अनुवाद की संस्कृति और संस्कृति का अनुवाद
-
वर्षा दास
{लगभग छह दशकों से गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी में मौलिक लेखन और बांगला, उड़िया, मराठी, गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी में अनुवाद कार्य करने के लिए प्रसिद्ध विदुषी डॉ. वर्षा दास को अनुवाद तथा शान्ति-अहिंसा विषयक लेखन के लिए केन्द्रीय साहित्य अकादेमी, गुजरात साहित्य परिषद, सोका विश्वविद्यालय टोक्यो आदि ने बड़े अनुराग से सम्मानित किया है। वे नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया और राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय जैसी अनेक संस्थाओं के शीर्षस्थ एवं सम्मानित पदों पर रह चुकी हैं। यहाँ प्रस्तुत है विश्व अनुवाद दिवस 2023 की पूर्वसन्ध्या पर भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. नई दिल्ली में 29.09.2023 को दिया गया व्याख्यान}
मैं
अनुवाद के सिद्धान्तों के बारे में कुछ नहीं जानती। लेकिन अनुवाद का काम बचपन से कर रही हूँ। मेरी मातृभाषा गुजराती है, जन्म महाराष्ट्र के बम्बई शहर में हुआ। चारों ओर लोग मराठी बोलते थे, तो मैं भी बड़ी स्वाभाविकता से मराठी बोलने लगी। स्कूल में अंग्रेजी, हिन्दी, और संस्कृत पढ़ाई जाती थी; मेरी माँ ने बांग्ला भाषा सीखी थी और वे बांग्ला उपन्यासों का गुजराती में अनुवाद करती थीं। तो मैंने और मेरी बहनों ने बांग्ला सीखने के लिए बंग भाषा प्रसार समिति की क्लास ज्वाइन कर ली। तीन वर्ष का कोर्स किया, परीक्षा दी और पुरस्कार भी मिले। उसके बाद ओड़िया चित्रकार से परिचय हुआ, प्रेम हुआ, विवाह किया और उड़िया भी सीख ली। तो इस प्रकार बड़ी सहजता और स्वाभाविकता से भाषाएँ जुड़ती गईं और उसके साथ-साथ मेरे अनुवाद कार्य का दायरा भी विस्तृत होता गया। अब मैं गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी में लिखती हूँ और अन्य भाषाओं से अनुवाद करती हूँ। किसी भाषा में कुछ रोचक पढ़ा तो उसे अन्य भाषा के पाठकों के साथ साझा करने का मन करता है; तो उसका अनुवाद कर डालती हूँ। पहले तो इन तीनों भाषाओं में कई पत्रिकाएँ और अख़बार छपते थे और उनमें मेरे मौलिक लेखन और अनुवाद भी छपते थे। पाठकों को इन अनुवादों के माध्यम से अन्य भाषा के साहित्य और संस्कृति से जुड़ने का अवसर मिलता था और मेरा भी अनुवाद के प्रति उत्साह बढ़ता रहता था।
यूँ
देखा जाए तो हमारे बहुभाषी देश में प्रायः सभी लोग एक से अधिक भाषाएँ बोलते हैं। कहा जाता है कि विश्व में लगभग सात हजार मातृभाषाएँ हैं। लेकिन उसे बोलने वाले कम होते जा रहे हैं। हमारे देश का भी वही हाल है। भाषा जब तक बोली जाएगी, व्यवहार में रहेगी तब तक भाषा और उससे जुड़ी संस्कृति जीवित रहेगी। आज सुबह के अख़बार में पढ़ा कि भूटान के पास के प्रदेश में टोटो नाम की भाषा बोली जाती है और अब केवल सोलह सौ लोग ही इस भाषा में बोल पा रहे हैं। आज के जागरूक भाषाविदों ने इसे रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया है। यह भाषा इतिहास में दर्ज हो जाएगी, आज की टेक्नोलॉजी का ये वरदान है।
सन्
2018 की यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार भारत की बयालीस भाषाएँ लुप्त होने की कगार पर हैं। किसी भी भाषा को बोलने वाले लोग केवल दस हजार हों तो वह धीरे-धीरे लुप्त होने लगती है और उसके साथ उसकी संस्कृति भी। सर्वाधिक लुप्तप्राय भाषाएँ आदिवासियों की हैं। रोजगार की तलाश में लोग स्थानान्तरण करते हैं, नई जगह की भाषा सीखते हैं और उनके बाद की पीढ़ी मातृभाषा भूल जाती है।
हमारे
घर में उड़िया और गुजराती दोनों भाषाएँ बोली जाती थीं। दोनों प्रदेशों का खान-पान, त्यौहार, रीति-रिवाज सब कुछ बड़ी स्वाभाविकता से हमारी अपनी संस्कृति के पहलू थे। जीवन से जुड़े थे। हमारी सन्तानों ने भी यह सब बड़ी सहजता से अपना लिया। बच्चों के लिए पहली पाठशाला तो घर ही है न! हम जो कुछ भी सीखते हैं, वह बेकार नहीं जाता, जीवन में कहीं न कहीं उसका
उपयोग होता ही है।
नवम्बर
1972 में मैंने नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया ज्वाइन किया था। उन दिनों वहाँ भारत की तेरह भाषाओं में पुस्तकों का प्रकाशन होता था और प्रत्येक भाषा के सम्पादक हुआ करते थे। हम अपनी-अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़े काम करते थे। प्रत्येक भाषा के उपन्यासों, निबन्धों, जीवनियाँ, बालसाहित्य इत्यादि के अनुवाद करवाए जाते थे। इसका सबसे बड़ा लाभ यह था कि प्रत्येक भाषा की संस्कृति की पहचान, यानी उनके रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, सामाजिक एवं भौगोलिक परिवेश, उसका अर्थव्यवस्था पर, धार्मिक आस्थाओं पर असर, सौहार्द, तनाव सब कुछ प्रकट होता था। तो अनुवाद की संस्कृति पनपती रहेगी, तो संस्कृति का भी अनुवाद होता रहेगा, पहचान बनी रहेगी।
संस्कृति का अनुवाद
क्या
होता
है?
आपने
‘इसप’ की नीति कथाओं के बारे में सुना होगा, कुछ पढ़ी भी होंगी। सन् 1828 में बापुलाल शास्त्री पंड्या ने अंग्रेजी पुस्तक ‘इसप्स फेबल्स’ से इसका गुजराती में अनुवाद किया था। जहाँ नीति की बात हो, मानव मूल्यों की बात हो, उसकी कथाएँ किसी एक भाषा या संस्कृति के दायरे में सीमित नहीं रहती है। सभी पर लागू होती हैं। हाँ, अनुवादक अपनी भाषा और संस्कृति के अनुरूप कुछ फेरबदल कर लेते हैं।
एक फ्रेंच शिक्षाशास्त्री थे, उनका नाम था मि. बर्किन (Berquin)।
उन्होंने बच्चों की पसंद की कहानियाँ, कविताएँ, घटनाएँ और चुटकुलों का संग्रह अपनी भाषा में प्रकाशित किया था। सन् 1831 में यह पुस्तक गुजराती में प्रकाशित हुई। उसका शीर्षक था ‘बालमित्र भाग–1
और 2’। अब इस
पुस्तक का अनुवाद फ्रेंच या अंग्रेजी से नहीं लिया गया था, उसके मराठी संस्करण से किया गया था। तो अनूदित भाषा में मूल भाषा की संस्कृति की झलक तो आ ही जाती
है पर अनुवाद केवल भाषान्तर है या अनुवाद है या फिर रूपान्तरण है, यह तो अनुसन्धान का विषय बन जाता है।
भारत
और विदेश की पौराणिक कथाएँ, पंचतन्त्र की कहानियाँ अलग-अलग स्वरूपों में बड़ों के लिए और बालकों के लिए भी भारत की प्रायः सभी भाषाओं में उपलब्ध हैं। बचपन में मैंने बंगाल के लेखक शरतचन्द्र और मराठी लेखक वि. स. खाण्डेकर के कई उपन्यास गुजराती में पढ़े थे, इतने बढ़िया अनुवाद थे की लगता ही नहीं था कि यह अनुवाद है। उन दिनों इण्टरनेट, मोबाइल, यू-ट्यूब इत्यादि का अस्तित्व ही नहीं था। उसका सबसे बड़ा लाभ था पुस्तकों से जुड़ाव और लगाव।
गुजरात
के जाने माने लेखकों ने विश्वसाहित्य के बहुत सारे अनुवाद, संक्षिप्तीकरण एवं रूपान्तरण किए हैं। कई बार तो पात्रों के नाम और परिवेश बदलकर, अन्य भाषा की कहानी और उपन्यास को ऐसे प्रस्तुत किया है कि पाठक को वह पुस्तक गुजराती की मौलिक पुस्तक ही लगे। यही है नए कलेवर की सफलता।
अनुवाद सही होना, प्रवाहपूर्ण होना बहुत जरूरी है। एक ज़माने में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित विश्वपुस्तक मेले में रूस और चीन की बाल-पुस्तकों के स्टॉल लगते थे। इन पुस्तकों में बहुत सारे रंगीन चित्र होते थे। ये पुस्तकें भारतीय भाषाओं में उपलब्ध थीं। उनकी कीमत भी बहुत कम हुआ करती थी इसलिए वहाँ खरीदारों की भीड़ लगी रहती थी। लेकिन इनके अनुवाद की भाषा में इतनी गलतियाँ होती थीं कि धीरे-धीरे उनकी खपत बन्द ही हो
गई और वो स्टॉल भी फिर नहीं रहे।
अनुवाद खराब हो, तब भी उसका एक लाभ यह है कि हमें मूल पुस्तक के अस्तित्व का, उसके लेखक का, उस देश की संस्कृति का पता चलता है। एक ही पुस्तक के एक से अधिक अनुवाद पाए जाते हैं। नए स्वरूपों में भी पाए जाते हैं। महात्मा गाँधी ने मूल संस्कृत में लिखी गई भगवद्गीता सर्वप्रथम
अंग्रेजी अनुवाद के कारण पढ़ी थी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मूल बांग्ला पुस्तक गीतांजलि को
सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला, क्योंकि उसका अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध था। इस पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले कवि और पहले गैर-यूरोपीय व्यक्ति थे। गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत
समाधि’ के
लिए बुकर प्राइज़ मिला, क्योंकि उसका अंग्रेजी अनुवाद Tomb of Sand छप चुका था। ये तीनों अनूदित पुस्तकें केवल भाषान्तर ही नहीं हैं, संस्कृत, बांग्ला और हिन्दी भाषाओं से जुड़ी संस्कृति की भी परिचायक हैं।
भाषान्तर
या अनुवाद करने वालों को दोनों भाषाओं का और उनसे जुड़ी संस्कृति का भी पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। अच्छे अनुवादक कहावतों और मुहावरों का भाषान्तर नहीं करते हैं। जिस भाषा में अनुवाद हो रहा है उसके परिवेश से, समाज से उसी अर्थ की कहावत या मुहावरा लेना होता है। जैसे कि बांग्ला में एक मुहावरा है-- ‘गाछे
कांठाल
गोफें
तेल’। यानी
कि कटहल अभी पेड़ पर है लेकिन घर पर बैठे हुए साहब ने अपनी-अपनी मुछों पर तेल लगा लिया। अब वह कटहल पेड़ से कब उतारा जाएगा, कब घर लाया जाएगा, कब कटा जाएगा, कब खाया जाएगा...कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन मूछों पर तेल लगा कर उसका इन्तजार किया जा रहा है। ऐसे मुहावरों का शाब्दिक अनुवाद करना उचित नहीं होगा। इस अर्थ के मुहावरे भारत की सभी भाषाओं में हैं। जैसे कि गुजराती में कहते हैं, ‘भैंस
भागोळे,
छाश
छागोळे,
ने
घरमां
धमाधम’।
भैंस अभी
चारागाह में ही है, फिर उसका दूध निकाला जाएगा, दही तो दूसरे दिन ही मिलेगा, तब जाकर छाछ बनेगी, लेकिन छाछ को लेकर घर में अभी से बहस हो रही है।
मुहावरों
के साथ रोचक कहानियाँ भी जुड़ी होती हैं जिसमें उस देश की सांस्कृतिक पहचान झलकती है, उदाहरण के लिए एक राजस्थानी कहावत है-- ‘कै
कड़
बैठे
ऊँट?’ हिन्दी में कहते हैं ‘किस
करवट
बैठे
ऊँट?’ इसकी
सन्दर्भ कथा कुछ इस प्रकार है कि एक मालिन और कुम्हारिन ने मिलकर एक ऊँट किराये पर लिया। बोरे की एक ओर मालिन की हरी सब्जियाँ भरी थीं तो दूसरी ओर कुम्हारिन के मिट्टी के बरतन। रास्ते में ऊँट गर्दन टेढ़ी कर मालिन की सब्जियाँ खाने लगा, तो कुम्हारिन मन ही मन मुस्कराई, क्योंकि ऊँट मिट्टी के बरतन तो खाएगा नहीं। मालिन उसका चेहरा देख कर बोली, इतनी जल्दी खुश होने की कोई जरूरत नहीं, देखें आगे ऊँट किस करवट बैठता है? थोड़ी दूर जाकर ऊँट जमीन पर बैठा और लोटने लगा और मिट्टी के सारे बर्तन चकनाचूर हो गए! यानी कि अगले क्षण क्या होने वाला है, किस पर क्या गुजरने वाली है, हमें पता नहीं। इस कहावत का मूल वहीं है, जहाँ रेगिस्तान है, और ऊँट भी है। लेकिन अगले क्षण की अनिश्चितता को दर्शाने वाली कहावतें अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार सभी भाषाओं में पाई जाती हैं।
अनुवाद करते समय मैंने एक बात और देखी। एक ही शब्द का अर्थ अलग-अलग भाषाओं में नितान्त भिन्न होता है। जैसा कि हिन्दी का शब्द ‘संशोधन’ यानी ‘सुधार करना’, ‘कुछ घटाना बढ़ाना’ है। जैसे कि हम पुस्तकों के कुछ संस्करणों में छपा देखते हैं ‘संशोधित संस्करण’। इसी शब्द
का गुजराती में शब्द है ‘रिसर्च’; ‘रिसर्च’ के लिए हिन्दी शब्द है ‘अनुसन्धान’। गुजराती में
अनुसंधान यानी ‘पहले की किसी वस्तु के साथ जुड़ना’ जैसे कि ‘अेना अनुसन्धानमां’ यानी कि ‘उसके सन्दर्भ में उसके बारे में’। अतः इन
सन्दर्भों में ‘संशोधन’ और ‘अनुसन्धान’ ये दोनों शब्द गुजराती और हिन्दी में हैं, लेकिन इसके अर्थ नितान्त भिन्न हैं। इसलिए अनुवादक की योग्यता के बारे में हमेशा कहा जाता है कि दोनों भाषाओं का पर्याप्त ज्ञान अनिवार्य है।
‘व्यक्ति’ शब्द हिन्दी और गुजराती दोनों में है, अर्थ भी एक ही है लेकिन हिन्दी में वह पुल्लिंग और गुजराती में स्त्रीलिंग। जैसा कि मैंने पहले बताया मैं एक से अधिक भाषाओं से अनुवाद करती हूँ। कभी-कभी मैं भी सोच में पड़ जाती हूँ कि इस अर्थ का यह शब्द कौन-सी भाषा का है, तब मैं उस भाषा का शब्दकोश देखती हूँ। मैंने कई भाषाओं के शब्दकोश रखे हैं, यही मेरे अस्त्र-शस्त्र हैं।
प्रत्येक भाषा का अपना व्याकरण है, उससे भी कई बार उलझन हो जाती है। बांग्ला और उड़िया में व्यक्ति की क्रिया से पता नहीं चलता कि वह स्त्री है या पुरुष। जैसा कि बांग्ला में कहेंगे ‘शे बोशे आछे’। ओड़िया में,
‘से बसी छि’। हिन्दी में
‘वह बैठा है’ या ‘बैठी है’, गुजराती में ‘એ બેઠો
છે, કે બેઠી છે (अे बेठो छे, के बेठी छे)’। अंग्रेजी के
सर्वनाम में he और she का प्रयोग है लेकिन क्रिया दोनों के लिए एक ही है he is sitting,
she is sitting । गुजराती
में नपुंसक लिंग भी है जो हिन्दी में नहीं है। जैसे कि गुजराती में ‘जीवडुं बेठुं हतुं’। हिन्दी में
‘कीड़ा बैठा था’।
अनुवाद का कार्य, हम जितना सोचते हैं, उतना आसान नहीं है। कभी-कभी भूलभुलैया-सा लगता है! एक बार हम लोग बम्बई से पूना अपनी मोटरकार में गए थे। पिताजी गाड़ी चला रहे थे। तब तो लोकेशन दिखाने वाले मोबाइल फ़ोन नहीं थे, इसलिए पिताजी ने गाड़ी रोक कर पास खड़े हुए एक आदमी से, हमें जहाँ जाना था, उसके बारे में पूछा। उस आदमी को उस जगह का पता नहीं था। वह मराठी में बोला ‘पुढे जाऊन विचारा’। अब ‘पुढे
जाऊन’ तो समझ आ गया, यानी
‘आगे जाकर’ लेकिन ‘विचारा’ जो गुजराती शब्द ‘विचारो’ यानी ‘सोचो’ है। तो आगे जाकर सोचना क्या है? हमें तो उस जगह पहुँचने का रास्ता जानना था!
एक और मज़ेदार मराठी वाक्य है, ‘तु माला भयंकर आवड़ते’, इसका हिन्दी में अनुवाद होगा, ‘तुम मुझे बहुत ही या अत्यन्त पसंद हो’। अब गुजराती
में भयंकर शब्द तो है, लेकिन उसका अर्थ है ‘भय पैदा करने वाला’, और ‘आवडवुं’ क्रियापद भी है लेकिन उसका अर्थ है ‘मुझे आता है’, I know how to do it.
जब तक भाषा और संस्कृति, दोनों की पर्याप्त जानकारी न हो, तब
तक अनुवाद कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। वैसे देखा जाए तो हम हर वक्त अनुवाद करते रहते हैं, हम अपने आसपास जो देखते हैं, वह छाप या बिम्ब के रूप में मन में प्रवेश कर जाता है। फिर वह बिम्ब एक विचार बन जाता है, विचार का स्वरूपान्तर शब्द में हो जाता है। जब हम उन शब्दों को अभिव्यक्त करते हैं तो वे मौखिक अभिव्यक्ति बन जाते हैं, उन मौखिक शब्दों को हम लिखित शब्दों में अनूदित करते हैं, उनका मुद्रण भी होता है। मुद्रित शब्द जब रेडियो पर प्रसारित होता है या जब हमें उन्हें पढ़कर सुनाया जाता है, तो वे फिर से मौखिक बन जाते हैं। तो रूपांतरण का यह चक्र जीवन भर चलता रहता है। यह अनुवाद ही तो है ! ‘अनु-वाक्’, यानी ‘जो मूल के बाद बोला जाता है या अभिव्यक्त होता है’।
अनुवाद
कार्य में विषय और साहित्य प्रकार का ज्ञान भी आवश्यक है। जैसे कि मैं विज्ञान या गणित की पुस्तक का अनुवाद नहीं कर सकती, इन विषयों के जानकार ही इसका अनुवाद कर सकते हैं। सारे प्रशासनिक शब्दों की भी मुझे जानकारी हो ऐसा भी नहीं है, जबकि भारत सरकार ने अनेक शब्दावलियों का प्रकाशन किया है। मैंने इसके पन्ने पलटे तो एक शब्द देखा Transit Duty
यानी
‘संक्रमण शुल्क’। अब ‘संक्रमण’
शब्द तो कोविड के दिनों में बीमारी के सन्दर्भ में ही जाना था।
लोकसाहित्य
का अनुवाद कोई भी अनुवादक नहीं कर सकता। यहाँ लोक साहित्य की भाषा और संस्कृति दोनों को जाने-समझे बगैर उसका अनुवाद करना मुश्किल है। जिस अनुवादक को इस कार्य में रुचि हो, जो उस विषय के प्रति सहृदय भी हों, वही सफल अनुवाद कर सकता है।
लोकसाहित्य,
साहित्य का निरन्तर
बहता प्रवाह है और आदिवासी बोलियों में भी विपुल लोकसाहित्य है। ये बोलियाँ खड़ी बोली से बिल्कुल अलग हैं।
साहित्य
के क्षेत्र में कार्यरत कुछ संस्थाओं ने तीन-चार लोगों को साथ बिठाकर भी अनुवाद करवाए हैं। यह प्रयोग भी सफल रहा है। पुराने धार्मिक ग्रन्थों का अनुवाद-कार्य अनुवादकों के छोटे-छोटे समूहों में हुआ करता था। प्रत्येक शब्द के अनुवाद पर विचार-विमर्श होता था और फिर योग्य शब्द का चयन किया जाता था। कई वर्षों पहले साहित्य अकादेमी ने भी ऐसा प्रयोग किया था, जिसमें मैं भी शामिल थी। गुजराती के कवि गुलाम मोहम्मद शेख की कविता थी। अनुवादकों में प्रयाग शुक्ल जी और मैं। हम तीनों ने साथ बैठकर शेख की कविता का हिन्दी में अनुवाद किया था।
कविताओं
का अनुवाद करना इतना आसान नहीं है। वह प्रमाणिक तो होना ही चाहिए, कविता की लय और प्रवाह, उसका लालित्य संजोकर रखा जाए, उसका भी खयाल करना पड़ता है।
मुझे दो काव्य संग्रहों का काम करने का अवसर मिला था। एक संग्रह अंग्रेजी में था। उसकी सारी कविताओं का विषय था ‘पंखा’। हाथ का
पंखा, सीलिंग पंखा, पुराने ज़माने का रस्सी से खींचे जाने वाला पंखा। कवि भारत की विभिन्न भाषाओं के थे। कुछ कवियों ने अपनी कविता का अंग्रेजी में अनुवाद करके भेजा था, कुछ का मैंने करवाया और कुछ कविताओं के अनुवाद मैंने किये थे। चित्रकार जतिन दास के हस्तपंखों की प्रदर्शनी के सिलसिले में इन कविताओं का संग्रह किया गया था और केन्द्रीय साहित्य अकादेमी ने उसका प्रकाशन किया था। इसमें हमारे देवशंकर नवीन जी की मूल मैथिली में लिखी गई दो कविताएँ भी हैं, जिनका अंग्रेजी में अनुवाद उन्होंने ही किया है।
मुझे
एक और अवसर मिला था, आधुनिक गुजराती कविताओं का हिन्दी में अनुवाद करने का। इसका प्रकाशन भी केन्द्रीय साहित्य अकादेमी ने किया है। कविताओं का अनुवाद करने में सृजन का आनन्द मिलता है। और जब मैं अपनी ही कविता का अनुवाद करती हूँ तो उसमें और आनन्द आता है, क्योंकि वह निजानन्द के लिए होता है, मैं छूट भी ले सकती हूँ।
एक टिप्पणी भेजें