असमिया में रामायण: अनुवाद की दृष्टि से
- अनुपमा पाण्डेय
शोध सार : संस्कृत साहित्य के विख्यात महाकाव्य रामायण की चर्चा न केवल एक महत्त्वपूर्ण पाठ के रूप में कीजाती है अपितु यह महाकाव्य विश्वसाहित्य की कोटि में भी गिना जाता है। यही कारण है कि रामायण की महत्ता एवं व्यापकता के विषय पर अनगिनत पुस्तकों का लेखन, संगोष्ठियों एवं सम्मलेनों आदि का आयोजन हो चुका है। इस महाकाव्य को देश की विविध भाषाओं के साथ-साथ विदेश की महत्त्वपूर्ण भाषाओं में पहुंचाने एवं प्रचारित-प्रसारित करने में अनुवाद की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण रही है। वर्तमान समय में कई शोध कार्य एवं शोध परियोजनाएं संस्कृत साहित्य तथा प्राचीन धरोहरों आदि को केंद्र में रखते हुए की जा रही हैं। भारत के वे प्रांत जो कई दृष्टियों से पड़ोसी देश की भाषा, साहित्य, समाज एवं संस्कृति से प्रभावित हैं, उनपर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। ऐसे में, उन राज्यों के इतिहास एवं साहित्य की परंपरा तथा उसके द्वारा किए जाने वाले अनुकरण आदि के बारे में पुनः विचार किया जाना प्रासंगिक होगा। प्रस्तुत शोध आलेख ‘असमिया में रामायण: अनुवाद की दृष्टि से’ विषय पर आधारित है जिसमें असम में रामायण के प्रचार-प्रसार में अनुवाद की भूमिका को स्पष्ट करने की कोशिश की जाएगी।
बीज शब्द : असमिया, रामायण, प्रागज्योतिष, कामरूप, माधव-कंदली, माधवदेव, अनुवाद।
मूल आलेख
: असम: भारत के महत्त्वपूर्ण हिस्से के रूप में उत्तर-पूर्व के राज्यों को जाना जाता है। इन राज्यों में कुल आठ[1] राज्य (मिनिस्ट्री ऑफ़ डेवलपमेंट ऑफ़ नार्थ-ईस्ट रीजन) आते हैं। जिनमें से सर्वाधिक प्राचीन राज्य असम है। असम के प्राचीन इतिहास पर नजर डालें तो यह कई रूपों में महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में यही राज्य पूरे उत्तर-पूर्व के राज्यों को समेटे हुए था। बाद में इसके विघटन होते रहे और अन्य राज्य अपना रूप ग्रहण करते गए। असम को प्राचीन काल में प्राग-ज्योतिष के नाम से जाना जाता था। प्राग-ज्योतिष नाम का संदर्भ रामायण एवं महाभारत में मिलता है। इसके साथ-साथ इस राज्य को कामरूप के नाम से भी संबोधित किया गया है। इसके बारे में कहा गया है कि “यह खंड रामायण काल से ही प्रागज्योतिष के नाम से प्रसिद्ध रहा है।”[2]
इस संदर्भ से विदित है कि महाकाव्यों के समय में इस स्थान को प्रागज्योतिष एवं पुराणों के समय में कामरूप कहा गया है। रामायण के किष्किंधा कांड में शामिल सीता की खोज से संबंधित वरुणालय में स्थित जगह का संबंध इस राज्य से ही है। रामायण में इस स्थान का अन्य जगहों पर भी उल्लेख है। जिसमें बताया गया है कि “प्रागज्योतिष की स्थापना अमुर्तराय धर्मारण्य द्वारा किया गया था जिसका संदर्भ ‘द रामायण’ के बांग्ला संस्करण में मिलता है।”[3]
इसके अतिरिक्त कई अन्य संदर्भ रामायण एवं महाभारत की समयावधि के दिए गए हैं। इन संदर्भों से पता चलता है कि यह राज्य कई कारणों से महत्त्वपूर्ण रहा है। रामायण, आदिकाण्ड, बॉम्बे संस्करण में लिखा है कि “प्रागज्योतिष के राजा को राजा रघु द्वारा आयोजित यज्ञ में शामिल होने हेतु बुलाया गया था और इनका पद बहुत सम्माननीय था। रघु, सूर्य वंश के राजा और राम के परदादा थे जो कि अवध के राजा थे।”[4]
महाभारत में भी प्रागज्योतिष के कई संदर्भ मिलते हैं। काशीराम द्वारा लिखित महाभारत के बंगाली संस्करण में डिमबेश्वर नियोग (Neog Dimbeswar, 1947) लिखते हैं कि “ऐसा कहा जाता है कि दुर्योधन जो अर्जुन का चचेरा भाई था उसने भागदत्त की बेटी भानुमती से विवाह किया था। लेकिन मूल महाभारत के सभा पर्व, (अध्याय 111,
4-14) में यह लिखा है कि दुर्योधन को भागदत्त के बारे में, सबसे पहले अपने पिता धृतराष्ट्र से पता चलता है। हालांकि भागदत्त, अपने बहुत वृद्ध अवस्था में भी कौरवों की तरफ से महाभारत का युद्ध लड़ा था और उसने बहुत बहादुरी से 12 दिनों तक युद्ध में पांडवों का सामना किया। भागदत्त की तरफ से युद्ध में 100350 पैदल सैनिक, 656160 घुड़सवार, 21870
हाथी, 21870 रथी थे। कुल मिलाकर 218700 सैनिक भागदत्त की तरफ से महाभारत युद्ध में शामिल थे। भागदत्त का वध अर्जुन द्वारा किया गया था।”[5]
उत्तर-पूर्व का यह राज्य जिसे आधुनिक काल में असम कहा जाने लगा, इससे पूर्व यह प्रागज्योतिष एवं कामरूप के नाम से प्रसिद्ध रहा है। असम के बारे में अधिकतर यही मान्यता रही है कि यह एक ऐसा हिस्सा है जहां पर जादू, टोना एवं तंत्र विद्या को सीखा-सीखाया जाता है। यहां की सबसे प्रसिद्ध तांत्रिक पीठ के रूप में कामाख्या मंदिर को जाना जाता है और इस मंदिर का संबंध कामरूप से जुड़ा हुआ है। जैसा कि, अध्ययन से पता चल रहा कि इस राज्य को अलग-अलग समयावधियों में अलग-अलग नामों से संबोधित किया गया है। इसका सबसे प्राचीन नाम प्रागज्योतिष है।“प्राचीन संस्कृत के महान विद्वान कालिदास द्वारा इस राज्य के संबंध में प्रागज्योतिष एवं कामरूप दोनों ही नामों का प्रयोग किया गया है।”[6]
प्रागज्योतिष एवं कामरूप के संबंध में शिलालेखों में भी संदर्भ मिलता है। “पांचवी सदी में, समुद्रगुप्त के समय में इलाहाबाद के शिलालेख में कामरूप का जिक्र पहली बार मिलता है।”[7]
प्रागज्योतिष एवं कामरूप से होते हुए असम नाम विकसित हुआ। ककती (Kakati.B. K.1989) लिखते हैं कि “असम नाम का भी एक इतिहास है। आधुनिक नाम जिसे हम असम के रूप में जानते हैं इसका संबंध शान आक्रमणकारियों से है। ये आक्रमणकारी ब्रह्मपुत्र घाटी में आए थे, 1228 ई. से इस घाटी का सबसे पूर्वी हिस्सा थाई (ताई) अथवा शान जाति से संबंधित रहा है। इस ब्रह्मपुत्र घाटी के हिस्से में इन शान जाति के लोगों का ही दबदबा रहा है। जो धीरे-धीरे पूर्व की तरफ बढ़ते चले गए और भारत के असम तक एवं चीन के आतंरिक हिस्से तक फ़ैल गए। हालांकि, यह जिज्ञासा का विषय है कि शान आक्रमणकारी खुद को ताई क्यों कहते थे? वे असम में आए और आज के समय का असाम या अकाम जो एक तरह का असमी साहित्य है। आधुनिक असम में उन्हें अहोम के रूप में जाना जाता है और धीरे-धीरे अहोम शब्द के ध्वनि परिवर्तन से असम शब्द विकसित हुआ है।”[8]
इस तरह, आज जिसे हम असम रूप में संबोधित करते हैं उसका निर्माण अहोम से हुआ है।
असमिया में रामायण-
असम में रामायण की परंपरा के बारे में राघवन वी।
(1980) लिखते हैं कि- “राम को विष्णु का अवतार माना गया है, शायद ईसा पूर्व और कालिदास के समय केपिछले दो हजार साल पूर्व, राम की पूजा ईश्वर रूप में की जाने लगी और राम की महिमा का वर्णन विविध प्रकार की कलाओं चित्रकला, शिल्पकला, वास्तुकला आदि में किया जाने लगा था। धीरे-धीरे रामकथा ने लोककथा का रूप ले लिया और इसमें नई-नई कथाएं जुड़ने लगीं। ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है। जैसे मौखिक परंपरा धीरे-धीरे साहित्य की परंपरा का रूप ले लेती है और फिर साहित्य की परंपरा मौखिक रूप में आ जाती है।”[9] भारतीय परंपरा में रामकथा के विस्तार की स्थिति सभी प्रादेशिक भाषाओं में लगभग इसी रूप में देखने को मिलती है। असम में लिखित रूप में, रामकथा का प्रचार-प्रसार माधव कंदली द्वारा रचित रामायण से माना जाता है लेकिन मौखिक परंपरा में रामकथा यहां पहले से विद्यमान रही है। उत्तर भारतीय आर्य भाषाओं में सर्वप्रथम रामायण असमिया में लिखी गई। इतना ही नहीं, असम की जनजाति कारबि में रामायण की अति प्राचीन वाचिक परंपरा में ‘छाबिन आलुन’ मिलती है। “छाबिन आलुन यानी सूर्पणखा की कथा। इस मौखिक परंपरा में मूल रामायण के विविध पात्रों एवं प्रसंगों को आधार बनाकर कथा वाचन किया जाता है। छाबिन आलुन मूलतः गीतात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है। इस जनजाति की मान्यता के हिसाब से हेम्फु (कारबि के सर्वोच्च देवता) ने रंगसेना नाम के संगीतकार से कारबि जनजाति को संगीत से परिचित कराने हेतु एक गीत लिखने को कहा। फिर, रंगसेना ने मिरिजांग भाइयों के रूप में जन्म लिया और छाबिन आलुन की रचना की। यहां के लोगों में ऐसा माना जाता है कि रामायण का नया संस्करण कारबि जनजाति द्वारा ही निर्मित किया गया है।”[10] असम में रामकथा कैसे विकसित हुई इसके बारे में कोई सटीक प्रमाण नहीं मिलता। इसके बारे में राघवन वी। (1980) लिखते हैं कि “असम में रामकथा की शुरुआत कब होती है और रामायण की परंपरा कब अलग-अलग जनजाति समुदाय में प्रचलित हो गई इसके बारे में किसी को भी सही-सही नहीं पता। सबसे मजे की बात यह है कि असम में राम और हनुमान के नाम का कोई मंदिर, खंडहर भी नहीं मिलता है। जबकि पूरे भारत में बड़ी संख्या में राम व हनुमान के मंदिर मिलते हैं। उत्तर-पूर्व भारत के मणिपुर राज्य में ही हनुमान के कई मंदिर मिलते हैं लेकिन यह निश्चित रूप से एक तरह की साजिश जैसा ही लगता है कि पूरे असम में हनुमान अथवा मारुति का कोई एक मंदिर नहीं है। असमिया की परंपरा और संस्कृति में हनुमान को ईश्वर रूप में नहीं माना जाता है। असम की वास्तुकला में भी राम की महिमा का वर्णन नहीं मिलता है। यहां पर रामकथा से संबंधित राम, सीता, लक्ष्मण के पेंटिंग्स मिलते हैं।”[11] मैखिक रूप में रामकथा के प्रमाण छाबिन आलुन के रूप में ही मिले हैं। लिखित रूप में रामकथा का पहला पाठ संत कवि माधव कंदली द्वारा तैयार किया गया था। असमिया में लिखित पाठ के रूप में रामकथा की शुरुआत का श्रेय माधव कंदली को दिया जाता है। इनके बारे में (राघवन वी। 1980) लिखते हैं कि- “लगभग चौदहवीं शताब्दी के मध्यावधि के दौरान प्रबुद्ध विद्वान एवं कवि माधव कंदली ने असमिया में रामायण का अनुवाद किया। इन्हें महामणिक्य वाराही राजा का आश्रय प्राप्त था। इनके द्वारा अनूदित पाठ को आम जनता तक पहुंचाने का काम राजदरबार द्वारा किया गया लेकिन आम जनता के बीच रामायण की कथा मौखिक रूप में पहले से विद्यमान थी। यह जरुर महत्त्वपूर्ण है कि माधव कंदली ऐसे कवि, अनुवादक थे जिन्होंने असमिया में रामायण का अनुवाद किया और यह उत्तर-पूर्व की किसी भाषा में रामायण के अनुवाद का पहला प्रयास था। माधव कंदली द्वारा किया हुआ अनुवाद संभवतः कंबन द्वारा तमिल में अनूदित रामायण के बाद किया गया था।”[12] इसके अतिरिक्त, राघवन वी। ने कंदली द्वारा अनूदित पाठ पर चर्चा की है। इसका दृष्टांत देते हुए लिखा है कि- ऐसा माना जाता है कि माधव कंदली जी ने मूल रामायण के पाठ के अनुरूप ही असमी में रामायण के सातों कांडों का अनुवाद किया था, लेकिन किसी कारणवश आखिरी दो अध्याय गुम हो गए। आदिकाण्ड और उत्तरकाण्ड वर्तमान समय में उपलब्ध नहीं हैं। या ऐसा हो सकता है कि माधव कंदली अंतिम दो कांडों को मूल नहीं मानते हों, और इसी वजह से उन दो कांडों का अनुवाद ही न किए हों। बाद में, लगभग सौ साल बाद, महान वैष्णव मतावलंबी शंकरदेव जी ने उत्तरकाण्ड को इस अनुवाद में जोड़ा और इनके एक शिष्य माधवदेव ने आदिकाण्ड को जोड़ा है। हालांकि, अभी तक यह भी पूर्णतः प्रमाणित नहीं है कि इन्हीं दोनों आचार्यों ने अंतिम अध्यायों को जोड़ा है या किसी अन्य ने।”[13] इस प्रकार असमिया में रामायण की परंपरा माधव कंदली द्वारा शुरू होती है। माधव कंदली वह पहले संत एवं भक्त कवि थे जिन्होंने कंबन रामायण से प्रभावित होकर असमिया में रामायण का लिखित पाठ तैयार करने का काम किया था। इसको रामकथा पर आधारित असमिया के पहले अनूदित पाठ के रूप में माना जा सकता है। हालांकि, माधव कंदली ने संस्कृत के वाल्मीकि रामायण का असमिया में पद्यानुवाद किया है। “कंदली द्वारा किए गए अनुवाद को संकरी-पूर्व (शंकरदेव से पहले की समयावधि) का एक महत्त्वपूर्ण पाठ माना जाता है। असमी समाज के लिए कंदली का यह अनुवाद बहुत मेहनत का काम रहा है। लंकाकाण्ड के बाद माधव कंदली ने अपने इस अनूदित कर्म के बारे में कहा है कि सप्तकाण्ड के रूप में उन्होंने केवल सारानुवाद किया है।”[14] इन्होंने स्थानीय लोक परंपराओं का ध्यान रखते हुए अपने दृष्टिकोण से कुछ नई कथाएं भी जोड़ दी हैं। असमिया बंगाली औरतों द्वारा की जाने वाली मंगलध्वनि ‘उरुलीजोकार (उलूकध्वनि) का भी उल्लेख माधव कंदली ने किया है।
माधव कंदली के असमिया रामायण के आदिकाण्ड और उत्तरकाण्ड दुर्योग से खो गए थे। इस कमी को पंद्रहवीं शताब्दी में असम में हुए महान संत श्रीमंत शंकरदेव/संकरदेव (1568-1449) ने अपने शिष्य माधवदेव से लिखवा कर पूर्ण कराया था। श्रीमंत शंकरदेव ने श्रीमद्भागवद पुराण का असमिया में अनुवाद किया था। श्रीमंत शंकरदेव ने ब्रजबुलि में ‘राम विजय’ नामक नाटक लिखा था। हालांकि, शंकरदेव वैष्णव मतावलंबी थे। इसके बावजूद भी, विलियम एल। स्मिथ के संदर्भ के अनुसार ऐसा माना जाता है कि- माधव कंदली द्वारा लिखित सप्तकाण्ड रामायण का पहला काण्ड और अंतिम काण्ड किसी दुर्योग से खो गया। जिसे फिर से निर्मित करवाने हेतु माधव कंदली शंकरदेव के सपने में आते हैं और उनसे दोनों कांडों का निर्माण करने को कहते हैं। इसके बाद शंकरदेव जी ने अपने शिष्य माधवदेव से आदिकाण्ड और उत्तरकाण्ड की रचना फिर से करवाई।”[15] इस प्रकार, माधव कंदली के बाद शंकरदेव के शिष्य माधवदेव जी ने रामायण के दो कांडों आदिकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड की रचना की। रचना यानी अनुवाद किया। हालांकि, माधवदेव द्वारा किए गए अनुवाद भावानुवाद या पाठ के पूर्ण अनुवाद की श्रेणी में नहीं आते। डॉ। नृपेन चंद्र दास अपने आलेख (Folk elements in the Epic Ramayana) में लिखते हैं कि- माधवदेव ने जब आदिकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड का अनुवाद करना शुरू किया तो इन्होंने मूल पाठ से केवल सूचनाओं को असमिया पाठ में अनूदित किया और अपनी तरफ से काल्पनिक कहानियां एवं कथाएं अनुवाद में जोड़ते गए। इनके द्वारा अनूदित पाठ में रूपकों एवं उद्धरणों का अच्छा प्रयोग किया गया है लेकिन यह मूल पाठ के कथानक से समानता बनाये हुए नहीं है। यह मूल पाठ का बस सारानुवाद है।”[16]
असमिया साहित्य में उपलब्ध रामायण के सभी कथानकों का आधार वाल्मीकि रामायण ही है। अनंत कंदली (1540–1580) कृत महिरावण वध शीर्षक से रामायण कथा पर आधारित एक कथा महत्त्वपूर्ण है। “असमी समाज में महिरावण वध की कथा बहुत प्रचलित है। यहां के लोगों द्वारा इस कथा का मंचन भी किया जाता है।”[17] हालांकि यह मूल वाल्मीकि रामायण की अहिरावण-महिरावण की कथा नहीं है। “ऐसा माना जाता है कि अनंत कंदली ने यह कथा आनंद रामायण, भावार्थ रामायण और रामलिंगामृत आदि से लिया है।”[18] इस रूप में देखा जाए तो, असमिया में राम कथा अथवा रामायण को पहुंचाने का काम अनुवाद के माध्यम से संभव हुआ। अनुवादकों के रूप में माधव कंदली के अनुवाद की सर्वाधिक चर्चा की जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य लेखकों/कवियों द्वारा किया हुआ अनुवाद, अनुवाद की उस गुणवत्ता तक नहीं पहुंच सका जहां तक माधव कंदली पहुंचे हुए थे। माधव कंदली के अनुवाद को पुनःसृजन के नाम से भी संबोधित किया जाता है। यहां के मूल असमिया भाषियों को यह समझ भी नहीं कि माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकाण्ड रामायण, एक अनुवाद है।
निष्कर्ष : भक्ति साहित्य में ‘राम’ महत्त्वपूर्ण आराध्य देव रहे हैं। हिंदी भाषा में भक्ति की परंपरा भले ही दक्षिण से रामानुज के माध्यम से आई लेकिन इससे बहुत समय पहले ही रामायण की परंपरा संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश एवं अवहट्ट आदि भाषाओं में प्रचलित रही है। संस्कृत रामायण के आधार पर इन भाषाओं में एवं देश की अन्य भाषाओं में रामायण का अनुवाद, रूपांतरण, भाषांतरण और पुनःसृजन आदि किया गया है। असमिया में माधव कंदली एवं उनके शिष्य द्वारा जो रामायण लिखा गया वह एक सुंदर अनुकरण एवं भाषांतरण का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन, इस भाषांतरण में भी इन लेखक-कवियों ने अपने माटी से जुड़ी, अपने समाज, परंपरा, संस्कृति आदि से जुड़ी लोक कथाओं, खान-पान के व्यवहार, रहन-सहन एवं मान्यता-विश्वास आदि को भी जोड़ दिया है। इसलिए, इस रचना को मूल रामायण का पूर्ण अनुवाद नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस अनुवाद में जो बदलाव किए गए हैं वह असमिया पाठकों की अनुभूति की दृष्टि से किए गए हैं।इस प्रकार असमिया भाषा एवं समाज को रामायण से जोड़ने एवं राम कथा से परिचित कराने में अनुवाद की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
सन्दर्भ :
https://mdoner।gov।in/about-north-east
Neog. Dimbeswar.1947.Introduction to Assam.Vora and Co.Publishers.Bombay. Page 9-10.
Ibid.
Ibid.
Ibid.
In classical Sanskrit literature both Prag-jyotisa and
Kamarupa occurs as alternative names of the country. Kalidas refers to it by both the
designation. Kakati. B. K. 1989. The Mother Goddess
Kamakhya. Page 1.
In epigraphic records the name Kamarupa was first mentioned
in the Allahabad inscriptuion of Samudra Gupta in the fifth century. Kakati. B. K. 1989. The Mother Goddess Kamakhya. Publication Board Assam. Page
2.
Ibid.
Raghavan.V। 1980 The Ramayana Tradition in Asia. Sahitya Akademi. New
Delhi. Page no- 583.
https://enrouteindianhistory।com/sabin-alun-the-karbi-retelling-of-ramayana/#:~:text=The%20Karbi%20Ramayana-,Known%20as%20'Sabin%20Alun'%2C%20which%20translates%20to%20the%20',of%20music%20to%20the%20Karbi।
Raghavan. V.1980. The Ramayana
Tradition In Asia. Sahitya Akademi. New Delhi. Page no- 583.
Raghavan. V. 1980. The Ramayana Tradition In Asia. Sahitya Akademi. New
Delhi. Page no- 584.
Raghavan। V. 1980. The Ramayana Tradition In Asia. Sahitya Akademi. New
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Hirumani Kalita. Ancient Assamese Translation: Literature and Translation
Methods. Page 2.
William L. Smith. The Wrath of Sita: Sankaradeva’s Uttarkanda, Page 03.
Dr. Nripen Chandra
Das.Folk elements in the Epic Ramayana: Story
of Mahiravana in Ramayana Tradition of Assam, Page 6.
Dr. Nripen Chandra
Das. Folk elements in the Epic Ramayana: Story
of Mahiravana in Ramayana Tradition of Assam, Dr. Nripen Chandra Das. Page 1.
Dr. Nripen Chandra
Das. Folk elements in the Epic Ramayana: Story
of Mahiravana in Ramayana Tradition of Assam, Dr Nripen Chandra Das, Page 4
संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024
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