लोक-रंग में डूबी कूची : हबीब तनवीर
- दीपिका वर्मा
साभारः गूगल |
बीज शब्द : भाषा, संस्कृति, समाज, नाटक, यथार्थ, जीवन, लोक, रंग-शैली, नाचा’ नृत्य, परिधान, सामाजिक परिस्थितियाँ।
मूल आलेख : जिंदगी को नाटक और नाटक को जिंदगी के रूप में तब्दील करने में दक्ष हबीब तनवीर नाट्य -संसार के लिजेंड कहे जा सकते हैं। भाषा पर जबरदस्त पकड़ रखने वाले हबीब के व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं। उनका व्यक्तित्व कवि, शायर, नाटककार, निर्देशक, गीतकार व अभिनेता तक अपना विस्तार पाता है। पद्मश्री, पद्मभूषण, संगीत नाटक अकादमी, संगीत नाटक एकादमी फेलोशिप जैसे बड़े-बड़े पुरस्कारों से नवाजे गए हबीब साधारण में एक असाधारण की खोज हैं। समकालीन युग ‘विमर्शों’ का दौर है जहाँ ‘सहानुभूति और 'स्वानुभूति' के प्रश्न को लेकर सदैव विवाद खड़ा रहता है। विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न हबीब इन दोनों के बीच का अंतर पाटते नजर आते हैं। उनके द्वारा लिखे व मंचित नाटक कल्पना के आसमान को चूमते हुए यथार्थ की जमीन तक अपने पैर पसारते हैं। छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्में हबीब के लिए ‘'लोक’ बेहद महत्वपूर्ण हो उठता है। नाटकों में उठाए गए विषय बेशक किसी से भी प्रेरित हों, किसी न किसी रूप में जनसाधारण से जा जुड़ते है और इस प्रकार लोक की वेश-भूषा, बोली, रहन-सहन, अनुभव, विचार यहाँ तक कि उनकी शैली भी इनके नाटकों का महत्वपूर्ण अंग बनकर उभरती है। ध्यातव्य है संस्कृति, समाज, देश और लोक से जुड़ा यह व्यक्तित्व नाट्य मंचन के लिए किन्हीं प्रोफेशनल, पढ़े-लिखे कलाकारों की ही मदद नहीं लेता अपितु निम्न जाति के अनपढ़, गरीब, पिछड़े लोग जो अभिनय से पूर्णतया अनभिज्ञ रहे, वे इनके अभिनेता बनते हैं। उनकी मातृ-बोली और शैली इनके नाटकों में अपना रूपाकार ग्रहण कर बौद्धिक वर्ग को आश्चर्यचकित कर देती है, “समकालीन भारतीय रंग परिदृश्य में श्री हबीब तनवीर के योगदान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भारत में रंगमंच को उसकी बुनियादी जड़ों से जोड़ते हुए नाटक के क्षेत्र में लगभग एक प्रकार के लोक सांस्कृतिक-पुनरुत्थान को संभव बनाया।... श्री हबीब तनवीर ने भारतीय नाट्य शैली की प्रखर कला-दृष्टि, लोक-रंगविदग्धता और उसकी बहुआयामी कल्पनात्मक व्यापकता को पश्चिम के समक्ष समर्थ रूप में प्रमाणित करने का कार्य भी किया है।”1
‘रॉयल एकेडमी ऑफ़ ड्रैमेटिक अदीस’ (1955) में अभिनय और ‘ओल्ड ब्रिस्टल ओल्ड विक थिएटर’ (1956) में निर्देशन का प्रशिक्षण”2 लेने वाले हबीब ने मातृभूमि से अपनी जड़ों को कमजोर नहीं पड़ने दिया बल्कि पाश्चात्य कलेवर को भारतीय परिधानों से सुसज्जित कर उन्हें नया रूप प्रदान किया। वे नाटकों में नित्य नए प्रयोग करते चले गए। छत्तीसगढ़ की 'नाचा' शैली उन्हीं के माध्यम से देश-विदेश में परिचित हो सकी। गीतों के माध्यम से कथा को आगे बढ़ाना उनके नाटकों में सहज दृष्टव्य है। ‘कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना’ नाटक के अंतर्गत ग्रामीण व शहरी अंतर प्रस्तुत है। ‘चरणदास चोर’ में केवल एक 'सत्य' के सिद्धांत को पकड़ चोर के अमर हो जाने की कहानी है। ‘आगरा बाजार’ में नायक न होते हुए भी नाट्य-कथा दर्शक या पाठक को बांधे रखती है। ‘गाँव के नाँव ससुरार मोर नाँव दमाद' में छत्तीसगढ़ी 'नाचा’ नृत्य शैली का प्रयोग किया गया है। देश, संस्कृति, साधारणजन उन्हें क्यूं अपनी और खींचता है इसके बारे में बात करते हुए हबीब कहते हैं- “मैंने यह भी पाया कि शेक्सपीयर को देखने का लुत्फ इंग्लैंड में आया वह और कहीं नहीं, रूसी जुबान मे चेखव को देखने में जो मजा आया वह और किसी जुबान में नहीं आया, यही हाल ब्रेख्त चुनांचे, मैं इस नतीजे पर पहुँचा- गलत या सही कि अपनी जमीन बू-बास अलग होती है और तभी नाटक में आकर्षण पैदा होता है, लिहाजा मैं यह चेतना लेकर लौटा था कि जाकर सीधे अपने लोगों से जुडूंगा, आई मस्ट कांटेक्ट पीपल ऑफ़ माय सॉइल।”3 रंगमंच के फनकार हबीब साहब द्वारा विभिन्न नाटकों की रचना की गई। उनके द्वारा रचित, निर्देशित व अभिनीत पहला नाटक ‘ आगरा बाजार' (1954) है। ध्यातव्य है कि उनके द्वारा लिखा गया यह नाटक 'नायकत्व' की दृष्टि से पारंपरिक नाट्य रूढ़ियों का खंडन करता है।‘आगरा बाजार’ में न तो कोई नायक है और न नायिका। न कोई बंधी-बंधाई कहानी ही है, यहाँ एक बाजार के दृश्य, परिस्थितियाँ और पात्रों के माध्यम से एक महत चरित्र को उभारने की प्रक्रिया अपनाई गई है और वह चरित्र है शायर नजीर का। एकाएक यह चरित्र हबीब के लिए क्यूं महत्त्वपूर्ण हो जाता है, इस पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं- “अगर कोई बात हमें वाजेह तौर से मालूम है तो बस ये कि अठारहवीं -उन्नीसवीं सदी के उस अज़ीमुश्शान शायर को मोतकददेमीन ने शायर ही न माना, मुखताजिल गो कह दिया। लेकिन अवाम ने उसके कलाम को सर आँखों पर उठाया और यही हकीकत हमारे लिए सबसे ज्यादा अहमियत रखती है”।4 नजीर को माध्यम बनाकर लिखा गया यह नाटक तात्कालीन परिस्थितियों व सामाजिक व्यवस्थाओं का ब्यौरा है। बाजार है, दुकानदार हैं, सामान भी है, पर खरीददार नहीं। नाटक के प्रारंभ में फकीर नज़्म के माध्यम से यथार्थ का परिचय कुछ इस प्रकार से देता है- “सर्राफ, बनिये, जौहरी और सेठ – साहूकार देते थे सबको नकद, सो खाते है अब उधार बाजार में उड़ी पड़ी खाक बेशुमार, बैठे है यूं दुकानों में अपनी दुकानदार, जैसे कि चोर बैठे हों कैदी कतारबंद”5
ये नज़्में सिर्फ नज़्में ही नहीं है बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था के कृत्यों पर जीता-जागता व्यंग्य है। बाजार में साजो-सामान लगाए दुकानदारों के हाथ पैसा नहीं लगता, लगती है तो बस चिड़चिड़ाहट, बौखलाहट, भीतरी बैचेनी जो बाहर आकर गुस्से का रूप ले लेती है और एक-दूसरे से नफरत की जड़ बनती है जो आपसी झगड़े में तब्दील होने में कुछ देर नहीं लगाती। पैसे के अभाव में जनता की हालत उन कुत्तों की सी हो गई है जो अपनी भूख मिटाने के लिए रोटी के एक छोटे से टुकड़े को लेकर भिड़ जाते है- “मुफलिस की कुछ नजर नहीं रहती है आन पर देता है वह अपनी जान एक-एक नान पर हर ऑन टूट पड़ता है रोटी के ख्वान परजिस तरह कुत्ते लड़ते हैं एक उस्तख्वान पर।”6 ऐसा नहीं है कि बाजार में बैठे दुकानदार एकदम सीधे-सादे और ईमानदार है, अवसर पड़ने पर चालाकी और धोखेबाजी भी इनके व्यक्तित्व में देखी जा सकती है। बाजार में दुकानदार द्वारा की जाने वाली मिलावट और धूर्तता को दर्शाने के लिए हबीब द्वारा इस नाटक में एक दृश्य का विधान किया गया हे जिसे अचार में मरा चूहा निकलने पर नजीर की नज्म द्वारा कुछ इस प्रकार पेश किया गया है -“फिर गर्म हुआ आनके बाजार चूहों का, हमने भी किया ख्वानचा तैयार चूहों का, सर-पाँव कुचल-कूटके दो चार चूहों का, जल्दी से कचूमर-सा किया चार चूहों का, क्या जोर मजेदार है अचार चूहों का।”7 दुकानदारों की आपसी लड़ाई-झगड़े के बाद पुलिस का आना और मामले को सहजता से सुलझाने की बजाय अपना मुनाफा कमाना पुलिस-व्यवस्था का यथार्थ चित्रण पेश करता है, जहाँ पुलिस साधारण जन की मदद कम और हर बात पर वसूली ज्यादा करती नजर आती है। आम जनता जो अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने हेतु पहले से ही काफी परेशानियों का सामना करती है उनके लिए किसी भी हाल में पुलिस से रू-ब-रू होना कष्टकारी सिद्ध होता है फिर चाहे उसने अपराध किया हो या न किया हो। “दारोगा- हाँ हाँ वह मुझे सब मालूम है। शरारत तुम सबकी हे जुर्माना तुम सबको देना होगा। थाने आकर रूपया दाखिल कर दो। लड्डूवाला- सरकार एक आदमी के पीछे हम सब गरीब क्यों मुफ्त में मारे जायें? उसी ने हम सबकी टाँग ली थी। बात-बात में झगड़ा खड़ा कर दिया।”8
अगर समाज में रहकर खुशहाल जीवन बिताना है तो उसका सिर्फ एकमात्र रास्ता है खुशामद, चमचागिरी। व्यवस्था में रहकर उसके द्वारा किए गए कार्यों में जो रम जाता है अथवा प्रशंसा करता है, व्यवस्था उसी पर रहमोकर्म करती है। विपरीत जाने पर वहीं व्यवस्था जन-सामान्य के लिए विविध परेशानियों का सबब बन जाती है। व्यवस्था के इस घिनौने रूप को इस नज़्म में बेहद व्यंग्यात्मक रूप से दर्शाया गया है- “गर भला हो तो भले की ली खुशामद कीजिए और बुरा हो तो बुरे की भी खुशामद कीजिए पाको नापाक-सड़े की भी खुशामद कीजिए कुत्ते, बिल्ली व गधे की भी खुशामद कीजिए जो खुशामद करे खल्क उससे सदा राज़ी है सच तो यह है कि खुशामद से ख़ुदा राज़ी है।”9
नाटक में वर्णित बाजार का दृश्य और नजीर की नज़्मे जहाँ तात्कालीक यथार्थ को प्रस्तुत करती हैं वहीं ये समस्याएं अनेक स्तरों पर आज के समाज से जुड़कर प्रासंगिक भी हो उठती है। नाटक की शुरुआत एक गरीब ककड़ी वाले से होती है जिसकी ककड़ी कोई नहीं खरीदता और अंत भी उसी से होता है, जब अपनी ककड़ी बेचने के लिए वह एक तरकीब निकालता है और नजीर से एक नज्म लिखवाकर उसे गा-गाकर ककड़ी बेचने लगता है। यह दर्शाता है कि नजीर एक ऐसे शायर रहे जो छोटे-से-छोटे सामान्य विषय पर भी अपनी लेखनी चलाने की दक्षता रखते हैं और इसका असर सुनने वाले के दिलो-दिमाग पर छा जाता है। दिनभर फेरी लगाने पर भी जिसकी ककड़ी नहीं बिकती, नजीर की नज्में गाते ही धड़ाधड़ बिकने लगती हैं-
“क्या प्यारी-प्यारी मीठी और पतली पतलियाँ हैं
गन्ने की पोरिया है, रेशम की तकलियां हैं
फरहाद की निगाहें, सीरी की हंस लियां हैं
मजनू की सर्द आहें, लैला की उंगलियां हैं।”10
इस प्रकार अवाम में नज़ीर और उनकी गज़लों का क्या महत्व है, किस कदर जन-सामान्य के दिलो-दिमाग पर उनकी सियासत बरकरार है, मरने के बाद भी जनता ने किस प्रकार अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उन्हें जिंदा रखा, इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति इस नाटक में देखने को मिलती है।- “उसकी जिंदगी में उसे किसी अदीब ने न पूछा, कमोबेश एक सौ साल तक अवाम ने नजीर को जिंदा रखा। उनके अशआर और उनकी नज़्में सीना-ब-सीना आज की नस्ल तक पहुँचा दिए गए, अवाम ने अपनी अमानत' की बड़ी जिम्मेदारी से हिफाजत की और हिंदुस्तान के शहर, देहात और कसबे आज भी नजीर के नगमों से गूंज रहे हैं”।11
हबीब द्वारा रचित चाटक 'चरणदास चोर’ (1975) का नायक एक चोर को बनाया जाता है। यह नाटक विजयदान देथा की राजस्थानी कहानी ‘सच्चाई की बिसात’ पर आधारित है। हबीब के अनुसार-“चोर की राजस्थानी लोक-कथा पर नाटक तैयार करने का ख्याल मुझे सबसे पहले 1974 में आया। विजयदान देथा (जिन्हें मित्र बिज्जी कहते हैं) ने मुझे ये कहानी जवानी सुनाई थी। बस इस कहानी ने मेरे दिमाग में जड़ पकड़ ली थी।”12
“1975 में ही श्याम बेनेगल द्वारा इस पर एक फ़िल्म का भी निर्माण किया गया जिसके अंत को इस नाटक की अपेक्षा बदल दिया गया जिससे यह बच्चों के लिए एक प्रहसन बन सके। नाटक इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि इसे एडीन बर्ग फ़्रिंग फेस्टिवल में ‘फ़्रिंग फर्स्ट अवार्ड’ से सम्मानित किया गया। “चरणदास चोर के जरिए तनवीर ने यह साबित कर दिखाया कि लोक परंपराओं के मेल और देशज रंग पद्धति से कैसे आधुनिक नाटक खेला जा सकता है। 1982 में एडीनबरा के विश्व ड्रामा फेस्टिवल में 52 मुल्कों के ड्रामो के बीच चरणदास चोर को मिले प्रथम स्थान ने हबीब तनवीर और नया थियेटर को दुनियावी स्तर पर मशहूर बना डाला।”13
यह नाटक एक बेहद साधारण छोटे से चोर के जीवन पर आधारित है जो गुरु को दिए वचन का बेहद ईमानदारी से पालन करता है। चोरी करना उसका पेशा है पर एक बार दिए गए वचन से कही भी मन चुराते हुए वह नहीं दिखता। फिर चाहे उसे इसके बदले में जीवन की हर सुख-सुविधा (जिसके बारे में एक साधारण मनुष्य सोच भी नहीं सकता) मिल जाने का लालच ही क्यूं न दिया गया हो।
“रानी: जउन बात हमन अभी आपस में करे हन येला तै।. काकरो पास में मत बतावे नई तो शहर में मोर बदनामी हो जाही.. बता.. बोल
चोर: तैं भुला गेस
रानी: का बात ला
चोर :मैं अपन गुरू करा सच बोले के परन करे हंव।
रानी: सच बोले के परन करे हस? पाँचवे पाँचने तभेच तो सच बोल बे ग।
चोर: रानी दाई।
रानी: चरनदास मेरे के बाद आदमी कुछ नहीं बोल सके चरनदास तोर प्राण तोला भई भाये
चोर : मरंव चाहे बांचव मै अपन गुरु के वचन ला नई तोड़व रानी! मोला माफी दे।”14
सत्य की राह पर चलना आसान नहीं, जिन ऐशों आराम का प्रस्ताव चरनदास चोर को दिया गया था वे किसी का भी मन डिगाने में पर्याप्त कहे जा सकते हैं, पर चोर जैसा साधारण व्यक्तित्व अपने समस्त स्वार्थ को परे रख अपने वचन से टस से मस नहीं होता और एक भाग्यशाली दुर्भागा बन जाता है। अंततः रानी द्वारा उसे मृत्युदंड दे दिया जाता है। इस प्रकार स्वार्थ पर 'सच' की जीत होती है। “यह चरनदास या किसी व्यक्ति का मूर्ति पूजन नहीं है, बल्कि सत्य और साधारण जन की असाधारण शक्ति में आस्था का नाट्य है।”15
इस प्रकार यह नाटक साधारण से व्यक्ति के असाधारण व्यक्तित्व में परिवर्तित होने की कथा है। जीवन के उसूलों को केंद्र में रखकर बनाई गई इसकी कथा अनेक मायनों में जन सामान्य के लिए महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो उठती है।
नाटक ‘बहादुर कलारिन’ एक मिथक पर आधारित नाटक है जिसमें कलारिन के जीवन में उसके प्रेमी का प्रसंग कल्पना पर आधारित है। इसके बारे में बताते हुए हबीब लिखते हैं-“ ‘दुर्ग-परिचय' शीर्षक से एक छोटी-सी किताब मेरे हाथ आ गई थी जिसे राजनांदगाँव के हिंदी साहित्यकार बलदेव प्रसाद मिश्र ने लिखा था। इस किताब का संक्षिप्त रूप में दुर्ग का इतिहास दर्ज था। भूगोल था, नक्शे के साथ। कुछ दुर्ग के खनिजों की जानकारी भी दी गई थी। इस किताब में एक-दो पृष्ठ में-बहादुर कलारिन का मिथक भी दर्ज है, यह नाटक छत्तीसगढ़ के एक गांव पर आधारित है जिसमें एक ऐसी औरत को नायिका बनाया गया है जो खूबसूरत है और शराब बेचने का कार्य करती है। हबीब के नाटकों की यह खासियत है कि वे अपने नाटकों के विषय और नायक एवं नायिका बेहद जमीनी और सामान्य चुनते हैं और उन्हें कुछ इस प्रकार से ढालते हैं कि वे प्रासंगिक बन उठते हैं। 'कलार समाज’ में ‘बहादुर' का नाम देवी की तरह लिया जाता है।”16
देवी है तो जरूर कोई न कोई विशेषता ऐसी जरूर होगी जो उसे सामान्य स्त्रियों से अलग करती है। एक बेटे का अपनी मां (बहादुर) की कामवासना में लिप्त होना आरे उसके आगे की कथा इस चरित्र को विशेष बना जाती है। कलारिन का परिचय लिखते हुए हबीब कहते हैं- “छतीसगढ़ के जिला दुर्ग तहसील बालोद में तीन गांव है बालागांव, सोररगढ़ और चिरचारी। ये तीनों गांव पास-पास आबाद है। सोरर और चिरचारी लगभग एक-दूसरे से लगे हुए हैं। बहादुर नाम की औरत यहीं की रहने वाली थी। जात की कलार यानि शराब बेचने वालों की जात। बहादुर अपनी सोने की मचौली पर बैठे शराब बेचा करती थी। आसपास के देशों-देहातों के अलावा दूर के इलाकों से लोग शराब पीने उसकी दुकान में आते थे।”17
एक शराब बेचने वाली महिला जो दिन भर विभिन्न ग्राहकों (पुरुष) के संपर्क में आती है पर चारित्रिक रूप से दृढ़ है। विपरीत परिस्थितियाँ भी उसे अपने चरित्र से डिगने नहीं देतीं। वह अपने बेटे की 126 शादियां करा चुकी है पर बेटे का दिल फिर भी नहीं भरता। अब उसकी नजर स्वयं उसकी मां पर है। मां बेटे के रिश्ते पर कलंक लगाता बेटे का यह कृत्य मां के लिए असहनीय हो उठता है दोनों के संवाद इसके प्रमाण हैं-
“छछान : अनेक औरत मैं बिहावेन, फेर दुनिया भर में तोर असन औरत नई देखेव ।
बहादुर : मोर असन-औरत नई देखे।
छछान: तोर से दूर नई रही सकल, ले मे कहि डरवे।
बहादुर: बने सोचे के गोढिया थस
छछान: मैं सब सोच डरेन
बहादुर :वै बइहागेहस का छछान !
छछान : होव ।”18
अपने बेटे की कुदृष्टि देख यह महिला भीतर ही भीतर टूट जाती है और अंततः अपने और अपनी 126 बहुओं के सम्मान के लिए (जिन्हें छछान केवल मन बहलाव का साधन मानता आया) छछान की हत्या का जाल बुनती है और बुद्धिमता से उसे मार देती है। इसके साथ ही बेटे के जाने से घायल ममत्व स्वयं के प्राणों की भी बलि दे देता है। इस तरह यह चरित्र नारी सम्मान के साथ-साथ संबंधों की गरिमा की रक्षा कर अमर हो जाता है और साधारण स्त्री जन सामान्य के समक्ष देवी पद पर प्रतिष्ठित हो जाती है। हबीब मां-बेटे के इस संबंध में बेटे को पूर्ण दोषी नहीं मानते बल्कि उसके व्यवहार के मूल में ‘इडिपस कॉमप्लेक्स’ विश्लेषित करते हुए एक अलग नजरिया रखते दिखाई पड़ते हैं- “फिर मैने कहा: 'इंसेस्ट’ एक बीमारी भी हो सकती है। मैंने फ्रायड के बारे में बताया और कहा: तुम लोग केवल छछान को दोषी क्यूँ समझते हो? हो सकता है इस बात की जिम्मेदारी एक हद तक बहादुर पर भी आती हो। तुम यह देखो कि घर में एकमात्र पुरुष छछान था। मां को एक बड़ी उम्र तक मतलब बारह-तेरह बरस की उम्र तक, वह उसे अपने बिस्तर पर सोने देती हो। कभी-कभी वह बिस्तर में पेशाब कर देता हो। बहादुर उसे नहलाती-धुलाती हो। तेल से उसके बदन की मालिश करती हो, बाल संवारती हो। परिणाम यह हुआ कि लड़के में एक तरह की बीमारी पैदा हो गई।”19
नाटक की कथा गीतों और नाच के माध्यम से आगे बढ़ाई गई है। छछान की 126 शादियां मंच पर दिखाना अपने आप में एक चुनौती था जिसे हबीब ने अपनी बौद्धिकता का सहारा लेकर नाट्य मंचन पर प्रस्तुत किया। नाटक में यह एक प्रयोग है, इसके लिए उन्होंने जनजातियों के नर्तकों का सहारा लिया। “इस प्रस्तुति में हबीब ने पंथी लोक कलाकारों के साथ जनजातियों के नर्तकों को सम्मिलित करने का प्रयोग भी किया। मंडला गांव के यह गोंड नर्तक पंथी कलाकारों जैसे प्रभाव पूर्ण नहीं रहे तथापि उन्होंने बहादुर कलारिन को प्राणवान बनाया।”20
इस प्रकार 'नया थिमेटर’ द्वारा निर्मित 'बहादुर कलारिन ' कल्पना, मिथकीय चरित्र, कहानी, नृत्य और गीत की शैली के रूप में एक प्रयोगात्मक रचना कही जा सकती है। क्या बौद्धिकता कट्टरता को हरा सकती है या धार्मिक कट्टरता बौद्धिकता के तर्कों को खारिज कर उसे तार-तार कर देती है? यह एक प्रश्न है जो आज के समाज में भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना हबीब तनवीर के नाटक ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ में। नाटक की शुरुआत बाबरी मस्जिद टूटने की सांप्रदायिक समस्या से होती है। यह नाटक इसके मूल के खोज की कहानी है- मजहब या राजनीति? इसी प्रश्न के आलोक में यह नाटक खेला जाता है जिसकी कहानी के मूल में ‘अस्कंदरिया के कुछ वाकेआत’’ रखे जाते हैं। कहानी की मूल केंद्र ‘हिपेशिया’ नामक औरत है जो नाटक में कुछ इस प्रकार परिचित होती है- “दुनिया के मशहूर गणितज्ञ थियोन की बेटी हिपेशिया किसी परिचय की मोहताज नहीं है, आप जानते ही है कि थियोन ने गणित और खगोल के विषय पर बहुत किताबें लिखी, उनके गुजर जाने के बाद हिपेशिया ने उनसे भी ज्यादा तरक्की की। किताबें लिखीं ओर अपना नाम रोशन किया। गणित, खगोल और फलसफे के सिलसिले में इस वक्त दुनिया में हिपेशिया का सानी मौजूद नहीं।”21
नाटक की कहानी मिश्र के सेरापीस के मंदिर तुड़वाने की घटना से संबंधित है जो मजहब और सियासत का प्रश्न है। क्या यह जरूरी है कि सियासत जिस धर्म की हो, आवाम उसी धर्म को अपनाए, अगर जन सामान्य इस धर्म को मानने से इनकार कर देता है तो सियासत के राजनीतिक कृत्य उसे उस धर्म के लिए विवश करते नजर आते हैं। “सीजरों का जमाना लद गया। वो ईसाई नहीं थे। अब इधर कोई एक सौ साल से जैसा कि तुम खूब जानती हो ईसाईयों का राज है, ईसाई बादशाह का मजहब भी है और मुल्क का मजहब भी होना चाहिए।”22
हबीब बौद्धिकता और धार्मिक कट्टरता की टकरार में दिखाते हैं कि बौद्धिकता किस हद तक पराजय का शिकार होती है। धार्मिक कट्टरता जिसका मूल मानवता व परोपकार का भाव होना चाहिए वह एकाएक परिवर्तित हो जाता है और यही धार्मिक कट्टरता सांप्रदायिक दंगों की वजह बनती नजर आती है। मानवता, इंसानियत को भूल मनुष्य दंगे-फसाद, लूट-पाट, मार-काट करता है और इस प्रकार पाशविकता से भरा समाज भीड़ का आलम लिए बौद्धिकता को तार-तार करता दिख पड़ता है। हिपेशिया ऐसे ही धर्म पर प्रश्न करती है, लोगों को इंसानियत का पाठ पढ़ाने की कोशिश करती है यथा-“हर मजहब एक नया ख्याल लेकर आता है। लेकिन आगे चलकर उसमें एक ऐसा मुकाम भी आ सकता है जब उसमें कट्टरपन आ जाता है, (बाहर से राहिबो का शोर) अगर मजहब यहां पहुंचकर रुक गया और दूसरे मजहब के लोगों को जुल्म ओ तशददुत का शिकार बनाने लगा, तो ऐसा मजहब महज जहालत बनकर रह जाता है और कुछ नहीं। हां अगर वह अपने सामने के उस दूसरे रास्ते पर आ जाए जहां सारी इंसानियत, सारी मानवता से मुहब्बत और रवादारी की मंजिलें मिलती हैं तो वह पनपता रहेगा।” 23
धर्म की आड़ में इंसानियत को अपने पैरों तले रौंदती घटनाएं हर युग की समस्या हैं। हिपेशिया जैसा बौद्धिक किरदार जो अपने कार्य को ही धर्म मानता रहा, मानवता की शिक्षा देता रहा, वही अंततः सांप्रदायिक घृणा का शिकार बन जाता है। धार्मिक जुर्म की शिकार बनी हिपेशिया का अंत सहृदय के रोंगटे खड़ा कर देता है। नाट्य-अंत में इस प्रसंग को इस तरह से बेहद मार्मिकता के साथ उठाया गया है-
“रावी 1 : पीटर की कमान में नाइट्रीया के राहिब हिपेशिया को रास्तों में घसीटते हुए गिरजा के अंदर ले गए।
रावी 2 : गिरिजा के खपरैलों से खुरच-खुरच कर उसकी खाल नोची।
रावी 1 : फिर भी देखा कि उसकी आंखों में जान बाकी है, तो आंखें नोंच लीं।
रावी 2: फिर उसके जिस्म का एक एक अज़्व काटकर टुकड़े-टुकड़े किया।
रावी 1 : और बाहर ले जाकर उसे जला दिया।”24
इस प्रकार हिपेशिया के जरिए यह नाटक धर्म, कट्टरता और सांप्रदायिक जहर के प्रसार का विरोध कर मानवता के स्थापत्य का हिमायती बनकर सामने आता है।
इनका अगला नाटक 'कामदेव का अपना वसंतऋतु का सपना’ विलियम शेक्सपीयर के नाटक 'मिड समर नाइट्स ड्रीम' से अनुवादित है। विदेशी नाटक को देशीय परिधान से सुसज्जित कर मंचित किया जाना इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता है। ग्रामीण-शहरी संस्कृति, वेषभूषा, भाषा शैली अनेक दृष्टियों से यह नाटक अपने आप में एक प्रयोग कहा जा सकता है। अमितेश कुमार के अनुसार- “हबीब तनवीर ने इस प्रस्तुति में विभिन्न शैलियों का दिलचस्प समावेश किया है, पक के प्रवेश में संस्कृत शैली इस्तेमाल होता है, रंग पटी के पीछे से पक प्रवेश करता है, कभी हाथ, कभी पैर और कभी सर हिलाते हुए और फिर पूरा बाहर ग्रीक नाटकों की तरह कोरस का इस्तेमाल है ही, आदिवासी वाद्य, वेशभूषा और नृत्य का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने आदिवासी कला का इस्तेमाल किया है, शहरी अभिनेताओं की गति एवं संवाद शैली यथार्थवादी है, ग्रामीण अभिनेताओं के संवाद में और उनके नाटक में पारसी, रंगमंच और नाचा की संवाद अदायगी का प्रभाव है।”25
नाटक के भीतर नाट्य प्रस्तुति इसे और अधिक रुचि पूर्ण बना देती है। एक साथ तीन दृश्यों का अथवा घटनाओं का समायोजन इस नाटक में किया गया है। पहले ड्यूक और राजकुमारी हिप्पोलिटा के विवाह का अवसर प्रस्तुत है। दूसरी कहानी में इस विवाह में गांव के निर्धन मजदूर नाटक प्रस्तुति के लिए तैयारी कर रहे हैं जो बिल्कुल भी प्रोफेशनल नहीं हैं। तीसरी कहानी परियों के राजा ओबरॉन और रानी टाइटेनिया के बीच की खटपट की है, जहां ओबरॉन को एक सेवक ना देने की कोताही बरतने वाली रानी की आंखों में पक के माध्यम से वह एक ऐसा रस डलवा देता है जिससे जब रानी सोकर उठे तो जिसे वह पहली बार देखे उससे उसे प्यार हो जाए। ऐसे में एक पात्र (बॉटम) है जो ग्रामीणों के साथ विवाह में प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक में गधे की भूमिका की रिहर्सल कर रहा है परंतु ओबेरॉन का विश्वासी पक अपने जादू से उसका सर गधे में तब्दील कर देता है और नींद से आंखें खुलने पर रानी उससे प्रेम करने लगती है। बाद में मनचाहा सेवक मिलने पर ओबेरॉन उसे ठीक कर देता है। अपने कलेवर में बेशक यह कथा नाटक प्रहसन लगता है। एक रानी द्वारा गधे को प्रेम किया जाना अनेक स्थानों पर हास्यास्पद हो जाता है यथा
“टाइटेनियम : और खाने के लिए तुम्हें क्या पेश करूं मेरे छैला?
बॉटम : हव एक गड्ढा घास मोला ला दे, चना अउ अच्छा सूखा ज्वार घलो मोला अच्छा लगथे। फेर पैरा के एक बोतल माने बंडल कोई ला दे, तो बहुते अच्छा हो, अच्छा पैरा बढ़िया पैरा ओकर कोई जवाब नईं।”26
इसके साथ ही यह नाटक पुरुषों की नजरों में स्त्री की उपहासात्मक स्थिति का बोध भी कराता है। ग्रामीणों द्वारा पिरेमस और थिस्बी की कहानी का नाट्यरूपांतरण और अभिनय, ग्रामीणों के सरल सहज स्वभाव का दर्शन है। शहरी और ग्रामीणों की भाषा नितांत अलग है यथा ग्रामीण भाषा का एक उदाहरण दृष्टव्य है-“चाँद : मोला बस अतकेच केहेबर रिहिस ये लालटेन चाँद है। मैं चाँद के अंदर के आदमी हंव। ये झाड़ी मोर झाड़ी और ये कुत्ता मोर कुत्ता है।”27
ये ग्रामीण जन सीमित साधनों के माध्यम मे नाटक में दृश्य क्रिएट करते दिखलाई पड़ते है जहाँ इसका भोलापन, सहज स्वभाव से ग्रामीण संस्कृति का परिचय मिलता है जो इनकी खासियत है। इन नाटकों के अतिरिक्त ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘पोंगा पंडित’ व गाँव के नाँव ससुरार मोर नाँव दमाद जैसे अन्य अनेक नाटक हबीब तनवीर द्वारा रचे गए जो नाटय संसार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं।
निष्कर्ष : हबीब तनवीर द्वारा लिखा गया एक एक नाटक समाज सुधार की मांग है। उनका प्रत्येक नाटक जमीन से जुड़ा है, कलाकार जमीन से जुड़े हैं और उनका खुद का व्यक्तित्व देश-प्रेम, संस्कृति-प्रेम का परिचायक है। नाटक में यथार्थ का पुट डालकर वे केवल कथा ही नहीं रचते अपितु उसमें जीवन से उठाए वास्तविक पात्रों का समायोजन भी करते हैं। लोक से जुड़ते हैं और लोक से जोड़ते भी हैं। प्रयोग करते भी हैं और प्रयोग करवाते भी हैं। नाट्य-कथा चाहे वह मिथक से हो, इतिहास से हो अथवा विदेशी रचनाओं से ही क्यों न हो, बेहद मार्मिकता, स्वाभाविकता और मेहनत के साथ अपना प्रदर्शन पाती है। इस प्रकार हबीब तनवीर नाटकों के माध्यम से देश और विदेशों में अपनी भाषा, सभ्यता-संस्कृति को पहचान और महत्त्व प्रदान करते हैं। हबीब एक ऐसे नाटककार हैं जो न केवल लोक और जमीनी धरातल पर जुड़ कर साहित्य, समाज और जीवन को नई दृष्टि प्रदान करते हैं अपितु अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से समाज के समक्ष जीवन के यथार्थ खोलकर रख देते हैं और सहृदय दृष्टा अथवा पाठक प्रश्नों के आलोक में जीवन को नई दृष्टि से सोचने पर मजबूर हो जाता है। इस प्रकार जीवन, जगत और साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले हबीब तनवीर नाट्य इतिहास में एक लिजेंड के रूप में अपना स्वरूप प्राप्त करते हैं।
संदर्भ :
- जयदेव तनेजा : आधुनिक भारतीय रंग परिदृश्य, टी. एस. बिष्ट तक्षशिला प्रकाशन, 98 ए, हिंदी पार्क, दरयागंज नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2015, पृष्ठ संख्या 50
- https://en.wikipedia
- संपादक हरिनारायण : कथादेश, अंक 7, सितंबर 2023, पृष्ठ संख्या 7
- हबीब तनवीर : आगरा बाजार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, 2019, पृष्ठ संख्या 7 .
- वही, पृष्ठ संख्या 47
- वही, पृष्ठ संख्या 55
- वही, पृष्ठ संख्या 76
- वही, पृष्ठ संख्या 74
- वही, पृष्ठ संख्या 61
- वही, पृष्ठ संख्या 106
- वही, पृष्ठ संख्या 7
- वही, पृष्ठ संख्या 55
- https://www.prabhatkhabar.com
- हबीब तनवीर : चरणदास चोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ संख्या 78
- संपादक : हरिनारायण, कथादेश, अंक 7, सितंबर 2023, पृष्ठ संख्या 6
- हबीब तनवीर : बहादुर कलारिन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ संख्या5-6
- वही, पृष्ठ संख्या 5
- वही, पृष्ठ संख्या 81
- वही, पृष्ठ संख्या 9
- https://arambha.blogspot.com
- हबीब तनवीर : एक औरत हिपेशिया भी थी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ संख्या 29
- वही, पृष्ठ संख्या 41
- वही, पृष्ठ संख्या 58
- वही, पृष्ठ संख्या 88
- https://samvadnews.in
- हबीब तनवीर : कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2004, पृष्ठ संख्या 39
- वही, पृष्ठ संख्या 56
दीपिका वर्मा
सह आचार्य हिंदी विभाग, श्यामलाल कॉलेज(सांध्य ),दिल्ली विश्वविद्याल
deepsi2010@gmail.co.in 8506077 505
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
एक टिप्पणी भेजें