शोध सार : अनुवाद का समाजशास्त्र अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र से काफी रोचक ढंग से जुड़ा हुआ है। अनुवाद केलिए चुनी गयी रचना का उद्देश्य, उसकी भाषा, उसका क्षेत्र, अनुवाद के कारण, अनुवाद प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले सामाजिक- सांस्कृतिक-राजनीतिक पहलुओं को अनुवाद के समाजशास्त्र के रूप में समझ सकते हैं। प्रस्तुत आलेख में अनुवाद के इन्हीं समाजशास्त्रीय तत्वों के विविध पहलुओं को समझने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : अनुवाद, समाजशास्त्र, अनुवाद में संस्कृति, अनुवाद का समाजशास्त्र, अनुवाद के कारक, अनुवाद के उद्देश्य, अनुवाद की राजनीति, विमर्श के साहित्य का अनुवाद, अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद।
मूल आलेख : मनुष्य चेतन- अवचेतन रूप से अपने विचारों और भावनाओं का प्रति क्षण अनुवाद करता रहता है। इस प्रक्रिया में जब वह अन्य मनुष्य व उसके विचारों को समझने की चेष्टा करता है तब चाहे-अनचाहे ही उसके समाज, संस्कृति और संस्कार को भी समझने लगता है। अनुवाद करने और समझने के लिए रचना में उपस्थित समाजशास्त्र को भी समझने की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार सृजनात्मक लेखन का संबंध तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति से होता है उसी प्रकार रचनात्मक साहित्य अनुवाद का संबंध भी संस्कृति, समाज, जीवन तथा परंपरा से आता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुवाद मात्र एक भाषिक प्रक्रिया नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया भी है।
समाज व उसके समाजशास्त्र को समझे बिना अनूदित रचना से पाठक का जुड़ाव हो ही नहीं सकता। यह एक कारण हो सकता है कि रूस के गोर्की एक महान लेखक होने के बावजूद भारत में आकर अकादमिक जगत तक सिमट कर रह गए, जबकि प्रेमचंद भारत के जनमानस के लेखक के रूप में स्थापित हैं। उपर्युक्त दोनों ही लेखक विश्व पटल पर उपस्थित हैं पर भारत के संदर्भ में आकर यहां की सांस्कृतिकता और समाजशास्त्र की भूमिका दिखने लगती है। प्रेमचंद की रचनाओं में भारतीय समाज की उपस्थिति व भारतीय पाठक का इस समाज के साथ जुड़ाव भारत के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचंद का स्तर ऊंचा कर देता है। यही तथ्य प्रेमचंद को लेकर रूस में भी हो सकता है। अनुवाद का समाजशास्त्र ऐसे ही कार्य करता है। अनूदित रचना के माध्यम से पाठक कृति में उपस्थित संस्कृति व समाज की खोज करता है, उससे जुड़ने का प्रयास करता है। कई बार अनुवादक इस जुड़ाव को स्थापित करने में सफल हो जाता है तो कई बार नहीं भी होता है। इसका प्रमुख कारण समाज विशेष के समाजशास्त्र की अनभिज्ञता है।
समाजशास्त्र मूलतः सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि है, जो किसी वस्तु, विचार, ज्ञान आदि का अध्ययन देश और काल के परिप्रेक्ष्य में करती है। अनुवाद का समाजशास्त्र अनुवाद अध्ययन को वही दृष्टि देता है। भारतीय वाङ्मय में अनुवाद की परंपरा को लेकर बहस जारी है। भारत में जब से साहित्य रचा जा रहा है तब से लेकर मुगलों के आगमन के पहले तक साहित्य की तरह अनुवाद की कोई सुदृढ़ परंपरा नहीं मिलती। इसके कारण के रूप में डॉ. सूर्य नारायण रणसुभे जैसे आधुनिक विचारक श्रेष्ठता बोध को मानते हैं – “परंतु जहां हम ही श्रेष्ठ हैं हमारे सिवा कोई भी श्रेष्ठ नहीं है ऐसी अहंकार में वृद्धि होती है, वहां न मौलिक लेखन होता है न
औरों को समझ लेने की कोशिश रहती है ...सृजनात्मक लेखन तथा अनुवाद में यह अहंकार वृत्ति सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।”
पर यदि श्रेष्ठताबोध होता तो शायद अपनी श्रेष्ठता को दूसरों तक पहुंचाने के लिए अनुवाद अवश्य हुआ होता। एक कारक दूसरों पर अपनी संस्कृति या विचार को ना थोपना भले ही हो सकता है। जिस प्रकार बाहर से आए अलग-अलग धर्मों के लोग अपने धर्म के प्रचार के लिए अपने धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद करने में संलग्न रहे, वैसी परंपरा भारत में नहीं मिलती। हर संस्कृति व समाज को उसकी भिन्नता के साथ सम्मान दिया गया; बिना उन पर विशेष विचारों को थोपे। शायद इसलिए भारत में धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद की आवश्यकता ना समझी गई हो। पर बाहर के ग्रंथों का अनुवाद भारतीय भाषा में क्यों नहीं किया गया यह प्रश्नवाचक लगता है; यहां डॉक्टर रणसुभे के विचार से असहमति पूरी तरह नहीं रख सकते।
मुगल काल में आकर जब धार्मिक भावनाओं पर चोट होने लगी तब यहां वेदों, मिथकों, महाकाव्यों का आत्मसातीकरण शुरू होने लगा। उस समय तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक आवश्यकता को समझते हुए तुलसीदास ने वाल्मीकि के संस्कृत रामायण को देशज (अवधी) भाषा में प्रस्तुत किया। इसकी वजह से रणसुभे तुलसीदास को देश के पहले अनुवादकों में स्थान देते हैं। इस रूप में अनुवाद के समाजशास्त्र की उपस्थिति को समझा जा सकता है। इनके बाद अन्य भारतीय ग्रंथों
के अनुवाद व आत्मसातीकरण की प्रक्रिया चल पड़ी। अच्छी बात यह रही कि बाइबल के शुरुआती अनुवाद के समय जिस प्रकार का व्यवहार देवभाषा हिब्रू से आम भाषा लैटिन में अनुवाद कर रहे अनुवादकों के साथ हुआ, वह भारत में नहीं हुआ।
अकबर के द्वारा भारत में अनुवाद की परंपरा को लिपिबद्ध करने का प्रयास शुरू हुआ। जिसे दाराशुकोह के समय में बढ़ावा मिला और संस्कृत के ग्रंथों का अनुवाद अरबी-फारसी भाषा में होने लगा। अरबी-फारसी के जानकारों ने संस्कृत के अनेक ग्रंथों का अनुवाद किया, पर इस समय भारतीय मनीषियों की तरफ से ऐसा ही प्रयास नदारद रहा। अपनी पुस्तक ‘अनुवाद का समाजशास्त्र’ में डॉ. रणसुभे लिखते हैं कि “...अरबी-फारसी के पंडितों ने भारतीयों के वेद उपनिषद कथाओं का अनुवाद बड़ी निष्ठा के साथ अपनी-अपनी भाषाओं में किया पर अरबी, फारसी जानने वाले यहां के पंडितों को उनके ग्रन्थ का संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने की इच्छा नहीं हुई।” मुगल काल से पहले अनुवाद की कोई ठोस परंपरा मिलती ही नहीं है। हालांकि परंपरावादी विचारक टीका, भाष्य आदि को अनुवाद का प्रारंभिक रूप मानते हैं पर दूसरी संस्कृतियों, समाजों, देशों को जानने-समझने का प्रयास भारत की प्राचीन परंपरा में नहीं दिखता है। दूसरे देश क्या अपने ही देश की भौगोलिक सीमा के भीतर अन्य भाषाओं व बोलियों के साहित्य का अनुवाद भारत की पुरानी भाषा में नहीं मिलता। तमिल संगम साहित्य के अनुवाद पर कार्य करने की शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दी से पहले तक नहीं मिलती जबकि यह भाषा भी संस्कृत की समकालीन है।
मुगल काल के बाद भारत में अनुवाद की गति में त्वरा ब्रिटिश शासन में आई। ईसाई मिशनरियों ने जब अपने धर्मग्रंथों का प्रचार शुरू किया तब आधुनिक काल में आकर अपने देश के अतीत के गौरव गान के साथ-साथ दूसरे देशों के समाज, संस्कृति का चित्रण अनुवाद के माध्यम से होने
लगा। परिणामस्वरुप ‘दुर्लभ बंधु’, ‘विश्व प्रपंच’, ‘शिक्षा’ जैसे अनुवाद हमारे समक्ष हैं। हिन्दी ग्रंथों के अंग्रेज़ी अनुवाद भी इस समय में ठीक-ठाक संख्या में होने लगे थे। तत्कालीन अनुवादों के पीछे राष्ट्रीय चेतना अनुवाद के समाजशास्त्र के रूप में काम कर रही थी। उपर्युक्त सभी कालखंडों के अनुवाद में अनुवाद का समाजशास्त्र और उसकी सांस्कृतिकता विद्यमान रही।
अनुवाद के समाजशास्त्र से हम अनुवाद की राजनीति तथा उसके उद्देश्य से भी परिचित होते हैं। सूसन बेसनेट अपनी पुस्तक द ट्रांसलेशन टर्न इन कल्चरल स्टडीज में अनूदित पाठ का सम्बन्ध सत्ता के सन्दर्भ से जोड़कर देखती हैं– “निस्संदेह अनुवाद, अर्थ के पीछे निहित सत्ता संबंधों को छुपाते हुए अर्थ थोपने का एक प्राथमिक तरीका है।” किस प्रकार किसी एक समय में एक भौगोलिक सीमा में एक ही जैसे विचारों, विषयों पर लेखन तथा उनसे संबंधित रचनाओं का अनुवाद हुआ इसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। आज के समय में भी यह राजनीति उतनी ही प्रासंगिक है। उदाहरणार्थ, अमुक सरकार के दौरान उस सरकार के विचारों से संबंधित साहित्य का सृजन होता है तथा अनुवाद होता है। अनुवादक अनुवाद हेतु विशिष्ट रचना ही क्यों चुनता है, विशिष्ट भाषा ही क्यों चुनता है, इस चुनाव के मूल में उसका उद्देश्य क्या है? ये प्रश्न अनुवादक की अभिरुचि के साथ-साथ उसके विचारधारा से भी जुड़े होते हैं और चूँकि विचारधारा का निर्माण अनुवादक के समाज से होता है इसलिए वास्तव में यह प्रश्न सामाजिकता के प्रश्न के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह अनुवादक की सामाजिकता ही है कि वह क्षेत्र, भाषा या विचार विशेष की रचना का अनुवाद करता है।
‘अनुवाद की संस्कृति व संस्कृति का अनुवाद’ विषय पर अपने वक्तव्य में डॉ. वर्षा दास कहती हैं कि उन्हें आठ भाषाओं का ज्ञान है तथा उनमें अनुवाद कर सकती हैं; पर यदि वर्षा दास का कार्य देखा जाए तो वह मुख्यतः गुजराती तथा हिंदी पर है। चूँकि वर्षा दास का संबंध गुजराती संस्कृति और समाज से है, वह इस भाषा में अधिक सहजता से अनुवाद कर लेती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि अनुवादक के विचारों से जुड़ी सांस्कृतिकता व सामाजिकता संबंधित अनुवाद के समाजशास्त्र के रूप में कार्य करती हैं। भारत के परिप्रेक्ष्य में समाज बहुभाषिक है। अनेक भाषाएं हैं। एक सांस्कृतिक क्षेत्र में भी जातिगत आधार पर भाषाई भिन्नता भारत में देखने को मिल जाती है। यहां केवल दो भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेना किसी अनुवादक को सफल नहीं बना सकता। भाषा पर असाधारण अधिकार के साथ-साथ उन दो भाषाओं की संस्कृति, सामाजिक संरचना, समाज व्यवस्था आदि से संबंधित पुख्ता जानकारी भी होनी चाहिए।
अपनी पुस्तक ‘अनुवाद का समाजशास्त्र’ में डॉ. रणसुभे ने भारत में अनुवाद की परंपरा के न होने का प्रमुख कारण वर्ण व्यवस्था को ठहराया है, क्योंकि वहां श्रेष्ठता-कनिष्ठता का अहंकारी भाव है। उनके अनुसार साहित्य की एक स्तरीय भाषा मान ली गई है, जिससे इतर साहित्य को स्तरीय साहित्य का दर्जा नहीं दिया जाता। यह भाषा उच्च वर्ण द्वारा स्थापित भाषा है। साहित्य की तरह भाषा को भी नपे-तुले सौंदर्य पैमाने पर तौलना संगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि एक तरह से यहां विमर्श विशेष की भाषाओं को यह कहकर नकार दिया जाता है कि ये भाषाएँ साहित्य के स्तर की नहीं हैं। भाषा के कारण विमर्श के साहित्य को भी कनिष्ठता की दृष्टि से देखा जाने लगता है। यह एक वजह हो सकती है कि आज विमर्शों के साहित्य की भाषा से सम्बन्धित कार्यों में तेजी आ रही है।
साहित्य विश्लेषण की दृष्टि पर विचार करते समय मुक्तिबोध कहते हैं, “जो लोग साहित्य के केवल सौंदर्यात्मक मनोवैज्ञानिक पक्ष को चरम मानकर चलते हैं, वे समूची मानव सत्ता के प्रति दिलचस्पी न रखने के अपराधी हैं।” दूसरी भाषाओं और उनसे जुड़े समाज व संस्कृति को जानने के प्रति ऐसी ही दिलचस्पी के ना होने और किसी भाषा के प्रति उपेक्षित भाव को अनुवाद ना होने या विशिष्ट भाषाओं में ही अनुवाद होने के कारण के रूप में डॉ. रणसुभे भी देखते हैं। ऐसे में जब विमर्श के साहित्य का अनुवाद होता है, वहां भी भाषा अभद्र और अपमानजनक लगने लगती है और स्तरीय नहीं लगती। डॉ. रणसुभे इसी स्तरीयता से मुक्ति के पक्षधर हैं। वह लिखते हैं कि “बेहतर अनुवाद के लिए आवश्यक है कि स्तरीय भाषा की संरचना को तोड़ा जाए।”
साहित्य व भाषा के संबंध में मुक्तिबोध व डॉ. रणसुभे के उपर्युक्त कथन उनकी सामाजिक संवेदना की उपज हैं। यही संवेदनात्मकता सृजनशील रहने में मदद करती है। इसके माध्यम से बेहतर साहित्य और अनुवाद की उत्पत्ति होती है। फ्रांसीसी संरचनावादी विद्वान फ़र्दिनान्द द सोस्यूर ने परम्परा की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि भाषा स्वयं को परम्परा के माध्यम से आकार देती है न कि नियमों के आधार पर। दलित लेखकों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे अभद्र और अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते हैं जिसे साहित्य की स्तरीय भाषा नहीं माना जाता। भाषा की संरचना परंपरा से होती है और इस मामले में कोई अपवाद नहीं है। सवर्णों की भाषा को अपने समुदाय के भीतर उच्च जाति के लालित्य और शालीनता से चिह्नित किया जाता है किन्तु निम्न जाति से बात करते समय यह नियम काम नहीं करता। उच्च वर्ग की भाषा दलितों से बात करते समय अत्यंत अपमानजनक एवं निम्न वर्ग की हो जाती है। चूँकि गैर-दलित लेखकों ने कभी भी दलितों के शोषण के बारे में बात ही नहीं की, इसलिए उन्हें कभी भी अपने कार्यों में ऐसी कठोर भाषा का उपयोग करने की आवश्यकता महसूस भी नहीं हुई, जो दलित लेखन की एक आवश्यकता है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि दलित रचनाओं में जिस गाली-गलौज की अभिव्यक्ति हुई है, वह केवल दलित पात्रों के संवादों के माध्यम से ही नहीं बल्कि उच्च जाति के लोगों के संवादों के माध्यम से भी हुई है।
‘अक्करमाशी’ तथा ‘जूठन’ जैसी कृतियों के अनुवाद में यही समस्याएं मिलती हैं। जिन अपमानजनक शब्दों से शूद्रों का संबोधन किया जाता है, उनका लेखन या अनुवाद करते समय शालीन भाषा का प्रयोग कैसे किया जा सकता है? नहीं कर सकते। ‘अक्करमाशी’ की एक विशेषता इसकी बोलचाल की भाषा है। चूँकि कृति मूल रूप से मराठी में लिखी गई थी और फिर अंग्रेजी में अनूदित की गई, इसके मूल स्वाद को जीवित रखने के लिए अनुवादक द्वारा कथा की बोलचाल को वैसे ही रखा गया है। भकरी, महार, पाटिल, अक्करमाशी, अन्ना, भाभी, बीड़ी, चप्पल, चटनी, जोगतिन, धोती, गुरु, जलेबी, खीर, कोतवाल, टोंगा आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। स्थानीय बोली का प्रयोग स्वर में सहजता और अपनापन लाता है और इस कहानी को देशी ढंग से प्रस्तुत करता है। इसके अलावा, कुछ शब्दों के अंग्रेजी में समकक्ष शब्द नहीं हैं; और इसलिए, उनका यथावत उपयोग किया गया है।
ओमप्रकाश वाल्मिकी ने अपनी आत्मकथा 'जूठन' में बताया है कि उन्हें 'चूहड़ा की औलाद', 'चूहड़े का', ‘अबे चूहड़े’ कहा जाता था। 'जूठन' आत्मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद करते समय अरुण प्रभा मुखर्जी ने इस 'चूहड़ा’ शब्द के लिए अंग्रेज़ी में निकटवर्ती शब्द रखने की बजाय इसी शब्द का प्रयोग करना उचित समझा। इस शब्द के लिए अंग्रेज़ी में कोई पर्याय मिल ही नहीं सकता क्योंकि पश्चिमी समाज में जाति भेद नहीं है। दलित समाज का अपना समाजशास्त्र है, उसमें उनकी अपनी सांस्कृतिकता है और अनुवादक उस समाजशास्त्र में व्याप्त सांस्कृतिकता की व्याख्या किए बगैर अनुवाद नहीं कर सकता। अरुण प्रभा मुखर्जी 'जूठन' का अनुवाद करने के कारण के रूप में तत्कालीन समय में दलित समाज की स्थिति को सामने लाने और दलित साहित्य का अनुवाद ना के बराबर उपलब्ध होने को बताती हैं- “...मैंने उस स्थान को बनाने के योगदान के रूप में 'जूठन'
का अनुवाद किया है। शायद ही कोई दलित साहित्य अनूदित रूप में उपलब्ध है।” दलित साहित्य का अनुवाद ना के बराबर उपलब्ध होने को 2003 में अनुवाद के समाजशास्त्र के रूप में देख सकते हैं।
आदिवासी विमर्श आज साहित्यिक विमर्श के केन्द्र में है। सामाजिक स्तर पर कार्य चाहे जितना कम हुआ हो पर साहित्यिक स्तर पर कार्य करने का जिम्मा कुछ लेखकों और अनुवादकों ने उठाया है। इसमें भी कुछ अनुवादकों को छोड़ दें तो बाकी सभी कुछ विशेष क्षेत्र की रचनाओं के अनुवाद में ही संलग्न दिखाई पड़ते हैं, मानो बाकी क्षेत्रों में रचनाएँ और आदिवासी समाज दिखते ही नहीं हैं। उनमें भी किन रचनाओं का अनुवाद किस प्रकार हो रहा है यह तो विशेष चर्चा का विषय होना चाहिए। आदिवासी साहित्य में गहनता से संलग्न कुछ अनुवादकों का मानना है कि आदिवासी साहित्य के अनुवाद के साथ भी राजनीति हो रही है। किसी आदिवासी भाषा की रचना पर बिरले ही गैर-आदिवासी लेखक, अनुवादक या प्रकाशक नज़र दौड़ाते हैं। और यदि नज़र दौड़ा भी दी तो कैसा अनुवाद होकर आता है यह उस अनुवादक की सांस्कृतिकता और समाजशास्त्रीय दृष्टि को स्पष्ट कर देता है।
आदिवासी साहित्य की भाषा आदिवासियों की तरह ही सहज व आम है। इसमें वक्रता नहीं है; ना साहित्य में, ना ही साहित्य की भाषा में। इसे भी साहित्य की स्तरीय श्रेणी में रखने से साहित्यिक लोग कतराते हैं। जब आदिवासी साहित्य का अनुवाद किसी गैर-आदिवासी समझ के अनुवादकों द्वारा किया जाता है तो वे अक्सर आदिवासी शब्दावलियों का अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार संस्कृतिकरण कर देते हैं। ज्यादातर समय आदिवासी त्योहारों, देवताओं, संस्थाओं का हिंदूकरण कर दिया जाता है। जैसे, ‘सिंहबोगा’ का हिंदी अनुवाद कई जगह सूर्य देवता के रूप में देखने को मिलता है। जबकि, ‘सिंहबोगा’ आदिवासी समाज में पुरखा (पूर्वज) का स्थान रखते हैं। इसी प्रकार घोटुल एवं अखड़ा जैसी सामाजिक संस्थाओं का भी न जाने क्या ही सांस्कृतिक रूप देखने को मिल जाए। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आदिवासी समाज की संरचना बाकी समाज की सामाजिक संरचना से भिन्न है, आदिवासी समाज का समाजशास्त्र भिन्न है। ऐसे में हम देख सकते हैं कि अनुवाद के समाजशास्त्र को समझे बिना सांस्कृतिकता को जस का तस अनूदित रूप में लाना संभव नहीं है।
अगुआ आदिवासी साहित्यकार वंदना टेटे का मानना है कि अनुवाद के दौरान ग़ैर-आदिवासी लेखक/अनुवादक कई ऐसे शब्दों का प्रयोग कर देते हैं जिनका सम्बन्ध आदिवासी संस्कृति से है ही नहीं। वह लिखती हैं- “...मुंडारी ऑरेचर के गीतों और कहानियों में अनुवाद के ज़रिये ढेर सारे ब्राह्मनिकल शब्दों को घुसेड़कर अर्थ का अनर्थ कर दिया है...।” इसी प्रकार कई कहानियों का अनुवाद करते समय पात्रों का धर्म परिवर्तन कर दिया जाता
है। एक मुंडा लोककथा के दो प्रचलित अनुवाद मिलते हैं तथा दोनों में अनुवादक अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार चरित्र का धर्म परिवर्तन कर देते हैं। एक अनुवाद में वह पादरी है तो दूसरे अनुवाद में वह ब्राह्मण के रूप में चित्रित है। अपने लेख ‘अनुवाद की राजनीति और आदिवासी साहित्य’ में वह आगे कहती हैं- “...ईसाई मिशनरियों के अनुवाद में कथा में वर्णित राजपूत का सलाहकार पात्र एक पादरी है तो हिंदूवादी लोक-साहित्य-प्रेमी के अनुवाद में वह ब्राह्मण हो जाता है। स्पष्ट है, अनुवाद में दोनों ने ही अपने वर्ल्डव्यू को प्राथमिकता दी। फलतः एक ही चरित्र की नस्ल और धर्म अनुवाद के दो वर्जनों में दो तरह से है।” यह वर्ल्डव्यू ही अनुवादक का समाजशास्त्र है जिसमें उसने अपनी सांस्कृतिकता को प्राथमिकता दी। यह प्राथमिकता लक्ष्य भाषा की मांग के अनुरूप भी हो सकती है।
अनुवादक द्वारा भाषा का चुनाव भी अनुवाद के समाजशास्त्र के अंतर्गत आता है। क्यों किसी भाषा में अधिक अनुवाद होता है और किसी में कम? ब्रिटिश शासन के दौरान अपनी साहित्यिक पहचान बनाने के लिए भारतीय लेखकों को अंग्रेज़ी में भी लिखना पड़ता था। आज भी साहित्यकार को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी में लेखन आवश्यक है पर राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी में लिखने से कार्य चल जाता है, पुरस्कार भी मिल जाते हैं, पुस्तकों की बिक्री भी हो जाती है। यह आज के लेखक व अनुवादक का एक महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्र है। एक तरह से कुछ स्थापित भाषाएँ अनुवाद के बाज़ार को तय करती हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह कार्य अंग्रेज़ी भाषा कर रही है तो भारत के सन्दर्भ में यह बीड़ा हिन्दी ने उठाया है।
भारत में लोक साहित्य का अनुवाद ज़ोर-शोर से हिन्दी में किया जा रहा है। उसमें लोक कितना आ पाया है यह भी अनुवाद चिन्तकों के मध्य चर्चा का विषय होना चाहिए। अनुवाद के समाजशास्त्र या समाजशास्त्रीय दृष्टि का मुख्य लक्ष्य अनुवाद की सामाजिकता की व्याख्या करना है। फौस्टर और केनफोर्ड ने लिखा है कि एक गंभीर समाजशास्त्री के लिए बड़े से बड़ा कलाकार भी केवल समाज के बारे में सूचना देने वाला होता है। इस प्रकार अनूदित साहित्य में उपस्थित समाजशास्त्र की सूचना देने का दायित्व अनुवादक का होता है। अनुवाद के समाजशास्त्र में अनूदित कृति में उपस्थित समाज प्रमुख है साथ ही सामाजिक गतिविधियों, युग परिवेश, विचारधारा, सांस्कृतिकता, सामाजिक उपादेयता की व्याख्या भी अनुवाद के समाजशास्त्र के अंतर्गत की जाती है।
अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद में भी अनुवाद के समाजशास्त्र की उपस्थिति होती है। फिल्मों के संवादों के लिए उपशीर्षक देते समय भी अनुवाद की सांस्कृतिकता उपस्थित होती है। दर्शक अन्य भाषी होने के कारण फिल्म देखने के साथ-साथ उपशीर्षक भी देखते हैं। ऐसे में दक्षिण भारत की किसी फिल्म में आए हास्य प्रसंग को दर्शक मात्र उपशीर्षक की मदद से नहीं समझ सकते क्योंकि वहां दक्षिण भारतीय समाज की सांस्कृतिकता भी काम करती है। एक मलयालम फिल्म ‘ट्वेंटी’ (20) में अभिनेता का संवाद है “ओरु नायडू कुंडू सेल्यूट चेचियु।” इसका अनुवाद “आई मेड ए नायर टू सेल्यूट मी” किया गया है। यहां नायर एक उच्च वर्ण की जाति है पर शाब्दिक अनुवाद में उसकी सांस्कृतिकता तब तक समझ नहीं आ सकती जब तक संबंधित समाज की संस्कृति का परिचय ना हो। हालांकि वर्तमान में दक्षिण भारत की फिल्मों में हिंदी पट्टी का संदर्भ देकर उस हास्य दृश्य को ग़ैर-दक्षिण भारतीय दर्शकों के लिए भी उतना ही हास्यास्पद बनाने का भरपूर प्रयास किया जाता है।
रामायण की कथा को केंद्र में रखकर निर्मित रामानंद सागर के ‘रामायण धारावाहिक की सफलता और ओम रावत की ‘आदिपुरुष फ़िल्म की असफलता और आलोचना भी अनुवाद के समाजशास्त्र को लेकर ही है। किस पात्र के साथ कैसी भाषा और वेशभूषा रखनी है, इसका संबंध समाज और उसके समाजशास्त्र से है। इक्कीसवीं सदी में रामायण की प्रासंगिकता को लेकर ‘आदिपुरुष’ के निर्देशक ओम राउत भ्रमित स्थिति में दिखे। उन्होंने आधुनिक और आदि काल का ऐसा मिश्रण किया कि हिन्दू धार्मिक आस्था का केंद्र ‘रामायण’ हास्य में परिवर्तित हो गया और निर्देशक महोदय कठोर आलोचना का केंद्र बन गए। अब इसके लिए चाहे पात्रों की वेशभूषा को देख लें या हनुमान जी द्वारा सीता जी को किए गए मुट्ठी बंद प्रणाम को, दोनों ही विदेशी फिल्मों की नक़ल लगते हैं। रावण के पुष्पक विमान के रूपांतरण का तो अंदाज़ ही अलग है। संवादों के आत्मसातीकरण की मर्यादा पर अलग बहस छिड़ी रही। हनुमान जी का अभिनय कर रहे पात्र का संवाद “...कपड़ा तेरे बाप का... जलेगी तेरे बाप की” इतना विवादित हुआ कि अंततः उसमें सुधार करना पड़ा। सुधार के बाद भी वह संवाद कुछ इस प्रकार ही हो पाया− “...कपड़ा तेरे लंका का... तो जलेगी भी तेरी लंका।” फिल्म के संवाद-लेखक महोदय भी कठोर आलोचना के घेरे में रहे। उन्होंने रामायण में उपस्थित समाज व संस्कृति का ऐसा आत्मसातीकरण किया कि अनुवाद का समाजशास्त्र और उसकी सांस्कृतिकता कहीं दूर पीछे छूट गई।
उपसंहार : इस प्रकार अनुवाद का समाजशास्त्र अनुवादक तथा अनूदित रचना की सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि है। यह अनुवाद के पीछे के कारकों के विविध पहलुओं को समझने का प्रयास करता है। चूँकि समाज, साहित्य, कला और उनके अनुवाद अन्योन्याश्रित हैं, समाजशास्त्रीय कारक इन्हें प्रभावित करते रहे हैं। हालाँकि अनुवाद का समाजशास्त्र भारत में अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में अभी उभरती हुई अवस्था में है, अनुवाद के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं को समझने के लिए अनुवाद और अनुवादक के समाजशास्त्र को समझने का महत्त्व बढ़ जाता है।
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शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
shiwani0503@gmail.com
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