शोध आलेख : हिन्दी नवजागरण और अनुवाद : काव्यरूपों के विकास की दृष्टि से / यदुवंश यादव

हिन्दी नवजागरण और अनुवाद: काव्यरूपों के विकास की दृष्टि से
- यदुवंश यादव

शोध सार : भारतीय परंपरा में नवजागरण के अर्थ को अलग-अलग ढंग से स्पष्ट किया गया है। डॉ. रामविलास शर्मा के विचार से भारतीय नवजागरण बहु आयामी रहा है। देश के अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग कारणों को लेकर यह जागरण देखने को मिलाता है। सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्य के स्तर पर जागरण हुआ। इस जनजागरण की एक नई परंपरा आधुनिक काल में देखने को मिलती है। यह नवजागरण 1857 की क्रांति के रूप में माना जाता है। हिन्दी भाषा का विकास भी इसी समय के लगभग शुरू हुआ। इसलिए, आधुनिक काल का यह नवजागरण हिन्दी नवजागरण के रूप में संबोधित किया गया है। इस नवजागरण के अंतर्गत हिन्दी भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। हिन्दी की विविध विधाओं के विकास में अनुवाद की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही है। इस समयावधि में भारतीय भाषाओं के साथ-साथ पाश्चात्य भाषाओं के साहित्य से अनुवाद हिन्दी भाषा में किया गया है। इस पत्र के माध्यम से हिन्दी साहित्य के विविध विधाओं के विकास में अनुवाद की क्या भूमिका रही है और यह अनुदित साहित्य किस रूप में सहायक हुआ, इन बिंदुओं को स्पष्ट किया जाएगा।

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मूल आलेख :

नवजागरण की संकल्पना :

“रेनेसांस शब्द मूलतः फ्रेंच भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘पुनर्जन्म’ होता है। यह शब्द पुनर्जागरण, पुनरुत्थान, पुनर्जन्म और प्रस्फुटन आदि अर्थों के पर्याय के रूप में हिन्दी में प्रयोग किया जाता  है और यही शब्द आगे चलकर एक ऐतिहासिक घटना के द्योतक के रूप में व्यक्त होने लगा।”1 नवजागरण के बारे में बताते हुए डॉ॰ रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- “सोलहवीं सदी में इटली के लोगों ने नए युग को ‘ला रिनास्विता’ (पुनर्जन्म) कहना शुरू किया। अठारहवीं सदी में फ्रांस के विद्वानों ने उसे ‘रेनेसांस’ कहा। वहां से वह शब्द अंग्रेजी में आया। इटली के लोगों ने संस्कृति के पुनर्जन्म की बात इसलिए सोची थी क्योंकि तीसरी, चौथी, पांचवी सदियों के जर्मन हमलावरों ने उनकी प्राचीन रोमन सभ्यता का नाश कर दिया था। अब वह सभ्यता, मानो नए सिरे से जन्म ले रही थी, इसलिए पुनर्जन्म की बात उनके मन में आयी। रोमन सभ्यता से फ्रांस और ब्रिटेन भी प्रभावित हुए थे पर यह उनकी अपनी सभ्यता न थी। फिर भी उन्होंने इटली के देखा-देखी अपनी नयी सभ्यता के विकास को पुनर्जन्म कहना शुरू कर दिया। वास्तव में इटली, फ्रांस और इंग्लैंड के लिए यह जाति के निर्माण और जातीय जागरण का युग था, इसलिए उसे नवजागरण कहना अधिक युक्तिसंगत है।”2 इस प्रकार नवजागरण की शुरुआत सर्वप्रथम इटली से होती है और उसके पश्चात् धीरे-धीरे यह प्रभाव पूरे यूरोप के राज्यों में फैलता है।

भारतीय नवजागरण की अवधारणा पर डॉ. रामविलास शर्मा ने विस्तृत रूप से विचार प्रस्तुत किया है। जिस तरह के तथ्य इन्होंने ‘भारतीय नवजागरण और यूरोप’ नामक पुस्तक में दिए हैं उससे यह प्रमाणित होता है कि भारतीय नवजागरण की परंपरा बहुत ही प्रगतिशील रही है और यूरोपीय नवजागरण से इसके प्रभावित होने की कोई संभावना नही है। यूरोप में जो स्थितियां सन् (1300-1700) के बीच बनी और जो परिवर्तन इस दौर में हुए और जिस रूप में उनकी व्याख्या की जाती है उस रूप में भारतीय वैदिक युग का अध्ययन करें तो भारतीय दर्शन, विज्ञान, भूगोल और व्याकरण यूरोपीय देशों से बहुत ही विकसित मिलते हैं। भारतीय साहित्य में वेदों की विकसित स्थिति रही है। इसमें पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह, सागर, महासागर, नदियां, द्वीप, महाद्वीप, अग्नि, जल, वायु, ज्ञान, विज्ञान, मानव, चिकित्सा, ज्योतिष, कला, सभ्यता आदि के विकास के बारे में बहुत ही विस्तृत रूप में लिखा गया है और इन्हीं चीजों के कारण भारत यूरोपीय देशों के लिए प्रलोभन का कारण बना रहा। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि “क्रीट, लघु एशिया, मिस्र और पश्चिमी एशिया की प्राचीन सुमेरी-बेबिलोनी सभ्यताओं और संस्कृतियों के मूल स्रोत भारत की ही ओर संकेत करते हैं। इस सभ्यता और संस्कृति का मूल प्रवाह आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों की भाषाएं बोलने वाले भारत के मूल निवासियों की आद्य सभ्यता और संस्कृति से ही आरंभ हुआ था, जिसकी प्राचीनतम छाप हमें आज भी ऋग्वेद में मिल जाती है। भाषा से लेकर ध्वनियों, व्यक्ति-नामों, देवशास्त्र, तत्व-चिंतन, सृष्टि कथाओं और पुराकथाओं तक जो बातें भी भारत, पश्चिमी एशिया, मिस्र और यूनान में एक समान मिलती हैं, उनकी मूल स्थापनाओं और प्राचीनतम रूपों के संकेत एकमात्र भारत में ही मिलते हैं। जबकि उनके परवर्ती और विकसित या परिवर्तित रूपों की भरमार हम उपर्युक्त स्थानों में पाते हैं।”3 इस व्याख्या से स्पष्ट है कि भारत में जो नवजागरण हुआ है उसका समय और रूप, यहां की परिस्थितियों से निर्धारित रहा है।

उन्नीसवीं सदी के दौरान हुए भारतीय नवजागरण को लेकर डॉ. नामवर सिंह जी लिखते हैं कि- “रेनेसांस एक कांसेप्ट है जिस पर बहुत गहरायी से बात करने की जरुरत है। यह इसलिए जरुरी है क्योंकि वे कहना चाहते हैं कि सूरज पश्चिम में पहले उगा पूरब में बाद में उग रहा है। रेनेसांस उनके यहां चौदहवीं शताब्दी में आया था, भारत में रेनेसांस उन्नीसवीं सदी में आया। वे जानते हैं कि सूरज तो कायदे से पूरब में ही उगता है। लेकिन संस्कृति के ज्ञान का सूरज उनके अनुसार पश्चिम में पहले उगा। ठीक उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में जो राजा राममोहन राय कह रहे थे उससे कुछ ही समय बाद बंकिम चन्द्र चैटर्जी बिल्कुल दूसरी बात कह रहे थे। बंकिम ने कहा था कि हमारे यहां रेनेसांस पहली बार तो चैतन्य के जमाने में हुई थी। बंगाल रेनेसांस का आरंभ राममोहन राय से कुछ लोग मानते हैं पर बंकिम कहते हैं कि नहीं हमारा नवजागरण तो चैतन्य के जमाने शुरू हुआ था और महान भक्तों ने बंगाल में एक नया जागरण पैदा किया। अगर बंकिम की दृष्टि बंगाल से थोड़ी और व्यापक होती तो उन्हें पता चलता कि चैतन्य के ज़माने से भी 500 साल पहले इसी देश में दक्षिण में आलवार, नायनार जैसे संत थे जो विशाल भक्ति आंदोलन में शामिल थे, उनका आंदोलन लगभग नवीं, दसवीं शताब्दी से शुरू हो चुका था ये भक्ति का आंदोलन दक्षिण से आया था।”4 इस प्रकार अगर देखा जाए तो कुछ बिंदुओं के आधार पर यह सत्य है कि भारत में नवजागरण की शुरुआत यूरोप से बहुत पहले हुई है और यह बहुत विकसित भी रही है।

भारतीय नवजागरण के स्वरुप पर बहुत सारे विद्वान यह मानते हैं कि नवजागरण जैसी स्थितियां 1857 से पहले भी रही हैं। जिनमें विभिन्न विद्वानों जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, शम्भूनाथ और कर्मेन्दु शिशिर आदि द्वारा बुद्ध काल, भक्ति काल को नवजागरण के रूप में मानते हैं। डॉ. शर्मा ऋग्वैदिक काल को भारत का प्रथम नवजागरण मानते हैं। उपनिषदों के काल को उसका दूसरा नवजागरण मानते हुए वे इसे ‘विश्वदर्शन के इतिहास में क्रांतिकारी युग’ कहते हैं।”5 18वीं और 19वीं शताब्दी में पूरे भारत में छोटे-छोटे स्तर पर कई आंदोलन हुए। इन आंदोलनों का स्वरूप सामाजिक व राजनीतिक स्वतंत्रता थी। ये आंदोलन अलग–अलग प्रदेशों में अलग–अलग स्वरूप में हुए। इन्हीं आंदोलनों का विकसित स्वरूप नवजागरण जैसी प्रवित्ति के रूप में परिणत होता है। भारत में नवजागरण की लहर एक साथ न आकर अलग–अलग आई। अलग–अलग रूपों में आने के पीछे भारत की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को प्रमुख कारक के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें विभिन्नता निहित है। इन विभिन्नताओं के फलस्वरूप भी विभिन्न प्रदेशों में नवजागरण के स्वरूप में एकरूपता को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। स्थानीय व राजनीतिक चेतना के कारण यह कहीं कुछ वर्ष पहले आई और कहीं कुछ वर्ष बाद। बंगाल में सर्वप्रथम 1850 में तथा कश्मीर में सबसे बाद 1930 के लगभग दिखाई देती है। अधिकतर भारतीय भाषाओं में 19वीं सदी के सातवें, आठवें व नौवे दशक में अंकुरित हुई। भारत में हुए नवजागरण के रूप को स्पष्ट करते हुए शम्भुनाथ लिखते हैं कि- “भारत का नवजागरण बहुवचनात्मक है। किसी समय बंगाल में एक ढंग का, महाराष्ट्र में दूसरे ढंग का और हिन्दी पट्टी में एक अन्य ढंग का नवजागरण प्रबल था। इसका यह अर्थ नहीं है कि इसमें सामान्य खूबियां नहीं थीं या नवजागरण के वैश्विक सार के प्रति उपेक्षा का भाव था। दरअसल हर जगह फर्क बुद्धिवाद की दिशा को लेकर था, क्योंकि यूरोप के बुद्धिवाद से भारत को हांका नहीं जा सकता था।”6 इस प्रकार भारत में नवजागरण की शुरुआत सभी स्थानों पर एक ही साथ न होकर अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व भौगोलिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरुप होती है। तत्कालीन समाज सुधार आंदोलनों ने नवजागरण की प्रवृत्ति के विकास में महती भूमिका निभाई। विभिन्न प्रदेशों में अलग–अलग स्तर के जो समाज–सुधार आंदोलन चल रहे थे उनसे जाति, आडंबर, छुआछूत आदि जैसी जो कुरीतियां समाज में व्याप्त थी उनका दमन हुआ या फिर लोगों में इनके प्रति चेतना उत्पन्न हुई। इस दौरान शिक्षा को लेकर भी लोगों में चेतना आई। सावित्रीबाई फुले ने महिला शिक्षा के लिए प्रयास किया। जाति और वर्ग के नाम पर समाज में जो ऊंच–नीच व्याप्त था उसके प्रति इन सामाजिक सुधार आंदोलनों के द्वारा लोगों में चेतना आई। इन सामाजिक सुधार आंदोलनों के द्वारा जो चेतना आई वह निश्चित रूप से तार्किक व रूढ़ियों परंपराओं को एक स्तर तक तोड़ने की बात करती थी। “ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, थियोसोफिकल सोसायटी जैसे विविध आंदोलन तथा विवेकानंद, रविन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महर्षि अरविन्द आदि विचारक इसके प्रमुख सूत्रधार थे।”7 इस रूप में, भारतीय नवजागरण की परंपरा भारत में निजी कारणों से प्रसूत हुई थी, बहुत सारे मामलों में ये कारक यूरोपीय नवजागरण से बहुत भिन्न हैं।

हिन्दी नवजागरण : हिन्दी भाषा के नजरिए से :

हिन्दी को आधुनिकता से इसी काल से जोड़ा जाता है। इस काल तक आते–आते हिन्दी साहित्य संभवतः दरबारी संवेदनाओं के बजाय सामाजिक घटनाओं की तरफ अधिक संवेदनशील हुआ। यह संभवतः नवजागरण की ही चेतना थी कि जिसने हिन्दी को दरबार से निकाला। दरबार से निकलने पर हिन्दी ने अपनी भाषाई स्थिति को भी बदला। जिसका परिणाम हमें खड़ी बोली हिन्दी के विकास के रूप में देखने को मिलता है। इसके विकास में इसाई मिशनरियों के साथ–साथ कुछ अन्य संस्थाओं, तत्कालीन स्थापित किए गए शैक्षणिक संस्थाओं का योगदान था। वैसे तो बहुत सारे शोध और विद्वानों ने खड़ी बोली का उद्भव रसखान और भक्तिकालीन कुछ कवियों द्वारा प्रयोग की गई भाखा मे ढूंढा है। परंतु खड़ी बोली का सुदृढ़ विकास हमें नवजागरण काल यानि 19वीं सदी के मध्य में ही दिखाई पड़ता है। जैसा कि साहित्य के इतिहासकार बताते हैं- “उन्नीसवीं शताब्दी का महत्त्व राजनितिक, आर्थिक और धार्मिक दृष्टियों से तो था ही, गद्य और फिर कविता के क्षेत्र में खड़ी बोली की स्थापना की दृष्टि से भी है। हिन्दी गद्य का स्फुट प्रयोग राजस्थानी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली में उन्नीसवीं शताब्दी से पहले टीकाओं, वार्ताओं आदि के रूप में होता रहता था, किंतु खड़ी बोली गद्य का क्रमबद्ध इतिहास उन्नीसवीं शताब्दी में ही मिलता है। खड़ी बोली गद्य और हिन्दी साहित्य की आधुनिकता एक प्रकार से पर्यायवाची शब्द माने जा सकते हैं।”8 वैसे रामचन्द्र शुक्ल ने 1741 में राम प्रसाद निरंजनी द्वारा रचित ‘भाषा योग वशिष्ट’ नामक पुस्तक को खड़ी बोली की सबसे पुरानी पुस्तक मानी है। अलग–अलग समय में अन्य रचनाओं में भी खड़ी बोली अपनी आदिम संरचना में आती रही। इसका यह अर्थ लगाया जा सकता है कि खड़ी बोली की परंपरा का बीज हिन्दी साहित्य में पहले ही पड़ चुका थी। खड़ी बोली के विकास में ‘फोर्ट विलियम कॉलेज’ की स्थापना (1800) महत्त्वपूर्ण है। इस संस्था की स्थापना से खड़ी बोली का जो विकास हुआ वह साहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने सन् 1800 में कलकत्ता में इसे स्थापित किया। इसके अलावा इसाई मिशनरियों के द्वारा भी खड़ी बोली का विकास हुआ। उत्तर भारत में अपने मत के प्रचार के लिए उन्होंने इसका प्रयोग आवश्यक माना। फोर्ट विलियम कॉलेज के द्वारा जो खड़ी बोली लेखन की शुरुआत हुई उसका प्रयोग इन्होंने किया। “उन्होंने महसूस किया कि उत्तर भारत में न ब्रज भाषा से काम चलेगा और न ही उर्दू से। उन्होंने सरल खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाया। अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए शिक्षा-प्रसार एवं पुस्तकों के प्रकाशन की योजना बनाई।”9 इनके द्वारा भी कई सारी धार्मिक पुस्तकों का अनुवाद खड़ी बोली में करवाया गया।

हिन्दी नवजागरण और अनुवाद :

अनुवाद की दृष्टि से भी हिन्दी नवजागरण का दौर महत्त्वपूर्ण रहा है। अनुवाद एक माध्यम के रूप में सहयोगी रहा है। हालांकि, हिन्दी साहित्य में अनुवाद की भूमिका विषय पर बहुत ही कम लेखन कार्य एवं शोध आदि हुए हैं। खासकर इस दृष्टिकोण से कि, नवजागरण के दौर में अनुवाद किस रूप में अपनी भूमिका निभाता है? इस पूरी समयावधि में अनुवाद एक ऐसा माध्यम बनकर उभरता है जो हिन्दी नवजागरण का बीज बिंदु बना। हिन्दी साहित्य लेखन की परंपरा के अंतर्गत तत्कालीन समाज में जिन बिंदुओं को लेकर रचनाएं की गईं वे सब अनुवाद के माध्यम से ही हुई। तत्कालीन दौर में हिन्दी भाषा का विकास, लिपि निर्धारण, मानकीकरण जैसे तमाम प्रश्नों का निदान अनुवाद के माध्यम से संभव हुआ। अनुवाद न केवल हिन्दी साहित्य की नई विधाओं के विकास का माध्यम बना अपितु हिन्दी साहित्य निधि के विकास और समृद्धि का भी कारण बना। हिन्दी भाषा की शब्द संपदा कई भाषाओं के शब्दों के अनुवाद का एक मिश्रित रूप है जिसमें सबसे ज्यादा संस्कृत, उर्दू, अरबी-फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों को अनुवाद रूप में ग्रहण किया गया है। इन सभी भाषाओं के शब्दों के समेकित रूप से हिन्दी का निर्माण हुआ है। इनके बिना जो हिन्दी लिखी जाएगी वह न तो सर्वजन ग्राह्य हो सकती है और न तो संप्रेषणीय ही। हिन्दी भाषा साहित्य के निर्माण में संस्कृत साहित्य, बंगला भाषा साहित्य, पाश्चात्य साहित्य के साथ-साथ अन्य दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य का भी योगदान रहा है। हिन्दी साहित्य में इन सभी भाषाओं के साहित्य को लाने के लिए इनकी कृतियों का अनुवाद हिन्दी में हुआ। इन अनुवादों के पीछे अनुवादकों के अपने सामाजिक व राजनीतिक विचार व उद्देश्य थे। हिन्दी नवजागरण में अनुवाद का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अनुवाद के माध्यम से न केवल हिन्दी भाषा का निर्माण व विकास हुआ, बल्कि नए साहित्य व नए समाज का निर्माण भी अनुवाद की ही राह पर चल कर हुआ। हिन्दी भाषा के साहित्य व समाज में एक बड़ा परिवर्तन अनुवाद के द्वारा हुआ। हिन्दी नवजागरण के विकास रूप में हिन्दी साहित्य के अंतर्गत हुए अनुवाद ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

खड़ी बोली हिन्दी का विकास अनुवाद के माध्यम से होता है। इसके बारे में डॉ॰ रमण सिन्हा ने लिखा है कि- "खड़ी बोली हिन्दी गद्य की प्राचीनतम पुस्तक राम प्रसाद 'निरंजनी' की भाषा योग वशिष्ठ (1741) को माना जाता है, जो वशिष्ठ कृत संस्कृत वेदांत ग्रंथ 'योग वशिष्ठ' का अनुवाद है।"10 इस रूप में खड़ी बोली हिन्दी का विकास भी अनुवाद रूप में ही शुरू होता है। खड़ी बोली हिन्दी की जो चार आदि कृतियां मानी जाती हैं, जिनमें 'रानी केतकी की कहानी' अथवा उदयभान चरित (1801), 'सुखसागर' (1803), 'नासिकेतोपाख्यान' (1803) और 'विद्यासुंदर' इनमें से 'उदयभान चरित' को छोड़कर क्रमशः प्रथम दो कृतियां संस्कृत साहित्य से और चौथी बांग्ला साहित्य से हिन्दी में अनूदित हैं। इन कृतियों से ही हिन्दी भाषा के साहित्य की शुरुआत होती है।

हिन्दी नवजागरण का विकास विभिन्न भाषाओं की कृतियों के अनुवाद के माध्यम से शुरू हुआ। यह अनुवाद हिन्दी साहित्य के विकास की दृष्टि से प्रथमतः हुआ। हिन्दी के विकास में साहित्य पुस्तकों की बहुत कमी थी। इस कमी को तात्कालिक तौर पर पूरा करने के लिए हिन्दी में अनुवाद कार्य किया गया। एक कारण यह भी था कि, एक लंबे समय से प्रयोग में आने वाली उर्दू को कमतर आंका जा सके और हिन्दी साहित्य को श्रेष्ठ बताया जा सके। लोगों में साहित्य के प्रति रूचि पैदा हो। कविता का प्रचलन हिन्दी प्रदेश में प्राचीन समय से था। यही कारण है कि एक लंबे समय तक काव्य की भाषा के रूप में अवधी और ब्रज ही बने रहे। खड़ी बोली का प्रयोग बहुत कम किया जाता था और अगर किया भी जाता था तो इन बोलियों के साथ मिश्रित रूप में ही।

सन् 1857 के पश्चात्त जब भारतेन्दु का आगमन हिन्दी साहित्य में होता है तो हिन्दी लेखन के साथ-साथ अनुवाद को भी बढ़ावा मिलता है। भारतेन्दु सहित इनके समकालीन लेखकों की श्रद्धा व निष्ठा से हिन्दी को भाषा के रूप में स्वीकृति मिलती है। जनता में हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकों के प्रति रुझान को बढ़ाने की दृष्टि से नए साहित्य का सृजन किया जाता है, जिससे पाठकों की रुचि के अनुसार पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध हो सकें। हिन्दी के विकास के समय में साहित्य के साथ-साथ विधा के रूप में भी साहित्य की कमी थी। हिन्दी में सबसे पहले काव्य लेखन की शुरुआत हुई। अनुवाद के माध्यम से संस्कृत की कृतियों के हिन्दी में काव्यानुवाद हुए। इस विधा रूप में कमी को पूरा करने के लिए संस्कृत से व अंग्रेजी की कविताओं के अनुवाद हुए। भारतेन्दु युग के दौरान जो भी हिन्दी में काव्यानुवाद, नाट्यानुवाद या उपन्यासों के अनुवाद हुए उनका मुख्य उद्देश्य हिन्दी साहित्य की समृद्धि था। हिन्दी साहित्य में इस कमी को पूरा करने के लिए संस्कृत से कई सारे अनुवाद हुए। इन अनुवादों के माध्यम से ही हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में साहित्य की वृद्धि होती है और दूसरे भाषाओं का नया साहित्य हिन्दी में आता है। हिन्दी साहित्य में नई-नई विधाओं का विकास अनुवाद के माध्यम से होता है। जिनमें मुख्य विधाओं के साथ-साथ गौण विधाओं का विकास भी अनुवाद के ही माध्यम से हुआ। मुख्य विधाएं जैसे- कविता, नाटक, उपन्यास और कहानी आदि।

हिन्दी में काव्य विधा के विकास रूप में अंग्रेजी काव्य साहित्य से अनुवाद हुए। जिसमें गोल्डस्मिथ की कृति 'हरमिट' का अनुवाद 'योगी' नाम से किया गया। यह कृति एक प्रेम कथानक पर आधारित है। इस कथानक का "नायक एडविन एक युवक होता है, जिसके पास न तो पैसे हैं और न तो सत्ता। इस कविता कि नायिका एंजलीना है जो, एक जमींदार की बेटी होती है। एडविन का प्यार एंजलीना से होता है और यह अपने प्यार का इजहार नायिका से करता है, लेकिन नायिका इसे माना कर देती है। इसके बाद नायक सब कुछ छोड़कर एक 'योगी' बन जाता है। जब एंजलीना को यह सब पता चलता है तो वह पुरुष के वेष में नायक के पास जाती है। एडविन, एंजलीना को पुरुष के पोशाक में नहीं पहचान पाता है। एंजलीना दोनों के प्यार के बारे में पिछली कहानी बताती है। इसके बाद एडविन उसे पहचान जाता है। इसके बाद दोनों का मिलन होता है और इस रूप में कविता समाप्त होती है।"11 इस कविता का अनुवाद विशेष रूप से हिन्दी साहित्य में कविता विधा को स्थापित करने की दृष्टि से हुआ। अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद के माध्यम से हिन्दी में शोकगीत की परंपरा, सोनेट्स अर्थात चतुष्पदियां लिखने की परंपरा का विकास हुआ। शोकगीत लिखने की शुरुआत ग्रे की कविता 'Elegy Written in A Country Churchyard' से हुई। यह कविता मुख्य रूप से लेखक के अपने अनुभव पर आधारित है। "कविता एक कब्रगाह से शुरू होती है। जहां अपने चारो तरफ के परिवेश को देखकर और उसके बदलते हुए नकारात्मक स्वरूप की कल्पना करके कवि परेशान है। गांव में रहने वाले लोगों की तुलना शहर के लोगों से करता है और यह सोचकर परेशान होता है कि लोग थोड़े में ही संतुष्ट क्यों नहीं रहते। बहुत कमाने कि इच्छा में अपना व प्रकृति का भी विनाश करते हैं, और इन सबके बावजूद भी मृत्यु के पश्चात इन्हें याद कौन करता होगा। इस व्यस्त जीवन में क्या किसी के पास इतना वक्त है कि वह किसी की मृत्यु के बाद बैठकर शोक मनाए? मृत्यु जो की जीवन की एक सच्चाई है सब इसे भूले रहते हैं। इन सबके बारे में सोच कर व देख कर खुद को दूसरे लोगों से अगल कर लेता है और उनके लिए शोक करता है। मृत्यु की वास्तविकता को स्वीकार करता है और इसी के साथ कविता समाप्त होती है।"12 इस प्रकार इस कविता के अनुवाद से शोक गीत का परिचय हिन्दी साहित्य को होता है। हिन्दी में चतुष्पदी का लेखन अंग्रेजी के 'सोनेट्स' के अनुवाद से शुरू होती है जिसमें अंग्रेजी के कई लेखकों के सोनेट्स के अनुवाद हुए। शेक्सपियर की कविता 'फ्रेंड्स' जो की एक सोनेट है, हिन्दी में इसका अनुवाद 'मित्र' नाम से हुआ। इससे पूर्व हिन्दी में चतुष्पदी लेखन की परंपरा नहीं थी।

हिन्दी में द्विवेदी युग के पश्चात छायावाद का प्रादुर्भाव होता है। इसके शुरुआत का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है। उन्होंने ही हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम छायावाद शब्द का प्रयोग किया था और इसकी विशेषताओं से युक्त कविता लिखी थी। छायावाद के दौरान लिखी जाने वाली कविताओं का सबसे ज्यादा महत्त्व है। हिन्दी में छायावाद बंगला कवि रवींद्रनाथ ठाकुर की आध्यात्मिक रहस्यवाद से पूर्ण कविताओं के प्रभाव रूप में शुरू होती है। जो की हिन्दी साहित्य की अपनी मौलिक उपज न होकर बंगला भाषा से शुरू होती है। बंगला भाषा में यह शुरुआत अंग्रेजी की कविताओं के अध्ययन के पश्चात शुरू हुआ। इस रूप में हिन्दी में छायावादी कविताओं की शुरुआत भी अनुवाद के ही माध्यम से हई। छायावाद के बारे में विजयेंद्र स्नातक लिखते हैं कि- “छायावाद की कविता की पहली दौड़ तो बंग-भाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले और कोमल मार्ग पर हुई। पर उन कविताओं की बहुत-कुछ गतिविधि अंग्रेजी वाक्य खण्डों के अनुवादों द्वारा संगठित देख, अंग्रेजी वाक्यों से परिचित हिन्दी कवि सीधे अंग्रेजी से ही तरह-तरह के लाक्षणिक प्रयोग अपनी रचनाओं में जड़ने लगे। कनक प्रभात, विचारों में बच्चों की सांस, स्वर्ण समय, प्रथम मधुमास, स्वप्निल कांति ऐसे प्रयोग उनकी रचनाओं के भीतर इधर-उधर मिलने लगे। केवल भाषा के प्रयोग वैचित्र्य तक ही बात न रही, अनेक यूरोपीय वादों और प्रवादों का प्रभाव भी छायावाद कही जाने वाली कविताओं के स्वरुप पर कुछ न कुछ पड़ता रहा।” इस प्रकार हिन्दी में छायावादी कविताओं की शुरुआत बंगला से और अंग्रेजी की कविताओं से होती है। इस रूप में इसे स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिन्दी में नयी विधाओं के विकास के रूप में पाश्चात्य साहित्य का बहुत योगदान रहा है। साहित्य में नयी-नयी कृतियों की रचना होती है और आधुनिक विचारों के प्रकाश में आधुनिक समाज का निर्माण भी होता है। छायावाद का मुख्य दृष्टिकोण कविताओं के माध्यम से व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति, प्रकृति प्रेम, कल्पना की प्रधानता, आतंरिक सौंदर्य के प्रति विशेष आकर्षण आदि जैसे गुण होते हैं।

छायावाद के बाद हिन्दी में 'हालावाद' नामक काल भी शुरू हुआ। इस समय के सबसे प्रसिद्ध लेखक और इस काल के प्रणेता हरिवंश राय बच्चन हैं। इस दौरान जो भी कविताएं लिखीं गयी उनका मुख्य विषय 'हाला' से जुड़ा हुआ होता। हाला यानि मदिरा या शराब को ही सबसे उच्च रूप में माना गया है। हिन्दी में इस काल का प्रादुर्भाव भी अनुवाद रूप में ही होता है। उमर ख़ैयाम की 'रुबाइयत' का अंग्रेजी में अनुवाद कवि फिटजेराल्ड ने किया। इनके अंग्रेजी अनुवाद से हिन्दी में इन रुबाइयों का अनुवाद हुआ और इनसे ही 'हालावाद' की शुरुआत होती है। यह अनुवाद हरिवंश राय बच्चन ने सन् 1938 में किया। इन रुबाइयतों का अनुवाद इससे पूर्व भी हो चुका था, लेकिन बच्चन का यह अनुवाद बहुत प्रसिद्ध हुआ और पसंद किया गया।

निष्कर्ष : हिन्दी नवजागरण में अनुदित कृतियों का महत्त्व कई दृष्टियों से है। हिन्दी भाषा एवं साहित्य के विकास में अनुवाद की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। इसके अतिरिक्त हिन्दी की विविध विधाओं के विकास के साथ-साथ इस समयावधि में अनुदित साहित्य के माध्यम से विचार, दर्शन, समाज, संस्कृति आदि को भी प्रचारित-प्रसारित करने का काम किया गया। हिन्दी नवजागरण कालीन अनुदित साहित्य का मूल्यांकन और समीक्षा कई नए परिणामों को प्राप्त करने की दृष्टि से उपयोगी होगा। साथ ही, समकालीन समय में भारत की विविध भाषाओं से अनुदित होने वाले साहित्य की समीक्षा विमर्शों आदि की दृष्टि से की जा सकती है। अनुवाद केवल देश के स्तर पर उपयोगी माध्यम के रूप में सहायक हुआ है अपितु पाश्चात्य भाषाओं से अनुदित साहित्य भी कई विमर्शों का जनक रहा। इसलिए वर्तमान समय में अनुवाद का महत्त्व जगजाहिर है।

  1. Renaissance, Ren-e-sans, originally a French word whose literal meaning is rebirth, the term has been applied metaphorically to a wide variety of phenomena running from an experience in the life history of an individual to the characterization of the culture of an entire epoch. Although Renaissance is used to describe cultural ‘revivals or flowerings of widely different times and places’ these usages are derived by analogy from the most canon meaning of the word.” Encyclopedia Britannica, Volume 15, page no. 367b.
  2. भारतीय नवजागरण और यूरोप, डॉ॰ रामविलास शर्मा, पृष्ठ संख्या- 192
  3. भारतीय नवजागरण और यूरोप, रामविलास शर्मा, पृष्ठ संख्या-3
  4. 1857, नवजागरण और भारतीय भाषाएं, संपादक- शंभुनाथ, पृष्ठ संख्या- 43-44
  5. ibid
  6. हिंदी नवजागरण और संस्कृति, शंभुनाथ, आनंद प्रकाशन, पृष्ठ संख्या–9
  7. हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, डॉ. अमरनाथ, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-216
  8. हिंदी साहित्य का इतिहास, लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या – 232
  9. हिंदी, उर्दू और खड़ी बोली की ज़मीन, रविनंदन सिंह, पृष्ठ संख्या – 23
  10. अनुवाद और रचना का उत्तर-जीवन, डॉ॰ रमण सिन्हा, पृष्ठ संख्या-33
  11. Goldsmith wrote his romantic balled of precisely 160 lines in 1765. The hero and heroine are Edwin, a youth without wealth or power, and Angelina, the daughter of a lord "beside Tyne", Angelina spurns many wooers but refuses to make plain love for young Edwin. "Quite dejected with my scorn." Edwin disappears and becomes a hermit. One day, Angelina turns up in his cell in boy's clothes and, not recognizing him, tells him her story. Edwin then reveals his true identity, and the lovers never part gain. www.hermitary.com/literature/goldsmith.html
  12. The poem begins in a churchyard with a narrator describing his surroundings in vivid detail. The narrator emphasizes both aural and visual sensations as he examines the area in relation to himself. After that, he focuses less on the countryside and more on his immediate surroundings. His descriptions begin to move from sensation to his thoughts about the dead. He contrasts an obscure country life with a life that is remembered. He focuses on the inequities that come from death. He begins to deal with death in a direct manner as he discusses how humans desire to be remembered. The poem concludes with a description of the poet's grave. In the end, the port was separated from the other common people because he was unable to join with the common affairs of life, and circumstances kept him from becoming something greater. www.gray.com/literature/gray.html
  13. हिंदी साहित्य का इतिहास, विजयेंद्र स्नातक, पृष्ठ संख्या- 251.

यदुवंश यादव
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,  संताल परगना महाविद्यालय, दुमका, झारखंड
yadav14yadu@gmail.com

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

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