शोध सार : अनुवाद शब्द से हम समझते हैं कि एक भाषा में लिखित या कथित पाठ को दूसरी भाषा में ऐसेपरिवर्तित करना जिसमें मूल का अर्थ, व्यक्तव्य और साहित्यिक गुण आदि का ज्यादा क्षय न हो या मूल पाठ विकृत न हो। अनुवाद को तीन रूप में वर्णित किया जा सकता है: एक विज्ञान के रूप में, एक निपुणता या कौशल और एक कला के रूप में। अनुवाद करते वक्त अनुवादक हमेशा अदृश्य ही रहते हैं या कभी-कभी दृश्यमान हो पड़ते हैं, यह अनूदित कार्य के ऊपर निर्भर करता है। अनुवाद की धारणा आपेक्षिक है। अनुवाद में कई बार अनुवादक को मूल की थोड़ी क्षति करना या मूल का थोड़ा हिस्सा गँवाना पड़ता है, लेकिन कुछ प्राप्ति भी हो सकती है। मूल पाठ को एकदम नष्ट कर देना कितना संभव और उचित है यह विचाराधीन है। लेकिन कई बार यह भी देखते हैं कि अनूदित कार्य मूल पाठ से अधिक समृद्ध और प्रभावशाली होता है, जो नए सन्दर्भ में एक निपुण अनुवादक के हाथों ही संभव है।
बीज शब्द : अनुवाद, शब्दानुवाद, अर्थानुवाद, प्रासंगिकता, अनुवादक की उपस्थिति एवं कंठस्वर, अनुवाद-अननुवाद्यता, अनुवाद में प्राप्ति और नुकसान
मूल आलेख : अनुवाद शब्द से हम समझते हैं कि एक भाषा में लिखित या कथित पाठ को दूसरी भाषा में ऐसे परिवर्तित करना जिसमें मूल का अर्थ, व्यक्तव्य और साहित्यिक गुण आदि का ज्यादा क्षय न हो या मूल पाठ विकृत न हो। संस्कृत में ‘अनुवाद’ शब्द का उपयोग शिष्य द्वारा गुरु की बात के दुहराए जाने, पुन: कथन, समर्थन के लिए प्रयुक्त कथन, आवृत्ति जैसे कई सन्दर्भों में किया जाता है। जिस भाषा से और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है, सिर्फ़ उन्हीं दोनों भाषा का ज्ञान होना ही अनुवाद के लिए पर्याप्त नहीं है। क्योंकि सिर्फ दो भाषा के ज्ञान से ही यदि अनुवाद संभव हो पाता तो सभी लोग अनुवाद कार्य को अपना लेते। अभ्यास का महत्त्व होने के बावजूद हम सभी को सिखाकर या समझाकर अनुवादक के रूप में नहीं उभार पाते हैं। कुछ लोगों द्वारा किया गया अनुवाद इतना समृद्ध होता है कि पाठक को पता ही नहीं चलता कि वह अनुवाद पढ़ रहा है या मूल पाठ। दूसरी भाषा में हम यह भी कह सकते हैं कि अनुवाद बेहतरीन होने से पढ़कर अच्छा लगता है। वहीं कुछ लोगों द्वारा किया गया अनुवाद इतने निम्न स्तर का होता है कि पाठक को पढ़ने की अभिरुचि ख़त्म हो जाती है। इसलिए कई लोग अनुवाद को कला के रूप में देखते है। प्राय: जो लोग अनुवाद कार्य में लगातार जुड़े रहते है या अनुवाद में निपुणता प्राप्त करते हैं वे अनुवाद को कला ही मानते हैं। अनुवादक का मानना है कि अनुवाद कार्य में सिर्फ भाषा-ज्ञान, विषय-ज्ञान या अन्य प्रासंगिक ज्ञान ही मानक के रूप में काम नहीं करते बल्कि अनुवादक की प्रतिभा और सृजनशीलता भी इसमें निहित है। दूसरी ओर अनुवाद की आलोचना करते हुए विद्वान इसे विज्ञान मानते हैं। उनके हिसाब से जिस तरह अन्य विषय का ज्ञान अर्जन हेतु तैयारी की आवश्यकता होती है तथा प्रणालीबद्ध तरीके से आगे बढ़ने हेतु ज्ञान तथा निपुणता का महत्त्व रहता है ठीक उसी तरह अनुवाद में भी इसकी जरूरत पड़ती है। उदाहरण के तौर पर राशेल चौधरी की असमिया कविता ‘এবাৰ ভাল পাওঁ বুলি ক'লে’ (एक बार प्यार करती हूँ कहने से) का यह अंश देखा जा सकता है –
मूल असमिया कविता में इस काव्यांश का पंक्ति-विधान ठीक ऐसा नहीं है जैसा कि अनुवाद के बाद प्रस्तुत हुआ है। एक अनुवादक के तौर पर मैंने उस अधिकार का प्रयोग किया है कि उसमें कलात्मकता आ सके परन्तु, ठीक उसी समय यह भी ध्यान देना पड़ा है कि कविता की आत्मा खंडित न हो । इसलिए अनुवाद एक साथ कला और विज्ञान के रूप में देखा जाता है ।
भाषाविज्ञानी तथा अनुवाद विशेषज्ञ युजिन पॉल नाइडा ने उनके एक गवेषणा पत्र में कहा है- हाँ, अनुवाद निश्चित रूप में एक कला है, लेकिन प्रभावित तथा विस्तृत रूप में और ख़ुशामद ढंग से बातें करना भी कला है। अनुवाद को तीन रूप में वर्णित किया जा सकता है: एक विज्ञान के रूप में, एक निपुणता या कौशल और एक कला के रूप में। विज्ञान के रूप में देखने से उसकी नीति, पद्धति आदि की आलोचना की जा सकती है। कौशल के रूप में अनुवाद सीखा-सिखाया जा सकता है। कला के रूप में देखने से कौशल, निपुणता के अलावा व्यंगता भी उसमें आ जाते हैं।[2]
भारत जैसे बहुभाषी देश में अनुवाद मनुष्य के दैनिक जीवन का हिस्सा बन जाना चाहिए। भारतीय भाषा-साहित्य के विकास में विभन्न पाठ या लेखों का अनुवाद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता चला आ रहा है। चूँकि किसी भी भाषा-साहित्य के विकास में तथा भाव-चिंता के विस्तार में अन्य भाषा से किए गए अनुवाद का विशेष महत्त्व है। लेकिन अनुवाद सिर्फ साहित्य के लेखन-पठन के लिए ही व्यवहृत नहीं होता, बल्कि अन्य भाषा में लिखित ज्ञान-विज्ञान के पुस्तकों के अनुवाद द्वारा ज्ञान के विभिन्न क्षेत्र में नये-नये विकास की बातों से हम अवगत होते आ रहे हैं।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि अनुवाद करते वक्त मूल पाठ के हरेक शब्द को अलग-अलग करके शब्द के बदले शब्द या शब्दश: अनुवाद करने में जोर देंगे या अर्थ के बदले अर्थ अर्थात् सेंस फॉर सेंस में जोर देंगे इस पर सिसेरो के समय से ही आलोचना होती आ रही है। अर्थानुवाद को हम भावानुवाद भी कह सकते हैं। लैटिन विद्वान मार्कस टुलीयस सिसेरो (Marcus Tullius Cicero:106 BC - 43BC) ने कहा कि उन्होंने दो वक्ता के बातों को ग्रीक से लेटिन भाषा में अनुवाद करते हुए[3] शब्द के बदले शब्द व्यवहार न करके लक्ष्य भाषा का स्वरुप, धारणा, भाव तथा रूपगत प्रकृति को ध्यान में रखते हुए ही अनुवाद कार्य संपन्न किया है। इसके पहले के एक अनुवाद कार्य में उन्होंने लक्ष्य भाषा में उपयुक्त शब्द न मिलने की वज़ह से मूल अर्थात् स्रोत भाषा के शब्द को ही रखने के पक्ष में बात किया हैं। कुइंतास होरेतियास फ्लेकास (Quintus Horatius Flaccus: 65 BC - 8 BC) ने भी अनुवाद कार्य में विश्व के अनुवादकों से शब्द के बदले शब्द व्यवहार न करके, अर्थ के बदले अर्थ को व्यवहार करने का अनुरोध किया है। इन विद्वानों के मतों को ध्यान में रखते हुए हम अनुवाद कार्य में शब्दानुवाद की जगह यदि अर्थानुवाद को स्थान देंगे तो अनुवाद कार्य केस्तरीय तथा पठनीय होने की संभावना बढ़ेगी। असमिया कविता के एक उदाहरण से इसे समझते हैं। असमिया कवि नवकांत बरुवा की प्रसिद्ध कविता 'पलस' की इस पंक्ति को देखिए-
"আমাৰ পলসে সাৰুৱা কৰক কলঙৰ দুয়ো কূল!"[4]
इसका अर्थ है- कलङ (एक नदी) का दोनों पार हमारी पलस से उपजाऊ बन जाए। पलस काई जैसी होती है जो बाढ़ उतरने के बाद ज़मीन की उपरी सतह पर जमी रहती है। इससे मिट्टी बहुत उपजाऊ बन जाती है। हिंदी भाषा में इस कविता का अनुवाद एक दुरूह और चुनौतीपूर्ण कार्य है। क्योंकि हिंदी प्रदेश में बाढ़ की आवृत्ति असम जैसी नहीं है । इसलिए पलस के लिए कोई सटीक शब्द नहीं है। इसके शब्दानुवाद की सम्भावना ही नहीं है।
अनुवाद करते हुए अनुवादक हमेशा अदृश्य ही रहते हैं या कभी-कभी दृश्यमान हो पड़ते है, इस बात पर भी आलोचना होनी चाहिए। अच्छे अनुवाद में ज्यादातर अनुवादक अदृश्य रूप में ही काम करते हैं। कई बार अनुवाद करने के लिए ली गयी सामग्री या पाठ संभाव्य पाठक के अपरिचित सांस्कृतिक बातों से भी जुड़ा रहता है। मूल पाठ के ऐतिहासिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बातों का या भावों का उल्लेख करते वक्त संभावित पाठक की समझ को ध्यान में रखने हेतु अनुवादक की उपस्थिति अनुभूत हो सकती है अथवा अनुवादक दृश्यमान हो पड़ते हैं। कोई भी अनुवाद करते वक्त अनुवादक सचेत रूप में अथवा अनजाने में ही उसमें हस्तक्षेप करते है, जिसे इंटरवेंशन कहा जाता है। इसका मतलब ऐसा है कि अनुवाद करते हुए, पाठक द्वारा आसानी से समझने के लिए, मूल के स्वादानुरूप ही अनुवाद करते वक्त अनुवादक द्वारा सांस्कृतिक-भाषिक आदि बातों को ध्यान में रखते हुए कुछ सिद्धांत लेना पड़ता है। अनुवादक पाठक की बौद्धिक परिसीमा को लक्षित करते हुए अनूदित सामग्री की अन्य बातों के अलावा संदर्भित बातें, भाव, धारणा आदि को भी इस तरह वहन करके ले जाने का प्रयास करते हैं जिससे मूल से संपर्क घट न जाएँ। मूल पाठ और अनूदित पाठ के बीच सांस्कृतिक अंतराल ज्यादा रहने से अनुवादक का हस्तक्षेप भी अधिक हो जाता है। पाठक अनुवाद को पढ़कर समझे और उन्हें आनंदानुभूति का अनुभव को इस बात के प्रति लक्ष्य रखकर ही अनुवाद में हस्तक्षेप जरूरी जान पड़ता है।
अभी जो अनुवाद कार्य हो रहा है उसमें अनुवादक न अदृश्य रहते हैं, न ही अवाक्। अनूदित कार्य में मूल पाठ के लेखक एवं उनके चरित्र और कंठस्वर को पकड़कर रखना जरूरी होने के साथ ही अनुवादक का कंठस्वर भी ध्वनित हो सकता है। अनुवादक अपने विचार न थोपकर दूसरों की बातों का विस्तृत रूप से और विश्वसनीय तरीके से ही अनुवाद करता है। अच्छा अनुवाद होने से पाठक थोड़े समय के लिए ही सही यह भूल जाते हैं कि वे अनुवाद पढ़ रहे हैं। यह मानने के बावजूद भी थिओ हारमंस के अनुसार अनुवादक अनूदित कार्य में अपना चिह्न छोड़ सकते हैं। उनके मतानुसार- “अनुवादक सिर्फ दूसरों के, कोई कर्ता के कंठस्वर को प्रतिध्वनित नहीं करता रहता है। अनुवादक का अपना भी कंठस्वर रहता है और कथा साहित्य के अनूदित पाठ में मूल की बातें स्पष्ट रूप में व्यक्त करने के लिए अनुवादक कभी-कभी बंधनी के अंतर्गत लिखित बातों से, कई बार छोटी-छोटी प्रासंगिक टिप्पणी द्वारा अपना कंठस्वर हमें सुनाते हैं।”[5] हालाँकि अभी अनुवादक का स्वर मुखरित होने पर भी उसे नेतिवाचक रूप में नहीं देखा जाता है। लेकिन अनुवादक की ख़ुद को ज्यादा दृश्यमान रखने की कोशिश में मूल लेखक का कंठस्वर गायब हो जाने की संभावना बढ़ने लगती है। इस बात के लिए अनुवादक को सावधानी बरतने की आवश्यकता पड़ती है। एक अनुवादक तौर पर मैंने स्वयं एक कविता के अनुवाद में इस प्रश्न का सामना किया है। प्रणव कुमार बर्मन की एक असमिया कविता का यह हिंदी अनुवाद देखें-
इसके पहले ही शब्द के अनुवाद के लिए हिंदी में दो शब्द थे। एक ‘रूह’ और दूसरा ‘आत्मा’। लेकिन, चूँकि पूरी कविता एक सेकुलर समझ और भावना को प्रस्तावित करती है इसलिए यह ज़रूरी था कि ‘रूह’ शब्द का ही चयन किया जाए; यद्यपि रूह मूल रूप से हिंदी का शब्द नहीं है परन्तु, हिंदी में प्रचलित है। यहीं अनुवादक के आत्म की प्रतिच्छाया अनुवाद पर पड़ती है।
अनुवाद और अननुवाद्यता पर भी कई बार हमारे सामने सवाल खड़ा होता है। क्या एक भाषा में लिखित कोई भी लेख या पाठ दूसरी भाषा में अनूदित करना संभव है? क्या कोई पाठ अनुवाद के लिए असंभव अर्थात् अननुवाद्य है? इस बात पर भी कई सालों से आलोचना चलती आ रही है। प्राचीन कालीन एक समय से धर्मीय कारणवश कुछ पाठों (वेद आदि) को अननुवाद्य माना गया था। दूसरी ओर जॉर्ज स्टाइनार के हिसाब से पंद्रह शती के अंतिम समय में यूरोप में अन्य कारणवश अननुवाद्यता की बातें उत्थापित हुई थीं। दो भाषा के दो अर्थतात्विक प्रणाली का समरूप होना असंभव माना गया था। एक भाषा के अर्थ को उसके भाषिक रूपों से अलग करके नहीं देख सकते हैं। ऐसे में एक भाषा को एकदम अलग रूप से कैसे अनूदित किया जा सकता है? इसी बात को खण्डित करते हुए जॉर्ज स्टाइनार ने कहा है- गेट्से द्वारा अनुवाद को असंभव मानने पर भी, भाव और बातों में पूर्णत: मेल न होते हुए भी अनुवाद संभव है। उनके शब्दों में- “Translation is, and always will be, the mode of thought and
understanding.”[7] अर्थात् अनुवाद हमेशा चिंतन और बोध का वाहक बनकर रहेगा।
बेजिल हातिम और जेरेमि मानडेउ[8] के अनुसार अनुवाद की धारणा आपेक्षिक है।[9] भाषा की संरचना की भिन्नता की पर ही अनुवाद कार्य निर्भर करता है। इसके बावजूद भाषाओं के बीच अर्थ का विनिमय हो सकता है। अनुवाद का उद्देश्य क्या है और यह किसके लिए किया गया है इसपर भी अनुवाद कार्य निर्भर करता है। सवाल उठता है कि क्या सभी बातें अनुवाद योग्य है? रोमन जैकबसन के मतानुसार एक सीमा तक हाँ, सभी बातें अनुवाद योग्य हैं। लेकिन उन्होंने भाषा की संरचना को देखते हुए कविता को अननुवाद्य माना था।[10] एक भाषा में प्रचलित प्रवचन, लोकोक्ति एवं मुहावरें, सांस्कृतिक जीवन की कई बातें, कई धारणाएँ, कई व्यंगात्मक बातें भी अननुवाद्य हो सकती हैं। लेकिन मेहनती अनुवादक अन्य उपाय द्वारा, जैसे- पैराफ्रेज करके, थोड़ा विवरण देकर जितना संभव हो सके मूल के पास रहने का प्रयास कर सकते हैं।
अनुवाद में प्राप्ति और नुकसान की ओर नज़र डाले तो अनुवाद कार्य में कितनी भी सावधानी बरते या कितने अच्छे से अनुवाद कार्य संपन्न किया जाए फिर भी अनुवादक को मूल की थोड़ी क्षति करना या मूल का थोड़ा हिस्सा गँवाना ही पड़ता है, लेकिन कुछ प्राप्ति भी हो सकती है। अनुवादक मूल का ज्यादातर सामग्री रखने के बावजूद थोड़ा-बहुत वहाँ से गायब हो ही जाता है। यह नुकसान दो तरह का हो सकता है-
1.
स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा, और दोनों भाषाओं की संस्कृति के बीच के फ़र्क की वजह से अर्थात् भाषिक और सांस्कृतिक दूरी की वज़ह से और
2.
स्रोत भाषा के पाठ और लक्ष्य भाषा के पाठ का सृजन का सन्दर्भ अलग होने की वज़ह से। अर्थात् दोनों भाषाओं के पाठों के सृजन का समय, स्थान और परिवेश भिन्न होने के कारण।
हम अनुवाद कार्य में मूल का थोड़ा नुकसान करते हैं तो अतिरिक्त कुछ प्राप्ति भी होती है। ये जो अतिरिक्त हमें प्राप्त होते हैं वे लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक सन्दर्भ में मूल पाठ के पुन: पठन और व्याख्या द्वारा आते हैं। तत्कालीन समय में हमारे समाज में बहुत पहले की कोई विदेशी भाषा के एक पाठ का अनुवाद करते वक्त अनुवादक अलग दृष्टि से उसे देख सकते हैं। वास्तव में अनुवादक की दृष्टि से देखने से प्रत्येक अनुवाद ही नया पठन और नया लेखन है। अनुवाद में यांत्रिक रूप से एक भाषा में कही हुई बातों को अन्य भाषा में दुहराया नहीं जाता है। पॉल सेंटपियेर[11] के अनुसार- अनुवाद नए सन्दर्भ में अंत:सम्बंधित, नया पठन, नया लेखन है।[12] प्रिमाभेसि के मतानुसार- अनुवादक मूल पाठ (की गरिमा) को नष्ट करके उसकी जगह नए पाठ का सृजन करते हैं। किन्तु मूल पाठ को एकदम नष्ट कर देना कितना संभव और उचित है यह विचाराधीन है। लेकिन कई बार यह भी देखते हैं कि अनूदित कार्य मूल पाठ से अधिक समृद्ध और प्रभावशाली होता है, जो नए सन्दर्भ में एक निपुण अनुवादक के हाथों ही संभव है।
[1] চৌধুৰী, ৰাছেল, আপোনালোকলৈ প্ৰণাম মোক কবি বুলি নক'ব, গ্ৰন্থবাৰ্তা, পৃষ্ঠা নং - ৮৩
[3] Cicero, De optimo genere oratorum, 55BC
[4] ৰুৱা, নৱকান্ত, পলস (অসমীয়া কবিতা)
[5] Hermans, Theo, “The Translator’s Voice in Translated Narrative” in Baker, 2010, Page no. 193
[6] कृति बहुमत: रचना और विचार की मासिक पत्रिका, अंक: 33, पृष्ठ सं.- 29
[7] Steiner, George, After Babel : Aspects of Language and Translation, London: Oxford, 1998
[8] Munday, Jeremy, Introducing Translation studies, London: Routledge, Pym, Anthony
[9] Hatim, Basil and Jeremy Munday, Translation: An Advanced Resource Book, London: Routledge, 2013
[10] Jakobson, Roman, “On linguistic aspects of translation”, in L. Venuti (ed.), 2004, Page no. 138-43
[11] St. Pierre, “ Introduction”
[12] St. Pierre and P.C. Kar (eds.) in Translation
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