साक्षात्कार : अनुवाद पेशा नहीं, ज्ञान-प्रसार का माध्यम है (देवशंकर नवीन से विकास शुक्ल की बातचीत)

अनुवाद पेशा नहीं, ज्ञान-प्रसार का माध्यम है
(देवशंकर नवीन से विकास शुक्ल की बातचीत)


(भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. के वरिष्ठ आचार्य, देवशंकर नवीन कुछेक गिने-चुने लोगों में से जो अनुवाद कार्य को मूल लेखन से भी कठिन मानते हैं। उनकी राय में अनुवाद ऐसा पवित्र और रचनात्मक उद्यम है, जिसके योगदान से कई उजड़ी हुई सभ्यताओं का भी पुनर्स्थापन हुआ है। उनका कहना है कि आज के वैश्विक परिवेश में दो मिनट के लिए अनुवाद कार्य रोक दिया जाए, तो दुनिया की साँसें रुक जाएँगीं। बीते दिनों 03.08.2024 को ‘अपनी माटी’ पत्रिका की ओर से उनसे पूछे गए ‘अनुवाद अध्ययन’ सम्बन्धी कुछ प्रश्नों पर दी गई उनकी अविकल प्रतिक्रिया प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष हो रहा है। -- प्रो. देवशंकर नवीन से विकास शुक्ल की अनुवाद अध्ययन संबंधी कुछेक बातचीत )

(इस साक्षात्कार को रिकार्ड किया डॉ. बृजेश यादव ने एवं लिप्यांतरित किया गया एम.ए. के छात्र आशीष कुमार शाह एवं विशाल लोधा द्वारा)

प्रश्न : सर, ‘अनुवाद अध्ययन’ और ‘तुलनात्मक साहित्य’ को लेकर लोग बेहिसाब तीर अन्धेरे में छोड़ते रहते हैं। इधर नई शिक्षा नीति की संकल्पनाओं में भी इस पर बहुत बातें हो रही हैं। विश्वविद्यालयों में सिलेबस बनाए जा रहे हैं। हम जानना चाहते हैं कि नई शिक्षा नीति 2020 में अनुवाद की कैसी स्थिति रहेगी? उचित संसाधनों के अभाव में इस ज्ञान-शाखा का प्रोन्नयन सन्दिग्ध दिख रहा है। एक अनुवादक और अनुवाद चिन्तक के रूप में आप क्या सोचते हैं?

उत्तर : भारत ही नहीं, दुनिया भर के जिस किसी विश्वविद्यालय में, एक शैक्षिक केन्द्र के रूप में या अलग ज्ञान-शाखा के रूप में, ‘अनुवाद अध्ययन’ और ‘तुलनात्मक साहित्य’ का विभाग संस्थापित हुआ; किसी न किसी भाषा विभाग में हुआ। ‘तुलनात्मक साहित्य’ के अध्ययन केन्द्र के लिए यह बड़ी समस्या बनी, आगे चलकर ‘अनुवाद अध्ययन’ की भी समस्या बन गई। भाषा विभाग में शुरू हुआ ‘तुलनात्मक साहित्य अध्ययन केन्द्र’, जब अपने उद्भव केन्द्र के समानान्तर खड़ा होने लगा, तो मान्यता मिलने में दिक्कत होने लगी। उद्गम और उद्भूत के बीच का यह रिश्ता ठीक वैसे ही बना, जैसे किसी बड़ी जमीन्दारी से निकला हिस्सेदार, उसकी बराबरी में खड़ा हो गया हो। बौद्धिकों के बीच भी वर्चस्व की बिमारी पनप ही जाती है। इसलिए ऐसा रिश्ता बनना तय ही था।... देर तक यह धारणा बनी रही कि अनुवाद के संवर्द्धन से ही ‘तुलनात्मक साहित्य’ अध्ययन की सम्पुष्टि सम्भव है। अनूदित साहित्य का भण्डार जितना बढ़ेगा, तुलनात्मक अध्ययन उतना ही सुकर होगा। इसे हिन्दी के ही उदाहरण से स्पष्ट करें कि इस समय चूँकि मण्टो समग्र हिन्दी में उपलब्ध है, इसलिए राजकमल चौधरी और सआदत हसन मण्टो का तुलनात्मक अध्ययन उर्दू लिपि न जाननेवाले भी कर सकते हैं। राजकमल चौधरी की डेढ़ेक दर्जन कहानियाँ उर्दू में उपलब्ध हैं, इसलिए राजकमल चौधरी और सआदत हसन मण्टो का तुलनात्मक अध्ययन देवनागरी न जाननेवाले उर्दूदाँ भी कर सकते हैं। कृष्णा सोबती और इस्मत चुगताई की ढेर-सारी रचनाओं का अनुवाद हो चुका है, इसलिए दोनों लेखिकाओं का तुलनालक अध्ययन सम्भव है। यह अनुवाद न हुआ होता तो ऐसा शोध-विश्लेषण सम्भव नहीं था।

अब क्या हुआ है कि बीती शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती समय में जब दुनिया के अन्य देशों में भी ‘अनुवाद अध्ययन’ की शुरुआत हुई, तो वह भी किसी न किसी भाषा विभाग में शुरू हुई। उन्हीं दिनों भारत देश को भी यह गौरव प्राप्त हुआ कि दिल्ली विश्वविद्यालय में डॉ. नगेन्द्र की सदाशयता से अंशकालिक पाठ्यक्रम के रूप में सन् 1960-62 के आस-पास, ‘अनुवाद अध्ययन’ की पढ़ाई शुरू हुई; पर उसके बाद साढ़े छः दशक बीत जाने पर भी, पूरे देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में ‘अनुवाद अध्ययन’ को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं है। मैं जहाँ कहीं भी जाता हूँ, वहाँ के विश्वविद्यालय के कुलपति से भेंट हो जाती है, तो उनसे निवेदन कर आता हूँ कि आप अपने यहाँ ‘अनुवाद अध्ययन’ की पढ़ाई शुरू करें, अपनी योग्यता के अनुरूप मैं समग्र बौद्धिक समर्थन देने को तत्पर हूँ, क्योंकि यह एक तकनीकी शैक्षणिक शाखा है, जो नई पीढ़ी के युवाओं को रोज़गार देने में सहायक होगी और युवाओं को भारत की पारम्परिकता एवं राष्ट्रीयता का मर्म समझाने में कामयाब होगी; क्योंकि यह केवल कौशल-सम्पन्न ज्ञानशाखा ही नहीं, नई पीढ़ी को राष्ट्रीय गौरव से उन्नत करनेवाला और उन्हें अपने मूल के प्रति अनुरक्त करनेवाला प्रेरणात्मक प्रशिक्षण भी है। पर भारतीय बौद्धिकों और बौद्धिक दुनिया के खलीफाओं के मन में ‘अनुवाद अध्ययन’ के प्रति बहुत ही कृपण धारणा है। सम्भवत: वे ‘अनुवाद अध्ययन’ का अर्थ ही नहीं समझते। मेरे कई प्रोफेसर मित्र तक पूछ बैठते हैं कि आप शिक्षार्थियों को किस भाषा से किस भाषा में अनुवाद करना सिखाते हैं? उनके अभिज्ञान में अनुवाद का अर्थ इतना ही बसा है कि ‘मैं जा रहा हूँ’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘आई एम गोइंग’ होगा। वे नहीं जानते कि ‘टू मेनी कुक्स स्प्वाइल द ब्रोथ’ का हिन्दी अनुवाद ‘ढेर जोगी मठ उजाड़’ क्यों होगा? आपलोग सोचकर देखें कि जिस अनुवाद के बूते भारतीय संसद की कार्यवाही सम्पन्न होती है, अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीतिक सम्बन्ध चलता है, संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाही सम्पन्न होती है, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और खेल-सम्बन्ध चलता है, वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा पूरित होती है, विश्वग्राम की संकल्पना तैयार होती है, उस अनुवाद के अध्ययन-विश्लेषण के लिए कितने विश्वविद्यालयों में गत साढे़ छ: दशकों में ‘अनुवाद अध्ययन’ की पढ़ाई शुरू हुई? आप ही के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय अनुवाद आयोग की पहल से ‘अनुवाद अध्ययन’ की पढ़ाई 28 वर्ष पूर्व शुरू हुई। अट्ठाइस वर्ष पूर्व जो दो अध्यापकों के पद सृजित हुए, आज भी वही है। केवल एम.फिल., पी-एच.डी. की डिग्री बँटती रही। सात वर्षों तक घाट-घाट का पानी पीकर, जमीन-आसमान एक कर दिया तो सन् 2022 से आकर यहाँ किसी तरह एम.ए. शुरू कर पाया। अब, जब पढ़ाई शुरू हुई, तो अध्यापक नहीं हैं। अन्य विषयों में जितना कार्य भार 13 अध्यापकों द्वारा सम्पन्न होता है, उतना ‘अनुवाद अध्ययन’ शाखा में दो अध्यापकों के सिर पर है। अब गौर करें कि जब चल रही शिक्षण पद्धति में ‘अनुवाद अध्ययन’ ज्ञानशाखा के संवर्धन के लिए कोई सहयोग-समर्थन नहीं है, तो नई व्यवस्था की शुरुआत कहाँ से होगी, कौन करेंगे?

आप लोगों ने गौर किया होगा कि इसी असहयोगी और निरपेक्ष वातावरण के कारण हम वैकल्पिक वर्ष में एम.ए. (अनुवाद) में शिक्षार्थियों का दाखिला लेते हैं। अनुवाद चिन्तन हमारे लिए तो राष्ट्र के नौजवानों को अपने मूल की ओर अनुरक्त करने का साधन है, राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा का उपकरण है, इसीलिए मेरे जैसे राष्ट्रवादी व्यक्ति के लिए अनुवाद चिन्तन हमारे जीने और मनुष्य होने की सार्थकता है; पर व्यवस्था के देवताओं के लिए यही एक मात्र निरर्थक है। एतद्धि...

एक वर्ष चलाते हैं, दूसरे वर्ष नामांकन रोक देते हैं; फिर अगले वर्ष नामांकन होगा, उसके अगले वर्ष फिर नहीं होगा। ऐसा कब तक चलेगा, कहना असम्भव है? आपकी जिज्ञासा पर मेरी राय यही है कि ‘अनुवाद अध्ययन’ सम्बन्धी चल रही शिक्षण पद्धति को जो व्यवस्था दफन करने में लगी है, वह नई शिक्षा नीति लाकर ‘अनुवाद अध्ययन’ को कितना बनाएगी, कोई व्यवस्थापति ही कह सकेंगे। फिर भी, बेहतर की अपेक्षा करने में कोई बुराई नहीं है। अपेक्षा रखनी चाहिए! सौभायवश नई शिक्षा नीति में इसकी गुंजाइश बनाई गई है, तो अच्छे की ही उम्मीद की जानी चाहिए । अलबत्ता यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि दुनिया भर की शासन-व्यवस्था, कूटनीतिक-सम्बन्ध, शैक्षिक उपक्रम, वैज्ञानिक उन्नति, व्यापारिक-व्यवहार, नैतिक-उन्नयन...सब कुछ के आगामी दिन, पूरी तरह अनुवाद की नोक पर टिके हुए हैं। दुनिया का जो राष्ट्र, इस ज्ञान-शाखा की उपेक्षा करेगा, उसकी सम्पूर्ण व्यवस्था अपंग हो जाएगी। मुझे लगता है कि सरकार की ओर से भी और संस्थानों की ओर से भी इस पर आगे ध्यान दिया जाएगा।...कितना दिया जाएगा...इसकी सुनिश्चिति मैं नहीं बता सकता।

प्रश्न : सर, अनुवाद-चिन्तन सम्बन्धी आपके तीन दशकों की साधना से ‘अपनी माटी’ के पाठक परिचित हैं; इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय और जे.एन.यू. में ‘अनुवाद अध्ययन’ को उर्ध्वगामी बनाने में आपने घनघोर परिश्रम किया है; आपकी अत्यन्त उपयोगी पुस्तक ‘अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य’ ज्ञानाकुल पाठकों बीच अत्यन्त लोकप्रिय रही है। हम सब उस किताब की पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहते हैं।

उत्तर : इग्नू में जब ‘अनुवाद अध्ययन’ की पढ़ाई शुरू हुई तो उस स्कूल का संस्थापक निदेशक मुझे नियुक्त किया गया। मेरे योगदान से पूर्व वहाँ अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा की डिग्री मानविकी विद्यापीठ में दी जाती थी। पर अलग स्कूल की स्थापना होने के कारण मेरे साथ और पाँच लोगों की भी बहाली हुई, सबने मिलकर अनुवाद के लिए एम.ए, पी-एच.डी. का पाठ्यक्रम बनाया, नामांकन शुरू हुआ; अब संकट था कि उस दौर में ‘अनुवाद अध्ययन’ को सूक्ष्मता से जानने के लिए ढंग की कोई किताब नहीं थी। लोढ़-बटोरकर जो कुछ गिनती की किताबें दिखती थीं, उनमें से अधिकांश किताबें अरसा पहले डॉ. नगेन्द्र के सम्पादन में छपी किताब के विभिन्न अंशों की मिश्रित चखना थी; यहाँ तक कि उदाहरण भी उसी किताब से ले ले कर इधर से उधर, उधर से इधर किया गया था। अनुवाद चिन्तन पर मौलिक रूप से हिन्दी में लिखित मात्र एक किताब कृष्ण कुमार गोस्वामी की थी। बाकी सब सम्पादित थी। ‘अनुवाद अध्ययन’ में जिन छात्र-छात्राओं का नामांकन हो रहा था, वे सब विभिन्न अनुशासनों में शिक्षित-दीक्षित होकर आ रहे थे; उनके लिए ‘अनुवाद अध्ययन’ में प्रवेश एक अपरिचित और अबूझ खोह में प्रवेश जैसा था। उनके लिए हमने पाठ्यक्रम तो बना दिया, पर वे पढ़ें कहाँ से? इग्नू का अध्यापन दूर-शिक्षा (ओपेन एण्ड डिस्टेन्स एजुकेशन) के लिए ख्यात था; पर उस समय के कुलपति प्रो. वी.एन. राजशेखरन पिल्लै ने हमारे समक्ष प्रस्ताव रखा कि आप कक्षा-अध्यापन भी शुरू करें। अपने सहकर्मियों -- डॉ. जगदीश शर्मा, डॉ. राजेन्द्र पाण्डेय, डॉ. हरीश कुमार सेठी, डॉ. ज्योति चावला, डॉ. मनजीत बरुआ -- का मेरे निर्णय में जैसा भरोसा था, उसके बूते मैंने सहर्ष वह प्रस्ताव स्वीकारा और ‘अनुवाद अध्ययन’ में एम.ए., पी-एच.डी. का कक्षा-अध्यापन शुरू कर दिया। इस नए प्रयास के कारण उन दिनों मुझे और मेरे सहकर्मियों को कुछेक पुराने अध्यापकों का कोपभाजन भी बनना पड़ा।...अब कक्षा-अध्यापन शुरू हो गया, तो विद्यार्थियों को बताने के लिए तैयारी तो करनी थी! चिन्तन-मनन करना था! व्याख्यान के लिए पर्चियाँ बनानी थीं! ‘अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य’ पुस्तक उसी नए प्रयोग के दौरान शिक्षार्थियों के लिए की गई तैयारी की परिणति है। इग्नू में वह नया प्रयोग नहीं हुआ होता, तो आगे के 5 वर्षों हम वहाँ एम.ए. नहीं शुरू कर पाते, क्योंकि विशेषज्ञों से शैक्षिक सामग्री लिखवाने में और फिर उसे छपवाने में इतना समय लग ही जाता। सम्भवत: इस पुस्तक के आने में भी विलम्ब होता।

प्रश्न : आपने इस पुस्तक में यूरोप केन्द्रित अनुवाद चिन्तन को पीछे कर भारतीय अनुवाद चिन्तन परम्परा को अग्रगामी रूप में स्थापित किया है। हिन्दी अनुवाद अध्ययन या भारत की प्राचीन अनुवाद परम्परा को समझने के लिए ‘अनुवाद अध्ययन’ किस तरह सफल हो रहा है?

उत्तर : वस्तुत: हमारे देश में पिछलग्गूपन की स्थिति है। आजादी के साढ़े सात दशक बीत जाने के बावजूद, हमारे देश के ढेर सारे बौद्धिक, अभी भी शारीरिक रूप से ही आजाद हो पाए हैं, मानसिक रूप से वहीं हैं। उनको लगता है अंग्रेजी से तुलना किए बिना या उनके सन्दर्भों को विशिष्ट बताए बिना, हम बड़े महत्त्व के नहीं माने जाएँगे। उनको पश्चिम में ही सब कुछ सुशोभन और भव्य दिखता है, इसलिए वे झटपट घोषणा कर देते हैं कि भारत देश में अनुवाद की कोई परम्परा नहीं थी। ऐसा सुनते-सुनते जब मेरे कान पक गए, तो उन्हीं धारणाओं के खण्डन में मैंने कुछ तर्क रखे।

अब ये विद्वान चिन्ता या चिन्तन करें कि पश्चिम के लोग प्राचीन मिस्र के द्विभाषी शिलालेख, असीरिया के राजा सरगोन की विजय घोषणा के द्विभाषी-त्रिभाषी उत्कीर्णन, हम्मूरावी के सरकारी आदेशों के बहुभाषी अनुवाद, दुभाषिया द्वारा हिब्रू प्रवचनों के आर्मेइक अनुवाद के हवाले से अपनी अनुवाद परम्परा को ई.पू. तीन हजार, ई.पू. दो हजार और ई.पू. चौथी पाँचवीं शताब्दी तक खींचकर ले जाते हैं। किसी टोले-मोहल्ले पर कब्जा करके आए और उस पर जीत दर्ज करवा दी। उनकी तुलना में तो हमारे यहाँ शेरशाह, अकबर, चन्द्रगुप्त, अशोक बड़े-बड़े काम करते रहे। हमारे इन राजाओं से अधिक उन्होंने क्या किया? उनके शिलालेखों का उद्देश्य इतिहास की सूचनाओं से अधिक, इतिहास में खुद को दर्ज करने की लिप्सा होती थी। हमारे पुरखों (राजा, राजन्य, बौद्धिक) ने कभी ऐसी लिप्सा नहीं पाली। आसपास की छोटी-छोटी भाषाओं, बोलियों में खुदवाया गया शिलालेख अनुवाद-परम्परा का संकेत नहीं हो सकता। यदि हो, तो अनुवाद के क्षेत्र में उससे कहीं बड़ी बात हमारे वैदिक ऋषिगण अपने शिष्यों को वेद पढ़ाते हुए अन्वय और व्याख्या-विश्लेषण किया करते थे; हमारे आंग्लभक्त बौद्धिकों की दृष्टि इधर नहीं जाती! आप गौर करें कि ई.पू. छठी शताब्दी में यास्क मुनि ने कठिन होते जा रहे वैदिक शब्दों का संग्रह ‘निघण्टु’ शीर्षक से किया, फिर बाद में ‘निरुक्त’ में उनका व्युत्पत्तिमूलक विश्लेषण किया। गौरतलब है कि ये दोनों ग्रन्थ अनुवाद उपकरण हैं, जिन्हें आज की शब्दावली में ‘कोश’ कहा जाता है। जरा सोचें कि यह कोश किसलिए? अनुवाद के लिए ही न! उसी ‘निरुक्त’ में यास्क मुनि ने उल्लेख किया है कि उनसे पहले तेरह और निरुक्तकार हो चुके हैं। अब ‘निरुक्त’ जैसा ग्रन्थ तो पचीस-पचास वर्षों में बनता नहीं! तनिक ठहरकर सोचें कि ई.पू. छठी शताब्दी (यास्क का समय अभी तक सुनिश्चित नहीं है, परवर्ती ग्रन्थों में इसके उल्लेख से विद्वानों ने ऐसा अनुमान किया है कि वे छठी शताब्दी के आसपास रहे होंगे, प्रमाण मिलने पर हो न हो यह समय कुछ और पीछे जाए!) से पूर्व यदि तेरह निरुक्त और लिखे जा चुके, तो सोचिए भारत में निरुक्त लेखन की प्रक्रिया कब से थी?

राज-शासन के मद्देनजर कल्पना कीजिए कि भारत में चन्द्रगुप्त का, अशोक का, राजक्षेत्र कहाँ से कहाँ तक था? इतने बड़े शासन-क्षेत्र में चन्द्रगुप्त या अशोक या अकबर, राजा के रूप में अपनी प्रजा की बात, उन विस्तीर्ण भूभागों की बात कैसे समझते होंगे? कोई न कोई शासकीय अनुवाद पद्धति तो निश्चय ही रही होगी! रामकथा को धार्मिक मानें, ऐतिहासिक मानें, राजनीतिक मानें...पर अयोध्या के राम और जनकपुर की सीता के वैवाहिक सम्बन्ध में, दो जनपदों के सरोकारी तालमेल में वैचारिक-संस्कारिक आदान-प्रदान का संवाद-सूत्र तो भाषा और अनुवाद ही रहा होगा! किष्किन्धा नरेश, लंका नरेश, अयोध्या नरेश का पारस्परिक संवाद अनुवाद के बिना कैसे सम्भव हुआ होगा? कोई न कोई द्विभाषिक व्यवस्था तो निश्चय ही रही होगी! कालिदास (ई.पू. पहली शताब्दी) के समय के नाटकों में नायकों का संवाद संस्कृत में है, जबकि सेवक और स्त्रियों का संवाद प्राकृत में। पर विचारणीय है कि संवाद सम्प्रेषण की प्रक्रिया तो अनुवाद के सहारे ही सम्पन्न होती होगी? नायक जब अपने सेवक या पटरानी या किसी अन्य स्त्री पात्र को संस्कृत में जवाब देते होंगे, तो अनुवाद के बिना वे उनकी बात समझते कैसे होंगे? ठीक इसी तरह सेवक या स्त्री पात्र अनुवाद के बिना नायक की बात समझते कैसे होंगे? इन्हीं जिज्ञासाओं का अनुगमन करते हुए मुझे लगा कि भारत में अनुवाद की प्रथा उपनिषद-काल से भी अधिक पुरानी है। क्योंकि इस ‘अनुवाद’ शब्द का उल्लेख ‘उपनिषद’ में है, भर्तृहरि के यहाँ है। पर विचारकों की दुर्गति देखिए कि आज ‘ट्रांसलेशन’ के लिए हिन्दी में ‘अनुवाद’ का उपयोग करते हैं। अंग्रेजी का ‘ट्रान्सलेशन’ शब्द लैटिन के ‘ट्रान्सलेटियो’ (Translatio), शब्द से निकला है, जिसमें ‘ट्रान्स’ और ‘फेरे’ (Trans और Ferre) दो शब्दों का योग है। ‘ट्रान्स’ का अर्थ है ‘पार’ और ‘फ़ेरे’ का अर्थ है ‘ले जाना’। ‘लैटियो’ ‘लैटस’ (latus) से बना है, यह Ferre का भूतकालिक कृदन्त (Past Participle) है। पश्चिम की अनेक भाषाओं ने अपने यहाँ ‘ट्रान्सलेशन’ शब्द का विकास लैटिन के वैकल्पिक स्रोत ‘ट्रैडक्टियो’ (Trāductiō) से माना, जो ट्रैडुको (Trāducō) से निस्सृत है और ‘ट्रान्स’ एवं ‘डुको’ (Trans और dūcō) का योग है। ‘डुको’ का अर्थ भी ‘पार ले जाना’ ही होता है; अर्थात् ‘ट्रैडक्टियो’ का अर्थ है ‘पार ले जाना’ । अर्थात् ‘ट्रान्सलेटियो’ या ‘ट्रैडक्टियो’ का अर्थ होगा ‘इस पार से उस पार ले जाना’। अन्य व्यवहारों में इन दोनों मूल पदबन्धों की अर्थध्वनि वस्तुओं के पार-परिवहन को रेखांकित करती है; पर भाषा के मामले में पाठ को एक भाषा से दूसरी भाषा में ले जाना होगा।

यकीनन, ‘ट्रांसलेशन’ लैटिन भाषा से आया शब्द है, जिस भाषा का उद्भव-काल ही चौथी शताब्दी के आसपास है। जबकि हमारा ‘अनुवाद’ शब्द? यह तो उपनिषद काल से चलन में है। यह तो विडम्बना है न, कि सैकड़ो वर्ष बाद चलन में आई भाषा के शब्द का समानार्थी हम ‘अनुवाद’ को मानें! जरा सोचें कि अंग्रेजी का ‘ट्रान्सलेशन’ भारतीय भाषाओं के ‘अनुवाद’ की बराबरी कैसे करेगा? ‘ट्रान्सलेशन’ का सही समानार्थी शब्द होगा ‘भाषान्तरण’। इन्हीं संकटों से जूझते हुए मैं इस प्रश्न पर पहुँचा कि अनुवाद की परम्परा हमारे भारत में कहाँ से चली? तब जाकर मुझे प्राचीन परम्परा के सूत्र दिखे, जिसके बारे में मैं कहते चला आ रहा हूँ। कोई मानने को तैयार नहीं हैं, पर मध्यकाल के कवि की उक्ति याद आती है कि -- ‘आगे के कवि पूछिहैं तो कविताई, नाहीं तो सिया-रघुराई को सुमिरन को बहानो है।’ रटता आ रहा हूँ कि भाई भारतवंशियो! यह तथ्य मान लो, कि हमारा अनुवाद, भारतीय अनुवाद परम्परा, भारतीय अनुवाद के चिन्तन परम्परा दुनिया की किसी भी अनुवाद परम्परा से अधिक पुरानी है । पर लोग हैं कि मानने को राजी नहीं है; न मानें, मैं तो मान रहा हूँ।

प्रश्न : पूरा मध्यकालीन साहित्य शताब्दियों तक आत्मसातीकरण से समृद्ध होता रहा, पर आज मेहनताने से लेकर मान-मसन्यताओं तक में अनुवाद को दोयम दर्जे का काम समझा जाता है, इसे रचनात्मक कार्य नहीं माना जाता है, पहली पंक्ति में अनुवादकों को स्थान नहीं मिलता है -- आप क्या समझते हैं?

उत्तर : आपका यह प्रश्न बौद्धिक सामाज के सोच-समझ को प्रश्नांकित करता है, इसमें कई बातें शामिल हैं -- सामाजिक स्थिति, बुद्धिजीवियों की संकुचित दृष्टि, अनुवादकों की मनोवृति, अनुवादकों की योग्यता और अन्तत: इन प्रवृत्तियों में सरकारी वरद्हस्त...सब कुछ के मिश्रित वातवरण ने ऐसी स्थिति बनाई है। आपकी पहली चिन्ता से बात शुरू करता हूँ। आपने पूछा कि अनुवाद रचनात्मक कार्य है या नहीं? विकास जी, अनुवाद तो ऐसा रचनात्मक कार्य है कि इसके बिना कोई भी रचनाकार अपने भाषिक क्षेत्र से बाहर जा नहीं सकेंगे। स्वाधीनता आन्दोलन में अनुवाद-साहित्य के योगदान से जिन बौद्धिकों का आमना-सामना नहीं हुआ, वे इसका अर्थ क्या समझेंगे? उनकी चेतना पर दया की जानी चाहिए। मेरी तो सार्वजनिक स्वीकृति है अनुवाद की रचनात्मकता किसी भी अन्य विधा के मौलिक लेखन की रचनात्मकता से अधिक चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि कविता, कहानी, लेख में रचनाकार अपनी बात लिखता है। उन्होंने कोई दृश्य देखा या मन में कोई उद्भावना जगी और रचना कर ली; पर एक अनुवादक, किसी दूसरी मिट्टी में जमे किसी बड़े पेड़ को उखाड़ कर अपनी मिट्टी में लगाता है, उस पेड़ की मिट्टी बदल देता है, उस पेड़ की संस्कृति बदलकर भी उस संस्कृति के मूल की रक्षा करता है, उस पेड़ का संस्कार बदल देता है। इस रूपक का अभिप्राय है कि अनुवाद अधिकांश समय में किसी बड़ी रचना का ही होता है। शिवराम कारन्त, पन्नालाल पटेल, वैकम मोहम्मद बशीर, बेजबरुआ, शक्ति चट्टोपाध्याय, सुरजीत पातर जैसे बड़े-बड़े रचनाकारों की रचनाओं का ही होता है! कोई अनुवादक जब कभी अनुवाद करने बैठता है, तो उनके पास भाषा और संस्कृति का ज्ञान तो होता है, पर रचना विशेष में मूल रचनाकार की धारणा भी बसी रहती है! उदाहरण के लिए सुरजीत पातर को लें; अपनी पंजाबी भाषा और संस्कृति में पगी-बँधी उनकी धारणा को पंजाब की मिट्टी से उठाकर जब कोई अनुवादक सीधे भोजपुरी, मैथिली, हिन्दी या बांग्ला...में लाएँगे, तो उनका परम-चरम दायित्व होगा कि अपनी मिट्टी से विच्छिन्न उस पेड़ की जीवन्तता बरकरार रखें, उसकी हरियाली बनाए रखें, पेड़ सूखे नहीं, अर्थात्, उस रचना के जीवन-रस उतने ही प्रभावी रहें, जितने मूल में थे; अब जिज्ञासु जन जरा सोचें कि यह कितना कठिन काम है! सामने बैठे बृजेश कविता, कहानी, लेख लिखते हैं; आप कहानी, कविता नहीं लिखते, पर लेख तो लिखते हैं! आप दोनों स्वयं किसी रचना अनुवाद के लिए यह चुनौती स्वीकार कर देखिए। मैंने इस चुनौती का सामना किया है। मैंने कविता भी लिखी, कहानी भी लिखी, लेख भी लिखा, अनुवाद भी किया। और, उस अनुभव के आधार पर ही यह बात कह रहा हूँ।

आप दोनों हिन्दी के मर्मज्ञ अध्येता हैं। हिन्दी से एक उदाहरण अमरकान्त की कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ का लीजिए -- इस कहानी में होनेवाले डिप्टी कलक्टर की बीवी अपनी सास से आकर कहती है कि ‘अम्मा जी, सुबह का देखा सपना सच होता है न?’ तो सकलदीप बाबू बाहर से आवाज लगाते हैं -- ‘कौन, डेप्टाइन बोल रही है?’ अब इस ‘डेप्टाइन’ शब्द के अनुवाद के लिए, अनुवादक को कितने घड़े पसीने बहाने पड़ेंगे, कल्पना कीजिए? बहू ने क्या सपना देखा, यह किसी को नहीं बताया। पर, सारे लोग उनके देखे सपने से परिचित हो गए। यहाँ प्रयुक्त मिथक का प्रभाव, अंग्रेजी या फ्रेंच या जर्मन भाषा के लोगों को कैसे सम्प्रेषित करेंगे? इस पूरे प्रसंग का अंग्रेजी अनुवाद करते समय अनुवादक की क्या दशा होगी? अंग्रेजी के पाठकों को उस सपने का संकेत कैसे मिलेगा? अनुवादक सब कुछ का अनुवाद तो कर देंगे, डिप्टी कलक्टर की पत्नी के लिए किए गए भदेश उच्चारण ‘डेप्टाइन’ तक का अनुवाद कर देंगे, फुटनोट देकर समझा देंगे; पर चरित-नायक सकलदीप बाबू के व्यक्तित्व और संस्कार का अनुवाद कैसे करेंगे? इस तरह के जोखिमों से जूझते अनुवादकों का दर्द जिस मूल लेखक या विवेचक नहीं समझते, वैसे लोग ही अनुवाद के काम को दोयम दर्जे का कार्य कहते हैं; उनकी समझ पर दया की जानी चाहिए।

यह कछुआ-धर्म है। कछुआ क्या करता है? जब कभी उस पर कोई विपत्ति आती है, वह अपना सिर-पैर सब अपने कोटर में समेट लेता है। क्योंकि वह उस विपत्ति को टाल नहीं सकता, उसमें ऐसी क्षमता नहीं है; कछुआ-धर्मी लोगों को इस बात की समझ नहीं है कि अनुवाद के बिना उनका जीवन निष्प्राण हो जाएगा। इसीलिए वे अपना मुँह छुपाते हैं। मेरी सुनिश्चित राय है कि आज दो मिनट के लिए भी अनुवाद का काम रोक दिया जाए तो दुनिया की साँस रुक जाएगी; पर यह बात इन पामर बौद्धिकों को कौन समझाए? पत्थर पर सिर पटकना सुकर तो होता नहीं!

प्रश्न : अपने अध्यापन और लेखन - दोनों ही गतिविधियों में भाषा की सावधानी पर आप विशेष बल देते हैं; लोकोक्तियों, मुहावरों की सटीक प्रयुक्तियों से अपनी बात पूरी स्पष्टता से सम्प्रेषित करते हैं। इधर जो नए लोग ‘भाषा अध्ययन’ या ‘अनुवाद अध्ययन’ में आ रहे हैं, उनमें सिद्धान्तों के प्रति कोई सदीच्छा नहीं दिखती। काम तो वे करते हैं, सैद्धान्तिक बातों में कोई रुचि नहीं रखते। आपकी पुस्तकों एवं फुटकल आलेखों से भी सुधी पाठकों को नए सिद्धान्तों की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा मिलती है। आप उदारतापूर्वक भारतीय चिन्तन परम्परा को गम्भीरता से समझने के साथ-साथ पाश्चात्य सिद्धान्तों के नएपन को भी गहनता से रेखांकित करते हैं, उसकी उपादेयता की बात करते हैं। पर, इन नए सिद्धान्तों के प्रति आज के लोगों की उदासीनता को कैसे देखते हैं? ये नए सिद्धान्त हमारे लिए क्यों विशेष हैं?

उत्तर : आज का समय कामचलाऊ अवगति का समय हो गया है। भाषा के लिए भी लोगों ने कामचलाऊ नीति अपना ली। अब देखिए कि समाज, पंचायत, चौपाल, बाजार, कार्यालय, प्रशासन, बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ...इन सब जगहों का काम चार-पाँच सौ शब्दों के समान्य ज्ञान से चल जाता है। यहाँ के लोग इन शब्दों के गहन अर्थों में नहीं जाते। सतही अर्थ इनके लिए पर्याप्त होते हैं। इसीलिए इन सबकी भाषा प्रदूषित और खिचड़ीपरस्त होती है। पर साहित्यिक, अकादेमिक जीवन में आने पर इतने से काम नहीं चल सकता। यहाँ बीसेक हजार से कम शब्दों में काम चलना कठिन है। किन्तु, आज की पीढ़ी दृढ़ निश्चय कर चुकी है कि वे पाँच सौ शब्दों से ही अपने काम चलाएँगे। इसके साथ ही आज की पढ़ाई दो उद्देश्यों से हो रही हैं -- कुछ लोग सार्थक जीवन के लिए पढ़ रहे हैं; ज्यादातर लोग सफल जीवन के लिए पढ़ रहे हैं। इस ‘सफल जीवन’ और ‘सार्थक जीवन’ जैसे पदबन्ध से आपलोगों को अचरज हो रहा होगा! असल में ‘सफल जीवन’ का रिश्ता मनुष्य के स्व से है; अर्थात् कुछ भी करके उन्हें सब कुछ मुझे मिले। डिग्री, नौकरी, न्यूनतम श्रम और सारी सुख-सुविधाएँ देनेवाली नौकरी, नीति विवेक रहे ताख पर, सारी सुविधाएँ उन्हें मिलें!...ऐसी नीयत के लिए मैथिली-भोजपुरीभाषी क्षेत्र में दो पद प्रचलित हैं -- ‘बसुला धर्म’ और ‘हँसुआ धर्म’। ग्रामीण क्षेत्रों में यह ‘बसुला’ और ‘हँसुआ’ लकड़ी छीलनेवाला और घास काटनेवाला औजार है; इन दोनों औजारों का स्वाभाव सदैव अपनी ओर खींचकर काटना होता है। ‘सफल जीवन’ के उपासकों को सब कुछ इसी तरह अपने पक्ष में चाहिए। पर, ‘सार्थक जीवन’ के साधकों की नीयत ऐसी नहीं होती। वे नीति-विवेक-निष्ठा से सामूहिक जीवन जीते हुए अपने जीवन की सार्थकता पसन्द करते हैं। वे कोई सन्त नहीं होते, रोजगार और उपलब्धि की आशा उन्हें भी होती है; पर नीति-विवेक-निष्ठा की समाधि बनाकर नहीं, सामूहिक हित का गला घोंटकर नहीं। ‘सार्थक जीवन’ के साधक जो कुछ करते हैं, उनके पास उसका विवेकशील तर्क होता है। तर्क ‘सफल जीवन’ के उपासकों के पास भी होता है, पर उनके तर्क में विवेक नहीं होता। विदित है कि विवेकहीन तर्क, कुतर्क कहलाता है। इन दिनों जो नौजवान अकादेमिक क्षेत्र में आ रहे हैं, उनकी मूल संलिप्ति उपलब्धि में है, बेशक वे अयोग्य हों, पर उपलब्धि चाहिए। आप अपने देश के अनुवाद का ही हाल देख लीजिए! पूरे परिदृश्य में इतने खोटे सिक्के पाँव पसार चुके, कि अनुवाद के बाजार से खरे सिक्के किनारे हो गए। क्योंकि खोटे सिक्के, घटिया ही सही, सस्ते मानदेय पर अनुवाद करके संस्थानों को सौंप देते हैं। अब अनुवाद करवाने की ठेकेदारी होने लगी है, एजेंसी बन गई है। इससे भी बड़ा दुष्कर्म क्या होगा? किसी को अनुवाद करवाना है, वह एजेंसी से सम्पर्क करता है, एजेंसी अनुवादकों से टेण्डर भरवाती है, अब अनुवाद का काम कोई ईंट खरीदना तो है नहीं? एजेंसी का ठीकेदार तो चाहेगा कि कम से कम कीमत देकर हम अधिक से अधिक अनुवाद करवा लें! ऐसे में उन्हें बेहतर अनुवादक कहाँ मिलेंगे?

उल्लेखनीय है कि कोई भी बेहतर अनुवादक एक दिन में पाँच पृष्ठ से अधिक अनुवाद नहीं कर सकता। बेहतरीन अनुवाद करने की अधिकतम सीमा पाँच पृष्ठ से अधिक नहीं हो सकती। यह कोई संवैधानिक नियम नहीं है, कोई छह या सात पृष्ठ भी कर लें, पर औसत परिणति यही होगी।

अब आप गणना कीजिए कि इस समय अनुवाद के लिए औसत सरकारी भुगतान पैंसठ से सत्तर रुपए प्रति पृष्ठ होता है, अर्थात् साढ़े तीन सौ रुपए प्रतिदिन। आपके घर कोई प्लम्बर आकर नट-बोल्ट टाइट करे, तो वह भी साढ़े आठ सौ रुपए वसूल लेगा। उच्च शिक्षा और गहन अध्यवसाय के बावजूद एक योग्य अनुवादक की दिहाड़ी साढ़े तीन सौ रुपए हो, तो यह कितनी बड़ी विडम्बना है! इसी कारण मैंने जिस किसी संस्था में काम किया, हर जगह अनुवाद-शुल्क बढ़ाने के लिए घोर संघर्ष करना पड़ा। बी.ए., एम.ए., पी-एच.डी. की डिग्री लिए कोई अनुवादक साढ़े तीन सौ की दिहाड़ी कमाए, तो वह प्लम्बर का काम क्यों न करे!...यह तो इस देश की संस्था और व्यवस्था का हाल है। ऐसी धारणाओं के बीच अनुवाद क्या होगा?

इन दिनों उच्च शिक्षा में जो नई पीढ़ी आ रही है, उन्हें पकी पकाई खीर चाहिए, उनको ग्रेड या लब्धांक का सम्मोहन अधिक है, ज्ञान या चिन्तन की भव्यता से कम, बल्कि नहीं के बराबर! उन्हें आप समझाते रहें कि भाई अपने रोजगार क्षेत्र में तुम्हारी पहचान इस ग्रेड से नहीं, तुम्हारे काम से होगी; वे नहीं समझेंगे, क्योंकि वे व्यवहारत: देख रहे हैं कि ख्याति और उन्नति तो चाटुकारिता से मिलती है!...ऐसे में व्यक्ति और बौद्धिक क्षेत्र का भविष्य अन्धकारमय होना तय है।

चूँकि अनुवाद के क्षेत्र में मेहनत बहुत है, दो भाषाओं का ज्ञान भर होना पर्याप्त नहीं है, दोनों भाषाओं के संस्कृतियों की सूक्ष्मता का ज्ञान भी अनिवार्य है।...साथ ही जिस क्षेत्र, जिस विषय का पाठ है -- साहित्य का, समाज विज्ञान का या भूगोल का या भौतिक विज्ञान का या कार्यालयी, इन सारे प्रसंगों का भी सूक्ष्म ज्ञान अनिवर्य है। इतनी तैयारी के साथ इस क्षेत्र में आने के लिए यह पीढ़ी तैयार नहीं है; इस पीढ़ी को सफलता चाहिए; सार्थकता जैसी ‘विचित्र’ धारणा से उसका परिचय न माँ-बाप कराते, न गुरु, न समाज, न परिवेश; फिर वे इस विचित्र प्रसंग की चिन्ता क्यों करें? उनका अधिकतम लक्ष्य है -- किसी बैंक या कहीं अन्य कार्यालय में अनुवादक हो जाना, राजभाषा अधिकारी हो जाना। अध्यापक तो होंगे कैसे? अभी चारेक विश्वविद्यालयों के अलावा कहीं अनुवाद की पढ़ाई ही नहीं है? अनुवाद की ये सब सीमाएँ हैं । शैक्षिक जगत की अन्य शाखाओं की बदहाली की व्याख्या भी मैं इसी तरह कर सकता हूँ, पर सूत्र रूप में इतना ही पर्याप्त है।

प्रश्न : आपसे हमने अनुवाद-सिद्धांतों और इनमें नई पीढ़ी की संलिप्ति की जानकारी प्राप्त की; इधर प्राइवेट कम्पनियों का एक बड़ा हिस्सा कृत्रिम मेधा (आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस) के प्रसार से आक्रान्त है। इसने ढ़ेर सारी नौकरियाँ खा लीं। आने वाले समय में अनुवादक या ‘अनुवाद अध्ययन’ में शिक्षित-दीक्षित पीढ़ी कॉर्पोरेट सेक्टर में रोजगार पाने में कैसे प्रभावित होंगे? क्या आनेवाली पीढ़ी के रोजगार के अवसर समाप्त हो जाएँगे? आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस के इस खतरे को आप कैसे देखते हैं?

उत्तर : विकास जी और बृजेश जी! यह कोई खतरा नहीं है। हमारे देश की सबसे बड़ी विपत्ति हमारे देश के बिके हुए अफ्सर-पुलिस-पत्रकार-शिक्षक-उपदेशक हैं, जो अपने व्यवस्थापति, अनाज-पानी-पुरस्कार के देवता, और व्यापारियों के सामने जी-हुजूरी में तल्लीन है। उनके पास अपने बारे में सोचने की फुरत नहीं है। वे अपने मदारी के कथन को कोलाहल बनाने में तल्लीन हैं। उनके मदारी डमरू बजाते हैं, ये लोग शाखामृग की तरह नाचने लगते हैं। हमारे क्रियाशील, नैष्ठिक और ईमानदार समाज का सबसे बड़ा संकट ये नाटकबाज शाखामृग ही हैं! इनके मदारी डमरू बजाकर कुछ कहते हैं, ये उड़-उड़कर प्रचार करने लगते हैं। मदारियों की बातों के प्रचार में, नाटकबाजी में, ये इतने तल्लीन हो गए हैं कि अब इनका अपना कोई चेहरा या स्वभाव नहीं रह गया है। एक उदारण लीजिए -- सामान्यतया जब लोगों को अचानक कोई चोट लगती थी, या अचरज-घबराहट वाला दृश्य दिखता था, उनके मुँह से अवचेतन की घबराई ध्वनि निकलती थी -- माई रे, बाप रे, हे राम! यह ध्वनि मातृभाषा की होती थी। पर आज की नई पीढ़ी पर गौर कीजिए, उनका अवचेतन भी इतना सावधान है (केयरफुली केयरलेस) कि उन्हें अचानक चोट लग जाएँ, तो वे बोलते हैं -- आउच! अब वे माई रे, बाप रे नहीं करते। ... सारे प्रसंगों का विश्लेषणपरक अध्ययन करेंगे, तो आपको प्रतीत होगा कि लोगों ने जीने का तरीका ही बदल लिया है, वे अपने ही जीवन के लिए कोई तर्क नहीं करते। दूरदर्शन पर देखे विज्ञापनों, फिल्मों में देखे रीति-रिवाजों से अपनी सुसंस्थापित रिवाज बदल डालते हैं। बिना किसी तर्क के फिल्मी जीवन जीए जा रहे हैं।

कृत्रिम मेधा इसी नाटकबाजी का विस्तार है; जिसे आप आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस कह रहे हैं, उसका अनुवाद भी उतना ही कृत्रिम है, जितना इसे समस्या बनाकर समाज को आक्रान्त करना। बलिहारी उन बुद्धिमानों को, जिसने ‘मेधा’ का विशेषण भी ‘कृत्रिम’ कर दिया है। इन बौद्धिक वृषभ को कौन समझाए कि ‘मेधा’ कोई भाववाचक संज्ञा नहीं है कि यह कृत्रिम होगा! बहरहाल...करने दीजिए इन्हें, मैं आपकी चिन्ता में शामिल होता हूँ! इस ‘कृत्रिम मेधा’ का वास्तविक अस्तित्व मान भी लें, तो भी क्या होगा? ये आपको उतनी ही सामग्री देंगे, जितना गूगल चाचू के खजाने में मुफ्त में उपलब्ध है! इधर-उधर के साइट से सामग्री बटोरकर यह आपको दे देगा। पर दुनिया सारे ज्ञानात्मक पाठ तो गूगल के पास है नहीं। राजकमल चौधरी की ‘एक चम्पाकली एक विषधर’ शीर्षक कहानी का अंग्रेजी अनुवाद गूगल पर किसी ने डाला ही नहीं; तो वह कहाँ लाकर आपको देगा? ‘कृत्रिम मेधा’ जैसे खिलौने से संचालित यह सुविधा मात्र इसी कारण उपलब्ध हो सकती है कि मेरे जैसे असंख्य लोगों के ब्लॉग पर अनाप-शनाप सामग्री मुफ्त में उपलब्ध है; जिनके ब्लॉग या साइट प्रतिबन्धित हैं, या प्रतिलिप्यधिकार अधियम के अधीन हैं, वहाँ से वह कोई चीज उपलब्ध नहीं करा सकता। कृत्रिम मेधा द्वारा अनूदित सामग्री भी ‘गूगल ट्रान्सलेट’ से ही उपलब्ध होता है। कम्प्यूटर आश्रित यह व्यवस्था ऐसा कुछ भी नहीं उपलब्ध करा सकती, जो किसी न किसी साइट पर नि:शुल्क उपलब्ध नहीं है। गूगल की इस सेवा को रामरतन धन समझनेवाले लोगों का भय निराधार है; वे नहीं सोचते कि ‘कृत्रिम मेधा’ की सीमा, उनकी तर्कशक्ति जितनी ही छोटी है। मुझे इस बात का कोई खतरा नहीं दिखता। जिनको दिखता है, और जो इसके लिए हायतौबा मचाए हुए हैं, यह उनके अपने अज्ञान और काहिली का भय है। क्योंकि वे अब तक जिस गोरखधन्धे से अनुवाद करते हुए पैसे बटोर रहे थे, वह काम अब मशीन करने लगा है। उन्हें लग रहा है कि अनुवादक बनकर वे जो ठगी कर रहे थे, वह अब मशीन करने लगा है, अब उनकी ठगी का बाजार उजड़ गया। आशा की जानी चाहिए कि इस भय से वे कुछ सीखें, पर वे नहीं सीखेंगे, ठगी के दूसरे धन्धे पकड़ लेंगे। आप तहकीकात करेंगे, तो सम्भवत: आपको मालूम होगा कि इस बात का सबसे अधिक भय हिन्दी में अनुवाद करनेवालों को हो रहा है। क्योंकि ऐसा गोरखधन्धा करनेवाले अनुवादकों और अनुवाद करवानेवालों की संख्या हिन्दी में सर्वाधिक है; क्योंकि शासकीय तौर पर सभी सरकारी दस्तावेजों का हिन्दी में अनुवाद होना अनिवार्य है, और उन अनुवादों की स्तरीयता की जाँच की नहीं जाती, क्योंकि उस अनूदित दस्तावेजों का कभी व्यवहारत: उपयोग नहीं होता! फलस्वरूप ‘फलदायी अधिकारी’, अनुवाद के ठेकेदार और अनुवादक सार्वजनिक धन का बाँट-बखरा कर लेते हैं। आप यकीन रखिए, ये सब कुछ थोड़े दिन के झमेले हैं, थोड़े दिनों बाद कोई दूसरा एप आएगा, और यह विस्थापित हो जाएगा। मनुष्यविरोधी कोई आचरण अधिक दिनों तक प्रतिष्ठित नहीं रह सकता। पामरों को हल्ला मचाने दीजिए। दशकों से सुनता आ रहा हूँ कि आनेवाले समय में यह धरती हड्डियों के ढेर का टीला हो जाएगा, सब कुछ नष्ट हो जाएगा, हुआ क्या? टेलीफोन आया, पेजर आया, मोबाइल आया, 2जी आया, 4जी आया, कुछ रहा क्या?...जो गलत काम हो रहा है, उसकी किसी को चिन्ता ही नहीं होती! फिजूल के प्रसंगों पर छाती पीट रहे हैं। देखिए आपलोग कि ऊलजलूल फिकरे लिखकर, किताबें छपाकर लोग कितने कागज बर्बाद कर रहे हैं? मुद्रण की सुविधा हो गई, लोगों के पास पैसे हो गए, अनाप-शनाप लिखकर हर कोई किताबें छपाने लगे। लेखन की प्रयोजनीयता समझें न समझें, पर लेखक अवश्य बनेंगे। अपनी ओर पैसे देकर अनुवाद करवाते हैं, किताबें छपवाते हैं। अनुवाद करवानेवाली कुछेक मान्यताप्राप्त संस्थाओं को देखिए, एक का से एक घटिया किताब का घटिया अनुवाद करवाकर, उसे छापकर, सार्वजनिक धन दुरुपयोग अयोग्य लोगों के सुखभोग में करते हैं। वे नहीं सोचते कि अनुवाद ऐसा पुण्य-पवित्र कर्म है, जो दुनिया की किसी भी भाषा में उपजे ज्ञान को अन्य भाषाओं में पहुँचाकर उस जनपद को ज्ञान-समृद्ध करता है। इस समृद्धि की लालसा जिन्हें नहीं है, उनकी न तो कोई लेखकीय दृष्टि है,न प्रकाशकीय, न अनुवादकीय। वे किसी जनहितैषी भावना से न लिखते हैं, न अनुवाद करते हैं, उनके लिए लेखन, प्रकाशन, अनुवाद एक धन्धा है, आत्मविज्ञप्ति और धनपशु होने का धन्धा। पर ध्यान रखिए लेखन, प्रकाशन, अनुवाद का कार्य धन्धा नहीं, एक मिशन है; जो ऐसा नहीं मानते उनके लिए तस्करी बेहतरीन धन्धा होगा। पर्यावरण विरोधी वस्तु ‘कागज’ का दुरुपयोग कर वे पर्यावरण का अहित न करें...विवेकशील चिन्तन करें। तोते की तरह न टेटियाएँ। ‘कृत्रिम मेधा’ से यदि ऐसे अनुवादक दहशत में हैं, तो उन्हें रहना चाहिए। उनके साथ झाल बजानेवाले भी लगे रहें। ...विचित्रता देखिए कि छाती पीट कौन रहे हैं? जो काम में तो अयोग्य हैं, पर ठगी में प्रवीण। इसलिए चिन्ता की कोई बात नहीं है। समय आएगा, जब लोग बेहतर किताब की ओर मुड़ेंगे।

‘कृत्रिम मेधा’ के आगमन का भय उसी को है, जिनकी अपनी ही मेधा कृत्रिम है, छाती पीटकर समूह की सहानुभूति बटोरने से बेहतर होगा कि वे अपनी क्षमता-दक्षता बढ़ाएँ!

प्रश्न : इग्नू हो या जे.एन.यू., आपने अपनी कक्षाओं या व्याख्यानों में एक मानक तय किया है। अक्सर आपने कहा कि हमारा उद्देश्य अनुवादक तैयार करना नहीं, अनुवाद-चिन्तक बनने की प्रेरणा देना है। क्या अनुवाद के अध्येता बनने के लिए भी दो भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य है?

उत्तर : वस्तुत: आपके कुछेक अन्य मित्रों ने भी मेरे इस कथन का अवान्तर अर्थ-ग्रहण कर लिया। मैं जब यह कहता हूँ कि ‘जिन शिक्षार्थियों के पीछे हम मेहनत कर रहे हैं, उन्हें अनुवादक नहीं, अनुवाद चिन्तक बनाना हमारा उद्देश्य है।’ इसका अर्थ यह कतई नहीं कि मैं अनुवादक को अनुवाद चिन्तक से छोटा मानता हूँ। हम यह बताना चाहते हैं कि यदि किसी व्यक्ति को दो भाषाओं का ज्ञान है, दोनों भाषाओं की संस्कृतियों की गहन समझ है, अनूद्य पाठ की बेहतर समझ है, और उनमें एक रचनात्मक कौशल है, तो वह अच्छा अनुवादक बन ही जाएगा; अच्छा अनुवादक बनने के लिए किसी को जे.एन.यू. जैसी शैक्षिक संस्था में आने की जरूरत नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, अज्ञेय, राजकमल चौधरी, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र यादव, आनन्द स्वरूप वर्मा, ओमप्रकाश सिंघल, राजेन्द्र मिश्र, जे एल रेड्डी...बड़े-बड़े अनुवादक हुए हैं, भारत की बाइस भाषाओं में हर वर्ष साहित्य अकादेमी अनुवाद-पुरस्कार देती है, इनमें से किसी ने अनुवाद में एम.ए.,पी-एच.डी. या डिप्लोमा नहीं किया? फिर भी ये बड़े अनुवादक हैं।

अनुवादक होने के लिए जे.एन.यू. आकर एम.ए., एम.फिल., पी-एच.डी. करना जरूरी नहीं है। दीगर बात है कि एम.ए. के पाठ्यक्रम में एक पत्र ‘अनुवाद प्रशिक्षण’ भी है; रामचन्द्र शुक्ल ने जिन दिनों ‘रिडल ऑफ यूनिवर्स’ का अनुवाद किया, उन दिनों हिन्दी में कोई तकनीकी शब्दावली तक नहीं थी। उन्होंने कहीं से अनुवाद प्रशिक्षण का पाठ नहीं पढ़ा।...कल ही एक शोधार्थी ने अनुवाद में सत्ता विमर्श पर सवाल किया। मैंने उन्हें समझाया कि हे महापुरुष! मैंने कक्षा में महावीर प्रसाद द्विवेदी या रामचन्द्र शुक्ल का उल्लेख किया, वह बीसवीं शताब्दी का आरम्भिक दौर था; आप वहीं क्यों बैठे हैं? आगे बढ़िए! अनुवाद में सत्ता विमर्श सदैव ही रहा है, सदैव ही रहेगा! ‘रामायण’ में रावण-वध के बाद अग्नि-परीक्षा के समय सीता ने जिस ओज के साथ श्रीराम से संवाद किया है, आज के स्त्री-विमर्शकारी लोग देखें कि ई.पू. ग्यारवीं शताब्दी के कवि का स्त्री-विमर्श सम्बन्धी काव्य-व्यवहार कितना सबल है! पर ‘रामचरितमानस’ में वैसा प्रसंग नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वाल्मीकि की सीता स्वाभिमानी हैं और तुलसी की सीता पराश्रयी और दब्बू। दोनों ही रचनाकारों का सत्ता-विमर्श अपने समसामयिक समाज के व्यवहार से संचालित है। हर समय के समाज की जीवन-व्यवस्था में सत्ता-विमर्श की जबर्दस्त भूमिका रही है। अभी भी है, आगे भी रहेगी। इसलिए हर समय के साहित्य-चिन्तन में और अनुवाद-नीति में यह विमर्श प्रमुखता से रेखांकित होता रहा है। कक्षा में मैंने एक उदाहरण दिया, अब सारे शोधार्थी उसी एक उदाहरण को पकड़कर बैठे रहें, तो वे शोध क्या करेंगे?...एक उदाहरण से उनकी चिन्ता हल करने की मैंने कोशिश की। कहा कि मान लीजिए, मेरी किसी कहानी में कोई पंक्ति हो -- ‘भीखो अपने सूअर चराने जा रहे थे। मैंने पूछा दिया कि आज आपके बेटे साथ में नहीं हैं? और दिन तो रहते थे!’ इन तीनों पंक्तियों का अंग्रेजी अनुवाद कीजिए! साथ बैठे उनके एक अंग्रेजीदाँ मित्र ने अनुवाद किया -- ‘भीखो वाज गोइंग टु पिग-फीडिंग। आई आस्क्ड हिम, योर सन इज नॉट लुकिंग विथ यू टुडे? ऑन अदर डेज ही उड हैव बिन विथ यू!’ फिर मैंने कहा कि अब वापस इसका हिन्दी अनुवाद कीजिए। उन्होंने अनुवाद किया --‘भीखो सूअर चराने जा रहा था। मैंने उससे पूछा, आज तुम्हारा बेटा तुम्हारे साथ नहीं दिख रहा है? दूसरे दिनों में तो वह तुम्हारे साथ होता था!’ अब उनकी आँखें खोलने का समय आ गया। मैंने पूछा कि अपनी कहानी में मैंने अपने दलित या महादलित नायक के लिए जो सम्मानजनक क्रियापद रखा था, अंग्रेजी अनुवाद ने तो मेरे चरितनायक का वह सम्मान ही निगल लिया! अब आप बताइए कि अनुवाद का सत्ता-विमर्श क्या है? जो अनुवादक मूल पाठ के ऐसे सूक्ष्म प्रसंगों का संज्ञान लेता है, वही अनुवाद का सत्ता-विमर्श है। अनुवाद प्रशिक्षण के दौरान अनुवाद-चिन्तक अनुवादकों को ऐसे ही प्रसंगों के जाखिमों से सचेत करते हैं। शिक्षक द्वारा दिए गए एक उदाहरण की चरखी चलानेवाला व्यक्ति कभी अनुवाद-चिन्तक नहीं हो सकता। एक बेहतर अनुवाद-चिन्तक स्वयमेव एक अच्छा अनुवादक हो जाता है। फिर ऐसा भी नहीं है कि जे.एन.यू. आए बिना या पी-एच.डी. किए बिना कोई अनुवाद-चिन्तक होगा ही नहीं! श्रम और चिन्तन करें, तो एम.ए., पी-एच.डी. किए बिना भी अनुवाद चिन्तक हुआ जा सकता है; पर बहुभाषा-ज्ञान, बहु-संस्कृति-ज्ञान के बिना, इतिहास-भूगोल-राजनीतिशास्त्र-समाजशास्त्र के ज्ञान के बिना अनुवाद-चिन्तक नहीं हुआ जा सकता। इसलिए मेरे उस कथन का अभिप्राय यह था कि आप जे.एन.यू. आ गए हैं, भारत सरकार आपको दीक्षित करने के लिए इतना खर्च कर रही है, तो थोड़ा बड़ा सोचिए। जहाँ तक आपके द्विभाषी होने की अनिवार्यता वाला प्रश्न है, उसमें तो तय है कि आप अनुवादक बनें या अनुवाद-चिन्तक, न्यूनतम दो भाषाओं (स्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा) का ज्ञान अनिवार्य है; दुनिया भर के विमर्शों और भाषा-साहित्य सम्बन्धी गतिकताओं से परिचित रहना भी अनिवार्य है। कूपमण्डूकता की प्रवृत्ति अनुवाद जैसी ज्ञानशाखा में वर्जित है। अनुवादक कोई सर्वज्ञ तो नहीं होता, पर सर्वज्ञ होने की चेष्टा कर सकता है। अनुवाद-कर्म धनार्जन का साधन नहीं, कोई पेशा नहीं, ज्ञान-प्रसार का माध्यम है, सच्ची राष्ट्रभक्ति है। उन्नत अनुवाद-चेतना से सम्पन्न अनुवादक ही सच्चा राष्ट्र प्रेमी होता है।

● धन्यवाद सर, आपके अनुवाद-चिन्तन से हम सब लाभान्वित होते रहते हैं। आपके द्वारा अनूदित और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित रामशरण शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्राचीन भारत का इतिहास’ नई पीढ़ी के अध्येताओं के लिए मूल्यवान उपहार है। आपने हमें अपना कीमती समय दिया ।

धन्यवाद।
 विकास शुक्ल 
शोधार्थी (हिन्दी अनुवाद), जे.एन.यू, नई दिल्ली 
vishu.jnu2017@gmail.com

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

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