14. अनुवाद, (राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य के निर्माता ये अनुवादक-गार्गी गुप्त), पृ. 08।
15. अनुवाद, (अनुवाद और अनुवादक की प्रतिष्ठा-पूरन चन्द टण्डन), पृ. 21।
16. अनुवाद, (अनुवाद के आईने में संस्कृतियों की पहचान-प्रभाकर माचवे), पृ. 306।
17. https://www.outlookindia.com.
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़
एक टिप्पणी भेजें