शोध सार : वैश्वीकरण के दौर में अनुवाद का महत्त्व निर्विवाद है। अनुवाद हर क्षेत्र में अपनी महती भूमिका निभा रहा है। जबकि अनुवाद कला और विज्ञान दोनों रूपों में स्थापित हो चुका है, फिर भी अनुवाद सीखने और करने के लिए भाषा शिक्षण का महत्व भी स्पष्ट है। चूँकि, अनुवाद और भाषा शिक्षण दोनों ही कार्य क्षेत्रों में भाषा की तुल्यता विचारणीय है, अतः व्यतिरेकी विश्लेषण की आवश्यकता स्पष्ट दिखाई देती है। प्रस्तुत आलेख व्यतिरेकी विशलेषण के अर्थ, इतिहास, चरण एवं आवश्यकता पर केन्द्रित है। आलेख में तमिल से हिन्दी और हिन्दी से तमिल भाषा में अनुवाद करते समय आने वाली चुनौतियों पर विचार करते हुए व्यतिरेकी विश्लेषण के विविध पहलूओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : व्यतिरेक, रूप विधान, स्रोत भाषा, लक्ष्य भाषा, भाषा शिक्षण, अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान, मातृभाषा व्याघात, अधिग्रहण, ध्वन्यात्मक संयोजन, तुलनात्मक अध्ययन, संयोजक, प्रतीक चिह्न, द्वितीयक भाषा अर्जन, अन्तर-भाषिक अनुवाद, व्यतिरेकी विश्लेषण।
मूल आलेख : प्रत्येक भाषा की अपनी एक विशेषता है और यह विशेषता ही भाषा को एक दूसरे से भिन्न पहचान प्रदान करती है। मनुष्य दूसरी भाषा सीखने के लिए पहले से सीखी हुई भाषा का सहारा लेता है। एक नई भाषा सीखने में कठिनाइयाँ द्वितीयक भाषा और भाषा सीखने वाले की मातृभाषा के बीच के अंतर से उत्पन्न होती हैं। इस संबंध में, दूसरी भाषा के विद्यार्थीयों द्वारा मातृभाषा के बीच होने वाले संभावित रूप से की गई त्रुटियों का पूर्वानुमान लगाया जाता है। ऐसी घटना को आमतौर पर नकारात्मक हस्तांतरण के रूप में भी जाना जाता है। इस प्रकार के त्रुटि विश्लेषण अन्तर-भाषिक होते हैं, जो मूल भाषा अथवा मातृभाषा के लिए विशिष्ट नहीं होते हैं। व्यतिरेकी विश्लेषण यहीं पर कार्यरत होता है। व्यतिरेकी विश्लेषण भाषा शिक्षण में आने वाली कठिनाइयों की पहचान कर भाषा शिक्षण को विद्यार्थियों के लिए सुगम बनाने का भरसक प्रयास करता है। इसके द्वारा दोनों भाषाओं में मौजूद असमान बिंदुओं को प्रकाश में लाया जाता है। इस प्रणाली से शिक्षण के समय भाषा शिक्षक के निर्देशानुसार अभ्यास करने से भाषा शिक्षार्थी कम से कम त्रुटियां करते हैं। कह सकते हैं कि व्यतिरेकी विश्लेषण का लक्ष्य दूसरी भाषा के अधिग्रहण के दौरान अनुभव की गई भाषाई कठिनाइयों की भविष्यवाणी करना है। व्यक्ति द्वारा मातृभाषा के अलावा द्वितीय भाषा से संपर्क होने पर उस भाषा को सीखने व अनुवाद करने की लालसा तक ले जाता है। चूँकि अनुवाद दो भाषाओं के बीच होने वाले भाषाई व सांस्कृतिक आदान-प्रदान का माध्यम है और स्रोत तथा लक्ष्य भाषा में अन्तर होना स्वाभाविक है अतः भिन्नताओं की जाँच के लिए अनुवादक को व्यतिरेकी विश्लेषण की आवश्यकता पड़ती है। यह व्यतिरेक ही है जो अनुवादक के समक्ष समस्याएं प्रस्तुत करता है। अनुवाद की दृष्टि से भाषा के सार्थक तत्वों का व्यतिरेकी विश्लेषण विशेष महत्व रखता है।
व्यतिरेकी विश्लेषण का अर्थ -
व्यतिरेकी विश्लेषण की सहायता से भाषा विज्ञान में दो भाषाओं की तुलना करके दोनों भाषाओं विरोधी तत्त्वों का पता लगाते हैं। व्यतिरेकी का अर्थ है ‘असमानता’ या ‘विरोध’। राबर्ट लाडो का मत है कि दोनों भाषाओं की व्यवस्थित तुलना के द्वारा समान, असमान और अर्धसमान तत्त्वों के कारण भाषा शिक्षण में व्याघात की स्थिति पैदा होती है। अतः इस व्याघात की स्थिति को दूर करने के लिए व्यतिरेकी विश्लेषण की सहायता ली जाती है। ‘Difficulties in learning a language can be predicted on the basis of a systematic comparison of the system of the learner’s first language [its grammar, phonology and lexicon] with the system of a second language.’
कार्ल जेम्स के अनुसार, ‘Contrastive Analysis is a linguistic enterprise aimed at producing inverted [i.e. contrastive, not comparative] two – valued typologies [a C.A. is always concerned with a pair of the languages], and founded on the assumption that languages can be compared.’
क्रिस्टल के अनुसार, ‘In the study of foreign language learning, the identification of points of structural similarity and difference between two languages is defined as Contrastive Analysis.’
कृष्ण कुमार गोस्वामी के अनुसार ‘व्यतिरेकी विश्लेषण द्वारा भाषा विज्ञान दो भाषाओं की समकालीन संरचनाओं में निहित समानताओं असमानताओं या भिन्नताओं को स्पष्ट रूप से सामने लाता है। इसकी सहायता से भाषा सीखने समय होने वाली त्रुटियों का अनुमान लगाया जाता है’।
डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, ‘दो या दो से अधिक भाषाओं के सभी स्तरों पर तुलनात्मक अध्ययन द्वारा समानताओं और असमानताओं के निकालने को व्यतिरेकी विश्लेषण कहते हैं’।
व्यतिरेकी विश्लेषण के संबंध में प्रो. सूरजभान सिंह कहते हैं- ‘ध्वनि, लिपि, व्याकरण, शब्द, अर्थ, वाक्य और संस्कृति जैसे विभिन्न स्तरों पर दो भाषाओं की संरचनाओं की परस्पर तुलना कर उनमें समान और असमान तत्वों का विश्लेषण करना व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है’।
इस प्रकार व्यतिरेकी विश्लेषण पदावली अंग्रेजी के Contrastive Analysis का हिन्दी पर्याय शब्द है। जिसमें किन्हीं दो भाषाओं की तुलना करते हुए उनमें समता और विषमता के आधार पर अध्ययन तथा विश्लेषण किया जाता है। अनुवाद की दृष्टि से भाषा के सार्थक तत्वों- रूप विधान, शब्द विधान और वाक्य विधान का व्यतिरेकी विश्लेषण विशेष महत्व रखता है। व्यतिरेकी विश्लेषण प्रणाली के अंतर्गत भाषा के इन तत्वों के प्रभेदों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जाता है। दो भाषाओं की तुलना करते हुए उनमें आयी विषमता का पता चलता है। विषमता का यह विश्लेषण भाषा वैज्ञानिक शब्दावली में व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है।
व्यतिरेकी विश्लेषण का इतिहास -
व्यतिरेकी विश्लेषण का संबंध व्यतिरेकी भाषाविज्ञान से है, जो अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की एक शाखा है। व्यतिरेकी भाषाविज्ञान अपने आधुनिक रूप में बहुत पुराना नहीं है। 18वीं-19वीं शताब्दी के ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक भाषाविज्ञान में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामान भाषाओं के तुलनात्मक अथवा ऐतिहासिक अध्ययन के लिए तुलनात्मक शब्द का प्रयोग होता था, इसलिए भाषा विज्ञान की इस नई शाखा को व्यतिरेकी कहा गया। क्योंकि इसमें समकालीन भाषाओं की न केवल समानताओं और असमानताओं को देखा जाता है बल्कि उनकी तुलनीय विशेषताओं का भी अध्ययन होता है। यह संरचनात्मक समानता और दो भाषाओं के बीच अंतर के बिंदुओं की पहचान करता है। 1950 और 1960 के दशक में भाषा शिक्षण के लिए संरचनात्मक भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग के रूप में व्यतिरेकी विश्लेषण विकसित हुआ। व्यतिरेकी विश्लेषण पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सैनिकों को अन्य भाषा सिखाने के उद्देश्य से भाषा शिक्षण सामग्री तैयार करने के लिए किया गया था। उस समय भिन्न भाषाभाषी लोगों के द्वितीयक भाषा अर्जन के लिए भी शिक्षण सामग्री के निर्माण हेतु इसका प्रयोग किया गया। जिसमें अन्य भाषा सीखने वालों को उसकी मातृभाषा एवं लक्ष्य भाषा के बीच स्थित समान एवं असमान तत्वों से अवगत कराना निहित था। साथ ही इस विश्लेषण के आधार पर शिक्षण सामग्री निर्मित भी की जाती थी। इस दृष्टि से भाषा शिक्षण के क्षेत्र में व्यतिरेकी विश्लेषण का प्रमुख योगदान रहा। लाडो के अनुसार व्यतिरेकी विश्लेषण इस धारणा पर आधारित था कि दूसरी भाषा को सीखने वाला व्यक्ति अपनी पुरानी आदतों को दूसरी भाषा में स्थानांतरित कर देगा। मनुष्य अपनी मूल भाषा, संस्कृति के रूपों और अर्थों के वितरण को स्थानांतरित करते हैं। भाषा शिक्षण के दौरान भी भाषा के वे रूप जो स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा में समान हैं, शिक्षार्थियों के लिए सुविधाजनक होते हैं, हालांकि जो अलग हैं वे उनके लिए कठिनाई का कारण बनते हैं। ऐसी स्थिति में व्यतिरेकी विश्लेषण शिक्षार्थीयों की द्वितीय भाषा अर्जन में मददगार सिद्ध होता है इसलिए इसमें द्वितीयक भाषा अधिग्रहण की सफल महारत के लिए प्रमुख ‘बाधा’ या ‘विरोधी तत्त्व’ शामिल हैं।
यदि हम व्यतिरेकी विश्लेषण सिद्धांत को भाषा शिक्षण के अतिरिक्त अनुवाद के संदर्भ में समझें तो यह पाते हैं कि इन दोनों क्षेत्रों में व्यतिरेकी विश्लेषण की पद्धति में कुछ अंतर भले ही हो किंतु प्रासंगिकता निर्विवाद है। वैसे भी यदि दूसरी भाषा शिक्षण को विस्तृत रूप प्रदान किया जाए तो यह एक प्रकार से अनुवाद सिखाना ही है। क्योंकि भाषा शिक्षण के अंतर्गत विद्यार्थी यदि अन्य भाषा सीख रहा होता है तो इस शिक्षण प्रक्रिया के दौरान अनुवाद ही करता है। वह मातृभाषा और लक्ष्य भाषा के संरचनात्मक ढांचे में परस्पर भेद करते हुए मातृभाषा में विद्यमान भाषाई कारकों का अनुवाद करते हुए ही दूसरी भाषा सीखता है। ठीक इसी प्रकार अनुवाद करने से पहले अनुवादक भी लक्ष्य भाषा के व्याकरण को जानने की आवश्यकता महसूस करता है क्योंकि भाषाई कारकों के आधार पर ही स्रोत भाषा की प्रकृति, संरचना एवं व्याकरण आदि के विषय में जानकारी मिल जाती है। अनुवाद करने के लिए अनुवादक से स्रोत एवं लक्ष्य भाषा दोनों पर ही समान अधिकार अपेक्षित होता है। अनुवादक भाषाओं के मध्य के व्यतिरेक को जितना अच्छे से समझ पायेगा उतना ही अच्छा अनुवाद कर्म प्रस्तुत करेगा। इस तरह अनुवाद के क्षेत्र में भी व्यतिरेकी विश्लेषण की प्रक्रिया एक आवश्यक औजार के रूप में प्रयोग किया जाता है। अतः भले ही व्यतिरेकी विश्लेषण पद का अविर्भाव उन्नीसवीं सदी में हुआ परन्तु अनुवाद कर्म में यह आरम्भ से ही विद्यमान रहा है।
व्यतिरेकी विश्लेषण की प्रक्रिया में मुख्यतः चार चरण होते हैं- विवरण, चयन, विषमता और अनुमान। विवरण के चरण में विश्लेषणकर्ता को दोनों भाषाओं का सामान्य विवरण प्रदान किया जाता है। चयन के समय विश्लेषणकर्ता विषमता का अध्ययन करने के लिए कुछ चुनिंदा स्वरूपों जैसे, भाषा वैज्ञानिक अवयव, नियम व संरचना आदि का चयन करता है। तीसरे चरण में विषमता को चिन्हित किया जाता है परंतु दो भाषाओं के प्रत्येक विषम अवयव को चिन्हित करना लगभग असंभव होता है। इसलिए दोनों भाषाओं के चुनिंदा अवयवों में से ही समानता और असमानता को दर्ज किया जाता है। अंतत: अनुमान का चरण आता है जिसमें विश्लेषणकर्ता उन समस्याओं और कठिनाइयों का अनुमान करता है जिनका अनुवादक को लक्ष्य या स्रोत भाषा के पाठ का अर्थ समझने में करना पड़ सकता है। इस प्रकार व्यतिरेकी विश्लेषण द्वारा दो भाषाओं के अन्तर्निहित संबंधों को समझा जाता है और उसके आधार पर अतःसंप्रेषण को प्रभावी बनाया जा सकता है। अतः व्यतिरेकी विश्लेषण अनुवाद प्रक्रिया में भी सहायक सिद्ध होता है।
सामान्यतः व्यतिरेकी विश्लेषण में हम परस्पर विरोधी तत्वों की खोज करते हैं और उनके आधार पर भाषा में आये व्यतिरेकों का पता लगाते हैं। चुंकि भाषाओं की विकास यात्रा अपनी निजी होती है इसलिए यहां व्यतिरेकी विश्लेषण का महत्व बढ़ जाता है। तमिल से हिन्दी अथवा हिन्दी से तमिल अनुवाद में व्यतिरेकी विश्लेषण के दौरान निम्नलिखित स्तरों पर असमानताएं देखी जा सकती हैं-
ध्वन्यात्मक व्यतिरेक -
ध्वनि विश्लेषण के समय प्रायः संज्ञावाचक व्यतिरेकी मिलते हैं। व्यतिरेकी विश्लेषण करते समय स्रोत तथा लक्ष्य भाषा में विरोध उत्पन्न करने वाले ध्वनियों को ध्वनि विज्ञान के स्तर पर समझना पड़ता है। ध्वनियों का व्यतिरेकी विश्लेषण करते समय चार प्रकार दिखते हैं।
वे ध्वनियां जो दोनों भाषाओं में समान होती हैं।
वे ध्वनियां जो आंशिक रूप से समान होती हैं।
वे ध्वनियां जो दोनों भाषाओं में मौजूद होती हैं, पर एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न होती हैं।
वे ध्वनियां जो स्रोत भाषा में होती हैं, पर लक्ष्य भाषा में बिल्कुल नहीं होती है।
उदाहरण के लिए तमिल भाषा की वर्णमाला में 12 स्वर और 18 व्यंजनों के साथ 247 ध्वन्यात्मक संयोजन शामिल होते है। जबकि हिन्दी भाषा में 11 स्वर और 35 व्यंजनों के साथ 372 ध्वन्यात्मक संयोजन होते हैं। हिन्दी में कुछ लोग ‘तामिल’ या ‘तमिल’ कुछ लोग ‘तमिल्’ तथा कुछ लोग ‘तमिष़’ तो कुछ ‘तमिऴ’ लिखते तथा बोलते हैं जबकि मूल शब्द इन शब्दों से बिल्कुल ही अलग है। तो निकटतम में परिवर्तन के आधार पर ‘तमिल’ या ‘तामिल’ (जो ज्यादा प्रचलित है) को ही मान्यता मिलनी चाहिए जबकि ऐसा नहीं है। कुछ लोग तो यह मानते हैं कि अनुवाद करने में स्रोत भाषा की प्रत्येक नई ध्वनि को लक्ष्य भाषा में अपना लेना चाहिए तथा उसके लिए नए लिपि चिन्ह भी बना लेने चाहिए। ‘तमिष़’ लिखने के पीछे यही धारणा रही है जो की सार्थक प्रतीत नहीं होती है।
इसी प्रकार तमिऴ भाषा की ‘क’ ध्वनि को हिन्दी भाषा के क, ख, ग, घ तथा ह पाँचों ध्वनियों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। चूँकि तमिल एक ऐसी भाषा है जो अपनी लंबी परंपरा पर अत्यधिक निर्भर है इसलिए समय के साथ इस भाषा में काफी बदलाव आया है। जिसके कारण लिखित और मौखिक तमिल में कई अंतर उभर कर सामने आते हैं। इस समय अनुवादकों को सभी ध्वनियों को पहचानने में सावधानी से काम करना पड़ता है।
शब्द और अर्थ के स्तर पर व्यतिरेक -
शब्द और अर्थ के स्तर पर स्रोत और लक्ष्य भाषा में अनेक ऐसे शब्द होते हैं। जिनका ठीक-ठाक अनुवाद कर पाना प्राय संभव नहीं होता है। अतः उनके सम्मुख व्यतिरेकी विश्लेषण ही एक मात्र विकल्प बचता है। उदाहरण के लिए तमिल में ‘पशु’ का अर्थ ‘गाय’ हैं, हिन्दी की तरह ‘जानवर’ नहीं। इसलिए वहां ‘गोवध’ को ‘पशुवध’ कहते हैं। इन तथ्यों से असावधान अनुवादक ‘पशुवध’ का अर्थ ‘जानवरों का वध’ समझकर अनुवाद कर सकता है। हालांकि हिन्दी में प्रयुक्त होने पर यह पद ‘पशुवध’ का वह अर्थ नहीं दे पाएगा जो वह तमिल में देता है। इसलिए स्रोत और लक्ष्य भाषा में यदि कोई एक ही शब्द चलता हो तो स्रोत भाषा के किसी पाठ में उसका प्रयोग सावधानीपूर्वक समझकर ही करना चाहिए।
तमिल भाषा में एक ही शब्द भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया जाता है। उदाहरण रूप में हम हिन्दी भाषा में प्रयोग होने वाले पद ‘पानी’ के लिए तमिल में होने वाले रूपिम पदों के प्रयोग में भिन्नताओं को स्पष्ट देख सकते हैं, यथा-
जल - पीने का पानी
तण्णीर - ठंडा पानी
वेन्नीर- गर्म पानी
नीर - हाथ पैर धोने का पानी
तीर्थ - पवित्र जल जो मंदिरों में दिए जाते हैं
तण्णी पोडुवल - व्यंग्य में शराब पीना।
अतः अनुवाद करते समय लक्ष्य भाषा में शब्दों के पर्याय रूप को प्रयोग करने में काफी सतर्कता बरतनी चाहिए। इस तरह के व्यतिरेक प्रायः अनुवादक से गलती करा देते हैं। इस प्रकार व्यतिरेकी विश्लेषण की प्रक्रिया अनुवाद में निरन्तर चलती रहती है। क्योंकि शब्द तथा उनके अर्थ सन्दर्भ, काल तथा क्षेत्र के आधार पर परिवर्तित होते रहते हैं।
संयोजक शब्दों का व्यतिरेक -
संयोजक शब्दों का प्रयोग लगभग दुनिया की प्रत्येक भाषाओं में दो शब्दों अथवा वाक्य को जोड़ने के लिए होता है। हिन्दी में ‘और’, ‘तथा’ और ‘व’ से दो शब्दों अथवा वाक्य को जोड़ा जाता है। तमिल भाषा में भी इसी के समकक्ष दो शब्दों को जोड़ने के लिए ‘उम्’ உம் शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह ‘उम्’ शब्दों के अंत में प्रत्यय रूप में जोड़ा जाता है। हिन्दी भाषा में ‘और’, ‘तथा’ और ‘व’ को जोड़े जाने वाले दो शब्दों के बीच में लिखा अथवा बोला जाता है, जैसे- कुत्ता और लड़का। परंतु तमिल भाषा में ‘उम्’ शब्द दोनों शब्दों के साथ जुड़ता है। यदि दो से अधिक संख्याओं अथवा शब्दों को जोड़ना हो तब और अंतिम शब्द के पहले लिखा जाता है। साथ ही तमिल भाषा में ‘उम्’ शब्द सभी शब्दों अथवा संज्ञाओं के साथ जोड़ा जाता है। जैसे- ‘नाय्’ நாய் , ‘पैयन्’ பையன் – ‘नायुम् पैयनुम्’ தாருல் பையனும் ‘कुत्ता और लड़का’।
वाक्यपरक व्यतिरेक -
वाक्य के स्तर पर व्यतिरेक पदक्रम, लिंग तथा वचन आदि में दिखाई देता है। किंतु इनका समाधान अनुवादक के लिए बहुत कठिन नहीं होता है। तमिल और हिन्दी भाषा के संदर्भ में बात करें तो दोनों ही भाषाओं की वाक्य रचना में पदक्रम ‘कर्ता’+ ‘कर्म’+ ‘क्रिया’ के रूप में होता है। जैसे-
नान् तमिल माणवन्।
मैं तमिल का विद्यार्थी हूँ।
परन्तु यहां हम यह भी स्पष्ट देख सकते हैं कि तमिल भाषा के वाक्यों में हिन्दी भाषा की तरह ‘है’, ‘हूँ’ आदि सहायक क्रियाओं का प्रयोग नहीं होता है।
इसी प्रकार हिन्दी भाषा में संज्ञा के अनुसार विशेषण में परिवर्तन होता है परंतु तमिल भाषा में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं होता है। उदाहरण-
लता अच्छी लड़की है। - लता नल्ल पैण।
निर्मल अच्छा लड़का है। - निर्मल नल्ल पैथन।
वह अच्छे लड़के हैं। - अवरगल नल्ल माणवर्गल।
तमिल भाषा में पुरुषवाचक सर्वनाम में ही पुरुष वचन और लिंग संबंधी भेद किए जाते हैं। प्रथम पुरुष में बहुवचन के दो रूप मिलते हैं- (நாம்) ‘नाम्’ व (நாங்க) ‘नांङ्ग’। ‘नाम्’ का प्रयोग तब होता है जब कहने वाला अपने साथ श्रोता को भी सम्मिलित करता है।
नाम् इन्दियर्गऴ्। - हम भारतवासी।
इसका अर्थ है कि ‘वक्त’ और ‘श्रोता’ दोनों इस 'हम' में सम्मिलित हैं।
நாங்க ‘नाङ्ग’ में श्रोता सम्मिलित नहीं होता है। நாங்க தமிழர்கள் ‘नाङ्ग तमिऴर्गळ’ – ‘हम तमिल हैं’। इसका अर्थ यह है कि केवल ‘वक्ता’ तमिल है ‘श्रोता’ नहीं।
हिन्दी भाषा में दो ही लिंग है- पुलिंग और स्त्रीलिंग। जिस प्रकार हिन्दी में निर्जीव वस्तुओं के लिए भी पुल्लिंग या स्त्रीलिंग का ही प्रयोग होता है वैसे तमिल भाषा में नहीं होता है। इसके लिए हिन्दी व्याकरण में कई नियम है उन नियमों में भी कुछ अपवाद उपस्थित हैं, जैसे – ‘खेत’ पुलिंग है जबकि ‘जमीन’ स्त्रीलिंग और ‘ग्रंथ’ पुलिंग है और ‘पुस्तक’ स्त्रीलिंग परंतु तमिल में संस्कृत भाषा की तरह तीन लिंग होते हैं- ‘आणपाल्’ – ‘पुलिंग’, ‘पेणपाल्’ – ‘स्त्रीलिंग’ और ‘पलविनपाल्’ – ‘नपुंसकलिंग’।
इसलिए तमिल से हिन्दी अथवा हिन्दी से तमिल भाषा में अनुवाद करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। कभी-कभी तमिल भाषा के शब्दों के लिए सटीक पर्यायवाची शब्द ढूंढना काफी नहीं होता है। उन शब्दों का लिंग निर्धारण भी आवश्यक होता है। जैसे तमिल में ‘कडिदम्’ शब्द के लिए हिन्दी में दो पर्यायवाची शब्द ‘पत्र’ और ‘चिट्ठी’ हैं। इनमें पहला शब्द ‘पुल्लिंग’ है और दूसरा ‘स्त्रीलिंग’। हिन्दी भाषा के वाक्यों में इन शब्दों का प्रभाव पूरे वाक्य में दिखाई देता है।
इसी प्रकार तमिल भाषा के लिंग, वचन और पुरुष के चिन्ह भविष्य काल के वाक्य के क्रिया रूपों में वैसे ही होते हैं जैसे वर्तमान काल के क्रिया रूपों में होते हैं। सिर्फ नपुंसकलिंग एक वचन में अंतर पाया जाता है। भविष्य काल के क्रिया रूपों में नपुंसकलिंग एकवचन और बहुवचन दोनों का चिन्ह एक ही होता हैं- ‘उम्’ உம்। जबकि हिन्दी भाषा के वाक्यों में ऐसा नहीं होता है, यहाँ सर्वनाम के साथ क्रिया रूप में भी परिवर्तन हो जाता है। यथा-
அது வரும் ‘अदु वरुम’ - वह आएगा।
அவை வரும் ‘अवै वरुम’ - वे आएंगे।
भाषिक तमिल में नपुसंकलिंग के लिए संज्ञा या सर्वनाम का बहुवचन रूप प्रायः नहीं होता है। यहां तक की क्रिया रूपों में भी कोई बदलाव नहीं होता है। हिन्दी के सर्वनाम में लिंग भेद नहीं दिखाई पड़ता मगर क्रिया में लिंग भेद का पता चलता है। जैसे- वह जाता है। वह जाती है। मैं जाता हूं। मैं जाती हूं।
तमिल भाषा के प्रथम पुरुष में सर्वनाम के लिंग भेद नहीं है। परंतु उत्तम पुरुष के सर्वनाम के लिए तीन लिंग होते हैं, अवन - पुलिंग, अवल - स्त्रीलिंग, अदु - नपुंसकलिंग। इसलिए हिन्दी से तमिल या तमिल से हिन्दी में अनुवाद करते समय व्याकरणिक कोटियों को ध्यान में रखकर अनुवाद करना आवश्यक है।
लिपि के स्तर पर व्यतिरेक -
जब हम तमिल और हिन्दी भाषा में व्यतिरेक को लिपि के सन्दर्भ में विश्लेषण करते हैं तब हमें सबसे अधिक व्यतिरेक दिखाई पड़ता है। पहला तो यह कि हिन्दी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और तमिल भाषा तमिल लिपि में। इन दोनों लिपियों में तुलना करने पर स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि इनमें असमानताओं की पूर्णता सर्वत्र व्याप्त है। दूसरा, हिन्दी की तुलना में तमिल भाषा में कम प्रतीक चिह्न हैं। जिससे तमिल लिखना सुविधाजनक होता है। देवनागरी लिपि की तुलना में तमिल लिपि में हृस्व ‘ए’ (ऎ) तथा हृस्व ‘ओ’ (ऒ) ध्वनियों सहित प्रतीक चिह्न भी शामिल हैं। हिन्दी भाषा के प्रत्येक वर्ग (‘क’ वर्ग, ‘च’ वर्ग आदि) का केवल पहले और अंतिम अक्षर के ही प्रतीक चिह्न तमिल भाषा में उपस्थित हैं, बीच के अक्षरों के लिए कोई भी प्रतीक चिह्न नहीं हैं जबकि अन्य द्रविड भाषाओं तेलुगु, कन्नड और मलयालम में ये ध्वनियाँ प्रतीक चिह्नों सहित उपस्थित हैं। हिन्दी की ‘र’ और ‘ल’ ध्वनियों के अधिक तीव्र रूप भी तमिल में उपस्थित हैं। साथ ही ‘न’ ध्वनि का कोमलतर रूप भी तमिल में प्रतीक चिह्न के साथ शामिल है। तमिल लिपि में ‘श’, ‘ष’ ध्वनियों को एक ही अक्षर द्वारा लिखा जाता हैं। तमिऴ भाषा की एक विशिष्ट प्रतिनिधि ध्वनि ‘ழ’ है जिसे देवनागरी लिपि में ‘ऴ’ के समकक्ष हिन्दी भाषा में नया जोड़ा गया है, जो स्वयं ‘तमिऴ’ शब्द में प्रयुक्त होता है (தமிழ் – तमिऴ्)।
निष्कर्ष : किसी समाज को समझने व जानने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है, प्रत्येक समाज की अपनी एक भाषा होती ही है। जापानी अंग्रेजी सीख रहे हैं, फारसी लोग अंग्रेजी सीख रहे हैं, और अंग्रेजी बोलने वाले हिन्दी सीख रहे हैं। यही स्थिति हम भारतवर्ष के राज्यों के सन्दर्भ में भी देख सकते हैं। भाषाई प्रतिस्पर्धा के इस दौर में व्यतिरेकी विश्लेषण एक आवश्यकता बन गया है। व्यतिरेकी विश्लेषण का उपयोग भाषा में आने वाली भिन्नताओं को सूक्ष्म रूप से समझने के लिए किया जा रहा है। यह भाषा शिक्षण के दौरान आने वाली कठिनाइयों की पहचान करता है और भाषा शिक्षण को शिक्षार्थियों के लिए सुगम बनाता है। भाषा शिक्षण के साथ-साथ इसका कार्य क्षेत्र अनुवाद तक प्रसारित है। तमिल और हिन्दी भाषा के व्यतिरेकी विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दो भाषाओं की संरचनाओं को आमने-सामने रखकर असमानताओं का अध्ययन करने से विद्यार्थी अथवा अनुवादक भाषाओं में निहित व्यतिरेकों का आसानी से पता लगा सकता है। साथ ही मातृभाषा व्याघात के कारण होने वाली गलतियों से भी बच सकता है। वस्तुतः व्यतिरेकी विश्लेषण के माध्यम से शिक्षण विधियों के अविष्कार तथा भाषा शिक्षण व अनुवाद में होने वाली त्रुटियों का निदान करना सुविधाजनक होता जा रहा है।
- गोस्वामी, कृष्ण कुमार. अनुवाद विज्ञान की भूमिका. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2022
- चौधरी, इन्द्रनाथ, तुलनात्मक साहित्य: भारतीय परिप्रेक्ष्य. वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली. 2018
- तिवारी, भोलानाथ. विदेशी भाषाओं से अनुवाद की समस्याएँ. प्रभात प्रकाशन, दिल्ली. 1981
- तिवारी, भोलानाथ व डॉ. किरण बाला. व्यतिरेकी भाषा विज्ञान. पृष्ठ संख्या 13
- तिवारी, भोलानाथ. अनुवाद विज्ञान. किताबघर प्रकाशन. नयी दिल्ली. 2018.
- तिवारी, डॉ. बालेन्दु शेखर. अनुवाद विज्ञान, प्रकाशन संस्थान. नयी दिल्ली. 2021
- प्रमिला, के. पी. अनुवाद के व्यावहारिक आयाम, नई किताब. दिल्ली 2013
- बोरा, राजमल, भह. राजूरकर, तुलनात्मक अध्ययन. वाणी प्रकाशन. नयी दिल्ली. 2015.
- मेहेर, डॉ. छबिल कुमार, भाषा-प्रयुक्ति और अनुवाद. नयी किताब प्रकाशन, नयी दिल्ली. 2020
- समीर, डॉ. श्रीनारायण, अनुवाद की प्रक्रिया, तकनीक और समस्याएँ. लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद. 2012
- सिंह, अवधेश कुमार. अनुवाद विमर्श. साहित्य अकादमी. नई दिल्ली. 2019
- Bassnett and Lefevere, Translation, History and Culture. New York, Cassell. 1990
- Berlin: Mouton de Gruyter. Gast, V. (forthcoming). Contrastive analysis: Theories and methods. In Kortmann, B. and J. Kabatek (eds.), Dictionaries of Linguistics and Communication Science: Linguistic theory and methodology.
- Baker, Mona and Saldanha Gabrial. Routledge encyclopedia of translation studies, 1990.
- Lado, Robert. Linguistics Across Cultures, The University of Michigan Press, 1971.
- James, C. Contrastive analysis. Longman. 1986.
शोधार्थी (हिन्दी अनुवाद), जे.एन.यू, नई दिल्ली
rpvasuhans@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें