भाषाएँ किसी भी संस्कृति का सबसे जीवंत पक्ष होती हैं। जो अपने में एक समूचे सामाजिक-सांस्कृतिकसंसार और संस्कृति या समुदाय विशेष की विश्व-दृष्टि को जज़्ब किए होती हैं। इसलिए यह कहना उचित ही होगा कि अनुवाद भिन्न संस्कृतियों से जुड़ी भा षा रूपी इन नदियों को जोड़ने वाले सम्पर्क सेतु की भूमिका निभाता है। इसी क्रम में एक अनुवादक अपने अनुवाद-कर्म के ज़रिए भाषाओं के बीच आवाजाही करते हुए दो या अधिक संस्कृतियों को परस्पर जोड़ने का महनीय काम करता है। कहना न होगा कि अनुवाद संस्कृतियों और भाषाओं के बीच परस्पर आदान-प्रदान का द्योतक तो है ही, वह उन भाषाओं की समृद्धि का भी सूचक है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह ही हिंदी भाषा में भी अनुवाद की लम्बी और समृद्ध परम्परा रही है। उन्नीसवीं सदी से ही हिंदी में दूसरी भारतीय भाषाओं से तो अनुवाद हुए ही, साथ ही अंग्रेज़ी और विश्व की अन्य भाषाओं से भी हिंदी में अनुवाद होने शुरू हुए। हिंदी में अनुवाद की यह परम्परा बीसवीं सदी में जाकर और अधिक विविधता से भर उठी। हिंदी साहित्य जगत को अपने अनुवादों से समृद्ध करने वाले रचनाकारों में महापंडित राहुल सांकृत्यायन (1893-1963) का नाम अग्रणी है।
जहाँ एक ओर ख़ुद राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी ‘वोल्गा से गंगा’ जैसी प्रसिद्ध कृतियों के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए, वहीं राहुल जी ने भी अनुवादों के ज़रिए हिंदी साहित्य के भंडार को समृद्ध किया। राहुल जी द्वारा किए गए अनुवादों का एक बड़ा हिस्सा बौद्ध साहित्य का है। जिसके अंतर्गत उन्होंने तिब्बती में उपलब्ध पांडुलिपियों के अनुवाद संस्कृत और पालि में किए। साथ ही उन्होंने ‘दीघ निकाय’ और ‘विनय पिटक’ सरीखे कुछ महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद हिंदी में भी किए। जितनी अलग-अलग भाषाओं से राहुल जी ने हिंदी में अनुवाद किए, वह अनुवाद की बहुभाषिकता का एक दिलचस्प उदाहरण है, जिस पर स्वतंत्र अध्ययन की दरकार है।
रोमांचक उपन्यासों से कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो तक -
वर्ष 1923 से 1925 के दौरान हज़ारीबाग़ जेल में बंदी जीवन बिताते हुए राहुल जी ने अंग्रेज़ी के कुछ रोमांचक उपन्यासों के हिंदी अनुवाद या रूपांतरण किए। दुर्भाग्य से इन अनूदित पुस्तकों की मूल पुस्तक अथवा उनके रचनाकार का नाम राहुल जी नोट न कर सके, जिसके चलते उन मूल पुस्तकों और उनके लेखकों का नाम पता नहीं चलता।[1] ये पुस्तकें हैं : विस्मृति के गर्भ में, शैतान की आँख, जादू का मुल्क और सोने की ढाल। यह पुस्तकें अनुवाद के क्षेत्र में उनके शुरुआती प्रयासों की द्योतक हैं, जिनमें भाषा की प्रवाहमयता और सरसता पाठकों को बांधकर रखती है। इन अनुवादों में राहुल जी ने पात्रों और कथानक को भारतीय संदर्भ के अनुरूप ढाला है। ख़ुद राहुल जी के शब्दों में ‘अनुवाद में बहुत अधिक स्वतंत्रता से काम लिया गया है।’ मगर निश्चित रूप से ये अनुवाद ऐसे बन पड़े हैं कि हिंदी के पाठकों को इन रोमांचक उपन्यासों के कथानक से जुड़ने में कोई असुविधा नहीं होती।
आगे चलकर जब मार्क्सवादी विचारों में राहुल जी की दिलचस्पी जगी, तब आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर उन्होंने ‘कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो’ का भी हिंदी में अनुवाद किया, जो अंग्रेज़ी राज के दमनकारी रवैये और क्रांतिकारी साहित्य पर प्रतिबंध की नीति के चलते प्रकाशित न हो सका। यही नहीं आज़ादी के बाद जब संविधान सभा ने भारत के संविधान का मसौदा तैयार किया, तो राहुल जी ने विद्यानिवास मिश्र के साथ मिलकर संविधान के मसौदे का भी हिंदी में अनुवाद किया था।[2]
सदरूद्दीन ऐनी और राहुल सांकृत्यायन -
राहुल जी ने जिन साहित्यिक कृतियों के अनुवाद किए, उनमें सदरूद्दीन ऐनी के उपन्यास प्रमुखता से शामिल हैं। इन अनुवादों के माध्यम से राहुल जी ने हिंदुस्तान के पाठकों का प्रथम परिचय ताजिक उपन्यासकार सदरूद्दीन ऐनी से कराया। उल्लेखनीय है कि अनुवाद की यह प्रक्रिया सिर्फ़ सोवियत भाषाओं के साहित्य से ही हिंदी में सम्पन्न नहीं हो रही थी। बल्कि हिंदी साहित्य का भी अनुवाद सोवियत विद्वानों द्वारा किया जा रहा था। ऐसे सोवियत विद्वानों में बरान्निकोव का नाम अग्रणी है, जिन्होंने तुलसीदास से लेकर प्रेमचंद तक के अनुवाद रूसी में किए थे। इसके साथ ही जॉर्ज रोयरिक और श्चेर्वात्स्की जैसे विद्वान बौद्ध दर्शन और साहित्य में भी गहरी दिलचस्पी रखते थे और रूसी में बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद कर रहे थे। यह भी दिलचस्प है कि इन तमाम सोवियत विद्वानों से राहुल जी की गहरी आत्मीयता रही।
राहुल सांकृत्यायन महान ताजिक साहित्यकार सदरूद्दीन ऐनी की रचनाओं के न सिर्फ़ मुरीद थे, बल्कि ऐनी के जीवन-संघर्ष और उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से भी गहरे प्रभावित थे। अपनी सोवियत यात्राओं के दौरान ही राहुल जी सदरूद्दीन ऐनी (1878-1954) की रचनाओं से वाबस्ता हुए। मध्य एशिया के इतिहास में राहुल जी की उत्कट रुचि ने ही उन्हें मध्य एशिया के विभिन्न देशों में रचे गए साहित्य की ओर आकृष्ट किया और इसी क्रम में उनका परिचय सदरूद्दीन ऐनी की रचनाओं से हुआ। सदरूद्दीन ऐनी की तुलना प्रेमचंद से करते हुए राहुल जी ने उन्हें ‘सोवियत मध्य एशिया का प्रेमचंद’ कहा है।
उल्लेखनीय है कि सदरूद्दीन ऐनी ताजिक भाषा के पहले उपन्यासकार थे। उनके महत्त्व को रेखांकित करते हुए राहुल जी ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी जीवन-यात्रा’ में लिखा है कि ‘ऐनी से पहले ताजिक भाषा में कोई पुस्तक नहीं थी। ताजिक भाषा फ़ारसी की एक बोली थी। लेकिन क्रांति ने उसे शिक्षा का माध्यम बनाकर साहित्यिक भाषा के रूप में परिणत कर दिया।’ किसी भाषा के पहले उपन्यासकार की कृतियों की जो स्वाभाविक सीमाएँ या दोष होते हैं, वे प्रायः ऐनी के उपन्यासों में भी दिखाई देती हैं। पर ऐनी की उपलब्धियाँ और उनकी कृतियों में अंतर्निहित गहरी संवेदना उन सीमाओं को ढक देने का काम करती हैं। इसी संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि ‘किसी भाषा के पहले मौलिक लेख के रास्ते में जो कठिनाइयाँ होती हैं और इनके कारण जो दोष दिखाई पड़ते हैं, वह ऐनी में मिलते हैं। उसके दोष हैं, विशृंखलता, योजनाहीनता, पात्रों के अयोग्य संवाद। लेकिन गुण कहीं अधिक हैं। ऐनी दृश्यों का चित्रण बड़े ही सुंदर और स्वाभाविक ढंग से करना जानता है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने में भी वह सिद्धहस्त हैं। वर्ग-प्रतिक्रिया का वर्णन करने वाले वैसे लेखक तो बिरले ही मिलेंगे।’[3]
सदरूद्दीन ऐनी के अलावा राहुल सांकृत्यायन ने गनी अब्दुल्ला, जलाल इकरामी, लाहूती जैसे अन्य उल्लेखनीय ताजिक साहित्यकारों की कृतियों को भी पढ़ा और सराहा। अपनी तीसरी सोवियत यात्रा के दौरान जब राहुल सांकृत्यायन लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रहे थे, उस वक़्त सदरूद्दीन ऐनी के बेटे कमाल ऐनी भी उसी विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। मार्च 1946 में राहुल सांकृत्यायन की मुलाक़ात कमाल ऐनी से हुई।
कमाल ऐनी के बारे में राहुल जी ने लिखा है कि ‘समरकन्द में पैदा होने के कारण मातृभाषा ताजिक होने के साथ वे उजबेक भाषा को भी मातृभाषावत ही बोल सकते थे। उनके लिए अपने नगर में भी विश्वविद्यालय था, स्तालिनाबाद में ताजिकिस्तान का विश्वविद्यालय था, जिसका माध्यम ताजिक भाषा थी। लेकिन वह समरकन्द से दूर लेनिनग्राद में पढ़ने आए थे। शायद उनका लक्ष्य ताजिक भाषातत्त्व के अध्ययन की ओर था।’[4] आगे चलकर सदरूद्दीन ऐनी से भी राहुल जी का पत्राचार शुरू हुआ। अप्रैल 1947 में सदरूद्दीन ऐनी ने राहुल जी को लिखे एक पत्र में अपनी संक्षिप्त जीवनी भी लिखी थी।
ऐनी द्वारा लिखी उक्त जीवनी के अनुसार उनका जन्म बुखारा में 1878 में हुआ था। बारह साल की उम्र में ही वे अनाथ हो गए और बड़े भाई ने उनकी देखरेख की। पढ़ने के साथ-साथ वे मज़दूरी भी करते रहे। 1905 से उन्होंने अपने अध्यापकीय जीवन का आरम्भ किया और 1916 में बुखारा के एक मदरसे में मुदर्रिस बने। वर्ष 1917 की ‘फरवरी क्रांति’ में भाग लेने के कारण सदरूद्दीन ऐनी को गिरफ़्तार कर लिया गया। बाद में उन्हें रूसी क्रांति-सेना ने रिहा किया और वे 1917 में ही समरकन्द आ गए। अगले चार वर्षों तक वे समरकंद के विभिन्न दैनिक और मासिक पत्रों में साहित्यिक सम्पादक का काम करते रहे। 1923 में उन्हें ताजिक समाजवादी सोवियत प्रजातंत्र की केंद्रीय कार्यकारिणी का सदस्य चुना गया। उसी वर्ष वे अखिल सोवियत लेखक संघ के भी सदस्य बने। वर्ष 1941 में उन्हें प्रतिष्ठित ‘ऑर्डर ऑफ लेनिन’ सम्मान से नवाजा गया।
सोवियत रूस में रहते हुए राहुल जी ने सदरूद्दीन ऐनी के दो उपन्यासों ‘दाखुंदा’ और ‘गुलामान’ का पहले-पहल उर्दू में अनुवाद किया। भारत लौटने पर इन उपन्यासों के उर्दू में छपने में आ रही कठिनाइयों को देखकर उन्होंने इनके हिंदी अनुवाद किए, जो आगे चलकर ‘दाखुंदा’ और ‘जो दास थे’ शीर्षक से प्रकाशित हुए। बाद में, राहुल जी ने सदरूद्दीन ऐनी की अन्य कृतियों ‘अदीना’, ‘अनाथ’ और ‘सूदखोर की मौत’ का भी हिंदी अनुवाद किया।
‘अदीना’ सदरूद्दीन ऐनी का पहला उपन्यास था। ऐनी का यह उपन्यास पहले-पहल समरकंद से छपने वाले दैनिक ‘आवाज़े ताजिक’ में नवम्बर 1924 से धारावाहिक प्रकाशित होना शुरू हुआ। ‘आवाज़े ताजिक’ में यह उपन्यास ‘सरगुजश्ते यक ताजिक कमबग़ल या कि अदीना’ (एक ताजिक गरीब की जीवनी अर्थात् अदीना) शीर्षक से छपा करता था। मगर तीन साल बाद 1927 में जब यह स्वतंत्र पुस्तक के रूप में छपा तो इसका शीर्षक ‘अदीना’ रखा गया। छपने के साथ ही इस उपन्यास का रूसी में अनुवाद भी हो गया। ‘अदीना’ उपन्यास में ऐनी ने क्रांतिकारी ताजिकिस्तान की भावपूर्ण कहानी कहते हुए एक पहाड़ी लड़के के जीवन-संघर्षों का वर्णन किया है, जो ग़रीबी से मजबूर होकर अपनी भूमि छोड़कर काम की खोज में भटकने को विवश होता है।
‘अदीना’ के हिंदी अनुवाद की भूमिका में राहुल जी ने लिखा है कि ‘सदरूद्दीन ऐनी जदीदों (नवयुगवादियों) के आंदोलन का एक प्रसिद्ध प्रतिनिधि तथा बुखारा की क्रांतिकारी हलचल में आरंभ से ही काम करने वाला रहा। ऐनी यद्यपि उन व्यक्तियों में था, जिन्होंने बुखारा में जदीदी आंदोलन की नींव डाली, तथापि ‘जदीदवाद’ के खोखलेपन से जल्दी ही परिचित हो, उसने बोल्शेविक क्रांति के पथ को अपना लिया।’[5]
ऐनी के उपन्यासों को राहुल जी ने इतिहास के समतुल्य माना। मसलन, ‘दाखुंदा’ उपन्यास को राहुल जी ने ताजिक भाषा का ‘प्रथम वस्तुवादी उपन्यास’ कहा है। इस उपन्यास में ऐनी ने बुखारा और ताजिकिस्तान की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं और वर्गयुद्ध का जीवंत चित्रण किया है। इस उपन्यास में पूर्वी बुखारा (ताजिकिस्तान) में बासमचियों के पैदा होने और अनवर पाशा के उनसे मिल जाने, जदीदों के अनवर बासमचियों से सम्बन्धों के बारे में ऐनी ने विस्तार से लिखा है। ऐनी की पुस्तकों के व्यापक प्रभाव और उनकी लोकप्रियता के बारे में बताते हुए ‘दाखुंदा’ के हिंदी अनुवाद की भूमिका में राहुल जी ने लिखा है कि ‘ऐनी ने इन किताबों को अपने लोगों के लिए लिखा था, जिनसे उनका मनोरंजन ही नहीं उनकी शिक्षा भी हुई। ऐनी ने अपने उपन्यासों में मध्य एशिया के समाज का सूक्ष्म चित्र उतारकर रख दिया, जिससे भविष्य के इतिहासप्रेमी तथा समाजशास्त्री बहुत लाभ उठा सकेंगे।’[6] ऐनी के सत्तर वर्ष के होने पर आयोजित एक समारोह में बोलते हुए आबिदोफ ने ठीक ही कहा था कि ‘ऐनी ने जनता की चालू भाषा से लाभ ही नहीं उठाया, बल्कि उस भाषा को पूर्ण और विकसित कर अपनी कृतियों के द्वारा उसे दुनिया के साहित्य में स्थान दिलाया।’
ऐनी के उपन्यास ‘अनाथ’ का भी हिंदी अनुवाद राहुल जी ने किया। यह उपन्यास ऐनी ने ताजिक और उज़्बेक बच्चों को ध्यान में रखकर लिखा था। वहीं ऐनी के एक अन्य उपन्यास ‘गुलामान’ का अनुवाद राहुल जी ने ‘जो दास थे’ शीर्षक से किया। ऐनी ने अपने इस उपन्यास में 1834 से लेकर 1934 तक के मध्य एशियाई इतिहास और समाज का बड़ी प्रामाणिकता से चित्र खींचा है। अकारण नहीं कि राहुल जी इसे ऐनी की सर्वोत्तम कृतियों में से एक माना है।[7]
ऐनी की कृतियों का भारतीय पाठकों के लिए क्या महत्त्व है, इसे रेखांकित करते हुए राहुल जी ने चार मुख्य बातें गिनाई हैं :
पहला, वह मध्य एशिया के उस शोषित जीवन का यथार्थ चित्रण करते हैं जोकि क्रांति के बाद समाप्त हो गया लेकिन हमारे यहाँ अंग्रेज़ों के भाग जाने के बाद आज भी वह वैसा ही बेरोकटोक चल रहा है। दूसरा किस प्रकार वहां के समाज के आर्थिक, धार्मिक और सामूहिक जीवन में आमूल परिवर्तन हुआ, इसका पता हमें ऐनी के ग्रंथों से मिलता है। तीसरा, उनके चित्रित समाज की बहुत-सी प्रथाएँ, लोकोक्तियाँ तथा कमज़ोरियाँ हमारे समाज में भी मौजूद हैं…चौथा, ताजिक भाषा वही फ़ारसी भाषा है, जिससे अब भी हमारे यहाँ के लाखों आदमी परिचित हैं और हमारी हिंदी के निर्माण में भी उसका हाथ है।[8]
निश्चय ही इन सभी कारणों ने राहुल जी द्वारा अनुवाद के लिए ऐनी के उपन्यासों के चयन में योगदान दिया होगा। विशेषकर ऐनी की राजनीतिक प्रतिबद्धता और उनके सामाजिक सरोकारों ने, जो उनकी कृतियों में साफ़-साफ़ दिखाई पड़ते हैं। ऐनी द्वारा ताजिक भाषा में लिखे एक अन्य लघु उपन्यास ‘मर्गि-सूदखूर’ का अनुवाद राहुल जी ने ‘सूदख़ोर की मौत’ शीर्षक से किया। इस उपन्यास में ऐनी ने कारी इश्कम्बा नामक एक सूदख़ोर चरित्र के ज़रिए बुखारा के सूदख़ोरों के जीवन और उनके द्वारा आम लोगों के शोषण का विस्तृत चित्र खींचा है।
ऐनी के इन उपन्यासों के अलावा राहुल जी ने एक अन्य ताजिक साहित्यकार जलाल इकरामी (1909-1993) के उपन्यास ‘शादी’ का भी हिंदी में अनुवाद किया। दो भागों में बँटे इस उपन्यास के पहले हिस्से में इकरामी ने ताजिकिस्तान में सामूहिक खेतियों का वर्णन किया है और दूसरे हिस्से में सामूहिक खेतियों की उन्नति, उसमें लगे किसानों की आय में वृद्धि, ताजिक गाँवों के सुधार और आधुनिकीकरण का वर्णन किया है।
कहना न होगा कि राहुल सांकृत्यायन के समूचे कृतित्व में जो सामाजिक-राजनीतिक पक्षधरता दिखाई पड़ती है, वह उनके अनुवाद-कर्म में भी देखने को मिलती है। सर्वहारा का उत्थान, शोषणरहित और बराबरी पर आधारित जिस दुनिया की संकल्पना राहुल जी हिंदी में लिखी अपनी लोकप्रिय कृतियों में कर रहे थे, कुछ वैसी ही संकल्पना और विश्व-दृष्टि सदरूद्दीन ऐनी और जलाल इकरामी जैसे उन ताजिक साहित्यकारों की कृतियों में लक्षित की जा सकती है, जिनका हिंदी अनुवाद राहुल जी ने किया।
इस तरह जहाँ एक ओर राहुल जी ने अपने अनुवादों के ज़रिए अमू दरिया के इलाक़े के लोगों के जीवन से हिंदी प्रदेश के लोगों को रूबरू कराया, वहीं उन्होंने सदरूद्दीन ऐनी, रोयरिक, बरान्निकोव और श्चेर्वात्स्की जैसे विद्वानों के साथ आत्मीय सम्पर्क स्थापित कर और उनके साथ बौद्धिक परियोजनाओं में सहभागी बनकर भारत और मध्य एशिया के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों को सुदृढ़ आधार भी प्रदान किया।
प्रख्यात कवि, निबंधकार और अनुवादक ए.के. रामानुजन ने अनुवाद के बारे में अपने एक विचारोत्तेजक लेख में लिखा है कि ‘अनुवाद को मूल की पुनर्प्रस्तुति भर ही नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे मूल का प्रतिनिधित्व भी करना चाहिए। मूल और अनुवाद की भाषा को बरतते हुए अनुवादक एक तनी हुई रस्सी पर चल रहा होता है, दोहरी निष्ठा के साथ।’[9] कहना न होगा कि राहुल जी ने अनुवाद-कर्म की इस तनी हुई रस्सी पर चलते हुए अनुवादक के दायित्व का निर्वहन बख़ूबी किया।
संदर्भ :
[2] राहुल सांकृत्यायन व विद्यानिवास मिश्र, भारतीय संविधान का मसौदा (प्रयाग : हिंदी साहित्य सम्मेलन, 1949 [2005 वि.सं.]).
[3] राहुल सांकृत्यायन, मेरी जीवन-यात्रा, खंड 3 (नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन, 2002), पृ. 81.
[4] वही, पृ. 103.
[5] सदरूद्दीन ऐनी, अदीना (इलाहाबाद : किताब महल, 1981), अनु. राहुल सांकृत्यायन, देखें परिचय.
[6] सदरूद्दीन ऐनी, दाखुंदा (इलाहाबाद : किताब महल, 1955), अनु. राहुल सांकृत्यायन, देखें दो शब्द.
[7] सदरूद्दीन ऐनी, जो दास थे (गुलामान) (पटना : अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन मंडल, 1955), अनु. राहुल सांकृत्यायन, देखें दो शब्द.
[8] सदरूद्दीन ऐनी, सूदख़ोर की मौत (पटना : राहुल पुस्तक प्रतिष्ठान), अनु. राहुल सांकृत्यायन, पृ. 6-7.
[9] ए.के. रामानुजन, ‘ऑन ट्रांसलेटिंग ए तमिल पोयम’, विनय धारवाड़कर (संपा.), द कलेक्टेड एस्सेज़ ऑफ़ ए.के. रामानुजन (नई दिल्ली : ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999), पृ. 231.
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, इतिहास विभाग, सतीश चंद्र कॉलेज, बलिया
shubhneetkaushik@gmail.com
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