अनुवाद को हमेशा से एक दोयम दर्जे का काम माना जाता रहा है। पाश्चात्य अनुवाद चिंतन के अनुसार अनुवाद मूलकी नकल मात्र है जहां अनुवादक की भूमिका केवल एक माध्यम भर है। लेकिन अनुवाद का उत्तर आधुनिक व उत्तर औपनिवेशिक चिंतन अनुवाद पर पुनःविचार करता है और यह जानने का प्रयास करता है कि अनुवाद को दोयम दर्जे का कार्य माने जाने का उद्देश्य क्या है। 1970-80 के दशक में अनुवाद में आए सांस्कृतिक मोड़ से इसकी शुरुआत होती है। अनुवाद में सांस्कृतिक मोड़ की शुरुआत को गिडियन टोरी तथा ईवान-जोहार के बहुव्यवस्था सिद्धांत से देखा जा सकता है। इससे पूर्व अनुवाद को उसकी सीमित परिभाषा में दो भाषाओं के बीच होने वाली गतिविधि के रूप में ही देखा गया। अनुवाद की पश्चिमी मध्यकालीन एवं आधुनिक अनुवाद परंपरा को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। लेकिन गिडियन टोरी तथा ईवान-जोहर के बहुव्यवस्था सिद्धांत Polysystem theory में संस्कृति तथा लक्ष्यभाषा की संस्कृति के महत्व पर विस्तार से चर्चा हुई ओर कालांतर में इसी का विस्तार सूसन बेसनेट तथा एंद्रे लेफेवेयर के चिंतन में दिखाई दिया और परिणामस्वरूप संस्कृति को अनुवाद की महत्वपूर्ण इकाई के रूप में देखे जाने की शुरुआत हुई। अनुवाद में संस्कृति की केंद्रीयता ने अनुवाद चिंतन की धारा को ही लगभग अलग दिशा दे दी। अनुवाद में आए इस सांस्कृतिक मोड़ ने अनुवाद अध्ययन में चिंतन के न केवल नए आयामों को जोड़ा अपितु उसे अंतरानुशासनिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
प्रस्तुत लेख में हम पिछले कुछ समय में अनुवाद चिंतन को लेकर आए बदलाव के संदर्भ में बात करते हुए अनुवाद में जेंडर की भूमिका पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
पिछले कुछ दशकों में सांस्कृतिक अध्ययनों की ओर बढ़ते रुझान से तो हम परिचित हैं। इन दशकों में जहां सांस्कृतिक अध्ययन की ओर रुझान बढा है वहीं अनुवाद अध्ययन में भी एक सांस्कृतिक मोड आया है। सांस्कृतिक मोड अर्थात अनुवाद प्रक्रिया में ‘अनुवाद कैसे’ के स्थान पर ‘अनुवाद क्यों’ की ओर चिंतकों का ध्यान आकर्षित हुआ है। अब चिंतकों के चिंतन के केंद्र में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि अनुवाद आखिर क्यों किया जाता है। और ज्यों ही हम इस ‘क्यों’ पर विचार करते हैं तो एक साथ जैसे कई पर्दे आंखों के आगे से हटने लगते हैं और अनुवाद के लिए पाठ का चयन करने के पीछे अनुवादक या अनुवाद एजेंसी अथवा अनुवाद करवाने वाली संस्था की नीयत अथवा निहितार्थ की ओर ध्यान जाता है। वहीं से हम ‘अनुवाद की राजनीति’ को समझ पाते हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भाषिक मोड़ (Linguistic turn) के बाद आए इस सांस्कृतिक मोड (Cultural Turn) ने एक साथ अनुवाद के कई नए आयामों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है जिसमें ‘जेंडर एवं अनुवाद’ भी एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। आइए, इसी विषय पर आगे विस्तार से बात करते हैं।
अनुवाद अध्ययन में आए इस सांस्कृतिक मोड़ (जिसे अंग्रेजी में कल्चरल टर्न कहा जाता है), ने अनुवाद की नई सैद्धान्तिकी को जन्म दिया जब कहा गया कि अनुवाद केवल भाषिक प्रक्रिया नहीं है। अनुवाद की प्रक्रिया में केवल भाषा या प्रतीकों का अनुवाद नहीं होता अपितु संस्कृतियों का भी अनुवाद होता है। सूसन बेसनेट और एंद्रे लेफेवेयर ने अपनी संपादित पुस्तक ट्रांसलेशन, हिस्ट्री एंड कल्चर से इस सांस्कृतिक मोड़ की ओर संकेत किया जहां इन्होंने स्पष्ट किया कि अनुवाद केवल भाषिक व्यापार तथा मूल पाठ व अनूदित पाठ के बीच समतुल्यों की तलाश से कहीं आगे दो संस्कृतियों के बीच संवाद का माध्यम है। अपने इसी विचार को उन्होंने अपनी पुस्तक कन्स्ट्रक्टिंग कल्चर में भी आगे बढ़ाया। उनका यह अध्ययन चीनी एवं पाश्चात्य साहित्य के अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में था। उनकी यह किताब पिछले दशक में अनुवाद में देखे जा रहे सांस्कृतिक मोड को पूरी तरह से स्थापित करने का काम करती है।
लेफेवेयर ने इसी क्रम में आगे विचार करते हुए अनुवाद को पुनःसृजन (Translation
as Rewriting) भी
कहा और उसके चारों ओर फैले वैचारिक तनाव की बात की। एंद्रे लेफवेयर अपनी पुस्तक Translation, Rewriting and the manipulation of literay fame में Translation
is of course, a rewriting of an original text.1 लिखकर अनुवाद को केवल भाषायी व्यापार के दायरे से बाहर निकालकर एक स्वतंत्र इकाई के रूप में स्थापित करते हैं। वहीं सूसन बेसनेट The Translation Turn in Cultural Studies में पाठ का सम्बन्ध सत्ता से जोडकर उसके दायरे को और विकसित कर देती हैं Translation, of course, is
a primary method of imposing meaning while concealing the power relations that
lie behind the production of the meaning.2
इसी क्रम में यदि तेजस्विनी निरंजना की बात की जाए तो वे अपनी पुस्तक Siting Translation : History, Post structuralism and the Colonial
contex में
अनुवाद को सत्ता संबंधों की स्थापना तथा इतिहास से छेड़छाड़ के एक टूल के रूप में देखती हैं। वे लिखती हैं “Caught in an idiom of
fidelity and betrayal that assumes an unproblematic notion of representation,
translation studies fail to ask questions about the historicity of
translation”3. और
इस प्रकार अनुवाद को केवल भाषिक व्यापार से निकाल कर उसके दायरे का विकास करने की वकालत की।
मिशेल फूको भाषा और सत्ता के संबंध पर लिखते हैं - “(Power) produces
knowledge....(they) directly imply one another.... ‘Individual’ or the
‘subject’ is ‘fabricated’ by technologies of power or practices of subjectification.4
सांस्कृतिक अध्ययन पर विस्तार से बात करने के क्रम में अनुवाद में अस्मिता और जेंडर आदि मुद्दों पर बात होने लगी। जेंडर एवं अनुवाद विषय पर सबसे अधिक मौलिक और महत्वपूर्ण काम शेरी साइमन का है। शेरी साइमन की पुस्तक ‘जेंडर इन ट्रांसलेशन: कल्चरल आइडेंटिटी एंड द पाॅलिटिक्स ऑफ़ ट्रांसलेशन’ इस दिशा में एक सार्थक योगदान है।
1970-80 का दशक सांस्कृतिक अध्ययन के साथ, जेंडर अध्ययन एवं अनुवाद अध्ययन के विकसन का साक्षी बना। इसे यूं भी देखा जा सकता है कि सांस्कृतिक अध्ययन की शुरुआत ने चिंतकों के देखने के नजरिये को बदल कर रख दिया। परिणामस्वरूप भाषाओं के अध्ययन पर विशेष बल दिया गया। इसी परिवर्तन के अंतर्गत भाषा में जेंडर के मुद्दे पर दृष्टि गई। केवल अनुवाद ही नहीं अपितु लगभग सभी विषयों में भाषा और उसमें भी जेंडर पर बात होने लगी।
दरअसल 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ फेमिनिज्म यानी स्त्रीवाद 21वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते ‘जेंडरवाद’ में विस्तार पाता है। स्पष्ट है कि 19वीं सदी में जिस हाशिए की समस्याओं को लेकर स्त्रीवाद की शुरुआत हुई वही इस उत्तरआधुनिक समय में जेंडर से जुड़ी समस्याओं की वकालत करने लगता है। यानी समय के विकास के साथ स्त्रियों के अतिरिक्त अन्य सभी जेंडर यानी लिंगों पर बात की जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी जो तथाकथित अल्पसंख्यक हैं और जिनकी चिंता इस विकासगामी समाज में की जानी चाहिए।
शेरी साइमन अपनी पुस्तक में इस ओर संकेत करती हैं कि अनुवाद में जेंडर की समस्या की ओर उनका ध्यान तब गया जब उन्होंने 1986 में ‘फेमिनिस्ट पोयटिक्स’ पर एक गोष्ठी का आयोजन किया और उसमें चर्चा के लिए क्यूबेक (कनाडा) की तीन बेहद चर्चित स्त्रीवादी लेखिकाओं को आमंत्रित किया। ये रचनाकार थीं - सुसान द लातबिनियरे-हार्वुड, बारबरा गोदार्ड और केथी मेजेई। कहने की आवश्यकता नहीं कि क्यूबेकियन के ये तीनों बेहद चर्चित नाम थे जिन्होंने अनुवाद को एक स्त्रीवादी कार्य कहा। इसी संदर्भ में अपनी इसी पुस्तक में शेरी साइमन जाॅन फ्लोरियो को उद्धृत करती हैं - “Because they are necessarily ‘defective’,
all translations are reputed females”5. 1970 और 1980 के दशक में क्यूबेक मे जिस फ्रांसीसी भाषी स्त्रीवादी प्रयोगात्मक लेखन की शुरुआत हुई उसने एक साथ कई नए मुद्दों को जन्म दिया। इसमें यह देखा गया कि स्त्रीलेखन किस प्रकार एक साहित्यिक मध्यस्थता करता है। इस पूरे प्रयोग ने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में स्त्रीवादी अनुवादकों का ध्यान आकर्षित किया।
अनुवाद अध्ययन जो एक लम्बे समय तक इस बिन्दु पर केन्द्रित रहा कि अनुवाद किस प्रकार किया जाए तथा सही अनुवाद क्या है से आगे बढ़कर 1970-80 में इस बिन्दु तक पंहुचा कि अनुवाद की पूरी प्रक्रिया में उसकी यानी अनुवाद की क्या भूमिका है और अनूदित रचना मूल भाषा के समाज पर क्या असर डालती है। तेजस्विनी निरंजना अनुवाद को अन्य संस्कृति में घुसपैठ का माध्यम मानती हैं। अनुवाद में मूल के प्रति निष्ठा तथा अनुवाद कर्म में अनुवादक की अदृश्यता (द ट्रांसलेटर्स इनविजिब्लिटी) का विरोध उत्तरआधुनिक चिंतकों ने किया जिनमें एंद्रे लेफेवेयर, सूसन बेसनेट, लाॅरेंस वेनुटी, गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक आदि प्रमुख हैं।
अनुवादक की अदृश्यता (द ट्रांसलेटर्स इनविजिब्लिटी) -
इस लेख में जेंडर और अनुवाद पर बात करने के क्रम में लाॅरेंस वेनुटी और अनुवाद को लेकर उनके विचारों पर बात किया जाना प्रासंगिक होगा। अनुवाद का उत्तर आधुनिक विमर्श 1970-80 में आए सांस्कृतिक मोड़ से कई नए सवाल लेकर सामने आता है जिनमें से एक महत्वपूर्ण सवाल है अनुवादक की दृश्यता। एक अच्छे अनुवाद के लिए अनुवादक का अदृश्य होना बेहद ज़रूरी माना जाता है। सरल शब्दों में कहें तो अच्छा अनुवाद वही होगा जिसमें मूल पाठ सी तरलता हो और उसे पढ़ते हुए यह अनुभव ही न हो कि हम अनुवाद पढ़ रहे हैं। निर्दोष अनुवाद की यह अवधारणा इतनी भी निर्दोष अथवा निरपेक्ष नहीं है। अनुवाद का उत्तर आधुनिक विमर्श यह मानता है कि इस निर्दोष अनुवाद की आड़ में प्रभुत्वशाली देश व संस्कृतियां तथाकथित तीसरे विश्व अथवा उपनिवेश रह चुके देशों की संस्कृति का सरलीकरण करती हैं और अनुवाद की इस प्रक्रिया में उपनिवेशित देशों की संस्कृतियां अलक्षित रह जाती हैं अथवा उनकी वही छवि निर्मित होती है जैसा औपनिवेशिक या ताकतवर संस्कृतियां चाहती हैं। लाॅरेंस वेनुटी अपनी पुस्तक द ट्रांसलेटर्स इनविजिब्लिटी में अनुवादक की दृश्यता की वकालत करते हैं और मानते हैं कि अनुवाद इतना अधिक मूलनिष्ठ न हो कि उसे पढ़ते समय अनूदित संस्कृति का स्मरण भी न हो। वे लिखते हैं- “Translation is the forcible replacement of
the linguistic and cultural difference of the foreign text with a text that
will be intelligible to the target-language reader”6.अपने इसी लेख में अनुवाद में निर्बाधता का विरोध करते हुए वे आगे लिखते हैं - “Fluency can be
associated with fidelity because it means foregrounding the conceptual
signified in the translation....minimalizing any play of the signifier which
calls attention to its materiality, to words as words, their opacity, their
resistance to immediate intelligibility, empathic response, interpretive
mastery”7.
आधुनिक काल में अनुवाद को लेकर की गई लगभग सभी स्थापनाओं को अनुवाद का उत्तर आधुनिक विमर्श चुनौती देता है और इसके सबसे महत्वपूर्ण शब्द और अवधारणा - निष्ठा पर प्रश्न खड़े करता है। वेनुटी इसी संदर्भ में आगे लिखते हैं- “What the fluent strategy
conceals with the effect of transparency, what it makes seem faithful, is in
fact the translator’s interpretation of the foreign text, the signified he has
demarcated in the translation in accordance with target language cultural
values”8.
वेनुटी अनूदित पाठ में अनुवादक के अदृश्य होने का घोर विरोध करते हैं तथा मानते हैं कि अनुवादक का महत्व मूल रचनाकार से कम नहीं है क्योंकि वे एक भाषा के पाठ को अन्य भाषाओं तथा संस्कृतियों तक पंहुचाने का कार्य करते है। इस प्रक्रिया में वे मूल भाषा की संस्कृति और भाषा के विशिष्ट प्रयोगों को सुरक्षित रखने की बात करते हैं। यहां लाॅरेंस वेनुटी के अनुवाद चिंतन का जिक्र करना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि अनुवाद की आधुनिकयुगीन सैद्धांतिकी के अनुसार अनुवाद ऐसा होना चाहिए कि उसे पढ़ते हुए मूल का सा आस्वाद हो। और मूलनिष्ठता की इसी राजनीति में अनुवादक सायास कहीं लुप्त होकर रह जाते हैं। अनुवादकों के लुप्त होने की यह प्रक्रिया मूल पाठ की संस्कृति के वर्चस्व की प्रतीक है।
क्या अनुवाद एक स्त्रीवादी पाठ है? -
ऊपर जिन तीन क्यूबेकियन रचनाकारों की चर्चा की गई है, उनके द्वारा अनुवाद को ‘स्त्रीवादी कर्म’ (फेमिनिस्ट प्रेक्टिस) कहने के पीछे अनुवाद को दोयम दर्जे का काम मानना ही है। सीमोन द बुआ की पुस्तक द सेकेण्ड सेक्स में सीमोन जिस प्रकार समाज में स्त्री की नागरिकता दोयम दर्जे की होने की ओर संकेत करती हैं उसी तरह साहित्य में अनुवाद और अनुवादकों को मूल रचना और मूल रचनाकार के समक्ष दोयम श्रेणी का ही माना जाता रहा है। सूसन द लेतिनबियरे-हार्वुड लिखती हैं- “I am a translation because I am a woman”9. यहां स्पष्ट है कि हार्वुड द्वारा प्रयोग किया गया यह वाक्य साहित्य में अनुवाद और अनुवादक/अनुवादिकाओं की दोयम नागरिकता पर एक तंज है। शेरी साइमन अपनी पुस्तक में विभिन्न स्त्री चिंतकों द्वारा इस संदर्भ में कहे गए कथनों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पंहुचती हैं कि समाज में जिस प्रकार स्त्री का स्थान दोयम दर्जे का है उसी प्रकार साहित्य में अनुवाद का भी वही स्थान है।
अनुवाद कर्म और उसमें निष्ठा का प्रश्न -
लेख के प्रारंभ में अनुवाद की पाश्चात्य परम्परा और उसमें विभिन्न चिंतकों के योगदान की संक्षेप में चर्चा की गई है। जैसा कि वहां उल्लेख किया गया है कि पश्चिम में अनुवाद को लेकर दो तरह की बातें की जाती रही हैं - शब्दानुवाद ; (mataphrase)
और भावानुवाद; (Paraphrase)। अनुवाद किस प्रकार हो इस पर चिंतन की पूरी एक लम्बी परम्परा है जिसके केंद्र में मूल भाषा का साहित्य एवं उसकी शुद्धता का प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है। लगभग सभी अनुवादकों एवं चिंतकों ने मूल के प्रति विशेष निष्ठा दिखाई है जिसमें माना गया है कि अनुवाद करते समय अनुवादक मूल पाठ के प्रति पूर्ण न्याय करे ताकि पाठक को मूल का पूरा आस्वाद मिल सके। मूल यानी स्रोत भाषा के साथ अधिक छेडछाड को अच्छे अनुवाद की श्रेणी में नहीं रखा गया है। इस परम्परा में लगभग सभी बडे चिंतक - संत जेरोम, मार्टिन लूथर, एलेक्जेंडर पोप से लेकर आधुनिक काल में रोमन जेकब्सन, युजीन नायडा, जे.सी.केैटफर्ड, पीयर्स, व्लादिमीर नाबोकोव, जाॅर्ज स्टेनर तक आ जाते हैं। किंतु उत्तरआधुनिक काल में निष्ठा(फायडेलिटी) का केंद्र बदल जाता है। अनुवाद में निष्ठा का प्रश्न सदैव से महत्वपूर्ण रहता आया है। पश्चिम में लंबे समय तक मूल के प्रति निष्ठा का प्रश्न महत्वपूर्ण रहा। उसके पश्चात औपनिवेशिक युग में प्रभुत्वशाली भाषा के प्रति निष्ठा का मुद्दा अधिक महत्वपूर्ण हो गया। किंतु जेंडर के अनुवाद के संदर्भ में शेरी साइमन निष्ठा के इस प्रश्न पर अलग तरीके से विचार करती हैं।
दरअसल अनुवाद को लेकर आधुनिक काल तक जितना भी चिंतन हुआ उसमें अनुवाद को एक दोयम दर्जे का काम माना जाता रहा। स्रोत पाठ को मूल तथा अनुवाद को उसकी नकल की तरह देखा गया जहां अनुवाद सक्रिय भूमिका में न होकर मूल पर पूरी तरह आश्रित होता है। स्त्री अनुवादकों तथा चिंतकों ने अनुवाद को अपने समतुल्य रख कर देखा और माना कि जिस तरह स्त्री-पुरुष के बीच स्थापित होने वाले शारीरिक सम्बन्धों में स्त्री को निष्क्रिय तथा वस्तुमात्र माना जाता रहा है उसी तरह साहित्य जगत में अनुवाद की भूमिका भी निष्क्रिय है और वह पूरी तरह मूल पर आश्रित है। अपनी अस्मिता को स्थापित करने के क्रम में उन्होंने अनुवाद को प्रथम पंक्ति में लाकर खडा करने की वकालत की और उसे ज्ञान के क्षेत्र में बराबर का स्थान देने की बात की। ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि अनुवाद को मूल की छाया से बाहर निकालकर स्वतंत्र सत्ता प्रदान की जाए जिसके लिए अनुवाद की तय सैद्धांतिकी को तोडे जाने की आवश्यकता है। मूल के लिए प्रयोग किए जाने वाले रूपकों - प्राॅपर्टी, प्राइमरी, पैटर्नल, ओरिजनल, प्रोडक्शन के समक्ष अनुवाद के लिए प्रयोग किए जाने वाले रूपकों अर्थात मैटाफर - टैनेंट, सेकेंडरी, मैटर्नल, इमिटेशन, रीप्रोडक्शन आदि का विरोध किया।
Les belles infideles अर्थात Women may be either
beautiful or faithful इस
प्रयोग से हम सभी परिचित हैं जो 18वीं सदी के एक फ्रांसीसी साहित्यकार द्वारा कहा गया। यह कथन अथवा प्रयोग उस समय की स्त्री सम्बन्धी मानसिकता को साफ दर्शाता है जहां माना जाता रहा है कि स्त्री सुंदर होगी तो वफादार नहीं होगी और वफादार होगी तो सुंदर नहीं। ऐसे अतिवादी प्रयोग करते समय प्रयोगकर्ता यह भूल जाते हैं कि दुनिया के लगभग सभी समाजों में चल रही विवाह संस्था कब की असफल हो चुकी होती यदि इसमें रत्ती भर भी सच होता। लोरी चैंबरलेन अपनी पुस्तक Gender and the metaphorics of translation मेें स्त्रियों के प्रति प्रयोग किए गए और किए जा रहे ऐसे रूपकों का सख्त विरोध करते हुए मूल पाठ और अनूदित पाठ के बीच के अंतर को मिटाने की बात करती हैं और इस अंतर को मिटाने के लिए उत्तर संरचनावादी सिद्धांत का सहारा लेती हैं जो मूल और अनुवाद के बीच की सीमाओं को लगभग अस्वीकार कर उनके बीच के सम्बन्धों के भेद पर ही अंकुश लगा देते हैं। चैंबरलेन शब्दों के निर्माण में चल रहे सत्ता विमर्श की ओर भी संकेत करती हैं और बताती हैं कि किस प्रकार भाषा पर पितृसत्ता हावी रहती आई है जिसके चलते उत्पादन और पुनरुत्पादन में भेद किया जाता रहा है। अनुवाद के प्रति यह दोहरा व्यवहार या अतिसंवेदनशीलता सत्ता के केंद्रीयकरण को लेकर है।
मूल के प्रति इसी निष्ठा के संदर्भ में यह भी सवाल उठता रहा है कि अनुवाद मूल के प्रति ईमानदार हो, शुद्ध हो या फिर लक्ष्य भाषा और संस्कृति के प्रति। यहां फिर सवाल विचारधारा का आता है। यदि स्त्रीवादी अथवा उत्तर आधुनिक दृष्टि से कहा जाए तो अनुवाद न तो मूल के प्रति ईमानदार होना चाहिए और न ही लक्ष्य के प्रति अपितु उसकी ईमानदारी पाठ के प्रति होनी चाहिए।
साइमन लिखती हैं कि स्त्रीवादी अनुवादकों के लिए आवश्यक है कि वे लेखक अथवा पाठक के प्रति ईमानदार न होकर पाठ के प्रति ईमानदार हों क्योंकि उस पाठ में लेखक और अनुवादक - दोनों की भूमिका बराबर है। (“For feminist translation, fidelity is to be
directed toward neither the author nor the reader, but toward the writing
project – a project in which both writer and translator participate”10.)
साइमन Les belles infideles पर आगे विचार करते हुए कहती हैं कि अनुवाद के विषय में स्थापित इस अवधारणा ने एक साथ अनुवाद और स्त्री की भूमिका को चोट पंहुचाई है। इसने निष्ठा और सौंदर्य, नैतिकता और आकर्षण को एक-दूसरे का विरोधी बनाकर खड़ा कर दिया है और इस तरह अनुवाद और स्त्री - दोनों की भूमिका को कटघरे में खड़ा कर दिया है। अनुवाद का पारंपरिक स्वरूप इसे केवल मूल की नकल अथवा नेपथ्य की वस्तु समझता है। जबकि उत्तर संरचनावादी चिंतक जाॅक देरिदा मूल और अनुवाद की इस बायनरी पर सवाल खड़ा करते हैं और इस तरह के पितृसत्तात्मक और सामंतवादी प्रयोग का विरोध करते हैं। देरिदा मानते हैं कि साहित्य तथा ज्ञान के संचार में मूल की तरह ही अनुवाद की भी सक्रिय भूमिका है। - But what if writing and
translation are understood as interdependent, each bound to the other in the
recognition that representation is always an active process, that the original
is also at a distance from its originating intention, that there is never a
total presence of the speaking subject in discourse. 11
साइमन के इसी चिंतन को व्यापक रूप में सभी जेंडरों के संदर्भ में रखकर देखा जा सकता है। अपने इसी कथन की पुष्टि करते हुए वे आगे लिखती हैं कि अनुवादक किसके प्रति ईमानदार हों, से पहले यह जानना आवश्यक है कि अनुवाद कौन करते हैं। अनूद्य विषय की परिभाषा तय किया जाना आवश्यक है। वे मानती हैं कि अनुवाद की प्रक्रिया में पाठ लेखक की अपनी थाती न होकर अनुवादक के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण हो जाता है। वे देरिदा के विचार को ही आगे बढाते हुए पाठ (टेक्स्ट) की मुक्ति की बात करती हैं। ऐसा होते ही पाठ लेखक के सीमित दायरे से बाहर आकर विशाल पाठक वर्ग का हो जाता है। अनुवाद के संदर्भ में कहें तो अनुवादक यहां एक भाषा से दूसरी भाषा में कथ्य को ले जाने के केवल यंत्रचालित से काम करने वाले न होकर स्वतंत्र अस्मिता रखने लगते हैं। ऐसे में निष्ठा किसके प्रति हो, इस पर पुनः विचार किए जाने की आवश्यकता दिखाई देने लगती है। ऐसी स्थिति में अनुवादक, लेखक या पाठक के प्रति जवाबदेह न होकर पाठ के प्रति जवाबदेह हो जाते हैं। क्योंकि इस पाठ में अनुवादक की भूमिका लेखक के समतुल्य हो जाती है। यहां लोरी चैम्बरलेन का कथन उद्धृत करना प्रासंगिक होगा, ... I would argue that the reason translation
is so overcoded, so over regulated is that it threatens to erase the difference
between production and reproduction which is essential to the establishment of
power.12
साइमन अपनी पुस्तक में आगे लिखती हैं कि अभिव्यक्ति की अन्य विधाओं की तरह भाषा भी केवल सत्य का दर्पण भर नहीं है बल्कि इससे आगे बढकर वह सत्य के निर्माण में भी भूमिका निभाती है। (Like other forms of
representation, language does not simply 'mirror' reality; it contributes to
it.) इसी निर्माण की प्रक्रिया में वे आगे लिखती हैं कि चूंकि अनुवाद दूसरी भाषा के पाठकों को एक भाषा विशेष का पाठ पंहुचाने का माध्यम है इसलिए अनुवादक इस प्रक्रिया में भाषा विशेष के प्रभुत्व और उसकी पितृसत्तात्मक भाषा को पाठ की जरूरत के अनुसार काट या प्रतिस्थापित कर सकते हैं। दरअसल अनुवाद के अधिकांश उत्तरआधुनिक चिंतकों ने निष्ठा (फायडेलिटी) पर प्रश्न खडे किए हैं और अनुवाद व अनुवादक को महत्व देने के क्रम में निष्ठा को गैर जरूरी बताया है जिसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। यहां पाठ को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में देखा गया है जहां वह एक बार लिखे जाने के बाद लेखक के अधिकार क्षेत्र से मुक्त हो जाता है। और स्पष्ट रूप से कहा जाए तो स्त्रीवादी अनुवाद चिंतकों ने निष्ठा की परिभाषा और दायरे को बडा करके देखने की वकालत की है। यह तभी होता है या हो सकता है जब अनुवाद तथा अनुवादक अपने पुरातन आशय से बाहर आते हैं। यानी कि जब हम यह मान लेते हैं कि अनुवाद एक दोयम दर्जे का कार्य नहीं है अपितु वह पाठ के विस्तार में लेखक के समान भूमिका निभाता है। ऐसी स्थिति में पाठ का महत्व दोनों के लिए समान हो जाता हैं। अनुवादक की इस दोहरी भूमिका में उसकी भी जवाबदेही होती है कि इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान में वह एक आउटसाइडर न रहकर एक निर्णायक भूमिका निभाए। हार्वुड, बार्बरा गोदार्ड आदि यहां अनुवादक के पाठ के प्रति ईमानदार होने की पक्षधर हैं। तय है कि फायडेलिटी अर्थात निष्ठा का दायरा बढाकर उसके मूल तथा लक्ष्य संस्कृति के साथ ही पाठ को भी सम्मिलित कर लिया गया है। ज्यों ही अनुवादक को यह छूट मिलती है, अनुवादक की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है और अन्य संस्कृतियों तथा भाषाओं में पाठ किस तरह जाएं यह जिम्मेदारी अनुवादक के कंधों पर आ जाती है। अनुवाद के इस उत्तरआधुनिक विमर्श ने अनुवादक को निचले पायदान से उठाकर मूल रचनाकार के बराबर बैठाने की पहल की है।
इसी क्रम में 1970-80 के दशक के क्यूबेकियन अंवागार्द की शुरुआत के परिणामस्वरूप इस स्त्रीवादी भाषा की नींव रखी गई जहां हार्वुड, बारबरा गोदार्ड आदि ने न केवल स्त्रीवादी रचनाओं का अनुवाद किया अपितु पितृसत्तात्मक भाषा के समक्ष स्त्रीवादी नए शब्द तथा सम्बोधन गढ़े। अनुवाद में जेंडर के सैद्धांतीकरण का यही प्रस्थान बिन्दु माना जाता है। ब्रोसार्ड ने अपने लेखन में परम्परागत पितृसत्तात्मक भाषा प्रयोगों के स्थान पर नए शब्द गढ़े जिसने विश्व भर में विभिन्न अनुवादकों को आकर्षित किया। तथा कई भाषाओं में इनके अनुवाद हुए और इस प्रक्रिया में अनुवादको को अपनी भाषा में नए स्त्री केन्द्रित शब्द गढ़ने के लिए प्रेरित किया।13 भाषा में इस तरह के मातृसत्तात्मक अथवा कहें कि स्त्रीवादी प्रयोग अभी साहित्य के लिए नए प्रयोग हैं जो लम्बे समय से चले आ रहे भाषा के मुहावरे के समक्ष कमजोर दिखते हैं तथा जहां इस स्त्रीवादी भाषा को खास राजनीति से प्रेरित अनुवादकों द्वारा या शुद्धीकरण के पैरोकारों द्वारा सुधारने का प्रयास किया जाता है। किंतु इस तरह के प्रयासों से चिंतित हुए बिना इस दिशा में अभी और काम किए जाने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाओं में इस तरह के प्रयोग इक्का-दुक्का ही नज़र आते हैं।
1. Lefevere, Andre (1992,2004): Translation, Rewritng and the Manipulation of Literary Fame, Shanghai,Shanghai, Foreign Language Education Press,Pg XII- Preface
● Lefevere (Ed.): Translation/History/Culture, Routledge, London and New York
● Nida,Eugine & Taber, C.R (1969):The Theory and Practice of Translation ,Brill, Leiden
● Nida, Eugine (1964) : Toward a Science of Translating , Brill, Leiden
एसोसिएट प्रोफेसर, अनुवाद अध्ययन और प्रशिक्षण संस्थान, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
Jyoti_chl@ignou.ac.in
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