बीज शब्द : नवजागरण, समालोचना, प्रोपराइटर, निष्णांत, वैधशाला, आधुनिकता, स्वदेशी, पत्रकारिता, स्वत्व, प्रसंग गर्भत्व, सभ्यता समीक्षा, प्राच्यवाद, जीर्णोद्धार, पाण्डुलिपि, युद्धघोष, उपयोगीतावाद, नीर क्षीर विवेक, तिलिस्म, अराजकता, प्राच्यविद्या, ज्ञान साधना, भारतीय ज्ञान परम्परा।
मूल आलेख : हिन्दी नवजागरण कालीन साहित्यकार पत्रकार की भूमिका लिए हुए है। हिंदी पत्रकारिता के उदय (1826 ई.) से लेकर छायावाद के आरंभ तक लगभग सभी साहित्यकार किसी न किसी पत्र-पत्रिका से अवश्य जुड़े हुए थे। गुलेरी जी भी इसके अपवाद नहीं है। 1893 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना से प्रेरित होकर इन्होंने अपने मित्र जवाहर लाल जैन वैद्य के साथ मिलकर जयपुर में 1897 ई. में नागरी भवन की स्थापना की। इसी नागरी भवन से 1902 ई. में इन्होंने हिन्दी समालोचना को समर्पित और हिन्दी हितवर्द्धन के निमित्त उच्चकोटी की ‘समालोचक’ नामक पत्रिका प्रकाशित की। अपनी राजकीय सेवा संबंधी बाध्यता के चलते सम्पादक एवं प्रोपराइटर के रूप में लाला जवाहरलाल जैन वैध का नाम देना गुलेरी जी की तात्कालिक विवशता थी। गुलेरी जी का अधिकांश साहित्य ‘समालोचक’ पत्रिका में ही प्रकाशित हुआ है।
पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी के पिता पं. शिवराम जी जयपुर महाराजा कॉलेज (1844 ई.) में वेदान्त व्याकरण के प्राध्यापक तथा राजा को धर्मशास्त्रीय विषयों पर शास्त्रनुकूल परामर्श देने वाली धार्मिक संस्था 'मोद मन्दिर' के अध्यक्ष थे। जयपुर में ही 1883 ई. में गुलेरी जी का जन्म हुआ। इनका कर्मक्षैत्र जयपुर, अजमेर और काशी रहा है। अपने अध्ययन काल में ही गुलेरी जी संस्कृत,पालि, प्राकृत,अपभ्रंश,अग्रेंजी, फारसी, और उर्दू में निष्णात थे। महज 18 वर्ष की अवस्था में इन्होंने 1901 ई. में कर्नल स्विंटन जैकब और ए.एफ. गैरेटे के साथ मिलकर सौर वैद्यशाला (जन्तर-मन्तर) के जीर्णोंधार का कार्य किया।1897 ई. में महाराजा कॉलेज से मिडिल परीक्षा द्वितीय श्रेणी से पास की। 1903 ई. में गुलेरी जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी, संस्कृत, मनोविज्ञान व कर्तव्यशास्त्र विषयों से बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। वे सम्पूर्ण राजस्थान से यह सफलता प्राप्त करने वाले प्रथम व्यक्ति थे। इस पर महाराजा कॉलेज द्वारा उन्हे ‘लार्ड नार्थ ब्रुक’ पदक से सम्मानित किया गया। गुलेरी जी की इन्ही योग्यताओं से प्रभावित होकर ब्रिटिश रेजीडेंट कर्नल टी. सी. पीयर्स ने इन्हें मैयो कॉलेज अजमेर में रियासत के राजकुमारों का अभिभावक व शिक्षक नियुक्त किया। 1904 से 1920 ई. तक गुलेरीजी ने समस्त राजपुताना रियासत के राजकुमारों के शिक्षक के रूप में मैयो कॉलेज अजमेर में अपनी सेवाएं दी।
यह गुलेरी जी की विद्वता
का ही प्रभाव था कि उन्हें
1920 ई. में ‘काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ के संपादक मंडल में शामिल किया गया। महामना मालवीय जी ने भारत सरकार से सिफारिश करके गुलेरी जी को 18 महीनो की प्रतिनियुक्ति पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की प्रो. मणीन्द्र चन्द्र नंदी पीठ, जो कि पं. रामअवतार शर्मा के जाने से रिक्त हुई थी, का अध्यक्ष पद प्रदान किया गया। बनारस में ही 7 सितम्बर 1922 ई. को गुलेरी जी का निधन हुआ।
1779 ई. में कलकत्ता में छापेख़ाने की शुरुआत होने तथा कलकत्ता के राजधानी होने के कारण नवजागरण का आरंभ भी बंगाल से ही हुआ। आरंभिक पत्रकारिता की जन्मभूमि होने के कारण कलकत्ता में ही आधुनिकता का प्रवेश सबसे पहले हुआ।1845 ई. में बनारस से राजा शिवप्रसाद सिंह द्वारा प्रकाशित ‘बनारस अखबार’ हिन्दी प्रदेश से निकलने वाला प्रथम साप्ताहिक समाचार पत्र था।(1) हिन्दी नवजागरण के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए नामवर सिंह जी का कहना है कि- "कहने कि आवश्यकता
नहीं कि हिन्दू नवजागरण
मुख्यतया
‘सांस्कृतिक’ था और अधिकांश लेखन स्वदेशी संस्कृति के उत्थान को दृष्टि में रखकर किया गया। इस प्रक्रिया में अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखने के साथ ही संग्रह-त्याग की दृष्टि से उसकी निर्मम समीक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। फिर तो वेद,पुराण,धर्मशास्त्र से लेकर संतो और भक्तों सबकों इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। आत्म समीक्षा जितनी पीड़ादायक है उतनी ही जटिल भी। इसलिए यदि धर्म-तत्व-विचार की प्रक्रिया में नवजागरण कालीन लेखकों के मत और निष्कर्ष भिन्न दिखाई पड़े तो आश्चर्य न होना चाहिए। इसी प्रकार जात-पांत, धर्मों और सम्प्रदायों के आपसी सम्बंध, स्त्रीयों की स्थिति, विधवा विवाह, बाल विवाह आदि से सम्बंधित प्रश्नों पर भी हिंदी नवजागरण के लेखक एकमत न थे। किन्तु इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि पुरानी परिपाटि में कुछ न कुछ परिवर्तन और सुधार का अनुभव अधिकाश हिन्दी लेखक करते थे।”(2) इसमें कोई संदेह नहीं है कि नवजागरण कालीन सभी लेखकों ने अपने समय के सभी ज्वलंत सामाजिक प्रश्नों पर जमकर लिखा । नवजागरणकालीन लेखक मध्यमवर्ग के शहरों में आए हुए थोड़ी बहुत अंग्रेजी जानकर भी अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से बचे हुए लोग थे।
हिंदी नवजागरण के भारतेन्दूकाल के अधिकांश लेखक भी इसी विचारधारा से प्रेरित थे। लगभग प्रत्येक साहित्यकार पत्रकार था तथा पत्रकारिता ने हिन्दी खड़ी बोली गद्य को बहुत ही जल्द लोकप्रिय बना दिया था। भारत में अनुवाद का आरंभिक स्वरूप धार्मिक पुस्तकों के अनुवाद तथा ईसाई मिशनरीयों व अंग्रेज प्राच्यवादियों की देन है। फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना से अग्रेजी से हिन्दी अनुवाद की परम्परा शुरू हुई, लेकिन भारतेन्दू काल का अधिकांश अनूदित साहित्य बांग्ला और अग्रेंजी से आयातित है। ‘स्वत्व' की भावना से ओतप्रोत भारतेंदूकाल खड़ी बोली हिन्दी का बाल्यकाल था। अतएव हिंदी पत्रकारिता ने इस काल को सहारा देकर न केवल हिन्दी गद्य की विविध नवीन विधाओ को विकसित किया वरन् ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली में लेखन के लिए भी साहित्यकारों को प्रेरित किया। उदाहरण के लिए ‘सुदर्शन’ पत्रिका में प्रकाशित 'चन्द्रकांता संतति’ के धारावाहिक प्रकाशन को पढ़ने के लिए उस काल में कई लोगों ने हिन्दी सिखी थी।”(3)
गुलेरी जी मूलतः द्विवेदी
युग के लेखक है और यह युग ज्ञान साधना का युग माना जाता है। अतीत के स्वर्णिम
गौरव का स्मरण, स्वदेशी
की भावना, खड़ी बोली का मर्यादित
परिष्कार
इस काल के लेखन की विशेषता
है। गुलेरी जी भी द्विवेदी
जी की भाषा नीति से प्रभावित
और प्रेरित
थे। उन्होंने
‘सरस्वती’ पत्रिका के समानांतर ही मात्र 17 वर्ष की अवस्था में नागरी भवन, जयपुर से लाला जवाहर लाल जैन वैध के साथ मिलकर पूर्णतया समालोचना को समर्पित ‘समालोचक’ (1902-1906 ई.) पत्र निकाला। ‘उसने कहा था’ (1915 ई.) के अतिरिक्त ‘सुखमय जीवन’ और ‘बुद्धू का कांटा’ महज तीन कहानियाँ लिखकर हिन्दी कथा साहित्य में अमर होने वाले गुलेरी जी ने कछुआ धर्म, मारेसि मोंहि कुठ़ाव, ढेले चुन लो, पुरानी हिन्दी, पाणिनी की कविता, बेसिर की हिन्दी, जैसे 100 निबंध, 7 कविताएँ, सैकड़ों पत्र तथा संस्मरण लिखे है और अनूदित साहित्य का सृजन किया है। सर्जनात्मकता, ज्ञान और विनोद का साहचर्य, भाषा विज्ञान की गहरी समझ, आधुनिकता और मानववाद की समझ, सभ्यता समीक्षा, पांडित्य और सृजन का का समन्वय, यथार्थवादी साहित्य का समर्थन, हिंदी हितवर्धन, गुलेरी जी के सम्पूर्ण लेखन का प्राणतत्त्व है। गुलेरी जी के लेखन पर टिप्पणी करते हुए मस्तराम कपूर का कहना है कि "यदि सरस्वती
ने व्याकरणीय अनुशासन से एक परिनिष्ठित भाषा का विकास किया, तो 'समालोचक’ ने भी अच्छे-बुरे साहित्य की पहचान करने के लिए स्वस्थ समीक्षा के मानदंड निर्धारित किये।”(4)
गुलेरी जी ने महज 17
साल की उम्र में लेखनी संभाली और 22
वर्षों तक अनवरत लिखते रहे। जीविका के लिए दो पदों पर राजकीय सेवा में रहते हुए भी अध्ययन और लेखन की जिन उच्चाईयों
को छुआ, वह अकल्पनीय
है। मूलतः उनकी बहुआयामी विद्वता
के कारण ही उनके लेखन में ‘प्रसंग गर्भत्व’(5) की विशेषता को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रेखांकित किया है। यह ‘प्रसंग गर्भत्व’ विषय विशेष की गहरी जानकारी की अनुकूलता के कारण ही गुलेरी जी के लेखन में स्थान पाता है। एक लेख में उन्होंने लिखा भी है कि" हाय! जो संस्कृत
नहीं जानते उन्हें इसका मर्म कैसे समझाऊँ?"(6)
गुलेरी जी ने अनूदित साहित्य
का प्रकाशन
भी ‘समालोचक’ पत्रिका के माध्यम से किया है। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला तथा अंग्रेजी भाषा से अधिकांश अनुवाद किया है। अंग्रेजी प्राच्यवादियों जैसे सर विलियम जोंस, मैक्सम्यूलर के उत्तराधिकारी डॉ० बूलर, डॉ. कीलहार्न, डॉ. ग्रिर्यसन, डॉ. बी. ए. स्मिथ, डा. बर्जेस, डॉ. ल्यूडर्स, डॉ स्नूकर, सर जान मार्शल आदि अपनी प्राचीन भारतीय ज्ञान की खोज हेतु गुलेरी के अनुवादों पर ही निर्भर थे। दूसरी ओर भारतीय विद्वान जैसे डॉ. आर. जी. भण्डारकर, पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, बाबू श्यामसुन्दरदास, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, माधव मिश्र, राधाकृष्ण मिश्र, रायकृष्णदास, द्वारका प्रसाद चतुर्वेदी, मुंशी देवी प्रसाद मुंसिफ, बालमुकुन्द गुप्त, गिरिधर शर्मा, केदारनाथ पाठक, गिरिजा प्रसाद द्विवेदी, हरिनारायण पुरोहित, काशी प्रसाद जायसवाल, ज्वाला प्रसाद शर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, पद्मसिंह शर्मा जगन्नाथ चतुर्वेदी, दीनदयालू शर्मा आदि भी गुलेरी जी द्वारा किये गये पुरातात्विक, ऐतिहासिक,खगोलीय, भाषा वैज्ञानिक, प्राच्य विद्या, ज्योतिषिय, सांस्कृतिक परम्परा संबंधी अनुवादो पर निर्भर रहते थे।
गुलेरी जी की समस्त हिन्दी कृतियों
को चार भागों में बांटा जा सकता है - इतिहास,भाषा, रचना और आलोचना।”(7)उनकी कुछ रचनाएं और लेख ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ ‘सरस्वती’,‘मर्यादा’,‘प्रतिभा’ आदि तत्कालीन
पत्रिकाओं
में भी प्रकाशित
हुए है। चूंकि गुलेरी का लेखन काल ज्ञान साधना का युग था अतएव उनके द्वारा अनूदित सामग्री
भी विविध विषयों और प्राचीन
भारतीय ज्ञान परम्परा
को उद्घाटित करती है। गुलेरी जी का अनुवाद कर्म भी चार भागों में बांटा जा सकता है- मौलिक या शास्त्रीय अनुवाद, कविताओं का अनुवाद, अनूदित सामग्री की समालोचना तथा अनूदित निबंध।
गुलेरी जी ने अपने अनुवाद कौशल का परिचय 18 वर्ष की आयु में जयपुर की सौर वैद्यशाला (जंतर मंतर) के जीर्णोधार के समय दिया। उन्होंने 1901 ई. में महाराजा माधव सिंह के निर्देशानुसार सर स्विन्टन जैकब और लेफ्टिनेंट ए०एफ० गैरेट के सहयोगी के रुप में 'सम्राट सिद्धान्त’ नामक ज्योतिष ग्रंन्थ का संस्कृत से अग्रेजी में अनुवाद किया। इसके अतिरीक्त उन्होंने ज्योतिष के प्रमुख और दुरुह ग्रन्थों के विशिष्ट स्थलों का भी अंग्रेजी में प्रामाणिक अनुवाद करके वैद्यशाला के जीर्णोधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुलेरी जी के उक्त सहयोग की प्रशंसा करते हुए कर्नल जैकब ने लिखा है कि " पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने पिछले 8 महिनों से मेरे लिए जयपुर वैद्यशाला के जीर्णोद्धार हेतु कार्य किया है। इन्होंने कार्य का न केवल सक्रिय निरीक्षण किया बल्कि संस्कृत पांण्डुलिपियों तथा खगोल और ज्योतिष विषय सम्बंधी प्रामाणिक अनुवादों द्वारा सराहनीय सहयोग किया है। गुलेरी जी न केवल संस्कृत और अंग्रेजी का अद्भुत ज्ञान रखते है, वरन् खगोलशास्त्र के भी मेधावी छात्र है। में उनके सहयोग हेतु उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।"(8)
पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी अपने अनुवाद की जड़े प्राचीन भारतीय वैदिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष, पुराणों, उपनिषदों, और संस्कृत ग्रन्थों से जोड़ते हैं। उनका भाषा विज्ञान सम्बंधी अनुवाद कार्य वैदिक संस्कृत तथा अपभ्रंश के गहन अध्ययन पर आधारित है। प्राचीन ग्रंन्थों के उद्धरण अनुवाद सहित देकर वे अपने मत को पुष्ट करते हैं। ‘पुरानी हिन्दी’ संबंधी उनका उद्धरण दृष्टव्य है- "हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण (आठवें अध्याय) के उदाहरणों में एक अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी के दोहे को लीजिये। अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी में सीमारेखा बहुत ही अस्पष्ट है-
(वियोगिनी कौआ उड़ाने लगी कि मेरा पिया आता हो तो उड़ जा। इतने में उसने अचानक पिया को देख लिया। कहॉं तो वह वियोग में ऐसी दुबली थी कि हाथ बढ़ाते ही आधी चूड़ियां जमीन पर गिर पड़ी और कहॉं हर्ष से इतनी मोटी हो गई कि बाकी चूड़ियां तड़ककर चटक गई)
चारणो के मुख से कई पीढ़ियों
तक निकलते निकलते राजपूताने
में इस दोहे का अब मॅंजा हुआ रूप प्रचलित
है-
प्राचीन
शास्त्रों
के गहन अध्ययन का ही प्रभाव है कि गुलेरी जी ने अकेले तात्कालिक
भाषा विज्ञान
के विकास का क्रम ही बदल दिया। उन्होंने
विभिन्न
संस्कृत,
प्राकृत
तथा अपभ्रंश
के कवियों के लेखन को आधार बनाकर सिद्ध किया कि संस्कृत
मूलभाषा
की परिष्कृत
शाखा मात्र है। प्राकृत
से संस्कृत
का विकास हुआ है, अतएव यह आर्यो की मूल भाषा नहीं थी। उन्होंने
हिन्दी के विकासक्रम
को इस प्रकार दर्शाया
है-
मूलभाषा - छन्दस की भाषा- प्राकृत - संस्कृत - अपभ्रंश।
उन्होंने
अपभ्रंश
को ही पुरानी हिन्दी माना है। उनका शास्त्रीय
ग्रन्थों
का अनुवाद कई लेखों में देखा जा सकता है, जैसे आर्ष हिन्दी, मारेसि मोंहि कुठाव, धर्म में उपमा, कछुआ धर्म, नौरंगसाह
के नौरंग, श्रद्धा,
भारद्वाज
गृहसूत्र,
असुर्यपश्या
राजदारा,
ढे़ले चुन लो, पाणिनी की कविता, बेलावित्त,
डिंगल, रामचरितमानस
और संस्कृत
कवियों में बिंब प्रतिबिंब
भाव, छट्ट, विक्रमोर्वशी
की मूल कथा, पृथ्वीराज
विजय महाकाव्य,
योरोपियन
संस्कृत,
संस्कृत
की टिपरारी,
यूनानी प्राकृत,
सिंहल द्वीप में महाकवि कालीदास
का समाधिस्थान,
जालहंस की सुभाषित
मुक्तावली
और चंद की षड्भाषा,
वंशच्छेद,
वैदिक भाषा में प्राकृतपन
आदि। गुलेरी जी प्राचीन
दूरुह और क्लिष्ट
छंदों को भी सरल हिन्दी में अनुवादित
करके अपने मत का समर्थन करते थे। उनकी प्राचीन
शास्त्रों
में गहरी पकड़ के कारण ही अंग्रेज
प्राच्यवादी
विद्वान
उनके द्वारा किये गये अनुवादों
को ही प्रामाणिक
मानकर आगे बढ़ते थे। इस संदर्भ में हॉलैंड के विद्वान
डॉ. डब्ल्यू.
कैलाड का
1909 ई. में गुलेरी जी को लिखा पत्र दृष्टव्य
है-"
अपने
26-5-1909 के पत्र के लिए हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें। आपने विशाल हृदयता से मेरे और वैज्ञानिक शोध के हित में जो 'शतपथ' की पांडुलिपि खोज निकाली, वह प्रशंसा का विषय है। आपके यह लिखने से कि बनारस में 'कण्वसंहिता पाठ' और 'ब्राह्मण' की कुछ प्रतियाँ है, मेरी जिज्ञासा तीव्र हो गयी है। अगर इस विषय में आपकों कुछ पता चला हो, तो लिखने की कृपा करे।”(10) यहां तक की भाषा सर्वेक्षण के सुप्रसिद्ध विद्वान सर जॉन अब्राहम ग्रियर्सन सेवानिवृत होकर लन्दन रहने के दौरान भी गुलैरी जी द्वारा अनूदित लेखों को ध्यानपूर्वक पढ़ते थे। गुलेरी जी के निधन पर नागरी प्रचारिणी सभा को लिखे शोक सन्देश में उन्होंने इसका उल्लेख किया है।
अंग्रेजी और बांग्ला भाषा की कविताओं का गुलेरी जी ने बड़ी कुशलता से अनुवाद किया है। उनकी 7 कविताओं में से 4 कविताएँ अनूदित है।' एशिया की विजयादशमी’ (जापान का सीमोल्लंघन), रवि, कुसुमांजलि गुलेरी जी की मौलिक कविताएँ है। उन्होंने 'एशिया की विजयादशमी' कविता रुस पर जापान की विजय के उपलक्ष्य में लिखी थी तथा इसमें पश्चिम पर पूर्व की विजय के उल्लास को व्यक्त किया है। इसमें विदेशी शासन के विरुद्ध भारतवासियो में स्वाभिमान जगाने का भाव निहित है । इसमें बसंततिलका छंद में 16 छंद हैं। ‘रवि’ कविता ब्रजभाषा में है तथा इसमें वैदिक ज्ञान के आधार पर सूर्य की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। 'सोह्म’ शीर्षक कविता में शिक्षित वर्गो के विदेशी भाषा प्रेम पर व्यंग्य किया गया है। इसके अतिरिक्त गुलेरी जी ने कुछ स्फूट पद्य रचनाएँ संस्कृत और प्राकृत में भी लिखी है।
'झुकी कमान’ कविता अग्रेंज कवि एफ. डी. हरमन्स की कविता का अनुवाद है। प्राचीन काल में भारतीय राजा राज्य पर आई आपत्ति के समय अपने दरबार में वीर सामन्तों के सामने पान का बीड़ा घुमाते थे और प्रस्तावित अभियान का नेता बनने वाला वह
बीड़ा उठा लेता था। उसी को तिलक लगाकर उस युद्ध का अग्रणी संचालक बना दिया जाता था। अंग्रेजों में ऐसी परम्परा बताई जाती है कि ऐसे अवसरों पर वीर योद्धाओं के पास "झुकी कमान” भेजी जाती थी और उसे स्वीकार करने वाले स्वदेशाभिमानी उस अभियान में सम्मिलित होते थे। उक्त अंग्रेजी कविता और आमन्त्रण परम्परा को आधार बनाकर ही गुलेरी जी ने अपनी इस ओजस्वी रचना द्वारा स्वदेशवासियों का आह्वान किया है कि यह समय राग रंग, शिकार, कर्मकांड आदि में उलझे रहने का नहीं है। देश बलिदान मांग रहा है, सभी सज्ज-धजकर आ जाओ -
गुलेरी जी की दूसरी अनूदित कविता का शीर्षक है “पैनक बर्न” जो कि स्काटलैण्ड के कवि राबर्ट बर्न्स की कविता का अनुवाद है। 1914 ई. में एडवर्ड द्वितीय की आक्रमणकारी सेना को वीर राबर्ट ब्रूस के अधीन स्काटलैण्ड की सेना ने पैनक बर्न नामक स्थान पर बुरी तरह हराया था। उस समय का राबर्ट ब्रूस का युद्धघोष सुकवि राबर्ट बर्न्स ने ओजस्वनी भाषा में लिखा है। इसका अनुवाद करते हुए गुलेरी जी भी ओजस्वी स्वर में कहते हैं -
‘आहिताग्निका' शीर्षक कविता गुलेरी जी ने रविन्द्रनाथ ठाकुर की भानजी श्रीमती सरला देवी की उक्त शीर्षक बांग्ला में लिखित कविता से अनूदित की है। यह कविता देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत है। सरला देवी बांग्ला मासिक पत्रिका ‘भारती' की सम्पादिका थी। उन्होंने देशसेवा की प्रचंड ज्योति को प्रज्जवलित रखने के कठिन व्रत को ग्रहण किया था। जिस प्रकार आहिताग्नि याजक घर में अखंड यज्ञाग्नि को प्रदीप्त रखते है, और अनेक प्रकार के कष्ट साध्य व्रतों का पालन करते है, उसी प्रकार देश सेवा भी असिधाराव्रत है। इस अनूदित कविता में गुलेरी जी ने विदेशी वस्तु बहिष्कार और स्वदेशी ग्रहण का समर्थन किया है। गुलेरी की देशभक्ति के लिए इसका एक छन्द दृष्टव्य है-
कुल 11 शिखरिणी छंदों में बांग्ला से अनूदित इस कविता में गुलेरी के स्वदेशप्रेम तथा देशसेवा सम्बंधी निजी विचारों का दिग्दर्शन होता है। बंग भंग से उपजे स्वदेशी आंदोलन का भी प्रभाव इस अनूदित कविता में देखा जा सकता है।
इसी प्रकार ‘युवराज का स्वागत' 1905 ई. में एडवर्ड सप्तम के जेष्ठ पुत्र प्रिंस ऑफ वेल्स जार्ज भारत आए थे। सम्पूर्ण देश में उनके स्वागत की तैयारियां की गई थी। लेकिन सरकार ने उन्हे अभाव अभियोग का आभास न होने देने के लिए कड़े प्रतिबंध लगा दिये थे। लेकिन गुलेरी जी ने अपनी इस कविता द्वारा तात्कालीन भारत की दशा का वास्तविक चित्र प्रस्तुत कर ही दिया था। इसमें युवराज को भारत की गरीबी और लाचारी से खुले शब्दों में अवगत कराया गया है। प्लेग और अकाल की यातना का करुण चित्र इस कविता के 15 शार्दूलविक्रिड़ित छंदों के माध्यम से कराया गया है। एक छंद दृष्टव्य है-
उपरोक्त
अनुदित कविताओं
में गुलेरी जी ने अपने शास्त्रीय
व प्राचीन
ज्ञान साहित्य
के पांडित्य
से हटकर सहृदयता
का परिचय दिया है। अपने छन्दशास्त्रीय ज्ञान तथा खड़ी बोली का परिष्कृत रूप इन कविताओं में परिलक्षित होता है। संस्कृत तथा प्राकृत के स्फूट दोहों का भी उन्होंने यत्र तत्र अनुवाद किया है। गहरे गंभीर अध्येता के स्थान पर गुलेरी जी की स्वदेशी जागरण व देशप्रेम की कोमल भावनाएँ उनकी उक्त कविताओं में झलकती है। भाषा की गहरी समझ तथा भावनाओं की निश्चल अभिव्यक्ति उनके पद्य अनुवाद को सरस व सजीव बनाती है। समाज सुधार, नवीन व्यंग्य तथा राजनैतिक चेतना इनकी अनूदित कविताओं का प्राणतत्व है। गुलेरी जी ने यद्यपि खड़ी बोली गद्य में ही अधिक लिखा है परन्तु उनकी पद्य रचनाएँ विषय, भावनाओं और शैली की दृष्टि से उतनी ही सरस, मधुर और महत्वपूर्ण है जैसा कि उनका खड़ी बोली गद्य लेखन है।
गुलेरी जी के अनुवाद कर्म का तीसरा महत्त्वपूर्ण
पक्ष है- अनूदित सामग्री
की समालोचना।
चूंकि द्विवेदी
युग में अनुवादों,
विशेषकर
स्कूली पाठ्यक्रमों
से सम्बंधित
अनुवादो
की बाढ़ सी आ गई थी। अनुदित सामग्री
की समालोचना
गुलेरी जी उपयोगितावादी
और यथार्थवादी
दृष्टिकोण
से करते थे। 'समालोचक’ में अनूदित कृतियों
की समीक्षा
हेतु उन्होंने
‘अत्र तत्र सर्वत्र’ नाम से एक स्थायी कॉलम का प्रकाशन कर दिया था, जहाँ वे साहित्यिक कृतियों की समीक्षा अपने मापदण्डों जैसे भाषा, विषय, सामग्री, उपयोगिता, यथार्थ आदि के आधार पर करते थे। ‘समालोचक’ का ध्येय वाक्य ही नीर क्षीर विवेक का था। अतः सत्साहित्य की प्रशंसा और कुत्सित सामग्री की प्रवृति को रोकने का पूरा प्रयास गुलेरी जी करते थे। हिन्दी में पुस्तक व्यवसाय पर उनकी एक टिप्पणी तात्कालिक अनूदित पुस्तको की वास्तुस्थिति स्पष्ट करती है -" हिन्दी भाषा में पुस्तकों
की संख्या बढ़ती जाती है। परन्तु उपयोगी पुस्तके
बहुत कम प्रकाशित
होती है। प्रकाशक
दो प्रकार के हैं- एक व्यापारी,
दूसरे नाम चाहने वाले। व्यापारी
उन्ही पुस्तकों
का प्रकाशन
करता है, जिनकी बिक्री अधिक देखता है। अतः उसके द्वारा अच्छी पुस्तकों
का प्रकाशन
असंभव है क्योंकि
चाहने वाले कम है। नाम चाहने वालों द्वारा प्रकाशित
पुस्तके
प्रायः अशुद्ध और भाषा को विकृत करनेवाली
होती है।” यही कारण है कि गुलेरी जी ने सर्वप्रथम जासूसी, तिलिस्मी और ऐय्यारी वाले लेखन पर प्रहार किया तथा इन्हें यूरोपियन बिमारी के दिनों के ग्रंन्थ कहा था।
गुलेरी जी ने स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल अनूदित पुस्तकों
की भरपूर समीक्षा
की तथा नवीन अंग्रेजी
शिक्षा व्यवस्था
में भारतीय पुस्तकों
को शामिल करने की वकालत की। उन दिनों मिडिल स्कूलों
में राजा शिवप्रसाद
के बनाये हुए ‘गुटका’ नामक पुस्तक के स्थान पर 'भाषा सार संग्रह' पढ़ाया जाता था। इसकी समीक्षा करते हुए गुलेरी जी ने लिखा है कि - "पूरा संग्रह पढ़ जाने पर भी यह नहीं मालूम हुआ कि कच्ची समझ के बालकों को पढ़ाने के वास्ते उक्त गुटका आदि के स्थान पर यह संग्रह किन गुणों से योग्य समझा गया?
बालक विद्यार्थी
कच्ची मिट्टी के समान है। उनको जैसी शिक्षा देकर जिस साँचे में चाहे ढ़ाल सकते हैं। ऐसे बालकों के लिए यह पाठ्य पुस्तक क्योंकर
योग्य हुआ। --
इनमें पारलौकिक
सुखदायक
विषय खूब ढूँढ़ने
पर भी नहीं मिला। कहाँ कबीर की साखी के वह गूढ़ मर्म भरे दोहे और कहाँ टेम्स नदी पर हिम का मेला। इसे लड़के कहानी की तरह पढ़ेंगे
कुछ इससे उपदेश नहीं मिल सकता।”(15) इसी क्रम में गुलेरी जी ने भारतेन्दू हरिश्चन्द्र, भूचाल का वर्णन, राबिन्सन क्रूसो का इतिहास, वंशनगर का व्यापारी, अहिल्याबाई, सर ऐजेक न्यूटन, नीति विषयक इतिहास आदि अनूदित पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा विद्यार्थियों हेतु उपयोगिता तथा संस्कारों के आधार पर की है। तात्कालिन हिन्दी व्याकरण की दशा शोकजनक बताते हुए गुलेरी जी ने विद्यार्थियों हेतु अच्छे व्याकरण ग्रंथ की रचना हेतु बाबू श्यामसुंदर दास से आग्रह किया था। विद्यालयों में अच्छी इतिहास पुस्तक के अभाव का जिक्र उन्होंने समालोचक में किया है- "इस समय ऐतिहासिक
लोग लिखते हैं कि आर्य (हिन्दू) यहाँ के प्राचीन
निवासी नहीं है; तिब्बत से आये हैं। ऋषि लोग गोमांस खाते थे, शराब पीते थे, नदियों के किनारे रहते थे और जड़ सूर्यादिक
की स्तुति करते थे। वे उस समय ईश्वर को नहीं पहचानते थे इत्यादि
। क्या कोई इन झूठी बातो का खण्डन करके सच्चा इतिहास नहीं लिख सकता?"(16)
गुलेरी जी ने लेखक और समालोचक
में साँप और नेवले का सम्बंध माना है। इसी आधार पर वे अनूदित सामग्री
की बिना किसी लाग लपेट के समालोचना
करते थे। गुलेरी जी अंग्रेजी
शिक्षा नीति की कमियों को उजागर करने में भी आगे रहे है। उन्होंने
सरकार की
मंशा पर टिप्पणी
करते हुए लिखा है कि -
" थोड़े दिनों से शिक्षा विभाग में यह नियम हुआ है कि जो पुस्तक सरकारी स्कूलों
में पढ़ाने के लिए बनायी जाए वह अंग्रेजी
में लिखी जाकर अधिष्ठातृवर्गों की सेवा में स्वीकारार्थ अनुवाद के साथ भेजी जाए और उनसे स्वीकृत होने पर वह प्रचरित हो। रंग ढंग से ज्ञात होता है कि मूल अंग्रेजी ग्रंथ का लिखने वाला कोई भारतीय नहीं है किन्तु अनुवादक अवश्य की भारतीय सुजन है।”(17)
यहाँ यह तथ्य विचारणीय
है कि अंग्रेजी
शासन भारत में अंग्रेजी
शिक्षा व्यवस्था
के तहत मात्र अंग्रेजी
से अनूदित पुस्तकों को ही पाठ्यक्रम में शामिल करने का ही हिमायती
था। लेकिन गुलेरी जैसे बहुविषयक
ज्ञाता ने अनूदित सामग्री
की न केवल समीक्षा
की वरन् भारतीयों
को अपना पाठ्यक्रम स्वयं अपनी भाषा में तैयार करने हेतु भी प्रेरित
किया। अनूदित हिंदी पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा
के साथ-साथ गुलेरी जी भाषा, व्याकरण,
लिपि, छंद, मुहावरों,
वाक्य विन्यास
सम्बंधी
भूलो से भी अनुवादकों को अवगत कराकर शिक्षा व्यवस्था में खड़ी बोली के प्रवेश का भी मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। इसी क्रम में स्कूली पुस्तकों के तात्कालीन अनुवाद पर उनका यह व्यक्तव्य उल्लेखनीय है कि - " पब्लिक और शिक्षा विभाग के अफसर न्यायपूर्वक
विचार करे कि ऐसे परीक्षा
पत्रों से (जिन के जन्म-दाता योग्यों
में योग्य होने के कारण ही परीक्षक
बनाए जाते होगें और जिन लोगों को लोग साहित्यांग
सम्पन्न
काव्य का नमूना मान सकते हैं) साहित्य
के साथ और परीक्षित
विधार्थियों
के साथ कितना बड़ा और सन्ताप जनक अन्याय होता है। परीक्षक
महाशय भी विचार करे कि साहित्य,
व्याकरण
और लिपि सम्बधी त्रिदोषान्वित, कठोरता, असावधानता और अकविता के सन्निपात से निर्मित परीक्षापत्रो से न उनको यश मिल सकता है और न हिन्दी को कीर्ति मिल सकती है।”(18)
वस्तुतः
अनुवाद शास्त्र के नियमों के अभाव तथा सैद्धान्तिक अनुवादों का शुरुआती दौर लेखकों के विषय सम्बंधी ज्ञान और मनमानी खैचतानी पर ही निर्भर था। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के दौरान खड़ी बोली के वाक्य विन्यासों को दृष्टिगत बहुत कम लेखक रखते थे। यही कारण है कि गुलेरी जी को ‘अनुवादों की बाढ़’ शीर्षक लेख में व्यंग्य पूर्वक लिखना पड़ा कि "एक हिन्दी शब्द संस्कृत
के एक धातु के तद्भव के न रखने से अनुवाद खंडित हो गया। किन्तु अच्छा हुआ, हिंदी सामवेद की तरह पादपूर्ति
का उद्योग नहीं किया गया। पुराना मजाक है कि छन्द न पूरा होता हो तो च, बै, तु, ह से पूरा कर दो। हिंदी सामवेद का तकिया कलाम ‘श्री’ है, जहाँ अक्षर घटा वहाँ ‘श्री’ ठूंस दो।”(19) कहना न होगा कि गुलेरी जी हिंदी के आरंभिक अनूदित साहित्य में भाषा और व्याकरण सम्बंधी प्रमाद से खिन्न रहते थे। उनके कई निबंध जैसे अमंगल के स्थान पर मगंल शब्द, आर्ष हिन्दी, हिंदी के अनुवादकर्ता, हिन्दी साहित्य, क्रियाहीन हिन्दी, बेसिर की हिन्दी, झख मारना, खुब तमाशा आदि खड़ी बोली में हो रहे मनमाने अनुवादों पर लगाम लगाने के निमित्त ही लिखे गए है। तात्कालिक अनुवाद साहित्य में फैली अराजकता पर टिप्पणी करते हुए गुलेरी जी ने लिखा है कि "ग्रन्थ लेखक की अनुमति न लेकर अनुवाद करना तो आधुनिक हिन्दी लेखकों को एक ऐसा रोग हो गया है जिसकी कोई दवा नहीं मिलती। किसी तीव्र औषधि का प्रयोग न होने के कारण व्याधि भी दिन दिन बढ़ती जाती है। बंगभाषा
के भण्डार से चोरी करके ही इन लोगों की ग्रन्थकार
कहलाने की विकट लालसा पूर्ण हो रही है।”(20)
गुलेरी जी ने अपने कुछ निबंधों
का अनुवाद प्राचीन
भारतीय ज्ञान परम्परा
तथा आधुनिक अंग्रेजी
भाषा से भी किया है। ऐसे अनूदित निबंधों
में उन्होने
पौराणिक,
ऐतिहासिक,
पुरातात्विक,
ज्योतिषिय,
खगोल शास्त्रीय,
वैदिक, भाषा विज्ञान,
प्राच्यविद्या, विज्ञान आदि से तथ्य लेकर उनका अनुवाद के साथ विस्तार किया है। उन्होंने आधुनिक अंग्रेजी सभ्यता के समक्ष प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति को उच्चकोटि की बताया है।
गुलेरी जी ने पाश्चात्य सभ्यता को बर्बर तथा मशीनी सभ्यता करार दिया है। उनका यह स्पष्ट मत था कि प्राचीन भारतीय एकता और संस्कृति का प्राणतत्व ज्ञान की साधना है। इसी ज्ञान साधना के बल पर ही कई आक्रमणों को झेलने के बाद भी भारतीय मनीषा आज भी विकसीत और पल्लवित हो रही है। अपने अनुदित निबन्धों में गुलेरी जी भारतीय सभ्यता के समीक्षक और एक साँस्कृतिक नेता के रूप में दिखाई पड़ते हैं। उनके सरोकार प्राचीन भारतीय ज्ञान साधना से लेकर वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति तक दिखाई पड़ते हैं। उनके अनूदित निबंधों में सुकन्या की वैदिक कहानी, पुनःशैण की कहानी, पृथु वैन्य का अभिषेक, मनुवैवस्वत, पुराने राजाओं की गाथाएँ, वाजपेय, राजसूय, अश्वमेध, सौत्रामणि का अभिषेक, चाणूरअँध, महर्षि च्वयन का रामायण, विक्रमोर्वशी की मूल कथा, देवकुल, शैशुनाक की मूर्तियां, बौद्धों के काल में भारतवर्ष, राजाओं की नियत से बरकत, पुरानी पगड़ी, खसों के हाथ मे ध्रुवस्वामिनी, पश्चिमी क्षत्रपों के नामों में घस यस, कादम्बरी के उत्तरार्द्धकर्ता, कादम्बरी और दशकुमार चरित के उत्तरार्द्ध, तुताति कुमारिल, न्याय घंटा, पंचमहाशब्द, अवंतिसुन्दरी, चारण और भाटो का झगड़ा, सवाई, राजाओं की चिट्ठियां, पृथ्वीराज विजय महाकाव्य, जयसिंह प्रकाश, सिंहलद्वीप में कालिदास का समाधिस्थान, होली की ठिठोली व एप्रिलफूल, शिक्षा के आदर्शो में परिवर्तन, खेल भी शिक्षा है, जोड़ा हुआ सोना, पारसी लोगों का भारत आना, लाखा फूलाणी का मारा जाना, धर्म परायण रीछ, काशी की नींद और काशी के नुपूर, लायलपुर के बछड़े, दूध के पैगम्बर, असूर्यपश्य राजद्वारा, पुराना व्यापार, श्रद्धा, व्यय, आँख, विरामण की सरवण की, वेलावित, कलकते का अशोकारिष्ट, धर्म और समाज, आचार्य सत्यव्रत सामश्रमी, कस्तुरीमृग आदि प्रमुख है। गुलेरी जी के लेख और निबन्ध उस समय की प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिकाओं रुपम और एंटीकेवरी में भी छपते थे। कुछ निबन्धों को गुलेरी जी ने अग्रेजी में भी छपवाया है, जैसे- ए साउण्ड भोलाराम, ककातिका मॉक्स, आन शिवाभागवत इन पंतजलि महाभाष्य, दि रियल आथर ऑफ जयमंगला, ए कामेंटरी आन वात्स्यायनस् कामसूत्र, दि लिटरेरी क्रिटिसिज्म, ए पोइम बाय भास, दि जयपुर आब्जर्वेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स आदि।
निष्कर्ष : सारांश में कहा जा सकता है कि पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का कथा साहित्य और निबन्ध संसार गंभीर ज्ञान के चर्मोत्कर्ष व प्रसंगगर्भत्व से ओतप्रोत है, वही उनके अनुवाद साहित्य में खड़ी बोली कविता की सरसता, पूर्व और पश्चिम की संस्कृति का समन्वय और प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा की उत्कृष्टता के दर्शन होते है। गुलेरी जी का अनुवाद कर्म पुरातन परम्पराओं और नवीन पाश्चात्य वैज्ञानिकता और आधुनिकता का संगम है। हांलाकि राजकीय सेवा सम्बंधी बाध्यता के कारण वे अधिकांश लेखन गुप्त रूप से या छद्म नामों से करते थे, फिर भी उनकी शैली की वक्रता उनका लेखन उजागर कर देती थी।
वर्तमान
में आवश्यकता
है कि गुलेरी जी की समकालीन
पत्र पत्रिकाओं
में छपे उनके साहित्य
को रेखांकित
करते हुए अनुवाद साहित्य
के आरंभिक स्वरूप और खड़ी बोली को दिए गए उनके योगदान से साहित्य
मनीषियों
को अवगत कराया जाय ।
1. रमेश चन्द्र जैन, हिन्दी पत्रकारिता का आलोचनात्मक इतिहास, हंसा प्रकाशन, जयपुर, संस्करण 1987ई., पृष्ठ- 44
आलोचक
ashokmeenajnu@gmail.com
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