- मानसी कुकड़े
ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में भारत में बौद्ध धर्म की स्थापना हुई। इस के संस्थापक सिद्धार्थ गौतम नेपाल केशाक्य राजवंश से थे। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात इन्हें गौतम बुद्ध या शाक्यमुणी नाम से प्रसिद्धि मिली। इनके उपदेश बौद्ध भिक्षुओं के प्रवचनों और अशोक तथा कनिष्क जैसे राजाओं के प्रयासों से संपूर्ण उपमहाद्वीप में प्रसारित हुए। व्यापार के लिए उपयोगी सिल्क रुट भी बौद्ध दर्शन के प्रचार प्रसार का मार्ग बना। सम्राट अशोक के प्रयासों से बौद्ध दर्शन श्रीलंका तथा नेपाल पहुंचा। सातवीं शताब्दी में नेपाली राजकुमारी भृकुटी देवी के विवाह के साथ बौद्ध दर्शन ने तिब्बत और भूटान के क्षेत्र में प्रवेश किया।
क्षेत्र के बदलने पर वहां की संस्कृति के साथ ही भाषा भी बदल जाती है। इस स्थिति में अन्य क्षेत्र से आते विचारों तथा वस्तुओं के विनिमय का सर्वोच्च मार्ग अनुवाद होता है। बौद्ध दर्शन के सिद्धांत भी अनुवाद के माध्यम से ही दुनिया भर में प्रसारित हुए। अनुवाद ने बौद्ध दर्शन को सामान्य जन में आकर्षक बनाया। ब्राह्मणों द्वारा प्रयुक्त संस्कृत के विपरीत बौद्ध दर्शन में उपदेश तथा अनुष्ठान स्थानीय भाषा तथा बोलियों में होते थे। इससे तर्क को बढ़ावा मिलता था और प्रवचनों तथा अनुष्ठानों की समझ में वृद्धि होती थी। नेपाल तिब्बत और भूटान जैसे स्थानों के इतिहास में बौद्ध धर्म का आगमन महत्त्वपूर्ण प्रसंग रहा है। यहां की संस्कृति, भाषा इत्यादि के साथ अनुवाद परंपरा पर भी बौद्ध दर्शन का प्रभाव स्वाभाविक है।
बौद्ध दर्शन के विद्वान प्रो. नलीनक्षा दत्त अपने लेख में मध्यकाल की संस्कृत पांडुलिपि 'विमलप्रभा' का उल्लेख करते हैं। विमलप्रभा में यह दर्ज है कि बुद्ध के महापरिवाहन पश्चात संगीतिकारों ने तीनों 'यानो' के सिद्धांतों को ग्रंथ स्वरूप लिखा। उन्होंने तथागत के आदेश अनुसार तीनों पिटकों को मगध-भाषा में, सूत्रों को सिंधु भाषा में, परमिता को संस्कृत तथा मत्रों और तंत्रों को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और असंस्कृत सबरादी म्लेच्छ भाषा, इत्यादि में संरक्षित किया। कई विद्वान 1891- 1894 में प्राप्त खरोष्ठी लिपि में लिखित गांधारी पांडुलिपि (पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी के काल में लिखी गई) को प्राचीनतम बौद्ध दर्शन का पाठ मानते हैं। इन उपदेशों को अनेक भाषाओं में लिपिबद्ध किया जाना बौद्ध दर्शन के प्रचार प्रसार की प्रक्रिया में अनुवाद की भूमिका को स्पष्ट करता है।
अनुमानतः गौतम बुद्ध के जीवन काल में ही बौद्ध दर्शन मौखिक अनुवाद परंपरा के माध्यम से नेपाल पहुंचा। इसका एक प्रमाण हमे महावग्ग (विनय पिटक का ही एक अंश) के एक उद्धरण में मिलता हैं - "चरथ भिखवे चारिकं बहुजनसुखाय" यहां महात्मा बुद्ध अपने 60 भिक्षुओं से कहते हैं- "हे भिक्षुओं अब जाओ , और बहुतों के लाभ के लिए, बहुतों के कल्याण के लिए और देवताओं और मनुष्य के कल्याण के लिए भटकों, तुम में से कोई दो लोग भी एक दिशा में न जाएं" जितनी दिशाओं में यह बौद्ध भिक्षु गए होंगे संभवतः उतनी भाषाओं- बोलियों में बौद्ध दर्शन का प्रचार हुआ होगा। इसके अतिरिक्त स्वयं गौतम बुद्ध की नेपाल यात्रा तथा प्रवचनों के महत्त्वपूर्ण तीन स्रोत मिलते हैं जो गौतम बुद्ध की नेपाल यात्रा के प्रमाण देते हैं : स्वयंभू पुराण, मुंशी शिव शंकर सिंह और गौत्रीय व्याकरण सूत्र । भिक्षुओं और महात्मा बुद्ध के हिमालय की यात्रा के पुरातत्व या उत्कीर्ण लेखों में प्रमाण नहीं मिलते परंतु दिव्य वंदना के एक संदर्भ के अनुसार गौतम बुद्ध ने मानसरोवर/ अनातपत्दाह में एक प्रवचन सारिपुत्र और महुदागल्याना के पूर्वजन्म पर दिया था।
ईसा पूर्व तीसरी शादाब्दी में सम्राट अशोक द्वारा आयोजित तृतीय संगति में अभिधम्म पिटक का संकलन पाली भाषा में किया गया। कालांतर में संस्कृत को भी बौद्ध ग्रंथों में स्थान मिला। इस बौद्ध संस्कृत को 'गाथा' कहा गया। सम्राट अशोक ने नेपाल में ललितपत्तन (आधुनिक ललितपुर) में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उन्होंने एक स्तूप पतन (आधुनिक पाटन) और दूसरा कीर्त्तिपुर में बनवाया। सम्राट अशोक द्वारा संगीति में संकलित हुए बौद्ध ग्रंथ पाली भाषा में थी। इस कारण नेपाल में बौद्ध धर्म के फैलने के साथ ही साथ पाली भाषा भी खूब फैलती गई। यह पाली भाषा अपने सांस्कृतिक रूप को छोड़कर व्यवहारिक रूप में परिणत हो गई।
लिच्छवी शासनकाल (400 से 700 ई.) में नेपाल में बौद्ध और हिंदू दोनों धर्म फैले। संभवतः इसी कारण नेपाल में हिंदू और बौद्ध धर्म के बीच अंतर हमेशा स्पष्ट नहीं रहा। दोनों धर्म अक्सर साजा पूजा स्थलों और पूरक प्रभाव के साथ एक दूसरे में विलीन होते हैं। इसी काल में हिंदू धर्म जैसे विधि और अनुष्टान से भरी महायान की तांत्रिक शाखा वज्रयान का उदय भी हुआ। हिंदू धर्म और वज्रयान में दार्शनिक आधार भिन्न होने के बावजूद कुछ देवता (जैसे महाकाल) और प्रतीकों (जैसे वज्र ) जैसी समानताएं भी है। इसमें अनुवाद की वह प्रवृत्ति है जहां लक्ष्य संस्कृति अपने पैमानों पर किसी स्रोत संस्कृति को अपनाती है।
नेपाल की कई बौद्ध धर्म की स्कूलों में प्राप्त ग्रंथ पाली, प्राकृत, संस्कृत में थे। जो आगे चलकर चीनी भाषा में भी अनूदित हुए । इसका प्राचीनतम चीनी अनुवाद चौथी शताब्दी का प्राप्त होता है। फहियान नामक बौद्ध भिक्षु ने अपने ग्रंथ में इसी काल में चीन से नेपाल की यात्रा का उल्लेख किया है। इन्होंने बुद्धभद्र के साथ मिलकर 461 ई. में 'महासंम्घिका' का चीनी अनुवाद भी किया। बौद्ध दर्शन के प्रभाव से नेपाल में अन्य क्षेत्रिय भाषा जैसे चीनी में भी अनुवाद हो रहा था। नेपाल में प्राप्त 'मूलसरस्वती वंदना', 'मंजुश्रिकल्पा' और नेवारी बुद्धों के द्वारा महायान सूत्रों का किया अनुवाद इस बात का प्रमाण है कि इस काल में बौद्ध ग्रंथों का उपयोग और अनुवाद कई भाषाओं में नेपाल में हो रहा था। अर्थात नेपाल में गौतम बुद्ध के मरणोपरांत हजारों वर्ष बाद भी बौद्ध ग्रंथों का संरक्षण हो रहा था। इस प्रकार बौद्ध ग्रंथ इस विस्तृत अनुवाद परंपरा का आधार थे। उदाहरण के लिए ब्रायन हड्गसन द्वारा 1824 में खोजे संस्कृत बुद्ध ग्रंथों में नवखंड या नौ बाहुल्य सूत्रों की प्राप्ति हुई।
● लंकाअवतार
● गांडव्यूह
● सद्धन्नपुंडरीकापुंडारीका
● दसभूमिका
● तथागतागुह्यकासूत्र
● समाधीराज
● अष्टसहसिका प्रज्ञयपरमिता
विद्वानों के अनुसार आचार्य वसुबद्ध ने इन महायान सूत्रों पर कई व्याख्याएं भी लिखी जिन्हें हम अंतःभाषिक अनुवाद के रूप में देख सकते हैं। इस प्रकार भारत से आए बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से बौद्ध धर्म हिमालय के क्षेत्र में फैला।
सातवीं शताब्दी में नेपाली राजकुमारी भृकुटी देवी और तिब्बती राजा स्रोंचन गम्पो का विवाह हुआ। विवाह पश्चात रानी के साथ बौद्ध ग्रंथों का भी आगमन तिब्बत में हुआ। मान्यता अनुसार इससे पहले तिब्बती लोग कला और स्थापत्य से अनभिज्ञ बर्बर लोग थे। इनके पास अन्य क्षेत्रों से संवाद के लिए कोई लिपि भी नहीं थी। बौद्ध ग्रंथों के संरक्षण हेतु राजा स्रोंचन गम्पो ने जोंगखा (Dzongkha)भाषा के विकास में सहयोग दिया। राजा स्रोंचन गम्पो ने कई बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद तिब्बती भाषा में कराया उदाहरण के लिए 'करंडव्यू सूत्र' और 'मेघ सूत्र'। इनके द्वारा नियुक्त अनुवादकों में भारतीय गुरु कुसला, ब्राह्मण शंकर , नेपाली गुरु सिलमंजू, अनुवादक थोन मीन संभोटा और उनके शिष्य धर्मकोष प्रमुख है।
इन्हीं अनुवादकों में एक अनुवादक पद्मासंभावा भी थे। नेपाल,तिब्बत और भूटान में वे एक प्रतिष्ठित बौद्ध गुरु माने जाते हैं। कई तिब्बती बौद्ध ग्रंथों में पद्मसंभावा का उल्लेख ‘रंग ब्युंग पदमा' (rang byung padma) नाम से मिलता है। वे भूटान में 'गुरु रिनपोचे' नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने बौद्ध धर्म की शाखा वज्रयान को तिब्बत तथा भूटान में प्रसारित किया। तिब्बती मान्यताओं अनुसार इन्होंने स्थानीय देवताओं पर विजय पाकर वज्रयान को इस क्षेत्र में प्रसारित किया।आठवीं शताब्दी में कई संस्कृत तंत्र तिब्बती भाषा में अनुदित किए गए उनके अनुवादकों में पद्मसंभवा के अतिरिक्त विमलमित्र और वैरोचन भी शामिल है।
विद्वानों के अनुसार पद्मसंभावा का संबंध भारतीय वज्रयाणी शाखा से है। यहां अनुवादक की अपनी विचारधारा का लक्ष्य पाठ पर प्रभाव स्पष्ट होता हैं। लक्ष्य पाठक के लिए उन्हें दिया गया स्रोत पाठ ही प्रमाणिक पाठ होता है। 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ स्प्रेड ऑफ बुद्धिस्म और थे बुद्धिस्ट स्कूल' शीर्षक से पुस्तक के प्रारूप में नरेंद्र नाथ लिखते हैं : “जहां बौद्ध भिक्षु प्रचार प्रसार के लिए गए वहां के स्थानीय लोगों के लिए उपदेशों में बताए गए सिद्धांत ही मूल धर्म थे। जिसे उन्होंने अपनाया और पूर्ण उत्साह से उसके सिद्धांतों और साहित्य का संरक्षण किया।” इस प्रकार बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं का भिन्न प्रभाव अलग-अलग स्थानों की संस्कृति और भाषा पर हुआ। आठवीं सदी में संस्कृत से तिब्बती भाषा में होते अनुवादों में पद्मसंभवा प्रमुख रहे। पद्मासंभवा का भारतीय वज्रयानी शाखा की ओर झुकाव तिब्बती अनुवाद और तिब्बती बौद्ध दर्शन पर प्रभाव दिखाता है।
तिब्बत में बौद्ध ग्रंथों के अनुवादकों में 'मारपा लोत्सवा' का नाम प्रसिद्ध है। इन्हें सामान्यतः ‘मारपा द ट्रांसलेटर' नाम से जाना जाता है। इन्होंने सर्वप्रथम संस्कृत में महारत हासिल की और दो बार भारत तथा तीन बार नेपाल की यात्रा की। इन्होंने तिब्बत लौटकर कई बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद किया। इसके बाद अनुवाद की एक लंबी परंपरा तिब्बत में चली जिस पर बौद्ध दर्शन का पूर्ण प्रभाव रहा। इस परंपरा में जो थोड़ा हिंदू ग्रंथों का प्रभाव है वह सी तू द्वारा किए महाभारत के 5 श्लोकों के तिब्बती अनुवाद में मिलता है।
भूटान में बौद्ध धर्म के आने से पहले बॉन धर्म था। भूटान में बौद्ध दर्शन पद्मसंभवा के माध्यम से प्रसारित हुआ। अतः भूटान में होते अधिकतर बौद्ध उद्यमों का मूल तिब्बत से है। राजसंरक्षण प्राप्त होने के कारण यह वहां तेजी से फैला। भूटान की राजभाषा जोंगखा है। जोंगखा का शाब्दिक अर्थ ' किले की भाषा' है। सम्भव है इस भाषा में बौद्ध दर्शन को संरक्षित करने के उद्देश्य से इसका नाम ‘जोंगखा' रखा गया होगा। इस भाषा के विकास और मानकीकरण में पद्मसंभवा द्वारा किए अनुवाद के साथ ही डेन्ना द्वारा किए बौद्ध उपदेशों का संकलन तथा अनुवाद की महती भूमिका है।
हिमालय के क्षेत्र में अधिकतर तिब्बती बौद्ध दर्शन की शाखा ही अपनाई गई। इस शाखा की चार प्रमुख स्कूल है:
न्यिगमा स्कूल की स्थापना त्रिसांग देतसेन के शासनकाल में प्राचीन अनुवाद विद्यालय के रूप में हुई। इसमें संस्कृत बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती में अनुवाद हुआ। स्कूल की एक प्रवृत्ति जोंगखा का अनुवाद परंपरा पर केंद्रित होना है। 11वीं सदी में वज्रयाण शाखा के बढ़ते प्रभाव के साथ नई व्याख्याओं की स्थापना हुई। 'सरमा' का शाब्दिक अर्थ 'नया अनुवाद' है इस प्रकार बौद्ध धर्म के उद्यमों ने समकालीन अनुवाद परंपरा को विकसित किया।
हिमालय के क्षेत्र के इतिहास में बौद्ध दर्शन का आगमन तथा प्रसार महत्वपूर्ण प्रसंग है। इस कारण भाषिक, सांस्कृतिक तथा शिक्षा के स्तर पर बौद्ध दर्शन ने यहां की अनुवाद परंपरा को आकार दिया। इन क्षेत्रों में बौद्ध दर्शन के भाषिक प्रभाव को भाषाओं में उपस्थित अंतर से समझा जा सकता है। रोमन जैकब्सन लिखते है "भाषाओं में अनिवार्य रूप से अंतर 'उसे क्या आवश्य कहना चाहिए' के आधार पर होता है ना की 'वह क्या कह सकती है' के आधार पर।" स्रोत ग्रंथ लक्ष्य भाषा में इस ‘क्या आवश्य कहना चाहिए’ की परिधि को बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए तिब्बत में बौद्ध ग्रंथों के परिचय से 'कहनी चाहिए' एसी अवधारणाएं विद्वानो समक्ष आई। इनके संप्रेषण हेतु जोंगखा भाषा विकसित हुई। कई बार परिभाषिक शब्द जैसे के तैसे या थोड़े परिवर्तन के साथ लक्ष्य भाषा में अपनाए जाते है। नेवारी तथा अन्य स्थानीय भाषाओं का विकास इसी प्रक्रिया से हुआ है। जिससे नेवारी भाषा पर बौद्ध-हिंदू संस्कृत शब्दावली का प्रभाव है। नेवारी में अनूदित बौद्ध ग्रंथ जैसे, ‘प्रज्न परमिता सूत्र,' ‘बोधीकार्यवातरा' और ‘बोधीसत्व आलोकितेश्वर' ने नेवारी भाषा के विकास में महती भूमिका निभाई है।
इसी प्रकार बौद्ध ग्रंथों के होते अनुवाद से धार्मिक तथा शिक्षा संबंधित पाठ के लिए क्लासिकल तिब्बती भाषा का विकास हुआ। उदाहरण के लिए राजा द्वारा अनुवाद के लिए अमंत्रित बौद्ध भिक्षु जैसे अतिसा और रिन शेन झांग पो के अनूदित पाठ। कई बार जब स्रोत भाषा की अवधारणाओं को लक्ष्य भाषा में संप्रेषित करना कठिन होता है। जिसके लिए अनुवादक शब्दों को खोजना और नए शब्दों का निर्माण करते है। इस प्रक्रिया में स्थानीय भाषा समृद्ध होती है। इसी प्रक्रिया में बौद्ध परिभाषित शब्दकोशों का निर्माण भी स्वाभाविक है। जो समकालीन अनुवाद परंपरा को साधन रूप में प्रभावित करते हैं।
भाषिक स्तर पर होते परिवर्तनों के साथ सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक स्तर पर होते बौद्ध दर्शन के प्रभाव भी थे। उदाहरण के लिए बौद्ध मठों का निर्माण जो अनुवाद और शिक्षा के केंद्र बने। यह वर्तमान में चली आरही अनुवाद परंपरा का आधार बने। आधुनिक काल में होते कई अनुवाद उद्यम पर बौद्ध दर्शन का प्रभाव स्पष्ट है। जैसे :
● The Lotsawa Rinchen Zangpo Translator Program
साहित्य किसी स्थान विशेष की संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग होता है। जो उस क्षेत्र के अनुवाद परंपरा को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। अनुवाद परंपरा का प्रभाव भी साहित्य पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। नेपाली, तिब्बती और भूटान का साहित्य यहां बौद्ध दर्शन और अनुवाद परंपरा के संबंध को स्पष्ट करता है।
नेपाली साहित्य के प्राचीन प्रमाण में मिलती नैतिक कहानियों पर बुद्ध के उपदेशों का प्रभाव मिलता है। कालांतर में हिंदू धर्म की लोकप्रियता बड़ी। भारत से सांस्कृतिक तथा भौगोलिक सम्बंध के कारण भारत में बौद्ध धर्म के पतन का प्रभाव नेपाल में भी हुआ। जिसका स्पष्ट प्रतिबिंब नेपाली साहित्य है। नेपाली के आदिकवि और नेपाल के राष्ट्रकवि आचार्य भानुभक्त हैं। इन्हें नेपाल का 'चौसर' कहा जाता है। उनकी लिखी रामायण पर बौद्ध धर्म से अधिक हिंदू धर्म का प्रभाव है। यह लिखने के पीछे उनकी प्रेरणा 'अध्यात्म रामायण' थी। इसे नेपाली में अवधि की 'रामचरितमानस' सी ख्याती प्राप्त है।
ईसाई मिशनरियों के आगमन से ईसाइयत की ओर मुड़ती जनता को मिलता पश्चिमी साहित्य का परिचय स्वाभाविक था। आचार्य भानुभक्त की रामायण को प्रकाशित करने वाले मोतीराम भट्ट भी एक बड़े लेखक और अनुवादक है। इन्होंने नेपाल में 'गोरखा भाषा परीक्षणी समिति' की स्थापना की। आगे चलकर यह 1913 में 'नेपाली भाषा परीक्षणी सभा' बनी इस समिति के अंतर्गत कई अनुवाद हुए। इसमें भारत, चीन, भूटान के साथ यूरोप से लाई गई पुस्तकों का भी अनुवाद हुआ। नेपाल में घटते बौद्ध दर्शन के प्रभाव के बाबजूद दार्जिलिंग आधुनिक नेपाली साहित्य में बौद्ध दर्शन के प्रभाव का महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा। यहां नरेंद्र मणि आचार्य दीक्षित ने एक आश्रम की स्थापना की। यहां कई अनुवाद हुए और यही से आधुनिक नेपाली साहित्य की शुरुआत हुई। यहां से साहित्य के छोटे-छोटे नमूने बौद्ध साहित्य से प्रभावित होते रहे। इसके अलावा नेपाल की साहित्य तथा अनुवाद परंपरा में सभी प्रकार के भारतीय साहित्य (जैसे विद्यापति और टैगोर की रचनाओं का अनुवाद ) का पूर्ण प्रभाव है।
सदियों तक भौगोलिक बाधाओं के कारण भूटान का बाहरी दुनिया से अलगाव रहा है। इस कारण यहां आधुनिक साहित्य की कमी है। इस विषय के बारे में पत्रकार नामग्जेग कहते हैं कि भूटान की संस्कृति साहित्य और अनुवाद पर बौद्ध दर्शन का ऐसा प्रभाव पड़ा की मौलिक समकालीन रचनाएं नहीं लिखी गई। जोंगख भाषा जो बौद्ध ग्रंथो के अनुवाद के लिए बनाई गई थी। उसमें कोई अन्य साहित्य नहीं लिखा गया ना भूटान में कोई अन्य साहित्य पढ़ने की संस्कृति ही रही।
एक ओर नेपाल में बौद्ध धर्म पर अन्य धर्म हावी हुए। दूसरी ओर भूटान में वहां के साहित्य और संस्कृति पर बौद्ध धर्म हावी हुआ। अर्थात अनुवाद किसी जगह को एक नई संस्कृति देता है पर कभी-कभी किसी क्षेत्र की मूल संस्कृति के विकास में बाधा बन जाता है।
अनुवाद एक सामाजिक गतिविधि है। यह लोगों के बीच सफल अथवा असफल,पूर्ण अथवा अपूर्ण रूप में ही सही परंतु संपर्क स्थापित करती है। अनुवाद की प्रक्रिया सामाजिक संबंधों के बाहर नहीं होती। इस कारण 2500 वर्ष पूर्व हिमालय के क्षेत्र में पहुंचा बौद्ध धर्म इस सामाजिक गतिविधि द्वारा वहां के समाज में रच बच गया है। यही अनूदित बौद्ध दर्शन क्षेत्रीय विभिन्नता और अनुवादकों की विचारधारा के कारण संपूर्ण विश्व की तुलना में भिन्न है। अनुवाद के माध्यम से बौद्ध दर्शन के ग्रंथों ने हिमालय के इस क्षेत्र के समाज- संस्कृति को प्राभावित किया। अतः हिमालय के इस क्षेत्र में बौद्ध दर्शन संस्कृति- समाज के माध्यम से अनुवाद परंपरा को आज भी प्रभावित कर रहा है।
परास्नातक, हिन्दी अनुवाद, जे.एन.यू. नई दिल्ली
mansikukade16@gmail.com
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