भारतीय भाषाओं का अंतः संबंध; अनुवाद के जरिए (केरल के विशेष संदर्भ में)सुप्रिया पी.

भारतीय भाषाओं का अंतः संबंध; अनुवाद के जरिए
 (केरल के विशेष संदर्भ में)
- सुप्रिया पी.

शोध सार : भारत की 22 भाषाओं के साहित्य को जोड़ने का कार्य अनुवाद करता है। उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक की भाषाएँ एवं साहित्य, देश की संस्कृति एवं वैचारिकता का संवाहक है। इन भाषाओं के बीच के अंत:संबंध को उजागर करने में अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण है। भारतीय भाषाओं के बीच की दूरियाँ और अजनबीपन को मिटाने में अनुवाद माध्यम है, इसमें विद्वानों में मतभेद नहीं है। आज़ादी के दौर से लेकर अब तक कई सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाएँ भारतीय साहित्य के अंत:संबंध को मजबूत बनाने में योगदान दे रहे हैं। दक्षिण भारत में केरल राज्य में अनुवाद के ज़रिए मलयालम और हिन्दी भाषा के बीच जो संबंध सुदृढ़ हुए है उसमें हिन्दी के आरंभिक प्रचारकों, हिन्दी प्रेमियों, अनुवादकों और कई साहित्यिक संस्थाओं की भूमिका अहम् रही है। प्रस्तुत आलेख में हिन्दी और मलयालम भाषा को केंद्र में रखकर भारतीय भाषाओं के अंत:संबंध में अनुवाद की भूमिका पर विचार किया गया है। मलयालम और हिन्दी के बीच के अंत:सांस्कृतिक एवं अंत;भाषिक संप्रेषण पर चर्चा की गई है।       

बीज शब्द : अनुवाद, सांस्कृतिक समन्वय, विश्वसंस्कृति, स्त्रोत भाषा, लक्ष्य भाषा, सेतू भाषा, सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाएँ, भारतीय ज्ञानपीठ, बृहद शब्दकोश, तुलनात्मक अध्ययन, अंत:सांस्कृतिक एवं अंत:भाषिक संप्रेषण। 

मूल आलेख : भारतीय साहित्य यद्यपि कई भाषाओं में लिखा जाता है, मगर उसकी आत्मा एक है। भारत एक बहुभाषी देश है और भारत की विभिन्न भाषाएँ देश की भाषिक समृद्धि की प्रतीक है। भारत में 22 स्वीकृत भाषाएँ हैं और प्रत्येक में स्वीकृत और जीवंत साहित्य है। लेकिन इसके बावजूद प्रत्येक साहित्य में व्यक्त विचार, भाव और संवेदनाएँ समान है। इन भाषाओं में रचे गए साहित्य में संवाद स्थापित कर भारत की संस्कृति को पारदर्शी बनाना जरूरी है और यह संवाद अनुवाद के सेतु से ही संभव है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय भाषाओं के बीच अंतःसंबंध बढ़ गया है और इस अंतःसंबंध से आपसी पहचान बढ़ी है। सांस्कृतिक समन्वय के लक्ष्य की पूर्ति में इस पहचान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पंडित नेहरु इस सन्दर्भ में कहते हैं – “भारत की समस्त भाषाओं की जड़ें तथा प्रेरणाएँ अधिकांशत एक-सी हैं और जिस मानसिक परिवेश में उनका विकास हुआ है, एक-सा ही है। भारत का प्रत्येक साहित्य - चाहे वह हिन्दी, उर्दू, तेलुगू, तमिल, मलयालम, गुजराती, मराठी अथवा बंगला, उड़िया या असमिया किसी भी भाषा में हो, समग्र रूप से देश की वैचारिकता और संस्कृति का एक प्रकार से प्रतिनिधित्व करता है।”1 भारत की प्रत्येक भाषा के साहित्य में सामाजिक विषयवस्तु की दृष्टि से समानता पाई जाती है।  

विश्वसंस्कृति के विकास में अनुवाद के योगदान को भी विद्वानों ने स्वीकृति दी हैं। धर्म और दर्शन, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी, वाणिज्य एवं व्यवसाय, राजनीति एवं कूटनीति जैसे संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का अनुवाद से अभिन्न संबंध है। प्रख्यात अनुवाद चिन्तक प्रो. जी. गोपीनाथन इसके समर्थन में कहते हैं, “अनुवाद एक ऐसा सेतु बंधन का कार्य है जिसके बिना विश्वसंस्कृति का विकास संभव नहीं है। अनुवाद के द्वारा हम मानव के इस विश्व कुटुम्ब में संपूर्ण एकता एवं समझदारी की भावना विकसित कर सकते हैं, मैत्री एवं भाईचारे को विकसित कर सकते हैं और गुटबंदी, संकुचित प्रांतीयतावाद आदि से मुक्त होकर मानवीय एकता के मूल बिंदु तक पहुँच सकते हैं।”2

देश की विभिन्न भाषाओं में वैभवशाली संपदा बिखरी पड़ी है। ‘भाषाओं के बीच के अजनबीपन’ के दीवार को तोड़ने का महत्त कार्य अनुवाद कर रही है। दक्षिण के लेखक एवं अनुवाद चिंतक डॉ. आरसु इस स्थिति को स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार, “इस विशाल देश के सांस्कृतिक तत्वों को एक ही समय अनेक भाषाओं में अभिव्यक्ति मिलती है। किन्तु एक भाषा के साहित्य से दूसरी भाषाओं के पाठक अक्सर अपरिचित रहते हैं। इस अजनबीपन की दीवार को तोड़ना अनुवादक का काम हैं। विनाश और विध्वंस के लक्ष्य से हम इस दीवार को नहीं तोड़ते हैं। मानवता के उत्कर्ष का उद्देश्य उसके पीछे है।”3 इसी अजनबीपन को अनुवाद चिन्तक श्री संतोष खन्ना ‘भाषाओं के अपरिचय का कुहासा’ कहते है। वे कहते हैं, “भाषाओं के अपरिचय के कुहासे में भारतीय साहित्य में प्रतिपादित समरसता, सामंजस्य और सहिष्णुता जैसे मानवीय मूल्यों के मूल स्वर सभी तक नहीं पहुँच पाते। संवादहीनता की स्थिति कहीं भी कभी सुख नहीं देती, साहित्य में तो बिल्कुल नहीं। इसलिए भारतीय भाषाओं के साहित्य के बीच अनुवाद के माध्यम से संवाद स्थापित कर उसके मूल स्वर को सबके समक्ष उद्घाटित किया जाना चाहिए।”4 

अनुवाद भारतीय भाषाओं को जोड़ती हैं, यदि अनुवाद नहीं होता तो भिन्न भाषा-भाषियों के बीच के भाव-भावनाएँ-अनुभव एवं विचार कदापि अन्य भाषा-भाषियों तक न पहुँच पाते। अनुवाद को मूल सृजन से भी ऊँचे स्तर का कार्य बताते हुए अनुवाद चिन्तक हरीश कुमार सेठी कहते हैं, “अनुवाद मूल सृजन से भी ऊँचे स्तर तक पहुँच जाता है। दो समाजों-संस्कृतियों, परिवेशों एवं भाषाओं के बीच का यह संवाद-सूत्र, अज्ञात को ज्ञात, अपरिचित को परिचित एवं भिन्न को अभिन्न बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयत्न करता है –

भाषा की सौन्दर्य चेतना

दर्शाता अनुवाद है।

दो भाषाओं से आपस का

यह प्यारा संवाद है।”5

अनुवाद के लिए केवल भाषा पर अधिकार काफी नहीं है। संस्कृति के गहन तत्वों को भी जानकर अनुवाद करना है। तब भारतीयता की समग्र छवि से हम अवगत हो सकेंगे। भाषा कोई भी हो, मूल रूप से हम हैं तो भारतीय, इसलिए अगर हमें हर प्रदेश के लोगों के बारे में जानना है तो उनका साहित्य पढ़ना होगा। सारी भाषाएँ तो सीखीं नहीं जा सकतीं, अनुवाद के जरिए ही यह काम हो सकता है। एक भाषा की कृति का 22 भाषाओं में पाठक होना है तो उसका अनुवाद होना जरूरी है। ‘स्त्रोत’ भाषा और ‘लक्ष्य’ भाषा के बीच एक ‘सेतू’ भाषा का होना अनिवार्य है और प्रत्यक्ष में दो भाषाओं को जोड़ने के लिए तीन भाषाओं को जोड़ना होगा और वह तीसरी भाषा ‘सेतू भाषा’ कहलाती है। उदाहरण के तौर पर, किसी कश्मीरी रचना का अनुवाद यदि मलयालम में करना है तो हिन्दी वहाँ ‘सेतू’ भाषा बनती है।

भारतीय साहित्य का अंतसंबंध राष्ट्रीय आंदोलन युग में अधिक मजबूत बन गया था। आज़ादी के बाद अनुवाद के क्षेत्र में तीव्र प्रगति हुई है। राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र अनुराग की कविताएँ सारी भारतीय भाषाओं में लिखी गयी। भारतीय भाषाओं को अनुवाद से जोड़ने की अनिवार्यता भी लोग तब समझने लगे। आजादी के बाद कई सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं का उदय हुआ जो भारतीय साहित्य को एक इकाई के रूप में देखने का प्रयास करती है। सरकार द्वारा भारतीय साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों को पुरस्कृत करने से अंतःसंबंध की कड़ी मजबूत हुई है। आज केंद्रीय साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञानपीठ, के. के. बिड़ला फाउंडेशन, जोशुआ फाउंडेशन, भारतीय भाषा परिषद इस क्षेत्र में सक्रिय है। भारतीय साहित्य की पहचान के विराट लक्ष्य की पूर्ति में कई संस्थाएँ आज कार्यरत हैं। कुछ संस्थाएँ इस दिशा में स्वतंत्रता-प्राप्ति के पहले से ही कार्य कर रही हैं। उनकी सेवा आज भी जारी है। इन संस्थाओं में भारतीय ज्ञानपीठ को अग्रिम स्थान प्राप्त है। 1944 में अस्तित्व में आई इस संस्था का कार्यक्षेत्र कालांतर में व्यापक बनता गया। शुरू में प्राचीन साहित्य के संरक्षण के लिए प्रयत्नरत इस संस्था का ध्यान बाद में समकालीन साहित्य की श्रीवृद्धि की ओर भी गया। ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में एक मील का पत्थर बन गया। साहित्यकार अज्ञेय जी कहते हैं – “ज्ञानपीठ पुरस्कार से एक संभाव्य लाभ यह है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य पर अलग-अलग विचार न करके उन्हें एक देशव्यापी प्रतिमान दिया जा सकता है। यह साहित्यिक विकास के मूल्यांकन के लिए भी अच्छा है और स्वयं प्रादेशिक प्रतिमानों की परख के लिए भी।”6 भारतीय ज्ञानपीठ भारतीय भाषाओं की उत्कृष्ट कृतियों को पुरस्कृत कर भारतीय भाषाओं के बीच मैत्री और सद्भाव लाने में सफल हुई है। साहित्य अकादमी की गतिविधियों का व्यापक प्रभाव भारतीय साहित्य पर पड़ा। देश में भाषाओं के बीच का रिश्ता अधिक मजबूत बन गया। पुरस्कार- अनुवाद प्रकाशन, संगोष्ठियाँ, पत्रिकाएँ आदि की व्यवस्था करके अकादमी ने भारतीय भाषाओं के अंतर्संबंध को दृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आकाशवाणी हर वर्ष 26 जनवरी को सभी भारतीय भाषाओं की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद प्रसारित करती हैं। मूल कविता का पाठ स्थानीय भाषा में और फिर हिन्दी में किया जाता है। यह कार्यक्रम ‘सर्वभाषा कवि सम्मलेन’ के नाम से जाना जाता है। 

दक्षिण भारत के सभी राज्यों में स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान हिन्दी का प्रचार-प्रसार हुआ। केरल राज्य ने भी हिन्दी को पूरी निष्ठा के साथ स्वीकार किया। दक्षिण में तेलुगू, तमिल, मलयालम और कन्नड़ में हिन्दी के अनेक अनुवाद हुए हैं। हिन्दी भाषा की अनेक कृतियों के अनुवाद मलयालम में प्रकाशित हुए हैं। प्रारंभिक हिन्दी प्रचारकों ने इस कर्म को समर्पण मनोभाव से किया। हिन्दी और दक्षिण की भाषा मलयालम को जोड़ने के कार्य के साथ-साथ मलयालम के साहित्य को समृद्ध करना भी इन प्रचारक अनुवादकों का लक्ष्य रहा। मलयालम में पिछले दशकों में अच्छे हिन्दी साहित्य का अनुवाद हो रहा है। महाकाव्य में ‘रामचरितमानस’ से लेकर आधुनिक हिन्दी की विविध विधाओं के साहित्य से मलयालम के पाठक परिचित हैं। प्रेमचंद, जैनेंद्र, यशपाल, भीष्म साहनी, रेणु, भगवतीचरण वर्मा, वृंदावनलाल वर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि के साहित्य से मलयालम के पाठक परिचित हुए। मलयालम के वल्लत्तोल, जी.शंकर कुरुप, सुगत कुमारी, बालामणि अम्मा, अय्यप्प पणिकर, अखित्तम जैसे कवियों से आज हिन्दी समाज परिचित है तो उसका श्रेय अनुवाद को है। भाषाओं के बीच कड़ी बनते हुए अनुवाद सांस्कृतिक आदान-प्रदान का महत्त कार्य करती है। 

            हिन्दी सहित्य की कई मौलिक कृतियों के अनुवाद के साथ-साथ तुलनात्मक अध्ययन का कार्यक्षेत्र भी खुला। हिन्दी भाषियों और मलयालम भाषियों को विपुल मात्रा में इससे लाभ मिला। दिवाकरन पोट्टी के सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को प्रेमचंद के साहित्य ने प्रभावित किया था। प्रेमचंद के संपूर्ण उपन्यास साहित्य का अनुवाद ‘प्रेमचंद प्रचारक’ बनकर इन्होंने मलयालम में प्रस्तुत किया। हिन्दी भाषा की कृतियों का अनुवाद मलयालम में आए जिससे मलयालम पाठक लाभान्वित हुए। ‘मातृभूमि’ साप्ताहिक के संपादक एन. वी. कृष्ण वारियार ने हिन्दी के माध्यम से भारतीय कहानियों का अनुवाद तैयार करके ‘गणतंत्र विशेषांक’ निकाला। ज्ञानपीठ पुरस्कृत जी. शंकरन कुरूप की कविताओं की विशिष्टता से उन्होंने हिन्दी पाठकों को परिचित कराया। जी.एन. पिल्लै ने प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कृत जी.शंकरन कुरुप के ‘ओटक्कुषल’ का हिन्दी अनुवाद तथा सुमित्रानंदन पंत के ‘चिदंबरा’ का अनुवाद मलयालम में प्रस्तुत किया। के. रवि वर्मा ने बशीर, बालामणि अम्मा, इटश्शेरी की रचनाओं का मलयालम से हिन्दी में अनुवाद किया तथा हिन्दी से प्रेमचंद, वृंदावनलाल वर्मा की रचनाओं का अनुवाद मलयालम में किया। हिन्दी के माध्यम से बंगला सीखकर रवि वर्मा ने ताराशंकर बंदोपाध्याय, विभूतिनारायण, आशापूर्णा देवी, जरासंध की रचनाओं का बंगला से मलयालम में अनुवाद किया। गांधीयुगीन हिन्दी सेवी तथा अनुवादक अभयदेव ने हिन्दी-मलयालम बृहद शब्दकोश का निर्माण किया। फादर कामिल बुल्के कृत ‘रामकथा उत्त्पति और विकास’ ग्रंथ का अनुवाद मलयालम में उन्होंने किया। चाततुकुट्टी मास्टर ने कुमारनाशान कृत खंडकाव्य ‘वीनापूव’ का हिन्दी अनुवाद किया। हरिवंशराय बच्चन के ‘मधुशाला’, सरोजिनी नायडू की कविता ‘Coromandel Fishes’ का मलयालम अनुवाद प्रस्तुत किया। तत्तोत बालकृष्णन ने रामचंद्र शुक्ल के ‘चिंतामणि’ के निबंधों का मलयालम में अनुवाद किया। हिन्दी के अनुवाद को मुख्य कड़ी बनाकर भारतीय साहित्य की अवधारणा को मजबूत बनाने का आह्वान हुआ। हिन्दी एक माध्यम बनकर भारतीय भाषाओं को जोड़ने का काम कर रही है।

            प्रत्येक भाषा का साहित्य उस समाज में होने वाले सांस्कृतिक परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करता है। किसी एक भाषा में प्रयुक्त अनेक शब्दों की अभिव्यक्ति का अन्य भाषा में संपूर्ण साम्य होना मुश्किल हो सकता है। शब्द के केंद्रीय भाव और अभिव्यंजना को सटीक अभिव्यक्ति दूसरी भाषा में प्राय: नहीं मिल पाता। संस्कृति-गर्भित साहित्य के अनुवाद में यह कठिनाई स्वाभाविक है। मलयालम और हिन्दी के कुछ उदाहरणों के माध्यम से आधुनिक साहित्य का अंत:सांस्कृतिक संप्रेषण एवं अंत:भाषिक संप्रेषण पर आगे चर्चा होगी। सांस्कृतिक शब्दों के अनुवाद में जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं वे कुछ अभिव्यक्तियों के अनुवाद से समझना होगा। उदाहरण के लिए, मलयालम शब्द ‘कायल’। कायल वह झील है जो नदी के माध्यम से समुद्र से जुड़ीं होती हैं, अर्थात समुद्र और नदी के बीच की कड़ी होती है। इसका अनुवाद हिन्दी में अगर ‘झील’ कर दिया जाए तो ‘कायल’ शब्द की पूर्ण अवधारणा स्पष्ट नहीं हो पाएगी। सांस्कृतिक भिन्नताओं के कारण अनुवाद में इस तरह की समस्याएँ आती हैं। संस्कृति के संदर्भ में प्रदेश की वेशभूषा का भी विशेष महत्व है जो अनुवाद में काफी कठिनाई पैदा करते हैं। केरल में स्त्रियाँ जो वस्त्र पहनती हैं उसे ‘वेष्टि-मुंड’ कहते है जिसको आमतौर पर हिन्दी में केवल ‘साड़ी’ शब्द में समेट लिया जाता है। अन्य भाषाओं में कोई ऐसी वेशभूषा नहीं होने के कारण इसका समतुल्य शब्द नहीं मिलता। ऐसे सन्दर्भों  में अनुवादक को समतुल्य शब्द खोज कर प्रयोग करना होता है जो पाठक को बोधगम्य हो। इसी प्रकार, खानपान की भिन्नता के कारण केरल के कुछ व्यंजन जैसे, पुट्ट, इडीअप्पम आदि का प्रतिस्थापन करना असंभव हो जाता है। ‘व्यंजन विशेष शब्द जोड़कर अनुवाद में इन शब्दों का प्रयोग सटीक रहेगा।

किसी भी भाषा के मुहावरों और लोकोक्तियों में भी उस समाज की सांस्कृतिक विशेषताएँ झलकती हैं। उन्हें प्रभावी ढंग से अनुवाद कर लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करना एक दुष्कर कार्य है। कभी-कभी लक्ष्य भाषा में शब्द स्तर और अर्थ स्तर पर समानताएँ रखने वाले मुहावरे उपलब्ध न हो तो अनुवादक को शब्द स्तर को छोड़कर अर्थ स्तर पर सामान्य रखने वाले मुहावरों को खोज कर गढ़ लेना चाहिए। लेकिन इतना होने पर भी अनुवादक मुहावरों की समस्याओं से बच नहीं पाते हैं क्योंकि अक्सर लक्ष्य भाषा में अर्थ स्तर पर समानार्थी मुहावरे मिल नहीं पाते। ऐसे सन्दर्भों में अनुवादक को मुहावरों के अनुवाद में सरल शब्दों में सिर्फ भाव स्पष्ट करना सही रहेगा। मलयालम और हिन्दी में अर्थ स्तर पर समानताएँ रखने वाले कई मुहावरे हैं, उदाहरण के लिए - 

पकरतिन्नु पकरम - जैसे को तैसा

कन्निल पोडीइडुका - आँखों में धूल झोंकना

मुंदिरी पुलीक्कुम- अंगूर खट्टे होना 

भाव स्तर पर समानताएँ रखनेवाले कुछ मुहावरे इस प्रकार हैं -

पच्च कल (हरा झूठा) - सफेद झूठ

मिंडा पूच्चा (मौन बिल्ली) - छुपा रुस्तम

              सांस्कृतिक संदर्भों में देखें तो ऐसे कई मुहावरे मिल जाते हैं जो उस भाषा के स्थान से संबंधित होते हैं। ऐसे मुहावरों का शाब्दिक स्तर पर अनुवाद किया जाए तो हास्यास्पद हो जाएगा, उदाहरण के लिए – ‘कुतिरवटटतु कोंडूपोवुका’। कुतिरवटटम केरल की एक जगह का नाम है जहाँ पागलखाना स्थित है। ‘कुतिरवटटतु कोंडूपोवुका’ का मतलब ‘पागल खाने में भर्ती करना’ से है। हिन्दी में इस प्रयोग को उसी भाव से ले आना अत्यंत कठिन होगा।

            इन सांस्कृतिक उपादानों के अनुवाद की विडंबना ही है कि कई भारतीय भाषाओं की उत्कृष्ट कृतियाँ अपनी भाषा के दायरे तक सीमित रह जाते है। उनको वह उपलब्धि नहीं मिलती जिसके वह हकदार हैं। मलयालम के लोकप्रिय कथाकार एम. टी. वासुदेवन नायर इस विडंबना की ओर इशारा करते हैं -मलयालम के कवि वैलोपिल्ली श्रीधर मेनोन की काव्यकृति ‘कुडिओयिक्कल को मैं पिछले पचास वर्षों की श्रेष्ठ कृतियों में शामिल करूंगा। हमारी भाषाओं में गहरे अर्थ रखने वाली कई कृतियाँ आई हैं। लेकिन अपनी कृतियों के महत्व को हम दूसरों के सामने लाने में असफल हो गए हैं। डरेक बावकोट और नजीब मेहफूज जैसे लेखकों को भी नोबेल पुरस्कार मिले हैं। मैं इनका अवमूल्यन नहीं कर रहा हूँ। असल में इनके टक्कर के कई लेखक भारत में है। अच्छे अनुवाद ना आने के कारण हमारी कृतियों पर दूसरों का ध्यान नहीं जाता है। यही भारतीय साहित्य की एक विडंबना है। अनुवाद को कारगर बनाना समय की मांग हैं।”7

भाषाओं के बीच संबंध जोड़ते हुए हिन्दी और मलयालम की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन आरंभ हुआ। हिन्दी साहित्य के मुख्य साहित्यिक प्रवृतियों का अध्ययन होने लगा। चाततुकुट्टी मास्टर ने महादेवी की कविता ‘मुरझाया फूल’ और ‘वीणा पूव’ का भावस्तरीय मूल्यांकन प्रस्तुत किया। एन. वी. कृष्णवारियार ने बंगला के उपन्यास ‘पद्मानदीर माछी रे’ और मलयालम के ‘चेम्मीन’ की तुलना प्रस्तुत की। डॉ. विश्वनाथ अय्यर के शोध का विषय ‘हिन्दी और मलयालम की काव्य प्रवृतियों का तुलनात्मक अध्ययन’ था। केरल में हिन्दी में प्रथम शोध उपाधि प्राप्त करने वाले डॉ. के. भास्करन नायर ने ‘मलयालम और हिन्दी के कृष्ण भक्ति काव्य’ पर अनुसन्धान किया। प्रो. वी.ए. केशवन नम्बूदिरी अपनी कक्षाओं में तुलसी-तुंचन, सूर-चेरुशेरी और कबीर-पून्तानम की तुलना करके कविता पढ़ाते थे। लेखक-अनुवादक डॉ. आरसु अनुवाद के माध्यम से हिन्दी और मलयालम के जुड़ने की प्रक्रिया को फूल और हवा के उपमा से कुछ इस तरह समझाते है, “हिन्दी केरलवासियों के लिए एक अर्जित भाषा है। यहाँ की मातृभाषा मलयालम है। इस भाषा की साहित्यिक रचनाओं की अपनी एक अलग चहक-चमक और महक है। फूल में सुगंध होती है, वह फूल की निजी संपत्ति है। लेकिन जब हवा बहने लगती है, सुमन की सुरभि वातावरण को सुगंधित कर देती है। तब वह निजी संपत्ति शनैः शनैः सर्वसाधारण की संपत्ति बन जाती है।”8 अनुवाद के माध्यम से ये हिन्दी भाषा पाठकों तक पहुँचती है। मूल रचनाकारों को दूसरी भाषा के पाठक मिलते हैं तो सोच की परिधि भी बढ़ती है। हिन्दी के माध्यम से यह रचनाएँ अन्य भाषा भाषियों में भी प्रसारित हो जाए तो अतिरिक्त प्रोत्साहन तथा प्रयोजन भी सिद्ध होगा। दूसरी भाषाओं के पाठकों को भी मलयालम भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति के संबंध में जानकारी मिलेगी।  

केरल में ‘भाषा समन्वय वेदी’ एक ऐसी साहित्यिक संस्था है जो भारतीय भाषाओं को अनुवाद के माध्यम से संबद्ध रखती है। ‘भाषा समन्वय वेदी’ सहोदर भाषाओं के संबंध जोड़कर अनेक कहानी चयनिकाएँ प्रकाशित करती रहती हैं। दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अब तक कश्मीरी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, कोंकणी, राजस्थानी, असमिया, नेपाली और सिन्धी भाषाओं की चयनिकाएँ प्रकाशित हैं। हिन्दी भाषा यहाँ सेतु भाषा रही है। हर वर्ष 26 जनवरी को ‘भारतीय काव्योत्सव’ का आयोजन होता हैं जिसमें 25 भारतीय भाषाओं का काव्य प्रस्तुति अनुवाद के जरिए एक मंच पर होता है। भारतीय साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार इस कार्यक्रम में अतिथि के रूप में पधारते हैं। इसके साथ ही देश भर की विभिन्न पत्रिकाओं में समय-समय पर मलयालम विशेषांक प्रकाशित हुए हैं। समावर्तन, उम्मीद, छतीसगढ़ टुडे, नवनिकष, सद्भावना दर्पण, युग-स्पंदन, वर्तमान जनगाथा इनमें प्रमुख हैं। इनके माध्यम से मलयालम साहित्य की प्रव्रत्तियों और प्रणेताओं से हिन्दी पाठकों का परिचय होता है।       

अनुवाद के सिद्धांत एवं व्यवहारिक पक्ष पर हिन्दी क्षेत्र से कई महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुए हैं। सुदूर अहिन्दी प्रदेश केरल से भी अनुवाद केन्द्रित रचनाएँ सामने आई। इनमें प्रमुख हैं – जी. नीलकंठन नायर की ‘अनुवाद मंजुषा (1941), डॉ. एन.ई. विश्वनाथ अय्यर की ‘अनुवाद चंद्रिका (1949), ‘अनुवाद मंजरी (1950), ‘अनुवाद कला (1986), ‘अनुवाद भाषाएँ समस्याएँ’ (1986),’व्यावहारिक अनुवाद(2006);  जी. गोपीनाथन की ‘अनुवाद सिद्धांत एवं प्रयोग(1985)  एवं ‘अनुवाद की समस्याएँ’ (1993), डॉ. आरसु की ‘साहित्यानुवाद: संवाद और संवेदना’ (1995), ‘अनुवाद : अनुभव और अवदान’ (2003), ‘अनुवाद कुछ नमूने, कुछ पैमाने’ (2018), ‘एक अनुवादक का एल्बम’ (2008), ‘अनुवाद संस्कृति: स्थिति और गति (2024)। डॉ.एस. तंकमणि अम्मा, प्रो.डी. तंकप्पन नायर और प्रो. माधवनकुट्टी नायर के संयुक्त प्रयास से केरल हिन्दी प्रचार सभा द्वारा प्रकाशित ‘अनुवाद माला, भाग 1, 2, 3 और 4’ एक सराहनीय प्रयास है। निस्संदेह हम कह सकते हैं कि अनुवाद एवं अनुवाद अध्ययन में केरल का एक गौरवपूर्ण योगदान हैं। 

निष्कर्ष : भाषा संस्कृति की अभिव्यक्ति का आधारभूत माध्यम है, अतः अनुवाद में भाषा अंतरण के दौरान सांस्कृतिक तत्वों का भी अंतरण होता है और यह अंतरण ही सांस्कृतिक प्रतिबिंबन की प्रक्रिया है। आदान-प्रदान योजना को व्यापक बनाना अनिवार्य है और परस्पर संबंध और संपर्क न रखने वाली भाषाओं को निकट लाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सांस्कृतिक विचार-विनिमय को बढ़ावा देना समय की माँग है। आज साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएँ भारतीय साहित्य के उत्कृष्ट कृतियों का अनुवाद करवा रही है। उत्तर भारत के साहित्य - प्रेमियों को दक्षिण भारत में आकर यहाँ की भाषा और साहित्यिक गतिविधियों को पढ़ने के लिए अवसर प्रदान किया जाए। दक्षिण भारत के साहित्यप्रेमी दल उत्तर भेजे जाएँ। भारतीय संदर्भ में अनुवाद की मुख्य कड़ी के रूप में अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी को स्वीकृत करना अधिक उचित होगा। सारी भारतीय भाषाओं की प्रतिनिधि कृतियों के अनुवाद के लिए योजनाबद्ध कार्यक्रम बनना है। हर भाषा में अनुवाद को प्रमुख स्थान देने वाली एक मासिक पत्रिका प्रकाशित होनी चाहिए। एक भाषा की कृति का अनुवाद होने से अन्य भारतीय भाषाओं से उसके तुलनात्मक अध्ययन की दिशाएँ खुलती है। प्रेमचंद के साहित्य का गोर्की के साहित्य से अथवा शिवराम कारंत के साहित्य से तुलनात्मक अध्ययन हो सकता है। हिन्दी को सही मायने में राष्ट्रभाषा की दर्जा मिलना है तो हिन्दीभाषियों को कम से कम एक भारतीय भाषा पढ़ने की कोशिश करनी होगी। इस प्रकार वे हिन्दीतर भारतीय भाषाओं की प्रमुख कृतियों का हिन्दी अनुवाद कर सकेंगें। इस प्रकार की योजनाओं को सरकार का प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है। अन्य भारतीय भाषाओं की प्रमुख कृतियों से कोसों दूर रहकर हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकेगी। संसार की प्रमुख भाषाओं के कृतियों को चुनकर उनके अनुवाद तैयार करने से ही अंग्रेजी की साहित्यिक समृद्धि बढ़ी हैं। भारतीय भाषाओं के बीच आपसी रिश्ते मजबूत बनाने हैं जिससे अनुवाद के जरिए भाषाओं का संबंध पुष्ट हो।


संदर्भ : 

  1. ज्ञानपीठ पुरस्कार:1965-90, संपादक-निशन टंडन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली,  संस्करण-1991. पृष्ठ-323
  2. अनुवाद सिद्धांत एवं प्रयोग, जी. गोपीनाथन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, संस्करण-2008. पृष्ठ-14
  3. अनुवाद:अनुभव और अवदान, डॉ. आरसु, डॉ.एम. के. प्रीता, जयभारती प्रकाशन, इलाहबाद, भूमिका से.
  4. अनुवाद, भारतीय अनुवाद परिषद्, अक्टूबर-दिसम्बर 1997, अंक-93. पृष्ठ-4
  5. अनुवाद, भारतीय अनुवाद परिषद्, जुलाई-अगस्त-सितम्बर 1996, अंक-88. पृष्ठ-53
  6. भारतीय भाषाओं के पुरस्कृत साहित्यकार, डॉ. आरसु, राजपाल एंड संस, दिल्ली, संस्करण-2010, पृष्ठ-67
  7. अनुवाद, अक्टूबर-दिसम्बर 1997, अंक-93, पृष्ठ-45
  8. मलयालम साहित्य प्रतीक और प्रतिमान, संपादक सूर्यपाल सिंह, पोर्वपर प्रकाशन, गोंडा, उ.प्र. संस्करण-2020. पृष्ठ-4

 

डॉ. सुप्रिया पी.
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड, केरल - 671320
supriya@cukerala.ac.in, 9747293735

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

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