आधुनिक हिंदी साहित्य : अनुवाद की परंपरा और उद्देश्य / गौरव कुमार तिवारी

आधुनिक हिंदी साहित्य : अनुवाद की परंपरा और उद्देश्य
- गौरव कुमार तिवारी

शोध सार : आधुनिक काल को अपने पूर्ववर्ती काल-खण्डों से अलग करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है गद्य का प्रादुर्भाव इसने साहित्य से जन-जुड़ाव का मार्ग प्रशस्त किया। 19 वीं शताब्दी में संस्कृतियों के मिलावट का सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदी साहित्य भी इससे अछूता रहा, अतः इस काल में साहित्य को सामान्य जन तक पहुंचाने में एवं पाश्चात्य विचारों के साथ हिंदी साहित्य का तादात्म्य स्थापित करने हेतु अनुवाद का सहारा लिया गया। जहां एक ओर विदेशी ज्ञान धारा का हिंदी में अनुवाद किया जा रहा था वहीं भारत के प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान राशि को भी हिंदी में अनूदित कर संचित करने का कार्य द्रुत गति से होने लगा था। हिंदी साहित्य में नवीनता लाने और ज्ञान के प्रसार में अनूदित ग्रन्थों का विशेष महत्व है। आधुनिक हिन्दी साहित्य की अमूमन सभी विधाओं का आरंभ अनुवाद के माध्यम से हुआ है। प्रस्तुत आलेख के माध्यम से 1850-1900 के मध्य हुए साहित्यिक, सांस्कृतिक और वैचारिक साहित्य पर आधारित प्रमुख अनूदित ग्रंथों की अंतर्वस्तु का विश्लेषण कर प्रारम्भिक अनुवाद परम्परा को  विश्लेषित किया जाएगा

बीज शब्द : सर्वेक्षण, समालोचना, विश्लेषण, साम्राज्यवाद, उद्देश्य, अनूदित, उपनिवेश, प्रादुर्भाव, पाश्चात्य संस्कृति, परंपरा, समावेश, निर्मिति, निरूपण।

मूल आलेख : अनुवाद ज्ञान विज्ञान की समस्त शाखाओं के प्रसरण का माध्यम रहा है, जो विभिन्न देशों और संस्कृतियों के साथ मनुष्य और समाज के संबंध के आधार पर आकार लेता है। आधुनिक मूल्य बोध के आदर्श के आधार पर देखा जाय तो समाज की विभिन्न जातियों और लोगों के मध्य संबंध समतामूलक होना चाहिये जो कि नहीं रहा है। फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना और प्राच्यवादियों की अथक श्रमसाधना के बावजूद भी 1857 के भारत और यूरोप के मध्य सम्बन्धों में समता का अभाव दृष्टिगोचर होता है। सर हेनरी इलियट जैसा साम्राज्यवादी इतिहासकार भी इसकी पुष्टि करता है कि यूरोपीय लोगों ने एशिया और अफ्रीका जैसे महाद्वीपीय देशों में प्रचलन में रही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं के साथ ही धर्म को भी 'बर्बरता' का ही अंग माना और उनकी मान्यता रही कि इनको बर्बरता मुक्त कर सभ्य समाज में परिणत करने का दायित्व यूरोप पर ही है। इससे कहीं कहीं यूरोप में सामाजिक एवं राजनीतिक श्रेष्ठता का अहंकार मौजूद था। इस स्थिति में भारतीय साहित्यकारों ने अपनी सामाजिक जरूरतें पूरी करने के ध्येय से आरंभिक दौर में ज्ञानाधारित साहित्य का अनुवाद प्रचुर मात्रा में किया। साहित्य और भाषा की श्रीवृद्धि के दृष्टि से देखा जाय तो आरंभिक दौर में अनुवाद कार्य को लेकर वैयक्तिक प्रयास कम बल्कि सांस्थानिक प्रयासों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है यद्यपि राजा लक्ष्मण सिंह और सितारेहिंद के अनुवादों को उदाहरण के तौर पर  लिया जाय तब भी बगैर शिक्षा विभाग के सहयोग के यह संभव था। अर्थात पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव का परिणामस्वरूप भारतीय साहित्यकारों ने संस्कृत और अंग्रेजी की अनेक महत्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद किया जिससे भारतीय जनमानस को नवीनतम वैज्ञानिक विचारधाराओं से परिचित कराया जा सके अतः यह कहना ठीक ही है कि- आरंभिक अनुवादकों ने परवर्ती साहित्यकारों का मार्ग प्रशस्त किया जिसका परिणाम हमें द्विवेदी युग तक आते-आते दिखाई पड़ने लगता है कि- यूरोप और अन्य देशों के असमानता परक संबंधों का विरोध लेखकों की रचनाओं में दिखाई पड़ने लगता है जो यूरोपीय संस्कृति के दंभ के अस्वीकार में परिणत होता है।

साहित्य में आधुनिक काल की परिणति तमाम उतार-चढ़ाव भरे सामाजिक दायित्वों का निर्वहन  करते हुए साहित्यिकों की देन है तब यह कहना ठीक ही है कि- साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में विघटित तमाम  विसंगतियों के फलस्वरूप आधुनिक हिंदी साहित्य बदलाव के दौर से गुजरता है और अपना एक विशिष्ट स्वरूप निर्मित करता है। आधुनिक काल से पूर्व हिन्दी में काव्य सृजन का बोल-बाला था। अधिकांश कवि काव्य सृजन में रत रहते थे, गद्य रचना की ओर इनका ध्यान के बराबर था। अतः नवजागरण काल मूलतः भाषा, साहित्य, समाज और सांस्थानिक रूप से हिन्दी का प्रौढ़तम काल रहा है। राम स्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि- "नवजागरण दो संस्कृतियों के टकराहट से उत्पन्न एक रचनात्मक ऊर्जा है।" इन दो संस्कृतियों के मेल का सबसे बड़ा कारक है "अनुवाद" क्योंकि बगैर अनुवाद के यह संभव नहीं था। अतः अनुवाद विभिन्न भाषा-भाषियों के मध्य सांस्कृतिक सेतु का कार्य करता है। जिससे विभिन्न समुदायों और समाज के मध्य भावात्मक एकता स्थापित होती है। दुनिया के जिन देशों में भिन्न - भिन्न जातियों संस्कृतियों का मिलन हुआ है, वहां की सामाजिक एवं सांस्कृतिक निर्मिति में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जहां तक हिंदी साहित्य में अनुवाद की प्रक्रिया का सवाल है तो इसके स्रोत हमें मध्यकालीन रचनाकारों की रचनाओं में अनेक स्थलों पर संस्कृत के श्लोकों के छाया, टीका या व्याख्या के रूप में देखने को मिलते हैं। तुलसीदास, रही, कवि गंग, जसवंत सिंह आदि ने अनुवाद को अपनी रचनात्मक प्रतिभा के बल पर मौलिकता के साथ प्रस्तुत किया है।

देश में अंग्रेजी सत्ता के स्थापित हो जाने से केवल राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तित हुई बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक,आर्थिक और भाषायी स्तर पर साहित्यिक स्वरूप में भी परिवर्तन की प्रक्रिया का सूत्रपात होता है। मसलन मध्यकालीन जड़ता, रुढ़िवाद और श्रृंगारिकता का त्याग कर 'हिंदी साहित्य' भी आम जनमानस की समस्याओं से जुड़ा और भाव, भाषा-शैली एवं विषय में भी नवीनता का समावेशन करने की ओर उन्मुख दिखाई पड़ने लगा। अतः आधुनिक हिंदी साहित्य सुधार की व्यापक प्रक्रिया की देन है "सुधार, परिष्कार और अतीत का पुनराख्यान नवीन दृष्टिकोण की देन है। आधुनिक युग की ऐतिहासिक प्रक्रिया का ही परिणाम है कि साहित्य की भाषा ही बदल गयी, ब्रजभाषा की जगह खड़ी बोली ने ले ली। 1 खड़ी बोली की केन्द्रियता साहित्य में आने से जो परिवर्तन हुए उनमें महत्वपूर्ण है गद्य की विभिन्न विधाओं का विकास एवं कविता के लिए खड़ी बोली की स्वीकारोक्ति जो गैर अनुवाद के संभव था।  अतः अनुवाद ही वह मूल कारक है जिसके संसर्ग से आधुनिक हिंदी साहित्य का निर्माण हुआ। आधुनिक काल का अपने पूर्ववर्ती कालों से पृथक होने का प्रमुख कारण है - खड़ी बोली गद्य का विकास, संवर्धन एवं अन्य गद्य विधाओं का सूत्रपात आधुनिक काल में द्य विधाओं की प्रमुखता के कारण ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने दोहरे नामकरण की पद्धति का अनुसरण करते हुए आधुनिक काल को गद्य काल' (सं. 1900 - 1984वि.) की संज्ञा से अभीहित  करते हुए गद्य के आविर्भाव को आधुनिक काल की प्रमुख घटना स्वीकार किया आचार्य शुक्ल के अनुसार – “आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है।"2 अतः यह प्रधान साहित्यिक घटना परस्पर दो विरोधी संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न होती है और एक रचनात्मक स्वरूप में हिन्दी साहित्य के विकास की प्रक्रिया के साहित्यिक प्रतिरुप का एक अंशगद्यके विकास के रूप में हमें मिलता है। जिसका प्रमुख कारकअनुवाद' था उस दौर में अनुवाद ही वह माध्यम था जिससे एक दूसरे की सभ्यता और संस्कृति को जानने का प्रयास किया गया। यदि खड़ी बोली के गद्य की विकास परम्परा की बात की जाय -तो हमें खड़ी बोली हिंदी गद्य की प्रौढ़तम पुस्तक राम प्रसाद निरंजनी कृत "भाषा योगवाशिष्ठ (1941) के रूप में मिलती है, जो वशिष्ठ कृत संस्कृत वेदांत ग्रन्थयोगवाशिष्ठका हिंदी अनुवाद है। अब तक पायी गयी पुस्तकों में यह सबसे प्राचीनतम हैं, जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता है। खड़ी बोली गद्य के विकास परम्परा में बसवा वासी (मध्य प्रदेश) पं. दौलत राम शर्मा का विशेष योगदान है। इन्होंने कई पुस्तकों का अनुवाद बोल-चाल की खड़ी बोली में किया। सन 1761 में इनके द्वारा किया गया आचार्य हरिषेण कृतजैन पद्मपुराणका भाषानुवाद विशेष महत्व रखता है, जिसमें अरबी, फारसी के शब्दों का रंच मात्र भी प्रयोग नहीं किया। अर्थात. आचार्य शुक्ल  इस परंपरा की अगली  कड़ी जिस पुस्तक को मानते हैं वह एक अनुवाद है - " संवत, 1818 (सन 1761 .) वि. में बसवा निवासी (मध्यप्रदेश) निवासी पं दौलतराम ने हरिषेणाचार्य कृतजैन पद्मपुराण' का भाषानुवाद किया है। 3

खड़ी बोली गद्य की अखंड परंपरा का आरंभ मूलतः अनुवाद कार्यों से ही होता है। आगे ईसाई मिसनरियों ने ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपने धार्मिक ग्रन्थों को बोलचाल की आम भाषा में भी अनुवाद कराया जिससे आम बोल-चाल की भाषा का परिष्कृत रूप सामने आया अनुवाद के भौतिक उद्देश्यों के लिए गद्य का प्रयोग डा. राम स्वरूप चतुर्वेदी ने फोर्ट विलियम कॉलेज के भाषा मुंशियों द्वारा  लिखित (अनूदित) पुस्तकों से स्वीकरते हुए कहते हैं-" फोर्ट विलियम कालेज का योगदान आधुनिक खड़ी बोली गद्य की प्रारंभिक रचनाओं के क्षेत्र में है, जिसमें प्रमुख है सन 1803 ई० में लिखित लल्लूलाल का प्रेमसागरऔर सदल मिश्र का 'नासिकेतोपाख्यान"4 इन दोनो ही महत्वपूर्ण कृतियों की रचना अनुवाद के माध्यम से हुई है। जिसमें - "लल्लू लाल का 'प्रेम सागर' श्रीमदभागवत के दशम स्कंद का चतुर्भुज शर्मा के व्रज भाषा रुपांतर का खड़ी बोली में अनुवाद है तथा सदल मिश्र का नासिकेतोपाख्याननचिकेता के प्रसिद्ध संस्कृत आख्यान का खड़ी बोली में रुपांतर है। "5 हिंदी गद्य प्रवर्तन  की अखंड परंपरा का श्रेय जिन चार कृतियों को दिया के जाता है उनमें से तीन तो अनुवाद ही है-

       मुंशी सदासुख लाल नियाज का 'सुखसागर' श्रीमद्भागवत के दशमस्कंद का अनुवाद है।

       लल्लू लाल का 'प्रेमसागर' (सन 1803 .) भागवत पुराण के दशम स्कंद का चतुर्भुज शर्मा के ब्रजभाषा रुपांतर का ब्रज मिश्रित खड़ी बोली गद्य में अनुवाद किया गया  है।इसमें अरबी-फारसी के शब्द प्रयोग से यथासंभव बचने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। मुहावरों के प्रयोग कम करते हुए अलंकरण पर बल दिया गया है। इनकी भाषा शैली का नमूना इस प्रकार है- "जिस काल ऊषा बारह वर्ष की हुई तो उसके मुखचंद्र ज्योति देख पूर्णमासी का चन्द्रमा छवि-छीन हुआ, बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की अँधेरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लख नागिन अपनी केंचली छोड़ सटक गई। भौह की बँकाई निरख धनुष धकधकाने लगा, आँखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे।"6

 

       सदल मिश्र की बहुचर्चित कृति नासिकेतोपाख्यान' (सन 1803 .) भी नचिकेता के प्रसिद्ध संस्कृत आख्यान का खड़ी बोली मे रुपांतरण है। इसमें नासिकेत के उत्पति से यमलोक की यात्रा का वर्णन है। इसमें यत्र-तत्र पद्य का भी व्यवहार हुआ है। वाक्य रचना संस्कृतनिष्ठ है। इनकी भाषा शैली का उदाहरण इस प्रकार है- "इस प्रकार से नासिकेत मुनि यम की पुरी सहित नरक का वर्णन कर फिर जौन- जौन कर्म किए से जो भोग होता है सो सब ऋषियों को सुनाने लगे कि गौ, ब्राह्मण, माता-पिता, मित्र, बालक, स्त्री, स्वामी, वृद्ध, गुरु इनका जो बध करते हैं वो झूठी साक्षी भरते, झूठ ही कर्म में दिन-रात लगे रहते हैं, अपनी भार्या को त्याग दूसरे की स्त्री को ब्याहते औरों की पीड़ा देख प्रसन्न होते हैं और जो अपने धर्म से हीन पाप ही में गड़े रहते हैं वो माता-पिता की हित की बात को नहीं सुनते, सबसे बैर करते हैं, ऐसे जो पापी जन हैं सो महा डरावने दक्षिण द्वार से जा नरकों में पड़ते हैं।7    

अतः अनुवाद की परंपरा उत्तरोत्तर विकसित होती गयी और आधुनिक काल आते आते इस परंपरा का विस्तार हुआ। नवजागरण कालीन प्रत्येक लेखक-कवि ने मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनूदित रचनाओं को भी महत्व देना आरंभ किया। अनुवाद केवल साहित्य अपितु साहित्य से पूर्व भाषा की समृद्धि का माध्यम था। इस संदर्भ में भारतेन्दु कहते हैं.

"विविध कला शिक्षा अमित ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहु भाषा मांहि प्रचार"8

अर्थात भिन्न-भिन्न देशों और भाषाओं के साहित्य का आम बोल-चाल की खड़ी बोली में रूपांतरण कर देश और पाठक वर्ग को समर्पित करने का भाव जगाते हैं और उनके आह्वान पर उनके समकालीन लेखकों ने अनुवाद के महत्व को स्वीकारा तथा संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा की श्रेष्ठ रचनाओं का अनुवाद हिंदी को समर्पित किये। स्वयं भारतेन्दु एक सफल अनुवादक थे। उन्होने संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी की महत्वपूर्ण रचनाओं के अनुवाद हिंदी में किए जो खासे चर्चित रहे। केवल गद्य बल्कि पद्य का आरंभ भी आधुनिक काल में अनुवाद के ही द्वारा हुआ। खड़ी बोली पद्य की पहली रचना श्रीधर पाठक कृत 'एकांतवासी योगी’ (सन 1866) ऑलिवर गोल्डस्मिथ की हरमिटका काव्यानुवाद है।

आधुनिक काल में गद्य का आरंभ नाटकों से मानते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि- “विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तत नाटकों से हुआ। भारतेंदु से पहले नाटक नाम से दो-चार ब्रजभाषा में लिखे गए थे, उनमें महाराजा विश्वनाथ सिंह के 'आनंद रघुवंदन' नाटक को छोड़कर अन्य किसी में नाटकत्व था। हरिश्चन्द्र ने सबसे पहले 'विद्या सुंदर' नाटक का बंग्ला से सुंदर हिंदी में अनुवाद करके संवत 1925 वि. (सन 1868 .) में प्रकाशित किया। "9 आधुनिक हिन्दी साहित्य में भारतेंदु के पहले राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा सन् 1862 . मेंअभिज्ञान-शाकुन्तलम' का अनुवाद अत्यन्त सुन्दर एवं सरस रूप में किया गया था। इस अनूदित कृति की लोकप्रियता के कारण इसे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया। राजा लक्ष्मण सिंह ने इसके पहले संस्करण में केवल गद्यांशों का ही अनुवाद किया था लेकिन इसके द्वितीय संस्करण 1889 में पद्यांशो के अनुवाद को भी शामिल किया।जिससे गद्य के स्थान पर गाड़ी और पद्य के स्थान पर पड़ी का नुवाद हुआ यह हिंदी उर्दू विवाद के दौर था अरबी -फ़ारसी मिश्रित हिंदी का समर्थन शिवप्रसाद जी कर रहे थे तो वहीं तत्सम और तद्भव  शब्दावली से युक्त कहिन्दी के हिमायती राजा लक्ष्मण सिंह जी थे। शकुंतला नाटक के अनुवाद में ऐसी ही सरल,सहज,मुहावरेदार भाषा का प्रयोग लक्ष्मण सिंह ने किया है। नाटक में में दुष्यंत और शकुंतला के प्रणय,वियोग और पुनर्मिलन की कथा वर्णित है।यह अनुवाद अपने भाषा सौष्ठव के कारण इंग्लैंड और फ्रांस में काफी लोकप्रिय हुआ।   राजा लक्ष्मण सिंह के अनूदित नाटक में नाटकत्व के भावों का पता भारतेन्दु  के इस कथन से स्वत: चलता है- " हिन्दी भाषा में जो सब भांति की पुस्तकें बनने योग्य है, अभी कम बनी हैं, विशेषकर के नाटक तो (कुंवर लक्ष्मण सिंह के शकुन्तला के सिवाय) कोई भी ऐसे नहीं हैं जिसको पढ़के कुछ चित्त को आनंद और इस भाषा को बल प्रगट हो इस वास्ते मेरी इच्छा है किदो-चार नाटकों का तर्जुमा हिंदी में हो जाए तो मेरा मनोरथ सिद्ध हो।10  अर्थात अपने समय और बाद के अनुवादकों के लिए लक्ष्मण सिंह का अनुवाद पाथेय बना। जिससे प्रेरित होकर हिंदी में अनुवाद की एक लम्बी एवं सुदीर्घ परम्परा प्रचलन में आयी और कालान्तर में अलग- अलग भाषाओं की भिन्न-भिन्न तरह की पुस्तकों का अनुवाद हिन्दी में होने लगा तथा हिन्दी में अन्य गद्य विधाओं जैसे उपन्यास, कहानी, आलोचना, निबन्ध आदि का भी सूत्रपात नाटकों की तरह अनुवाद के माध्यम  से होता है। " हिंदी में आधुनिक ढंग के उपन्यासों का आरंभ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भारतेंदु केपूर्ण प्रकाशऔरचन्द्रप्रभा' से माना है जो स्पष्टतः किसी मराठी उपन्यास का अनुवाद या छायानुवाद है।"11 उपन्यास की परंपरा भी कहीं कहीं अनुवाद के ही मार्फत आरंभ होती दीखायी पड़ती है।

            ठीक इसी तरह की किशोरी लाल गोस्वामी विरचित 'इंदुमतीको हिंदी के कुछ आलोचकों ने हिंदी की पहली कहानी स्वीकार किया है "यह कहानी भी विलियम शेक्सपियर की टेम्पेस्ट की छाया  लेकर लिखी गई है।"12 निबंध को आधार प्रदान करने में जिन दो रचनाओं का उल्लेख मिलता है वह भी अनुवाद ही हैं। "प्रथम ग्रन्थ का निबंध मालादर्श' (सन् 1899 .) विष्णु कृष्ण चिपलूणकर के मराठी निबंधों का गंगा प्रसाद अग्निहोत्री द्वारा किया गया अनुवाद है तथा दूसरा ग्रंथ 'बेकन- विचार - रलावली. अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन के छत्तीस निबंधो का महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया अनुवाद है।"13 यही नहीं समालोचना के आरंभ में भी अनुवाद की महती भूमिका रही है।

लाला सीताराम (सन-1861-1937) के अनूदित नाटकों की आलोचना पर  केंद्रित महावीर प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक 'हिंदी कालिदास की आलोचना' हिंदी आलोचना की पहली किताब है प्रकटतः जो अनुवाद की समालोचना की किताब है।14 अतएव उपर्युक्त उदाहरणों से यह सिद्ध है कि भाषा और साहित्य के विकास परम्परा में अनुवाद प्रवृत्तिगत रूप में स्थापित हो गया। जिससे साहित्य की अलग - अलग विधाओं का विकास सहज ही संभव हो सका। जहां तक हिंदी में अनुवाद की परंपरा का सवाल है तो यह कालान्तर से चली रही थी।

 जिसके नमूने हमें मध्यकालीन लेखकों, कवियों की रचनाओं में श्लोकों की छाया टीका के रूप में देखने को मिलते है। अतः किसी किसी रूप में साहित्य की महानतम रचनाओं के प्रणयन में अनुवाद सहायक रहा है। "जिस भाषा में अनुवाद की इतनी केंद्रीय भूमिका हो कि प्रायः हर विधा  की शुरूवात किसी अनूदित या अनुवाद - से संबधित किसी ग्रंथ से हुई हो वहां अनुवाद को गंभीर विश्लेषण का विषय मानना आश्चर्यजनक है।15 अतः आधुनिक हिंदी साहित्य की निर्मिति का निरुपण बगैर अनुवाद कार्यों के  असंभव सा जान पड़ता है।

आधुनिक हिंदी साहित्य में अनुवाद की परंपरा- जहां तक हिंदी में अनुवाद की परंपरा का सवाल है तो इसकी व्यवस्थित शुरुआत फोर्ट विलियम् कालेज से मानी जाती है। लेकिन यह निराधार है क्योंकि इससे पूर्व खड़ी बोली गद्य अपने परिमार्जित रूप के विद्यमान था जिसका उल्लेख आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ में किया है और अपना मत प्रस्तुत करते हुए उन्होने लिखा है- मुंशी सदासुख और लल्लूलाल के बासठ वर्ष पहले खड़ी बोली का गद्य अच्छे परिमार्जित रुप में पुस्तकें आदि लिखने में व्यवहृत होता था। अब तक पायी गयी पुस्तकों में यह 'भाषा योगवशिष्ठही सबसे पुराना है जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रुप में दिखाई पड़ता है। अत: यह कहने की गुंजाइश जरा भी नहीं रही कि खड़ी बोली गद्य की परंपरा अंग्रेजी की प्रेरणा से चली16 बहरहाल जैसा कि पूर्व में जिक्र किया जा चुका है कि मध्यकाल में छाया टीका के रूप में संस्कृत के कुछ श्लोकों आदि का व्यवहार हुआ है। ठीक-ठीक यही यत्र-तत्र वाली परिपाटी 'योगवशिष्ट' में भी दिखाई पड़ती है अर्थात इसे अनुवाद नहीं बल्कि भाष्य या टीका के रूप में देख सकते है।

जहां तक सवाल अनुपाद की परंपरा का है तो यह आधुनिक काल से संबद्ध है कि समग्र हिंदी साहित्य से तो हम अनुवाद की परंपरा को आधुनिक सन्दर्भों में निरुपित करने का प्रयास करते है। हम अनुवाद की परंपरा को लगभग तीन खण्डों में विभाजित कर सकते हैं और विभाजन का आधार भाषा होगी

       संस्कृत से हिन्दी में अनूदित साहित्य की परंपरा

       अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित साहित्य की परंपरा

       अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित साहित्य की परंपरा

 संस्कृत से अनूदित साहित्य  की परंपरा- डा. रामगोपाल सिंह के अनुसार – “संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर हिंदी में काव्यशास्त्रीय ग्रंथ लिखे जाने की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। "17 मध्यकाल में प्रमुख रुप से ज्योतिष, आयुर्विज्ञान, गीता, महाभारत, कोश, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि के अनुवादों की एक सुदीर्घ सूची 'अनुवाद विज्ञान' में भोलानाथ तिवारी ने दी है। इसका उल्लेख भर करना उद्देश्य है। जिसमें कुछ तो पूर्णतः अनुवाद हैं और कुछ के किसी विशेष अंशों का अनुवाद किया गया है।

आधुनिक काल में प्रेस की स्थापना के साथ ही हिंदी लेखकों ने संस्कृत नाटकों से प्रभावित होकर उनके अनुवाद किए। जिनमें "राजा लक्ष्मण सिंह ने 1862 . महाकवि के कालिदास विश्व प्रसिद्ध कृतिअभिज्ञानशाकुंतलमका शकुंतला नाम से अनुवाद किया है।18 जो आगे के अनुवादकों के लिए मिल का पत्थर साबित हुआ तथा प्रेरक बना।भारतेंदु ने 1868 .श्री हर्ष कृत रत्नावली का अनुवाद किया इसमें पहले शिव और पार्वती की मिथकीय अस्थाशीलता के साथ वंदना की गई है। इस नाटक का नाम नायिका रत्नावली के नाम पर रखा गया है।इस नाटक में मंत्री यौगन्धरायण द्वारा  मिथकीय ताने-बाने से बुनी कथा की आरंभिक भूमिका ही प्रस्तुत है। 1872 . में उन्होने कृष्ण मिश्र विरचित 'प्रबोध चन्द्रोदय' के तीसरे अंक का अनुवाद 'पाखंड विडंबन' नाम से किया।यह नाटक प्रतीकवादी घटनाओं पर आधारित है।इसके पत्र के रूप में मनसिक वृत्तियों को -विवेक,हिंसा, तृष्णा, आदि का उल्लेख है 1875 .में कांचन कवि कृत 'व्यायोग" का अनुवाद धनंजय विजय' नाम से। इसमें कौरवों एवं पांडवों के युद्ध की कथा वर्णित है; 1875 में राजशेखर कवि कृत सट्टक (प्राकृत में) का 'कर्पूर मंजरी’, 1878 . में विशाखदत्त विरचित 'मुद्राराक्षस का हिंदी अनुवाद किया"19 भारतेन्दु के बाद सत्यनारायण कविरत्न द्वारा अनूदित 'मालती माधवम्' और 'उत्तर रामचरितमनाटकानुवाद  की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इनके पश्चात अनेक परवर्ती लेखकों द्वारा संस्कृत की महत्वपूर्ण रचनाओं के अनुवाद किए गए जिनमें द्विवेदी युगीन मैथिलीशरण गुप्त ने भाष के  ‘प्रतिमा,अभिषेक' और 'अविभाकरमका अनुवाद इन्ही नामों से किया है। इसी तरह बाद के लेखकोंहरदयाल सिंह, मोहन राकेश,रांगेय राघव, बलदेव शास्त्री आदि ने संस्कृत आचार्यों की रचनाओं का तर्जुमा कर साहित्य एवं भाषा को समृद्ध किया।यह ठीक बात है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में अनुवाद कम मिलते हैं, लेकिन मद्धम-मद्धम ही सही मेघदूत, शाकुंतलम, गीता, महाभारत आदि के सहारे अनुवाद की परंपरा विकासमान हुई और आधुनिक काल में अनुवाद ने प्रवृत्ति का रूप धारण कर लिया। डॉ. नगेंद्र ने संस्कृत से अनुवाद हुए  नाटकों की एक लम्बी सूची तैयार की जो – “भवभूति कृत 'उत्तर रामचरित 'का 1871. में देवदत्त तिवारी ने, 1886 . में नंदलाल विश्वनाथ दूबे ने, 1897 . में लाला सीताराम शास्त्री ने, 'मालती माधव' का 1881 . में लाला शालिग्राम ने, 1898 .में लाला सीताराम ने, 'महावीर चरित' का 1897 .में लाला सीताराम ने अनुवाद किया।

कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम' का 1888 . में नन्दलाल विश्वनाथ दूबे ने तथा 'मालविकाग्निमित्र' नाटक का 1898 . में लाला सीताराम ने अनुवाद किया था। कृष्ण मित्र के 'प्रबोध चन्द्रोदय' का 1879 .में शीतला प्रसाद ने, 1885 .में अयोध्या प्रसाद चौधरी ने अनुवाद किया था। शूद्रक के 'मृच्छकटिकम' को 1880 . में गदाधर भट्ट ने तथा 1899 . में लाला सीताराम ने अनुवाद किया था। हर्ष कृत 'रत्नावली' का 1872 . में देवदत्त तिवारी ने, 1898. में बालमुकुन्द सिंह ने अनुवाद किया था भट् नारायण कृत नाटकवेणी संहार' का अनुवाद 1897 . में ज्वाला प्रसाद सिंह ने किया था |”20 संस्कृत से हिन्दी में भवभूति और कालिदास की रचनाओं के  अनुवाद अधिकाधिक मात्रा में हुए। इन अनुवादों से केवल नाटकों को एक नवीन दृष्टि मिली बल्कि हिंदी रचनाकारों को भी एक विस्तृत एवं समृद्ध परपंरा के अवगाहन का पाथेय मिला। हम देखते हैं कि आधुनिक काल के आंरभिक दौर में अधिकांश नाटक या रचनाएं अनुवाद के माध्यम से हिन्दी साहित्य को मिली  जिसका जीवंत उदाहरण हमें भारतेन्दु के नाटकों को देखने से मिलता है। अतः संस्कृत भाषा कहीं कहीं हिन्दी साहित्य की समृद्ध एवं गौरवशाली परंपरा में सहायक रही है।

अंग्रेजी से अनूदित साहित्य की परंपरा-- हिंदी में अंग्रेजी से अनूदित रचनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है। अंग्रेजी से हुए अनुवादों का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि फरवरी 1905 . में सरस्वती मेंग्रंथकारों से विनय" नामक कविता प्रकाशित हुई जो महावीर प्रसाद द्विवेदी के काव्य संग्रह 'सुमन' में संकलित है। जिसमें वे अंग्रेजी एव संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद करने हेतु विनय करते है

अंग्रेजी ग्रंथ समूह बहुत भारी है
अति विस्तृत जलधि समान देहधारी है।
संस्कृत भी इसके लिए सौख्यकारी है।
उसका भी ज्ञानागार हृदय हारी है
इन दोनों में से अर्थ रत्न ले लीजै
हिंदी के अर्पण उन्हें प्रेमयुक्त कीजै।21

 इससे पूर्व उन्होंने सरस्वती 1903 . की संपादकीय में लिखा किउत्तम पुस्तकों की हिंदी में अनुवाद की आवश्यकता है।22 हालाकि पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के प्रचार-प्रसार के रूप में अंग्रेजी साहित्य का भारत में आगमन होता है। अंग्रेजी ढंग की शिक्षा व्यवस्था में इनके (अंग्रेजी) धार्मिक एवं साहित्यिक ग्रंथों को विशेष स्थान मिला तथा अध्ययन अध्यापन में विशिष्ट महत्व दिए जाने के परिणाम स्वरूप  इन ग्रंथों के हिन्दी अनुवाद की आवश्यकता पड़ी। अर्थात यह कहना ठीक ही होगा कि 1857 . हंटर कमीशन की सिफारिश से अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को बल मिला और तत्कालीन सरकार ने विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य का समावेश कर विशिष्ट स्थान दिया और फिर अनुवादक भी समय- समय पर अनुवाद कर इन ग्रंथो को भारतीय जनमानस को सुपुर्द करने लगे।सरस्वती' 1917 .के अंक में प्रेम वल्लभ जोशी काहिंदी साहित्य की उन्नति के उपाय' शीर्षक एक लेख छपता है जिसमें वह लिखते हैं -

 "अंग्रेजी साहित्य में संचित ज्ञान हमें हिंदी के द्वारा सुलभ करा देना चाहिए। हमारे सधारण शिक्षित भाइयों के कल्याण का साधन इससे बढ़कर और कोई नहीं हो सकता"23 अर्थात अनुवाद की महत्ता को अंगीकार करते हुए समय- समय पर युग प्रवर्तक  साहित्यकारों द्वारा अपने समकालीनों को दिशा निर्देशित किया जाता रहा। जिससे कि यह प्रक्रिया अबाध गति से चलती रहे अनुवाद की महत्ता यह रही की इसेलोक कल्याणकारी' काम माना जाने लगा था। साहित्यिक अनुवाद का केन्द्र तो मूलतः भारतेन्दु युग रहा जहां से अनुवादकों को अनुवाद दृष्टि मिली और अनुवाद को एक विस्तृत आयाम। सन् 1877 . में भारतेन्दु ने  हिंदी की उन्नति पर पद्यमय भाषण देते हुए भारतवासियों से अनुरोध किया कि- जिस प्रकार अंग्रेजो ने अनेक विधाओं एवं ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद कर उन्नति की, उसी प्रकार हम भारत वासियों को उनका अनुकरण करना चाहिए।

"विविध कला शिक्षा अमित ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहुँ भाषा माहि प्रचार
जहां जोन सो गुन लह्यो लियो तहां तो तोन
ताहि सो अंगरेज अब सब विद्या के भौन 24

अर्थात लेखकों का ध्येय केवल अनुवाद करना था, बल्कि अपने भाषा और साहित्य की समृद्धि का हेतु था जिसमें वह कदाचित सफल भी  रहे। आरंभ में हमें अंग्रेजी की कुछ फुटकल कविताओं का यत्र-तत्र  अनुवाद देखने को मिल जाता है जैसे कि -"श्री निवास दास कृत  ‘परीक्षा गुरु' (हिन्दी का प्रथम उपन्यास) में बायरन, शेक्सपियर, काउपर आदि की कविताओं की पंक्तियां अनूदित रूप में मिलती है।25 यह यत्र- तत्र  अनुवादों के मिलने की प्रक्रिया अब स्वतंत्र कृतियों के अनुवाद तक पहुंच गई थी और आगे भारतेंदु, श्रीधर पाठक ,लोचन प्रसाद पांडे, लक्ष्मी प्रसाद ,महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य शुक्ल आदि लेखकों ने आगे अंग्रेजी के महत्वपूर्ण लेखकों शेक्सपियर, गोल्ड स्मिथ आदि की रचनाओं के महत्वपूर्ण अनुवाद किए।  डा. सुधेरा के अनुसार- "हरमिट का अनुवाद दो कवियों ने किया। श्रीधर पाठक नेएकांतवासी योगीऔर लोचन प्रसाद पांडेय नेयोगी' नाम से इसका हिंदी अनुवाद किया।26 "सन 1884 में श्रीधर पाठक ने टॉमस ग्रे की कविताशेफर्ड एण्ड दि फिलोसोफर' को 'गड़रिया और आलिमनाम से प्रस्तुत किया। एक 1886 . मेंहरमिटका  ‘एकांतवासी योगीनाम से हिन्दी अनुवाद किया साथ ही उन्होनेलॉग फेलोके करुण काव्य 'इंवजलाइन' का भी अनुवाद किया। सन् 1889 .में आलिवर गोल्डस्मिथ के 'डिजर्टड विलेज' का हिन्दी काव्यानुवाद 'उजड़ ग्राम' नाम से श्रीधर पाठक ने किया।"27 'सन् 1897 . में नागरी प्रचारिणी पत्रिका में पोप की रचना  'एन ऐसे आन क्रिटिसिज्मका 'समालोचनादर्श' नाम से जगनाथ दास रत्नाकर द्वारा किया गया अनुवाद प्रकाशित हुआ। यह समय साम्राज्यवादी ताकतों के सम्मुख खड़े होने का था। जिसका सबसे सशक्त  माध्यम था उनकी सभ्यता और संस्कृति को समझना। जिसमें सहायक हो रहे थे यह अनूदित ग्रंथ। जिसके मार्फत हम उनकी शैली को जान पाने में समर्थ हो सकते थे। अतः यह अनूदित कृतियाँ जो एक पैमाने पर साहित्य में नवीन शैलियों एवं विधाओं का सूत्रपात कर रही थीं तो दूसरी तरफ हमें 'सपेरों और बिच्छुओं' का देश कहने वाले साम्राज्यवादी ताकतों के सम्मुख खड़ी करने में सहायक हो रही थी। अतः भारतेन्दु युग साहित्य की विकास परम्परा की दृष्टि से संघर्षों में फलित स्वर्णीम काल रहा है। जिसमें हिन्दी  साहित्य में नवीन विधाओं का सूत्रपात हुआ और एक 'छतनार' वृक्ष की भांति अपनी शाखाओं से अगामी कालों को आच्छादित करता रहा

अन्य भाषाओं से अनूदित साहित्य की परम्परा -- अंग्रेजी और संस्कृत की ही भाँति अन्य भाषाओं से बहुत सारे अनुवाद हिन्दी में हुए। पहले ही भारतेंदु ने मंशा प्रकट कर दी थी कि जहां से जो मिल सके उसे अर्जित कर अपनी भाषा में रुपान्तरित कर अपनी भाषा को समृद्ध करिए। भारतेंदु अपने परिवार के साथ जगन्नाथ पुरी की यात्रा के दौरान बांग्ला साहित्य की समृद्धि से रूबरू हुए थे और "बांग्ला में नये ढंग के सामाजिक, देश-देशातर- संबधी ऐतिहासिक और पौराणिक नाटक, उपन्यास आदि देखे और हिन्दी में वैसी पुस्तको का अभाव अनुभव किया28 और 1868 . में उन्होंने 'विद्यासुंदर'यह नाटक एक प्रेम कहानी पर आधारित है।जिसमें वर्धमान नगर के राजा वीरसिंह की विदुषी पुत्रीविद्यातथकांचीपुर के राजा गुनसिन्धु की विद्वान पुत्रसुंदरप्रणय का वर्णन है। , संस्कृतचौरपंचाशिकाके बांग्ला संस्करण का अनुवाद किया। इसी तरह 1888 . में माइकल मधुसूदन दत्त की रचना 'क्या इसी को सभ्यता कहते हैं' तथा 'कृष्णमुरारी' का हिन्दी भाषा मे अनुवाद ब्रजनाथ द्वारा किया गया और रामकृष्ण वर्मा द्वारा माइकल मधुसूदन दत्त की रचना 'कृष्ण मुरारीऔर  ‘वीर नारी' का 1889 . में किया गया अनुवाद मिलता है। स्वर्ण कुमारी विरचित 'दीप निर्माण' का हिन्दी रुपान्तरण उदित नारायण लाल वर्मा द्वारा किया गया। बांग्ला भाषा का प्रभाव ज्यादा रहा। अनुवाद की दृष्टि से अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा, लेकिन इसका आशय यह नहीं की अन्य भारतीय भाषाओं का महत्व कम रहा है। मराठी के विष्णुकृष्ण चिलुणकर द्वारा निबन्धों की पुस्तक  एवं भारतेन्दु द्वारा अनूदित मराठी उपन्यासोंचन्द्रप्रभाएवं  'पूर्ण प्रकाश' जिसपर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत स्पष्ट है। आधुनिक युग के अनुवादकों का उद्देश्य कहीं कहीं अपनी भाषा एवं साहित्यिक समृद्धि था। जिसमें वे कतिपय सफल भी रहें और अनुवादकों ने भारतीय (हिंदी भाषी) जनमानस को  नवीन ज्ञान मीमांसा से जोड़ा और उनके भीतर चेतना का प्रवाह कर आत्म गौरव का बोध भी कराया

निष्कर्ष : आधुनिक काल से पूर्व हम साहित्य की अन्य विधाओं से कमोबेश  परिचित थे। क्योंकि हमारे हिंदी साहित्य में काव्य सृजन का चलन था। आधुनिक काल  (19वीं सदीमें भारतीय लेखकों ने छापे खाने के विकास के साथ ही अनुवाद कार्य आरंभ किया। जिसमें ईसाई मिशनरियों की बड़ी भूमिका रही वे धार्मिक प्रचार-प्रसार हेतु पहले-पहल अपने धार्मिक ग्रंथो का अनुवाद कराकर उसको प्रचारित करते है। अतः अपने 'स्वत्व' की रक्षा हेतु भारतीय लेखकों द्वारा भी अनुवाद कर साहित्य समृद्धि का आह्वान करते हुए भारतेन्दु कहते है-

अंगरेजी अरु फारसी अरबी संस्कृत ढेर
खुले खजाने तिनहीं क्यों लूटत लावहू देर
सबको सार निकाल के पुस्तक रचहू बनाई
छोटी बड़ी अनेक विधि विविध विषय की लाई 29

अर्थात जिस भी तरह बन पड़े इन भाषाओं के ग्रंथों का अनुवाद अपनी भाषा में कर अपने साहित्य को  भिन्न-भिन्न ज्ञानानुशासन से संपन्न करिए और अनुवादकों के इन्ही प्रयासों के कारण कहीं कहीं हिन्दी साहित्य मेंगद्य विधा' का उदय होता है। हिंदी साहित्य में गद्य की लगभग सभी विधाओं का सूत्रपात कही कहीं अनुवाद के माध्यम से होता है। चाहे वह नाटक हो, उपन्यास हो, कहानी या समालोचना लगभग सभी विधाएं प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्ष रूप से अनुवाद से जुड़ी है। वैश्विक संदर्भ में देखा जाय तो लगभग तीन हजार भाषाएं विद्यमान है तो कहीं कहीं अनुवाद ही वह कारक है जिसके माध्यम से हम अन्य भाषाओं के साथ तादात्म्य स्थापित करने में सफल होते है।  प्राचीन भारतीय ज्ञान मीमांसा से आम जन मानस को जोड़ने में नवजागरण कालीन अनुवादों का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है। साम्राज्यवादी ताकतों के सम्मुख हीनता बोध से भरे जनमानस के पास कुछ खास था लेकिन अनुवादकों द्वारा समय समय पर कालिदास और भवभूति आदि की रचनाओं का किया गया अनुवाद अपने समृद्ध एवं गौरवशाली अतीत से जोड़ने में सहायक रहा।

अतः हिंदी भाषी जनता की जड़ता को दूर कर उनका प्रगतिपथ आलोकित करने का कार्य अनुवाद ने किया। हम एक दूसरे की संस्कृति की तुलना में कहाँ है, इसका भान हमे अनुवाद के माध्यम से हुआ। 'विश्व प्रपंच’(1919-20)की भूमिका में आचार्य शुक्ल लिखते है- "जो ज्ञान सारे विश्व को आलोकित कर रहा है उसे हिंदी में क्यों आने दिया जाये।"30 अतः अनुवादकों का मूल उद्देश्य था भारतीय मनीषा को भित्र-भित्र ज्ञान एवं विज्ञान के क्षेत्रों से जोड़ना। अनूदित कृतियों के माध्यम से हिन्दी साहित्य एवं भाषा की जड़ता समाप्त हु और साहित्य व्यवहारिक एवं जनोपयोगी होता गया। भाषा और साहित्य में नवीनता और आधुनिकता के समावेश हेतु अनुवाद सदैव आवश्यक रहेगा क्योंकि "दूसरी भाषाओं के लेखों और पुस्तकों का अपनी भाषा  में अनुवाद किया जाये तो साहित्य की बहुत बड़ी हानि होती है- दूसरी भाषाओं में जो अच्छी-अच्छी बातें मौजूद हैं वे अनुवाद या अधार के माध्यम से हमारी भाषा में आवें तो हमें उनका ज्ञान भी हो हमारी दशा कूप मंडूक की सी हो जाये।31 भारतेन्दु युग में अनुवाद की परंपरा आरंभ होती है जिसका विस्तृत स्वरूप हमें द्विवेदी युग में प्राप्त होता है।   इन दोनों युगों में हुए अनुवादों का उद्देश्य साहित्य मे श्रीवृद्धि करना था।

सन्दर्भ :

  1. डा० नगेन्द्र (सं), हिन्दी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपर बैक्स, नोएडा, चौतीसतां संस्करण-2007,पृ. सं.-428
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  3. वही-पृ.-299
  4. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य संवेदना का विकास,लोकभारती प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण-2012,पृ.81
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  6. .शुक्ल,हिंदी साहित्य का इतिहास,प्रकाशन संस्थान,दरियागंज,नई दिल्ली,संस्करण-2011,पृ-400
  7. .शुक्ल,हिंदी साहित्य का इतिहास,प्रकाशन संस्थान,दरियागंज,नई दिल्ली,संस्करण-2011,पृ-401
  8. सं ब्रज रत्न दास,भारतेंदु ग्रन्थावली, दूसरा खंड नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी-पृ.734
  9. .शुक्ल,हिंदी साहित्य का इतिहास-पृ 325
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  11.  रमण सिन्हा, अनुवाद और रचना का उत्तर जीवन, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण 2002,पृ. 33
  12. वही-पृ.33
  13. वही पृ. 34
  14. वही
  15. वही
  16. .शुक्ल,हिंदी साहित्य का इतिहास,प्रकाशन संस्थान, दिल्ली,संस्करण-2011, पृ. 299
  17. डॉ.राम गोपाल सिंह, अनुवाद विज्ञान:स्वरूप और समस्याएं, पृ.248
  18. हिंदी साहित्य कोश, भाग-2,पृ.32
  19. अनुवाद पत्रिका, अंक-96-97,जुलाई-दिसम्बर,1996,पृ. 20
  20. सं, डॉ. नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास,पृ. 47
  21.  महावीर प्रसाद द्विवेदी,सरस्वती,1905,फरवरी,ग्रन्थकारों से विनय
  22.  महावीर प्रसाद द्विवेदी,सरस्वती,1903,संपादकीय
  23. प्रेमवल्लभ जोशी,सरस्वती,दिसम्बर-1917,हिंदी साहित्य के उन्नति का उपाय
  24. भा. ग्र. दूसरा खंड,पृ.734
  25. डॉ. सुरेश,अनुवाद पत्रिका,अंक-96-97,जुलाई-दिसंबर,1998,अंग्रेजी काव्य के हिंदी अनुवादक,पृ. 30
  26. वही
  27. वही
  28. . शुक्ल,हिंदी साहित्य का इतिहास,संस्करण,2008,पृ. 10
  29. भा. ग्र. दूसरा खंड पृ. 735
  30. सं प्रदीप सक्सेना,.शुक्ल,विश्व प्रपंच,अनुवाद सैद्धांतिकी,पृ.74
  31. लल्ली प्रसाद,मौलिक ग्रंथ और अनुवाद,सरस्वती,दिसम्बर 1920,पृ.73
 गौरव कुमार तिवारी
शोधार्थी, अनुवाद अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
gauravbababhu@gmail.com

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54सितम्बर, 2024

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