शोध आलेख : भारत-जापान संबंध में अनुवाद की भूमिका / पंकज कुमार

भारत-जापान संबंध में अनुवाद की भूमिका
- पंकज कुमार

शोध सार : भारत और जापान के संबंध तेजी से मजबूत हो रहे हैं, और इसमें अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐतिहासिक रूप से, अनुवाद ने दोनों देशों के बीच संवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में अहम योगदान दिया है। जापान में अनुवाद की पुरानी परंपरा रही है, जिसमें बौद्ध धर्म के साहित्य, चीनी साहित्य, और पश्चिमी देशों के साहित्यों का अनुवाद शामिल है। अनुवाद की परंपरा में परिस्थिति के अनुसार अनेक बदलाव आयें और अनुवाद के अनेक सिद्धांत भी प्रतिपादित हुएं। जिसके कारण जापान में अनुवाद की विधा पूर्व से अधिक सम्पन्न हो आई है। भारत में, अनुवादकों ने जापानी साहित्य को हिन्दी में लाकर साहित्यिक संबंधों को प्रगाढ़ किया है। हिन्दी साहित्य में जापानी काव्य की हाइकु शैली का प्रभाव उल्लेखनीय है, जिसमें रवींद्रनाथ ठाकुर, अज्ञेय, और सत्यभूषण वर्मा का योगदान महत्वपूर्ण है। वर्तमान में, भारत में तकनीकी और वाणिज्यिक क्षेत्र में जापानी अनुवादकों की मांग बढ़ रही है। अनुवाद के माध्यम से दोनों देशों के बीच राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक संबंध और भी मजबूत हो रहे हैं।

बीज शब्द : भारत-जापान संबंध, जापानी- हिन्दी अनुवाद, अनुवाद की समस्याएं, हाइकु शैली, अनुवाद का इतिहास, जापानी साहित्य, दारुमा, बोधिसेन, बोधिधर्म 

मूल आलेख : भारत और जापान के संबंध अभूतपूर्व रूप से गहरे और मजबूत हो रहे हैं। इसकी पुष्टि इस तथ्य से की जा सकती है कि सभी क्षेत्रों में, मसलन आर्थिक, राजनैतिक, रक्षा, विज्ञान एवं तकनीक, कला एवं साहित्य, संस्कृति इत्यादि में दोनों ही देशों के बीच ढेर सारी गतिविधियां तीव्रता से हो रही हैं। इन गतिविधियों में त्वरा लाने की भूमिका केवल अनुवाद अदा करता रहा है। अनुवाद सदैव ही दोनों देशों के बीच संवाद स्थापित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। विशेषतः वर्तमान युग में वैश्वीकरण और इंटरनेट की क्रांति के कारण अनुवाद ने अप्रत्याशित तौर पर दो देशों के बीच के संबंध को प्रगाढ़ता और मजबूती प्रदान की है। 

जापान में अनुवाद की परंपरा -

        ऐतिहासिक रूप से जापान में अनुवाद का महत्त्व उल्लेखनीय रहा है। इसका कारण है जापान का अलग-अलग काल-खंड में विभिन्न देशों के साथ चाहे-अनचाहे तरीकों से संपर्क में आना। प्राचीनकाल से ही जापान, चीन और कोरिया के संपर्क में रहा है। चीनी भाषा और लिपि, संस्कृति, धर्म, शासन व्यवस्था, दर्शन, साहित्य और अन्य विधाओं ने जापान पर लगातार प्रभाव डाला है। इन विधाओं और व्यवस्थाओं को जापान में अपनाने हेतु अनुवाद अत्यंत आवश्यक साधन था। 

16वीं सदी के मध्यकाल में जापान में पुर्तगालियों के आगमन और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अनुवाद की सहायता ली जाने लगी। परंतु, ईसाई धर्म के बहुत सारे शब्द, अभिव्यक्तियाँ जो नई धारणाओं को समेटे थे, जापानी अनुवाद में समस्याएं उत्पन्न करने लगे। इसके निराकरण हेतु, पुर्तगाली अनुवादक जोआओ रोदरीक ने उन समस्याओं का विस्तृत विश्लेषण अपनी पुस्तक जापानी व्याकरण में किया जिसमें उन्होंने ‘भावानुवाद’ पर ज़ोर दिया।  

17 वीं सदी की शुरुआत में जापान ने पुर्तगालियों की औपनिवेशिक नीतियों से सावधान होते हुए, विश्व के सभी देशों के लिए अपने द्वार लगभग 250 वर्षों के लिए बंद कर लिए थे। उस समय जापान के दक्षिणी द्वीप नागासाकी के देजिमा नामक स्थान पर चीन और हॉलैंड के साथ व्यापार जारी रहा। इन्हीं दो देशों के माध्यम से विश्व भर के परिवर्तन के बारे में जापान के शोगुन (सेना अध्यक्ष तथा सामंती व्यवस्था के प्रमुख) को जानकारियाँ प्राप्त होती थीं। इन सभी जानकारियों को जापानी भाषा में प्रस्तुत करने और संवाद करने के लिए अनुवाद का एक विशेष विभाग स्थापित किया गया था। इस समय पंक्तिबद्ध अनुवाद पद्धति प्रचलन में था। इस सदी के प्रसिद्ध अनुवादक ओग्यू सोराइ ने वर्ष 1711 में ‘पंक्तिबद्ध अनुवाद’ अथवा ‘शाब्दिक अनुवाद’ के सिद्धांत की अपने किताब याकुबुन सेंताइ (अनुवाद के निर्देश) में चर्चा की है। वर्ष 1854 में अमरीका से पेरी का आगमन और उसका जापान को व्यापारिक संबंध स्थापित करने के लिए बाध्य करना अनुवाद में एक नई क्रांति लेकर आया। जापान को अमरीका के बाद अन्य पश्चिमी देशों के लिए भी व्यापार संबंध के लिए रास्ते खोलने पड़े। इसी बीच, सत्ता शोगुन के हाथ से पुनः सम्राट के पास आ गया। शक्ति का यह ऐतिहासिक हस्तांतरण जापान को विकास और आधुनिकता को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। जापान में अनुवाद का मुख्य काल इसी समय को कहा जा सकता है जब जापान को पश्चिम में चल रहे हर तरह के गतिविधियों के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने की आवश्यकता महसूस हुई। इस काल में जापानी समाज में अप्रत्याशित रूप से पश्चिमी संस्कृति, भाषा और विचारों की बाढ़ सी आ गई। इस घटना ने जापान को यह एहसास दिलाया कि वह कई मामलों मे दुनिया से पीछे छूट चुका है। 

पश्चिमी देशों में विज्ञान, उद्योग, तकनीकी आदि काफी विकसित हो गई थी। जापान को अपने तथाकथित पिछड़ेपन से बाहर निकल कर अन्य पश्चिमी देशों की बराबरी करने के लिए पश्चिमी देशों के तमाम विचारों, शिक्षा व्यवस्था, तौर तरीकों, विज्ञान, कला, साहित्य, नीति, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं इत्यादि को समझने की आवश्यकता महसूस हुई। इस काल में, पश्चिम के बारे में जानकारी के अभाव और असुरक्षा के भाव की पृष्ठभूमि में अनुवाद की भूमिका जापान के रक्षा-तंत्र की थी। प्रसिद्ध जापानी इतिहासकार शूइची कातो ने जापान में अनुवाद की  इस भूमिका को “पूर्व आधुनिक जापानी व्यवस्था का व्युत्क्रमण” (1) कहा है।

इस काल में अनुवाद के क्षेत्र में ढेर सारे प्रयोग हुए। साहित्यों के अनुवाद में सौन्दर्य विधान की जगह विषय-वस्तु पर अधिक ज़ोर दिया जाता था। चूंकि जापानी समाज को अचानक ही नए-नए विचारों एवं धारणाओं से परिचित कराने की जिम्मेदारी अनुवादकों के कंधों पर आ गई थी, इस कारण अनुवादकों ने अनुवाद में पठनीयता और भावार्थ को वरीयता दी। कविताओं के अनुवाद भी पारंपरिक छंदों के बंधन से मुक्त हो गए। यह जापान के लिए सर्वथा नवीन विधा थी। कविता के अनुवाद में यह प्रयोग शिंताइशी (नई शैली की कविता) से जाना जाता है।

वर्तमान समय में जापान के अधिकतर अनुवादक विदेशीकरण पर जोर देते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि भाषा का निरंतर विकास हो रहा है और इस सिद्धांत के आधार पर जापानी भाषा पहले से अधिक सम्पन्न और विदेशी संस्कृति और विचारों के प्रति सहिष्णु हो पाएगी। अतः विदेशी भाषा की अभिव्यक्तियों और शैलियों का देशीकरण न करके उसके मौलिकता के साथ पाठकों से परिचित कराया जाने लगा है। हालांकि, इस मान्यता के विरुद्ध भी अनुवादकों का मत रहा है कि अनुवाद में विदेशीकरण जापान की मूल संस्कृति और भाषा पर खतरा है। वे साहित्य की भाषा में ‘शुद्धतावाद’ में विश्वास रखते थे। इस मत के समर्थक प्रसिद्ध साहित्यकार नोबेल पुरस्कार विजेता कावाबाता या सुनारी भी थे। किन्तु, द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात, साहित्यकार अनुवाद में भाषा के ‘शुद्धतावाद’ पर कम जोर देने लगें। अनुवाद में जापानी और विदेशी दोनों ही भाषाओं और संस्कृतियों से जुड़ी अभिव्यक्ति, शैली और रूपों का सहज समावेश दिखाई देता है।  

जापान को इन सभी जरूरतों और बाध्यता ने अनुवाद के कला में ऊंचाई पर पहुंचा दिया और सदियों की अनुवाद परंपरा ने उन्हे द्रुत गति से और समग्रता के साथ अनुवाद करने का हुनर प्रदान किया है। आज भी दुनिया के हर कोने के साहित्य लगातार जापानी भाषा में अनूदित हो रहे हैं। 

यह इस बात को साबित करता है कि अनुवाद, जापान को उसकी अस्मिता के रक्षा करने में, पुनर्जागरण तथा आधुनिकीकरण में कितना उपयोगी रहा है। 

भारत-जापान संबंध में अनुवाद का इतिहास -

यह विदित है कि जापान और भारत की निकटता ऐतिहासिक रूप से बौद्ध धर्म के कारण रही है। प्राचीन युग में जापान के लोग भारतीय उपमहाद्वीप को ‘तेंजिकु’ अर्थात ‘स्वर्ग’ के नाम से जानते थे। यह संपर्क शुरुआती दौर में चीन और कोरिया के माध्यम से ही हो पाया था। कोरिया के माध्यम से छठी शताब्दी में बुद्ध धर्म और दर्शन जापान में स्थापित हुए। जापान ने बौद्ध दर्शन की अंतिम शिखर के रूप में जैन दर्शन का विकास किया। कोरिया से जब बौद्ध धर्म जापान की तरफ बढ़ा तो, बौद्ध दर्शन की लिखित ग्रंथों को भी जापान भेजा गया। साथ में कुछ विद्वानों को भी भेज गया जो चीनी भाषा पढ़-लिख सकते थें और अनुवाद कर सकते थें। महायान की शाखा जब दक्षिणी पूर्वी एशिया से होते हुए चीन पहुंची तो महायान के मनीषी और विद्वान कुमारजीव के नेतृत्व में बौद्ध त्रिपिटकों का चीनी भाषा मे अनुवाद हुआ। तत्पश्चात, ये ग्रंथ जापानी भाषा में अनूदित हुए और जापान में स्थानीय धर्म शिंतो के साथ जापान के लोगों ने बौद्ध धर्म को दैनिक जीवन का हिस्सा बना लिया। बौद्ध धर्म ने दर्शन के रूप में जापानियों के विचारों को निर्देशित किया और पूजा-पाठ तथा कर्मकांड भी उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया। यह सारी प्रक्रिया बिना अनुवाद के संभव नहीं हो पाती। 

भारत का जापान से परिचय सुदूर पूरब के देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए गए बोधिधर्म और बोधिसेन जैसे बुद्ध धर्म के महासंतों के माध्यम से शुरू होता है। आज भी जापानी संस्कृति में “दारूमा” नामक मूर्ति, जो जापान में प्रायः हर स्थान पर मिल जाती है और जिसके बारे में मान्यता है कि अगर कोई मन्नत पूरी करवानी हो, तो उस बिना आँख वाली मूर्ति को घर के एक कोने में सम्मान के साथ रख दें। जब मन्नत पूरी हो जाए तो उसकी आँखों को रंग देना पड़ता है। यह “दारूमा” असल में बोधिधर्म का ही अपभ्रंश नाम है और उस मूर्ति में उसका चेहरा मूँछों सहित रहता है। बौद्ध धर्म के साथ-साथ, जापान सहित सुदूर पूरब के देशों में भारत की तत्कालीन संस्कृति के अंश भी पहुंचे और वह जापानी संस्कृति का हिस्सा बन कर स्थापित हो गए।

साहित्य के क्षेत्र में दोनों ही देश अत्यंत समृद्ध होने के कारण, एक दूसरे को समय-समय पर प्रभावित और प्रेरित भी करते आये हैं। जापानी लोक साहित्य में भारतीय जातक कथाओं का और पंचतंत्र की कथाओं का सीधा-सीधा प्रभाव देखने को मिलता है। स्थानीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए कथाओं के पात्रों मे फेरबदल दिखने को मिलता है परंतु कथानक समान है। यह इस बात का सबूत है कि सदियों पूर्व से भारत का संपर्क जापान से अनुवाद के माध्यम से बना रहा है। 

भारत में जापानी अनुवाद एवं उसका परिप्रेक्ष्य -

वर्तमान समय में भारत और जापान के संबंध सांस्कृतिक रूप से तो जुड़े हुए हैं ही, इसके अलावा तकनीकी और वाणिज्यिक क्षेत्र में भी यह संबंध अधिक तेजी से मजबूत हो रहा है। व्यापार एवं निवेश संबंधों पर निगरानी और शोध करने वाली जापानी संस्था जेट्रो (JETRO) के अक्टूबर 2022 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल चौदह सौ कंपनियां हैं जिनके लगभग पाँच हजार शाखाएं भारत भर में हैं। (1)

 इनमें से अधिकतर कंपनियां ऑटोमोबाइल और आईटी क्षेत्र से संबंधित हैं जहां पर जापानी भाषा के अनुवादकों की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। इन अनुवादकों का कार्य महज दस्तावेज़ों में भाषा का अनुवाद करना या पाठधर्मी अनुवाद करना न होकर, दोनों ही देशों के सदस्यों के बीच एक सफल संवाद स्थापित हो सके, इसके लिए भारत और जापान के संस्कृति के बीच एक सेतु का कार्य करना भी है। जापान में भारतीय कंपनियों की संख्या भी बढ़ते हुए एक सौ से अधिक हो गई है जिनमे मुख्यतः आईटी क्षेत्र की कंपनियां है। अनुवाद वहाँ भी एक आवश्यक अंग है। तकनीकी अनुवाद की सीमा सीमित होते हुए महत्वपूर्ण होती जा रही है। आजकल मशीनी अनुवाद काफी प्रचलन में है, किन्तु मानव द्वारा किया हुआ अनुवाद विशेषतः मूल्य-वर्धन मशीन अनुवाद को और उपयोगी बनाता है। इस लिए अनुवादक तथा दुभाषिए के रूप में नौकरी की संभावना आगे भी बनी रहेगी। हालांकि, स्वयं को तकनीकी के क्षेत्र में बेहतर अनुवादक होने के लिए भाषा के समग्र ज्ञान के अलावा तकनीकी का ज्ञान भी आवश्यक हो गया है। 

जापान के प्रबंधन प्रणाली का प्रभाव आजकल भारत में अनेक क्षेत्रों में दिख रहा है। भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जापानी मैनेजमेंट की विधाओं का खूब प्रयोग हो रहा है जिसके कारण संस्थाओं के उत्पादकता और कार्य कुशलता में वृद्धि देखने को मिलती है। ऐसी ही प्रबंधन विधा है “काइज़ेन” अर्थात “बेहतरी के उपाय”, फिफ़ों (FIFO), 5S, इत्यादि। आज कल भारतीय “जुगाड़” प्रणाली को “काइज़ेन” के समकक्ष रख कर देखा जा रहा है। किन्तु “काइज़ेन” जापान की ऐसी मौलिक विधा है जिसमें अपने कार्य को आसान और उत्पादक बनाने के लिए बिना किसी लागत के या कम से कम लागत से दीर्घकालीन उपाय निकालने होते हैं। भारत के कई सारे सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में जापानी प्रबंधन विधाओं का अनुवाद के माध्यम से लाभ उठाया जा रहा है। 

जापानी साहित्य का हिन्दी में प्रभाव और अनुवाद -

हिन्दी साहित्य में जापानी लघु कविता की रचना-शैली “हाइकु” का अद्भुत प्रभाव है, जिसमें प्रकृति के बिंबों और उनसे प्रेरित क्षणिक भाव बोध का चित्रण सधे शब्दों में किया जाता है। हालांकि हिन्दी साहित्य में इस कविता शैली का प्रयोग इसके पारंपरिक व्यवहार से इतर भारतीय साहित्यिक एवं सामाजिक संदर्भों में भी किया जाता है। मेरी निजी राय में यह प्रयोग “हाइकु” विधा को अधिक लोकप्रिय और अर्थपूर्ण बनाता है। 

साहित्यिक दृष्टिकोण से भारत-जापान को जोड़ने का कार्य भारत में हिन्दी के कवियों और विद्वानों ने किया है। इन्होंने कई प्रसिद्ध जापानी हाइकु को हिन्दी में अनुवाद करके उस शैली को हिन्दी साहित्य में लोकप्रिय बनाया है। ‘हाइकु शैली’ को सर्वप्रथम भारत से परिचय कराने का श्रेय रवीन्द्रनाथ ठाकुर को जाता है। वर्ष 1916 में उनके जापान यात्रा से लौटने के बाद बांग्ला मे प्रकाशित जापान यात्री में जापानी साहित्य की ‘हाइकु काव्य शैली’ का अनुवाद देखने को मिलता है। इस शैली को हिन्दी साहित्य में स्थापित करने में प्रसिद्ध कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और सत्यभूषण वर्मा का योगदान अभूतपूर्व है।

सत्यभूषण वर्मा ने जापानी हाइकु का सीधा जापानी से हिन्दी में अनुवाद किया। इन विद्वानों ने जापानी हाइकु को हिन्दी साहित्य में केवल प्रचलित ही नहीं किया, बल्कि हाइकु के हिन्दी अनुवाद में एक नया आयाम भी जोड़ा है। हाइकु विधा के जनक प्रसिद्ध मात्सुओ बाशो के एक हाइकु कविता का अज्ञेय द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद पर विचार करते हैं।

 ताल पुराना 

कूदा दादुर

-गुडुप!  (2)

古池や फ़ुरु इके या  पुराना तालाब 

蛙飛び込む कावाज़ु तोबिकोमु  मेढक कूदा 

水のおと मीज़ु नो ओतो (3) पानी की आवाज (शाब्दिक अनुवाद) 


हालांकि मूल कविता में “गुडुप” शब्द नहीं हैं, बल्कि “मिजु नो ओतो” यानि अभिधा रूप में “पानी की आवाज” है, लेकिन हिन्दी अनुवाद में “पानी की आवाज” के स्थान पर अज्ञेय ने “गुडुप” शब्द का प्रयोग करके शब्द के प्रभाव को शक्तिशाली और अनुवाद को परिष्कृत किया है। 

अज्ञेय की कविता संग्रह अरी ओ करुणा प्रभामय में जापान में उनके द्वारा लिखे गए हाइकु शैली से प्रेरित कविताएं और हिन्दी में अनुवाद किए गए हाइकु का संकलन भी है। हालांकि मूल भाषा न जानने और अंग्रेजी अनुवाद तथा व्याख्याओं के आधार पर अनुवाद करने में कहीं एक सीमा भले हो सकती है, परंतु उनका अनुवाद इस धारणा को भी खंडित करता है। यह अज्ञेय के अनुवाद और कला के ज्ञाता होने के कारण ही संभव है। इसके पीछे का कारण यह है कि अनुवादक के रूप में स्त्रोत पाठ की पृष्ठभूमि, संदर्भ और वहाँ की संस्कृति का समग्र ज्ञान उन्होंने जापान में रहकर हासिल किया था। उनका यह श्रेष्ठ और अनूठा प्रयास अनुवादकों के लिए अनुकरणीय है। 

जापानी साहित्य का हिन्दी अनुवाद: समस्याएं और संभावना  -

जापानी साहित्य के हिन्दी अनुवाद की इस लंबी शृंखला में पिछले सदी तक के जो अनुवाद थे वे सीधे जापानी से न होकर, अंग्रेजी के माध्यम से अनूदित होकर आते थे। इस प्रक्रिया में, अगर अनुवादक बहुत सजग और अन्वेषी न हो, तो अनुवाद में मूल भाव पहुंचाने में चूक जाने का खतरा रहता है। 

साहित्य अकादमी के प्रयास से पहली बार जापानी  साहित्य के हिन्दी अनुवाद की यात्रा प्रारंभ होती है। इनमें विश्व के प्रथम उपन्यास के रूप में प्रसिद्ध गेंजी मोनोगातारी (राजकुमार गेंजी) का हिन्दी अनुवाद किया गया और इसे सन् 1957 में प्रकाशित किया गया। 

सन् 1980 के दशक में शुरू हुए हाइकु विधा को हिन्दी साहित्य में सबसे ज्यादा अपनाया जाने लगा। इस चरण में सत्यभूषण वर्मा का सीधा जापानी से कविताओं का अनुवाद महत्वपूर्ण घटना माना जाता है। 1990 से 2004 तक के आसपास का माना जाता हैं जिसकी विशेषता थी कि इस अवधि में सीधा जापानी से हिन्दी मे अनुवाद करने वाले अनुवादकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। इसके पीछे का मुख्य कारण यह था कि भारत में जापानी भाषा एवं साहित्य इस समय तक आते-आते काफी प्रचलित हो चला था। 

जापानी साहित्य का सीधे जापानी से हिन्दी अनुवाद वर्ष 1990 से 2005 के बीच में बहुत संख्या में किया गया। इनमें से अधिकतर अनुवाद जापानी विशेषज्ञ उनीता सच्चिदानंद के द्वारा किया गया। इन अनुवादों में, जापानी लोक-कथा संग्रह, उपन्यास इत्यादि शामिल थें। कुल 12 खंडों में प्रकाशित अनूदित कहानियाँ जापान के प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं लेखकों के कृत्यों से हिन्दी पाठकों को परिचित कराने का कार्य किया। जैसे, कावाबाता यासुसुनारी, शिमाजाकी तोसोन, हायाशी फुमिको, आकुतागावा र्यूनोसूके, एवं शिगा नाओया इत्यादि।     

उनीता सच्चिदानंद द्वारा प्रसिद्ध आधुनिक कवि इशिकावा ताकुबोकु के जापानी कविता (तांका) संग्रह इची आकु नो सुना (एक मुट्ठी रेत) का भी हिन्दी अनुवाद किया गया है। जापानी कवि आरिमा ताकाहाशी का के कविता संग्रह ओवारी नो हाजिमारी (अंत का आरंभ) का अनुवाद जापानी भाषा के विद्वान अनीता खन्ना एवं मंजुश्री चौहान द्वारा किया गया है।

धीरे-धीरे जापानी से हिन्दी में सीधा अनुवाद करने वाले अनुवादकों की संख्या बढ़ रही है। फिर भी, यह संख्या संतोषप्रद नहीं है क्योंकि दोनों देशों के बीच की घनिष्टता ऐतिहासिक होते हुए भी हिन्दी साहित्य का जापानी अनुवाद या जापानी साहित्य का हिन्दी अनुवाद दोनों ही भाषाओं में अनुवाद की संख्या बहुत कम है। 

अन्य समस्याओं में, एक समस्या यह है कि जापानी भाषा, लिपि, सौंदर्यशास्त्र, संस्कृति और साहित्य विधान भारत से सर्वथा भिन्न होने के कारण अनुवादकों को लक्ष्य-भाषा में सटीक या समतुल्य शब्दों के चयन कि समस्या उत्पन्न होती है। इसके अलावा, इन समस्याओं को केंद्र में रखकर अभी तक विशेष शोध देखने को नहीं मिलता है। 

इस कारण, हिन्दी साहित्य को जापानी भाषा में अनुवाद करने के लिए अनुवादकों को अपने ज्ञान और सीमित स्त्रोत पर आश्रित होना पड़ता है। यह सुखद बात है कि वर्तमान समय में इन समस्याओं पर भारत में शोध हो रहे हैं। आशा कि जाती है कि जापानी-हिन्दी अनुवाद परंपरा को और सुदृढ़ बनाने में इन शोधों कि भूमिका रहेगी।    

जापानी और हिन्दी भाषा और साहित्य के विद्वान सत्यभूषण वर्मा का अनुवाद सीधा मूल से होने के नाते जापानी और हिन्दी के अनुवाद के समस्याओं को स्पष्टता और सुगमता के साथ निदान पाते हैं। उनकी जापानी हाइकु का हिन्दी अनुवाद और कविता संग्रह, जापानी हाइकु और हिन्दी कविताएं में उन्होने इन समस्याओं और संभावनाओं पर भी चर्चा की है।

जापानी विशेषज्ञ पी ए जॉर्ज के अनुसार, अनुवाद के लिए जापानी पाठ का चयन करने की कोई व्यवस्थित प्रक्रिया मौजूद नहीं है। अनूदित पाठ की समीक्षा अथवा आलोचना भी पर्याप्त संख्या में नहीं दिखाई देती है। जापानी-हिन्दी अनुवाद को प्रोत्साहन देने के लिए जापान फाउंडेशन, साहित्य अकादमी जैसे संस्था आगे आ रहे हैं परंतु अभी भी अपेक्षित रूप में नहीं है।    

अनुवाद की परंपरा की कड़ी में हिन्दी की कई महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ जापानी भाषा में अनूदित हुई हैं। जिनमें उल्लेखनीय है फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आँचल, प्रेमचंद का शतरंज के खिलाड़ी, भीष्म साहनी का तमस, मोहन राकेश का मलबे का मालिक इत्यादि। भागवद गीता जैसे ग्रंथ को भी जापानी भाषा में अनुवाद करने का शानदार प्रयास किया गया है। हालांकि जापानी-हिन्दी अनुवाद को सुगम बनाने हेतु हिन्दी भाषा के विद्वान तानाका और कोगा ने जापानी-हिन्दी शब्दकोश का निर्माण किया है जो हिन्दी सीखने वाले जापानी छात्रों, शोधार्थीयों तथा अनुवादकों के लिए एक विश्वसनीय किताब साबित हुई है। हालांकि भारत या जापान में वृहत हिन्दी-जापानी शब्दकोश अभी तक उपलब्ध नहीं है। 

निष्कर्ष : भारत और जापान का सांस्कृतिक संबंध ऐतिहासिक रूप से अनुवाद के माध्यम से जुड़ा और तब से निरंतर इस रिश्ते की गहराई अनुवाद के जरिए ही नए आयामों को छू रही है। किसी अन्य काल की तुलना में वर्तमान समय में साहित्य के अनुवाद का प्रचलन काफी बढ़ रहा है और जापान के कई अनछुए और अनकहे पहलुओं से अनुवाद के माध्यम से हिन्दी भाषी पाठक परिचित हो रहे हैं। चूंकि आजकल सीधे जापानी मूल स्त्रोत पाठ से अनुवाद हो रहे है, इसीलिए जापानी संस्कृति को बिना किसी मध्यस्थ के समग्र रूप में हम जान पाने में समर्थ हैं। जापानी साहित्य का हिन्दी अनुवाद अभी भी वांछित संख्या में नहीं हो रहा है, परंतु वैश्वीकरण और सूचना और संचार क्रांति के युग में अनुवाद की प्रक्रिया में तेजी आई है। भारत और जापान के संबंध को और अधिक गहरा बनाने मे अनुवाद ऐसे ही निरंतर अपनी भूमिका निभाएगा।


संदर्भ : 

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  2. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’: अरी ओ करुणा प्रभामय, ज्ञान पीठ, काशी, 1959, पृष्ठ 106
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पंकज कुमार
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, विदेशी भाषा अध्ययन विभाग, मणिपुर केन्द्रीय विश्वविद्यालय
pankaj.kumar@manipuruniv.ac.in

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

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