शोध आलेख : समाज-भाषिक संदर्भ : उत्तर-आधुनिक अनुवाद / प्रलय कुमार बोड़ो

समाज-भाषिक संदर्भ: उत्तर-आधुनिक अनुवाद
- प्रलय कुमार बोड़ो

शोध सार : प्रस्तुत शोध अध्ययन उत्तर-आधुनिक अनुवाद शैली का समाज-भाषिक, जिसे अंग्रेज़ी भाषा में मूलतःसोशल-लिंगविस्ट शब्द कहा जाता है उसके वर्तमान युग में अंतर-संबंधों के विषय के शोध आयामों पर केंद्रित है। जो कि अनुसंधानात्मक पहलुओं की जांच के लिए उत्तर-आधुनिकतावाद के विशेष संदर्भ में अतिमहत्वपूर्ण दिखाई पड़ती है, क्योंकि जहां सम्पूर्ण विश्व, भाषा के सन्दर्भों में अनुसन्धान को बढ़ावा देकर मानव जाति के महत्वपूर्ण रहस्यों को प्राचीन ग्रंथों एवं लेखों से जानने को उत्सुक दिखाई पड़ रहा है वहीं इसके कुछ घातक परिणाम भी मानव जगत को देखने को मिल रहे हैं, जैसे अनुवादों के माध्यम से खराब वैचारिक टकराव को बढ़ावा देना जिसके सम-सामायिक लाभ सिनेमा, राजनीति एवं प्रशासन में परिलक्षित होते हुए दिखाई देते हैं। अतः इन समस्त संदर्भित बिंदुओं को इस लघु शोध के मूल विषयों में शामिल करते हुए इस शोध आलेख को लिखा गया है। प्रस्तुत लघु शोध के लिए मूलतः मूल-सामग्री विश्लेषण तकनीक प्रयोग के साथ ही व्याख्यात्मक शोध प्रारचना का उपयोग करते हुए उत्तर-आधुनिक अनुवाद शैली में समाज-भाषिक सन्दर्भों को देखने एवं उनके परिपाठी को समझने का प्रयास किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन का निष्कर्ष यह दर्शाता है कि उत्तर-आधुनिक युग में प्रभावी अनुवाद के लिए समाज-भाषिक संदर्भ की गहरी समझ आवश्यक है। यह उस सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ पर विचार करने के महत्व को रेखांकित करता है जिसमें भाषा का उपयोग किया जाता है और अनुवादकों को इन कारकों के बारे में जागरूक होने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है ताकि उच्च गुणवत्ता वाले अनुवाद तैयार किए जा सकें जो इच्छित अर्थ को सटीक रूप से व्यक्त करते हैं।

बीज-शब्द: समाज, भाषिक, अनुवाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, कारक, वैचारिक, अंतःविषयक।


मूल आलेख : अनुवाद सिर्फ़ एक प्रक्रिया मात्र नहीं है बल्कि , यह दो मस्तिष्क-अनुवादक और पाठक के बीच एक संवाद है। सबसे प्रासंगिक प्रश्न जो लेखकों और अनुवादकों को हमेशा उलझन में डालते हैं, वह यह है कि क्या अनुवाद सिर्फ़ कला है अथवा शिल्प है या विज्ञान? थियोडोर सेवरी के मतानुसार वह इसे कला मानते हैं; वहीं अंग्रेज़ी भाषा के एक अन्य विद्वान एरिक जैकबसन इसे शिल्पकला मानते हैं; लेकिन, निदा इसे विज्ञान के रूप में परिभाषित करते हैं।1 प्रो. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, अनुवाद प्रक्रिया में स्रोत पाठ के सार और बारीकियों को संरक्षित करना महत्वपूर्ण है। वे मानते हैं कि अनुवादक को स्रोत भाषा के शब्दों, वाक्य-रचना और भावों को लक्ष्य भाषा में समकक्ष शब्दों और वाक्य-रचना से व्यक्त करना चाहिए। साथ ही, लक्ष्य भाषा में अर्थ को प्रभावी ढंग से व्यक्त करना भी आवश्यक है।उन्होंने भाषाओं के बीच अनुवाद की चुनौतियों को स्वीकार किया, जैसे कि सांस्कृतिक और भाषाई अंतरों को ध्यान में रखना। उदाहरण के लिए, एक भाषा में प्रचलित किसी शब्द या वाक्यांश का समकक्ष दूसरी भाषा में नहीं मिल सकता, या किसी संस्कृति विशेष से जुड़ा भाव दूसरी संस्कृति में समझना मुश्किल हो सकता है।इस प्रकार, प्रो. तिवारी का मानना है कि अनुवाद में स्रोत पाठ की सटीकता और लक्ष्य भाषा की प्रभावशीलता दोनों का ध्यान रखना आवश्यक है, साथ ही भाषाई और सांस्कृतिक अंतरों को भी ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए।2 प्रो. भोलानाथ तिवारी हिंदी के प्रमुख भाषाविज्ञानी और अनुवाद के क्षेत्र में अग्रणी व्यक्ति हैं। उन्होंने अनुवाद प्रक्रिया में स्रोत पाठ के सार और बारीकियों को संरक्षित करने पर जोर दिया, साथ ही लक्ष्य भाषा में अर्थ को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने पर भी बल दिया।उन्होंने भाषाओं के बीच अनुवाद की चुनौतियों को स्वीकार किया, जैसे कि सांस्कृतिक और भाषाई अंतरों को ध्यान में रखना। उदाहरण के लिए, एक भाषा में प्रचलित किसी शब्द या वाक्यांश का समकक्ष दूसरी भाषा में नहीं मिल सकता, या किसी संस्कृति विशेष से जुड़ा भाव दूसरी संस्कृति में समझना मुश्किल हो सकता है3 प्रो. भोलानाथ तिवारी ने अनुवाद के सिद्धांतों और प्रयोगों पर कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें 'अनुवाद के सिद्धांत और प्रयोग', 'हिंदी भाषा की संरचना', 'शैली विज्ञान', 'कोश विज्ञान', 'कोश रचना', 'साहित्य समालोचन' और 'संपूर्ण अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश' शामिल हैं प्रो. तिवारी ने अनुवाद को एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया के रूप में पहचाना, जिसमें विभिन्न चरण और विचार शामिल हैं। उन्होंने निदा द्वारा प्रस्तावित दो-चरणीय मॉडल के विपरीत अनुवाद प्रक्रिया में तीन से पाँच प्रमुख चरणों की पहचान की। अनुवाद के प्रति तिवारी के दृष्टिकोण ने लक्ष्य भाषा में अर्थ को प्रभावी ढंग से व्यक्त करते हुए स्रोत पाठ के सार और बारीकियों को संरक्षित करने के महत्व पर जोर दिया। उनकी पुस्तक अनुवाद-विज्ञान को एक मौलिक कार्य माना जाता है जो अनुवाद के सिद्धांतों और अनुप्रयोगों पर गहराई से प्रकाश डालता है। अनुवाद सिद्धांत और व्यवहार पर तिवारी का काम इस विषय पर उनके व्यापक लेखन में परिलक्षित होता है।4 इस कार्य में, तिवारी ने भाषाओं के बीच अनुवाद की चुनौतियों पर चर्चा की, जैसे कि सांस्कृतिक और भाषाई अंतरों को ध्यान में रखना और मूल अर्थ और शैली को बनाए रखने का महत्व इत्यादी। हिंदी भाषा पर उनके व्यापक शोध और प्रकाशन, जिसमें इसका व्याकरण, शब्दार्थ और शैलीविज्ञान शामिल है, ने अनुवादकों को भाषा की जटिलताओं को समझने के लिए एक ठोस आधार प्रदान किया है। हिंदी में अनुवाद प्रक्रिया पर भोलानाथ तिवारी के विचारों ने अनुवाद की बहुमुखी प्रकृति, स्रोत पाठ के सार को संरक्षित करने की आवश्यकता और गहन भाषाई और सांस्कृतिक समझ के महत्व पर जोर दिया। उनका काम हिंदी अनुवाद के क्षेत्र को आकार देने में महत्वपूर्ण रहा है और इस क्षेत्र के विद्वानों और चिकित्सकों के लिए एक मूल्यवान संसाधन बना हुआ है।5 अतः इससे यह समझने को मिलता है कि सम्पूर्ण अनुवाद प्रक्रिया ही एक अनुवादक आधारित प्रक्रिया है अर्थात यदि अनुवादक किसी काल-प्रघटना को शिल्प कला के रूपों में देखता है तो वह उन सन्दर्भों को भी पाठक, श्रोता अथवा दर्शक तक शिल्प कला के रूप में ही प्रेषित करेगा। वहीं यदि अनुवादक का दृष्टिकोण वैज्ञानिक होगा तो वह उन सन्दर्भों को विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में स्थापित करने का प्रयास करेगा नहीं तो फिर वह इन सन्दर्भों को अंततः कलात्मक तरीकों से संदर्भित करने का प्रयास करेगा। परन्तु इन सब तरीकों में जो मूल समस्या है; वह यह है- पाठक, श्रोता अथवा दर्शक द्वारा उस विषय की समझ, यदि पाठक को समाज-भाषिक संदर्भ का बोध होगा तो वह उन अनुवादों को विशेष काल-परिस्थिति के अनुरूप उन परिथितियों में घटित सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक प्रघटनाओं के सन्दर्भ में सझने का प्रयाश करेगा। अन्यथा वह एक अबोध बालक के भांति सिर्फ अनुवादक के व्यक्तिगत दृष्ट्कोण को ही सम्पूर्ण अनुवाद का अंतिम सत्य समझ उन परिथितियों एवं सन्दर्भों से विमुख हो जायेगा और एक अंजान पाठक एवं श्रोता ही बना रहेगा। अतः अनुवाद की विधा में समाज-भाषिक संदर्भ का बोध अपने पाठक को कराया जाना अति आवश्यक प्रतीत होता है। इन सम्पूर्ण बातों के सन्दर्भ को, हम अग्रलिखित उदहारण से ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं- उदाहरण के लिए, एक वाक्यांश जो एक भाषा की सांस्कृतिक परंपराओं में गहराई से निहित है, उसका दूसरी भाषा में सीधा समकक्ष अनुवाद नहीं हो सकता है। अनुवादक को तब मूल वाक्यांश के अंतर्निहित अर्थ और सांस्कृतिक महत्व को व्यक्त करने का एक तरीका खोजना चाहिए, साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि अनुवाद लक्षित दर्शकों, श्रोता एवं पाठकों के लिए सुलभ और सार्थक हो! यदि हम हिंदी साहित्य में समाज-भाषिक संदर्भ को ही देखें तो पाएंगे कि हिंदी साहित्य का परिदृश्य समृद्ध और विविधतापूर्ण है, जो भाषा और उसके बोलने वालों के जटिल समाज-भाषिक संदर्भ को दर्शाता है।अन्य कई प्रमुख हिंदी कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से पहचान, संस्कृति और सामाजिक मुद्दों के विषयों की खोज की है।


 15वीं शताब्दी के रहस्यवादी कवि, कबीर अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं, जो हिंदू और इस्लामी आध्यात्मिक परंपराओं का मिश्रण हैं। उनकी कविता अक्सर सामाजिक पदानुक्रम और धार्मिक रूढ़िवादिता को चुनौती देती, और अधिक समतावादी समाज की वकालत करती हुई दिखती है। कबीर के लेखन ने धार्मिक अनुष्ठानों और देवताओं की अवधारणा की आवश्यकता पर सवाल उठाया, इसके बजाय एक सार्वभौमिक धार्मिकता पर जोर दिया। उनके छंद सिख धर्म के धर्मग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब, संत गरीब दास के सतगुरु ग्रंथ साहिब और धर्मदास के कबीर सागर में पाए जाते हैं।6 अगर हम हिंदी साहित्यिक लेखन में आलोचनात्मक दृष्टिकोण देखें तो हम पाते हैं कि हरि शंकर परसाई जैसे, समाज आलोचक-मानव, राजनीति, सामाजिक और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विचारों के बेहतरीन दृश्य को अपने आलोचनात्मक गद्य में दिखाते हुए  प्रतीत होते हैं। 20वीं सदी के व्यंग्यकार के रूप में उन्होंने अपने लेखन का इस्तेमाल भ्रष्टाचार और पाखंड जैसे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों की तीखी और मजाकिया अंदाज में आलोचना करने के लिए किया। उनके व्यंग्य का उद्देश्य समाज और राजनीति की खामियों को उजागर करना था, अक्सर अपने बिंदुओं को अधिक यादगार बनाने के लिए हास्य का इस्तेमाल करते थे। 20वीं सदी के कवि मैथिलीशरण गुप्त ने मानवीय स्थिति का पता लगाने वाले काव्यात्मक और आत्मनिरीक्षण कार्यों की रचना करने के लिए संस्कृत शास्त्रीय साहित्य और हिंदू पौराणिक कथाओं से प्रेरणा ली। उनकी कविता अक्सर प्रेम, आध्यात्मिकता और अर्थ की मानवीय खोज के विषयों पर आधारित होती थी। गुप्त की रचनाएँ उनकी सुंदरता और गहराई के लिए जानी जाती हैं, तो अब स्पष्ट हो रहा है कि अनुवाद की पूरी प्रक्रिया में सन्दर्भ का समाचीन लक्ष्य तभी संभव है जब उसका सन्दर्भिक अर्थ भी वही हो जिसके शब्द विन्यास बात कर रहें हों। उच्च गुणवत्ता वाले, विशिष्ट अनुवादों के उत्पादन के लिए समाज-भाषिक संदर्भ संबंधी जागरूकता और अनुवाद संबंधी परंपराओं की गहरी समझ आवश्यक है। भाषाई, सांस्कृतिक और प्रासंगिक कारकों पर विचार करके, अनुवादक यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि विशिष्ट पाठ लक्ष्य भाषा में सटीक और प्रभावी ढंग से संप्रेषित हों, विशिष्ट पाठक, श्रोता अथवा दर्शकों की अपेक्षाओं को पूरा करें और क्षेत्र की परंपराओं को बनाए रखें।


अनुवाद : अनुवाद क्या है? अगर सिर्फ इस प्रश्न का उत्तर देखें तो सम्पूर्ण का विवेक हो सकता है क्योंकि, अनुवाद की व्यापकता ही इतनी ज्यादा है कि इसकी कोई एकांकी रचना एवं व्याख्या कर पाना संभव नहीं है। परन्तु, प्रस्तुत लघु शोध में कुछ मत प्रदर्शित हैं जोकि निम्नवत हैं - अनुवाद सिर्फ़ एक प्रक्रिया नहीं है; यह दो दिमागों - अनुवादक और लेखक - के बीच एक संवाद है।7 एक भाषा से दूसरी भाषा में अर्थ स्थानांतरित करने की प्रक्रिया है, जिसमें अक्सर लिखित या बोली जाने वाली सामग्री को एक भाषा से दूसरी भाषा में बदलाव करना शामिल होता है। यह प्रक्रिया आवश्यक है क्योंकि यह भाषाई और सांस्कृतिक सीमाओं के पार संचार को स्थापित करने में सक्षम है, जिससे विभिन्न संस्कृतियों के लोगों के बीच विचार, ज्ञान और सांस्कृतिक विरासत का हस्तांतरण-संरक्षण संभव होता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह विभिन्न व्यावहारिक तथा सांस्कृतिक-ऐतिहासिक जड़ों के बीच की समानता को खोजने में मदद करता है, जिससे लोगों को एक-दूसरे के दृष्टिकोण और अनुभवों को देखकर खुशी और उनकी सराहना करने का अवसर मिलता है। यह आधुनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं के लिए भी आवश्यक है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, शिक्षा, राजनीति और मनोरंजन शामिल हैं।जोनाथन लोमास की 1997 में की गई समीक्षा ने अनुवाद को समझने के लिए आधार तैयार किया है, उन्होंने अनुवाद को शोध से जोड़ते हुए शोध से प्राप्त ज्ञान एवं उसके समाज-भाषिक संदर्भ के सारगर्भित अर्थों को समझकर इस प्रक्रिया में शामिल शोध निष्कर्षों के उचित अनुवाद के माध्यम से शोधकर्ताओं और उनके पाठकों के बीच संबंध स्थापित करने और बनाए रखने के रूप में परिभाषित किया।8 अनुवाद में समाज-भाषिक संदर्भ और सांस्कृतिक सामाजिक छवियों को प्रभावी ढ़ंग से प्रस्तुत करने के लिए, कई कारकों पर विचार किया जाना चाहिए। अनुवादकों को स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक संदर्भ और बारीकियों के बारे में पता होना चाहिए, जिसमें सामाजिक मानदंड, मुहावरे, रूपक और ऐतिहासिक संदर्भों को समझना शामिल है जो सीधे अनुवाद योग्य नहीं हो सकते हैं, परन्तु फिर भी इनके अपने समाज-भाषिक अर्थ होते हैं। इसके अतिरिक्त, व्याकरण, वाक्यविन्यास और शब्दावली सहित भाषाओं की जटिलता को ध्यान में रखा जाना चाहिए। सांस्कृतिक छवियों की अंतःपाठीय प्रकृति, जिसमें विभिन्न ग्रंथों और सांस्कृतिक प्रवचनों के बीच संबंध शामिल हैं, उस पर भी विचार किया जाना चाहिए। इसलिए, अनुवाद एक सीमा की वस्तु की तरह व्यवहार करती है।परन्तु, यह निश्चित रूप से एक वस्तु नहीं है, बल्कि एक अभ्यास और शब्दावली है जिसके भीतर अनुसंधान, नीति और अभ्यास की प्रकृति और उनके बीच संबंधों पर पुनर्विचार किया जा रहा है। यह वह माध्यम है जिसके द्वारा कई संस्थाएं जिनमें सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के अंतर्राष्ट्रीय संगठन, सरकारें, प्रायोजक, शोधकर्ता, नीति निर्माता और व्यवसायी शामिल हैं, किसी समस्या के बारे में पूरी तरह से साझा अवधारणा के अभाव में भी संवाद करने के लिए आए हैं। अनुवाद के बारे में ये बहसें अपने आप में इसके उदाहरण हैं, अनुवाद का लक्ष्य गतिशीलता प्राप्त करना होना चाहिए, जिसमें केवल स्रोत भाषा के सूचना कार्य को व्यक्त करना शामिल है, बल्कि अभिव्यक्ति, सहानुभूति, सौंदर्य और अन्य कार्य भी शामिल हैं जो समग्र अर्थ में योगदान करते हैं। इसके अलावा, अनुवादकों को सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील होना चाहिए और लक्षित पाठक, श्रोता अथवा दर्शकों पर उनके काम के संभावित प्रभाव के बारे में पता होना चाहिए, छवियों के सांस्कृतिक अर्थों को समझना चाहिए की और इसके साथ ही किसी तरह के अन्य सांस्कृतिक प्रसारण को संतुलित करने की आवश्यकता है।

उत्तर-आधुनिकता एवं अनुवाद : उत्तर-आधुनिकतावाद का अनुवाद अध्ययन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है, जिसने भाषाई समरूपता की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती दी है तथा अनुवाद के सांस्कृतिक, राजनीतिक और वैचारिक पहलुओं पर नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं।उत्तर-आधुनिकतावाद आधुनिकता की प्रमुख विचारधाराओं, विशेष रूप से वस्तुनिष्ठ सत्य की धारणा और एकीकृत, सुसंगत विचार के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में उभरा है। इसने एकल, सार्वभौमिक सत्य की धारणा को खारिज कर दिया और इसके बजाय मानव अनुभव और व्यक्तिपरक प्रकृति पर जोर दिया। अनुवाद अध्ययनों पर उत्तर-आधुनिकतावाद के प्रमुख प्रभावों में से एक है, ग्रंथों में एक निश्चित स्थिर अर्थ के विचार को अस्वीकार करना। जैक्स डेरिडा जैसे उत्तर-आधुनिक सिद्धांतकारों ने तर्क दिया कि अर्थ हमेशा स्थगित रहता है और ग्रंथ कई व्याख्याओं के लिए खुले होते हैं। इसने अनुवाद अध्ययनों में भाषाई समानता की खोज से हटकर अर्थ की निहित अस्थिरता अनिश्चितता की स्वीकृति की ओर बदलाव किया है।उत्तर-आधुनिक अनुवाद सिद्धांतों ने भी अनुवादक की भूमिका को अनुवाद प्रक्रिया में एक सक्रिय एजेंट के रूप में उजागर किया है, कि एक तटस्थ माध्यम के रूप में। अनुवादकों को अब अंतिम अनुवादित पाठ पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले के रूप में देखा जाता है, क्योंकि वे अपने स्वयं के सांस्कृतिक, राजनीतिक और वैचारिक पूर्वाग्रहों के आधार पर निर्णय लेते हैं।10 उत्तर-आधुनिक अनुवाद अध्ययनों में एक महत्वपूर्ण विकास नारीवादी और उत्तर-औपनिवेशिक अनुवाद सिद्धांतों का उदय रहा है। इन सिद्धांतों ने अनुवाद के पारंपरिक, पुरुष-प्रधान सिद्धांत को चुनौती दी है और हाशिए पर पड़े समूहों और संस्कृतियों को आवाज़ देने की कोशिश की है।11 डॉ. श्री नारायण समीर अनुवाद प्रक्रिया में एक और अग्रणी व्यक्ति हैं। उनकी पुस्तक अनुवाद और उत्तर-आधुनिक अवधारणा अनुवाद और उत्तर-आधुनिक सिद्धांत के बीच संबंधों की खोज करती है। पुस्तक इस बात की जांच करती है कि उत्तर-आधुनिक विचारों ने अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र को कैसे प्रभावित और रूपांतरित किया है। लेखक विखंडन, अंतःपाठीयता और भव्य आख्यानों के विघटन की उत्तर-आधुनिक अवधारणाओं में गहराई से उतरते हैं और अनुवाद प्रथाओं पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करते हैं। पुस्तक में आधुनिक भारतीय भाषाओं और साहित्य को आकार देने में अनुवाद की भूमिका पर भी चर्चा की गई है। यह इस बात पर प्रकाश डालती है कि भारत में भाषाई और सांस्कृतिक सीमाओं के पार विचारों के विकास और प्रसार में अनुवाद कैसे एक महत्वपूर्ण उपकरण रहा है। डॉ. समीर का काम भारत में अनुवाद अध्ययन के बढ़ते क्षेत्र में योगदान देता है। यह उत्तर आधुनिक सिद्धांत और अनुवाद के प्रतिच्छेदन पर एक अनूठा दृष्टिकोण प्रदान करता है, जो उत्तर आधुनिक युग में अनुवाद की विकसित प्रकृति के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।12

अनुवाद पर प्रभाव : उत्तर-आधुनिकतावाद ने अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है, विशेष रूप से समाज-भाषिक संदर्भ में 1990 के दशक के दौरान अनुवाद अध्ययन में उत्तर-आधुनिकतावाद ने लिंग, नैतिकता, उत्तर-उपनिवेशवाद, वैश्वीकरण और अनुवाद में अल्पसंख्यक के मुद्दों को सामने लाया, जो सभी उत्तर-आधुनिक स्थिति से संबंधित हैं। इन नए दृष्टिकोणों ने निष्ठा, समानता और द्विआधारी विरोध के मामलों पर लंबे समय से चले रहे विचारों के बारे में संदेह पैदा किया, जिससे सत्ता संबंध, विचारधारा और पहचान जैसे जांच के अन्य चीज़ें सामने आए।13 उत्तर-आधुनिक अनुवाद सिद्धांत पारंपरिक प्रतिमानों की बेड़ियों से मुक्त हो गए हैं और अपने शोध दृष्टिकोण को संस्कृति, राजनीति, दर्शन, विचारधारा, शक्ति और अन्य सामाजिक कारकों तक विस्तारित करते हैं। यह अंतःविषय दृष्टिकोण अनुवाद अध्ययनों को किसी भी अन्य कारकों के साथ संयोजित करने की अनुमति देता है, जिससे अनुवाद अध्ययनों के लिए समझ के नए द्वार खुलते हैं और विकास की गुंजाइश बढ़ती है इसके अलावा, उत्तर-आधुनिकतावाद ने अनुवादक की व्यक्तिपरकता के महत्व को उजागर किया है। उत्तर-आधुनिकतावाद की गैर-केंद्रीय चेतना और बहुलवादी मूल्यों के कारण, मूल्यांकन का मानक अस्पष्ट हो जाता है, जिससे लोगों के विचार सामाजिक आदर्शों, पारंपरिक नैतिकता और प्रतिबंधों से मुक्त हो जाते हैं परिणामस्वरूप, उत्तर-आधुनिक अनुवाद सिद्धांतों में अनुवादक की व्यक्तिपरकता अभूतपूर्व रूप से उजागर होती है।14 उत्तर-आधुनिकतावाद के अनुवाद पर निहितार्थ महत्वपूर्ण हैं; परंपरागत रूप से, अनुवाद का उद्देश्य स्रोत पाठ के मूल अर्थ और सांस्कृतिक संदर्भ को संरक्षित करना था। हालाँकि, उत्तर-आधुनिकतावाद द्वारा वस्तुनिष्ठ सत्य को अस्वीकार करने और व्यक्तिपरक अनुभव पर जोर देने से अनुवाद की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन हुआ है। उत्तर-आधुनिक अनुवाद में, अनुवादक को अब संस्कृतियों के बीच एक तटस्थ मध्यस्थ के रूप में नहीं बल्कि अर्थ के निर्माण में एक सक्रिय भागीदार के रूप में देखा जाता है।

चुनौतियाँ और अवसर : उत्तर-आधुनिकतावाद द्वारा अनुवाद के लिए पेश की गई चुनौतियाँ कई हैं, उदाहरण के लिए, वस्तुनिष्ठ सत्य को अस्वीकार करने का मतलब है कि किसी पाठ का कोई एकल निश्चित अनुवाद नहीं है। इसके बजाय, कई अनुवाद सह-अस्तित्व में हो सकते हैं, जिनमें से प्रत्येक मूल पाठ की एक अलग व्याख्या को दर्शाता है। इससे प्रतिस्पर्धी अनुवादों का प्रसार हो सकता है, जिनमें से प्रत्येक का अपना सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ हो सकता है हालाँकि, यह रचनात्मक और अभिनव अनुवाद प्रथाओं के लिए अवसर भी प्रस्तुत करता है। उत्तर-आधुनिकतावाद द्वारा व्यक्तिपरक अनुभव और कई विषयों के लक्ष्य संस्कृति और संदर्भ के तत्वों को शामिल करते हुए विभिन्न शैलियों और रूपों के साथ प्रयोग करने की अनुमति मिलती है। इससे केवल सटीक अनुवाद हो सकते हैं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और सूक्ष्म भी होंगे। उत्तर-आधुनिकतावादी दृष्टिकोण ने अनुवाद के क्षेत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है तथा अवसर और चुनौतियां दोनों प्रस्तुत की हैं।उत्तर-आधुनिकतावाद भाषा में निहित एक निश्चित, स्थिर अर्थ के विचार को अस्वीकार करता है। इसके बजाय, यह भाषा को एक तरल, संदर्भ-निर्भर प्रणाली के रूप में देखता है, जहाँ अर्थ पर लगातार बातचीत और पुनर्वार्ता होती रहती है। उत्तर-आधुनिकतावादियों का तर्क है कि भाषा एक पारदर्शी माध्यम नहीं है जो केवल वास्तविकता को दर्शाता है, बल्कि एक ऐसी प्रणाली है जो दुनिया के बारे में हमारी समझ को सक्रिय रूप से बनाती और आकार देती है।15 इस दृष्टिकोण का अनुवाद पर गहरा प्रभाव पड़ता है। भाषा के बारे में आधुनिक दृष्टिकोण एकल, “सही अनुवाद की धारणा को कमजोर करता है, क्योंकि यह संभावित अर्थों और व्याख्याओं की बहुलता को स्वीकार करता है। अनुवादकों को अब तटस्थ माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि अर्थ निर्माण में सक्रिय भागीदार के रूप में देखा जाता है।16 उत्तर-आधुनिकतावाद अनुवादक को एक अदृश्य, वस्तुनिष्ठ मध्यस्थ के रूप में देखने के पारंपरिक दृष्टिकोण को भी चुनौती देता है। इसके बजाय, यह अनुवादक को एक व्यक्तिपरक, सांस्कृतिक रूप से स्थित व्यक्ति के रूप में पहचानता है, जिसके अपने पूर्वाग्रह, अनुभव और विश्वदृष्टि अनिवार्य रूप से अनुवाद प्रक्रिया को आकार देते हैं।17 लोकभारती प्रकाशन द्वारा 2012 में प्रकाशित श्रीनारायण समीर की पुस्तक अनुवाद और उत्तर-आधुनिक युग’’ में अनुवाद की विकसित होती प्रकृति की खोज करती है। लेखक अनुवाद के दार्शनिक और सैद्धांतिक आधारों पर गहराई से विचार करते हैं, यह जांचते हुए कि उत्तर-आधुनिक विचारों ने विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में ग्रंथों के अनुवाद के अभ्यास को कैसे प्रभावित और परिवर्तित किया है। समीर का काम अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान है, जिसने हाल के दशकों में बढ़ती प्रमुखता प्राप्त की है क्योंकि वैश्वीकरण ने प्रभावी क्रॉस-सांस्कृतिक संचार और विचारों के आदान-प्रदान की आवश्यकता को बढ़ा दिया है। उत्तर-आधुनिक सिद्धांत के व्यापक संदर्भ में अनुवाद को स्थापित करके, पुस्तक अनुवादकों के सामने आने वाली चुनौतियों और अवसरों पर नए दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। अनुवाद और उत्तरआधुनिकतावाद के बीच संबंधों की पुस्तक की खोज विशेष रूप से समयोचित है, क्योंकि उत्तरआधुनिक विचारों ने साहित्य और दर्शन से लेकर सांस्कृतिक अध्ययन और सामाजिक सिद्धांत तक विभिन्न विषयों को गहराई से प्रभावित किया है। समीर का विश्लेषण इस बात पर प्रकाश डालता है कि किस तरह से विघटन, अंतर्पाठीयता और सांस्कृतिक संकरता जैसी उत्तर-आधुनिक अवधारणाओं ने अनुवादकों के काम करने के तरीके को प्रभावित किया है, जो भाषाई समानता और सांस्कृतिक निष्ठा की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देता है। कुल मिलाकर, अनुवाद और उत्तर-आधुनिक अवधारणा अनुवाद अध्ययन, उत्तर-आधुनिक सिद्धांत और सांस्कृतिक अध्ययन के अंतर्संबंधों में रुचि रखने वाले विद्वानों और छात्रों के लिए एक मूल्यवान संसाधन है।

निष्कर्ष : निष्कर्ष के रूप में, उत्तर-आधुनिकतावाद ने अनुवाद के क्षेत्र पर गहरा प्रभाव डाला है। वस्तुनिष्ठ सत्य की धारणा को अस्वीकार करके और मानवीय अनुभव की व्यक्तिपरक प्रकृति पर जोर देकर, उत्तर-आधुनिकतावाद ने अनुवादक की भूमिका और अनुवाद की प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन किया है। वहीं एक तरफ यह चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। जबकि दूसरी तरफ, यह रचनात्मक और अभिनव अनुवाद प्रथाओं के लिए अवसर भी प्रदान करता है जिसके परिणामस्वरूप ऐसे अनुवाद हो सकते हैं जो सटीक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध दोनों हों। अंततःअनुवाद का भविष्य उत्तर-आधुनिकतावाद की जटिलताओं और अनिश्चितताओं को स्वीकार करने में ही निहित है, कि उनका विरोध करने या उन्हें अनदेखा करने की कोशिश करने में है। उत्तर-आधुनिकतावाद ने अनुवाद को एक जटिल और अनिश्चित प्रक्रिया के रूप में देखा, जहाँ एक भाषा से दूसरी भाषा में अर्थ को सटीक रूप से स्थानांतरित करना मुश्किल हो जाता है। उत्तर-आधुनिकतावाद ने अनुवाद को एक रचनात्मक और अभिनव प्रक्रिया के रूप में देखा है, जहाँ अनुवादक अपने व्यक्तिगत अनुभव और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का उपयोग करके मूल पाठ को नई भाषा और संस्कृति में फिर से बनाता है। इस दृष्टिकोण ने अनुवाद के क्षेत्र में कई चुनौतियाँ खड़ी की हैं। अनुवादकों को अब मूल पाठ के सटीक अर्थ को पकड़ने के बजाय, नई भाषा और संस्कृति में पाठ को फिर से बनाने के लिए कठिन निर्णय लेने होंगे। इसके अतिरिक्त, अनुवाद की गुणवत्ता को मापने के लिए कोई मानक मानदंड नहीं हैं, क्योंकि यह मानवीय अनुभव पर आधारित है और व्यक्तिपरक है। हालाँकि, जहाँ उत्तर-आधुनिकतावाद ने अनुवाद के क्षेत्र में चुनौतियाँ खड़ी की हैं, वहीं इसने रचनात्मक और अभिनव अनुवाद प्रथाओं के लिए अवसर भी प्रदान किए हैं। इसके परिणामस्वरूप ऐसे अनुवाद हो सकते हैं जो दोनों ही हों सटीक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध। उदाहरण के लिए, अनुवादक मूल पाठ को नई भाषा और संस्कृति में उसके सार को बनाए रखते हुए अनुकूलित कर सकता है। अंततः अनुवाद का भविष्य उत्तर-आधुनिकतावाद की जटिलताओं और अनिश्चितताओं को स्वीकार करने में निहित है। अनुवादकों को अपने व्यक्तिगत अनुभव और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का उपयोग करके नई भाषा और संस्कृति में मूल पाठ को फिर से बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। ऐसे अनुवाद सटीक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होंगे, जो भाषाओं और संस्कृतियों के बीच संवाद को बढ़ावा देंगे।

संदर्भ :
1.      अनिशा, भारत में अनुवाद: तब और अबजेटिर, खंड-5, अंक 6, जून 2018 
2.      डॉ. भोलानाथ, अनुवाद-विज्ञान. शब्दकार, 1972
3.      वही, पृ. 20
4.      वही, पृ.34
5.      वही, पृ.16
6. सोनी, सुरेश कुमार, ईश्वर, अंधविश्वास, और रीति-रिवाजों पर कबीर के दोहे, LinkedIn, 7 नवंबर 2016, www.linkedin.com/pulse/dohas-couplets-kabir-suresh-kumar-soni/
7. सोनी, सुरेश कुमा, ईश्वर, अंधविश्वास, और रीति-रिवाजों पर कबीर के दोहे, LinkedIn, 7 नवंबर 2016, www.linkedin.com/pulse/dohas-couplets-kabir-suresh-kumar-soni/
8.      लोमस, जोनाथन, कार्य के बिना शब्द? संकल्प सिफारिशों की उत्पादन, प्रसार, और प्रभाव,  सार्वजनिक स्वास्थ्य का सालाना समीक्षा, खंड 12, अंक 1, 1991
9. बेन्सनपीटर."डेरिडा-ऑन-लैंग्वेज."फिलॉसफी नाउ, अंक 100, 2014, https://philosophynow.org/issues/100/Derrida_On_Language. 24 जून 2024 को एक्सेस किया गया।
10.  होस्नी मोस्तफा अल-दाली, अनुवाद के भाषावैज्ञानिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण: सैद्धांतिक और शैक्षणिक प्रतिबिंब, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंग्लिश लैंग्वेज, लिटरेचर, एंड ट्रांसलेशन स्टडीज खंड 9, अंक 4, 2022
11.  भल्ला, सरस्वती, इकाई-10, उत्तर आधुनिक पाश्चात्य अनुवाद सिद्धांत, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक् विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, 2022, http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/91630. 24  जून 2024
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18.  वही पृ.73

 

प्रलय कुमार बोड़ो
शोध छात्र, हिंदी विभाग, मिजोरम विश्वविद्यालय
pralayboro@gmail.com
संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54, सितम्बर, 2024

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