अनुवाद दो भाषाओं के बीच होने वाली सह-सम्बन्ध गतिविधि है। जहाँ मूल भाषा को अनुवाद द्वारा ग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाया जाता है। अनुवाद की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। वर्तमान में अनुवाद की महत्ता और उपयोगिता भाषा और साहित्य के अलावा तकनीक और वैज्ञानिक क्षेत्र में भी पहुँच चुकी है। तो आदिवासी साहित्य इसके प्रभाव से अछूता कैसे रह सकता है? आदिवासी विमर्श का विकास उत्तर-आधुनिक काल में तीव्र गति से हुआ जिसमें अनुवाद की मुख्य भूमिका रही। आदिवासियों की भाषा एवं मुहावरा आदिवासी परम्परा की मौलिकता से सम्बद्ध है इसलिए अनुवाद प्रक्रिया में गैर आदिवासी अनुवादकों को आदिवासी अनुवादकों की अपेक्षा अधिक मेहनत करना पड़ा। अनुवाद द्वारा आदिवासी साहित्य के सौन्दर्यबोध, प्रतिमान और प्रवृत्ति की पहचान चर्चा का विषय बना। परिष्कृत भाषा हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य बड़ी भाषा से सम्बन्ध रखने वाले पाठक वर्ग जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई से परिचित हुए। यह केवल अस्मिता बचाने की लड़ाई नहीं है बल्कि दो भिन्न जीवन-पध्दतियों और दर्शन के बीच का टकराव है। इस टकराव को समाप्त करने के लिए अन्य समुदाय को आदिवासी दर्शन से परिचित कराने की आवश्यकता है तभी कोई नया रास्ता निकल सकता है। अनुवाद प्रक्रिया द्वारा इस कार्य की शुरुआत हो गयी है।
आदिवासी साहित्य की एक लम्बी मौखिक परम्परा है, जिसे ‘पुरखा साहित्य’ कहा जाता है। इस साहित्य में उनके जीवन-दर्शन, जीवन-मूल्य, विश्वास-ज्ञान-परम्परा आदि विद्यमान है। इसे संकलित करना बहुत आवश्यक है। आदिवासी साहित्यकार समृद्ध भाषा के साहित्य से प्रभावित होकर पुरखा साहित्य को सहेजने का काम करने लगे हैं। आदिवासी भाषाओं की लिपियाँ विकसित होने पर, इन भाषाओं के साहित्य का दस्तावेज़ीकरण होने लगा। इसके अलावा देवनागरी, रोमन या कुटिललिपि के प्रयोग से भी साहित्य लेखन शुरू हुआ। चूंकि रचनाकार अपनी-अपनी मातृभाषा में लिख रहे थे। उनकी अधिकतर रचनाएँ छोटे-छोटे प्रकाशन से प्रकाशित होने के कारण उनकी विश्व-दृष्टि एवं चिंतन अपने समाज तक ही सीमित रहा। बाहरी लोग उनसे पूरी तरह अनजान थे। 1990 के बाद जब आदिवासी विमर्श उभर कर सामने आने लगा। आदिवासी रचनाकार अपनी मातृभाषा और हिन्दी दोनों में साहित्य रचने लगे। आदिवासी साहित्य की अवधारणा को लेकर विद्वानों में कई तरह के मतभेद है। गंगा सहाय मीणा इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “आदिवासी साहित्य की अवधारणा से जुड़ा सबसे अहम सवाल यह है कि हिन्दी अधिकांश आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है, ऐसे में आदिवासी रचनाकारों द्वारा अपनी मातृभाषाओं में आदिवासी चेतना से लैस साहित्य और उसके अनुवाद को आदिवासी साहित्य की श्रेणी में रखेंगे या नहीं? इस सवाल का जवाब सकारात्मक होना चाहिए। निश्चित तौर पर वह आदिवासी साहित्य है। बड़ी संख्या में ऐसे आदिवासी रचनाकार भी मौजूद हैं, जो अपनी मातृभाषाओं के साथ हिन्दी में भी लिख रहे हैं।”1 हिन्दी समृद्ध भाषा है इसलिए आदिवासी साहित्यकार सृजन कार्य के लिए इस भाषा को चुना। ताकि अधिक लोगों से जुड़ सके। इस साहित्यिक विकास में अनुवाद की अहम भूमिका रही। अनुवाद का प्रभाव आदिवासी साहित्य पर पड़ा। फलस्वरूप हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला आदि समृद्ध भाषाओं में इसका अनुवाद होने लगा। हालाँकि एक मानव अभिव्यक्ति की भाषा में भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तत्त्व विद्यमान होते हैं, जो दूसरी भाषा से बिल्कुल अलग होते हैं। ऐसी स्थिति में लक्ष्य भाषा को स्रोत भाषा के अनुरूप समतुल्य बनाने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पोस्टगेट ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ट्रांसलेशन एंड ट्रांशलेशन’ में लिखा है- “अनुवादक को मूल भाषा के प्रति ईमानदारी के साथ उसकी वैचारिकता से भी परिचित होना चाहिए। कथ्य और रीति दोनों की संश्लिष्टता ऐसी हो कि पाठक मूल भाषा की अज्ञानता में बाधा न पाए।”2 इस तरह आदिवासी हिन्दी रचनाकारों ने अनुवाद के कार्य को अपने श्रम और ईमानदारी से कुशलतापूर्वक कार्यान्वित करने का प्रयास किया।
हिन्दी भारत ही नहीं, दुनियाभर की उन भाषाओं की सूची में है जो सबसे अधिक बोली जाती है। यह देशीय भाषाओं एवं संस्कृतियों के मध्य सम्पर्कभाषा का काम करती है। अनेक संस्कृतियों को जोड़ने में अनुवाद केन्द्रीय चेतना के रूप में काम करता है। भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य का अनुवाद हिन्दी में होने से हिन्दी साहित्य समृद्ध हुआ है। हिन्दी में अध्ययन और अध्यापन के कारण पाठकों की संख्या में वृद्धि हो रही है। जिसके फलस्वरूप आदिवासी अनुवादक हिन्दी के साथ तादात्म्य अपार स्थापित कर अपनी भाषा के साहित्य और संस्कृति को व्यापक स्तर पर प्रसारित करने का काम किया। इन अनुवादकों ने आदिवासी साहित्य की विशिष्टता को उसी रूप में पिरोया है। अनुवाद द्वारा हिन्दी पट्टी के पाठकों का झुकाव आदिवासी साहित्य की तरफ बढ़ा। अनुवाद की महत्ता को रेखांकित करती हुई रमणिका गुप्ता लिखती है- “आदिवासी भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं की नई-पुरानी प्रतिभाओं की रचनाओं को हिन्दी में अनूदित कर समूचे भारत के सम्मुख लाना हमारा लक्ष्य है। इस अनदेखे भारत से बाकि भारत अनजान है। इसलिए उस भारत की समृद्ध सोच, भाषा, कल्पना, जीवनशैली और मूल्यों से बाकि भारत को परिचित कराना भी हम जरूरी समझते हैं, ताकि बाकि भारत का उससे दर्द का एक साझा रिश्ता कायम हो सके। भाषाएँ यह रिश्ता कायम कर सकती हैं। हिन्दी स्वयं में कोई भाषा नहीं है। वह तो देशज शब्दों व अन्य बोली-भाषाओं की उपज है, निर्मिति है। भाषा की समृद्धि के लिए जरूरी है शब्द-भंडार का विकास और यह अपर शब्द-भंडार, भिन्न भाषा-बोलियों से ही हासिल किया जा सकता है। अनुवाद एक सक्षम माध्यम है। भिन्न-भिन्न भाषाओं को जोड़ने का देश को जोड़ने का।”3 इस तरह आदिवासी विमर्श के विकास में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आदिवासी मुद्दे मुखर होकर सामने आ रहे हैं।
वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की तेज प्रक्रिया के साथ आदिवासियों के जल, जंगल और ज़मीन पर पूंजीपतियों का हस्तक्षेप बढ़ने लगा। आदिवासी अपने पारम्परिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगे। आदिवासी समाज के युवा वर्ग तीर के साथ-साथ कलम को अपना हथियार बनाया। अपने अस्तित्त्व और अस्मित्ता के विकट प्रश्नों को लेकर साहित्य रचने लगे। आदिवासी क्षेत्रों में बढ़ रहे संघर्ष और विद्रोह ने अस्मितागत स्वतंत्र धारा का रूप लिया जो आदिवासी विमर्श की संभावनाओं को बल प्रदान किया। चिन्तनशील और बौद्धिक वर्ग द्वारा आदिवासियों के अस्मितागत बेचैनी के प्रश्नों को ढूंढने में अनुवाद की दिशा में आगे बढ़े। आदिवासी विमर्श का अनुवाद कार्य काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। साहित्य के लगभग सभी विधाओं में अनुवाद कार्य होने लगे हैं। अनुवाद के माध्यम से दो भाषाओं के मध्य सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान को व्यापक बनाया जा सकता है। अनुवाद कार्य के कारण आदिवासी दुनिया से लोग रू-ब-रू होने लगे हैं। भारतीय राष्ट्रीय प्रवाह की एकरूपता में आदिवासी चेतना शामिल होती जा रही है। हालाँकि इस चेतना को अभी और आगे आने की आवश्यकता है।
हम यह जानते हैं, कि अनुवादक को स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दोनों पर अधिकार होना चाहिए। चूंकि आदिवासी भाषा एवं हिन्दी अलग-अलग भाषा परिवार से हैं। दोनों भाषाओं की ध्वनि, लिपि, शब्द ,व्याकरण, शैली, बिम्ब और संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। दोनों भाषाओं की लाक्षणिक भेद के कारण अनुवाद कार्य करना जटिल है। इसके लिए पर्याप्त श्रम की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले अनुवादक हिन्दी को भलीभांति आत्मसात कर पुनः सृजन का कार्य किया । दोनों भाषाओं का अपना-अपना महत्त्व है। आदिवासी भाषा अपनी सांस्कृतिक विशिष्टताओं एवं सामाजिक चेतना से भरा है, जो हिन्दी के संपर्क में आकर अपनी व्यापकता का विस्तार करती है। ठीक उसी तरह प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य से हिन्दी समृद्ध होता है। इसलिए दोनों भाषाओं की सार्थकता परस्पर सम्बन्ध में निर्भर करती है। हालांकि आदिवासियों का मौखिक साहित्य समृद्ध है किन्तु समकालीन लेखन साहित्य की परम्परा के विकास में हिन्दी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आदिवासी रचनाकारों ने स्वयं अनुवाद कार्य का प्रारंभ किया। इससे प्रेरित होकर कई गैर-आदिवासी अनुवादक भी इस कार्य में शामिल हुए। आदिवासी भाषाओं से हिन्दी में हुए अनुवाद कार्य इस तरह है-
मुण्डारी एस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार की भाषा है। जबकि हिन्दी भारोपीय भाषा परिवार की भाषा है। दोनों की भाषिक संरचना अलग-अलग है। ऐसी स्थिति में अनुवाद कार्य संपन्न करना सहज-साध्य नहीं है। इसके लिए अनुवादकों ने काफ़ी श्रम किया। मुण्डारी साहित्य के कई विधाओं का अनुवाद हिन्दी में हुआ है। मेन्नस ओड़ेया द्वारा रचित ‘मतुराअ कहनी’ नामक मुण्डारी उपन्यास पहला आदिवासी उपन्यास है। यह रचना 20वी. सदी के दूसरे दशक में लिखी गई। इनमें पाँच खण्डों में मुण्डाओं की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा को सहेजने का काम किया। जिनके एक भाग का हिन्दी अनुवाद पेत्रुस ओड़ेया ने ‘चलो चाय बागान’ शीर्षक से किया। मुण्डारी के प्रसिद्ध रचनाकार काशीनाथ मुण्डा उर्फ़ कांडे मुण्डा की ‘गुइराम’ मुण्डारी उपन्यास का हिन्दी अनुवाद स्वंय रचनाकार ने किया है।‘कानि सड़गिर (कहानी प्रपात)’ मुण्डारी-हिन्दी द्विभाषी कथा संकलन है। इसके रचनाकार डॉ.सिकरा दास तिर्की है। इस दृष्टि से यह रचना मुण्डारी एवं हिन्दी द्विभाषियों के लिए महत्त्वपूर्ण है। डॉ. खातिर हेब्रम द्वारा रचित ‘गुतु गलाड़’ मुण्डारी कविता संग्रह हिन्दी अनुवाद सहित है। मंगल सिंह मुण्डा मुण्डारी और हिन्दी के प्रमुख कथाकार है। ‘हड़द सुकु’ (तीता लौकी) उनका द्विभाषी कथा संग्रह है जिसका प्रकाशन 2013 में हुआ। इसमें दस कहानियाँ संकलित हैं। बीरेन्द्र कुमार सोय मुण्डा ने ‘नवा मुण्डा कानि को’ शीर्षक से मुण्डारी-हिन्दी कथा संग्रह प्रकाशित किया है। नाटक विधा के क्षेत्र में जोवाकिम तोपनो और मंगल सिंह मुण्डा ने महत्त्वपूर्ण काम किया है। जोवाकिम तोपनो ने ‘डीड़गर इपिल’ शीर्षक से और मंगल सिंह मुण्डा ने ‘कामिनाला’ शीर्षक से मुण्डारी-हिन्दी नाटक लिखा है। ‘मुण्डारी पाठ’ शीर्षक किताब में मुण्डारी गद्य-पद्य संग्रहों का अनुवाद प्रस्तुत है, जिनका संपादन रामदयाल मुण्डा ने किया। रामदयाल मुण्डा पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं- “अपने व्याकरण में वर्णित भाषा की ही तरह इसकी भाषा मध्य मुण्डारी हैं किन्तु भाषा की क्षेत्रीय विभिन्नताओं को पाटने के लिए हमने हिन्दी अनुवाद भी सम्मिलित किया है। हिन्दी अनुवाद से कुछ नए लोग भी मुण्डारी सीखने के लिए प्रेरित होंगे ऐसी आशा है।”4 भाषा लोगों के बीच रिश्ता कायम करती है और यह अनुवाद से संभव है। अनुवाद से सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विभिन्नताओं को दूर करने का प्रयास किया गया। अधिकतर मुण्डारी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं का अनुवाद स्वयं किया है।
संताली साहित्य की परम्परा समृद्ध है। संताली रचनाओं के माध्यम से आदिवासी विमर्श को हिन्दी पट्टी में लाने का महत्त्वपूर्ण योगदान अनुवाद का है। 2004 में रमणिका गुप्ता फाउंडेशन से संताली कवयित्री निर्मला पुतुल का काव्य संग्रह ‘अपने घर की तलाश’ का हिन्दी अनुवाद अशोक सिंह ने किया। इस के सम्बन्ध में सुरेश सलिल लिखते हैं- “निर्मला पुतुल की कविताएँ, इसलिए स्त्री-चेतना-भर से बहुत आगे जाकर संताली नवजागरण के उन्मेष की भांति कानों में बजती हैं। और इस बजने में एक अहम् भूमिका मूल संताली कविताओं के स-प्राण अनुवाद की भी है।”5 कहानी के क्षेत्र में देखें तो बहुत सारी कहानियों का अनुवाद हिन्दी में हुआ। डॉ. बासुदेव बेसरा का कथा संग्रह ‘ मोंड़ें सोरोस काहनी’ 1970 ई. में प्रकाशित हुआ था। जिनमें पाँच कहानियों को संकलित किया गया है। सुन्दर मनोज हेम्ब्रम ने इन कहानियों का हिन्दी अनुवाद 2023 में ‘दामिन की तलहटी में’ नामक शीर्षक से किया है। इस संग्रह में उन पाँच कहानियों के अलावा और दो कहानियों को जोड़ा गया है। सुन्दर मनोज हेम्ब्रम लिखते हैं- “इन कहानियों का अनुवाद करते समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि डॉ.बासुदेव बेसरा संताली साहित्य के प्रमुख कहानीकार हैं। उनकी कथन शैली बेजोड़ है। उनके संवाद में छोटे वाक्य या केवल शब्दभर का प्रयोग मिलता है जो न सिर्फ़ सटीक अभिव्यक्ति देने में सक्षम है बल्कि कहानी के प्रवाह में भी चार चाँद लगा देते हैं। लेखक अपने नैरेशन में साहित्यिक उपमा, रूपक और अलंकार का खूबसूरती से बहुधा प्रयोग करते हैं।”6 स्रोत भाषा के कथ्य को लक्ष्य में पूर्णता संयोजित किया गया है। इसके अलावा 2023 में प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन की ओर से संताली कहानियों का हिन्दी अनुवाद का चयन और संपादन वंदना टेटे द्वारा किया गया। यह संकलन ‘चुनिंदा संताली कहानियां’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया। इन कहानियों में कुछ कहानियाँ संताली से हिन्दी में अनुवाद है और कुछ कहानियाँ पहले संताली से अंग्रेजी में हुआ बाद में अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया गया है। संताली कहानियों को हिन्दी साहित्य जगत में लाने का मुख्य उद्देश्य संताली समाज की विविधताओं एवं विमर्शो को प्रकाश में लाना है।
खड़िया समुदाय के विमर्श को साहित्य में स्थान देने का काम रोज़ केरकेट्टा और वंदना टेटे ने किया। वंदना टेटे खड़िया और हिन्दी दोनों भाषाओं में साहित्य सृजन करती हैं। 80 के दशक में लगातार उनकी खड़िया कविताएं ‘आदिवासी’ पत्रिका में छपती रही और आकाशवाणी रांची से प्रसारित होती रही। चूंकि यह दौर आदिवासी विमर्श का उदय का समय था। प्यारे केरकेट्टा की ‘गंदुर’, ’बिलायती नो हेके?’, ‘कोयोडअ’, ‘जोहर’, ‘आलोंग’ कविताओं का हिन्दी अनुवाद ‘कचरा’, ‘कहीं वह विलायती तो नहीं?’, ‘आंधी’, ‘जोहर’, ‘गीत’ शीर्षक से रोज केरकेट्टा ने हिन्दी अनुवाद किया। रोज केरकेट्टा ने अपनी कुछ कविता और नुअस केरकेट्टा की कुछ कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया। प्यारा केरकेट्टा ने साहित्य की अनेक विधाओं में रचनाएँ की, लेकिन ‘बेरथअ बिहा’ कहानी लिखकर वह खड़िया कथा-साहित्य की शुरुआत की। रोज केरकेट्टा ने प्यारा केरकेट्टा की ‘बेरथअ बिहा’ कहानी का हिन्दी अनुवाद किया। चूंकि मातृभाषा में ही बेहतर अभिव्यक्ति संभव है लेकिन हिन्दी में अनुवाद करने का मुख्य उद्देश्य है हाशिये की आवाज और विश्वदृष्टि को साहित्य जगत के सामने लाना।
नागपुरी और हिन्दी दोनों भारोपीय आर्य भाषा परिवार की भाषाएँ है। दोनों भाषाओं में अधिक अंतर नहीं दिखता है। नागपुरी में कविता लिखने वाली सरिता बड़ाईक हिन्दी में भी सृजनकार्य करती है। ‘नन्हें सपनों का सुख’ काव्य संग्रह नागपुरी-हिन्दी द्विभाषिक संग्रह है। जिसने आदिवासी साहित्य परम्परा में अपनी अहम भूमिका दर्ज कराई है। सरिता बड़ाईक लिखती हैं- “नागपुरी भाषा माँ के दूध की तरह मेरे खून में है। भाषा के प्रति लगाव ने मुझे नागपुरी और हिन्दी में कविताएं लिखने को प्रेरित किया।”7 नागपुरी में डॉ. मंजु ज्योत्सना भी कविता लिखती है जिनका हिन्दी अनुवाद ‘ब्याह’ और ’छोटी नदी’ शीर्षक से किया गया है। चूंकि नागपुरी और हिन्दी भाषा में अधिक भेद नहीं है लेकिन नागपुरी की अपनी विशिष्ट शैली और मर्म है। जिसे पढ़ कर पाठक आनंद की अनुभूति करता है। अनुवाद के माध्यम से मौलिक रचना का मूल भाव, स्वर और शैली को संरक्षित रखते हुए इनका विस्तार किया गया। वर्तमान में कई आदिवासी समुदायों के बीच नागपुरी संपर्कभाषा का कार्य करती है। जिससे आदिवासी विमर्श की व्यापकता का विस्तार हो रहा है।
भारत के उत्तर-पूर्व में बसे आदिवासियों के साहित्य को हिन्दी जगत में लाने का श्रेय रमणिका गुप्ता को जाता है। ‘पूर्वोत्तर आदिवासी सृजन स्वर’ एवं ‘पूर्वोत्तर की आदिवासी कहानियां’ इन किताबों के माध्यम से कई भाषाओं के साहित्य और संस्कृति को जोड़ा गया है। इन किताबों में मुख्यतः अरुणाचल प्रदेश के ‘शेरदुकपेन’, असम के ‘कार्बी’, ‘बोड़ो’ और ‘तीवा’, मेघालय के ‘खासी’, नागालैंड के ‘टैनिडे’, त्रिपुरा के ‘कोकबोरोक’, मिज़ोरम के ‘मिजो’, मणिपुर के ‘मैतेई’ और सिक्किम के ‘लेप्चा’ कथा-साहित्य को संकलित किया गया है। इन कहानियों का हिन्दी अनुवाद संकलित करने में थेसो क्रॉपी और अक़ील कैस की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पूर्वोत्तर की भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद करने में कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इस सम्बन्ध में अक़ील कैस लिखते हैं- “पूर्वोत्तर की भाषाओं से सीधे हिन्दी में अनुवाद करने वालों की भीषण कमी के कारण हमारे सामने एक चुनौतीपूर्ण स्थिति आ खड़ी हुई। हर रचना के मूल भाषा में अपना एक विशिष्ट आस्वाद होता है। रचनाओं को दूसरी भाषा में उलथा करने पर उस विशिष्ट आस्वाद के आहत होने का ख़तरा तो रहता ही है। फिर किसी रचना को दोहरे माध्यम से अनुवाद की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़े तो इस संकट का अनुमान ही किया जा सकता है। इससे निपटने के लिए हमने पूर्वोत्तर के साहित्यकारों से अनुरोध किया कि वे अपनी रचनाओं का हिन्दी अनुवाद अपने निजी स्रोत से करवाकर हमें उपलब्ध कराएं।”8 वर्तमान में पूर्वोत्तर के आदिवासी साहित्यकार अपने समय और परिवेश से तादात्म्य स्थापित कर अपने अनुभवों को रचना में अभिव्यक्त कर रहे हैं। पूर्वोत्तर के भिन्न-भिन्न भाषाओं की साहित्यिक गतिविधियाँ भी अलग-अलग हैं। जहाँ कुछ आदिवासियों की आधुनिक साहित्य-रचना अपनी शुरूआती दौर में है। वही खासी, मिजो, कोकबोरोक, बोरो, कार्बी आदि भाषाओं के साहित्यकार अधिक सक्रिय है। वे अपनी मातृभाषा के साथ-साथ हिन्दी और अंग्रेजी में लिखकर बाहर के पाठकों से जुड़ रहे हैं। पूर्वोत्तर से जुड़े भाव, सपने, मुद्दे एवं समस्याओं से जुड़े सवालों को साहित्य में उठाया जा रहा है। आधुनिक रचनाशीलता की सक्रियता के कारण अनेक विधाओं का हिन्दी में अनुवाद हो रहा है। इस तरह आदिवासी विमर्श अब अनुवाद द्वारा व्यापक फलक में अभिव्यक्त हो रहा है।
मराठी आदिवासी साहित्य समृद्ध है। इस साहित्य में आदिवासी विमर्श के अनेक ग्रंथ उपलब्ध है। वाहरू सोनवणे मराठी साहित्य के प्रमुख रचनाकार है। उनकी मराठी एवं भिलोरी कविताओं का हिन्दी अनुवाद ‘पहाड़ हिलने लगा है’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके अनुवादक निशिकांत ठकार है। भुजंग मेश्राम की कविताओं का अनुवाद विमल थोरात और कंचन जटकर ने किया। इसके अलावा दिनानाथ मनोहर की ‘स्थित्यन्तर’ कहानी का अनुवाद डॉ.प्रतिभा मुदलियार ने किया। डॉ. विनायक तुमराम के लेख ‘आदिवासी कौन’ का हिन्दी अनुवाद डॉ. प्रतिभा मुदलियार ने किया। मराठी और हिन्दी के मध्य पर्याप्त अनुवाद कार्य हो चुके हैं। महादेव टोप्पो का ‘जंगल पहाड़ के पाठ’ का मराठी अनुवाद मोहन लक्ष्मणराव चव्हाण और वाणीश्री बुग्गी ने किया है। दोनों भाषाओं के मध्य अनुवाद कार्य होने के कारण आदिवासी साहित्य का विस्तार हो रहा है।
बांग्ला साहित्य के क्षेत्र में भी आदिवासी विमर्श का आगमन हो रहा है। महाश्वेता देवी बांग्ला में लिखने वाली आदिवासी कथाकार है। बांग्ला और हिन्दी जगत में आदिवासी विमर्श के प्रचार-प्रसार में उनकी महत्त्वपूर्ण भागीदारी रही है। जंगल के दावेदार, चोट्टी मुण्डा और उसका तीर, टेरोडैक्टिल, आदिवासी कथा, अग्निगर्भ आदि रचनाओं का हिन्दी अनुवाद हुआ है। असम के प्रमुख कथाकार काजल डेमटा का कथा संग्रह ‘चा-बगीचार साँझ फजिर’ का हिन्दी अनुवाद पूजा प्रभा एक्का ने ‘सोमरा का दिसुम’ शीर्षक से किया। इस संग्रह में असम के चाय बागानों में रहने वाले आदिवासियों को केंद्र में रखा गया है। इनके अलावा बांग्ला आदिवासी रचनाकार मनोरंजन ब्यापारी की ‘चांडाल जीबन त्रयी’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘द नेमेसिस’ वी.रामास्वामी द्वारा अनुवादित है। वी. रामास्वामी कहते है कि मुझे अंग्रेजी पढ़ने वाले पाठकों के लिए इसका अनुवाद करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। अंग्रेजी में अनुवाद करना इन आवाज और विश्वदृष्टि को उन लोगों द्वारा पढ़े जाने का साधन है जो अन्य संज्ञानात्मक और अनुभवात्मक ब्रह्मांड में निवास करते हैं।
अंग्रेजी साहित्य के क्षेत्र में भी आदिवासी विमर्श का प्रचार-प्रसार हो रहा है। सीता रत्नमाला पहली आदिवासी कथाकर और नाटककार है। जिन्होंने आदिवासी समाज को साहित्य का विषय बनाया। सीता रत्नमाला की रचना ‘बियोंड द जंगल’ एक आत्मकथा है। जिसका प्रकाशन 1968 ई. में हुआ। इसका हिन्दी अनुवाद अश्विनी कुमार पंकज द्वारा 2018 ई. में ‘जंगल से आगे’ शीर्षक से हुआ। 1968 ई. में अंग्रेजी में पाँच भारतीय आत्मकथाएं छपी थी। इन आत्मकथा के सम्बन्ध में वंदना टेटे लिखती हैं– “सातवें दशक के अंतिम दौर में आई आत्मकथाओं के लेखक पुरुष हैं। इनमें महिला सिर्फ़ दो हैं : कमला सुंदरराव और सीता रत्नमाला। लेकिन सीता की आत्मकथा न तो महज नारीवादी है और न ही व्यक्तिवादी। अंग्रेजी शोधकर्ताओं, इतिहासकार और आलोचकों ने शायद इसीलिए ‘बियोंड द जंगल’ को भारत की अंग्रेजी आत्मकथाओं में सबसे अलग, विशिष्ट और अनूठा आत्म कथात्मक लेखन माना है। आत्मकथा के प्रचलित ढांचे से बिल्कुल भिन्न जिसमें व्यक्ति गौण है और समुदाय व समष्टि महत्त्वपूर्ण।”9 इस रचना के माध्यम से नीलगिरि के आदिवासियों की जिन्दगी से जुड़ी वास्तविकताओं को खोजने की कोशिश की गयी है। समाज की विशिष्टता का प्रभाव अंग्रेजी साहित्य पर पड़ा। इसके अलावा संताल समुदाय के प्रख्यात रचनाकार हांसदा सौभेन्द्र शेखर की रचना ‘द आदिवासी विल नॉट डांस’ झारखण्ड की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी कहानियाँ है। इसका हिन्दी अनुवाद रश्मि भारद्वाज ने ‘आदिवासी नहीं नाचेंगे’ शीर्षक से किया है। इन कहानियों में आदिवासी समाज का यथार्थ चित्रण हुआ है। जो आदिवासियों के प्रति लोगों की मानसिकता और व्यवहार पर पुनर्विचार के लिए मजबूर करती है। रचनाकार मानवीय संवेदनाओं को संरक्षित करने के पक्षधार है। इस ग्रंथ में सम्प्रेषण की कड़ी अनुवाद द्वारा बरकरार है। जिससे आदिवासी पात्र जीवंत लगने लगते हैं। अंग्रेजी और हिन्दी के पाठकों के बीच जुड़ाव का मुख्य कारण अनुवाद रहा है।
वर्तमान युग अनुवाद का युग है। जहाँ सभी भाषाओं में अनुवाद कार्य हो रहा है। आदिवासी साहित्य का कई भाषाओं में अनुवाद हो रहा है। जसिन्ता केरकेट्टा का पहला हिन्दी-अंग्रेजी द्विभाषिक काव्य ‘अंगोर’ का अनुवाद जर्मन, इतालवी और फ्रेंच भाषाओं में हुआ है। दूसरा हिन्दी-अंग्रेजी द्विभाषिक काव्य संग्रह ‘जड़ों की ज़मीन’ का अनुवाद जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ। अनुज लुगुन की कुछ कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद डॉ. प्रज्ञा शुक्ल द्वारा ‘Selected Poems of Anuj Lugun’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। जमुना बीनी तादर की कविताएँ और कहानियाँ असमिया, अंग्रेजी, मलयालम, मराठी, संताली, तुर्की एवं बुल्गेरियन आदि भाषाओं में अनूदित है। इसके अलावा वागर्थ, झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा, आदिवासी साहित्य और युद्धरत आम आदमी जैसी आदिवासी पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी विमर्श से संबंधित अनूदित तथ्य मिलते हैं। जिससे आदिवासी समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था को समझने में मदद मिलती है। मानव संस्कृति का विकास आदान-प्रदान से होता है चाहे वह कोई भी समाज का हो। इस कार्य में सम्प्रेषण सेतु का कार्य अनुवाद करता है। संसार की सभी भाषाएँ परस्पर अनुवाद से एक प्रदेश के जीवन और गतिविधियों से परिचित होते हैं। कई अनुवादकों ने पर्याप्त आदिवासी साहित्य अनूदित किया है। जिसके कारण आदिवासियों की सामाजिक वैचारिकी को व्यापकता मिली।
निष्कर्ष : यह कहा जा सकता है कि संसार के समृद्ध भाषाओं के साहित्य ने आदिवासियों को काफ़ी प्रभावित किया। वे अपने समाज के प्रति जागरूक होने लगे। आदिवासी साहित्यकार अपने समाज और परिवेश से तादातम्य स्थापित कर साहित्य सृजन करने लगे। अपनी मातृभाषा के अलावा अन्य भाषा में भी लिखने लगे। जिससे आदिवासी चिंतन का दायरा बढ़ा। इतना ही नहीं आदिवासी साहित्य के विस्तार में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वर्तमान में कई भाषाओं में अनुवाद कार्य भी हो रहे हैं। आदिवासी साहित्य का भिन्न-भिन्न भाषा में अनूदित होने के कारण उनकी संस्कृतियों का विस्तार हो रहा है साथ ही अलग-अलग समुदाय के जीवन शैलियों का मिलन भी हो रहा है। मनुष्यों के बीच का अंतर्संबंध मजबूत हुए। अनुवाद कार्य समुदाय के बीच प्रचलित जीवन दर्शन, मनन-चिंतन एवं परम्पराओं को वैश्विक रूप से विकसित कर रहा है। अनुवाद कार्य के कारण पाठक वर्ग का झुकाव आदिवासी साहित्य की तरफ बढ़ने लगा। आज कई शैक्षणिक संस्थानो में आदिवासी साहित्य पर अध्ययन-अध्यापन कार्य हो रहा है। इसमें अनुवाद का अहम योगदान है।
1.मीणा, गंगा सहाय, आदिवासी चिंतन की भूमिका, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2019, पृ. सं. 55
2.बोरा, राजमल, अनुवाद क्या है, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, तृतीय संस्करण 2004, पृ. सं. 19
3. बड़ाइक, सरिता, नन्हें सपनों का सुख, रमणिका फाउंडेशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.सं. 8
4.मुण्डा, रामदयाल, मुण्डारी पाठ, रुमबुल प्रकाशन, राँची, तृतीय संस्करण 2020, पृ.सं.2
5. पुतुल, निर्मला, अपने घर की तलाश में, फ्लैप से
6. बेसरा, बासुदेव, दामिन की तलहटी में, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची, पहला संस्करण 2023, अनुवादक के नोट्स
7. बड़ाइक, सरिता, नन्हें सपनों का सुख, रमणिका फाउंडेशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.सं.10
8. गुप्ता, रमणिका, पूर्वोत्तर आदिवासी सृजन स्वर, अनन्य प्रकाशन,दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृ. सं. 28
9.रत्नमाला, सीता, जंगल से आगे, गणमित्र प्रकाशन, रानीगंज, प्रथम संस्करण 2018,पृ.सं 8
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, उत्तर बंग विश्वविद्यालय, दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल
jereldina436@gmail.com
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