शोध आलेख : रामायण के आत्मसातीकरण के रूप में रामकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन (अनुवाद की राजनीति के सन्दर्भ में) / आशीष कुमार शाह

रामायण के आत्मसातीकरण के रूप में रामकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन 
(अनुवाद की राजनीति के सन्दर्भ में)
- आशीष कुमार शाह
 

आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदीहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।।
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्।
पश्चाद् रावण कुम्भकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।। 

       इस एक श्लोक में संपूर्ण रामायण का वर्णन संक्षिप्त रूप में मिलता है। इस श्लोक का अर्थ है कि- जब भगवान राम वन को चले गए, तब उन्हें वहां एक सोने का हिरण दिखा, जिसका उन्होंने पीछा किया और उसे मार डाला। तभी वैदेही अर्थात माता सीता का रावण द्वारा हरण कर लिया गया। माता सीता को बचाने के लिए पक्षीराज जटायु ने रावण से युद्ध करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। इसके बाद माता सीता को ढूंढते हुए भगवान राम की भेंट सुग्रीव से हुई और उनकी मित्रता हो गई। मित्रता निभाने के लिए उन्होंने सुग्रीव के दुष्ट भाई बाली को मार डाला। सुग्रीव ने भी माता सीता की खोज करने में राम जी की सहायता की। इसके बाद हनुमान जी ने लंका पहुंचकर रावण की सोने की लंका में आग लगा दी। युद्ध में रावण और उसके भाई कुंभकरण का वध हुआ। इस प्रकार इस एक श्लोक में संपूर्ण रामायण का सारांश मिलता है। रामायण की यह एकश्लोकीय कथा वाल्मीकि रामायण की है। वाल्मीकि रामायण की इस कथा को आत्मसात करके दुनिया भर की अनेक भाषाओं में रामायण की कथाएं लिखी गयीं। विभिन्न रामायणों में राम के चरित्र को अपने समाज और समय के अनुरूप आत्मसात किया गया। आत्मसातीकरण की यह प्रक्रिया अनुवाद का महत्त्वपूर्ण अंग है। इस पेपर के माध्यम से रामायण के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया में रामकाव्य का आलोचानात्मतक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा और साथ ही आत्मसातीकरण की इस प्रक्रिया मेंअनुवाद की राजनीतिकिस तरह से अपनी भूमिका निभाती है? इसका भी विश्लेषण प्रस्तुत किया जायेगा। 

    अनुवाद कई रूपों में हमारे समक्ष उपस्थित होता है। कभी वह रूपांतरण के रूप में तो कभी एक भाषा से दूसरी भाषा में लिप्यन्तरण के रूप में उपस्थित होता है। शब्दानुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद और सारानुवाद अनुवाद के विभिन्न प्रकार हैं। इन सबके अतिरिक्त अनुवाद एक और महत्त्वपूर्ण रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होता है, जिसे आत्मसातीकरण कहते हैं। आत्मसातीकरण की प्रक्रिया में किसी प्राचीन साहित्य के पाठ को आत्मसात करके सकारात्मक रूप में वर्तमान समय, समाज और संस्कृति को ध्यान में रखते हुए, उस पाठ का अनुवाद किया जाता है। इस प्रकार का अनुवाद आत्मासतीकरण कहलाता है।

    आत्मसातीकरण के सम्बन्ध में प्रो. देवशंकर नवीन लिखते हैं किआत्मसातीकरण (एप्रोप्रिएशन) अनुवाद की एक बुलंद धारणा है, जो भारत में सदा से उपलब्ध रही है। यही वह पध्दति है, जो अनुवादक को शब्दानुवाद से बचने की प्रेरणा देती है, और अनुवादक स्रोत-भाषा के पाठ को लोकोपयोगी बनाकर लक्ष्य-भाषा में पेश करता है।1

    वाल्मीकि रामायण को आधार बनाकर, राम के चरित्र को आत्मसात करके, भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी अनेक पुनर्रचनाएँ (अनुवाद) की गईं। इन रचनाओं में राम के चरित्र को अपने समय, समाज और संस्कृति के अनुरूप आत्मसात किया गया है। एक ही चरित्र को अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग तरीके से अपनाया गया है। ऐसा क्यूँ हुआ होगा? जब हम यह सोचते हैं तो हमारा ध्यान अनुवाद की राजनीति पर केन्द्रित होता है।

    भारतीय इतिहास की दृष्टि से मध्यकाल और हिंदी साहित्य के इतिहास की दृष्टि से भक्तिकाल (भक्ति आन्दोलन) के दौरान राम के चरित्र को आधार बनाकर, आत्मसातीकरण के रूप में अनेक रचनाएँ की गईं। राम के चरित्र को अनेक कवियों ने अपने भाषा और अपने परिवेश (संस्कृति) के अनुरूप ग्रहण किया। इस सम्बन्ध में अमृतलाल नगर जी लिखते हैं किऐसा लगता है कि एक होते हुए भी सबके राम अलग-अलग हैं। कबीर घट-घट व्यापी राम को भजते थे और उन्हेंदशरथ पूतेमानने वालों पर हँसते थे। तुलसी के लिए राम मानव देह में साक्षात् परब्रम्ह हैं। कवि भवभूति के राम लोकोत्तर पुरुष, वाल्मीकि के राम मर्यादा पुरषोत्तम हैं। अध्यात्म रामायण में वह साक्षात् विष्णु के अवतार हो गये हैं। सबने राम को अपनी-अपनी तरह से देखा है।जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।2  

    एक ही घटना को अलग-अलग भाषा के रामायणों में अलग-अलग तरीके से कहा गया है गोस्वामी तुलसीदास जी कहते भी हैं किहरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।।3  सीता के अपहरण की कथा वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास कृत रामचरितमानस और तमिल भाषा में कंबन कवि कृत कंब रामायण में अलग-अलग रूपों में देखने को मिलती है सीता के अपहरण की कथा मूल रूप में तो प्रचलित अर्थ में ही है किन्तु भाषा, समय, समाज और संस्कृति के कारण उसके कहने में भिन्नता नज़र आती है

    वाल्मीकि रामायण में सीता के अपहरण की कथा इस श्लोक के माध्यम से व्यक्त की गयी है- “अभिगम्य सुदुष्टात्मा राक्षसः काममोहितः। जग्राह रावणः सीतां बुधः खे रोहिनिमिव।। वामेन सीतां पद्भाक्षीं मुर्धजेसू करेण सः। ऊर्वोस्तु दक्षिनेनैव परिजग्राह पाणिना।।4  अर्थात काम से मोहित अत्यंत दुष्टात्मा राक्षस रावण ने माता सीता के पास जाकर उन्हें ऐसे पकड़ लिया जैसे की आकाश में बुध ने रोहिणी को पकड़ने का दुस्साहस किया था

    तुलसीदास के रामचरितमानस में सीता के अपहरण की कथा भिन्न है। सीता जब रावण की बात नहीं मानती तब रावण को क्रोध आता है, लेकिन रावण मन ही मन सीता के चरणों की वंदना करता है और ऐसा करते हुए अपने आप को  सुखी मानता है। श्लोक इसप्रकार है किक्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाई। चला गगनपथ आतुर भयं रथ हांकि जाई।।5 अर्थात रावण ने क्रोध के साथ सीता को रथ पर बिठाया और बड़ी आतुरता के साथ रथ आकाश मार्ग से चला लेकिन डर के मारे उससे रथ हांका नहीं जा रहा था। 

     कंब रामायण में सीता अपहरण की यही कथा अलग ढंग से है।रावण जैसे ही सीता के चरणों को प्रणाम करने के लिए झुका वैसे ही क्षमा की मूर्ति और अनुपम सुंदरी वह देवी सीता; हे प्रभु! हे अनुज! कहकर पुकार उठीं। उसी समय उस क्रूर रावण को अपने श्राप का स्मरण हो गया कि परनारी का स्पर्श नही करना चाहिए, इसलिए उसने अपनी स्तम्भ जैसी भुजाओं से उस आश्रम के स्तम्भ को ही नीचे से एक योजन तक खोदकर उठा लिया। इस प्रकार सीता को उसने आश्रम समेत उठाकर अपने रथ पर रख लिया। तीनों रामायण की कथाओं में सीता के अपहरण को भिन्न-भिन्न तरीके से आत्मसात किया गया है। अनुवाद की इस प्रक्रिया के कारण हमारा ध्यान अनुवाद की राजनीति की ओर आकर्षित होता है।

    वाल्मीकि रामायण की कथा को आत्मसात करके दुनिया भर की अनेक भाषाओं में रामकाव्य की रचना की जा चुकी है। जैसे; पालि, अपभ्रंश, अवधि, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बंगाली, पंजाबी, सिंहली, असमिया, ओड़िया, हिंदी, गुजराती, मराठी के साथ-साथ कई विदेशी भाषाओं में भी रामायण का अनुवाद हो चुका है। प्रत्येक भाषा ने अपने समय, समाज, संस्कृति, मूल्यों, विचारधाराओं और मान्यताओं के आधार पर राम के चरित्र को आत्मसात किया है। 

     तुलसीदास के रामचरितमानस से पहले बौद्धों और जैनों ने भी राम कथा को अपनाया है बौद्ध धर्म में रामायण की कथा जातक कथाओं के रूप में मिलती है। बौद्ध धर्म के समय में पालि भाषा का प्रचलन था। बौद्ध धर्म मेंदशरथ जातकके अनुसारदशरथ महाराज के पहली पत्नी से दो पुत्र (राम और लक्ष्मण) और एक पुत्री (सीता) थी। पहली पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने दूसरा विवाह किया। जिससे एक पुत्र (भरत) और हुआ। महाराज ने खुश होकर अपनी पत्नी को वर दिया। जब भरत की उम्र सात वर्ष की हुई तो उसने भरत के लिए राज्य की मांग की। षड्यंत्रों को देख राजा दशरथ ने राम और लक्ष्मण को बारह वर्षों के लिए वन भेज दिया। उनके साथ उनकी बहन सीता भी चली गई। नौ वर्ष बाद दशरथ की अपने पुत्रों के विरह में मृत्यु हो जाती है। भरत अपनी सेना के साथ राम को वन से ले आने के लिए जाते हैं। राम यह कहकर कि मैंने पिता को 12 वर्ष का वचन दिया है तो तीन वर्ष बाद ही लौटूंगा। वापस लौटने से मना कर देते हैं और अपनी चरण पादुकाएं देते हुए राम कहते हैं कि 'मेरे आने तक यह शासन करेंगी।' तीन वर्ष बाद राम लौटते हैं और राजा बनकर अपनी बहन सीता से विवाह कर लेते हैं।6 बौद्ध धर्म में गौतम बुद्ध को राम का अवतार माना गया है

    बौद्धों के समान जैनियों ने भी राम-कथा अपनाई है। जैन रामकथा में अपभ्रंश भाषा में रचित स्वयंभू कृत पउमचरिउ अथवा रामायणपुराण विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह जैन मतों से प्रभावित है। जैन धर्म मेंअहिंसा परमो धर्महै। शायद यही कारण है कि स्वयंभू ने रावण का वध राम के हाथों कराकर लक्ष्मण के हाथों कराया है। वाल्मीकि रामायण को आत्मसात करने के बाद भी पउमचरिउ में जैन मतों के अनुसार राम के चरित्र को गढ़ा गया है। आत्मसातीकरण की यह प्रक्रिया अनुवाद की राजनीति का हिस्सा है।

    हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के दौरान तुलसीदास ने वाल्मीकि रामायण से राम के चरित्र को आत्मसात करकेरामचरितमानसकी रचना की। तुलसी के काव्य में स्पष्ट रूप से अनुवाद की राजनीति को देखा जा सकता है। भक्तिकाल के सम्बन्ध में रामचंद्र शुक्ल कहते हैं किदेश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के ह्रदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराया जाते थे, देवमूर्तियां तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत तो वे गा ही सकते थे और बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गये। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छायी रही।7

    जनता की इस उदासी को दूर करने के लिए राम से बेहतर चरित्र नहीं हो सकता था। यही कारण है कि तुलसीदास ने राम के चरित्र को आत्मसात करके रामचरितमानस की रचना की, जिससे जनता के हृदय में उत्साह का संचार हो सका। रामचरितमानस के लिए अवधी भाषा का चुनाव भी अनुवाद की राजनीति का हिस्सा है। चूँकि तुलसीदास जनता तक अपनी बात को पहुँचाना चाहते थे इसलिए उन्होंने ने अवधी भाषा का प्रयोग किया। संस्कृत भाषा उस समय में साहित्य और दरबारों तक ही सीमित थी इसलिए संस्कृत भाषा में जनता तक अपनी बात को पहुँचाना संभव नही था। तुलसीदास ऐसे समाज की कल्पना कर रहे थे जिसमेंअल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥ नहिं दरिद्र कोउ दुखी दीना। नहिं कोउ अबुध लच्छन हीना॥8 यही कारण है कि तुलसीदास जी ने राम के चरित्र को आत्मसात करके रामचरितमानस के माध्यम से एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहा जिसमे किसी प्रकार की कोई कमी हो, सब लोग सुखी हों। रामचरितमानस का उत्तरकाण्ड इसी रामराज्य की स्थापना पर आधारित है।    

    तमिल भाषा में कंब कवि कृत कंब रामायण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वाल्मीकि के राम आदर्श मानव हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं जबकि तुलसी के राम साक्षात ब्रह्म हैं। कम्बन ने अपने राम को नारायण के और सीता को लक्ष्मी के अवतार के रूप में चित्रित किया है। उनमें तुलसी की अपेक्षा कहीं अधिक स्वाभाविकता है, क्योंकि तुलसी के समान यहाँ राम के परब्रह्मत्व या नारायणत्व की याद दिलाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। राम मानव के समान सहज व्यवहार करते हैं और कहीं पर अपनी अलौकिकता या दिव्यशक्ति का प्रयोग नहीं करते हैं। सीताहरण के उपरान्त राम साधारण मानव के समान असीम व्यथा से भर उठते हैं। कुछ आगे चलकर सीता की रक्षा करने में घायल हुए जटायु को देख उनका आहत अभिमान और शोक इन शब्दों में प्रकट होता है- "मेरी पत्नी के बन्दी हो जाने पर उसे मुक्त करने के लिए लड़ने वाले महिमामय तुम यों आहत हुए पड़े हो। तुमको मारने वाला वह शत्रु अभी जीवित है। दृढ़ धनुष और तीक्ष्ण शरीर को ढोता हुआ मैं विशाल ढूँठ-सदृश व्यर्थ खड़ा हूँ।"9 (कम्ब रामायण 3/8/185)

    अपने द्वारा रक्षणीया पत्नी की रक्षा कर पाने की लज्जा, कर्तव्य भाव से प्रेरित हो अबला की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति देने वाले जटायु के प्रति असीम कृतज्ञता और शोक,  इस घोर दुष्कर्म के कर्ता शत्रु को जीवित देख अपने तीव्र भाव द्वंद्व को कवि ने थोड़े ही शब्दों में जिस कुशलता से  अंकित कर दिया है वह देखते ही बनता है। यह है मानव राम की वाणी। कम्ब रामायण में सर्वत्र राम का यही मानव रूप अपनी सहजता में उकेरा हुआ है।

    श्री रंगनाथ रामायण तेलुगु में रचित रामायण है। इसकी कथा वाल्मीकि रामायण के अनुरूप है। उत्तर भारत में तुलसी रामायण का जो स्थान हैवही केरल में एशुत्तच्छन द्वारा विरचितआध्यात्म रामायण किहिपांटका है। विमल सूरि कवि द्वारा प्राकृत भाषा में रचित जैन रामायण के आधार पर कन्नड़ में श्री नागचंद्र कवि नेरामचंद्र चरित पुराणकी रचना की है। इन सभी भाषाओं में राम की कथा जो मिलती-जुलती है, लेकिन कहीं-कहीं पर भिन्नता भी नज़र आती है। यह भिन्नता उस भाषा के बोलने वाले लोगों और समाज की संस्कृति और विचारधारा के कारण दिखायी देती है।

    बंगाली भाषा में रामकथा के बारे में बात का आरम्भ रवीन्द्रनाथ टैगोर के कथन से किया जाये तो अच्छा रहेगा। वे कहते हैं किरामायण कथा में एक ओर कर्तव्य का दुरूह काठिन्य है, तो दूसरी ओर भाव का अपरिसीम माधुर्य एक साथ सम्मिलित है। उसमें दाम्पत्य, सौभ्रात्य, पितृभक्ति, प्रभुभक्ति, प्रजा वात्सल्य प्रभृति मनुष्य के जितने प्रकार के उच्च अंश के हृदय बन्धन हैं, उसका श्रेष्ठ आदर्श परिस्फुट हुआ है। उसमें सब प्रकार की हृदयवृत्ति का महान् धर्म नियम के द्वारा पग-पग पर संयमित करने का कठोर शासन प्रचलित है। हर प्रकार से मनुष्य को मनुष्य बनाने की ऐसी उपयोगी शिक्षा और किसी देश में किसी साहित्य में नहीं है।10

    बंगाल में कृतिवास कवि कृतकृत्तिवास रामायणअत्यंत लोकप्रिय है। इस रामायण में कवि जनमानस में वाल्मीकि की प्रचलित परम्परित कथा का आधार लेकर ही आगे बढ़ता है। तुलसी कृत 'मानस' में जटायु सीता हरण के पश्चात् रावण से युद्ध करने के बाद घायल अवस्था में श्री राम को मिलते हैं। कृत्तिवास  के यहां जटायु का परिचय सीता हरण से पहले ही पंचवटी में हो जाता है। मानस और कृत्तिवास रामायण दोनों का आधार ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण होने के बावजूद दोनों एक-दुसरे से भिन्न हैं। कृत्तिवास जिस तरह से प्रकृति के कवि हैं, तुलसीदास नही हैं। युद्ध से वापस लौटने पर श्री राम का राज्याभिषेक होता है। प्रसन्नता के इस वातावरण में सीता-राम की ओर से वानरों को उपहार दिया जाता है।माता सीता के हाथ से लिया गया मूल्यवान हार हनुमान चबा-चबा कर फेंकने लगाते हैं, तब लक्ष्मण से नहीं रहा जाता, वह हनुमान से कारण पूछते हैं, तब हनुमान कहते हैं कि जिस चीज में राम नाम का दर्शन हो, वह कितनी भी मूल्यवान वस्तु क्यों हो, मेरे लिए निरर्थक है।11

    पहाड़ी भाषाओं में राम के चरित्र को आत्मसात करके लोकगीतों के माध्यम से रामायण की रचना देखने को मिलती है गढ़वाली भाषा मध्य हिमालयी वह भाषा है, जिसकी उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। यह भी कुमाँऊनी और ब्रजभाषा की भाँति समृद्ध लोक साहित्य वाली भाषा है। जागर एक ऐसा लोक आस्था से जुड़ा अनुष्ठान है, जिसमें पर्वतीय जन अपने अनेक प्रकार के इष्ट और पितृ देवताओं के साथ-साथ अनंग आत्माओं तथा अनिष्टकारिणी शक्तियों को नचाते हैं। इन नृत्यों में जिन लोक गाथाओं या गीतों का गायन किया जाता है, उन्हें भी 'जागर' कहा जाता है। नंदकिशोर ढौंढियालअरुण’, लिखते हैं किगढ़वाल में अन्य देवी-देवताओं की भाँति रघुनाथ (राम), सीता, लक्ष्मण और हनुमान यहाँ के लोक देवता हैं, जिन्हें प्रसन्न करने के लिए इन्हें 'जागर-गाथा' और गीत गाकर नचाया जाता है। ये सभी गाथाएँ और फुटकर गीत रामायण और रामचरितमानस जैसे संस्कृत तथा हिन्दी महाकाव्य की कथाओं पर आधारित लोककवियों की कविताएँ हुआ करती हैं। भगवान राम की जागर-गाथा इसी प्रकार की जागर-गाथा है। गढ़वाली भाषा का यह 'जागर' लोक भाषा की रामायण है।12  

    भारत के निकटवर्ती देशों जैसे सीलोन, अफगानिस्तान, ईरान, पूर्वी सोवियत संघ, तिब्बत सहित दक्षिणी चीन, नेपाल और भूटान ने भी अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा के विभिन्न क्षेत्रों में रामकाव्य के प्रभाव को अनेक तरीकों से प्राप्त किया और बनाए रखा है। तिब्बती भाषा में अनेक हस्तलिपियाँ प्राप्त हैं, जिनमें रावण-चरित से लेकर सीता-त्याग और राम-सीता-सम्मिलन तक की कथा मिलती है, जो सम्भवतः आठवी अथवा नवीं शताब्दी की है। तिब्बत रामायण में एक खास बात यह है कि इसमें सीता को रावण की पुत्री बताया गया है। नेपाली भाषा में भानुभक्त आचार्य नेभानुभक्तको रामायणकी रचना की थी। इसके आधार पर ही भानुभक्त कवि कोआदिकविकहा गया है।

    दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों जैसे बर्मा, थाईलैंड, सिंगापुर, मलेशिया, वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, इंडोनेशिया, फिलीपींस और जापान आदि देशों में भी रामायण जैसे ग्रंथ देखने को मिलते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि रामायण की कहानी महाकाव्य के रूप में छठी शताब्दी ईसवी से दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में फैलने लगी थी। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं ने रामायण की कहानी को आत्मसात किया है और मूल कथा को स्वीकार करके उसे अपने स्वरूप में ढालकर स्वयं के भाषा, समाज और संस्कृति को समृद्ध किया है।

    कंबोडिया में ख्मेर (Khmer) भाषा मेंरीमकर’ (Reamkar) नाम से राम की कथा मिलती है। रीमकर का अर्थ राम की महिमा (The Glory of Ram)  होता है। इंडोनेशिया मेंकाकाविन रामायण’ (Kakawin Ramayana) औरबालीनिज़ रामकवाका’ (Balinese Ramkavaca) के नाम से रामकाव्य को आत्मसात किया गया है। जापानी भाषा सबसे महत्त्वपूर्ण दो रामायण हैं। पहला 10वीं शताब्दी में रचितसंबो एकोतोबा (Sambo Ekatoba)  और दूसरा 12वीं शताब्दी में रचितहोबुत्सुशू (Hobustusushu) है जापान के लोकप्रिय कथा संग्रह 'होबुत्सुशू' में संक्षिप्त राम कथा संकलित है। इस कथा के अनुसार, शाक्य मुनि एक विख्यात साम्राज्य के स्वामी थे। उसी समय पड़ोसी राज्य 'किउसी' में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। ऐसी स्थिति में वहाँ के लोगों ने तथागत के राज्य पर आक्रमण कर अन्न प्राप्त करने की योजना बनाई। युद्ध में अनगिनत लोगों के मारे जाने की संभावना को देखते हुए राजा ने अपने मंत्रियों को युद्ध करने से मना कर दिया और स्वयं अपनी रानी के साथ तपस्या करने पहाड़ पर चले गये। एक दिन एक ब्राह्मण तपस्वी राजा के साथ रहकर उनकी सेवा करने लगा। राजा की अनुपस्थिति में ब्राह्मण ने रानी का अपहरण कर लिया। राजा, रानी की खोज में निकल पड़ते हैं। उनकी भेंट एक विशाल पक्षी से होती है। उसने उन्हें बतलाया की ब्राह्मण सेवक ने रानी का अपहरण किया है। राजा दक्षिण की ओर चल पड़े। उन्होंने रास्ते में हज़ारों बंदरों को गर्जना करते देखा। बंदरों ने बताया की जिस पहाड़ पर वे लोग रहते हैं, उस पहाड़ पर पड़ोसी देश ने कब्ज़ा कर लिया है। राजा युद्ध करके उन्हें उनका पहाड़ वापस दिलाते हैं। राजा ने बंदरों को अपनी पत्नी के अपहरण की बात बतायी। वानर दल उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो जाते हैं। राजा की व्यथा को देख ब्रम्हा , छोटे बन्दर का रूप धारण कर सेना में शामिल हो जाते हैं। वानरी सेना सेतु मार्ग से नागराज के भवन के निकट पहुँच गयी। यह देखकर नागराज क्रुद्ध हो गया। बर्फीले तूफान से आहत वानर सेना बेहोश हो गई। लघु कपि ने हिमालय से महावटी की शाखा लाकर उनका उपचार किया। नाग भवन से रानी की मुक्ति के साथ सात रत्नों की प्राप्ति हुई। राजा रानी के साथ देश लौट गये। उसी समय 'किउसी' के राजा की मृत्यु हो गयी। वहाँ की प्रजा ने भी उन्हें अपना राजा मान लिया। इस प्रकार वे अपने देश के साथ 'किउसी' के भी सम्राट बन गये।13

    जापान की संस्कृति और समाज में दो भाइयों के मध्य, सम्बन्ध ऐसे नहीं हैं, जैसे कि भारत में राम और लक्ष्मण के सम्बन्ध हैं। यही कारण हो सकता है कि जापानी रामायण में लक्ष्मण का कहीं भी जिक्र नहीं मिलता है। जापानी कथा भी भारत के रामायणों की कथा से कुछ भिन्न नज़र आती है। वहां पारिवारिक संबंधों के कारण कथा की शुरुआत नहीं होती है, बल्कि प्रजा की मृत्यु को रोकने के लिए राजा पहाड़ों पर चले जाते हैं। भारत में पारिवारिक संबंधों की बनावट के कारण कथा का आरंभ, आपसी कलह से होता है। जापानी संस्कृति के कारण ही वहां के राम को राजा के रूप में आत्मसात किया गया है। इस तरह का आत्मसातीकरण अनुवाद की राजनीति के कारण होता है।  

    उपर्युक्त चर्चा के बाद स्पष्ट हो जाता है कि राम के एक ही चरित्र को आत्मसात करके अधिकांश भाषाओं में, अपने समय, समाज, मूल्यों और मान्यताओं के आधार पर रामायण या रामकाव्य की पुनर्रचना की गयी है। आत्मसातीकरण की यह प्रक्रिया हर समय, हर समाज में चलती रहती है। जिसमे हमें अनुवाद की राजनीति का स्वरुप भी देखने को मिलता है। अनुवाद की राजनीति के तहत ही आधुनिक काल में निराला नेराम की शक्तिपूजाकविता की रचना की। सन 1936 में रचित यह रचना भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति भारतीयों के मन में उत्साह भरने का काम करती है। कविता का यह अंशशक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन, छोड़ दो समर जब तक सिद्धि हो, रघुनंदन! आएँगे रक्षाहेतु जहाँ भी होगा भय।स्वतंत्रता सेनानियों के हृदय को भय मुक्त करके उर्जा का संचार करता है। निराला जी की अनुवाद के पीछे यह सोच ही अनुवाद की राजनीति है।

    आत्मसातीकरण की प्रक्रिया से गुजरकर कोई भी रचना नया रूप धारण कर लेती है। इस सम्बन्ध में . के. रामानुजन कहते हैं किये विभिन्न पाठ सिर्फ पूर्ववर्ती पाठों से कुछ लेते या कुछ खारिज करते हैं बल्कि सीधे-सीधे संबद्ध भी है। वे एक-दूसरे से भी इस साझा कोड या साझा सामूहिक निधि के जरिये संबद्ध हैं। हर सर्जक सामूहिक निधि के इस सरोवर में डुबकी मारता है और एक अलग तरह का सम्मिश्रण, अनोखे टेक्स्चर और ताजातरीन संदर्भ के साथ एक नया पाठ निकाल लाता है।14 

निष्कर्ष : रामायण को आधार बनाकर दुनिया भर में अनेक रामकाव्य रचे गयें। सभी रामकाव्यों में समानता होने के बाद भी वे अपने समय, समाज और संस्कृति में भिन्न हैं। कोई भी अनुवादक या रचनाकर किसी प्राचीन पाठ को आत्मसात करना चाहता है तो उसके पीछे उसका कोई उद्देश्य होता है। वह अपने समय के समाज को पुनर्रचना के माध्यम से कुछ बताना चाहता है। यह उद्देश्य ही अनुवाद की राजनीति है। आत्मसातीकरण की यह प्रक्रिया अनुवाद के कारण ही संभव हो पाती है। आत्मसातीकरण, एक तरह से पुनर्सृजन है। अनुवाद की महत्ता को कृष्णा कुमार गोस्वामी इन शब्दों में व्यक्त करते हैं किअनुवाद का स्वरूप और क्षेत्र व्यापक है। इसमें स्रोत भाषा के मूल पाठ के भाषिक या बोधात्मक अर्थ, प्रयोग के वैशिष्ट्य से व्युत्पन्न लक्षणापरक और व्यंजनापरक अर्थ, विषयवस्तु तथा सामाजिक और संस्कृति संदर्भ शैली प्रयुक्ति की विशिष्टता को यथासंभव सुरक्षित रखे हुए उसका लक्ष्य भाषा में स्वाभाविक और निकटतम समतुल्यता के आधार पर पुनः सृजन किया जाता है।15

       

सन्दर्भ :

  1. नवीन, देवशंकर. अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य. प्रकाशन विभाग. 2016. पृष्ठ सं. 15
  2. नागर, अमृतलाल (भूमिका). रामकथा और मुस्लिम साहित्यकार (सं. बद्रीनारायण तिवारी). हिंदी प्रचारक पब्लिकेशन प्रा. लि. 1996 (तृतीय संस्करण)
  3. तुलसीदास, गोस्वामी. रामचरितमानस. गीता प्रेस. गोरखपुर
  4. वाल्मीकि रामायण (सर्ग-49 , छंद 16 ,17)
  5. तुलसीदास, गोस्वामी. रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड). गीता प्रेस. गोरखपुर
  6. बुल्के, फ़ादर कामिल. राम-कथा (उत्पत्ति और विकास). हिंदी परिषद् प्रकाशन. नवम्बर 1962 (तृतीय संस्करण). पृष्ट सं. 85-88
  7. शुक्ल, रामचंद्र. हिंदी साहित्य का इतिहास. कला मंदिर. पृष्ठ सं. 55
  8. तुलसीदास, गोस्वामी. रामचरितमानस. गीता प्रेस. गोरखपुर
  9. शेषन, श्रीमती तंगम. तमिल कम्ब रामायण (लेख). भारतीय भाषाओँ में रामकथा : तमिल भाषा (सं. डॉ. एम. शेषन). वाणी प्रकाशन. 2016
  10.  मिश्र, हरिश्चंद्र (संपादक). भारतीय भाषाओँ में रामकथा : बांग्ला भाषा. वाणी प्रकाशन. 2015. पृष्ठ सं. 9
  11.  त्रिपाठी, शैलेन्द्र कुमार. भारतीय भाषाओँ में रामकथा : बांग्ला भाषा (सं. हरिश्चंद्र मिश्र). वाणी प्रकाशन. 2015. पृष्ठ सं. 33
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  13.   जापान की रामकथा, रामकथा की विदेश यात्रा। Link - https://ignca.gov.in/coilnet/rktha019.htm
  14.  रामानुजन, . के. तीन सौ रामायणें : पांच उदहारण और अनुवाद पर तीन विचार
  15.  गोस्वामी, कृष्ण कुमार. अनुवाद विज्ञान की भूमिका. राजकमल प्रकाशन. 2012. पृष्ठ सं. 27
  16.  SANDERS, JULIE. ADAPTATION AND APPROPRIATION. ROUTLEDGE. 2016. (SECOND EDITION)
  17.  RAY, ASOKE. THE RAMAYANA IN EASTERN INDIA. PRAJNA. 1960. (FIRST EDITION)
आशीष कुमार शाह
परास्नातक, हिन्दी अनुवाद, जे.एन.यू. नई दिल्ली
shahashishkumar03@gmail.com

संस्कृतियाँ जोड़ते शब्द (अनुवाद विशेषांक)
अतिथि सम्पादक : गंगा सहाय मीणा, बृजेश कुमार यादव एवं विकास शुक्ल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित UGC Approved Journal
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-54सितम्बर, 2024

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