- थेसो क्रोपी
शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख में साहित्यकार येसे दरजे थोंगछी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकीअनूदित रचनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा-संस्मरण, आत्मकथा, आदि विधाओं पर बड़ी शिद्दत के साथ लेखन कार्य किया है। इन्होंने जनजातियों का इतिहास भी लिखा है और कई महान हस्तियों एवं चर्चित कथाओं का स्वयं अनुवाद भी किया है। इनकी कई रचनाओं का अंग्रेजी, हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया है। इस शोध आलेख में इनकी अनूदित रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए इनके अनूदित उपन्यास ‘सोनाम’ में चित्रित बहुपति प्रथा का विवेचन किया गया है। ‘सोनाम’ उपन्यास में चित्रित ब्रोकपा समुदाय की एक अनोखी सामाजिक परंपरा ‘बहुपति प्रथा’ के माध्यम से उस समाज में स्त्री-पुरुष संबंध और उनकी मनःस्थितियों पर विचार किया गया है जिसमें उनके दाम्पत्य-प्रेम, क्लेश-तनाव, द्वंद्व, त्रासदी आदि की अनेक भाव-भूमियाँ दृष्टिगत होती हैं। इस उपन्यास में लेखक ने कथा नायक लबजाँग, सोनाम और पेमा वाँगछू के बीच प्रेम त्रिकोण का वर्णन किया है। कथा नायक लबजाँग अपनी पत्नी की खुशी के लिए उसके प्रेमी के साथ खोर-देपका करता है किन्तु बाद में उसको अपने गलत निर्णय पर पछतावा होता है। वह क्षत-विक्षत हो जाता है। अतः यह उपन्यास अपने अनूठे कथानक के कारण ब्रोकपा समुदाय के लोगों की निराली जीवन स्थितियों को नए परिप्रेक्ष्य में अध्ययन और शोध के लिए आकर्षित करता है।
बीज शब्द : बहुपति प्रथा,
परंपरा,
जनजातियाँ,
ब्रोकपा,
खोर-देपका,
रूढ़ियाँ,
दाम्पत्य,
त्रासदी,
भाषा-संस्कृति,
खूँटी।
मूल आलेख : आज के
समय
में
अनुवाद
कार्य
बहुत
महत्त्वपूर्ण
हो
गया
है,
क्योंकि
किसी
भी
भाषा
का
साहित्यकार
अनुवाद
के
माध्यम
से
अन्य
भाषा-भाषियों
तक
पहुँचता
है।
दूसरों
के
साथ
उसकी
भाषा-संस्कृति,
लोक-मान्यताएँ,
परंपराएँ,
आचार-विचार
साझा
होते
हैं।
येसे
दरजे
थोंगछी
की
रचनाएँ
भी
अनुवाद
के
माध्यम
से
ही
हिन्दी
भाषा
और
साहित्य
के
समृद्ध
एवं
विस्तृत
मंच
तक
पहुँचने
में
सफल
हुई
हैं।
आज
उनकी
रचनाएँ
किसी
की
पहचान
की
मोहताज
नहीं
हैं।
येसे
दरजे
थोंगछी
अरुणाचल
प्रदेश
की
कई
जनजातियों
के
लिए
आदर्श
पुरुष
हैं।
वे
पेशे
से
लोक
सेवा
अधिकारी
थे।
आज
समाज
सेवक
एवं
साहित्यकार
के
रूप
में
प्रसिद्ध
हैं।
इनका
जन्म
अरुणाचल
प्रदेश
के
पश्चिम
कामेंग
जिले
के
सुदूर
जिगांव
गाँव
में
शेरदुकपेन
समुदाय
के
ताशी
फुंत्सू
थोंगछी
और
रिनचिन
चोजोम
थोंगछी
के
घर
में
13 जून
1952 में
हुआ
था।
वे
लगभग
साढ़े
बारह
साल
तक
डिप्टी
कमिश्नर
पद
पर
रहे।
डिप्टी
कमिश्नर
के
रूप
में
इन्होंने
राज्य
के
कई
जिलों
तवाँग,
लोअर
सुबनसिरी,
चांगलांग,
लोहित
और
पूर्वी
कामेंग
में
अपनी
सेवाएँ
दी
थीं।
वे
मिलनसार
प्रकृति
के
व्यक्ति
थे,
जहाँ
जाते
थे
वहाँ
की
जनजातियों
के
बीच
घुलमिल
जाते
थे।
उन
लोगों
की
समस्याओं
को
समझने
का
प्रयत्न
करते
थे
और
उनकी
समस्याओं
का
समाधान
भी
करते
थे।
वे
उन्हीं
जनजातियों
के
बीच
रहकर
अपनी
लेखन
समाग्री
भी
जुटाते
थे। “इसलिए उनके कथा साहित्य में अरूणाचल का जनजातीय समाज, वहाँ की संस्कृति एवं वहाँ का चिन्तन-दर्शन प्रामाणिक रूप में अंकित हुआ है।“1 यही प्रामाणिकता
इनकी
रचनाओं
को
अद्वितीय
बनाती
है
जो
जनजातियों
के
बीच
उनकी
प्रसिद्धि
का
कारण
भी
है।
इस
संदर्भ
में
‘द
फेमस
पिपुल
ब्लॉग’
के
अनुसार
“अपने पूरे पेशेवर करियर के दौरान
उन्होंने साहित्य और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए गहरी प्रतिबद्धता दिखाई है, जिससे असम और उसके बाहर के साहित्यिक परिदृश्य पर एक स्थायी प्रभाव पड़ा।“2
थोंगछी
ने
बचपन
में
ही
असमिया
में
कविता,
नाटक
आदि
लिखना
आरंभ
कर
दिया
था।
“हालाँकि उनकी मातृभाषा शेरदुकपेन थी, जो कुछ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली बोली थी,
लेकिन उन्होंने असमिया में लिखना शुरु किया, जो नेफा(NEFA) स्कूलों में शिक्षा का माध्यम थी और उस समय विभिन्न स्वदेशी जनजातियों के बीच एक आम भाषा के रूप में भी काम करती थी।“3 उनकी पहली
कविता
‘जुनबाई’
1967ई.
में
असमिया
बाल
पत्रिका
में
प्रकाशित
हुई
थी। आगे चलकर
उनका
साहित्य
संसार
विस्तृत
होता
गया।
उन्होंने
काव्य
एवं
नाट्य
विधाओं
के
अलावा
उपन्यास,
कहानी,
लघु
कथा,
लोक
कथा,
आत्मकथा,
यात्रा-संस्मरण,
समुदाय
का
इतिहास
तथा
अनुवाद
जैसी
विधाओं
में
लेखन
कार्य
करके
असमिया
एवं
शेरदुकपेन(मनपा
जनजाति
की
एक
उपजाति)
के
भाषा,
साहित्य
और
संस्कृति
के
विकास
में
अहम
भूमिका
निभाई
है।
उनके
लेखन
की
खासियत
है
कि
वे
समीक्षकों-आलोचकों
की
परवाह
नहीं
करते।
उनकी
रचनाओं
को
लोग
पसन्द
करें
या
न
करें,
वे
ईमानदारी
के
साथ
सपाट,
बेबाक,
शब्दों
में
किसी
भी
रीति-रिवाज
पर
यथार्थता
के
साथ
लिख
डालते
हैं।
उनके
लिखने
का
अपना
अंदाज
है।
वे
अपनी
प्रत्येक
रचना
में
किसी-न-किसी
जनजातीय
समाज
के
भूले-बिसरे
रिवाजों,
अनछुए
पहलुओं
एवं
मिथकों
को
प्रस्तुत
करते
हैं।
इसके
बावजूद
उत्तर-पूर्व
में
छोटे-छोटे
कबीले
होने
के
कारण
साहित्य-पाठक
वर्ग
की
कमी
थी
जो
उनके
लिखने
का
उद्देश्य
तथा
उनके
साहित्य
का
मूल्य
समझ
पाते।
इस
संदर्भ
में
‘शॉर्ट
स्टोरिस
ऐन्थालजी’
नामक
अनूदित
पुस्तक-विमोचन
के
अवसर
पर
उन्होंने
कहा
है-“क्षेत्रीय भाषाएँ केवल क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रहती हैं।“4 इसलिए उन्होंने
अपने
लेखन
के
लिए
असमिया
और
अंग्रेजी
भाषा
को
महत्त्व
दिया।
उन्होंने
अपनी
कई
रचनाओं
का
विभिन्न
भाषाओं
में
अनुवाद
करवाया।
अब
तक
उनके
कई
प्रसिद्ध
उपन्यासों,
कहानियों,
नाटकों,
यात्रा-
संस्मरणों
के
अनुवाद
हो
चुके
हैं।
उन्होंने
स्वयं
असमिया
में
‘सैनिककर
सेनापति’(जनरल
जे.जे
सिंह
की
आत्मकथा-‘द
सोल्जर्स
जनरल’),
‘प्रभात
मुक्त
जीवन’(परम
पावन
दलाई
लामा
की
आत्मकथा-फ्रीडम
इन
एग्जाइल),
‘बोधिचर्यावतार’(आचार्य शांति देव
की
कृति-बोधिचर्यावतार) और अंग्रेजी में ‘हार्ट टू
हार्ट’(लुम्मर
दाई
का
उपन्यास-मोन
अरु
मोन)
आदि
का
अनुवाद
किया
है।
येसे
दरजे
थोंगछी
को
उनके
साहित्यिक
अवदान
के
लिए
विभिन्न
अनमोल
पुरस्कारों
से
अलंकृत
किया
गया
है।
इनको
प्राप्त
प्रमुख
पुरस्कार
हैं-
फूलचंद
खांडेलवाल
पुरस्कार(1999),
कला
गुरु
विष्णु
राभा
प्रसाद
पुरस्कार(2001),
साहित्य
अकादमी
पुरस्कार(2005),
भाषा
भारती
पुरस्कार(2005),
वासुदेव
जालान
पुरस्कार(2010),
विशेष
उपलब्धि
पुरस्कार(2012),
असम-अरुणाचल
भूपेन
हजारिका
पुरस्कार(2014),
डॉ
भूपेन
हजारिका
राष्ट्रीय
पुरस्कार(2017),
असम
घाटी
साहित्य
पुरस्कार(2017),
आ.
हजारी
प्रसाद
द्विवेदी
सम्मान(2020),
सुकाफा
राज्य
पुरस्कार(2020),
पद्मश्री(2020),लुमदर
दाय
पुरस्कार,
अरुणाचल
प्रदेश
बौद्ध
संस्कृति
संघ
के
स्पेशल
एचीवमेंट
आदि।
‘सोनाम’
उपन्यास
पर
फिल्म
बनी
थी।
इसकी
अनोखी
कथा
के
लिए
राष्ट्रीय
पुरस्कार
‘रजत
कमल’
प्रदान
किया
गया
था।
येसे
दरजे
थोंगछी
के
कहानी
संग्रह-
‘बाह
फूलोर
गोंधो’
का
अंग्रेजी
अनुवाद
अरुणी
कश्यप
ने
‘द
स्मेल
ऑफ
बेम्बो
ब्लोसोम्स’
नाम
से
किया
है।
‘पपोर
पुखुरी’
का
अंग्रेजी
अनुवाद
‘सिन
लेक’
नाम
से
किया
गया
है।
इनके
यात्रा-संस्मरण
का
हिन्दी
अनुवाद
डी.पी.
नाथ
ने
किया
है।
इनके
आठ
उपन्यासों-
‘सोनाम’(1981,
असमिया
में)’,
‘लिंगझिक’(1983,
असमिया
में),
‘मौन
ओंठ
मुखर
हृदय’(1991,
असमिया
में),
‘सबा
कटा
मानूह’(2004,
असमिया
में),
‘विष
कन्यार
देशत’(2006-असमिया
में),
‘मिसिंग(2008-असमिया
में)’,
‘मई
आकोउ
जनम
लम’(2011-असमिया
में)
में
से
अब
तक
तीन
उपन्यासों
के
अनुवाद
हो
चुके
हैं।
2001 में
दिनकर
कुमार
ने
‘मौन
ओंठ
मुखर
हृदय’
उपन्यास
का
अनुवाद
हिन्दी
में
‘मौन
होंठ
मुखर
हृदय’
नाम
से
किया
है।
थोंगछी
को
इस
उपन्यास
के
लिए
2005 में ‘साहित्य अकादमी
पुरस्कार’
से
सम्मानित
किया
गया
था।
‘सोनाम’
उपन्यास
का
हिन्दी
अनुवाद
2009 में
डॉ
महेंद्रनाथ
दूबे
ने
किया
था,
जो
वाणी
प्रकाशन
से
छपा
था।
इनके
तीसरे
उपन्यास
‘सबा
कटा
मानूह’
का
हिन्दी
अनुवाद
‘शव
काटने
वाला
आदमी’ नाम से
दिनकर
कुमार
ने
किया
था,
जो
2015 में
वाणी
प्रकाशन
से
प्रकाशित
हुआ
था।
‘सोनाम’
का
अंग्रेजी
अनुवाद
मृदुला बरुवा ने किया
है।
इनकी
रचनाओं
को
राज्य
सरकार
और
केंद्र
सरकार
ने
कई
सालों
तक
नजर
अंदाज
किया
था।
इस
पर
तरुण
विजय
ने
जनसत्ता
समाचार,
14 सितम्बर,2014
अंक
में
लिखा
था
कि
“भाषा,
परंपरा
और
मूल
चेतना
अरक्षित
है।
केवल
राजनीति
जिन्दा
है।
इस
राजनीति
के
दायरे
में
वे
सब
नहीं
आते,
जिनके
समाप्त
होने
से
सरकार
के
चलने
या
न
चलने
पर
फर्क
ही
नहीं
पड़ता।
अरूणाचल
के
थोंगछी
उपन्यास
लिखते
रहेंगे
दिल्ली
में
शायद
कोई
उस
उपन्यास
की
समीक्षा
भी
छापे
या
छापे
भी
तो
बुझे
हुए,
एहसान
जताते
हुए
भाव
से-
तुम
ऩार्थ
ईस्ट
वालों
के
लिए
हमने
भी
कुछ
कर
दिया।”5
साहित्य
जगत
में
अनुवाद
कार्य
कितना
आवश्यक
है,
यह
थोंगछी
को
ज्ञात
था।
जब
तक
इनके
साहित्य
का
हिन्दी
और
अंग्रेजी
में
अनुवाद
नहीं
हुआ
था,
तब
तक
इनको
राज्य-स्तर
पर
कई
पुरस्कार
तो
मिले,
किन्तु
राष्ट्रीय
स्तर
पर
नहीं।
इनका
समृद्ध
साहित्य
अंधेरी-गर्त
में
पड़ा
हुआ
था।
वे
अपनी
भाषा-संस्कृति
एवं
साहित्य
के
प्रति
संवेदनशील
हैं
और
अपने
रीति-रिवाजों,
मान्यताओं,
पारंपरिक
प्रथाओं
को
भारतीय
समाज
और
साहित्य
के
साथ
साझा
करना
चाहते
हैं।
इसके
लिए
विस्तृत
आकाश
की
जरूरत
थी,
इसकी
पूर्ति
अनुवाद
द्वारा
ही
संभव
थी।
थोंगछी
के
विपुल
रचना-कर्म
और
प्रस्तुत
शोध
आलेख
की
शब्द
सीमा
को
ध्यान
में
रखते
हुए
यहाँ
केवल
सोनाम
उपन्यास
पर
ही
चर्चा
की
जाएगी।
‘सोनाम’ उपन्यास
की
कथावस्तु
एक
ऐसी
निराली
बहुपति-प्रथा
से
संबंधित
है
जो
स्त्री-पुरुषों
के
जटिल
संबंधों
को
उजागर
करती
है।
इस
उपन्यास
द्वारा
चित्रित
समाज
में
मुक्त
यौन
संबंधों
का
स्थापित
हो
जाना
बहुत
बड़ी
बात
नहीं
होती
है।
कोई
भी
स्त्री-पुरुष
आपसी
रजामंदी
से
अपनी
यौनेच्छा
की
पूर्ति
कर
सकते
हैं।
देश
की
कुछ
गिनी-चुनी
जनजातियों
में
बहुपति-प्रथा
का
प्रचलन
कोई
नयी
बात
नहीं
है।
महाभारत
काल
में भी द्रोपदी
के
पाँच
पति
थे।
द्रोपदी
को
अर्जुन
ब्याह
कर
लाया
था,
परंतु
माता
कुन्ती
के
आदेशानुसार
उसे
पाँचों
भाइयों
की
पत्नी
बनना
पड़ा।
महाभारत
काल
के
उपरांत
कुछ
जातियों
एवं
जनजातियों
ने
इस
बहुपति-प्रथा
का
अनुसरण
किया
जो
आज
भी
किसी-न-किसी
रूप
में
चल
रही
है।
कुछ
जनजातियों
में
प्राचीन
काल
से
बहुपति-प्रथा
का
प्रचलन
रहा
है।
इनका
महाभारत
से
कोई
संबंध
नहीं
है।
उत्तराखंड
की
जौनसारी
जनजाति
के
विषय
में
पंजाब
केसरी
पत्र
की
रिपोर्ट
है
“जौनसारी जनजाति खेती और पशुपालन से गुजारा करती है। पुश्तैनी संपत्ति, पशुओं के बंटवारे से बचने के लिए एक पत्नी से सभी भाइयों की शादी हो जाती है।”6
बहुपति-प्रथा
के
संबंध
में
हिमाचल
प्रदेश
की
किन्नौरी
जनजाति
का
अमीर
लामा
नामक
व्यक्ति
स्वयं
अपने
भाइयों
के
साथ
साझा
पतित्व
संबंध
में
ही
रहता
है
और
अपने
बच्चों
को
भी
बहुपति
विवाह
करने की सलाह
देता
है।
फारवर्ड
प्रेस
टीम
द्वारा
लिये
गए
एक
साक्षात्कार
में
बताया
गया
है
कि “मैं उनको समझाता हूँ। मैं उनको यह उदाहरण देता हूँ कि खेतों की, जगह की कमी है। इस वजह से भविष्य में दूर की बात सोचते हुए एक ही शादी करें। अलग-अलग शादी करेंगे, तो दिक्कत होगी। मेरी तो चलो थोड़ी-बहुत जगह है। हम लोग थोड़ी-सी जमीन वाले, थोड़ी आय के संसाधन वाले हैं।“7 इस विवाह-प्रथा
से
जिस
तरह
स्त्रियों
को
विभिन्न
प्रकार
की
कठिनाइयों
से
गुजरना
पड़ता
है
वैसे
ही
पुरुषों
को
भी गुजरना पड़ता
है।
भले
ही
बहुपति
विवाह
में
पुरुषों
को
ही
सम्पत्ति
का
अधिकार
हो,
घर
में
एक
साझा
पत्नी
के
होते
हुए
भी
अन्य
लड़की
से
विवाह
करने
का
अधिकार
प्राप्त
हो,
किन्तु
धन-संपत्ति
की
आड़
में
रीति-रिवाजों
को
महत्त्व
देने
के
कारण
कुछ
गिने-चुने
पुरुष
ही
इस
नियम
का
उल्लंघन
कर
पाते
हैं।
वे
अपनी
पत्नी
को
अन्य
भाइयों
के
साथ
प्रेमालाप
करते
देखकर
अपने
ही
भाइयों
एवं
पत्नी
के
प्रति
ईर्ष्या,
जलन
से
तनावग्रस्त
रहते
हैं।
साझा
पत्नी
से
असंतुष्ट
होने
पर
किसी
अन्य
स्त्री
से
संबंध
बनाते
हैं।
धन-संपत्ति
के
लिए
एवं
अहं
के
कारण
दूसरी
लड़की
से
विवाह
न
कर
पाने
की
छटपटाहट
भी
होती
है।
यहाँ
कथाकार
ने
जिस
ब्रोकपा
समाज
का
चित्रण
किया
है,
वह
समाज
अन्य
समाजों
से
हटकर
है।
इस
ब्रोकपा
समाज
में
व्यक्ति
की
स्वतंत्रता
मायने
रखती
है।
सभी
स्त्रियों-पुरुषों
को
बराबर
का
अधिकार
प्राप्त
है।
इस
उपन्यास
पर
आधारित
एक
सफल
फिल्म
भी
बनी
थी।
इस
फिल्म
के
लिए
‘रजत
कमल’
राष्ट्रीय
पुरस्कार
से
नवाजा
गया
था।
लेखक
ने
बहुपति
विवाह-प्रथा
और
स्त्री-पुरुष
की
मानसिकता
का
यथार्थ
और
बेबाक
वर्णन
किया
है।
यह
उपन्यास
“प्रेम, षड्यंत्र और जीवित रहने के लिए आवश्यक समझी जाने वाली व्यवस्था की कहानी, सोनाम एक दुखद कलाकृति है। जो एक आवश्यक समझी जाने वाली व्यवस्था के दुष्परिणामों को दर्शाती है।”8
उपन्यास की
कथावस्तु
एक
छोटे
से
कबीले
ब्रोकपा(पशु
पालक)
जनजाति
की
पारंपरिक
लोक
मान्यताओं
और
संस्कृति
से
संबंधित
है।
येसे
दरजे
थोंगछी
ने
उपन्यास
की
कथावस्तु
को
अरुणाचल
प्रदेश
के
सीमांत
में
बसने
वाली
ब्रोकपा
जनजातीय
समाज
में
प्रचलित
बहुपतित्व
विवाह-प्रथा
पर
केंद्रित
किया
है।
इस
उपन्यास
के
संबंध
में
पुस्तक
के
आमुख
में
प्रकाशक
ने
लिखा
है
“उपन्यास की थीम याक चराने वाले समुदाय के सांस्कृतिक-सामाजिक परिवेश का मार्मिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है और इस समाज में प्रचलित बहुपतित्व की प्रथा के इर्द-गिर्द घूमती है।”9 इस उपन्यास
का
मुख्य
पात्र
लबजाँग
अपनी
सुन्दर
पत्नी
सोनाम
पर
मर-मिटने
वाला
युवक
है।
यहाँ
तक
कि
अपनी
रूपवती
पत्नी
की
खुशी
के
लिए
खोर-देपका(बहुपति
विवाह)
तक
करने
को
तैयार
हो
जाता
है।
वहीं
पत्नी
पेमा
वाँगछू
के
बहकावे
में
आकर
बड़ी
बेदर्दी
से
अपने
असहाय
पति,
घर-संसार
सब
छोड़कर
दूसरे
पति
के
साथ
चली
जाती
है।
अतः
इस
उपन्यास
में
दोनों
पति-पत्नी
खोर-देपका
विवाह
का
दर्द
झेलते
हैं।
यह
उपन्यास
बहुपति
प्रथा
की
अर्थहीनता
की
ओर
संकेत
करता
है।
इसके
साथ
ही
इसमें
ब्रोकपा
लोगों
के
भौगोलिक
परिवेश,
पर्यावरण,
खान-पान,
रीति-रिवाजों,
आचार-विचार,
अभिरुचियों,
भाषा-संस्कृति
आदि
पर
भी
चिन्तन-मनन
किया
गया
है।
ब्रोकपा
शब्द
का
अर्थ
ही
है-पशु
पालक।
आज
भी
कुछ
गिने-चुने
ब्रोकपा
लोगों
का
पारंपरिक
व्यवसाय
पशु
पालन
है।
पशु
ही
इन
लोगों
की
जीविका
का
स्रोत
है।
‘सोनाम’
उपन्यास
का
कथा
नायक
लबजाँग
एक
ईमानदार,
सरल
मिलनसार
एवं
मेहनती
नौजवान
है। वह अकेले
ही
घर-गृहस्थी
की
जरूरतों
की
पूर्ति
एवं
खूँटी
पर
रखे
अपने
पशुओं
की
देखभाल
कर
रहा
था।
लबजाँग
का
गाँव
ऊँची-ऊँची
पहाड़ियों
की
तराइयों
के
बीच
स्थित
था।
यहाँ
पर
फसल
उगाना
मुश्किल
ही
नहीं,
बल्कि
नामुमकिन
भी
था।
ठण्डे
प्रदेश
की
वजह
से
पेड़-पौधे,
कोमल
घास
का
मैदान
भी
हर
जगह
उपलब्ध
नहीं
था,
इसलिए
लबजाँग
को
कड़ी
मेहनत
करनी
पड़ती
थी। लबजाँग अपने
साथियों
के
साथ
पशुओं
को
चराने
के
लिए
दूर
पहाड़ों
पर
चला
जाता
था। उसको घर
लौटने
में
कई
दिन,
सप्ताह,
महीने
तक
लग
जाते
थे।
हर
बार
की
तरह
कथा
नायक
लबजाँग
अपनी
प्यारी
पत्नी
से
मधुर
मिलन
की
आस
लिए
कँटीली
बर्फीली
हवा
को
चीरता
हुआ
बिंदास,
बेपरवाह
जब
घर
लौटता
है
तो
एक
अप्रत्याशित
दृश्य
देखकर
उसका
सुनहरा
स्वप्न
टूट
जाता
है।
आधी
रात
में
अपने
घर
पहुँचने
पर
दरवाजे
के
बाहर
से
उसे
अंधेरे
बंद
कमरे
के
भीतर
से
स्त्री-पुरुष
की
बातचीत
की
आवाजें
सुनाई
दीं।
घर
के
भीतर
कौन
हो
सकता
है,
इसका
अनुमान
वह
लगा
ही
रहा
थी
कि
गाँव
का
लफंगा
लड़का
पेमा
वाँगछू
कमरे
से
बाहर
निकलकर
सामने
से
गुजर
गया।
लबजाँग
इसके
लिए
कतई
तैयार
नहीं
था।
“लबजाँग के तन-मन में एकाएक जैसे महा-विषैले बिच्छू ने भारी डंक मार दिया हो, ऐसी असहनीय पीड़ा से वह तिलमिला उठा। उसकी अनुपस्थिति के समय में उसकी लाडली पत्नी सोनाम किसी पराए पुरुष के साथ इस तरह अपनी रात रंगीन करते हुए बिताएगी-ऐसा विचार मन में ले आने में लबजाँग को कठिनाई हुई।”10 वह सोनाम
पर
क्रोधित
हो
उठा,
किन्तु
कुछ
कर
नहीं
सकता
था।
वह
जानता
था
कि
इस
ब्रोकपा
समाज
में
स्त्री-पुरुष
स्वेच्छा
से
शारीरिक
संबंध
स्थापित
कर
सकते
हैं।
लबजाँग
सोचता
है
“उसके अपने इस समाज में विवाहित स्त्री-पुरुषों के अलावा भी अलग-अलग स्त्रियों-पुरुषों के बीच शारीरिक संबंध होते रहते हैं। स्वयं उसके अपने साथ भी इस प्रकार की कई एक घटनाएँ घटित हो चुकी हैं।”11 इस घटना
से
पूर्व
पिछले
चार
सालों
में
लबजाँग
और
सोनाम
अपने
समाज
में
एक
सुखी
सम्पन्न
दाम्पत्य
जीवन
की
मिसाल
थे,
लेकिन
पेमा
वाँगछू
नामक
युवक
इनके
जीवन
में
तूफान
बनकर
आया
और
लबजाँग
और
सोनाम
के
सुखी
दाम्पत्य
जीवन
को
तहस-नहस
कर
डाला।
जब
लबजाँग
को
सोनाम
और
पेमा
वाँगछू
के
अवैध
संबंधों
का
पता
चला
तब
वह
टूट
गया
था।
वह
अपनी
पत्नी
से
बेहद
प्रेम
करता
था।
उसे
किसी
भी
कीमत
पर
खोना
नहीं
चाहता
था।
अतः
लबजाँग
पत्नी
के
अवैध
संबंध
को
वैध
बनाने
के
लिए
पेमा
वाँगछू
से
खोर-देपका
करने
का
निर्णय
लेता
है।
उपन्यास
में
चित्रित
ब्रोकपा
समाज
में
बहुओं
द्वारा
खोर-देपका
पूर्व
भी
देवरों
के
साथ
शारीरिक
संबंध
बना
लेना
आम
बात
होती
है।
इस
संबंध
में
समाज
को
भी
आपत्ति
नहीं
है,
क्योंकि
देवर
आगे
चलकर
बड़े
भाई
के
साथ
खोर-देपका
करेंगे
ही।
सोनाम
की
सहेली
लोजम
और
पेमा
वांगछू
पहले
से
साथ-साथ
रहने
लगे
थे,
क्योंकि
लोजम
को
लगा
कि
वह
आगे
चलकर
उसके
साथ
विवाह
करेगा।
इस
उपन्यास
के
सभी
पात्र
खोर-देपका
के
बंधन
में
बंधे
हुए
हैं।
टिकरा,
केजाँग
और
चरगेन
भी
अपने-अपने
भाइयों
के
साथ
खोर-देपका
बंधन
में
रहते
हैं।
इस
ब्रोकपा
जनजाति
में
बहुपति
प्रथा
का
मुख्य
कारण
है-
इन
लोगों
को
अपना
घर
छोड़कर
कई
महीनों
तक
दूर
पहाड़ों
पर
रहना
होता
है।
यह
ब्रोकपा
पशु
पालकों
की
मजबूरी
है।
इन
लोगों
को
पशुओं
को
चराने
के
लिए
दूर-दराज
के
पहाड़ों
पर
जाना
पड़ता
है
और
इनको
लौटने
में
कई
दिन
या
कई
महीने
लग
जाते
हैं।
ऐसी
स्थिति
में
सामाजिक
व्यभिचार,
स्वछन्दता
एवं
उच्छृंखलता
पर
नियंत्रण
रखने
के
लिए
भाइयों
का
विवाह
एक
ही
लड़की
के
साथ
कर
देने
का
विधान
बनाया
गया
है,
जिससे
घर-गृहस्थी,
बीवी-बच्चों
को
संभालने
वाला
भी
रहे
और
पहाड़ों
पर
चारागाह
में
पशुओं
की
देखभाल
करने
वाला
भी।
खोर-देपका
करने
वाले
भाइयों
के
बीच
में
एक
निश्चित
अवधि
का
बंटवारा
रहता
है।
निर्धारित
समय
के
अनुसार
एक
भाई
गाँव
में
अपने
परिवार
की
देखभाल
करता
है
और
दूसरे
भाई
निर्धारित
अवधि
के
लिए
पशुओं
को
चराने
के
लिए
खूँटी
में
चले
जाते
हैं।
इस
नियम
से
घर-गृहस्थी
सुचारु
रूप
से
चलती
है
और
पशुओं
को
भी
चारे
की
तकलीफ
नहीं
होती
है।
सोनाम
द्वारा
पति
की
अनुपस्थिति
में
पेमा
वाँगछू
के
साथ
शारीरिक
संबंध
बनाना,
दोनों
के
सुखी
दाम्पत्य
जीवन
में
एक
चिंगारी
थी,
जिसमें
लबजाँग
द्वारा
पत्नी
की
खुशी
के
लिए
पेमा
वाँगछू
के
साथ
खोर-देपका
रचाने
के
निर्णय
से
दोनों
ही
झुलस
गए।
इस
उपन्यास
में
चित्रित
ब्रोकपा
जनजातीय
समाज
भी
अन्य
जनजातियों
की
तरह
अपनी
जाति-बिरादरी
को
लेकर
बहुत
संवेदनशील
है।
वह
अपनी
बिरादरी
में
किसी
अन्य
बिरादरी
के
व्यक्ति
को
शामिल
नहीं
करना
चाहता
है,
पर
इस
समाज
में
व्यक्ति
की
स्वतंत्रता
अहम्
होती
है।
लबजाँग
और
पेमा
वाँगछू
अलग-अलग
जाति
के
थे।
अब
दोनों
बिरादरी
वालों
की
जुबान
पर
एक
ही
विषय
था,
अलग-अलग
जनजातियों
के
बीच
में
खोर-देपका
करना।
ऐसी
घटना
दोनों
बिरादरी
वालों
ने
न
कभी
सुनी
और
न
ही
किसी
ने
की
थी,
इसलिए
यह
उत्सुकता
का
विषय
थी।
पंचायत
की
सभा
बुलायी
गयी।
सभा
में
दोनों
पक्ष
वाले
अपने-अपने
बिरादरी
भाइयों
के
साथ
विराजमान
थे।
सभा
में
जब
लबजाँग
ने
पेमा
के
साथ
खोर-देपका
करने
का
प्रस्ताव
रखा,
तो
पेमा
का
पिता
अपने
बेटे
को
कुछ
न
कहकर
लबजाँग
पर
दोषारोपण
करने
लगा,
तब
पेमा
ने
भी
अपने
पिता
के
विरुद्ध
लबजाँग
का
साथ
दिया।
परिणामस्वरूप
उसके
पिता
ने
उसे
त्याज्य
पुत्र
घोषित
कर
दिया
और
अपनी
पैतृक
सम्पत्ति
से
बेदखल
कर
दिया।
केजाँग
के
नेतृत्व
में
लबजाँग
के
बिरादरी
भाइयों
ने
इस
अंतरजातीय
खोर-देपका
का
खूब
विरोध
किया।
वह
पेमा
को
किसी
भी
कीमत
पर
अपनी
जाति
में
शामिल
नहीं
होने
देना
चाहते
हैं।
केजाँग
के
उकसाने
पर
गाँव
के
मनचले
लड़कों
ने
पेमा
वाँगछू
को
मार-मारकर
अधमरा
करके
मन
की
भड़ास
निकाली।
इस
दृश्य
को
देखकर
ऐसा
लगता
है
कि
ब्रोकपा
समाज
में
स्त्रियों
की
कोई
इज्जत
ही
नहीं
है,
परन्तु
उसी
समाज
में
लबजाँग
जैसे
लोग
भी
है
जो
अपनी
पत्नी
की
इच्छापूर्ति
करना
अपना
कर्त्तव्य
समझते
हैं।
पत्नी
को
पेमा
वाँगछू
पसन्द
है,
तो
खोर-देपका
भी
पेमा
वाँगछू
के
साथ
ही
होगा
जिससे
घर
में
सुख-शांति
बनी
रहे।
सरपंच
ने
सुलह-समझौते
की
राह
निकालकर
लबजाँग
को
कुछ
बुजुर्गों
के
साथ
पेमा
वाँगछू
के
घर
जाकर,
उनको
मनाने
का
तरीका
बताया।
वह
सरपंच
की
बात
मानकर
पेमा
वाँगछू
के
रूठे
हुए
माता-पिता
को
मना
लेता
है।
इसके
बाद
खोर-देपका
के
लिए
विचार-विमर्श
हुआ।
इसमें
कुछ
निर्णय
लिए
गये।
पहला-दो
दिन
बाद
ही
साधारण
तरीके
से
खोर-देपका
रस्म
सम्पन्न
होगी।
दूसरे-
खोर-देपका
के
बाद
सोनाम
के
बच्चों
का
पिता
कौन
होगा,
इसका
फैसला
सोनाम
करेगी।
तीसरे-
पेमा
वाँगछू
को
लबजाँग
की
बिरादरी
में
शामिल
नहीं
किया
जाएगा,
इसलिए
जब
लबजाँग
का
बच्चा
होगा
तो
लबजाँग
के
वंश
को
आगे
बढ़ायेगा
और
यदि
पेमा
का
बच्चा
हुआ
तो
पेमा
के
वंश
को
आगे
बढ़ायेगा।
उपन्यास
में
वर्णित
ब्रोकपा
समाज
की
दैनिक
दिनचर्या
या
संस्कारों
से
संबंधित
अनुष्ठान,
धार्मिक
अनुष्ठान
हो
या
कोई
उत्सव,
प्रत्येक
अवसर
पर
खाना
और
पीना
दोनों
साथ
चलता
है।
फिर
विवाह
संस्कार
जैसे
शुभ
अवसर
पर
भला
मदिरा
से
कोई
कैसे
परहेज
कर
सकता
है।
इसी
दिन
के
लिए
लबजाँग
और
सोनाम
ने
भोज
की
पूरी
तैयारी
की
थी।
बड़ी
धूम-धाम
के
साथ
तीनों
का
खोर-देपका
हुआ।
रस्म-रिवाज
के
उपरान्त
विवाह
में
शामिल
हुए
सभी
लोग
खाने,
पीने
तथा
नाचने
का
आनन्द
लेने
लगे।
सोनाम
ने
अपने
दोनों
पतियों
को
अपने
ही
कोमल
हाथों
से
मदिरा
परोसी
और
तीनों
ने
मिलकर
जमकर
मदिरा
का
आनन्द
लिया।
इस
प्रकार
यह
अंतर्जातीय
खोर-देपका
नामक
रस्म-रिवाज
सम्पन्न
हुआ।
लबजाँग
के
घर
की
तीन
पहियों
वाली
गाड़ी
कुछ
सालों
तक
ठीक-ठाक
चलती
रही।
सोनाम
ने
चार
साल
बाद
लबजाँग
को
पिता
बनाकर
अधूरे
परिवार
को
पूर्ण
कर
दिया
था।
लबजाँग
खुशी
से
फूले
न
समाए
थे,
किन्तु
कुछ
सालों
के
बाद
लबजाँग
को
समझ
में
आने
लगा
कि
उसने
जोश
में
आकर
जिस
खोर-देपका
का
निर्णय
लिया
था,
वह
गलत
था।
धीरे-धीरे
तीनों
के
बीच
तनाव
बढ़ता
गया।
तनाव
इतना
बढ़
गया
कि
सोनाम
और
पेमा
को
लबजाँग
को
अकेला
छोड़कर
जाना
पड़ा।
लबजाँग
पीड़ा,
अपमान
से
छटपटाता
रहा।
उसकी
अवस्था
सोचनीय
हो
गयी।
चारागाह
में
कई
दिनों
तक
वह
तेज
बुखार
से
कराहता
रहा,
किन्तु
बिरादरी
के
भाइयों
केजाँग
और
टिकरा
की
सेवा
और
देखभाल
से
वह
कुछ
महीने
बाद
ठीक
हो
गया।
दूसरी
तरफ
सोनाम
को
भी
अपनी
गलती
का
अहसास
हुआ।
वह
अपने
गलत
निर्णय
पर
पछताती
है,
परिणामस्वरूप
रोगग्रस्त
हो
जाती
है
और
अपने
दोनों
बच्चों
को
लबजाँग
के
हवाले
कर
दुनिया
से
विदा
ले
लेती
है।
कुछ
महीने
बाद
लबजाँग
अपनी
साली
छिरिंग
के
साथ
विवाह
कर
लेता
है
और
दोनों
भविष्य
में
कभी
भी
खोर-देपका
न
करने
का
निश्चय
करते
हैं।
दूसरी
तरफ
पेमा
वाँगछू
अपने
बड़े
भैया
सांगजा
और
भाभी
लोजम
के
साथ
खोर-देपका
कर
लेता
है।
इस
उपन्यास
के
संबंध
में
बरबी
ने
अपने
शोध
निबंध
में
डॉ.
जमुना
बीनी
तादर
के
कथन
को
इस
प्रकार
प्रस्तुत
किया
है
“थोंगछी जी ने अपने उपन्यास( सोनाम) में ब्रोकपा समुदाय के बहुपतिवाद की प्रथा और उससे प्रभावित मानवीय संबंधों के समीकरणों का गहन आकलन किया है।“12
निष्कर्ष : निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि उत्तर-पूर्व विभिन्न बोलियों, भाषाओं और संस्कृतियों से समृद्ध प्रदेश है। यद्यपि थोंगछी का रचना संसार काफी समृद्ध है, किन्तु अभी तक उनकी कुछ ही रचनाओं का हिन्दी भाषा में अनुवाद हो पाया है। थोंगछी ही नहीं, अभी भी उत्तर-पूर्व की कई बोलियों और भाषाओं का साहित्य अलक्षित पड़ा है, जिसका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया जाए तो इससे एक विशाल पाठक वर्ग लाभांवित होगा और भाषा एवं साहित्य की संवेदना का भी विस्तार होगा। यह महत् कार्य केवल अनुवाद के माध्यम से ही संभव है। थोंगछी के अनूदित उपन्यास ‘सोनाम’ की कथावस्तु ब्रोकपा समाज में प्रचलित बहुपति प्रथा से ली गयी है। ब्रोकपा समाज में बहुपति प्रथा की व्यवस्था इन लोगों के जीवन की सहूलियत के लिए की गयी है। स्त्री-पुरुष संबंध को लेखक ने जिस सहज-सरल तरीके से प्रस्तुत किया है वह इनके लेखन की विशिष्टता प्रकट करता है। लेखक ने लबजाँग के माध्यम से जाति के भेद-भाव को दूर करने की कोशिश की है। कभी-कभी जरूरत पड़ने पर, परिवार की खुशी के लिए अपनी बिरादरी के खिलाफ भी जाना पड़ता है। ब्रोकपा लोगों की कट्टरता के पीछे का कारण इन लोगों की अपनी भाषा-संस्कृति को जीवित बनाए रखना है, क्योंकि बाहरी संक्रमण से इन लोगों के रीति-रिवाज, इनकी पारंपरिक-मान्यताएँ लुप्त हो सकती हैं इसीलिए पशु-पालक जनजातियों ने बहुपति विवाह की व्यवस्था की है। लेखक ने बदलते समय के साथ बहुपति विवाह की अर्थहीनता को भी रेखांकित किया है और एक नई राह की ओर संकेत किया है। नायक लबजाँग और सोनाम की बहन छिरिंग का विवाह हो जाता है और छिरिंग लबजाँग से बहुपति विवाह न करने का वचन लेती है। वह पति को सलाह देती है कि हम खानदानी पशु-पालन व्यवसाय को छोड़ देंगे और अपने सारे पशुओं को बेचकर तवाँग शहर में साथ रहकर व्यापार करेंगे। जब व्यवसाय ही बदल जाएगा तब अकेले रहने की मजबूरी भी नहीं रहेगी। लेखक यह भी मानते हैं कि कुछ लोग संकीर्ण विचार वाले कुसंस्कारों को जीवित रखने में लगे हुए है, जिसकी आज के संदर्भ में कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार लेखक ने ‘सोनाम’ उपन्यास के माध्यम से बहुपति विवाह-प्रथा के दुष्परिणामों की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
1. बरबी, ललबियाकसाङी साइलो, https://mzur.inflibnet.in
2. द फेमस पिपुल- https://www.thefamouspeople.com/Blog
3. प्रदीप कुमार, अरुणाचल ऑब्जर्वर- www.arunachalobserver.org,2020
4. अरुणाचल टाइम्स- https://www.arunachaltimes.in,2022
5. तरूण विजय,जनसत्ता समाचार-पत्र,14सितम्बर, 2014 ,के अंक, https://vaniprakashanblogspot.com
6. सीमा अग्रवालः पंजाब केसरी की रिपोर्ट,दिसंबर, 2023, https://m.panjabkesari.in>news
8. प्रंकफर्ट राइट्स वेब पोर्टलः https://frantfurtrights.com
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, वीमेन्स कॉलेज, तिनसुकिया, असम
kropi.theso@gmail.com
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