साहित्य के भीतर समाज की धड़कन रची-बसी होती है। साहित्य अपने से जुड़े समाज के मन और मस्तिष्क, भावऔर विचार, एहसास और चिंतन को अपने भीतर समाहित किए रहता है। साहित्य के भीतर समाज की भीतरी संरचनाओं के प्रतिबिंब को बहुत साफ-साफ देखा जा सकता है। मानव हृदय की अभिव्यक्ति का परिपक्वतम रूप है साहित्य। साहित्य की भावभूमि और लोकमानस की भावभूमि के बीच बहुत गहरा संबंध है जिसमें भाषा की भूमिका को भी देखा जाना चाहिए। भाषा एक सामाजिक वस्तु है साथ ही साथ मनुष्य की चिंतन प्रक्रिया का आधार भी है। अतः समाज और मनुष्य के बीच, भाव और चिंतन के बीच, सामासिकता और वैयक्तिकता के बीच भी बहुत गहराई में भाषा का मजबूत दखल मौजूद रहता है। इसलिए साहित्य का अनुवाद, अनुवाद के अन्य रूपों की तुलना में कठिन कार्य माना जाता है। भाषायी संरचनाओं के भीतर सामाजिक-अर्थ की उपस्थिति भाषिक समुदाय की आंतरिक स्थिति है। साहित्य के भीतर समाज, सभ्यता ,संस्कृति तो होती है साथ ही साथ जिज्ञासाएं,कल्पनाएं, सपने भी मौजूद होते हैं। अतः ऐसी स्थिति में साहित्यिक अनुवाद एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन जाता है। इसलिए साहित्यिक अनुवाद के विश्लेषण में समाजभाषाविज्ञान एक महत्वपूर्ण शोध-दृष्टि का निर्माण करता है। भाषा सामाजिक वस्तु होने के साथ-साथ अर्जित संपत्ति भी है। इस संदर्भ में भाषा के अर्जन की प्रक्रिया में भाषाई समुदाय की भूमिका भी विचारणीय है। अस्तु भाषा और समाज की पूरकता और सामंजस्य के अध्ययन की दृष्टि को समाजभाषाविज्ञान के नाम से जाना जाता है। इसके अंतर्गत भाषा के प्रयोगगत वैविध्य से लेकर शैलीगत वैशिष्ट्य के अनेक रूपों को शामिल किया जा सकता है।
समाजभाषाविज्ञान को
भाषा-अध्ययन
के सामाजिक
संदर्भ के
रूप में
देखा जाता
है। वस्तुतः
इतिहास, सामाजिक-संरचना, लिंग
(जेंडर), धर्म, जाति,
वर्ग के
अनुरूप भाषा
की प्रकृति
अस्मितामूलक है।
अस्मितामूलकता के
आधार पर
भाषा अपनी
संरचना और
प्रकृति में
ही विषमरूपी
है। भाषाविज्ञान
के अंतर्गत
समाजभाषाविज्ञान का
उदय 1960 के
दशक में
हुआ। इसी
दौर में
डेल हाइम्स,
एम.ए.के हैलिडे,
विलियम लवाब,
फिशमैन, हडसन,
कैम्प्वेल, वेल्स,
गम्पर्ज़ आदि
समाजभाषावैज्ञानिक हैं जिन्होने
इस दिशा
में गंभीर
शोध कार्य
प्रारंभ किया
।
समाजभाषाविज्ञान के
क्षेत्र में
प्रारंभिक कार्य
डेल हैथवे
हाइम्स का
माना जाता
है। हाइम्स
भाषावैज्ञानिक होने
के साथ-साथ समाजशास्त्री
भी थे।
उन्होंने भाषा,
समाजशास्त्र और
नृवंशविज्ञान जैसी
महत्वपूर्ण ज्ञानशाखाओं
के अंतर्गत
अंतरानुशासनिक अध्ययन
को लेकर
कार्य किया।
‘Foundation
is a Sociolinguistics: An Ethnographic Approach’ इस क्षेत्र
में उनकी
एक महत्वपूर्ण
पुस्तक है।
इस पुस्तक
में समाजभाषाविज्ञान
को भाषा-अध्ययन के
लिए मूलभूत
चिंतन आयाम
के रूप
में स्वीकार
किया गया।
उन्होंने पाया
कि समाज
की संरचना
के भीतर
Ethnographic आधार
को समझने
के लिए
भाषा एक
महत्वपूर्ण उपकरण
हो सकती
है। उन्होंने
समाज की
संप्रेषण-व्यवस्था
के अंतर्गत
इस तत्व
को महसूस
किया भाषा
के विकास-इतिहास के
माध्यम से
समाज की
भीतरी असमानताओं
को समझने
में बहुत
सहायता मिलती
है ।
समाज की
व्यवस्था के
निर्माण की
प्रक्रिया को
समझने में
भाषा की बहुत
महत्वपूर्ण भूमिका
हो सकती
है ।
नृवंशविज्ञान , मानवशास्त्र
और समाजशास्त्र
के अंतर्गत
एक महत्वपूर्ण शोध
प्रविधि के
रूप में
प्रख्यात है।
मानव संप्रेषण
की भीतरी
परतों को
समझने के
लिए इस
शोध-प्रविधि
का उपयोग
किया गया
। इस
अध्ययन को
समाजभाषाविज्ञान के
क्षेत्र में
प्रारंभिक महत्वपूर्ण
कार्य के
रूप में
देखा गया।
एम.ए.के हैलिडे
(Introduction to Functional grammar) का
‘Systemic Functional Grammar’ का
सिद्धांत भाषा
और समाज
के संबंधों
को समझने
की नई
विचार-भूमि
प्रस्तुत करता
है। इसे ‘प्रणालीगत
कार्यात्मक भाषाविज्ञान
मॉडल’ के
अंतर्गत ‘प्रणालीगत
कार्यात्मक व्याकरण’
के नाम
से जाना
जाता है।
इस सिद्धांत
पर सुप्रसिद्ध
भाषाविज्ञानी जे.आर. फर्थ
के प्रभाव
को देखा
जाता रहा
है।
‘व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक
व्याकरण’ के
केंद्र में
हैलिडे ने
‘अर्थ’ को स्थान
दिया। साथ
ही ‘अर्थ’
का विश्लेषण
करते हुए
भाषा के
तीन प्रकार्यों
की चर्चा
की- अनुभवात्मक अर्थ
(Experiential meaning), अंतर्वैयक्तिक
अर्थ (Interpersonal meaning), पाठात्मक अर्थ
(Textual meaning)। भाषा
के सामाजिक
संदर्भ को
रेखांकित करते
हुए उन्होंने
कहा कि प्रकार्यगत
स्तर पर
‘चुनाव’ की स्थिति
‘संरचना’ के स्थान
पर ‘अर्थ’
में निहित
होती है।
यह चयन
सामान्य वैचारिक
व भावात्मक
आदान-प्रदान
से लेकर
अनुभवों की
विलक्षण अभिव्यक्ति
तक विस्तृत
हो सकता
है। जिसके
अंतर्गत मनोवैज्ञानिक
स्तर पर
‘संदर्भ’ की स्थिति
भी मौजूद
होती है।
इस तरह
से उन्होंने
भाषा को
एक लाक्षणिक
प्रणाली के
रूप में
स्वीकार किया।
हैलिडे भाषा
को समाज
के नज़रिए
से देखने
के पक्षधर
रहे हैं।
यहीं से
व्याकरण की
सामाजिक अवधारणा
और व्याकरण
की मनोवैज्ञानिक
अवधारणा के
विकास में
सहायता मिली।
जिसका सीधा
संबंध भाषा-अर्जन के
मूलभूत सिद्धांत
से भी
दिखाई देता
है।
विलियम लबॉव
ने ‘भाषाई
परिवर्तन के
सिद्धांत’ को
सामाजिक संदर्भ
के साथ
देखा। उन्होंने
भाषाई बदलाव
में ‘स्वर्ण-युग सिद्धांत’
का प्रतिपादन
किया। उन्होंने
शोध-अध्ययन
में रेखांकित किया
कि प्रत्येक
पीढ़ी, नई
पीढ़ी के
भाषिक प्रयोगों
से हमेशा
क्षुब्ध रहती
है और
भाषा की
पूर्ण मानक
स्थिति को
अतीत की
वस्तु मानती
है। अभिव्यक्ति
और प्रयोग
के स्तर
पर किसी
शब्द का
समुचित प्रयोग
अतीत की
घटना के
रूप में
देखा जाता
है। इस
स्थिति में
अगली पीढ़ी
के भाषिक
प्रयोगों में
लगातार गिरावट
लक्षित की
जाती है।
इस तरह
विलियम लबॉव
ने भाषा-परिवर्तन की
व्याख्या ‘स्थापित
भाषायी मानकों
के अनुरूप
न होने’
को रेखांकित
करते हुए
की है।
विलियम लबॉव
ने भाषा
परिवर्तन के
अंतर्गत विकल्पन
की स्थिति
को रेखांकित
करने के
लिए ध्वनि-परिवर्तन के अंतर्गत
विकल्पन के
आधार के
रूप में
समाज की
वर्गीय संरचना
को स्थापित
करने का
प्रयास किया।
उन्होंने न्यूयॉर्क
शहर में
‘बोली’ के आधार
पर विकल्पन
की स्थिति
को समाज
की वर्ग-संरचना के
ढाँचे में
देखा और
उच्च, मध्य
व निम्न
वर्ग की
भाषा में
उच्चारण के
स्तर पर
एक भेद
की स्थिति
को रेखांकित
किया। उन्होंने
रेखांकित किया
कि उच्चारण
के नियमित
पैटर्न सामाजिक
संरचना के
भीतर वर्ग
और जातीयता
से प्रेरित
और प्रभावित
होते हैं।
लबॉव की
यह स्थापना
समाजभाषाविज्ञान के
अंतर्गत मील
का पत्थर
साबित हुई।
लबॉव ने
भाषा परिवर्तन
की ऐतिहासिक
शोध-प्रविधि
को चुनौती
देते हुए
वर्तमान में
सक्रिय भाषिक-परिवर्तनों के
विभिन्न पैटर्न
को रेखांकित
किया। उन्होंने
वर्तमान में
सक्रिय स्वर-परिवर्तन और
क्षेत्रीय पैटर्न
से प्रभावित
नवाचार का
मूल्यांकन समाज
के वर्गीय
ढाँचे के
आधार पर
किया। जिसके
माध्यम से
बहुत सफल
निष्कर्ष उभर
कर आए।
उन्होंने बोलियों
के भीतर
भी व्यवस्थित
और व्याकरण
सम्मत भाषायी
ढांचों को
अपने शोध-अध्ययन के
माध्यम से
समझने का
प्रयास किया।
जोशुआ ए.
फिशमैन (The Sociology & language: An
Interdisciplinary social science approach to language in society)
फिशमैन ने
बहुभाषिकता के
भीतर भाषिक-संघर्ष के
मूल्यांकन के
आधार के
रूप में
इस तर्क को
स्थापित किया
कि ‘भाषा
एक सामाजिक
मूल्य’ है
। कौन,
किससे, कब
और कैसी
भाषा का
प्रयोग करता
है, इस
तथ्य को
आधार बनाकर
उन्होंने विभिन्न
भाषिक-समुदायों
के भीतर
गतिशील भाषिक-व्यवहार के
विभिन्न पैटर्नों
का अध्ययन
किया। भाषिक-व्यवहार के
आधार के
रूप में
सामाजिक और
राजनीतिक संदर्भों
का अध्ययन
ज्ञानशाखा के
रूप में
समाजभाषाविज्ञान को
स्थापित करने
में मददगार
साबित हुआ।
फिशमैन ने
भाषाई साम्राज्यवाद
के राजनीतिक
व सामाजिक
कारणों पर
विचार करने
के साथ-साथ भाषा
नियोजन पर
राष्ट्रवाद के
प्रभाव को
भी अपने
शोध-अध्ययन
का विषय
बनाया उन्होंने
बहुभाषिक समुदाय
में विभिन्न
भाषा-भाषी
जब संसाधनों
और अधिकारों
के लिए
प्रतिस्पर्धा करते
हैं तो
भाषायी स्तर
पर अल्पसंख्यक
समुदायों की
सामाजिक स्थिति
का अध्ययन
किया। ऐसी
स्थिति में
भाषा-नियोजन
का राष्ट्रीय
स्तर पर
महत्व निर्मित
होता है।
किसी मानव-समाज में
पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित
ज्ञानभंडार की
वाहक होती
है भाषा।
मनुष्य और
समाज के
अंत:संबंधों
को परिभाषित
करने में
भाषा की
महत्वपूर्ण भूमिका
होती है।
भाषा मूलतः
संवाद है
और प्राणवान
ऊर्जा है।
जिसका एक
सामाजिक और
सांस्कृतिक संदर्भ
है। समाज
को पारंपरिक
और सांस्कृतिक
आधार देने
में भाषा
की केंद्रीय
भूमिका होती
है इस
तरह मनुष्य
समाज में
केवल भाषा
ही नहीं
सीखता अपितु
भाषा के
माध्यम से
संस्कृति और
सामाजिक मूल्यों
को भी
ग्रहण करता
है।
समाज में
वर्ग, जाति,
लिंग, धर्म,
आयु आदि
के आधार
पर भाषिक-प्रयोग के
स्तर पर
वैविध्य देखने
को मिलता
है। इसके
आधार पर
भाषिक प्रयोग
के स्तर
पर समाज
में विशिष्ट
भाषिक समूह
निर्मित होने
लगते हैं। हडसन
इस भाषायी
विकल्पन की
स्थिति को
‘A set of linguistic items with similar distribution’ कहकर परिभाषित
करते हैं।
इसके आधार
पर किसी
भी बहुभाषिक
मानव-समुदाय
में भाषिक-विकल्पन की
स्थिति निर्मित
होती है।
किसी बोली
के अंतर्गत
व्यक्तिगत स्तर
पर व्यक्ति
की स्वयं
अपनी विशिष्ट
उच्चारण, संवाद
और बोलचाल
की आदतें
विकसित होती
हैं जो
उसे भाषिक
समुदाय के
अन्य सदस्यों
से विशिष्ट
बनाती है।
किसी मानव-समूह के
भीतर इस
भाषिक वैविध्य
को समाजभाषावैज्ञानिकों
ने ‘Verbal Repertoire’ कहा। इस
‘Verbal repertoire’ के
भीतर भाषिक
वैविध्य को
प्रभावित करने
वाले कई
सामाजिक कारक
हैं।
जॉन जे.
गम्परर्ज़
(Discourse Strategies and Language and social Identity) के शोध
अध्ययन ने
समाजभाषाविज्ञान को
बहुत समृद्ध
बनाया। उन्होंने
भारत की
भाषाओं पर
शोध कार्य
किया, साथ
ही नार्वे
में कोड-
स्विचिंग की
स्थिति का
विश्लेषण किया।
‘Interactional Sociolinguistics’ पर
उनका शोध-कार्य विशेष
रूप से
सराहा गया।
उन्होंने ‘भाषिक
समुदाय’ की
विशिष्ट क्षमताओं
को रेखांकित
किया। अपने
शोध-निष्कर्ष
के रूप
में उन्होंने
रेखांकित किया
कि संप्रेषण-प्रक्रिया में
अर्थ को
खोलने में
तथा समुदायों
के बीच
सामाजिक अनुशासन
को समझने
में भाषिक-विकल्पन महत्वपूर्ण
भूमिका निभाता
है। अपने
शोध-अध्ययन
के अंतर्गत
गम्पर्ज़ इस
तथ्य को
भी रेखांकित
करते हैं
कि किसी
भी भाषिक
समुदाय में
मानक-भाषा
का निर्धारण
‘वर्चस्व प्राप्त समूह’
के आधार
पर ही
होता है।
गम्पर्ज ने
भाषिक समुदाय
को वाक्
समूह(Speech Community) के रूप
में परिभाषित
किया है।
गम्पर्ज़ उन
प्रारंभिक समाजभाषावैज्ञानिकों
में से
एक हैं
जिन्होंने भाषिक
वैविध्य को
सामाजिक वर्गीकरण
के साथ
जोड़कर देखा।
वे मानते
हैं कि
भारतीय जाति-व्यवस्था की
तरह अत्यधिक
स्तरीकृत सामाजिक
व्यवस्था के
भीतर संप्रेषण
की अनेक
शैलियाँ विकसित
हो जाती
हैं, जिनमें
समूहों की
सामाजिक अस्मिता
भी प्रतिबिंबित
होती है
साथ ही
साथ बहिष्कृत
मानव-समूहों
में एक भाषिक
अलगाव भी
दिखाई देता
है। गम्पर्ज़
ने संप्रेषण-प्रक्रिया के
अंतर्गत कोड-स्विचिंग की
स्थितियों का
भी विश्लेषण
किया तथा
उसे प्रभावित
करने वाले
कारकों पर
भी विचार
किया।
चार्ल्स ए.
फर्ग्यूसन (Language in Society) ने स्थापित
किया कि
भाषा के
भीतर भाषिक-स्थिरता और
भाषिक-परिवर्तन
की ऊर्जा
एक साथ
समानांतर रूप
से कार्य
करती है,
जिसके कारण
भाषा के
भीतर एक
संतुलन 'Equilibrium’ की
स्थिति निर्मित
होती है।
संप्रेषण-प्रक्रिया
के अंतर्गत
त्वरित बदलाव
को स्थिरता
की ओर
भी बढ़ाया
जाता है
साथ ही
साथ शास्त्रीयता,
नवाचार और
सामाजिक-प्रेरणा
के तत्व
भी भाषा
में निहित
होते हैं।
इस तरह
सांस्कृतिक वैविध्य
के साथ-साथ भाषिक-वैविध्य भी
एक आवश्यक
और अनिवार्य
तत्व है।
मानव स्वभाव
के अनुरूप
मानव-व्यवहार
भी इसमें
एक महत्वपूर्ण
भूमिका निभाता
है। मनुष्य
के व्यक्तित्व
में भाषा
का दखल
अनिवार्य है। मनुष्य-व्यवहार में
भाषा का
दखल उतना
ही है
जितना मनुष्य-व्यवहार भाषा
को गढ़ता
है। दोनों
ही स्थितियाँ
समानांतर हैं।
विलियम ब्राइट (Sociolinguistic/Article: Introduction: The Dimensions of sociolinguistics) मानते हैं कि भाषा और समाज दोनों को एक संरचना की तरह स्वीकार किया जाना चाहिए। यह केवल कुछ तत्वों का संग्रहण मात्र नहीं है। भाषिक संरचना और सामाजिक-संरचना के मध्य व्यवस्थागत तालमेल को दिखाना समाजभाषाविज्ञान का उद्देश्य है। यह तालमेल औपचारिक भी है और अनौपचारिक भी। वे भाषा को संरचना के स्तर पर समरूपी और अखंड मानने के पक्षधर नहीं है। समुदाय के भीतर भाषा-व्यवहार की आदतों से भाषिक-विकल्पन की एक विशिष्ट स्थिति निर्मित होती है। यह भाषिक-विकल्पन कोई स्वतंत्र और असम्बद्ध स्थिति नहीं है बल्कि इसका सीधा संबंध सामाजिक-बदलाव से भी होता है। इस तरह विलियम ब्राइट समाजभाषाविज्ञान में भाषिक-वैविध्य और विकल्पन के अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हैं।
वैश्विक
स्तर पर
भाषिक संवाद
को स्थापित
करने में
अनुवाद की
भूमिका को
नज़रअंदाज़ नहीं
किया जा
सकता। भाषा
के व्यवधान
को हटाकर
वैश्विक-संवाद
को अनुवाद
ने सुगम
बनाया है।
साथ ही
साथ अनुवाद
'अनुभव का सांझापन'
भी है
और सामाजिक
और वैचारिक
मुद्दों पर
एकजुटता भी
है ।
साहित्यिक अनुवाद
वैश्विक संवाद
- सेतु का विशिष्ट
आयाम है। साहित्य
के भीतर
समाज की
दृष्टि सन्निहित
होती है
। अतः
समाजभाषाविज्ञान की
दृष्टि से
साहित्यिक अनुवाद
की सम्प्रेषण
- प्रक्रिया एक सार्थक
प्रयास है
। साहित्यिक
अनुवाद की
प्रक्रिया केवल
भाषिक प्रक्रिया
ही नहीं
है अपितु
उसमें सामाजिक
- सांस्कृतिक संकेत भी
निहित होते
हैं ।
यहाँ प्रसंगों
और भाषिक
अभिव्यक्ति का
आंतरिक संबंध
ही सक्रिय
नहीं होता
अपितु भाषिक
अभिव्यक्ति का
बाह्य यथार्थ
भी उतना
ही प्रभावशाली
होता है
। अभिव्यक्ति
के माध्यम
के रूप
में ही
भाषा को
नहीं देखा
जाना चाहिए
अपितु भाषिक
समुदाय का
भौगोलिक यथार्थ
और संस्कृति
की सक्रियता
का भी
मूल्यांकन होना
चाहिए ।
यहाँ भाषिक
व्यवहार का
सामाजिक प्रयोजन
जितना महत्वपूर्ण
है उतना
ही सामाजिक
बोध भी
अपनी भूमिका
निभाता हुआ
दिखाई देता
है ।
इस तरह
साहित्यिक अनुवाद
में भाषिक
व्यवहार के
साथ भाषिक
परिवेश को
भी प्रक्रिया
का महत्वपूर्ण
अंग माना
जाना चाहिए
।
दलित साहित्य का अनुवादक सामाजिक संघर्ष से जुड़े अनेक सवालों से गुज़रता है । दलित पाठ भारतीय समाज के भीतर अमानवीय जाति व्यवस्था के सच को उघाड़ देता है । मानसिक स्तर पर यह बहुत परेशान कर देने वाली स्थिति है । दलित पाठ के अनुवादक का सामना उत्पीड़न के पूरे इतिहास से होता है । दलित लेखक अपने लेखन में अपने भयावह अतीत को पुनः जी रहा होता है । दलित साहित्य के अनुवादक के लिए पुनः उस अनुभव से गुजरना बहुत पीड़ादायक हो सकता है । जिस तरह दलित साहित्य को दलित मुक्ति के संघर्ष की तरह देखा जाता है क्या उसी तरह अनुवाद को भी प्रतिरोध और क्रोध की अभिव्यक्ति की तरह देखा जा सकता है , यह एक महत्वपूर्ण सवाल है।
भारतीय संदर्भ में भी भाषिक संरचना को जाति के दृष्टिकोण से भी देखे जाने की आवश्यकता है ।जिसकी शुरुआत प्रसिद्ध समाजभाषावैज्ञानिक गंपर्ज़ ने अपनी पुस्तक 'Language in Social Group’ के माध्यम से 1971 में प्रारम्भ कर दी थी । जातिगत श्रेष्ठता से भाषिक श्रेष्ठता का बहुत गहरा संबंध रहा है। दलित साहित्य में उकेरे गए अनुभव साहित्यिक अभिव्यक्ति के तय मानदंडों को तोड़ते हुए दिखाई देते हैं । दलित साहित्य के अनुवादक को साहित्यिक - अभिव्यक्ति के इस नवीन रूप से समतुल्यता स्थापित करने की आवश्यकता है । इस तरह अनुवादक की प्रतिबद्धता केवल पाठ के प्रति ही नहीं अपितु भाषा के प्रति भी होनी चाहिए । अनुभव की प्रामाणिकता के समानांतर अनुवाद के नज़रिये से अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता पर भी विचार किए जाने की आवश्यकता है । यहाँ सवाल यह भी है कि अनुभव की प्रामाणिकता दलित साहित्य के केंद्र में है ऐसी स्थिति में गैरदलित अनुवादक के अनुवाद को किस तरह प्रामाणिक माना जाएगा । दलित लेखक और अनुवादक की अस्मिता और अभिव्यक्ति पर विचार किया जाना भी आवश्यक है ।
1992 वह ऐतिहासिक
वर्ष था
, जब हिन्दी और
अन्य भारतीय
भाषाओं से
अंग्रेज़ी में
दलित साहित्य
का अनुवाद
प्रारम्भ हुआ
। यहाँ
से अनुवाद
की प्रतिबद्धता
और सामाजिक
सरोकारों को
लेकर एक
नवीन चर्चा
प्रारंभ हुई
। दलित
अनुभवों के
सम्प्रेषण-माध्यम
के रूप
में अनुवाद
का उभरना
दलित साहित्य
और अनुवाद
, दोनों ही अध्ययन
क्षेत्रों में
एक नवीन
विमर्श की
शुरुआत के
रूप में देखा
जाना चाहिए
। इसी
के साथ
साथ सवाल
यह भी
है कि दलित
साहित्य का
अनुवाद क्या
दलित - पाठ
में कोई
बदलाव निर्मित
कर रहा
है ।
इसके अतिरिक्त
अनूदित दलित
साहित्य के
पाठ में
ग्रहण के
स्तर पर
भी क्या
कोई दूरगामी
परिणाम देखे
जा सकते
है ।
पाठ का
प्रभाव साहित्य
में सर्वाधिक
मत्वपूर्ण है।
वस्तुतः अनुवाद लक्ष्य भाषा में स्रोत पाठ का रूपान्तरण ही नहीं , स्रोत पाठ के विचार का लक्ष्य भाषिक समुदाय में चिंतन के स्तर पर प्रवेश भी है । यह प्रक्रिया अपनी अस्मिता को कुछ क्षण के लिए भूल कर दूसरे के अनुभव संसार में प्रवेश करने की तरह है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि
की आत्मकथा
' जूठन ' का अँग्रेजी
में अनुवाद
करने वाली
अनुवादक अरुणप्रभा
मुखर्जी इस
संदर्भ में
लिखती हैं
-
"
Following Paul Ricoeur , we need to renounce ‘the ideal of perfect translation’
of ‘a demonstrable identity’, and instead look for ‘linguistic hospitality’, ‘
a supposed equivalence’ ( emphasis in Ricouer ). I concur with Ricour that
translations are a necessity and, when carried out in the spirit of ‘
linguistic hospitality’, have the power to bring about monumental effect, both
literary and worldly. 1
Page no. 153, edited by Judith Misraki, K. Satyanarayan and Nicole Thiara , Dalit Text : Aesthetics and Politics Re-Imagined , Routledge : Taylor and Francis Group, LONDON AND NEW YORK
यहाँ 'आदर्श अनुवाद ' के स्थान पर 'Linguistic Hospitality’ का पुरज़ोर समर्थन दिखाई देता है । अनुवाद की सफलता के आधार के रूप में ' Linguistic Hospitality’ को प्रस्तावित किया गया है । वस्तुतः भाषा सामाजिक वस्तु है जिसकी प्रकृति मूलतः अस्मितामूलक और प्रतिनिधित्वधर्मी है । भाषा का अस्मिता के साथ बहुत गहरा संबंध है । मनुष्य के चिंतन के भीतर भाषा और बोध की साझेदारी निर्मित करने में अस्मिता और समाज की भूमिका का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए । अतः दलित साहित्य के अनुवाद में ‘Linguistic Hospitality’ को समाजभाषाविज्ञान के नज़रिए से देखने से पूर्व दलित साहित्य के ककहरे पर विचार करते हुए प्रशांत इंगोले लिखते हैं -
“ The
linguistic vocabulary of Dalit scholars is located in their personal experience
and occupation marked by their caste
status. The world of the Dalit has never been a part of mainstream society;
they lived on the periphery , outside the village society . Many times Dalit
writers derive words from the dialects they speak, thereby in mainstream
translation one cannot find the analogy between the source text and the target
text.” 2
Page
no. 41, On Dalit Writing and Untranslatability ,
https://www.researchgate.net/publication/339089610
इस तरह
जातीय अस्मिता
का प्रभाव
क्षेत्र चिंतन
के रास्ते
शब्द प्रयोग
में प्रवेश
कर जाता
है , इसका
जीवंत उदाहरण
दलित साहित्य
है ।
शब्दों का
अनुभव संसार
अस्मिताओं की
चौहद्दी से
घिरा है।
ऐसे में
'Linguistic Hospitality’ की संभावना
दलित साहित्य
के अनुवाद
के भीतर
कितनी रहती
है इसे
भी देखे
जाने की
आवश्यकता है
। भाषा
के गठन
और संरचना
के भीतर
सामाजिक- अनुबंध
और जाति
के निर्माण
की प्रक्रिया
बहुत गहरे
समाई है
।
शरणकुमार लिंबाले
के कहानी
संग्रह ‘ THE DALIT BRAHMIN’ की अनुवादक
प्रिया अदरकर
भाषा के
संदर्भ में
अपने अनुभवों
को Translator’s Note में लिखते
हुए कहती
हैं ,
"Each
story had a different focus, and the style of language,too,was so varied that
at times one almost heard the different voices of the narrators. The level of
Marathi used vary with the character who speaks or narrates. It is, of course,
not always possible to convey the effect
of dialect in the original , when it moves to a different language. One just
has to approximate it with simple , less sophisticated words . Translating
these stories has , as with other Dalit writing , enlarged my vocabulary, as
there are a number of words in them that do not feature in standard urban
Marathi, as well as my awareness of different practices (e.g.the Dhadka).3
Page
no. xi, Translator’s Note , THE DALIT BRAHMAN and other stories : Sharankumar
Limbale , Translated from Marathi by Priya Adarkar, With an introduction by
Anand Teltumbde, Orient Blackswan Private Limited, Hyderabad
उपरोक्त पंक्तियों
के माध्यम
से साहित्य
के भीतर
उभरता भाषिक
वैविध्य जिस
भाषिक- विकल्पन
की स्थिति
को निर्मित
करता है
वह अनुवादक
के लिए
चुनौतीपूर्ण हो
जाता है।
यहाँ भाषा
के भीतर
बोली के
स्थानीय प्रयोगों
के अतिरिक्त
'भदेस भाषा ' की
बानगी भी है
जिसे लक्ष्य
भाषा में
प्रस्तुत करना
आसान नहीं
है ।भाषा
की वाचिक-
परंपरा और
स्थानीय भाषा
व बोली रूपों
के साथ
- साथ भाषा का
समाजशास्त्रीय संदर्भ
भी विशेष
भूमिका में
है जिसका
सामना अनुवादक
को करना
पड़ता है
। श्यौराज
सिंह बेचैन
की आत्मकथा 'मेरा
बचपन मेरे
कंधों पर
' के अनुवादक दीबा
ज़फ़र और
तपन बासु
ने ‘My Childhood on my Shoulders’ शीर्षक से
किया ।
पुस्तक के
Introduction में
अपने अनुभवों
को सांझा
करते हुए
अनुवादक द्वय
ने भाषा
के समाजशास्त्र
से जुड़े अनेक
महत्वपूर्ण मुद्दों
को उठाते
हुए लिखा
है -
"
The one term that confounds translation
and recurs consistently is ‘savarna’ , a word which literally means of the same
colour, form or appearance , kind, race, articulation , or spelling , and ,
more importantly , as belonging to the same caste. It has come to be a
shorthand to refer to the ‘upper’ castes
in general .” 4
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no. xix, My Childhood on My Shoulders : Sheoraj Singh Bechain , translated by
Deeba Zafir and Tapan Basu , Oxford University Press : New Delhi
भाषा की संरचना , समाज की संरचना का ही प्रतिबिंब है । संरचना के स्तर पर भाषा और समाज का अस्तित्व एक दूसरे में घुला - मिला है। शब्दों की प्रतिध्वनि में अर्थ की अनुगूँज समाज भरता है । समाजभाषावैज्ञानिक दृष्टि से दलित साहित्य के अनुवाद का मूल्यांकन इसीलिए आवश्यक है । भाषा के भीतर समाज की असमानताएं और विभाजक रेखाएँ बहुत साफ देखी जा सकती हैं । इन असमानताओं के प्रति आक्रोश सभी भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्त हुआ है । भारतीय भाषाओं में इसके संदर्भ भी देखे जा सकते हैं किन्तु लक्ष्य भाषा के रूप में विदेशी भाषा की स्थिति में दलित साहित्य के अनुवाद की चुनौती को समझा जा सकता है।
1. Page no. 153, edited by Judith Misraki, K. Satyanarayan and Nicole Thiara , Dalit Text : Aesthetics and Politics Re-Imagined , Routledge : Taylor and Francis Group, LONDON AND NEW YORK
3. Page no. xi, Translator’s Note , THE DALIT BRAHMAN and other stories : Sharankumar Limbale , Translated from Marathi by Priya Adarkar, With an introduction by Anand Teltumbde, Orient Blackswan Private Limited, Hyderabad
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