- कुसुम कुंज मालाकार
शोध सार : आधुनिक शिक्षा व मनोरंजन का एक उत्तम व सरल माध्यम है 'सिनेमा'। एक श्रव्य-दृश्य माध्यम केतौर पर इसकी भूमिका पाठ्य सामग्रियों से भी अधिक है। हमारी स्मृति शक्ति भी उन चीजों को सहज ही ग्रहण कर लंबे समय तक याद रख लेती है जो हमारे सामने घटित हुई हों। सिनेमा भी इसी श्रेणी में आता है। इसके अपने मौलिक संगीत, संवाद एवं कथा वस्तु के कारण यह दर्शकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है। अतः कहा जा सकता है कि सिनेमा की कामयाबी इन्हीं तीन चीजों पर मूलतः निर्भर करती है। जिस तरह सिनेमा के लिए ये चीजें जरूरी होती हैं ठीक उसी तरह उस सिनेमा के विस्तार के लिए अनुवाद की आवश्यकता होती है। इससे सिनेमा के विस्तार के साथ-साथ आमदनी के अवसर भी बढ़ जाते हैं। इस संदर्भ में अनुवाद एक आत्मीय व अभिभावक की तरह सिनेमा के हाथ पकड़े उसे आगे ले जाने का काम करता हैजिससे वह अनेक दर्शकों के समीप पहुँच सके। एक फिल्म को क्षेत्रीय से प्रांतीय, राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने में अनुवाद सबसे अहम भूमिका निभाता है। साहित्य, कला, विज्ञान व संस्कृति के साथ-साथ आज फिल्मों के विस्तार में भी अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अनुवाद का अपना कोई तत्व न होने पर भी यह सिनेमा की कामयाबी के लिए एक विशेष तत्व की तरह काम करता आया है और आगे भी करता रहेगा।
बीज शब्द : सिनेमा, अनुवाद, सामाजिक, कला-संस्कृति, व्यवसाय, भाषा, वैश्वीकरण।
मूल आलेख : हालांकि विश्व में आज सर्वाधिक फिल्में हमारे देश में बनती हैं, किंतु इसकी खोज का श्रेय अमरीकी वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन को जाता है, जिन्होंने सन् 1883 में किनेटोस्कोप की खोज की। इसी के जरिए सन् 1894 में फ्रांस में विश्व की सबसे पहली फिल्म ‘द अराइवल ऑफ़ ट्रेन’ बनी। इसके बाद से यह सिलसिला तेजी से आगे बढ़ने लगा और उसके बाद यूरोप व अमेरिका में भी फिल्में बनने लगीं। ''भारत में 7 जुलाई 1896 के दिन को भारतीय सिनेमा के इतिहास का एक अमर दिन माना जाता रहा है। क्योंकि इसी दिन फ्रांस के दो निवासी ल्युमीयर ब्रदर्स अपनी 6 लघु फिल्म को लेकर भारत आये थे, जिसका प्रीमियर बंबई के वाटकिंस थिएटर में रखा गया था।''1
इस तरह भारत में फिल्मों का यह सफर धीरे-धीरे शुरू हो गया। अब ऐसी ही छोटी-छोटी फिल्मों का निर्माण होने लगा जो ध्वनि रहित होने के बावजूद दर्शकों का मनोरंजन करने में समर्थ रहीं।
अब भारत का मुंबई शहर फिल्मों के लिए प्रसिद्ध होने लगा। ''भारत में पहली बार सन् 1899 में, श्री भटवेडकर ने प्रथम लघु चलचित्र निर्माण करने में सफलता हासिल की। इन्होंने जो चलचित्र फिल्मायी थी वह एक कुश्ती की खेल आधारित थी जिसे 1904 में देश की पहली सिनेमाघर जिसे बंबई की मणि सेठना ने बनाया था वहाँ प्रदर्शित की गयी।''2
इसी सिनेमाघर में ‘द लाइफ क्राइस्ट’ नामक एक ऐतिहासिक फिल्म चलाई गई, जिससे हमारे भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के बेहद प्रभावित हुए और यहीं से उनमें फिल्म बनाने का जुनून पैदा होता है। जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने सन् 1913 में पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनायी। यह भारत की पहली लंबी मूक फिल्म थी जिसने ध्वनि रहित होने पर भी लोगों का भरपूर मनोरंजन किया और दर्शकों ने इसे खूब सराहा।
मूक फिल्मों के बाद बोलती फिल्मों का दौर आया। ''सर्वप्रथम 1929 में अमेरिकी फिल्म द जॉज सिंगर में आवाज देकर परीक्षण किया गया जिसकी सफलता के बाद उससे प्रभावित होकर 1931 में आंर्देशिर माखान ईरानी ने भारत में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनायी। उसके बाद से यह क्रम निरंतर आज तक चल रहा है।''3 बॉलीवुड में केवल बंबई में घटने वाली घटनाएँ ही नहीं अपितु अन्य प्रांतों की दूसरी भाषाओं में रचित अच्छी कहानियों, घटनाओं को लेकर भी यहाँ फिल्मों का निर्माण कार्य होता रहा है। इस कार्य में अनुवाद की विशेष भूमिका रही है। यही कारण है कि हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास को अगर ध्यान से देखा जाय तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि जितनी भी फिल्में आज तक बनी हैं उनमें अनूदित कहानियाँ ही अधिकतर फिल्मों का आधार रही हैं। सिनेमा को अनूदित करने की मुख्य प्रक्रिया में डबिंग और सबटाइटलिंग प्रमुख हैं।
- ''डबिंग में फिल्म की मूल भाषा को हटाकर उसकी जगह नई भाषा में संवाद रिकॉर्ड किया जाता है। यह प्रक्रिया दर्शकों को एक सहज और प्राकृतिक अनुभव प्रदान करती है क्योंकि वे अपनी मातृभाषा में उस फिल्म के संवाद तथा गीत आदि सुन सकते हैं। इस काम को करने वालों को डबिंग कलाकार कहा जाता है। डबिंग करते समय लिप-सिंक का ध्यान रखना आवश्यक होता है ताकि संवाद और अभिनेता के होंठों की हरकतें एक साथ मेल खाएँ। आज वैश्वीकरण के दौर में अन्य क्षेत्रों की भाँति इस क्षेत्र में भी लोगों की मांग दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है।
- सबटाइटलिंग में संवाद तथा गीत आदि अनुवादित रूप में पर्दे के नीचे लिखे आते हैं। इस प्रक्रिया में मूल ऑडियो वैसे ही रहता है, केवल उसकी बातों को अनुवाद के जरिए नीचे प्रस्तुत किया जाता है, जिससे दर्शक मूल आवाज का भी आनंद ले सकें। इसमें समयबद्धता के अनुसार संवाद को एक निश्चित गति से प्रस्तुत कर पाना भी एक चुनौतीपूर्ण काम रहता है, ताकि दर्शक समझ सकें कि किस समय कौन-सा संवाद बोला जा रहा है।''4
अनुवाद ने वैश्वीकरण के दौर में विशेषकर सिनेमा को एक नवीन दिशा प्रदान की है। एक ओर जहाँ भारतीय भाषाओं में बनी अनुवादित फिल्मों ने भारतीय फिल्म निर्माता-निर्देशकों को बड़े मंच प्रदान किए हैं वहीं दूसरी ओर अन्य भाषाओं में बनी फिल्मों ने अनुवाद के जरिए भारतीय दर्शकों को भी वैश्विक सिनेमा से परिचित कराते हुए आपस में सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए प्रोत्साहित भी किया है। इससे न केवल हमारे मनोरंजन के क्षेत्र में बल्कि सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव आए हैं। ध्यान से देखने पर सिनेमा और अनुवाद दोनों का कार्य लगभग एक जैसा ही लगता है। दोनों दो भाषाओं, संस्कृतियों व परंपराओं को जोड़ने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार देश की छवि बनाने या सुधारने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।
अनुवाद के कारण ही आज हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। आज भूमंडलीकरण के दौर में सिनेमा की भी एक विशेष भूमिका रही है। यहीं कारण है कि आज कुछ बड़े राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय निगम भी फिल्मों के निर्माण, विस्तार तथा वितरण में रुचि लेने लगे हैं। इस तरह वे अनुवाद के जरिए फिल्मों में नवीन विषय-वस्तुओं व तकनीकों का निर्माण करते हुए अपने लिए आमदनी के लिए नये-नये मार्ग खोल रहे हैं। अनुवाद के जरिए ही हम न केवल दूसरे देशों की फिल्मों से अपितु दूसरे देश भी हमारे देश की फिल्मों से प्रभावित होते रहे हैं। जैसे एक दौर में रूस में हमारे सुपरस्टार राज कपूर की फिल्मों का बड़ा क्रेज रहा। ठीक इसी तरह अफ्रीका के देशों, अमरीका, दुबई आदि में आज भी अमिताभ बच्चन, आमिर, शाहरुख, सलमान तथा संजय दत्त की फिल्में खूब देखी जाती हैं। फिल्म और अनुवाद दो देशों के बीच की कटुता को हल्का करने में भी अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। चीन देश की बात करें तो यहाँ भी भारतीय फिल्मों की मांग और खासकर आमिर खान की फिल्मों की मांग दिन-ब दिन बढ़ती ही जा रही है। इनका क्रेज इसी बात से समझा जा सकता है कि आमिर खान की ‘थ्री इडियट्स’ और ‘दंगल’ की पायरेटेड कॉपी भी चीन में खूब बिकी।
हॉलीवुड में फिल्मों का अनुवाद करने की प्रक्रिया की शुरुआत सन् 1990 से देखी जा सकती है। यही वह दौर था जब भारत में सैटेलाइट टीवी और केबल नेटवर्क अपने पांव पसार रहे थे। ''हॉलीवुड की फिल्में जैसे जुरासिक पार्क, टाइटैनिक व अवतार आदि जैसे फिल्मों ने हिंदी में डबिंग के माध्यम से भारतीय दर्शकों के बीच अपार लोकप्रियता हासिल की। इनके अतिरिक्त एवेंजर्स, फ्रोजन और जुरासिक वर्ल्ड आदि को भी जब हिंदी में डब किया गया तब भारतीय दर्शकों को अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा का आनंद लेने का सुनहरा अवसर मिला।''5 इन फिल्मों के अनुवाद ने भारतीय दर्शकों के लिए सांस्कृतिक अनुकूलन का काम किया है। आज इंटरनेट की दुनिया ने वीडियो एडिटिंग के साथ-साथ अनुवाद के जरिए विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटनाओं को हमारे समीप लाकर खड़ा कर दिया है।
आज के सर्वाधिक व्यापक और दिलचस्प कला माध्यम के रूप में सिनेमा का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है, क्योंकि अभिव्यक्ति के साथ-साथ मनोरंजन के माध्यम के रूप में सिनेमा किसी भी समाज की पूरी संस्कृति से नियमित होता है और साथ ही वह समाज विशेष की पूरी संस्कृति का नियमन भी करता है। अनुवादित फिल्मों के माध्यम से फिल्मों के बाजार का विस्तार होता है। यह न केवल भारतीय बाजार में बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी फिल्मों की पहुँच को बढ़ाता है। अनुवादित फिल्मों से बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में वृद्धि होती है, क्योंकि वे व्यापक दर्शकों तक पहुँचती हैं। अनुवादित फिल्मों के माध्यम से फिल्मों का राजस्व भी बढ़ता है। यह विभिन्न भाषाई दर्शकों तक पहुँचने के कारण होता है, जिससे बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में वृद्धि होती है। अनुवादित फिल्मों को विभिन्न बाजारों में रिलीज़ किया जा सकता है, जिससे राजस्व बढ़ता है। ओटीटी प्लेटफार्म पर अनुवादित फिल्मों की उपलब्धता से भी राजस्व में वृद्धि होती है।
अनुवादित फिल्में दर्शकों को गहराई से जुड़ने और फिल्म की कहानी को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती हैं। अनुवाद की गुणवत्ता फिल्म के अनुभव को काफी हद तक प्रभावित कर सकती है। जहाँ खराब अनुवाद दर्शकों को असंतुष्ट कर सकता है, वहीं अच्छा अनुवाद फिल्म के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया को बढ़ावा दे सकता है। फिल्मों के अनुवाद का उपयोग भाषा सीखने के साधन के रूप में भी किया जा सकता है। भाषा के छात्र अनुवादित फिल्मों के माध्यम से नयी भाषाओं और उनके उच्चारण सीख सकते हैं। फिल्मों के माध्यम से इतिहास, समाजशास्त्र और अन्य शैक्षिक विषयों को समझने में मदद मिलती है।
सिनेमा किसी क्षेत्र विशेष की वेशभूषा, खान-पान से दर्शक को परिचित कराके उसके प्रति जिज्ञासा को बढ़ाता है। इस रूप में वह संस्कृति का विस्तार भी सुगम बनाता है। नब्बे के दशक में भारतीय सिनेमा पंजाबी और गुजराती समुदाय से प्रभावित रहा। जैसे ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’ और ‘कल हो न हो’ आदि फिल्मों ने पंजाबी लोक संस्कृति को लोकप्रिय बना दिया। फलस्वरूप पंजाबी संस्कृति के अनेक रस्मोरिवाज दूसरी संस्कृतियों ने भी अपनाए। इस प्रकार, अनुवाद ने सिनेमा को न केवल एक वैश्विक मंच प्रदान किया है बल्कि इसे विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं के दर्शकों के लिए अधिक सुलभ और प्रभावी भी बनाया है। हॉलीवुड की फिल्में दुनिया भर में लोकप्रिय हैं। ये फिल्में विभिन्न संस्कृतियों और समाजों के लोगों के बीच सामान्य सांस्कृतिक संदर्भ और मूल्य प्रदान करती हैं। उन्होंने वैश्विक बॉक्स ऑफिस पर बड़ी सफलता हासिल की है, जिससे वे सार्वभौमिक मनोरंजन का हिस्सा बन गई हैं। भारतीय फिल्म उद्योग विशेषकर बॉलीवुड ने वैश्विक मंच पर अपनी पहचान बनाई है। फिल्में विभिन्न संस्कृतियों को मिश्रित करती हैं और दर्शकों को दूसरी संस्कृतियों के बारे में जानने का मौका देती हैं। उदाहरण के लिए, ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ (2008) एक ब्रिटिश फिल्म है जो भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित है और इसने वैश्विक स्तर पर बहुत सफलता हासिल की। कान्ट, टोरंटो और बर्लिन जैसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव विभिन्न देशों की फिल्मों को एक मंच प्रदान करते हैं। इससे न केवल फिल्मकारों को बल्कि दर्शकों को भी विभिन्न संस्कृतियों और दृष्टिकोणों से रूबरू होने का अवसर मिलता है।
नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम और डिज्नी+ जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म वैश्वीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये प्लेटफॉर्म विभिन्न देशों की फिल्में और सीरीज विश्व भर में उपलब्ध कराते हैं, जिससे वैश्विक दर्शकों के लिए सामग्री तक पहुँच आसान हो जाती है। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि फिल्में वैश्वीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जिससे न केवल सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ता है बल्कि वैश्विक एकीकरण को भी बढ़ावा मिलता है। वैश्वीकरण के प्रभाव से विभिन्न संस्कृतियों के बीच बातचीत बढ़ी है और अनुवाद ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सन् 1952 में भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की शुरुआत हुई जहाँ हर वर्ष एशिया की सबसे पुरानी व महत्त्वपूर्ण फिल्मों का समारोह होता रहा है। इसका संचालन सूचना और प्रसारण मंत्रालय, फिल्म समारोह निदेशालय तथा गोवा सरकार द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। इसका मूल उद्देश्य दुनिया की फिल्म कला की उत्कृष्टता को प्रस्तुत करने के लिए एक साझा मंच प्रदान करना, अपने सामाजिक और सांस्कृतिक लोकाचार के संदर्भ में विभिन्न देशों की फिल्म संस्कृतियों की समझ और सराहना में योगदान करना और दुनिया के लोगों के बीच दोस्ती और सहयोग को बढ़ावा देना है।
हिंदी भाषा की कई श्रेष्ठ फिल्में तमिल भाषा में अनूदित हुई हैं, जो अपनी प्रासंगिकता को सिनेमाई पर्दे से लेकर अंतरराष्ट्रीय जगत तक स्थापित करती हैं। तमिल में मणिरत्नम जैसे प्रतिभावान दिग्दर्शकों ने इस संदर्भ में विशेष भूमिका निभाई। ठीक उसी तरह असमिया में जाहनु बरुआ, गुजराती में केतन मेहता आदि ने अपनी फिल्मों को समाज और संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित किया। ''अनुवाद के जरिए सामाजिक यथार्थ को विश्व सिनेमा जगत के जिन दिग्गजों ने किया उनमें ग्रिफिय आइजेस्टाइन, चेप्लिन, आर्सन वेल्स, फेलीनो, वर्गमैन, कुरोसावा, तारकीपास्की, गोदार, सत्यजित राय आदि प्रमुख रहे हैं। सत्यजित राय की ‘पाथेर पांचाली’ का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त है।''6
एक अन्य फिल्म जिसका अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया है, वह थी फ्रांस भाषा की फिल्म ‘श्वास रहित’ (अंग्रेजी में ‘ब्रेथलेस’) जो 1956 में बनी और उसने पूरी दुनिया के फिल्मकारों में सनसनी पैदा कर दी। इस प्रकार की फिल्में जीवन और साहित्य के कभी न समाप्त होने वाले संबंध को उजागर करती हैं और अनुवाद आदि के द्वारा अपने संदेश को अनेक दर्शकों तक पहुँचाने में सफल भी रही हैं।
आज हमारे सिनेमा का स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। इसी क्रम में अब फिल्म निर्माता अन्य भाषाओं की श्रेष्ठ फिल्मों का हिंदी में अनुवाद करते हुए उसका पुनः निर्माण कर रहे हैं, जिससे उन्हें काफी लाभ हुए हैं। आज हॉलीवुड की अपेक्षा साउथ की फिल्मों को हमारे देश के दर्शक अधिक पसंद करने लगे हैं, जिससे दोनों फ़िल्म उद्योगों को लाभ हुआ है। एक ओर जहाँ हमारे बॉलीवुड को बना-बनाया कंटेंट मिल जाता है, जिससे वे फिल्म बना सकें तो दूसरी ओर साउथ के कलाकारों को भी अपनी पहचान बनाने का एक सुनहरा मौका मिलने के साथ-साथ अच्छी आमदनी का जरिया मिल गया है। ऐसी कुछ विशेष फिल्में निम्नलिखित हैं-
- बाहुबली 2: द कन्क्लूज़न (2017) - एस.एस. राजामौली द्वारा निर्देशित इस तेलुगु फिल्म को ₹250 करोड़ में बनाया गया था और जिसने वैश्विक स्तर पर ₹1,810 करोड़ से अधिक की कमाई करते हुए कई बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड बनाए।
- के.जी.एफ : चैप्टर 2 (2022)
- प्रशांत नील द्वारा निर्देशित इस कन्नड़ फिल्म का बजट लगभग ₹100 करोड़ था जिसने वैश्विक स्तर पर ₹1,200 करोड़ से अधिक की कमाई की।
- दंगल (2016) - नितेश तिवारी द्वारा निर्देशित इस हिंदी फिल्म की लागत लगभग ₹70 करोड़ थी जिसने वैश्विक स्तर पर ₹2,024 करोड़ से अधिक की कमाई की, जो उस समय की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म बन गई।
- 2.0 (2018) - एस. शंकर द्वारा निर्देशित इस तमिल फिल्म का बजट लगभग ₹500 करोड़ था जिसने वैश्विक स्तर पर ₹800 करोड़ से अधिक की कमाई की।
- बजरंगी भाईजान (2015) - कबीर खान द्वारा निर्देशित इस हिंदी फिल्म की लागत ₹93 करोड़ थी जिसने वैश्विक स्तर पर ₹969 करोड़ से अधिक की कमाई की।
- सीक्रेट सुपरस्टार (2017) - अद्वैत चंदन द्वारा निर्देशित इस फिल्म की लागत ₹23 करोड़ थी, जिसने वैश्विक स्तर पर ₹977 करोड़ से अधिक की कमाई की।
- पीके (2014) - राजकुमार हिरानी द्वारा निर्देशित इस फिल्म की लागत ₹122 करोड़ थी जिसने वैश्विक स्तर पर ₹854 करोड़ से अधिक की कमाई की।
- पठान (2023) - सिद्धार्थ आनंद की एक हिंदी एक्शन फिल्म। इसने वैश्विक स्तर पर ₹1,050 करोड़ से अधिक की कमाई की। पठान को दुनिया भर में 9000 स्क्रीनों पर रिलीज़ किया गया, जिसमें भारत में हिंदी के 5000 स्क्रीन और तमिल और तेलुगु में डब संस्करणों के
450 स्क्रीन शामिल हैं।
- आर.आर.आर (2022 ) -एस.एस. राजामौली द्वारा निर्देशित तथा लगभग ₹500 करोड़ में बनी इस तेलुगु फिल्म ने वैश्विक स्तर पर ₹1,200 करोड़ से अधिक की कमाई की। इस प्रकार ये फिल्में अपनी उच्च प्रोडक्शन वैल्यू, रोचक कहानियों के साथ-साथ अन्य भाषाओं में अनुवाद (डबिंग) के कारण बेहद सफल रहीं। इन फिल्मों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बॉक्स ऑफिस को बड़ी सफलता दिलाने में मदद की है।
वैश्वीकरण का मतलब है विभिन्न देशों के बीच आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं का एकीकरण। अनुवादित फिल्में इस प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ''बेंजामिन ली वार्फ कहते हैं कि जैसे एक शल्य चिकित्सक, बायपास सर्जरी करते हुए शरीर के अन्य भागों को नजर अंदाज नहीं कर पाता उसी तरह एक अनुवादक में यह अपेक्षा की जाती है कि वह अनुवाद की प्रक्रिया से गुजरते हुए पाठ संबद्ध समाज और संस्कृति की नजर अंदाज ना करें। अनुवाद के जरिए फिल्में एक विशेष भाषा के दर्शकों तक सीमित नहीं रहतीं। ये अधिक लोगों तक पहुँच सकती हैं, जिससे फिल्म की कमाई और लोकप्रियता दोनों बढ़ती हैं। अनुवाद से विभिन्न संस्कृतियों की कहानियाँ और परंपराएँ अन्य संस्कृतियों में पहुँचती हैं, जिससे सांस्कृतिक समझ और आदान-प्रदान को बढ़ावा मिलता है।''7 अनुवाद का कार्य कई पेशेवरों को रोजगार प्रदान करता है, जैसे डबिंग आर्टिस्ट्स, सबटाइटल राइटर्स तथा अनुवादक।
आज के वैश्वीकृत विश्व में सिनेमा सांस्कृतिक आदान-प्रदान और संचार के लिए एक शक्तिशाली माध्यम बन गया है। अनुवादित सिनेमा, जिसमें डबिंग, सबटाइटलिंग और रीमेक शामिल हैं, विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के दर्शकों के लिए फिल्मों को सुलभ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समाज और भाषा को अनूदित करने वाला सिनेमा संस्कृति के स्थायित्व तथा कभी आवश्यकता पड़ने पर उसके परिष्कार और सभ्यता को संवर्द्धित तथा अनुशासित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अनुवाद के माध्यम से फिल्मों की व्यावसायिक सफलता में वृद्धि होती है और उनका वैश्विक विस्तार होता है। सांस्कृतिक संदर्भों और भाषाई संरचनाओं की चुनौतियों के बावजूद, अनुवाद ने सिनेमा के विकास और प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
कहानी, नाटक, मानवीय भाव, संवाद, संवाद-कला और दृश्य-बिम्वों के संगम के साथ प्रस्तुत होकर सिनेमा ने मनोरंजन के वैश्विक परिदृश्य पर एक क्रांति ला दी। अनुवाद में शामिल चुनौतियों के बावजूद, व्यापक दर्शकों तक पहुँचने और पार-सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देने के लाभ महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे-जैसे अंतरराष्ट्रीय सामग्री की मांग बढ़ती जा रही है, अनुवादित सिनेमा की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है, जिससे अधिक नवाचारी और समावेशी कहानी कहने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। फिल्मों के अनुवाद के क्रम में यह ध्यान देना जरूरी है कि फिल्म का कथ्य सही तरीके से अनूदित हुआ या नहीं क्योंकि फिल्मों में संवाद भिन्न होते हैं और ऐसी स्थिति में अनुवादक के ऊपर भाषिक परिष्कार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। अनुवाद के जरिए फिल्मों से केवल धन की आमदनी नहीं होती अपितु इससे एक प्रांत की कला-संस्कृति, भाषा, आहार व पहनावे से भी परिचित हुआ जा सकता है। साथ ही प्रत्येक संस्कृति की अपनी विशिष्टता होती है जिसे अनुवादित संवादों में बनाए रखना आवश्यक है। इससे दर्शकों को फिल्म के भावनात्मक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ने में मदद मिलती है। प्रत्येक भाषा में विशिष्ट मुहावरे और कहावतें होती हैं जिनका सही अनुवाद करना आवश्यक होता है। धार्मिक और सामाजिक परंपराओं का अनुवाद करते समय उनकी विशिष्टता बनाए रखना महत्त्वपूर्ण होता है। यह दर्शकों को विभिन्न सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यों से परिचित कराता है और सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देता है। साथ-साथ दर्शकों को विदेशी संस्कृतियों, परंपराओं और जीवन शैलियों से परिचित कराता है जिससे सांस्कृतिक समझ और सहिष्णुता बढ़ती है।
संदर्भ :
- जवरीमल्ल पारख, भूमंडलीकरण और हिंदी सिनेमा, पृ. 56
- हिंदी सिनेमा की यात्रा, सम्पादकः पंकज शर्मा, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 108
- पश्चिम और सिनेमा, दिनेश श्रीनेत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ. 119
- स्ज़ारकोव्स्का, ए. (2005). फिल्म अनुवाद की शक्ति, ट्रांसलेशन जर्नल, 9(2)
- रज़ा, राही मासूम, सिनेमा और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 20
- हिंदी सिनेमा की यात्रा, सम्पादकः पंकज शर्मा, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 120
- ड्वायर, टी. (2017). स्पीकिंग इन सबटाइटल्स: रिवैल्यूइंग स्क्रीन ट्रांसलेशन, एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी प्रेस, पृ. 59
कुसुम कुंज मालाकार
विभागाध्यक्ष एवं सहयोगी प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, कॉटन विश्वविद्यालय, गुवाहाटी, असम
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