आज के युग में अनुवाद मानव जीवन की अनिवार्यता का रूप धारण कर चुका है। विभिन्न भाषाओं औरभाषाभाषियों के बीच संपर्क सेतु का निर्माण अनुवाद से ही संभव होता है। जीवन व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र और स्तर पर अनुवाद की उपस्थिति को किसी भी प्रकार से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं भावात्मक स्तर पर ऐक्य-भाव के पल्लवन में अपनी की सार्थक भूमिका सर्वस्वीकार्य है। वैश्विक समाज-संस्कृति से परिचय और अपनी सांस्कृतिक अस्मिता से साक्षात और समृद्धि में अनुवाद की व्याप्ति आधार का काम करती है। साहित्यिक परिदृश्य में देखा जाए तो देश-विदेश की भाषाओं की महान साहित्यिक रचनाओं को अपनी भाषा में लाने में अनुवाद प्रभावी माध्यम का काम करता है। ‘भारतीय साहित्य’ की एकता का उद्घाटन-रेखांकन करना हो या फिर ‘विश्व साहित्य’ की अवधारणा को मूर्त रूप प्रदान करना, अनुवाद ही निमित्त सिद्ध होता है और अपनी रचनात्मक भूमिका निभाता है। वहीं, तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन की संस्कृति के संवर्धन का आधार भी अनुवाद ही है।
‘तुलनात्मक साहित्य’: अर्थ और स्वरूप -
अपने परिवेश-जगत में रूपाएमान की ‘तुलना’ करना मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। प्रकृति का नियम है कि कोई भी दो व्यक्ति-वस्तुएँ आदि एक जैसी नहीं हो सकतीं। दूसरी ओर, किन्हीं दो व्यक्तियों या वस्तुओं आदि में इतनी अधिक भिन्नता भी नहीं होती कि उनमें समानता के बिंदु तलाश ही न किए जा सकें। इसलिए उनमें परस्पर तुलना करते हुए किसी एक को दूसरे की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करना और अंततः उसका अनुकरण करना मानवीय प्रकृति की सहज प्रवृत्ति है। इसके आधार पर विषय संबंधी समस्त अंगों-प्रत्यंगों को देखा-परखा जाता है। तुलना, विकसित मस्तिष्क की वह ज्ञान-यात्रा है, जो किसी विषय से संबंधित संपूर्ण और समग्र ज्ञान को प्राप्त करने की पिपासा को पूरा करती है। तुलना वह सशक्त और प्रभावी माध्यम है जिससे विषय-वस्तु से संबंधित नई विशेषताएँ, नए आयामों का बोध संभव हो पाता है, जबकि वह सामान्य अध्ययन के दौरान अप्रकटित रह जाता है। तुलना के अभाव में ज्ञान की परिपुष्टि एवं समृद्धि संभव नहीं हो पाती है। मैक्समूलर ने सही ही कहा है कि सभी उच्चतर ज्ञान की प्राप्ति तुलना पर ही आधारित है। -
“All higher knowledge is gained by comparison
and rests on comparison.”
किसी भी प्राणी अथवा वस्तु आदि की एक-दूसरे से तुलना करने की भाँति साहित्य में भी तुलना की जाती है। देश-विदेश की विविध भाषाओं में रचित साहित्यों की परस्पर तुलना करके भाषाओं में व्याप्त विषमता एवं अभेदता-एकरूपता के तत्वों का यथार्थ रूप में निरूपण करके उनका उपयुक्त अभिज्ञान अथवा रसास्वादन संभव हो पाता है, रागात्मक संबंध स्थापित होता है। इससे भाषा-समाज की सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं भावात्मक एकता का उद्घाटन एवं स्पष्टीकरण हो जाता है। साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला आदि अनेकानेक क्षेत्रों का अनुवेक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है। इस प्रकार, तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से भाषा, साहित्य और ज्ञान भंडार के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान संभव हो पाता है और उसमें व्यापकता भी आती है।
‘तुलनात्मक साहित्य’ के अर्थ और स्वरूप विचार करें तो कहा जा सकता है कि दो शब्दों के मिलकर प्रयुक्त होने वाला यह शब्द एक व्यापक अवधारणा और असीम व्याप्ति की ओर संकेत करता है। लेकिन, ये दोनों ही शब्द अपने अर्थ को स्पष्ट करने की अपेक्षा करते हैं। इनमें से पहला शब्द ‘तुलनात्मक’ वास्तव में ‘तुलना करने योग्य’ का द्योतक है अर्थात यह ‘तुलना’ पर आधारित है। डाॅ. हरदेव बाहरी ने ’तुलना’ शब्द को अनेक नामों से दर्शाया है - “तुलना का अर्थ समता, मापित होना, तौल में समान होना, सधकर स्थित होना, सधना, सन्नद्ध या उतारू होना, सादृश्य, बराबरी, मिलान, उपमा, उठाना आदि। इसी परिदृश्य में तुलनात्मक शब्द का अर्थ कई वस्तुओं के गुणों की समानता और असमानता दिखाने वाला”(जैसे तुलनात्मक अध्ययन) आदि। किंतु यह शब्द तक अधूरा है, जब तक कि उसके साथ कोई शब्द न जुड़ जाए। जैसे, ‘तुलनात्मक साहित्य’, ‘तुलनात्मक अध्ययन’, ‘तुलनात्मक राजनीति’, ‘तुलनात्मक शिक्षा’ और ‘तुलनात्मक समीक्षा’ आदि। इस दृष्टि से ‘तुलनात्मक’ और ’साहित्य’, ये दोनों शब्द एक-दूसरे के परिपूरक कहे जा सकते हैं और एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
हिन्दी का ’तुलनात्मक’ शब्द अंग्रेजी के ‘Compare’ क्रिया शब्द से विकसित ‘Comparative’ विशेषण शब्द के प्रतिशब्द के रूप में प्रयुक्त होता है। ‘Comparative’ की व्याख्या शब्दकोश में इस प्रकार है - “Compare to bring
together or side by side in order to note points of difference and more
especially likeness to note and express the resemblance between”.आक्सफोर्ड डिक्शनरी में ’तुलना’ शब्द को विश्लेषित करते हुए यह लिखा मिलता है कि तुलना किन्हीं दो वस्तुओं में अर्थ समान गुणों एवं अंतरों का उद्घाटन या प्रस्तुतीकरण, अथवा इन्हीं विशेषताओं का संयोजन है। तुलना कभी-कभी आरंभ में संभावनापूर्ण लग सकती है, परंतु अंततः इसमें कुछ भी सिद्ध न हो सके यह भी होता है- “To compare, to match, to represent, as
similar, to mark the differences of, to bringing together for the purpose of
nothing these-comparison-comparable condition or character the action or an act
of nothing similarities and differences-comparisons may sometimes illustrate
but prove nothing”.
अब हम ‘literature’ शब्द पर विचार करते हैं। हिन्दी में इसके लिए ‘साहित्य’ शब्द प्रयुक्त किया जाता है। प्राचीन भारतीय साहित्य अर्थात संस्कृत काव्यशास्त्र के संदर्भ में कहा जाए तो स्थिति यह रही है कि वहाँ ‘साहित्य’ के अर्थ में ‘काव्य’ शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। सर्वप्रथम सातवीं शताब्दी में भर्तृहरि ने ‘काव्य’ के अर्थ में ‘साहित्य’ शब्द का प्रयोग किया था। 9वीं शताब्दी में राजशेखर ने ‘साहित्य’ शब्द का प्रयोग ‘विद्या’ (knowledge) के लिए किया था। इस तरह, ‘साहित्य’ शब्द का सीमित और व्यापक अर्थ-संदर्भ में प्रयोग किया जाता है; किसी ज्ञान की शाखा विशेष या रचनात्मक स्वरूप (कहानी, उपन्यास, कविता आदि विधा-विशेष) के लेखन से संबंधित है। वैसे, आज आम तौर पर जन-सामान्य ‘साहित्य’ शब्द को ‘शक्ति के साहित्य’ अर्थात् ‘सृजनात्मक साहित्य’ के संदर्भ में ही व्यवहार में लाता है।
संस्कृत काव्यशास्त्र से आए इस ‘साहित्य’ शब्द का अर्थ है - शब्द और अर्थ का ‘सहित भाव’ अर्थात जिसमें हित का भाव हो, वह साहित्य है। साहित्य में शब्द और अर्थ के यथावत् सहभाव अर्थात् ‘साथ होने’ की जो विशिष्टता है, उससे साहित्यिक सौंदर्य की उत्पत्ति होती है। यहाँ सिर्फ शब्द और अर्थ की अविभाज्यता या अभेदत्व ही नहीं है, बल्कि उनकी अविच्छिन्नता का भी संकेत है। साहित्यकार अपने मनोगत भावों को व्यक्त करने के लिए भाषा में प्रयुक्त शब्द और उसमें निहित अर्थ को स्वर प्रदान करने के लिए उसे सृजनात्मक व्यवहार में लाते हैं। लेकिन, शब्दों के व्यवहार का पैटर्न सभी साहित्यकारों के साहित्य या फिर सभी भाषाओं के साहित्य में एकसमान नहीं होता है। पैटर्न के अलग-अलग होने से रचित साहित्य के साहित्यिक पैटर्न में विविधता आती है, जो प्रत्येक साहित्यकार की अपनी साहित्यिक विशिष्टता की द्योतक बन जाती है। इस विशिष्टता के बोध के लिए अन्य भाषाओं का ज्ञान जरूरी होता है। अन्य भाषा-संस्कृतियों का ज्ञान, तुलनात्मक दृष्टि का उन्मेष का आधार सिद्ध होता है।
यहाँ अंग्रेजी के ‘literature’ शब्द पर भी विचार करना जरूरी है। साहित्य, किसी भी विधा-विशेष में रचित साहित्यकार की सृजनशील अभिव्यक्ति होती है। तुलनात्मक अध्येताओं का मानना है कि ‘Comparative literature’ फ्रांस में 1816 में प्रकाशित संग्रह ‘Cours de literature comparee’ से लिया गया है। फ्रांस में ‘literature’ का अर्थ है - ‘साहित्यिक अध्ययन’। इस प्रकार ‘Comparative literature’ का अर्थ है - विभिन्न विधाओं में रचित साहित्यों का परस्पर तुलना करते हुए अध्ययन।’ वस्तुतः ‘literature’ शब्द के फ्रांसीसी अर्थ के आधार पर अंग्रेजी में ‘Comparative Study’ शब्द प्रयुक्त किया जाना अपेक्षित था। किंतु, इसके स्थान ‘Comparative literature’ शब्द प्रयुक्त किया गया। समय के साथ-साथ अब यह भूल इतनी अधिक प्रचलित हो गई कि इस पक्ष पर चर्चा-परिचर्चा या वाद-विवाद तो हो सकता है, लेकिन स्थायी रूप से बदल पाना असंभव है। शब्दों के अर्थों की मीमांसा करने वाले ऐसी स्थिति को अर्थ-दोष बतलाकर पुनःप्रचलित अर्थ को ही स्वीकार करते हैं। इसलिए ‘Comparative literature’ शब्द ही अधिक व्यवहार्य बन चुका है। अंग्रेजी के कवि मैथ्यू अर्नाल्ड ने सन 1848 में अपने एक पत्र में सबसे पहले ’कम्पैरेटिव लिटरेचर’ पद का प्रयोग किया था।”
‘तुलनात्मक साहित्य’ बनाम ‘तुलनात्मक समीक्षा’ (Comparative Review) -
‘तुलनात्मक साहित्य’ के संदर्भ में विचारणीय पक्ष यह भी है कि क्या यह ‘तुलनात्मक समीक्षा’ तो नहीं। साहित्य-समीक्षा के अंतर्गत किसी कृति के कलात्मक उत्कर्ष की खोज एवं रसात्मक बोध का प्रयास करने का भाव अंतर्निहित है। जब एक ही भाषा की परिधि के भीतर दो या या दो से अधिक साहित्यकारों, समान-असमान विधाओं या प्रवृत्तियों का तुलनात्मक विवेचन, तुलनात्मक साहित्य न होकर ’तुलनात्मक समीक्षा’ है। मीरा और महादेवी वर्मा की विरह भावना अथवा गीतिकाव्य; उर्दू में मीर और गालिब की संरचना का तुलनात्मक विवेचन वस्तुतः ‘तुलनात्मक समीक्षा’ है। स्पष्ट है कि यह किसी रचना का उस परंपरा की पूर्ववर्ती रचनाओं के संदर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से किया जाना महत्त्वपूर्ण होता है। ‘तुलनात्मक समीक्षा’ के मूल में निहित इस भावना के बारे में टी.एस. एलियट का विचार ध्यान देने योग्य है कि “कोई कवि, किसी कला का कोई कलाकार अकेले अपनी पूरी अर्थवत्ता सिद्ध नहीं कर पाता। उसकी महत्ता, उसका विवेचन मृत कवियों एवं कलाकारों के साथ उसके संबंध का विवेचन है। उस अकेले (कलाकार) का मूल्यांकन आप नहीं कर सकते - तुलना और वैषम्य के लिए आपको उसे भी मृतों (पूर्व कलाकारों) के साथ रखना होगा। इसे मैं न केवल ऐतिहासिक वरन् सौंदर्यशास्त्रीय समीक्षा का सिद्धांत भी मानता हूँ। उसकी सुसंगति (सुसंबद्धता) की आवश्यकता एकपक्षीय नहीं हो सकती। नई कलाकृति के सृजन पर जो घटित होता है वह पूर्ववर्ती कृतियों पर भी युगपत् घटित होता है - “No poet, no artist of any art has his
complete meaning alone. His significance, his appreciation is the appreciation
of his relation to the dead poets and artists. You can not value him alone; you
must set him, for contrast and comparison, among the dead. I mean this as a
principle of aesthetic not merely historical criticism. This necessity, that he
shall, cohere, is not one-sided; what happens when a new work of art is created
is something that happens simultaneously to all the works of art which preceded
it”.
स्पष्ट है कि तुलनात्मक समीक्षा यह अवधारणा उद्घाटित करती है कि किसी भी नई रचना के सृजन पर जो घटित होता है वह उसी भाषा-विशेष की पूर्ववर्ती कृतियों पर भी घटित होता है। किसी एक भाषा विशेष से संबंधित होने के कारण उसे ‘तुलनात्मक समीक्षा’ की परिधि में लिया जा सकता है, लेकिन वह ‘तुलनात्मक साहित्य’ नहीं है। इस संदर्भ में डाॅ. नगेंद्र के ये विचार विशेष तौर पर ध्यान देने योग्य हैं कि “किसी एक भाषा की समान-असमान प्रवृत्तियों का विवेचन ‘तुलनात्मक समीक्षा’ का एक रूप हो सकता है, किंतु ‘तुलनात्मक साहित्य’ नहीं कहा जा सकता”।
‘तुलनात्मक साहित्य’ बनाम ‘तुलनात्मक अध्ययन’: शब्द-प्रयोग के परिपाश्र्व में -
‘तुलनात्मक साहित्य’ का संबंध साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से है। यह साहित्य के अध्ययन की वह पद्धति है जिसका आधार तुलना है। इसलिए ’तुलनात्मक साहित्य’ कोई स्वायत्त सर्जनात्मक विधा नहीं है, बल्कि विभिन्न साहित्यों की पारस्परिक तुलना करने की विशेष दृष्टि है। इस कारण कतिपय विद्वान ’तुलनात्मक साहित्य’ के स्थान पर ’तुलनात्मक अध्ययन’ शब्द को प्रयुक्त करना उपयुक्त मानते हैं। इसके अलावा, कतिपय विद्वानों ने अन्य शब्दों का भी प्रयोग किया है। जैसे, बोसवेल ने इसे ‘तुलनात्मक व्युत्पत्ति’ नाम दिया तो जर्मनी के फ्लेचर ने ‘साहित्य का तुलनात्मक विज्ञान’ शब्द को प्रयुक्त किया। वहीं, पासनेस और प्रो. लेन कूपर ने ‘तुलनात्मक साहित्य’ शब्द को ही स्थायित्व प्रदान किया। वैसे, परवर्ती विद्वानों ने अपने इस संवाद को मुख्यतः ‘तुलनात्मक साहित्य’ और ‘तुलनात्मक अध्ययन’ पर ज्यादा फोकस किया है।
‘तुलनात्मक साहित्य’ शब्द प्रयोग में भ्राँति भी है। डाॅ. इंद्रनाथ चौधरी ने इस प्रश्न पर विचार करते हुए लिखा है - “तुलनात्मक साहित्य अंग्रेजी के ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ का हिन्दी अनुवाद है। एक स्वतंत्र विद्याशाखा के रूप में विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में इसके अध्ययन-अध्यापन के कार्य को आजकल विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। अंग्रेजी के कवि मैथ्यू अर्नाल्ड ने सन 1848 में अपने एक पत्र में सबसे पहले ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ पद का प्रयोग किया था (मैथ्यू अर्नाल्ड के पत्र 1895, 1, 9 सं.जी.डब्ल्यू.ई. रसल)। परंतु प्रारंभ में ही इसके शाब्दिक अर्थ को लेकर विवाद रहा, क्योंकि साहित्य यदि कहानीकार, कवि आदि की सृजनशील कलात्मक अभिव्यक्ति है तो वह किसी तरह भी तुलनात्मक नहीं हो सकता। हमने आज तक ऐसा कोई कवि नहीं देखा जो तुलनात्मक कविता, कहानी या उपन्यास लिखता हो। साहित्य की प्रत्येक कृति अपने आपमें पूर्ण होती है और साहित्य सृष्टि में कहीं दूसरे साहित्य के साथ तुलना की जरूरत नहीं होती। ‘तुलनात्मक’ शब्द साहित्य सृष्टि के संदर्भ में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता”।
स्पष्ट है कि तुलनात्मक साहित्य कोई स्वायत्त सर्जनात्मक विधा न होकर एक या विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य के अध्ययन की एक विशेष दृष्टि मात्र है, अध्ययन की पद्धति है। किंतु, अपनी इस स्वीकृति के बावजूद डाॅ.चौधरी ’तुलनात्मक साहित्य’ शब्द का ही चयन करते हैं। इसीलिए उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम ’तुलनात्मक साहित्य की भूमिका’ रखा है और इसे परिभाषित करते हुए कहा है - “भारत जैसे बहुभाषी देश की स्थिति को ध्यान में रखते हुए तुलनात्मक साहित्य की परिभाषा मात्र यही हो सकती है कि तुलनात्मक साहित्य विभिन्न साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन है तथा साहित्य के साथ प्रतीति एवं ज्ञान के दूसरे क्षेत्रों का भी तुलनात्मक अध्ययन है।“
डाॅ. नगेंद्र भी ’तुलनात्मक साहित्य’ पद का प्रयोग करते हुए उसे तुलनात्मक अध्ययन का वाचक पद मानते हैं। वे लिखते हैं - “तुलनात्मक साहित्य जैसा कि उसके नाम से स्पष्ट है, साहित्य का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत करता है। यह नामपद वास्तव में एक प्रकार का न्यून पदीय प्रयोग है और साहित्य के ‘तुलनात्मक अध्ययन’ का वाचक है”।
वहीं, डाॅ. भ.ह. राजूरकर अपने वाचक अर्थ में ‘तुलनात्मक अध्ययन’ शब्द को ठीक मानते हुए यह विचार व्यक्त करते हैं कि विषय को साहित्यिक क्षेत्र तक सीमित करने के कारण ‘तुलनात्मक साहित्य’ पद को मान्यता मिली हो लेकिन साहित्येतर विषयों के तुलनात्मक अध्ययन को ’तुलनात्मक साहित्य’ के क्षेत्र से बाहर मानना ही उचित होगा। इसलिए ’तुलनात्मक अध्ययन’ को ’तुलनात्मक साहित्य’ के अर्थ में ग्रहण करने के बारे में विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि “तुलनात्मक अध्ययन - विषय के विस्तृत फलक से संबंध रखता है। इसके आधार पर विषय से संबंधित सब अंगों को देखा-परखा जाता है। और यदि ’तुलनात्मक अध्ययन’ की सीमाओं में साहित्य मात्र का ही अध्ययन किया जाता हो इससे साहित्य की सार्वभौमिक संकल्पना समझने-समझाने में सहायता मिलती है। साहित्य का सृजन अनेक भाषाओं में होता रहा है और हो रहा है। भाषा-भेद के कारण हमें अंतराल बना हुआ है। इस अंतराल को दूर करने में ‘तुलनात्मक अध्ययन’ की भूमिका का अपना महत्व है। भाषाएँ भिन्न होने पर भी भाषाओं में लिखे गए साहित्य में समानता है। यह समानता विषय-वस्तु और प्रयोजन को पहचानने पर ज्ञान हो सकती है। इस पहचान को बढ़ाने के लिए ‘तुलनात्मक अध्ययन’ की आवश्यकता है।”
वस्तुतः फ्रांसीसी में ’साहित्यिक अध्ययन’ के अर्थ में प्रयुक्त होने वाले शब्द को अंग्रेजी भाषा में स्वीकार तो कर लिया गया, किंतु उसके अर्थ-संदर्भ की ओर विशेष न देने के कारण ‘Comparative study’ शब्द के स्थान पर ‘Comparative literature’ ही चलन में आ गया। हिन्दी में इसे शाब्दिक धरातल पर अंतरित करते हुए ’तुलनात्मक साहित्य’ शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। वास्तव में ‘तुलनात्मक साहित्य’ और ‘तुलनात्मक अध्ययन’ एकसमान अर्थ के दृष्टिकोण से स्वीकृत पद है। ‘तुलनात्मक साहित्य’ शब्द में वही तात्पर्य निहित है, जो ‘तुलनात्मक अध्ययन’ में है। इसलिए ये दोनों पद एक-दूसरे के पर्याय हैं और इनका प्रयोग इसी रूप और संदर्भ में एक-दूसरे के पर्याय के तौर पर किया जाता है। वैसे, इनके प्रयोग की तुलना की जाए तो यह स्वीकार किया जाता है कि ’तुलनात्मक साहित्य’ पद अधिक प्रचलित है।
‘तुलनात्मक साहित्य’ अध्ययन का क्षेत्र -
विभिन्न साहित्यों का परस्पर तुलना करते हुए अध्ययन से संबंधित ‘तुलनात्मक साहित्य’ के बारे में उल्लेखनीय यह भी है कि यह तुलना सिर्फ किसी एक भाषा, साहित्य, साहित्यकार अथवा राष्ट्र तक सीमित नहीं होती; देश-विदेश की सीमाओं का अतिक्रमण कर इसका विस्तार विविध देशों के साहित्य और साहित्यकारों तक हो सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं, इसके संदर्भ में ’साहित्य’ केवल कहानी-उपन्यास आदि सृजनात्मक साहित्य तक ही सीमित नहीं है। तुलनात्मक साहित्य की व्याप्ति, ज्ञान के अन्य क्षेत्रों के तुलनात्मक अध्ययन तक भी है। इसके अंतर्गत अन्य कलाओं एवं ज्ञान-अनुशासनों के शास्त्रों के परिप्रेक्ष्य में भी साहित्य का आकलन किया जा सकता है। इस संदर्भ में हेनरी एच.एच. रेमाक का यह विचार रेखांकित करने योग्य है कि रेमाक का कहना है कि तुलनात्मक साहित्य एक विशेष राष्ट्र के साहित्य की परिधि से परे दूसरे राष्ट्रों के साहित्य के साथ तुलनात्मक अध्ययन है। सिर्फ साहित्य ही नहीं, यह ज्ञान एवं विश्वास के अन्य क्षेत्रों (जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, संगीत) के बीच संबंधों का अध्ययन तो है ही, साथ ही दर्शन, इतिहास और सामाजिक विज्ञान (जैसे राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र), विज्ञान और धर्म आदि के बीच आपसी संबंधों का भी अध्ययन है - Comparative Literature is the study of
literature beyond the confines of one particular country, and the study of the
relationships between literature on the one hand and other areas of knowledge
and belief, such as the arts (e.g. painting, sculpture, architecture, music)
philosophy, history, the social sciences (e.g. politics, economics, sociology),
the science, religion etc. on the other.
रेमाक के विचारों के आलोक में डाॅ. नगेंद्र का भी यही कहना है कि “तुलनात्मक अध्ययन एक भाषा के अंतर्गत हो सकता है, द्विभाषीय या भारत जैसे देश में अनेक भाषाओं के साहित्य तक व्याप्त हो सकता है, या फिर देश-विदेश की सीमाओं का अतिक्रमण कर विविध देशों के साहित्य तक अपने क्षेत्र का विस्तार कर सकता है - अथवा अपनी परिधि के बाहर भी अन्य कलाओं एवं शास्त्रों के परिप्रेक्ष्य में साहत्य का आकलन कर सकता है। “इन विचारों को उद्घाटित करते हुए डाॅ. नगेंद्र जब यह कहते हैं कि “अपनी परिधि के बाहर भी अन्य कलाओं एवं शास्त्रों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का आकलन कर सकता है।” तो वहाँ उनका सीधा या यह अभिप्राय है कि सृजनात्मक साहित्य की विविध विधाओं से इतर गणनीय ज्ञानात्मक साहित्य की कला, दर्शन, धर्मशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास तथा राजनीतिशास्त्र आदि के पारस्परिक संबंधों का विवेचन भी उसके अंतर्गत आ सकते हैं।
वस्तुतः ‘तुलनात्मक साहित्य’, ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित ‘ज्ञानात्मक साहित्य’ अथवा कहानी, उपन्यास, कविता आदि विधा-विशेष के रूप में रचनात्मक लेखन से संबंधित ‘सृजनात्मक साहित्य’ के तुलनात्मक अध्ययन से संबंधित है। इस आधार पर, तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक-विशाल है और यह दो भाषाओं अथवा साहित्यकारों में रागात्मक संबंध स्थापित करता है; ज्ञान-अनुशासन के विविध क्षेत्रों को विस्तारित करता है।
तुलनात्मक साहित्य अध्ययन की आवश्यकता -
वैसे, यहाँ यह प्रश्न भी विचारणीय है कि साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन क्यों करना जरूरी है। हालाँकि इस अध्ययन के संबंध में कई तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना होगा कि देश-विदेश में विभिन्न भाषाओं का अस्तित्व बना हुआ है और मनुष्य ने अपनी भावनाओं-संवेदनाओं को स्वर प्रदान करने के लिए उनमें साहित्य रचना की है। सृजित साहित्य में भिन्नता भौगोलिक आधार पर स्थान और भाषिक स्तर तक ही व्याप्त नहीं है, इसकी व्याप्ति काल, जाति आदि के स्तर पर अंतर पर भी आधारित है। इस आधार स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साहित्यों और उनकी भाषा-संस्कृतियों के बीच ‘परता’ (otherness) की स्थिति नजर आती है। लेकिन, इसके बावजूद, साहित्य सृजन की यह परंपरा अटूट बनी हुई है। विस्तृत साहित्य का अभिज्ञान अथवा आस्वादन यह पुष्ट करता है कि मानव साहित्य मूलतः एक है। अनेकता में व्याप्त इस एकता का संधान करने के लिए दो अथवा उससे अधिक भाषाओं में रचित साहित्यिक कृतियों, उनकी साहित्यिक विभूतियों और साहित्यिक धाराओं आदि का तुलनात्मक अध्ययन करना जरूरी हो जाता है। दो अथवा दो से अधिक भाषाओं के साहित्यों के बीच इस प्रकार के परस्पर अध्ययन से ‘परता’ के बोध को कम करके ‘परस्परता’
(togetherness) के बोध को जाग्रत कर पाना संभव हो सकता है। इस संबंध में टी.जी. मयंकड़ का तो यह कहना है कि “तुलनात्मक साहित्य का आशय साहित्यों का साम्य-वैषम्य प्रकट करने के विचार से उनकी तुलना-मात्र नहीं है। यहाँ तो मुख्य आशय है साहित्य-विशेष को पृष्ठभूमि प्रदान करने वाली सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के संधान द्वारा अपने परिप्रेक्ष्य को व्यापक बनाना और इस प्रकार साहित्य तथा मानवीय कार्यकलाप के अन्य क्षेत्रों के परस्पर संबंध से अवगत होना”।
इस आधार पर ‘तुलनात्मक साहित्य’ के संबंध में हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि यह अध्ययन तभी संभव हो पाता है जब विभिन्न भाषाओं के अनेक साहित्यों का अध्येता को विस्तृत ज्ञान हो। अपने इस ज्ञान-बोध के आधार पर वह किन्हीं दोे भाषाओं की कृतियों के बीच विशेष तौर पर सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में तुलना करने की पद्धति को अपनाकर नई अर्थवत्ता की तलाश करता है।
‘तुलनात्मक साहित्य’ संबंधी विविध परिभाषाएँ -
प्रसिद्ध पाश्चात्य चिंतक रेनेवेलेक ने तुलनात्मक साहित्य के बारे में विचार व्यक्त करते हुए यह स्वीकार किया है कि तुलनात्मक साहित्य, समस्त साहित्यिक रचनाओं एवं अनुभवों की एकता के बारे में जागरूक रहकर अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में साहित्य का अध्ययन करता है। इस धारणा के मूल में यह भावना निहित रहती है कि तुलनात्मक साहित्य भाषिक, जातीय एवं राजनीतिक-भौगोलिक सीमाओं पर ध्यान दिए बिना किए जाने वाले साहित्यिक अध्ययन का पर्याय है। इसे किसी विशेष पद्धति तक सीमित नहीं रखा जा सकता। तुलनात्मक पद्धति के साथ ही समान रूप से वर्णन, चरित्र-चित्रण, व्याख्या, विवरण, विश्लेषण, मूल्यांकन आदि की पद्धतियों का इसके अंतर्गत प्रयोग किया जाता है। तुलनात्मक साहित्य के संबंध में रेने वेलेक ने अपने इन विचारों को शब्दबद्ध करते हुए लिखा है कि It will study all
literature from an international perspective, with a consciousness of the unity
of all literary creation and experience. In this conception...comparative
literature is identical with the study of literature independent of linguistic,
ethnic and political boundaries. It can not be confined to a single method;
description, characterization, interpretation, narration, explanation,
evaluation, are used in its discourse just as much as comparison. स्पष्ट है कि तुलनात्मक साहित्य के संबंध में वेलेक के विचार बताते हैं कि यह साहित्य के समग्र रूप का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करता है और इसके मूल में यह भावना निहित रहती है कि साहित्यिक सृजन और आस्वादन की चेतना जातीय एवं राजनीतिक-भौगोलिक सीमाओं से मुक्त एकरस और अखंड होती है।
‘तुलनात्मक साहित्य’ की अवधारणा पर गंभीरता से विचार करते हुए हेनरी एच.एच. रेमाक ने कहा है कि यह एक विशेष राष्ट्र के साहित्य की परिधि से परे दूसरे राष्ट्रों के साहित्य के साथ तुलनात्मक अध्ययन है। सिर्फ साहित्य ही नहीं, यह ज्ञान एवं विश्वास के अन्य क्षेत्रों (जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, संगीत) के बीच संबंधों का अध्ययन तो है ही, साथ ही दर्शन, इतिहास और सामाजिक विज्ञान (जैसे राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र), विज्ञान और धर्म आदि के बीच आपसी संबंधों का भी अध्ययन है - “Comparative Literature is the study of
literature beyond the confines of one particular country, and the study of the
relationships between literature on the one hand and other areas of knowledge
and belief, such as the arts (e.g. painting, sculpture, architecture, music),
philosophy, history, the social sciences (e.g. politics, economics, sociology),
the science, religion etc. on the other.”
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, अंग्रेजी के ‘कम्पैरेटिव लिटरचेर’ शब्द के प्रतिशब्द के रूप में बांग्ला भाषा में ’विश्व साहित्य’ शब्द प्रयुक्त करते हैं। उन्होंने 1907 में ‘Comparative Literature’ शीर्षक से जादवपुर विश्वविद्यालय में दिए भाषण में इसका प्रयोग करते हुए साहित्य के अध्ययन में तुलनात्मक दृष्टि की आवश्यकता पर बल दिया था।
‘तुलनात्मक साहित्य’ को परिभाषित करते हुए डाॅ. नगेंद्र ने लिखा है कि “तुलनात्मक साहित्य वास्तव में एक प्रकार का अंतःसाहित्यिक अध्ययन है, जो अनेक भाषाओं के साहित्य को आधार मानकर चलता है और जिसका उद्देश्य होता है - अनेकता में एकता का संधान”।
डाॅ. इंद्रनाथ चैधुरी के शब्दों में कहा जा सकता है कि “तुलनात्मक साहित्य एक स्वतंत्र विषय है जिससे विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्यों की एक संपूर्ण इकाई के रूप में व्यापक पहचान की और अधिक संभावना बनती है। यह काम केवल विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्यों की तुलना से ही नहीं वरन् मानवीय ज्ञान तथा प्रतीतियों, विशेष रूप से कलात्मक तथा वैचारिक क्षेत्रों के साथ तुलना से ही संभव हो सकता है।”
तुलनात्मक साहित्य के संबंध में विभिन्न विद्वानों के द्वारा व्यक्त किए गए विचारों के आलोक में इसे परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि “तुलनात्मक साहित्य, एक से अधिक भाषाओं में रचित साहित्य का वह अध्ययन है जिसमें ‘परस्पर तुलना’ के आधार-तत्व को ग्रहण कर पारस्परिक प्रभाव-सूत्रों का अध्ययन किया जाता है।” इस दृष्टि से तुलनात्मक साहित्य, स्वयं में कोई साहित्य नहीं है और न ही इसका अपना कोई साहित्यिक सिद्धांत है; यह वस्तुतः अध्ययन की एक पद्धति (methodology) है। यह एक प्रकार का अंतःसाहित्यिक अध्ययन है अर्थात साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए यह जरूरी है कि इसमें एक से अधिक साहित्य को शामिल किया जाए। यह साहित्य राष्ट्रीय परिधि के भिन्न क्षेत्रों-भाषाओं के साहित्य से संबंधित हो सकता है और उस साहित्य से भी जो राष्ट्रीय परिधि से बाहर विकसित हो रहा है। यह साहित्य के समग्र रूप का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करता है - साहित्य सृजन और आस्वादन की चेतना जाति, धर्म और भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण करती है। साहित्य के अध्ययन की यह दृष्टि बताती है कि व्यक्ति-विशेष भले ही साहित्य का सृजन करते हों, लेकिन तुलनात्मक अध्ययन उसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखने का नजरिया प्रदान करता है। अध्ययन की इस पद्धति के आधार पर व्यक्ति किन्हीं दोे भाषाओं की कृतियों के बीच विशेष तौर पर सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में तुलना करते हुए नई अर्थवत्ता की तलाश करता है। यह एक से अधिक भाषाओं के साहित्य की अंतश्चेतना का और उनके बीच परस्पर संबंधों का अध्ययन है - “The objective of comparative literature is
essentially the study of diverse literatures in their relations with one
other.”
तुलनात्मक साहित्य के प्रकार -
‘तुलनात्मक साहित्य’ एक व्यापक क्षेत्र का द्योतक है। इसलिए हमें इसके अध्ययन के विविध प्रकार विविध आयाम वाले अनुभूत होते हैं। साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, वास्तव में अनुसंधान का ऐसा विषय है जिसके अंतर्गत (1) एक ही साहित्य के दो युगों, (2) दो साहित्यिक-प्रवृत्तियों या दो लेखकों की तुलना; (3) किसी एक भाषा-साहित्य, साहित्यिक व्यक्तित्व (साहित्यकार) अथवा साहित्यिक-प्रवृत्ति (काव्यधारा) का अन्य साहित्य/साहित्यों, साहित्यिक व्यक्तित्वों अथवा प्रवृत्तियों (काव्यधाराओं) पर प्रभाव आदि की तुलना तथा (4) दो साहित्यों के दो साहित्यकारों, साहित्यिक कृतियों/प्रवृत्तियों/युगों अथवा साहित्यिक विधाओं आदि की तुलना आदि शामिल है।
इनमें ये यदि एक ही भाषा के अंतर्गत तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो उसका महत्व भी उसी भाषा-साहित्य तक सीमित रहता है। वहीं अगर अन्य साहित्यों के भावों-विचारों, संवेदनाओं, दृष्टिकोणों एवं चिंतन प्रणालियों पर किसी एक साहित्य का प्रभाव किस प्रकार पड़ता है और ऐसे प्रभावित भाषा-साहित्य की सभ्यता-संस्कृति में किस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं आदि जैसे विषय भी तुलनात्मक अध्ययन के विषय बनते हैं। वहीं, किन्हीं दो अथवा उससे अधिक साहित्यों के तुलनात्मक अनुसंधान के अंतर्गत दो युगों, दो साहित्यिक-प्रवृत्तियों या दो लेखकों की तुलना की जाए तो उससे ‘साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ में निहित अवधारणा अपने समग्र रूप में प्रकट होती नजर आती है। इसमें तुलनात्मक अध्येता को दो साहित्यों का समुचित अध्ययन करना पड़ता है, जिसके लिए उसे साहित्यिक प्रदेशों की सभ्यता-संस्कृति एवं परिवेश का सम्यक बोध भी होना चाहिए।
वास्तविकता यह है कि तुलनात्मक अध्ययन के अंतर्गत तुलना के विषयों को किसी सीमा में नहीं बाँधा जा सकता है। इसलिए इसके विभिन्न प्रकारों को कई वर्गों में विभाजित-उपविभाजित किया जा सकता है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मनुष्य की सहज प्रवृत्ति ‘तुलना’ के कारण किसी एक अथवा अनेकानेक भाषाओं में रचित ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं-उपशाखाओं और विभिन्न विधाओं में रचित सृजनात्मक साहित्य आदि सभी विषयों पर तुलना संभव हैं; सभी में तुलना के विषय में आ सकते हैं। वैसे इतना तो अवश्य ही है कि साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से ही ज्ञान की पूर्णता होती है और तुलना के क्षेत्रों के बीच रागात्मक संबंध स्थापित होते हैं। इससे वस्तुतः ’अनेकता में एकता के संधान’ की पूर्ति होती है।
तुलनात्मक साहित्य: उद्भव और विकास -
‘तुलनात्मक साहित्य’ को यूरोप में 18वीं सदी के अंतिम दशकों में ‘राष्ट्रीय साहित्य’ (नेशनल लिटरेचर) की प्रतिक्रिया तथा प्रतिरोध के परिणामस्वरूप सामने आए विषय के रूप में देखा जाता है। इस संबंध में ‘तुलनात्मक साहित्य’ के अध्येता विद्वान प्रो. अवधेश कुमार सिंह का कहना है कि “यह वह समय था, जब यूरोप में राजशाही तथा सामंतवादी साम्राज्य के बिखराव के साथ राष्ट्र (नेशन) अस्तित्व में आ चुके थे। पश्चिम में राष्ट्र का अर्थ था - एक भौगोलिक क्षेत्र, एक पंथ या धर्म, एक प्रजाति, एक भाषा, एक साहित्य। राष्ट्र के साथ राष्ट्रीय साहित्य की अवधारणा अस्तित्व में आई, जो सिद्धांत तथा व्यवहार दोनों के स्तर पर सीमित तथा संकीर्ण थी। परिणामतः राष्ट्रीय श्रेष्ठता सिर पर चढ़कर बोलने लगी। कहा जाने लगा कि विश्व जो कल सोचेगा, यूरोप वह आज सोचता है, और यूरोप जो कल सोचेगा, वह फ्रांस आज सोचता है। जर्मनी और इंगलैंड भी इस संक्रामक वाग्विलास से अछूते न थे। राष्ट्रीय साहित्य सर्वश्रेष्ठ माना गया और कहा गया यदि मेरा साहित्य सर्वश्रेष्ठ है तो मुझे दोयम दर्जे के अन्य साहित्यों को पढ़ने की क्या जरूरत? साहित्य का मुख्य उद्देश्य है - समाजों और संस्कृतियों के बीच संवाद स्थापित कर साहित्यिक और मानवीय मूल्यों की स्थापना करना, पर राष्ट्रीय साहित्य ने तो संवादहीनता की स्थिति खड़ी कर दी। ऐसे में यूरोप के उस समय में गोएते जैसे मनीषी ने ‘विश्व साहित्य’ और ’तुलनात्मक साहित्य’ की अवधारणा प्रस्तुत की”।
उन्नीसवीं सदी में साहित्य के अध्ययन के प्रति यूरोप में विकसित दृष्टिकोण और आगे चलकर उसे ’तुलनात्मक साहित्य’ नाम देने के बारे में नरेश गुह ने अपने लेखन में विचार किए हैं। उस युग की पृष्ठभूमि को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है कि “वह एक ऐसा युग था, जिसमें संस्कृति तथा साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों की खोज से, विशेषकर मध्य-पूर्वी देशों तथा भारत, चीन और जापान समेत एशियाई देशों की संस्कृति और साहित्य की खोज से यूरोप के मानसिक क्षितिज का प्र्याप्त विस्तार हुआ था। भारोपीय भाषाओं के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित किया जा चुका था और स्वप्नदर्शी बड़ी आशा के साथ इस अवधारणा का संधान कर रहे थे कि मनुष्य जाति अंतरंग परिवार में एकजुट हो सके। इस बीच विज्ञान में तो अभूतपूर्व और चमत्कारी प्रगति हो ही रही थी। और चूँकि सार्वभौम स्तर पर मान्य वैज्ञानिक सत्यों के लिए राष्ट्रीय सीमाएँ अधिक प्रासंगिक नहीं होतीं, इसलिए सुझाया यह गया है कि साहित्य को भी अधिकाधिक सार्वभौम मानवीय प्रतिभास की भाँति ग्रहण किया जाए, अभिव्यंजना का वह रूप माना जाए, जो सार्वभौम मानवीय अनुभव को भाषा में - किसी भी भाषा में मुखरित करता है। साहित्य के अध्ययन के प्रति यूरोप में जो नया दृष्टिकोण विकसित हुआ और जिसे आगे चलकर तुलनात्मक साहित्य नाम दिया गया”।
‘तुलनात्मक साहित्य’ की अवधारणा के उद्भव और विकास पर विचार करने पर पता चलता है कि अंग्रेजी, फ्रांसीसी अथवा जर्मन साहित्य के स्वतंत्र अध्ययन के बाद और ग्रीक एवं लैटिन से अन्यान्य यूरोपीय भाषा-साहित्यों की तुलना से हुआ है। यह अवधारणा, आधुनिक भारतीय साहित्यों से पहले विकसित हुई थी। हालाँकि वस्तुओं में साम्य-वैषम्य का पता लगाने के संदर्भ में अंग्रेजी में ‘कम्पैरेटिव’ शब्द का प्रयोग तो लगभग वर्ष 1598 से हो रहा था। ‘कम्पैरेटिव’ शब्द के इसी अर्थ को ध्यान रखते हुए फ्रांसिस मेयर्स ने ‘ए कम्पैरेटिव डिस्कोर्स ऑफ़ आवर इंगलिश पोयट्स विद द ग्रीक लैटिन एंड इटालियन पोयट्स’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। किंतु भाषा-साहित्यों की तुलना के संदर्भ में इस शब्द प्रयोग उन्नीसवीं सदी में हुआ। तुलनात्मक अध्ययन के पाश्चात्य पुराधाओं ने उन्नीसवीं सदी के अंत में साहित्य की इस नई शाखा को परिभाषित किया और इसके उपकरणों एवं प्रक्रियाओं का रूप-निर्धारण किया। इस अवधारणा के उद्भव और विकास का श्रेय मैथ्यू आॅर्नाल्ड को दिया जाता है जिन्होंने वर्ष 1848 में ‘Comparative Literature’ पद का प्रयोग करते हुए तुलनात्मक साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत की थी। हालाँकि तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं का मानना है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ पद को संभवतः साहित्य-शिक्षा के लिए फ्रांस में वर्ष 1816 में प्रकाशित संग्रह ‘Cours de literature
comparee’ से
लिया गया। वैसे, अर्नाल्ड के बाद वर्ष 1886 में हार्डसन मेकाले पासनेट ने ‘Comparative Literature’ नामक ग्रंथ की रचना करके अध्ययन की इस पद्धति की न केवल ऊँचा स्थान प्रदान किया बल्कि उसे चोटी तक पहुँचाकर इसे एक ’विद्याशाखा’ के रूप में स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास किया। अपने इस प्रयास के साथ पासनेट, साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में काफी चर्चित और प्रतिष्ठित भी हुए।
इस प्रकार के कतिपय प्रयासों ने तुलनात्मक साहित्य का राहों का अन्वेषण शुरू किया और तुलनात्मक अध्ययन का द्वार खुला। आगे चलकर पासनेट ने वर्ष 1901 में ‘The Science of
Comparative Literature’ नामक एक लेख भी लिखा, जिसमें उन्होंने तुलनात्मक साहित्य की पद्धति, स्वरूप तथा विचार-विश्लेषण किया था। यह लेख ’काॅन्टेंपोररी रिव्यू’ में प्रकाशित हुआ था। वैसे, इसके लिए ‘तुलनात्मक अध्ययन’, ‘तुलनात्मक व्युत्पत्ति’ और ‘साहित्य का तुलनात्मक विज्ञान’ शब्दों का प्रयोग करना सुझाया जाता रहा है, किंतु अब ‘तुलनात्मक साहित्य’ शब्द स्थायित्व प्राप्त कर चुका है और एक विशिष्ट अर्थ से समन्वित हो गया है।
भारत के संदर्भ में ’तुलनात्मक साहित्य’ पर विचार करने पर हम पाते हैं कि यहाँ तुलनात्मक साहित्य अध्ययन का इतिहास बहुत प्राचीन नहीं है। बीसवीं सदी के पहले दशक में इसका आधार निर्मित हुआ था। भारतीय साहित्य अर्थात तुलनात्मक भारतीय साहित्य के इतिहास का रेखांकन सबसे पहले जर्मन विद्वान प्रो. विंटरनित्ज ने किया। उन्होंने ही सबसे पहले ’भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य’ शीर्षक से निबंध लिखा।“राॅबर्ट काल्डवेल ने तुलनात्मक व्याकरण लिखा, वहीं अल्बर्ट वेवर ने संस्कृत ड्रामा पर यूनानी प्रभाव की छानबीन की। और अगर हम मैक्समूलर की बात करें तो उन्होंने संस्कृत और यूनानी साहित्य की बात की और इससे विश्व साहित्य के प्रति एक स्वस्थ दृष्टिकोण का प्रसार हुआ। साहित्य से इतर संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन में देखें तो “सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने वर्ष 1936 में आक्सफोर्ड में ’ईस्टर्न रिलीजंस एंड वेस्टर्न थाट’ विषय पर भाषण देकर तुलनात्मक दर्शन और धर्म के प्रति रुचि जगाई”।
कदाचित इस प्रकार के प्रयासों से ही तुलनात्मक साहित्य के संदर्भ में विश्व-साहित्य की कल्पना सामने आई और वर्ष 1907 में विश्व-कवि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने कलकत्ता स्थित ‘राष्ट्रीय शिक्षा परिषद’ के तत्वावधान में ‘विश्व साहित्य’ शीर्षक निबंध पढ़ा। उन्होंने ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ शब्द को व्यापकता प्रदान कर ‘विश्व साहित्य’ का उल्लेख करते हुए ‘साहित्य के अध्ययन में तुलनात्मक दृष्टि’ की आवश्यकता पर जोर दिया था। उन्होंने अंग्रेजी के ‘Comparative’ शब्द को भारतीय भाषा में ‘विश्व साहित्य’ पद प्रयुक्त किया था। तब से ’तुलना’ शब्द को अंग्रेजी के ’कंपैरेटिव’ शब्द के पर्याय के रूप में व्यवहार में लाया जाता है। इससे पहले, साहित्य के अध्ययन के संदर्भ में यह शब्द भारत में चलन में नहीं था। कतिपय विद्वानों के तुलनात्मक अध्ययन संबंधी प्रयासों और गुरुदेव के चिंतन आदि के परिणामस्वरूप भारतीय विश्वविद्यालयों में भी तुलनात्मक साहित्य के प्रति रुचि जाग्रत हुई। आगे चलकर, वर्ष 1956 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद के विकसित रूप में वर्ष 1956 में जादवपुर विश्वविद्यालय में इस देश में सर्वप्रथम ‘तुलनात्मक साहित्य’ विभाग की स्थापना हुई और इससे संबंधित पाठ्यक्रम शुरू हुआ। इसी प्रकार, भारत के साथ-साथ विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य का उद्भव और क्रमिक विकास होता चला गया।
तुलनात्मक साहित्य के उद्भव और विकास से संबंधित यह ऐतिहासिक परिदृश्य ज्ञान की एक ‘विद्याशाखा’ के रूप में पहचान का परिचायक है। इसके बावजूद, एक स्वतंत्र विषय के रूप में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन को मान्यता देना आज भी विवाद का विषय माना जाता है। कारण, तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन संबंधी मानदंड या प्रवृत्तियाँ पूरी तरह से स्थिर या सुनिश्चित नहीं हो पाई हैं। किंतु इतना तो अवश्य ही है कि तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन से सार्वभौम साहित्य की परिकल्पना मूर्त हो पाती है। स्वीकार्य तथ्य यह है कि तुलनात्मक साहित्य का अपना कोई साहित्यिक सिद्धांत नहीं है- उसका इस प्रकार का कोई सिद्धांत नहीं है जो एकल साहित्यों से नितांत भिन्न अस्तित्व हो। किंतु, यह भी सही है कि तुलनात्मक साहित्य की एक निजी सुनिश्चित पद्धति अवश्य है। यह सुनिश्चित पद्धति ही तुलनात्मक साहित्य को एकल साहित्यों से पूरी तरह से भिन्न बनाती है। वैसे इसे साहित्य की एक स्वतंत्र अवधारणा माना जाता है जो स्वयं में पद्धति अथवा विधि-विशेष भी है।
तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद -
ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों और रचनात्मक लेखन से संबंधित होने के कारण साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। मूलतः अंतःसाहित्यिक अध्ययन की इस पद्धति में दो अथवा उससे अधिक भाषाओं की साहित्यिक कृतियों, साहित्यिक विभूतियों, साहित्यिक धाराओं, साहित्यिक युगों-आंदोलनों आदि का तुलनात्मक अध्ययन करके अनेकता में एकता का संधान किया जाता है। वैसे, यहाँ, प्रश्न यह उठता है कि क्या किसी भाषा में रचित साहित्य का भी तुलनात्मक अध्ययन संभव है? और, उससे आगे विचार किया जाए तो दो अथवा अधिक भाषाओं के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन और अनुवाद का संबंध क्या है? इन दोनों में अंतर्संबंध क्या है? तुलनात्मक साहित्य के संदर्भ में इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार किया जाना अपेक्षित है।
साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन: एक भाषा बनाम अनेक भाषाओं का संदर्भ -
अगर किसी एक ही भाषा की साहित्यिक विभूतियों-कृतियों को ही तुलनात्मक अध्ययन का आधार बनाए जाए तो ‘तुलनात्मक साहित्य’ केवल एक ही भाषा के दायरे मेंसिमट कर रह जाता है। इस प्रकार के अध्ययन में अनुवाद की कोई भूमिका नहीं रहती, इसके बिना भी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन संभव है। जैसे इंगलैंड और भारत में रचित अंग्रेजी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करना। इसी प्रकार, अन्य देशों के अंग्रेजी साहित्य के साथ भारतीय साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन। या फिर हिन्दी और हिन्दीतर भषी क्षेत्रों के हिन्दी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करना। किंतु साहित्य संबंधी इस प्रकार के अध्ययन-प्रयास से तुलनात्मक अध्ययन की न केवल सीमा संकुचित हो जाती है बल्कि विभिन्न भाषाओं वाली भारत जैसे एक ही भौगोलिक इकाई के देश तथा विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्य से अनजान बने रहने की स्थिति बन जाएगी। यह स्थिति किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं है।
वस्तुतः अन्य भाषाओं-संस्कृतियों और साहित्य से परिचय और ज्ञान से तुलनात्मक अध्ययन से तुलनात्मक दृष्टि का उन्मेष होता है। उत्तरोत्तर बढ़ती साक्षरता, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की व्यापकता के कारण भौगोलिक सीमाओं से परे बढ़ते संप्रेषण और भूमंडलीकरण के दौर में नई-नई भाषाएँ सीखने एवं उनकी संस्कृतियों को जानने एवं समझने की जिज्ञासा ने साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन को व्यापक बनाया है, उसे विस्तार प्रदान किया है। इसलिए अंतःसाहित्यिक अध्ययन की तुलनात्मक इस पद्धति को केवल एक ही भाषा के साहित्य, साहित्यिक प्रवृत्तियों अथवा साहित्यकारों तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। भाषाओं के स्तर पर इसकी परिधि व्यापक होनी चाहिए। इसलिए यह स्वीकार किया जाता है कि साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के अंतर्गत दो अथवा उससे अधिक भाषाओं की साहित्यिक कृतियों-विभूतियों, साहित्यिक प्रवृत्तियों, युगों-आंदोलनों आदि का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है ताकि ‘अनेकता में एकता’ का संधान किया जा सके।
साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का सर्वश्रेष्ठ विकल्प: अनुवाद -
तुलनात्मक साहित्य के रूप में जब हम विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य के अध्ययन की एक विशेष दृष्टि - अंतःसाहित्यिक अध्ययन - के रूप में विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि विस्तृत अध्ययन क्षेत्र एवं अध्ययन पद्धति से संबंधित व्यापकता वाली इस पद्धति के मार्ग में भाषिक भिन्नता, बड़ी कठिनाई पैदा करती है। तुलनात्मक अध्येताओं के समक्ष यह चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है क्योंकि अगर वे बहु-भाषाभाषी नहीं हैं तो उनके द्वारा सम्यक एवं संतुलित तुलनात्मक अध्ययन करना संभव नहीं हो पाता है। यह अंतःसाहित्यिक अध्ययन तभी मूर्त रूप पा सकता है जब साहित्य का तुलनात्मक अध्येता अनेक भाषाओं का ज्ञाता हो। अध्येता के समक्ष सर्वप्रथम भाषा-बोध के स्तर पर माध्यम-भाषाओं का मौलिक ज्ञान प्राप्त करना या फिर अपने अध्ययन की परिधि को कुछेक भाषाओं तक ही सीमित रखने का विकल्प होता है। किंतु इस विकल्प से जनित कतिपय कठिनाइयों पर विचार व्यक्त करते हुए डाॅ. नगेंद्र ने सही ही लिखा है “भाषाओं के अध्ययन के निरंतर अभ्यास से उसकी साहित्यिक संवेदना का विकास अवरुद्ध हो सकता है। बहुभाषाविद् या भाषावैज्ञानिक, प्रायः साहित्य के मर्म को पहचानने में असमर्थ हो जाते हैं.....उधर माध्यम-भाषाओं के अत्यधिक परिसीमन से साहित्य का समग्र चित्र उभरकर नहीं आ सकता जो तुलनात्मक साहित्य का चरम लक्ष्य है। ये दोनों ही विकल्प अपने-अपने ढंग से तुलनात्मक साहित्य की परिकल्पना में बाधक हो सकते हैं। अनेक भाषाओं के जाल में फंसकर जहाँ साहित्य की पकड़ ढीली पड़ जाती है, वहाँ दो या दो-तीन भाषाओं की सीमा स्वीकार कर लेने से अखंड साहित्य की अवधारणा बाधित हो जाती है।” इसलिए दो भाषाओं से संबंधित समग्र बोध के परिपाश्र्व में साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के विकल्प को सर्वश्रेष्ठ विकल्प नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक एवं यथार्थ दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है। वैसे भी मनुष्य का अनेकानेक भाषाओं को सीखना और उनमें आधिकारिक गति प्राप्त करना व्यावहारिक दृष्टि से बहुत मुश्किल काम है। इस स्थिति में जो व्यावहारिक विकल्प उभरकर सामने आता है, वह है - अनुवाद।
अनुवाद ही वह माध्यम सिद्ध होता है जिसके सहारे भाषिक बाधा की इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। अनुवाद, भाषिक विभिन्नता की दीवार को गिराकर उनमें रचित साहित्य को तुलनात्मक अध्येता के समक्ष प्रस्तुत करने का सशक्त साधन है। अनुवाद के अभाव में तुलनात्मक अध्येताओं के द्वारा विभिन्न भाषाओं के साहित्यों में परस्पर तुलना करते हुए अध्ययन करने में सक्षम हो पाना संभव नहीं होगा। इसलिए कुछ विद्वानों का यह विचार है कि अनुवाद के बिना साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन हो ही नहीं सकता। इस परिप्रेक्ष्य में प्रतिष्ठित अनुवाद चिंतक सूजन बेसनेट और आंद्रे लेफेवेयर के विचार ध्यातव्य हैं कि - “Translation has been a
major shaping force in the development of world culture, and no study of
comparative literature can take place without regard to translation.” (विश्व संस्कृति के विकास में अनुवाद एक प्रमुख कारिका शक्ति है और साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन तो अनुवाद के बिना संभव ही नहीं।) इसलिए कहा जा सकता है कि अनुवाद के माध्यम से साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन में बड़ी सहायता मिलती है; तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद में अति-निकट संबंध है।
तुलनात्मक साहित्य, स्वयं में कोई साहित्य न होकर अध्ययन की एक पद्धति (methodology) है। इसलिए, किन्हीं दो भाषाओं में रचित साहित्य के बिना ‘तुलनात्मक साहित्य’ अथवा ‘साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन’ के बारे में सोचा नहीं जा सकता, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। दो भाषाओं में रचित साहित्यों के अध्ययन को इस पद्धति के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन करने को व्यावहारिक धरातल पर उतारने (अर्थात तुलनात्मक अध्ययन करने) के लिए अनुवाद का सहारा लेना पड़ता है। अनुवाद के बिना तुलनात्मक साहित्य सिर्फ एक ही भाषा की परिधि में ही सिमटकर रह जाएगा। हालाँकि साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किसी एक ही भाषा के अंतर्गत भी हो सकता है (जैसे किसी एक ही भाषा की दो या उससे अधिक समान-असमान विधाओं या प्रवृत्तियों अथवा साहित्यकारों की तुलना करना), किंतु इससे न केवल तुलनात्मक साहित्य की सीमा संकुचित हो जाती है बल्कि अनेक भाषाओं के साहित्य का आधार मानकर चलने वाले इस अंतःसाहित्यिक अध्ययन की इस पद्धति के मूल उद्देश्य- अनेकता में एकता का संधान - संभव नहीं हो सकेगा। ऐसे में हम अपने देश तथा विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्य से अनभिज्ञ रह जाएँगे। इसलिए अनुवाद, साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का आधार है; एक से अधिक भाषाओं में रचित साहित्यों के बीच व्याप्त भाषिक संप्रेषण के गतिरोध को दूर करने वाली अध्ययन की प्रविधि है। “तुलना”, इस अध्ययन का मुख्य अंग होता है, जो अनुवाद के बिना संभव नहीं हो पाता है। अनुवाद को तुलनात्मक साहित्य अनुशासन का आधार मानते हुए डाॅ. इंद्रनाथ चैधुरी ने लिखा है कि “आखिरकार अनुवाद ही इस अनुशासन की आधारपीठिका है और आज के संदर्भ में सांस्कृतिक अध्ययन के अंतर्गत अनुवाद ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है।” चूँकि अनुवाद दो भाषाओं तथा साहित्यों के बीच सेतु का काम करता है और उनका अध्ययन संभव बनाता है, इसलिए अनुवाद की तुलनात्मक अध्ययन में प्रमुख भूमिका है।
‘तुलनात्मक साहित्य’ और अनुवाद का अंतर्सबंध -
‘तुलनात्मक साहित्य’ और ‘अनुवाद’ परस्पर अंतर्संबंधित विषय हैं, इनमें हमेशा गहरा संबंध बना रहा है। ‘तुलना’ के लिए अनुवाद का आश्रय लेना इन दोनों के बीच संबंधों की इस गहराई का आधार रहा है। हालाँकि शुरू में ‘अनुवाद’ को एक सहायक अनुशासन माना जाता रहा है और ‘तुलनात्मक अध्ययन’ को प्रमुखता दी जाती रही है। कारण, अनुवाद के बिना भी किसी एक भाषा में रचित साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन संभव है। इसलिए अनुवाद की गौण भूमिका को स्वीकार किया जाता रहा है। जबकि तुलनात्मक साहित्य का यथार्थ रूप दो अथवा अधिक भाषाओं के साहित्य की तुलना से ही उभरता है, इसलिए अनुवाद केवल सहयोगी-मात्र नहीं है। साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन में उसकी अपनी अनिवार्य भूमिका है। इस प्रकार के अध्ययन में अनुवाद की सार्थकता, साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन को अर्थवत्ता प्रदान करता है और नवीन आयामों को अनुभूत करने का साधन सिद्ध होता है। इसलिए अनुवाद, तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण आधार है।
तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद में घनिष्ठ अंतर्संबंध होने के बावजूद कालक्रम में इनके संबंधों की स्थिति में बदलाव नजर आना शुरू हो चुका है। अनुवाद अध्ययन की समकालीन अनुवाद चिंतक सूसन बेसनेट और गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक जैसे विद्वानों ने अपनी पुस्तक Death of a Discipline
(2003) में तुलनात्मक साहित्य की मृत्यु की घोषणा कर दी है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान के अनुशासन के रूप में तुलनात्मक साहित्य का अंत हो गया है। यानी तुलनात्मक साहित्य की स्थिति प्रमुख नहीं रह गई है, वह अनुवाद का एक आनुषांगिक हिस्सा बन गया है। वर्ष 2003 में लिखित अपनी पुस्तक के जरिए “स्पीवाक के अध्ययन में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता और प्रासंगिकता की समाप्ति की बात की गई है। वे उत्तर दक्षिणी संस्कृतियों को प्रश्नांकित करने तथा पुनर्परिभाषित करने पर बल देती हैं। तुलनात्मक साहित्य का पारंपरिक ढांचा पूरी तरह से अस्वीकार्य हो गया है इसलिए वे देरिदा के Politics of Friendship के आह्वान के अर्थ में यह प्रस्ताव करती हैं कि तुलनात्मक साहित्य इस तरह का उदाहरण प्रस्तुत करें कि किस तरह मानविकी तथा समाज विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। इसी प्रकार वे यह भी प्रस्तावित करती हैं कि हमेशा सीमांतों से आगे की बात सोचिए (Must always cross the
border); वैश्विक
संस्कृति से परे उपग्रही संस्कृति की वकालत तुलनात्मक साहित्य को करनी चाहिए। वे प्रस्ताव करती है कि अपने को वैश्विक एजेंट के बजाय उपग्रही एजेंट समझो (Imagine ourselves as planetary
subjects rather than global agents) तथा तुलनात्मक साहित्य का महत्व एक अध्ययन पद्धति (Methodology) के रूप में असंदिग्ध रूप में बना हुआ है।”
तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद के संदर्भ में वाद-विवाद के विस्तार में न जाकर इनके अंतर्संबंध को तो स्वीकार ही किया जाना चाहिए कि अनुवाद, तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन की एक पद्धति के रूप में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण और असंदिग्ध भूमिका एवं स्थान-आधार है।
तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद प्रक्रिया -
वैसे देखा जाए तो अपने सीमित संदर्भ में अनुवाद स्वयं में ही एक तुलनात्मक गतिविधि है, जोकि दो भाषाओं के बीच तुलनात्मक प्रक्रिया से गुजरते हुए संपन्न हो पाती है। इसे स्पष्ट परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हुए कहा जा सकता है कि अनुवाद करने की प्रक्रिया में अनुवादक स्रोत भाषा पाठ के ‘पाठक’ के रूप में उसका गहन अध्ययन और ’विश्लेषण’ करता है, ’द्विभाषिक’ (अनुवादक) की भूमिका निभाते हुए अनूद्य पाठ का अपने मानस-पटल पर ‘अंतरण’ करता है और फिर उस अंतरित पाठ को एक ‘लेखक’ की भाँति लक्ष्य भाषा में लिपिबद्ध करते हुए उस पाठ का ‘पुनर्गठन’ करता है। अनुवाद प्रक्रिया के इन विभिन्न चरणों (अर्थात विश्लेषण, अंतरण और पुनर्गठन) से गुजरते हुए अनुवादक वास्तव में स्रोत और लक्ष्य भाषा की परस्पर तुलना करते हुए ही चलता है और पाठ को दूसरी भाषा में प्रस्तुत करने की परिणति तक पहुँचाता है। इस दृष्टि से यह स्वीकार किया जा सकता है कि अनुवाद की प्रत्येक गतिविधि, वास्तव में, एक तुलनात्मक प्रक्रिया है। इसलिए अनुवाद, तुलनात्मक साहित्य का पिछलग्गू न होकर उसके तुलनात्मक अध्ययन का एक अहम् अंग है।
अनुवाद करने की प्रक्रिया में यह सावधानी बरती जानी अपेक्षित होती है कि स्रोत भाषा सामग्री के मूल आशय का अतिक्रमण न हो और उसमें अंतर्निहित भावों-विचारों, अर्थों अथवा संवेदनाओं को लक्ष्य (दूसरी) भाषा में अंतरित किया जाए। मूलतः, कथ्य के अंतरण संबंधी यह गतिविधि (अनुवाद) बहुत ही परिष्कृत रूप वाली होती है और अनुवादक के द्वारा बहुत ही सावधानी से की जाने वाली सूक्ष्म गतिविधि होती है। इस गतिविधि को भली प्रकार से संपन्न करते समय यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि अनुवादक स्पष्ट रूप से इस बोध से संपन्न हो कि मूल पाठ का लेखक का क्या कहना चाहता है। अनुवादक उस भाव-संवेदना को दूसरी भाषा में समतुल्य रूप से अंतरित करता है जिसे लेखक ने मूल पाठ में व्यक्त करने का प्रयास किया है। अनुवादक को लेखक के मंतव्य की व्याख्या नहीं करनी चाहिए। अनुवादक के समक्ष यह चुनौती होती है कि लेखक ने क्या कुछ कहा है और किस तरह से कहा है। अनुवादक इस चुनौती का सामना करता है और अपने दायित्व का निर्वहण करते हुए मूल-सी कृति (प्रतिकृति) तैयार करता है। यही दायित्व साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले अध्येता भी निभाता है।
मूल-सा आनंद प्रदान करने वाले इस पावन-पुनीत अनुवाद कर्म करने की प्रक्रिया में अनुवादक स्वयं को यथातथ्य अनुरूपता (exact
correspondence) से बाँधकर नहीं रख सकता, उसे मूल पाठ में कुछ जोड़ना अथवा छोड़ना पड़ता है। यह जोड़ना-छोड़ना मूल में व्यक्त अर्थ-भाव में आंशिक लोप अथवा संयोजन का द्योतक होता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि अनूदित पाठ में मूल का स्वाद बना रहे और उसका सहज रूप से रसास्वादन किया जा सके। अनुवाद में लोप अथवा संयोजन किन्हीं दो भाषाओं के रूप, व्याकरण, अर्थ विधान और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण किया जाता है। अनुवादक इन संदर्भों में अनूदित पाठ को लक्ष्य भाषा के रूप और अर्थ के अनुरूप प्रस्तुत करने का प्रयास तो करता है, किंतु उसका यथातथ्य एकसमान हो पाना संभव नहीं होता है। अनुवादक को अनुवाद में लोप अथवा संयोजन की स्वतंत्रता का यह अभिप्राय नहीं है कि वह अशुद्ध अनुवाद कर दे। मूलतः अज्ञानता अथवा लापरवाही के परिणामस्वरूप होने वाले अशुद्ध अनुवाद भ्रामकता पैदा करते हैं। अशुद्ध अनुवाद के कारण किसी अनूदित रचना-विशेष अथवा रचनाकार के बारे में लक्ष्य भाषा समाज में पूरी दृष्टिकोण तक बदल जाता है। इस तथ्य को पुष्ट करते हुए डाॅ. इंद्रनाथ चैधुरी ने बैलाकियन के संदर्भ से लिखा है कि “गाॅतियर (Theophile Cautier) के द्वारा किए गए आरनिम (Arnim) के गलत अनुवादों के आधार पर ब्रेटन (Breton) ने उसे अतियथार्थवाद का अग्रदूत मान लिया था।
अशुद्ध अनुवाद केवल भ्रामकता ही पैदा नहीं करते हैं, इनके कारण किसी अनूदित रचना-विशेष अथवा रचनाकार के बारे में लक्ष्य भाषा समाज में पूरी दृष्टिकोण तक बदल सकता है। इस संदर्भ में डाॅ. इंद्रनाथ चैधुरी ने लिखा है कि “उर्कुहर्ट ने राबिले (Rabelais) का गलत अनुवाद करके अंग्रेजी जगत में उसे दर्शन का मज़ाक करने वाला व्यक्ति बना दिया। मैथिलीशरण गुप्त ने माइकेल मधुसूदन दत्त के बांग्ला काव्य ‘मेघनादबध’ का अनुवाद करके हिन्दी जगत् में यह गलत धारणा फैला दी है कि राम और लक्ष्मण की तुलना में माइकेल ने रावण को महान् प्रमाणित किया है।” इसलिए अशुद्ध अनुवाद, साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के महान लक्ष्य को प्राप्त करने में बाधक सिद्ध होता है। इस प्रकार के अशुद्ध एवं असटीक अनुवादों के कारण तुलनात्मक साहित्य के अध्येता भ्रामक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। इसलिए अनुवादक के द्वारा शुद्ध एवं सटीक अनुवाद किया जाना जरूरी होता है। तभी तुलनात्मक की जाने वाली दो अथवा उससे अधिक रचनाओं या रचनाकारों में सही-सही तुलना हो सकती है; तुलनात्मक साहित्य के अध्येता अपने अध्ययन की दिशा में सही कदम बढ़ा सकते हैं।
साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से ही यह संभव हो पाता है कि किसी एक साहित्यिक रचना के भाषा-विशेष में किए गए एक से अधिक अनुवाद कितने अधिक प्रामाणिक हैं। किसी भी साहित्यिक रचना से प्रेरित होकर कई अनुवादक, उसका अनुवाद कर देते हैं। इससे किसी भाषा-विशेष में एक ही रचना के अनेक अनुवाद उपलब्ध हो जाते हैं। उन अनुवादों में परस्पर तुलना करके यह जान पाना सरल हो जाता है कि उनमें से कौन-सा अनुवाद अधिक प्रामाणिक है। इस प्रकार की अनूदित रचनाओं (अर्थात अनुवादों) की तुलना भी तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन का आधार बन सकती है। इसके अंतर्गत एक ही रचना के एक ही या भिन्न कालों तथा देशों में हुए विभिन्न अनुवादों की तुलना की जाती है और प्रत्येक अनुवाद का इस प्रकार का तुलनात्मक मूल्यांकन करते हुए यह देखा जाता है कि कौन-सा अनुवाद मूल रचना के कितना निकट अथवा दूर है। तुलनात्मक मूल्यांकन करते हुए दो अनुवादों के बीच साम्य या विचलन के बिंदुओं तथा उनके कारणों या उद्देश्यों की पड़ताल की जाती है। इसके साथ-साथ उन अनुवादों और उनके अनुवादकों की उपलब्धि की भी तुलना की जाती है। यहाँ, उदाहरण के तौर पर, फारसी में रचित उमर ख़य्याम की रुबाइयों के फ़िट्जे़ेराल्ड द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर कई अनुवादकों ने अनुवाद किए। इस संदर्भ में विशेष तौर पर मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन और सुमित्रानंदन पंत के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार, विभिन्न साहित्यकारों द्वारा हिन्दी में किए गए अनुवादों की तुलना, या शेक्सपीयर के नाटकों के विभिन्न अनुवादों को भी तुलनात्मक अध्ययन का विषय बनाया जा सकता है।
दो रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए अध्येता (और अनुवाद-समीक्षक) के अपने मन में किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए; उसे तटस्थ भाव से तुलना करते हुए अपनी बात रखनी चाहिए। अध्येता का तटस्थ दृष्टिकोण ही तुलनाधीन रचनाओं के साथ न्याय कर पाने योग्य हो पाता है। यदि तुलनात्मक अध्ययन की प्रक्रिया में कहीं खंडन अथवा मंडन की आवश्यकता हो, तब भी बिना किसी पूर्वाग्रह के और निर्भीकता के साथ विवेचन-विश्लेषण करते हुए उसे अपने विचार स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने चाहिए। लेकिन खंडन-मंडन का यह अभिप्राय कतई नहीं है कि अशिष्टता का प्रदर्शन कर दिया जाए। ऐसा अशिष्टता का किंचित स्पर्श भी साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन में नहीं होना चाहिए। वस्तुनिष्ठ-व्यवस्थित तुलनात्मक अध्ययन, अध्येता एवं अनुवादक के लिए उपकारक सिद्ध होगा, उसके अनुवाद अध्ययन कर्म के मार्ग में साधक सिद्ध होगा।
किन्हीं दो या उससे अधिक भाषाओं के साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के दौरान मूल पाठ के उद्धरणों के अनूदित पाठ के आधार पर तुलना अपेक्षित होती है। इसलिए दूसरी भाषा के उद्धरण के अनुवाद के साथ अथवा टिप्पणी में उसके मूल अंश को देना भी उपयुक्त होता है। इससे यह लाभ होता है कि मूल पाठ का जानकार पाठक-आलोचक अपने साहित्यिक और भाषिक ज्ञान के आधार पर, अध्येता-अनुवादक के द्वारा की गई तुलना के स्वरूप एवं गुणवत्ता का, उपयुक्तता के संदर्भ में, निर्णय कर पाने योग्य हो जाता है। वैसे यहाँ प्रश्न, प्रस्तुत मूल अंश की भाषा-लिपि का भी उठ खड़ा होता है। इसके समाधान-उत्तर के लिए उपयुक्त एवं स्वीकार्य कथन तो यही है कि जिस भाषा में अध्ययन-विवेचन किया जा रहा हो, उद्धृत अंशों का लिप्यंतरण भी उसी भाषा की लिपि में किया जाना चाहिए।
तुलनात्मक साहित्य के अध्येता को अनुवाद की समस्याओं के साथ-साथ सीमाओं का बोध होना भी जरूरी है क्योंकि किन्हीं दो भाषाओं - स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा - के भाषिक रूप के पाठगत अभिलक्षणों और अभाषिक तत्वों का एकसमान अर्थ मिलने की स्थिति और संभावना बहुत कम होती है। यह स्थिति विषम भाषा-परिवार और विषम संस्कृति संबंधी भाषाओं के साहित्य पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित की जा सकती है। वास्तविकता यह है कि स्रोत भाषा के इस प्रकार के सभी भाषिक-अभाषिक तत्व तुलनात्मक अध्येता/अनुवादक के समक्ष चुनौती बनकर खड़े हो जाते हैं। अध्येता-अनुवादक को इस प्रकार की सीमाओं-समस्याओं से जूझना पड़ता है और अपनी शक्ति-सामर्थ्य से इनका सार्थक हल खोजने का गंभीर प्रयास भी करना पड़ता है। स्रोत भाषा के भाषिक रूप के अनुवाद की सीमा संबंधी पाठगत अभिलक्षण और अभाषिक तत्व विभिन्न प्रकार के होते हैं। तात्विक आधार पर कहा जा सकता है कि ये अनुवाद की सीमाओं के विभिन्न प्रकार सिद्ध होते हैं। जे.सी. कैटफर्ड ने अपनी पुस्तक “लिंग्विस्टिक थ्योरी ऑफ ट्रांसलेशन” में अननुवाद्यता के संदर्भ में अनुवाद की दो प्रकार की सीमाओं का उल्लेख किया है। ये हैं - भाषापरक सीमाएँ; और सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ। वैसे, यहाँ ‘अनुवाद की सीमा’ का अर्थ यह नहीं है कि अनुवादक समग्र अनूद्य मूल पाठ का अनुवाद ही न करे; इसका संबंध पूरी सामग्री (पाठ) से न होकर उसके भाषिक रूपों के उन पाठगत अभिलक्षणों और अभाषिक तत्वों से होता है जिनका अनुवाद नहीं हो पाता। इस प्रकार, अनुवाद की सीमा का संबंध अनूदित न होने वाले भाषिक रूप के पाठगत अभिलक्षणों और अभाषिक तत्वों से है। अनुवाद संबंधी विभिन्न प्रकार की समस्याओं और सीमाओं से पार पाने के लिए अध्येता-अनुवादक अंगीकरण, अनुकूलन, शब्दानुवाद, भावानुवाद, प्रतिस्थापन, परित्याग और अनुवादकीय टिप्पणी आदि अनुवाद संबंधी विभिन्न प्रकार की युक्तियों (strategies) को अपनाता है। इन विभिन्न युक्तियों के आधार पर वह अनुवाद संबंधी सीमाओं और समस्याओं का परिहार करता है। लेकिन इसके बावजूद, यह स्वीकार्य तथ्य है कि किन्हीं दो भाषाओं में पूरी तरह से अनुरूपता संभव नहीं है, इसलिए अनूदित कृति, मूल की यथातथ्य प्रतिकृति नहीं हो सकती।
तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद के अंतर्संबंध की परिणति के विविध आयाम -
अनुवाद देश-काल की सीमाओं से परे, अपनी आवश्यकता, महत्व और अपरिहार्यता को बनाए हुए है। इसलिए देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में अनुवादकर्म साधना अनवरत चलती रहती है। अनुवाद की अपरिहार्यता की परिणति हमें तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद के परस्पर निकट के अंतर्संबंध में परिलक्षित होती है, जिन्हें निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत विवेचित-विश्लेषित किया जा सकता है:
(1) तुलनात्मक साहित्यिक अध्ययनों के अनुवादों से नवीन आयामों का अनुभव -
तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में अनुवाद की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इस भूमिका ने साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन को विस्तार प्रदान कर उसे नई गति एवं ऊर्जा प्रदान की है। अनुवाद साहित्यिक अध्ययनों को नवीन आयाम प्रदान कर रहा है। देश-विदेश के समकालीन एवं अर्वाचीन लेखकों का साहित्य, अनुवाद के कारण तुलनात्मक अध्ययन का आधार सिद्ध होता है। होमर, दाँते, प्लेटो, अरस्तू, लियो टाॅलस्टाॅय, चेखव, मैक्सिम गोर्की, शेक्सपियर आदि का साहित्य अनुवाद के माध्यम से ही भाषायी सीमाओं से पार पाकर तुलनात्मक अध्ययनों का न केवल आधार बनता रहा है बल्कि नवीन आयामों का उद्घाटन एवं विस्तार भी करता है। वर्तमान में अस्मितामूलक विमर्श, स्त्री विमर्श, जेंडर अध्ययन, दलित विमर्श, रंग अथवा जाति भेद विमर्श जैसे विषमतामूलक अध्ययन चिंतनों का विभिन्न भाषायी संदर्भों में विस्तार इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
आज हिन्दी साहित्य जगत में गंभीरतापूर्वक लेखनरत दलित साहित्य लेखकों का यहाँ उदाहरण के तौर पर उल्लेख किया जा सकता है जो मराठी या दक्षिण भारतीय दलित लेखकों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं और साथ ही वे अफ्रीकी ब्लैक साहित्य से भी प्रभावित होते हैं। इस प्रकार का लेखन और चिंतन-विमर्श, तद्विषयक रचनाओं के अनुवादों की सहज उपलब्धता के कारण भी संभव हो पाता है। इसी प्रकार, स्त्री विमर्श जैसे अस्मितामूलक चिंतन के प्रेरणा-स्रोतों में अफ्रीकी और अमेरिकी स्त्रीवादी लेखिकाओं से गृहीत प्रेरणा की अनुभूति तुलनात्मक साहित्यिक अध्ययनों और उनके अनुवादों से नवीन आयामों का अनुभव उद्घाटित हो रहा है। प्रतिष्ठित चिंतक-आलोचक गायत्री स्पिवाक जैसी विभूतियों ने बांग्ला भाषा की महाश्वेता देवी के उपन्यासों के अनुवाद एवं उनपर अपने अध्ययन करके वैश्विक साहित्य जगत में ’भारतीय साहित्य’ की विशेष पहचान बनाई है।
वस्तुस्थिति यह भी नजर आती है कि साहित्य का अनुवाद, तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के विस्तृत क्षेत्र को गहनता और गंभीरता प्रदान कर रहा है। इसी संदर्भ में वैश्विक पटल पर चल रही भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के कारण बड़े पैमाने पर हो रहे स्थानीय प्रयासों के अध्ययन तथा मानवाधिकार संबंधी अध्ययनों को देखा जा सकता है।
(2) तुलनात्मक साहित्य अध्ययन का लोकतंत्रीकरण और अनुवाद -
अनुवाद से तुलनात्मक साहित्य अध्ययन का लोकतंत्रीकरण संभव हो पाता है। हालाँकि ’जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा’ शासन तंत्र के संदर्भ में ’लोकतंत्र’ शब्द को राजनीति विज्ञान में प्रयुक्त किया जाता है। लेकिन, इस शब्द का मूल भाव, ’साहित्य’ आदि के परिप्रेक्ष्य में भी संगत प्रतीत होता है। इसकी मूलभूत अवधारणा को साहित्य के संदर्भ में देखने पर यह बोध होता है कि ’साहित्य के लोकतंत्रीकरण’ का आशय ’लोगों का साहित्य, लोगों के लिए साहित्य और लोगों के द्वारा निर्मित साहित्य’ से है। इस भावना का सच्चे अर्थों में उद्घाटन साहित्यों के अनुवादों से संभव हो पाता है। अनुवाद के कारण साहित्य, भाषा-विशेष की सीमाओं से ऊपर उठकर अन्य भाषाओं में अपना अस्तित्व बनाता है। वह इस धारणा को स्थापित करने का निमित्त तक बन जाता है कि मूल रचनाकार, अनुवाद के (लक्ष्य) भाषा-समाज का साहित्यकार है। पंजाबी की लेखक अमृता प्रीतम हों या फिर बांग्ला के शरतचंद्र या महाश्वेता देवी जैसे रचनाकार - अपनी रचनाओं के अनुवादों के कारण हिन्दी के लेखक मान लिए जाते हैं। गायत्री स्पीवाक जैसी साहित्यकार ने महाश्वेता देवी के उपन्यासों के अनुवाद एवं उनपर अपने अध्ययन करके वैश्विक साहित्य जगत में भारतीय साहित्य की विशेष पहचान बनाई। अपनी उर्दू रचनाओं के अनुवाद के कारण मीर तथा गालिब जैसे उर्दू शायर, हिन्दी पाठक-वर्ग में लोकप्रिय हैं। इसका श्रेय श्रेष्ठ अनुवादों को जाता है। विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन और उसमें अनुवाद की भूमिका संबंधी अध्ययन हमें यह स्पष्ट बोध कराता है कि उमर खैयाम की रुबाइयों के फिट्ज्जेराल्ड द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर हिन्दी में किए गए अनुवाद के बाद भारतीय साहित्य जगत में ‘रुबाई’ से परिचय बढ़ा। इसी संदर्भ में साहित्य की आधुनिक गद्य विधाओं के विकास को भी देखा जा सकता है। भारत में उपन्यास आदि विभिन्न विधाओं में गद्य साहित्य लेखन के विकास में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
(3) साहित्यिक प्रवृत्तियों-आंदोलनों की खोज और/अथवा आदान-प्रदान में सहायक -
साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन व्यक्ति, समाज, देश की सीमाओं के परे जाकर हमारे परिप्रेक्ष्य का विस्तार करते हुए अनेकता में एकता का संधान करता है। यह भाषा-समाज विशेष में प्रवाहित साहित्यिक प्रवृत्तियों और आंदोलनों की खोज एवं आदान-प्रदान का निमित्त बनता है। भारत की कमोबेश सभी आधुनिक भाषाओं में उपन्यास, कहानी, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, यात्रावृत्तांत आदि गद्य की विभिन्न विधाओं में साहित्य लेखन परंपरा का विकास पाश्चात्य प्रभाव से हुआ। पश्चिम से चलकर आई ये विभिन्न विधाएँ हिन्दी साहित्य लेखन की परंपरा में अत्याधुनिक हैं। साहित्यिक प्रवृत्तियों और आंदोलनों की तुलनात्मक दृष्टि से खोज करने और इस संदर्भ में विभिन्न भाषाओं में हुए आदान-प्रदान में अनुवाद की भूमिका को रेखांकित किया जा सकता है। यहाँ उदाहरण के तौर पर गांधीवादी आदर्शों और दर्शन का संदर्भ ग्रहण करने योग्य है, जिसने देश-विदेश के लेखकों को अनुप्राणित किया। इसके अलावा, यहाँ पश्चिमी संपर्क के परिणामस्वरूप भारतीय साहित्य में स्वच्छंदतावाद के प्रवेश का विशेष तौर पर उल्लेख किया जा सकता है। अंग्रेजी के नाॅर्थ, पोप, एल्फ्रेड, ट्यूडर और आॅगस्टन जैसे अनुवादकों ने, अनुवादों के माध्यम से अंग्रेजी साहित्य जगत में साहित्य-सिद्धांत, साहित्यालोचन एवं साहित्येतिहास को नया रूप प्रदान किया। साहित्यिक प्रवृत्तियों-आंदोलनों की खोज और विभिन्न भाषा-साहित्यों में उनके प्रभाव एवं आदान-प्रदान में सहायक अनुवाद की भूमिका का उल्लेख करते हुए डाॅ. इंद्रनाथ चैधुरी ने लिखा है कि “नौवालिस ने श्लेगल को लिखे एक पत्र में जर्मन रोमांटिक आंदोलन के प्रसार में अनुवाद की भूमिका का विस्तार से विवेचन किया है।”
अगर हम हिन्दी साहित्य के संदर्भ में ही विचार करेंगे तो पता चलता है कि हिन्दी के प्राचीन मध्यकालीन साहित्य से संबंधित प्रारंभिक कार्य करने वाले फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी और जार्ज ग्रियर्सन जैसे विदेशी विद्वानों ने अपने तुलनात्मक अध्ययनों में अनुवाद का भी आधार ग्रहण किया। “गार्सा द तासी एवं जार्ज ग्रियर्सन ने सबसे पहले हिन्दी में साहित्य के इतिहास लेखन का कार्य आरंभ किया था। सूरदास के काव्य पर अपनी आलोचनात्मक दृष्टि डाली और अनुवाद के माध्यम से भक्तिकाल के उद्भव के कारणों, भक्ति आंदोलनों की प्रेरणा-स्रोतों और उसके स्वरूप तथा विकास पर विस्तृत सामग्री प्रस्तुत की। उन्होंने भारत में रहकर फ्रेन्च तथा अंग्रेजी भाषाओं में अपने विचार प्रकाशित किए, वहाँ कुछ भारतीय विद्वानों ने विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत रहकर हिन्दी साहित्य संबंधी शोध ग्रंथ अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत किए।“ गुजराती और हिन्दी का भक्ति आंदोलन हो या फिर हिन्दी एवं कन्नड़ का संत साहित्य जैसे विषय भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन और उनके अनुवाद के परिप्रेक्ष्य का अभिन्न अंग प्रतीत होते हैं। इसके अलावा, अगर उपनिवेशवाद तथा राजनैतिकवाद के प्रति जन-संघर्षों और उनसे जुड़ी नई मानवतावादी दृष्टि तथा उसकी विचार छाया में सृजित साहित्य का अवलोकन किया जाए तो भी हमें यह स्वीकार करना होगा इस प्रकार के साहित्य ने अनुवाद कर्म के लिए एक बड़ी भूमिका अदा की।
विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन और उसमें अनुवाद की भूमिका संबंधी अध्ययन की जापानी कविता ‘हाइकू’ के परिप्रेक्ष्य में भी बात की जा सकती है। यह तुलनात्मक अध्ययन हमें स्पष्ट करता है कि हिन्दी साहित्य जगत में इस विधा-विशेष (हाइकू) की प्राण-प्रतिष्ठा में प्रयोगवादी कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के विशेष प्रयास महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में ‘हाइकू’ के प्रति बढ़ी अभिज्ञा में अनुवाद की अपनी विशिष्ट भूमिका रही है। इसी प्रकार, खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद से भारतीय साहित्य जगत में ’रुबाई’ से परिचय का विस्तार हुआ था।
भारत के संदर्भ में सूफी प्रेमाख्यान काव्य और माक्र्सवादी आलोचना जैसी साहित्यिक प्रवृत्तियों और आंदोलनों के आदान-प्रदान संबंधी तुलनात्मक अध्ययन में सहायक रहे अनुवाद की भूमिका के बारे में यहाँ डाॅ. नगेंद्र का चिंतन विशेष तौर पर उल्लेख का अधिकारी है। उन्होंने लिखा है कि “उर्दू व पंजाबी के सूफी प्रेमाख्यान-काव्य का तुलनात्मक अध्ययन भारत की सीमा के पार ईरान में प्रणीत फारसी प्रेमाख्यानों के संदर्भ में और भी अधिक सार्थक एवं परिपूर्ण हो सकता है, क्योंकि फारसी का सूफी मसनवी काव्य ही मूलतः उर्दू और पंजाबी के कवियों का प्रेरणा-स्रोत रहा है। इसी प्रकार, भारतीय भाषाओं की माक्र्सवादी आलोचना का तुलनात्मक अध्ययन रूस और यूरोप की भाषाओं में उपलब्ध माक्र्सवादी आलोचना के परिप्रेक्ष्य में निश्चय ही अधिक प्रामाणिक बन जाएगा।”
ऐसी ही स्थिति हमें देशों की भौगोलिक सीमाओं से परे, कवियों के स्तर पर भी नजर आती है। यहाँ हम उदाहरण के लिए पश्चिम के प्रतिष्ठित कवि-आलोचक टी.एस. एलियट और हिन्दी साहित्य जगत में छायावादोत्तर काव्य के पुरोधा और ‘नई कविता’ के प्रणेता सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के लेखन-कर्म पर विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों-आंदोलनों के प्रभाव की खोज की तुलनात्मक दृष्टि से चर्चा कर सकते हैं। एलियट का काव्य वर्जिल, शेक्सपीयर, डॅन, मार्वेल इत्यादि कवियों के अलावा, प्रतीकवादी और बिंबवादी आदि काव्य आंदोलनों से प्रेरित है, वेदों-उपनिषदों तथा बौद्ध चिंतन के अंतःसूत्रों से अनुप्राणित नजर आता है, मसीहाई चिंतन एवं अस्तित्ववादी, मानववादी दर्शनों से प्रभावित है। और अगर हम अज्ञेय की कविताओं की बात करें तो यह स्वीकार किया जा सकता है कि उनका काव्य भारतीय साहित्यकार कालिदास, भवभूति, कबीरदास, गोस्वामी तुलसीदास, केशव, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, माइकेल मधुसूदन और पश्चिम के डॅन, टी.एस. एलियट, एज़रा पाउंड एवं लारेंस आदि कवियों के साथ-साथ भारतीय उपनिषद, गीता, बौद्ध-दर्शन की ध्वनियों से अनुगूँजित भी है। वे भी वेदों-उपनिषदों के साथ-साथ प्रतीकवादी और बिंबवादी काव्य आंदोलनों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं; अस्तित्ववादी और मानववादी दर्शनों से अनुप्राणित होते है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद का परस्पर संबंध हमें साहित्यिक प्रवृत्तियों-आंदोलनों के स्तर पर नजर आने वाले आदान-प्रदान की स्थिति और प्रभाव को स्पष्ट करने में सहायक सिद्ध होता है। इसी संदर्भ में यदि हम साहित्यकारों और साहित्यिक रचनाओं के बारे में और अधिक चर्चा करें तो कहा जा सकता है कि माइकेल मधुसूदन दत्त पर होमर या मिल्टन का प्रभाव से संबंधित अध्ययन हो या फिर बंकिमचंद्र पर वाल्टर स्काॅट का; तथा वृंदावनलाल वर्मा पर बंकिमचंद्र और वाल्टर स्काॅट के प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन और अनुवाद जैसे विषय विशेष महत्व रखते हैं। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त फ्रांसीसी लेखक अनातोले फ्रांस के उपन्यास ‘थास’ (मिस्र के सेंट थास के जीवन की घटनाओं पर आधारित उपन्यास) का प्रभाव; ब्रिटिश भारत के कलकत्ता में जन्मे विलियम मेकपीस थैकरे के उपन्यास ‘वैनिटी फेयर’ (ब्रिटिश समाज का मनोरम चित्र प्रस्तुत करता उपन्यास) भी उल्लेखनीय है। इसी तरह, अगर मधुसूदन दत्त के ‘मेघनाद वध’ काव्य का मैथिलीशरण गुप्त के ‘जयद्रथ वध’ अथवा दिनकर की ‘रश्मिरथी’ में कर्ण-वध पर प्रभाव प्रकार भारतीय साहित्य के संदर्भ में अध्ययन तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद की दृष्टि से रोचक भूमिका निभाएगा।
(4) अंतर्साहित्यिक अंतश्चेतना के उद्घाटन में विशिष्ट भूमिका -
अनुवाद के माध्यम से साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से कृति-विशेष की विशेषताओं की पहचान करना और उसके वैशिष्ट्य की स्थापना में मदद मिलती है। यदि वह साहित्य, ज्ञान-विज्ञान से संबंधित हो तो इससे उसकी नई दिशाओं का उद्घाटन संभव हो पाता है। इस तरह अनुवाद को विविध साहित्यों के परस्पर संबंध के अध्ययन का आधार स्वीकार किया जाता है। वास्तविकता यह है कि साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए अनुवाद को माध्यम बनाकर उनके बीच व्याप्त समानताओं अथवा असमानताओं का पता लगाकर सैद्धांतिक प्रस्थापना की जा सकती है। अंतर्साहित्यिक अंतश्चेतना के इस तुलनात्मक अध्ययन से अंतर्साहित्यिक संपर्क स्थापित होता है, उनमें परस्पर आदान-प्रदान संभव होता है। यह आदान-प्रदान, प्रत्यक्ष भी हो सकता है और साहित्यों में व्याप्त समान तत्वों अथवा प्रक्रियाओं की समानताओं के आधार पर भी।
देश-विदेश के विभिन्न साहित्यों, साहित्यिक पक्षों या तत्वों के बीच भौतिक अथवा अन्य तरीकों से होने वाले सीधे संपर्कों के माध्यम से साहित्यिक आदान-प्रदान (जैसे, विलियम शेक्सपियर की कृतियों को हरिवंशराय बच्चन के द्वारा किए गए अनुवादों के माध्यम से पढ़ना) प्रत्यक्ष संपर्क है, जिसे ‘जननिक संपर्क’ कहा जाता है। इसके अलावा, यह आदान-प्रदान देश-विदेश में रचे जा रहे साहित्यों में एकसमान तत्वों, पात्रों अथवा प्रक्रियाओं आदि के कारण साहित्यों में समानताओं के धरातल पर नजर आती है। ये समानताएँ उन्हें जन्म देने वाली समान सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियाँ आदि के कारण होती हैं और इनकी वजह से भिन्न-भिन्न साहित्यों में एक जैसे साहित्यिक तत्व या पक्ष नजर आते हैं, जो समान श्रेणियों-वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए इन्हें ’प्रतिनिधिपरक संपर्क’ कहा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि प्रतिनिधिपरक संपर्क अनुवाद आदि जैसे सीधे संपर्क के जरिए दूसरी भाषा-साहित्य के माध्यम नहीं बनते हैं; वस्तुतः एक-जैसी स्थितियाँ उन्हें समानता के धरातल पर ला खड़ा करती हैं।
स्पष्ट है कि विभिन्न साहित्य, सीधे भौतिक संपर्क अथवा एकसमान तत्वों-पात्रों और प्रक्रियाओं आदि के कारण एक साहित्य के द्वारा दूसरे साहित्य से विभिन्न रूपों में साहित्यिक तत्वों को ग्रहण कर अंतर्साहित्यिक आदान-प्रदान का आधार बनता है। इस प्रकार का अंतर्साहित्यिक आदान-प्रदान वास्तव में ‘अभिग्रहण’ (रिसेप्शन) कहलाता है। अंतर्साहित्यिक अभिग्रहण ‘उधार/ऋण’, ‘प्रभाव’, ‘नकल’, ‘शैलीकरण’, ‘आलंकारिक परिवर्तन’ और ‘अनुवाद’ आदि के माध्यम से संभव हो पाता है। श्री अभय मौर्य का तो यह कहना है कि “तुलनात्मक साहित्य के कई सिद्धांतकार स्मृतियाँ, साहित्यिक प्रेरणाओं, समानताओं, वंशीय विस्तारों, पेरोडी, उपहास, अनुकूलन, साहित्यिक चोरी आदि को भी अंतर्साहित्यिक रूपों का हिस्सा मानते हैं। इन सबमें अनुवाद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक अंतर्साहित्यिक रूप माना जाता है”।
अंतर्साहित्यिक अंतश्चेतना के तुलनात्मक अध्ययन में अनुवाद विशिष्ट भूमिका निभाता है - भले ही यह अंतर्साहित्यिक संपर्क जननिक आधार वाला हो या फिर प्रतिनिधिपरक संपर्क। दूसरी भाषा के साहित्य से जननिक संपर्क, सीधे अनुवाद कर्म के माध्यम से संभव हो पाता है। वहीं, हम यह देखते हैं कि ‘प्रतिनिधिपरक संपर्क’ के संदर्भ में अनुवाद की प्रत्यक्ष भूमिका नजर नहीं आती है क्योंकि विभिन्न भाषाओं में परिव्याप्त एकसमान तत्वों-पात्र और प्रक्रियाएँ आदि स्वजनित होती हैं। किंतु इन एकसमान तत्वों-प्रक्रियाओं आदि का बोध अंतर्साहित्यिक अध्ययन से संभव हो पाता है, जिसमें अनुवाद की अपनी विशिष्ट भूमिका होती है। अनुवादक अक्सर मूल पाठ और लक्षित साहित्य में पाई जाने वाली प्रतिनिधिपरक समानताओं के आधार पर अनुवाद के लिए रचनाओं का चयन करता है। इसके अलावा, वैचारिक पक्षधरता/सहानुभूति अथवा सौंदर्यबोध पर आधारित आकर्षण जैसे अन्यान्य पक्ष भी अनुवादक के द्वारा अनुवाद के लिए पाठ-विशेष का चयन करने में अहम भूमिका निभाते हैं।
इस संदर्भ में सावधानी बरतने वाला पक्ष यह है कि अनूदित कृति के रूप-स्वरूप में अनुवादक के स्तर पर बदलाव न किया गया हो। अनुवादक से यह अपेक्षित होता है कि मूल की भाव-संवेदना और शैली के स्तर पर अवमानना न करे, विचलित न हो। हालाँकि अनुवाद की प्रक्रिया में मूल में कुछ जोड़ना अथवा छोड़ना तथा शैली के स्तर पर समझौता स्वीकार्य होता है, किंतु संप्रेषित अर्थ और महत्व में अंतर नहीं होता। किंतु कभी-कभी अनुवादक, मूल कृति से मतभेद और अंतर्विरोध के कारण या फिर स्वयं की भावनाओं-संवेदनाओं अथवा दुराग्रहों के अनुरूप ढालने के प्रयास में मूल कृति का रूप ही बदल देते हैं। इस प्रकार की अनूदित रचनाएँ अंतर्साहित्यिक संपर्क/आदान-प्रदान में सार्थक भूमिका निभाने में विफल रहती हैं।
मूल रचना की संस्कृति के वैश्वीकृत संदर्भ से परिचित कराने का संकल्प -
भाषा जहाँ भावों-संवेदनाओं को अभिव्यक्ति करने का माध्यम है, वहीं इससे सांस्कृतिक संचरण भी होता है। भिन्न भाषा-भाषियों के बीच संपर्क स्थापित करने का माध्यम अनुवाद, भाषा की इस अभिव्यक्ति और संचरण क्षमता को विस्तार प्रदान करता है। विश्व के विभिन्न राष्ट्रों की अपनी-अपनी विपुल सांस्कृतिक संपदा है, उनकी अपनी सांस्कृतिक पहचान है। अन्य देशों-भाषाओं की सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक धरोहर की गहनता और व्यापकता का परिचय प्राप्त करना और इसका अध्ययन करना, अनुवाद से संभव हो पाता है। विदेशी समाजों और संस्कृतियों के विषय में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए साहित्य के अनुवाद को सेतु बनाना हमारी विवशता है, अन्य कोई सार्थक विकल्प नहीं मिलता है। यहाँ उदाहरण के तौर पर अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और पूर्वी यूरोप महाद्वीपों के विभिन्न देशों आदि का उल्लेख किया जा सकता है जिनकी भिन्न-भिन्न भाषाओं में रचित कृतियों के अनुवाद के मूल में देशों-समाजों की संस्कृति से परिचय प्राप्ति का भाव भी निहित है। चूँकि उन देशों की समस्त भाषाओं को जानने वाले विद्वानों की हमारे देश में कमी है, इसलिए उनकी भाषाओं में रचित साहित्य का प्रायः अनुवाद से पुनःअनुवाद किया जाता है यानी अंग्रेजी अनुवाद से विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जाता है। हालाँकि इस कारण ये अनुवाद मूल से दूर प्रतीत होते हैं। इसलिए, इस प्रकार के अनुवाद की स्थिति में पुनःसर्जन की अपेक्षा मूल कृति की भाँति अनुवाद पर बल दिया जाना अपेक्षित होता है।
अनुवाद विभिन्न भाषा-समाजों के सांस्कृतिक संस्कारों को नवीन परिवेश में पहुँचाकर मूल रचना की संस्कृति के वैश्वीकरण का निमित्त बनता है। यह सांस्कृतिक धरोहरों का आदान-प्रदान भी करता है। श्री अभय मौर्य का कहना है कि “अनुवाद ही ऐसा माध्यम है जो लोगों के सांस्कृतिक संस्कारों को नए-नए वातावरण में पहुँचाता रहता है। ध्यान देने की बात है कि मूल रचना एक बार प्रकाशित होने पर अंतिम रूप ले लेती है; उसमें न तो कोई बदलाव हो सकता है और न ही सुधार। परंतु अनुवाद की बदौलत मूल रचना के अनेक अवतार पैदा हो सकते हैं, जो अनेक कालों और देशों में फैल सकते हैं, बार-बार पनप सकते हैं, फल-फूल सकते हैं। नई साहित्यिक संस्कृति में जाकर अनुवाद नई-नई प्रेरणाएँ, नए-नए कलात्मक विचार, नई-नई शैलियाँ और शिल्पों को जन्म देते हुए मूल रचना की संस्कृति का वैश्वीकरण कर सकते हैं।”
विश्व की सभ्यताओं-संस्कृतियों के विकास और वैश्वीकरण में अनुवाद की विशेष भूमिका रही है। यूनान, मिस्र और चीन आदि की प्राचीन सभ्यताओं से भारत के घनिष्ठ संबंध का बोध कराने में अनुवाद की विशेष महत्ता है। वेदों के अनुवाद ने पश्चिम देशों के दर्शन, संस्कृति और सौंदर्य-बोध में क्रांतिकारी परिवर्तनों की नींव डाली। एशिया में बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रसार में भारतीय ग्रंथों के अनुवाद की विशेष भूमिका रही है। इसके माध्यम से ही सुदूर पूर्व और दक्षिण-पूर्व के देशों में भारतीय धर्म और दर्शन का प्रसार हुआ तथा भारतीय ग्रंथों के अनुवादों ने अरबी संस्कृति को प्रभावित किया। वहीं, दूसरी ओर, अरबी संस्कृति ने भी भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया। गीता, बाइबिल, कुरान तथा उपनिषद आदि के ज्ञान के अनुवाद से विश्व अत्यधिक लाभान्वित हुआ है। वहीं, पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी प्रसार से भारतीय संस्कृति, भाषा और साहित्य भी प्रभावित हुआ।
आज संचार माध्यमों का प्रसार देशों की दूरियाँ दूर कर रहे हैं, विभिन्न देश अपने ज्ञान-विज्ञान से एक-दूसरे को प्रभावित कर रहे हैं, आदान-प्रदान में बढ़ोतरी हो रही है। ऐसे में यह कहना अनुचित न होगा कि अनुवाद, वैश्विक समाज-संस्कृति से परिचित कराने का संकल्प है। मूल रचनाओं के माध्यम से संस्कृति के वैश्वीकरण का निमित्त बनने वाले अनुवाद की भूमिका और योगदान का मूल रचना की संस्कृति के वैश्वीकृत संदर्भ का मूल्यांकन, साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से संभव हो पाता है।
निष्कर्ष : विभिन्नता में एकता स्थापित करने में सहायक तुलनात्मक साहित्य, सारगर्भित व्यापक ज्ञान भंडार का प्रवेश द्वार है। इसके माध्यम से भाषा, ज्ञान और साहित्य भंडार के तुलनीय क्षेत्रों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान व्यापक होता है, उनके बीच रागात्मक संबंध स्थापित होते हैं और ज्ञान-विज्ञान की नई दिशाएँ उद्घाटित होती हैं और उनका क्षेत्र-विस्तार होते हैं। इसके माध्यम से साहित्य की भाषा की शैली एवं अभिव्यंजना की मनोहारी अभिनव छटाओं का दिग्दर्शन संभव हो पाता है, किसी विषय अथवा क्षेत्र विशेष से संबंधित पूर्वाग्रहों से छुटकारा मिलता है तथा एकता का संधान होता है। यह स्पष्ट एवं नवनीत निष्कर्षों की स्थापना करने में सहायक सिद्ध होता है। तुलनात्मक साहित्य, अध्ययन की वह पद्धति है जिसका केंद्र अनुवाद है। अनुवाद के माध्यम से एक भाषा को जानने वाले अन्य भाषा-भाषियों की साहित्यिक उपलब्धियों से परिचित होते है; इसी कर्म से भाषाएँ समृद्धि की ओर अग्रसर होती हैं। इसके द्वारा एक भाषा में रचित भिन्न-भिन्न साहित्यिक रचनाओं आदि की अन्य भाषा की रचनाओं के साथ तुलना करना, दो भाषाओं के साहित्य के अंतर्संबंधों को व्यक्त करने वाली ऐसी विशेषताओं को उद्घाटित कर पाना संभव हो जाता है जो साहित्य के सामान्य अध्ययन से प्रकाश में आ नहीं पातीं। इस प्रकार के अध्ययन से साहित्य की एकात्मकता को पहचान पाना और उसे व्यक्त कर पाना संभव होता है। अनुवाद के माध्यम से साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन और अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त होता है, नवीन आयाम-संदर्भ और नई दिशाएँ नियंत्रित होती हैं। अनुवाद के अभाव में न तो साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए आधार (सामग्री) मिल पाना संभव होता है और न ही तुलनात्मक साहित्य का अस्तित्व संभव हो पाता है। वस्तुतः तुलनात्मक अध्ययन की आधारभूत धुरी है - अनुवाद। अनुवाद की सहायता से तुलनात्मक अध्ययन करके वास्तव में मनुष्य के सीमित ज्ञान का विस्तार ही होता है। अनुवाद के कारण एक भाषा के साहित्य और साहित्यकार की दूसरी भाषा के साहित्य-साहित्यकार से, एक राष्ट्र के साहित्य की अन्य राष्ट्रों के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन की परिकल्पना मूर्त रूप ग्रहण कर पाती है। इस संदर्भ में यही कहना उपयुक्त होगा कि तुलनात्मक साहित्य अध्ययन को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करके सवंर्धित करने की दृष्टि से अनुवाद का उल्लेखनीय योगदान है। वस्तुतः तुलनात्मक साहित्य एवं अनुवाद, एक-दूसरे के पूरक बनकर विश्व-समाज के साहित्य की मूलभूत एकता तथा एक विश्व-मानवता को पहचानने के निमित्त सिद्ध होते हैं।
निदेशक, अनुवाद अध्ययन और प्रशिक्षण संस्थान, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
hksethi@ignou.ac.in
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