- राजीब कुमार बेज
शोध सार : ‘अनुवाद’ शब्द से हर कोई परिचित नहीं है, और अधिकांश लोग संभवतः अनुवाद और व्याख्या केबीच अंतर नहीं बता सकते हैं। पहली बात जो मन में आ सकती है, वह है अन्य भाषाओं के वक्ताओं के साथ एक सम्मेलन में एक अनुवादक या दुभाषिया। अनुवाद, यह क्या है और इसकी प्रासंगिकता को समझना कितना महत्वपूर्ण है। यह अनुवाद पेशा, मेसोपोटामिया और मिस्र के समय से ही चला आ रहा है। इस प्राचीन पेशे का क्या उपयोग है और इससे हमें क्या लाभ होता है? बहुभाषिक समाज को अपने ही भीतर ज्ञान-विज्ञान के समुचित विकास से जोड़ने के लिए भी अनुवाद आवश्यक है। समाज के भीतर हो रहे चिंतन-मनन, आविष्कार, प्रौद्योगिक विकास की जानकारी विभिन्न भाषाओं के लोगों को अनुवाद के माध्यम से निरंतर और तत्परता से मिलती रहनी जरूरी है। इस आलेख के माध्यम से बहुभाषिक समाज में अनुवाद की अनिवार्यता महत्व और प्रासंगिकता के प्रश्न पर चर्चा और विश्लेषण किया गया।
बीज
शब्द : अनुवाद, समाज,
बहुभाषिक, विश्व
संस्कृति, वैश्विकरण,
साइबर युग, अनिवार्यता,
महत्व और प्रासंगिकता।
मूल
आलेख : आज विश्व 'ग्लोबल
विलेज़' में
बदल चुका है। वैश्विकरण एवं बहुभाषिकता, विभिन्न
देशों की संस्कृतियों, भाषाओं
एवं भौगोलिक सीमाओं में परस्पर आदान-प्रदान के कारण उत्पन्न एवं समन्वित स्थिति एवं स्वरूप की ही देन है। काफ़ी हद तक यह स्थिति विभिन्न देशों के साहित्य के परस्पर अनुवाद के कारण ही संभव हो पाई है। इसलिए आज के इस साइबर युग में सृजनात्मक ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ साहित्य के अनुवाद का भी अत्यधिक महत्त्व है। इस आधार पर अगर वर्तमान युग को अनुवाद का युग कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह हम सहज रूप से ही समझ सकते हैं कि अगर 'अनुवाद
की कला' न
होती तो विश्व साहित्य और विश्व-संस्कृति जैसी सभी अवधारणाएँ मात्र काल्पनिक ही रह जाती। आज अनुवाद की प्रासंगिकता दिनोंदिन बढ़ रही है। अनुवादक पुन:सर्जक हो गया है। दोहरे जोखिम के इस कार्य की पूर्ति हेतु उसने तलवार की धार पर दौड़ने की कला सीखनी प्रारंभ कर दी है। वह दो संस्कृतियों, विचारधाराओं,
चिंतन परंपराओं, भाषिक
संस्कारों, रीति-रिवाजों, एवं
अवधारणाओं के बीच सेतु निर्माण का कार्य करने लगा है। स्वांत: सुखाय
या जीविकोपार्जन हेतु अनुवाद कार्य के प्रति समर्पित होने वाला अनुवादक अब परकाया-प्रवेश की प्रक्रिया से गुज़रने लगा है। इस प्रक्रिया से गुज़रने का धैर्य और क्षमता किसी साधक के पास ही हो सकती है। अनुवाद करने की मूलभूत शर्त है। ईमानदारी और निष्ठा है। यदि अनुवादक को हम एक सेतु निर्माण करने वाले के रूप में देखें तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूरी ईमानदारी से पुख्ता और चिरस्थायी सेतु का निर्माण करें।
वैज्ञानिक आविष्कारों एवं सूचना क्रांति, के
इस दौर में ज्यों-ज्यों विश्व दृष्टि का निर्माण होने लगा है। मानवीय जीवन के सरोकार एक सीमित क्षेत्र से बाहर निकलकर विश्वव्यापी स्तर पर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगे है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि संसार के विभिन्न वर्गों के समस्त लोग एक-दूसरे को जानने-पहचानने के लिए उत्सुक हों। इसके परिणामस्वरूप चिकित्सा, तकनीकी
वैज्ञानिक, दार्शनिक
एवं साहित्यिक आदान-प्रदान होने के कारण मानव के जीवन-मूल्यों एवं अंतर्राष्ट्रीय सोच के परस्पर संवाद से अजनबीपन का कोहरा छँटने लगा है। भौगोलिक सीमाओं के आर-पार एक परिचित एवं आत्मीय वातावरण बनने लगा है। एक देश अथवा संस्कृति की भाषा अपनी साहित्यिक एवं तकनीकी उपलब्धियों को किसी दूसरे देश, भाषा
अथवा संस्कृति तक पहुँचने के लिए अनुवाद का ही सहारा लेते हैं और एक नयी सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा चल पड़ी।
बहुभाषिकता
और भाषाविदों
का विचार :
बहुभाषिक समाज को अपने ही भीतर ज्ञान विज्ञान के सुनिश्चित विकास से जोड़ने के लिए भी अनुवाद की आवश्यकता है। समाज में जिस तरह बहुत सी भाषाएं बोली जाती हैं इस तरह हमारे लेखक भी अपनी रचनाओं में एक से अधिक भाषाओं का उपयोग करते हैं। कभी कालिदास ने अपने नाटक ‘शकुंतला’
में संस्कृत के अतिरिक्त शौरसेनी, महाराष्ट्री
तथा मागधी प्राकृत का प्रयोग किया है। मैथिली कवि विद्यापति ने अवहट्ट, संस्कृत
तथा मैथिली में अपनी रचनाएं की हैं। वैसे देखते हैं कि आधुनिक युग में भी प्रेमचंद और उपेंद्रनाथ अश्क जैसे कई लेखक ने भी हिन्दी और उर्दू में अपनी रचनाएं की हैं।
भारतीय
समाज में
बहुभाषिकता :
क्या कारण है कि भारत जैसे बहुभाषिक देश में, जिसकी
सभ्यता लगभग 5000 वर्ष
पुरानी है, कभी
किसी ने एक पूर्ण विकसित अनुवाद सिद्धांत के विकास में योगदान नहीं दिया, यहां
तक कि यदि विस्तार से नहीं तो संकट में भी किसी ने अनुवाद प्रक्रिया उसकी प्रकृति तथा विशेषताओं के बारे में कोई गंभीर विवेचन नहीं किया। फिर भी थोड़े बहुत अनुवाद संबंधित प्रसंग हमें नाना भारतीय ग्रंथों में उपलब्ध मिल ही जाता है। बीसवीं शताब्दी के पश्चात आलोचनात्मक विचारधारा में यद्यपि एक क्रांतिकारी परिवर्तन का अनुसरण करते हुए, रोला
बार्थ ने कहा था कि “किसी
भी साहित्यिक कृति का पाठक मात्र उपभोक्ता नहीं होता है, वरन्
उस कृति का उत्पादक भी होता है (प्रोड्यूसर)
भी होता है।”1 इस
श्रृंखला में जूलिया क्रिस्तेवा का कहना है कि “इंटर
टेक्स्टयलिटी’ भी
इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण विचारधारा है, क्योंकि
इसके अनुसार किसी भी पाठ के अंतर्गत उसे पाठ से पहले और उसके समकालीन समय में भी रचे गए पाठकों का स्वर समाविष्ट रहता है। और इसलिए पाठक अनुवादक के लिए स्रोत भाषा की कृति का विश्लेषण करते हुए, अनुवाद
करने की स्वतंत्रता बनी रहती है।”2
अर्थात अनुवाद के संबंध में प्राचीन दृष्टि के अनुसार जब यह कहा जाता है कि अनुवाद स्रोत भाषा में रचित पाठ के लक्ष्य भाषा में दोहराना है, तो
इसका अर्थ पाठ का विश्लेषण और व्याख्या के आश्रय से अनुवाद प्रक्रिया को पूर्ण करना होता है। भारतीय मनुष्यों के दृष्टि से “अनुवाद
‘पुनर्जन्म’ है
जिसकी आत्मा लैफैवेयर के अपरिवर्तनीय कोष (invariant core) के रूप में स्थिर रहती है। मगर बाकी सब उपादान नया रूप ले लेते हैं।”3
यह सच है कि प्राचीन भारत में अनुवाद संबंधित समस्याओं के बारे में इतने सचेतन नहीं थे। जैसे कि हम लोग हैं और परिणामस्वरूप सचेतन रूप से अनुवाद सिद्धांत को लेकर किसी ने सोने का प्रयत्न नहीं किया। आज के दृष्टिकोण से देखें तो यहां स्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद आश्रित भाषा विज्ञान के सिद्धांतों तथा व्यावहारिक प्रयोग की दृष्टि से उपयुक्त सारी भाषागत समस्याओं की आज भी पूरी प्रासंगिकता बनी हुई है, इन्हीं
में से प्राचीन भारत के अनुवाद सिद्धांत और प्रासंगिकता अनिवार्यता एक प्रश्न है।
डॉ. सुनीति कुमार चैटर्जी का कहना है, “प्राचीन
भारत में प्रचलित बहुभाषावाद के कारण ही भारतीयों में ‘अनुवाद
सचेतनता’ का
विकास हो पाया था । वात्स्यायन के द्वारा उल्लेखित पद ‘लोकेऽपिचानुवाद’
(लौकिक भाषिक प्रयोग में भी अनुवादनीयता रहती है)।”4 भारतीय
अनुवाद सचेतनता के लंबे ऐतिहासिक काल का पता देता है। अनुवाद का अर्थ है प्रत्येक भाषा के मानवीय संचरण के सामान्य स्तर तक अर्थात शाश्वत भाषा के स्तर तक पहुंच के फिर किसी विशेष सुविधाजनक रास्ते से पुनः प्रकट होना है।
भारतीय समाज में एक व्यक्ति के लिए एक से अधिक भाषाएँ बोलना। स्वाभाविक है इसीलिए द्विभाषिकता या त्रिभाषिकता अथवा बहुभाषिकता को भारतीय समाज ने स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लिया है। भारत सरकार की ओर से संविधान के आधार पर हिन्दी, अंग्रेजी
को राजभाषा या संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करने का अर्थ ही है कि हम एक से अधिक भाषाओं को स्वीकृति दे रहे हैं और जब हम किसी एक संपर्क भाषा का प्रयोग करते हैं तो हम अपनी भाषा से अनुवाद करते होते हैं। परंतु खेद की बात है कि इस बहुभाषिक समाज में किसी एक भाषा में रचित भारतीय साहित्य से दूसरे भाषा-भाषी आमतौर से अपरिचित रहते हैं और इस तरह पड़ोस के राज्य में क्या लिखा जा रहा है उससे अनजान रह जाते हैं, इसीलिए
एक बहुभाषिक समाज में अलग-अलग भाषाओं में रचित साहित्य से परिचित होने के लिए अनुवाद का आश्रय लेना जरूरी हो जाता है। वस्तुतः बहुभाषिक भारतीय समाज अपने आप में साहित्य एक अनुवाद - क्षेत्र
है। यहाँ अंग्रेजी में लिखा गया भारतीय में वर्णना के अतिरिक्त पात्रों के संवाद आदि अंग्रेज़ी में अनुवाद ही कहे जा सकते हैं।
भारत की सांस्कृतिक बहुलता को स्वीकृति देने के लिए संविधान में कई तरह की बात संकलित है। सांस्कृतिक बहुलता तथा बहुभाषिकता को ध्यान में रखकर ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाषिक राज्यों के आधार पर भारत का एक नया राजनीतिक मानचित्र खींचा था। पंडित नेहरू ने अपने उन आलोचकों को कड़ा जवाब दिया था जिन्होंने यह कहना शुरू किया कि भाषिक प्रदेशों के कारण अंतः भाषिक तथा अंतः राज्यीय अन्योन्यक्रिया तथा आवागमन असंभव हो जाएँगे और इस तरह की भाषागत राजनीतिक सीमाएँ राज्यों के आपसी भाषिक तथा सांस्कृतिक संबंधों को सीमित कर देंगी मगर स्थिति ऐसी नहीं है। देश की सांस्कृतिक बहुलता के आधार पर प्रत्येक भाषा को महत्त्व मिलने पर विविधता के आश्रय से देश की एकता बनी हुई है। यह इस देश का एक अद्भुत मॉडल है। यहाँ जितनी ज्यादा विविधता की बात की जाती है उतनी अधिक यहाँ एकता बनी रहती है और जितनी ज्यादा एकता की बात होती है उतनी अधिक विविधता के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। तुलनात्मक साहित्य एक अनुशासन के रूप में अब विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने लगा है जहाँ एक से अधिक भाषाओं के साहित्य को पाठ्यक्रम में स्थान मिला हुआ है। प्रत्येक राज्य में अपनी-अपनी भारतीय भाषाओं को महत्त्व देने वाले राजनेता उभरकर सामने आए हैं।
“पंडित नेहरू ने उन लोगों का काफी मजाक किया था जो कहते थे कि अधिक भाषाएँ देश की एकता को कमजोर करती हैं। उनका कहना था कि यह हमारी अनभिज्ञता ही प्रकट करती है। अधिक भाषाओं का प्रयोग नेहरू के अनुसार देश की बहुभाषिक स्वरूप की अभिव्यक्ति है और हमारे सांस्कृतिक स्वास्थ्य के लिए उपयोगी भी। भाषाओं का विकास एकता को तोड़ता नहीं बल्कि देश को जोड़ता है। मध्ययुगीन भारत में भाषाओं के विकास ने देश की एकता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।”5
भारत में कई भाषा परिवारों में चार महत्त्वपूर्ण भाषा परिवार हैं। आस्ट्रिक, द्रविड़,
चीनी-तिब्बती तथा भारोपीय भाषा परिवार। कोल, मुंडा,
संथाली आदि भाषाएँ आस्ट्रिक परिवार की हैं और भारत की सबसे प्राचीन भाषाएँ हैं। तमिल, तेलुगू,
मलयालम तथा कन्नड़, द्रविड़
भाषा परिवार की भाषाएँ हैं । नेपाली तथा मणिपुरी चीनी-तिब्बती भाषा परिवार की हैं। कोंकणी, मराठी,
गुजराती, संस्कृत,
हिन्दी, पंजाबी,
उर्दू, बांग्ला,
असमिया, उड़िया
भारोपीय भाषा परिवार की हैं। इनमें से हिन्दी एक छतरी भाषा है क्योंकि हिन्दी कोई एक भाषा नहीं अवधी, ब्रज,
भोजपुरी, मैथिली
आदि कई भाषाओं को लेकर अपने स्वरूप को प्रमाणित करती है। कश्मीरी इनसे अलग भाषा परिवार से जुड़ी भाषा है।
अनुवाद
का महत्त्व :
बीसवीं सदी को कई भाषा-विज्ञान-पंडितों ने 'अनुवाद'
या 'पुनस्सृजन'
का युग पुकारा है। इस सदी में राजनीति एवं सामाजिक कारणों से संसार के बड़े व छोटे देशों के लिए एक-दूसरे का घनिष्ट बनने की अनिवार्यता अनुभव होने लगी। वाणिज्यिक और औद्योगिक विकास के लिए एक देश की संस्था के लिए अन्य देशों की संस्थाओं व संस्कारों से संपर्क अनिवार्य हो गया। बहुराष्ट्रीय संस्थाएँ अनेक देशों में अपनी शाखाएँ स्थापित करती गई। संयुक्त राष्ट्रसंघ और यूनेस्को अपना कार्यकलाप संघ द्वारा मान्यता प्राप्त कई विभिन्न भाषाओं में करने के लिए बाध्य हो गए। विज्ञान और ज्ञान की विविध धाराओं में प्रमुख भाषाओं में नए आविष्कार एवं नए सिद्धांत चर्चित होते गए तो अन्य देशों के लोगों के लिए इनका ज्ञान पाना आवश्यक अनुभव हुआ। अनुवाद इसका एकमात्र साधन था। इन विविध दिशाओं का कार्य बहुत बड़े पैमाने पर करना था। अमेरिका और रूस में थोक रूप में वैज्ञानिक पत्रिकाओं का अनुवाद किया जाने लगा। बताया जाता है कि- “यूरोपीय
संघ (EEC) करीब
1600 अनुवादकों से अनुवाद कराता था। स्पिट्जबार्ड के अनुसार 1967 में
प्रतिवर्ष 80,000 वैज्ञानिक
पत्रिकाओं का अनुवाद होता था। अब तो उससे कई गुना अधिक पत्रिकाओं का अनुवाद होता ही होगा।”6
अंतर्राष्ट्रीय स्तर की झलक हमें अनुवाद की व्यापकता बताती है। भारत जैसे बहुभाषाभाषी राष्ट्र में वर्तमान शताब्दी में खासकर इस सदी के उत्तरार्द्ध में विभिन्न भारतीय भाषाओं द्वारा अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं का अनुवाद हुआ हैं भारतीय भाषाओं का परस्पर अनुवाद बड़ी छोटी मात्रा में चलता हैं साधारण लोगों की नजर में साहित्य का अनुवाद ही महत्त्वपूर्ण है। उसी को हम अनुवाद की कोटि में लेते हैं। सहित्य की बहुत-से शाखा हैं। शुद्ध सृजनात्मक साहित्य से बढ़कर समीक्षा, ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाएँ, संदर्भ-ग्रंथ आदि के क्षेत्र में अनुवाद का योग है।
बहुभाषिक
समाज में
अनुवाद की
अनिवार्यता :
बहुभाषिक समाज से संबद्ध विभिन्न वर्गों के स्वार्थों में सामंजस्य स्थापित करने का एक आधार अनुवाद है। वस्तुतः 1986 की
नयी शिक्षा व्यवस्था के क्रियाविधि कार्यक्रम में पहली दफा अनुवाद का उल्लेख किया गया था। यह कार्यक्रम इस बात पर जोर देता है कि “अंततःभारतीय
भाषाओं में साहित्यिक अनुवाद का काम गंभीरता से लेना चाहिए और 1992 का
संदर्श पर्चा भी इस बात की पुनरावृत्ति करता है। यह बात सच है कि बहुभाषिकता और एकता के नाम पर हम ऐसी कोई व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकते जहाँ भारत की 1652 मातृ
भाषाओं को सरकार के द्वारा मान्यता मिल सकेगी और हरेक भाषा के साथ बराबर का व्यवहार हो सकेगा मगर इसके परिणामस्वरूप केवल अंग्रेजी का पक्ष लेना ठीक नहीं होगा और साथ ही इस तरह का सिद्धांत बनाना भी ठीक नहीं होगा कि भारतीय भाषाओं का प्रयोग राजनीतिक दृष्टि से विखंडन को प्रश्रय देना होगा। इस तरह की सोच गलत है और भारतीय बहुभाषिक चरित्र के खिलाफ है।”7
वर्तमान अड़चनों को काफी हद तक शक्ति की भाषा अंग्रेजी को किसी और एक भारतीय भाषा से प्रतिस्थापित करके शक्ति की भाषा के रूप में प्रयोग में लाकर कम नहीं किया जा सकता वरन् अंतःप्रांतीय तथा अंतःजातीय संचारण के विस्तृत प्रयोग व्यवस्था के द्वारा काफी हद तक यह संभव हो सकता है। वस्तुतः एफ एम रेडियो तथा टेलीविज़न में स्वाभाविक रूप से द्विभाषिकता का प्रयोग विस्तृत प्रयोग की भाषा (विप्रभा)
के विकास की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इस तरह का विप्रभा का विकास किसी प्रकार की भाषिक श्रेणीबद्धता का उच्छेद करता है और बहुभाषिक समाज में भाषायी प्रभुत्व का मुकाबला करता है और आपसी अन्योन्याश्रयता तथा भाषाओं की अंतः सार्थकता का निर्माण करता है। इस तरह की द्विभाषिकता दो उद्देश्यों की पूर्ति करती है : 'दूसरी'
भाषा के साथ मुकाबला और उसका प्रतिरोध। दूसरी भाषा से तात्पर्य है भूतपूर्व उपनिवेशकों की भाषा। इसके साथ इन दो भाषाओं के लगातार प्रयोग और बार-बार लेखन से एक द्विभाषिक रचना हमारी स्वमुक्ति का आधार बन सकती है। “एक
बहुभाषिक समाज आधुनिक संवेदना का संपूर्ण प्रसार, संपूर्ण
सांस्कृतिक वातावरण तथा मनुष्य अनुभवों का संपूर्ण विस्तार केवल अंग्रेजी या किसी भी एक भारतीय भाषा के द्वारा अभिव्यक्त करना संभव नहीं है। यह जनता की सारी भाषाओं के द्वारा ही संभव हो सकता है। ऐसा सोचना बिलकुल गलत है कि केवल अंग्रेजी ही भारत की जटिल भाषा समस्या को सुलझा सकती है। राजनीतिक और सामाजिक न्याय के लिए प्रत्येक भाषा को महत्त्व देना होगा। जातियों और उपजातियों में अधिक गतिशीलता आ जाने के फलस्वरूप उन क्षेत्रों की भाषाओं के प्रयोग में विस्तार अब यथार्थ बन चुका है। अब भाषाओं के बोलने वाले विशिष्ट वर्ग अंग्रेजी बोलने वाले विशिष्ट वर्ग को स्थानापन्न करते हुए अंग्रेजी की निरंकुश भूमिका को ख़त्म कर रहे हैं।”8
यह आमतौर से कहा जाता है कि भारत एक अनुवाद क्षेत्र है। यहाँ दो-तीन भाषाओं का लगातार प्रयोग चलता रहता है। भारत जैसे बहुभाषिक देश में यह स्वाभाविक है कि यहाँ के लोग एक से अधिक भाषाओं को जानते हैं और परिणामतः अंग्रेजी या हिन्दी संपर्क भाषा में बोलते हुए एक अनुवाद की भाषा के रूप में उसका प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य की एकक अवधारणा की प्रतिष्ठा अनुवाद के द्वारा ही संभव हो पाती है। अनुवाद के द्वारा भारतीय साहित्य की एकता और विविधता को समझना सरल हो जाता है। भारतीय स्थिति में अनुवाद अनिवार्य है।
अनुवाद
की प्रासंगिकता
:
आज अनुवाद की प्रासंगिकता दिनों-दिन बढ़ रही है। अनुवादक पुन:सर्जक हो गया है। दोहरे जोखिम के इस कार्य की पूर्ति हेतु उसने तलवार की धार पर दौड़ने की कला सीखनी प्रारंभ कर दी है। वह दो संस्कृतियों, विचारधाराओं,
चिंतन परंपराओं, भाषिक
संस्कारों, रीति-रिवाजों, एवं
अवधारणाओं के बीच सेतु निर्माण का कार्य करने लगा है। स्वत: सुखाय
या जीवकोपार्जन हेतु अनुवाद कार्य के प्रति समर्पित होने वाला अनुवादक अब परकाया-प्रवेश की प्रक्रिया से गुज़रने लगा है। इस प्रक्रिया से गुज़रने का धैर्य और क्षमता किसी साधक के पास ही हो सकती है। अनुवाद करने की मूलभूत शर्त है। ईमानदारी और निष्ठा है। यदि अनुवादक को हम एक सेतु निर्माण करनेवाले के रूप में देखें तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूरी ईमानदारी से पुख्ता और चिरस्थायी सेतु का निर्माण करे। वैज्ञानिक आविष्कारों एवं सूचना क्रांति, के
इस दौर में ज्यों-ज्यों विश्व दृष्टि का निर्माण होने लगा है। मानवीय जीवन के सरोकार एक सीमित क्षेत्र से बाहर निकलकर विश्वव्यापी स्तर पर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगे है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि संसार के विभिन्न वर्गों के समस्त लोग एक-दूसरे को जानने-पहचानने के लिए उत्सुक हों। इसके परिणामस्वरुप चिकित्सा, तकनीकी
वैज्ञानिक, दार्शनिक
एवं साहित्यिक आदान-प्रदान होने के कारण मानव के जीवन-मूल्यों एवं अंतर्राष्ट्रीय सोच के परस्पर संवाद से अजनबीपन का कोहरा छँटने लगा है। भौगोलिक सीमाओं के आर-पार एक परिचित एवं आत्मीय वातावरण बनने लगा है। एक देश अथवा संस्कृति की भाषा अपनी साहित्यिक एवं तकनीकी उपलब्धियों को किसी दूसरे देश, भाषा
अथवा संस्कृति तक पहुँचने के लिए अनुवाद का ही सहारा लेते हैं इस प्रकार एक नयी सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा चल पड़ी।
"इतिहास
गवाह है कि यदि तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान, कला
तथा साहित्य की रक्षा अन्य भाषाओं के अनुवादकों ने न की होती तो उनकी गौरव-गाथाओं को कब का भुला दिया गया होता। सभ्यताओं के विनाश के साथ ही तक्षशिला, नालंदा,
एथेंस, बग़दाद,
फ्लोरेंस आदि स्थानों पर रचा गया महान साहित्य कब का नष्ट हो गया होता। साहित्य चाहे भारतीय हो अथवा विदेशी, लेखक
और अनुवादक के बीच शताब्दी से एक ऐसा अटूट और अंतरंग रिश्ता चला आ रहा है कि जिसका लाभ हर युग और हर भाषा के पाठक ने उठाया है। इस दिशा में विश्व की सर्व प्रमुख भाषाओं में एक हमारी हिन्दी ने भी अपनी अहम भूमिका निभायी है।"9
यदि प्राचीन साहित्य के अनुवाद न किए गए होते तो आज वाल्मीकि, व्यास,
कालिदास आदि विदेशों में तो क्या शायद स्वयं अपने देश में भी इतने चिरंजीवी न होते। अनुवाद न होता तो अरस्तु, प्लेटो,
सुकरात, दांते,
वर्जिल, मोपांसा,
टॉलस्टॉय, पूश्किन,
गोर्की, शेक्सपियर,
शैली, बायरन,
कीट्स, आदि
महान लेखकों की विचार संपदा से सारा विश्व कैसे लाभान्वित होता? रवीन्द्रनाथ,
बंकिम और शरत्चन्द्र केवल बंगाल तक ही सीमित रह जाते। तुलसी तथा प्रसाद के काव्य का रसास्वादन अन्य भाषाओं के पाठक कैसे कर पाते? चीन,
जर्मनी, रूस,
कोरिया, जापान
आदि के लोक-कथाओं के साथ भारतीय लोक कथाएँ भी सामने आ नहीं पाती। पंचतंत्र, जातक
कथाएँ, एवं
हितोपदेश आदि की कथाएँ, जो
बच्चों को रोचक ढंग से नैतिक आचरण की शिक्षा देती हैं, वे
विनष्ट हो गई होतीं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दो भाषाओं के बीच की दूरी मिटाने में अनुवाद ने ही सर्वाधिक योगदान किया है। आज के युग में उन प्रमुख देशों में बहुभाषिकता की स्थिति देखने को मिलती है जहां कई जातियां और भाषाओं के बोलने वाले रहते आए हैं। किंतु किसी भी व्यक्ति के लिए सभी भाषाओं को जानना संभव नहीं है। और साहित्य के क्षेत्र में इसके बिना काम भी नहीं चलता, क्योंकि
मानव एक-दूसरे पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में लोगों के भावों-विचारों को अभिव्यक्त करने का कार्य आसान काम नहीं है। इसलिए इस बहुभाषिकता के सम्मान एवं परस्पर संवाद के लिए अनुवाद कार्य की सहायता लेना ज़रूरी हो जाता है। विभिन्न संस्कृतियों एवं समाजों के विषय में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद को माध्यम बनाना हमारी विवशता है। सृजनात्मक साहित्य के क्षेत्र में बदलती हुई परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुई नई संभावनाओं ने इसके अनुवाद की उपादेयता को और अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है। आज विभिन्न देशों की संस्कृतियों की विपुल संपदा हमारे सामने है और हम उनसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान करते हुए उनकी सांस्कृतिक विरासत से भली-भाँति परिचित होना चाहते है। यह बात नि:संकोच कही जा सकती है कि किसी उत्कृष्ट कलेवर में, उसी
प्रकार के वातावरण में, वैसी
ही विशेषताओं सहित पढ़ सकना कई बार संभव नहीं हो पाता।
अनुवाद एक ऐसा सटीक माध्यम है जिसके द्वारा पाठक वांछित क्षेत्र में अपनी जिज्ञासा-पूर्ति कर सकता है। शताब्दियों से अनेक लेखक अनुवाद की इस उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका को निभाते चले आ रहे हैं। भारतेंदु, प्रेमचंद,
रवीन्द्रनाथ, दिनकर,
जैनेन्द्रकुमार, बच्चन,
अमृतराय, अमृता
प्रीतम, धर्मवीर
भारती, निर्मल
वर्मा, अज्ञेय,
राजेन्द्र यादव एवं कमलेश्वर आदि ने विभिन्न भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य को हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के पाठकों को उपलब्ध कराया है। जिस तरह यूरोप के नवजागरण में ग्रीक एवं लैटिन के ग्रंथों के अनुवाद की बलवती भूमिका रही है आधुनिक भारत के सांस्कृतिक नवोत्थान में भी पश्चिमी साहित्य के अनुवादों का बड़ा हाथ रहा है। इन अनुवादों ने भारतीयों के दिल में एक नयी प्रेरणा भर दी थीं और अपनी प्राचीन संस्कृतियों को नयी दृष्टि से देखने के लिए उन्हें मजबूर किया था। भारतीय संस्कृति का मूल रूप यदि आज भी भारतीय जनता के जीवन में ज्यों का त्यों लिया जाता है तो उसका श्रेय रामायण, महाभारत,
भागवत आदि के आधुनिक भारतीय भाषाओं में किये गये अनेक रूपांतरों को प्राप्त है। आज संप्रेषण के साधनों के आविष्कारों के कारण सारा विश्व इतना छोटा बन गया है कि एक देश के लोग दूसरे देश के जीवन और गतिविधियों के बारे में जानने के लिऐ बहुत ही उत्सुक रहते हैं। विश्व मैत्री एवं सहयोग के इस नये दौर में किसी भी प्रदेश की जनता को समझने के लिए उस देश या प्रदेश के साहित्य को समझना अत्यंत अनिवार्य हो गया है।
हमारे यहाँ साहित्यिक कृतियों को पारस्परिक अनुवाद के जरिए देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक पहुँचाने की लम्बी परंपरा रही है, यह
सभी जानते हैं। यह एक स्वाभाविक सांस्कृतिक प्रक्रिया है जिसके लिए न तो किसी संस्था की मध्यस्थता की ज़रूरत रहती है और न सरकारी अनुदान की। हमारी बहुभाषिक संस्कृति में राजाश्रय प्राप्त फ़ारसी अंग्रेज़ी के प्रवेश से बहुत पहले साहित्यिक आदान-प्रदान हमारी विरासत का अभिन्न हिस्सा था। उन्नीसवीं शताब्दी में जब उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी हुई तो अंग्रेज़ी से हिन्दी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद इस जटिल आवाजाही में एक नए तत्त्व के रूप में शामिल हुआ लेकिन यहाँ मौजूद दूसरे तत्त्वों, मसलन
मराठी, कन्नड
या बांग्ला-हिन्दी अनुवाद की अहमियत को वह कभी भी खत्म नहीं कर सकी। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जोर पकड़ने के पहले से ही, अंग्रेजी
भारत में केंद्रीय स्थान हासिल कर चुकी थी। दूसरी भारतीय भाषाएँ हिन्दी माध्यम के चलते एक दूसरे के समीप एक नए रूपाकार में सामने आई है। मसलन उपन्यास को ही लें, पिछले
पन्द्रह-बीस सालों से भारतीय भाषाओं के उपन्यासों के अंग्रेज़ी अनुवादों ने अकल्पनीय गति पकड़ी है। देश के हर अंग्रेज़ी प्रकाशक के पास इस समय अनूदित उपन्यासों की एक लम्बी सूची है। अगर हाल के कुछ विदेशी भाषा से अनूदित कृतियों पर नजर डाले तों उनमें से प्रमुख हैं- अन्ना
कारेनिना (लेव
तोल्स्तोय, अनु.
मदनलाल मधु), धीरे
बहे दोन रे (मिखाइल
शेलोखोव, अनु.
गोपीकृष्ण 'गोपेश'),
सुर्ख और स्याह (स्तांधल,
अनु. नेमिचन्द्र
जैन), कला
के सामाजिक उद्गम (गिओर्गी
प्लेखानोव, अनु.
विश्वनाथ मिश्र), स्त्री
अधिकारों का औचित्य (मेरी
वोल्स्नक्राफ्ट, अनु.
मीनाक्षी), 'पुनरुथान'
(लेव तोल्स्तोय, अनु.
भीष्म साहनी), ज़िन्दगी
से प्यार और अन्य कहानियाँ (जैक
लण्डन, अनु.
सत्यम), 'फांसी
के तख्ते से' (जूलियस
फ्यूचिक, नेमिचन्द्र
जैन और अमृतराय), रोमियो
जूलियट और अंधेरा, आर
यू आर, प्राग
वर्ष, (निर्मल
वर्मा) और
मज़ाक (हरिमोहन
शर्मा) आदि।
आज मौलिक साहित्य से अधिक विदेशी या अन्य भाषाओं से हिन्दी में अनुदित कृतियों के पाठक हैं। इस दिशा में राजकमल प्रकाशन, वाणी
प्रकाशन, राधाकृष्ण
प्रकाशन, संवाद
प्रकाशन आदि मुख्य रूप से सामने आए हैं जो अनुदित साहित्यिक कृतियाँ प्रकाशित करते हैं, वहीं
ग्रंथशिल्पी, आदि
प्रकाशन आलोचनात्मक, एवं
गैर-साहित्यिक पुस्तकों को प्रकाशित कर हिन्दी को समृद्ध कर रहे हैं।
पारस्परिक अनुवाद के इस क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के बीच काफ़ी असमानता पाई जाती है। हिन्दी और मलयालम इस मामले में सबसे आगे हैं। अन्य भारतीय भाषाओं से असाधारण औपन्यासिक कृतियों को अपनी भाषा में उपलब्ध कराने में कोई दूसरी भारतीय भाषा उनकी बराबरी नहीं कर सकती। अनेक बांग्ला कृतियों, विशेषकर
उपन्यासों का हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। विदेशी भाषाओं को लें तो सबसे अधिक अंग्रेज़ी, रूसी,
जर्मन, फ्रेंच,
स्पेनिश, पोलिस
आदि से अनुवाद हुए हैं लेकिन आंशिक रूप से हंगारी, रोमानी,
चेक, जापानी,
कोरियाई आदि से भी अनुवाद हुए हैं।
बहुभाषिक
समाज में
अनुवाद की
आवश्यकता के
क्षेत्र :
यह बात अभी तक स्पष्ट हो चुकी है कि बहुभाषिक समाज में अनुवाद बहुत जरूरी है। किसी एक भाषा की केंद्रीयता को स्वीकार कर लेने पर भी उस भाषा में अधिकाधिक अनुवाद विभिन्न भाषा-भाषियों को आश्वस्त करता है और साथ विभिन्न भाषाओं में परस्पर अनुवाद सांस्कृतिक एकता को रेखांकित करता है।
एक देश की भाषाएँ लाख अलग-अलग हों किंतु उनमें शब्द भंडार तथा वाक्य रचना के नियमों में काफी समानता होती है। इसीलिए संपर्क भाषा हिन्दी में अनुवाद की समस्या वैसी नहीं मानी जा सकती जैसी विदेशी भाषाओं से हिन्दी अनुवाद की। ऐसे ही बहुत से शब्द भारतीय भाषाओं में समान हैं, किंतु
वर्तनी में अंतर है। यहाँ कुछ भाषाओं से हिन्दी का अंतर नमूने के लिए देखा जा सकता है “बांग्ला
में इउरोप और हिन्दी में यूरोप इसी तरह महरम-मुहर्रम, प्यारिस–पेरिस सौदि आरब-सऊदी अरब। इसी तरह मराठी में तिबेठ और हिन्दी में तिब्बत और भी जिल्हा-ज़िला, ऊर्वशी-उर्वशी। गुजराती में नवी दिल्ली और हिन्दी में नई दिल्ली। इसी तरह महेता मेहता, पालीश-पॉलिश, दशेरा-दशहरा इत्यादि।”10 (बहुभाषिक
समाज में अनुवाद: 165)
प्रत्येक भाषा के अपने वाक्यीय प्रयोगों की विशेषताएँ होती हैं। उदाहरण के लिए कई भारतीय भाषाओं में वाक्यों में सर्वत्र क्रिया का आना अनिवार्य नहीं होता। उड़िया में कहेंगे: ‘आपणंक
वयस केते?' किंतु
हिन्दी में इसका समानार्थी वाक्य प्रयुक्त होगा-'आप
की उम्र क्या है?' ऐसे
ही हिन्दी में 'इस
कमरे का किराया क्या है?', बांग्ला
में ‘एइ
घरटार भाड़ा कत?' हिन्दी
में 'प्रतीक्षालय
कहाँ है?' तथा
कन्नड़ के 'वेटिंग
रूम एल्लि?' में
भी यही बात है। इस तरह भाषाएँ चाहे आर्य वर्ग की हैं या आर्यतर वर्ग की, अनुवादक
के लिए यह अंतर ध्यान देने का है।
हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में काफी सारे तत्सम तद्भव और विदेशी शब्द हैं जो मूलतः एक हैं तथा एक-से हैं या कम-से-कम एक-से लगते हैं साथ ही कभी-कभी शब्द और अर्थ की दृष्टि से एक जैसे मुहावरे नहीं मिलते हैं ऐसी स्थिति में मात्र अर्थ की समानता की खोज की जानी चाहिए भले ही शब्दों में अंतर हो जैसे
:
कभी-कभी ऐसी स्थिति भी संभव है जब समानार्थी तथा अलग-अलग अभिव्यक्ति वाले मुहावरे और लोकोक्तियाँ नहीं मिलतीं। ऐसी स्थिति में यदि शब्दानुवाद मुहावरावत् एवं लोकोक्तिवत् हो सके तो उससे काम चलाया जा सकता है-
सभी भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद पर व्यवस्थित रूप से काम करने पर इस बहुभाषिक समाज में भाषा के द्वारा विचारों के आदान-प्रदान की कई समस्याएँ सुलझ सकती हैं। परंतु जहाँ दूसरी भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की बात सोची जा रही है उसी तरह हिन्दी से दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद और भारतीय भाषाओं के पारस्परिक अनुवाद पर भी ध्यान देना ज़रूरी है। संपर्क भाषा हिन्दी के विकास में सर्वभारतीय पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण पर पीछे काफी ज़ोर दिया गया है और उसका लाभ भी मिला है। बांग्ला में टेलीफोन के लिए हिन्दी का पारिभाषिक शब्द ‘दूरभाष’
काफी चल पड़ा है। 'दूरदर्शन'
और 'आकाशवाणी'
अब सर्वभारतीय शब्द बन गए हैं। 'धरना',
'हड़ताल' शब्द
सारे भारत में प्रचलित हो चुके हैं। भारतीय बहुभाषिकता के संदर्भ में हिन्दी की राज और संपर्क भाषा वाली भूमिका दृष्टि से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद के आधार पर सर्वभारतीय की सर्वभारतीय स्तर पर स्वीकृति पर ध्यान देना ज़रूरी है। भारतीय भाषाएं आपसी बातचीत के लिए अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग ज़रूरी है। साथ में दूसरी भाषाओं का भी प्रयोग हो सकता है। इस दृष्टि से बहुभाषिक अनुवाद और आशु भाषांतरण का विकास नितांत प्रासंगिक एवं आवश्यक है।
निष्कर्ष : बहुभाषिक समाज में पारस्परिक विचारों के आदान-प्रदान के लिए अनुवाद ज़रूरी है। संपर्क भाषा हिन्दी या संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाओं में अनुवाद कार्य के सिवाय जो आदिवासी भाषाएँ हैं उनमें भी अनुवाद कार्य को बढ़ावा दिया जाना चाहिए तभी बहुभाषिक समाज का आदर्श रूप प्रकट हो सकेगा। भारतीय लेखक अब अपनी रचनाओं में आदि एवं उपभाषाओं का प्रयोग कर रहे हैं। मराठी, कन्नड़, गुजराती के दलित लेखकों के द्वारा निर्मित एक नई भाषा मौजूदा अनुवाद सिद्धांतों पर प्रश्न चिह्न लगा रही है। यह भाषा 'बीच की भाषा' है जो उपनिवेशवादी मानसिकता से जुड़ी शक्ति और 'राष्ट्रीय' संस्कृति के नाम पर इसकी उपेक्षा करने वाली शक्ति के विरोध में खड़ी हुई है। इस 'बीच की भाषा' की सहायता से अब एक नया अनुवाद सिद्धांत का निर्माण संभव है, जिसकी सहायता से किसी भी प्रकार की श्रेणीबद्धता को तोड़कर अन्योन्याश्रयता तथा अंतःअर्थवत्ता के आश्रय से बहुभाषिक समाज को उज्ज्वल बनाना संभव हो सकेगा। यह कहा जा सकता है कि बहुभाषिक, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक समाज को जोड़ने का दायित्व हिन्दी अनुवाद के माध्यम से एक हद तक पूरा हुआ है। आज अनुवाद की वजह से ही हम अपने ही देश की अन्य संस्कृति तथा आचार-व्यवहार था साहित्य से परिचित हैं। भारत बहुत पहले से ही इतना विशाल और बहुविध संस्कृतियों का देश रहा है कि अनुवाद के बिना यह जान पाना संभव नहीं हो पाता कि किस प्रदेश की क्या विशेषता है? अगर अनुवाद न होता तो हम आज तक कई मामलों में अनभिज्ञ बने रहते और समाज का इतना विकास न हुआ होता। चूंकि भारत की राजभाषा हिन्दी है इस कारण भी हिन्दी एक ऐसी भाषा के रूप में रही है जिसने बहु-संस्कृति और बहु-भाषिक समाज को एक सूत्र में बाँधे रखा है। अत: इस कथन से पूर्णत: सहमत हुआ जा सकता है कि हिन्दी अनुवाद ने बहु-भाषिक, बहु-जातीय और बहु-सांस्कृतिक समाज को जोड़ने का दायित्व पूरा किया है।
10. इंद्रनाथ चौधरी (2014), अनुवाद का भारतीय सिद्धांत और इतिहास, पृ.165
सहाय ग्रंथ :
3. इंद्रनाथ चौधरी (प्रथम संस्करण -2014) तुलनात्मक साहित्य भारतीय परिप्रेक्ष्य, वाणी प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली
4. संपादक डॉ. भ. ह. राजूरकर, डॉ. राजमल बोरा(संस्करण-2013) तुलनात्मक अध्ययन स्वरूप और समस्याएं, वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली
5. भोलानाथ तिवारी, (संस्करण-2002) अनुवाद विज्ञान, शब्दकार प्रकाशन, नई दिल्ली
6. सं. राजेंद्र इंगोले, सह सं. डॉ. दिलीप कुमार कसवे, प्रो. सचिन, (संस्करण-2014-15) अनुवाद विमर्श
7. डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल, अनुवाद सिद्धांत और व्यवहार, नई दिल्ली
शोधार्थी, हिंदी विभाग, पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय, पुदुच्चेरी
rajeebkumarbej@gamil.com
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