आज जब हम पत्रिका के इस बेहद महत्त्वपूर्ण विशेषांक के ज़रिये अनुवाद से जुड़ी कई रोचक बातें पेश कर रहेहैं,तब यहाँ भारत में बैठे यह सोचना सहसा दूर की कौड़ी लग सकता है कि हज़ारों किलोमीटर दूर की दुनिया से हम अनुवाद पर क्या साझा कर सकते हैं। हम जिस दुनिया की बात कर रहे हैं, वह ज्ञान और विमर्श के क्षेत्र में हिस्पानी दुनिया का हिस्सा मानी जाती है। हिस्पानी अर्थात स्पेनी भाषा बोलने वाला इलाक़ा। यूरोप का देश स्पेन जब रोमन साम्राज्य का हिस्सा था, तब छह सौ सालों से ज़्यादा (200 ई. पू. से 474 ई.) समय तक यह इलाक़ा उसकी भाषा में हिस्पानिया (hispania) कहा जाता रहा। रोमनों के साथ आई लैटिन भाषा जब यहाँ पहले से बोली जा रही कई भाषाओं से घुली-मिली, तब कई नईं भाषाएँ पली-बढ़ीं, जिनमें आगे चलकर कई कारणों से स्पेनी सर्वप्रमुख बनी। वैसे तो हिस्पानी दुनिया में स्पेन, लातीनी अमरीका के ज़्यादातर देश तथा अफ्रिका और एशिया के कुछ देश शामिल हैं, इस लेख में हम मुख्यतः स्पेन की बात करेंगे। यहाँ हम मध्यकालीन स्पेन पर ध्यान केंद्रित करते हुए वहाँ से अनुवाद के संबंध में निकलते संदर्भों पर बात करेंगे।
यहाँ यह सवाल उठना वाज़िब है कि अनुवाद के विशेष संदर्भ में हिस्पानी दुनिया पर बात करना कितना प्रासंगिक या मानीख़ेज़ है। साहित्य तथा राजनीति के कुछ जगमग नामों (गाब्रिएल गार्सिया मार्केस, पाब्लो नेरूदा, फिदेल कास्त्रो, चे गेवारा आदि) को छोड़ दें, तो अमूमन इस दुनिया से आती तमाम बाक़ी अभिव्यक्तियों, परिघटनाओं पर बात या तो बहुत कम या फ़िर पश्चिमी दुनिया के द्वारा प्रचलित छवियों के इर्द-गिर्द होती है। जबकि इतिहास, संस्कृति, मीडिया, सिनेमा, सहित जीवन के कितने ही पहलूओं पर दुनिया के इस हिस्से से बहुत-कुछ जानने-सीखने को मिल सकता है। ख़ासकर अनुवाद पर बात की जाए, तो हम यह देख सकते हैं कि मध्यकालीन स्पेन भाषा, राज्य-सत्ता, संस्कृतियों के संवाद और संघर्ष तथा इन सबके बीच अपनी भूमिका तलाश रहे अनुवाद का एक दिलचस्प उदाहरण पेश करता है। प्रस्तुत लेख मध्यकालीन स्पेन के प्रस्थान-बिंदु से अपनी बात शुरू कर इस कथन को विस्तार से स्पष्ट करने का एक प्रयास है।
लेख के पहले हिस्से में मध्यकालीन स्पेन के सांस्कृतिक-धार्मिक-भाषिक परिदृश्यों पर बात की जाएगी, जिनसे आगे की सदियों में चली अनुवाद-गतिविधियाँ गहरे रूप से प्रभावित हो रही थीं। दूसरे हिस्से में हम इन गतिविधियों का क्रमशः केंद्र बनने वाले शहर तोलेदो और वहाँ इन गतिविधियों को निर्धारित करने वाले कारकों पर बात करेंगे। इस हिस्से में और आगे भी हम देखेंगे कि कैसे यहाँ से निकल रहे अनुवाद संस्कृतियों, धर्मों तथा भाषाओं के संवाद के साथ-साथ आगे की सदियों में क्रमशः उनके अंतर्संघर्ष तथा बनते-बदलते जटिल राजनीतिक-धार्मिक-सैन्य समीकरणों को प्रतिध्वनित कर रहे थे। हम देखेंगे कि कैसे इनके कई अनुवाद की भूमिका कुछ संस्कृतियों, धर्मों तथा भाषों को निर्णायक, शासक भूमिका देने तथा दूसरी परंपराओं को हाशिए पर डालने के लिए निर्धारित हो रही थी।
मध्यकालीन स्पेन का सांस्कृतिक संसार -
आज जो भूभाग स्पेन कहा जाता है और जिसमें पुर्तगाल भी शामिल है (जिसे रोमनों ने लुसितानिया[1] नाम दिया था) हज़ारों साल अपनी ख़ास भौगोलिक स्थिति के साथ दूर-पास के अलग-अलग प्रस्थान-बिंदुओं से मुख़्तलिफ़ पहचान वाली आबादियों के आने और घुलने-मिलने के साथ-साथ एक-दूसरे से संघर्ष का बहुस्तरीय क्षेत्र रहा है। स्पेन का प्रायद्वीप एक तरफ़ अफ्रीका तो दूसरी तरफ़ भूमध्यसागर के पूर्वी छोर से आते लोगों-समूहों के लिए यहाँ पहुँचने का पड़ाव और फिर यहाँ से यूरोप के बाक़ी हिस्सों तक पहुँचने का माध्यम रहा है।
कितने ही अलग-अलग धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों को संजोए रखने वाला यह पूरा सिलसिला मध्यकाल में अपने अनोखे मोड़ पर पहुँचता है। पाँचवीं सदी के मध्य में उत्तरी यूरोप से आई सुएबेस, वंडाल आदि समूहों (जिन्हें इकट्ठा तौर पर विसिगोथ कहा जाता है) के आक्रमण से ध्वस्त हुए रोमन साम्राज्य की कई सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं-प्रतीकों (लैटिन भाषा, ईसाई धर्म इत्यादि) को नए शासकों ने भी जारी रखा था। करीब दो सदियों बाद, आठवीं सदी की शुरुआत में यह शासक वर्ग एक नए आक्रमणकारी समूह के हाथों शिकस्त खाता है। यहाँ बात उत्तरी अफ्रीका से आए Berber (यह उनके जाति-समूह का नाम था) मुस्लिमों की हो रही है।
जिब्राल्टर की बेहद संकरी पट्टी से होते हुए 711 ई. में स्पेन में दाख़िल होने वाले इन आक्रमणकारियों ने बहुत कम समय में एक बड़ा इलाक़ा अपने कब्ज़े में कर लिया था। इसके साथ ही, कभी दूर बैठे रोमन साम्राज्य का हिस्सा रहा हिस्पानिया कहलाता यह भूभाग अब एक विशाल मुस्लिम साम्राज्य का हिस्सा था, जिसका सर्वोच्च शासक ख़लीफ़ा अब कहीं और दूर दमिश्क़ (सीरिया) और फ़िर बग़दाद में बैठता था। साम्राज्य के इस नए और बहुत जल्द सबसे वैभवशाली हिस्से को यहाँ बैठे ख़लीफ़ा के प्रतिनिधियों ने अरबी का अल-आंदालुस (Al-Andalus) नाम दिया था, जो आज भी स्पेन के दक्षिणी प्रांत के आंदालुसिया (Andalucia) नाम में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है।
यहाँ नए धर्म, नई ज़बान और नए सामाजिक-सांस्कृतिक तौर-तरीक़े से साथ-साथ पहले से चली आ रही कई चीज़ें क़ायम रहीं। मसलन, नए निज़ाम के द्वारा ढाले गए सिक्के एक तरफ़ अरबी में अल-आंदालुस तो दूसरी तरफ़ लैटिन में हिस्पानिया का नाम बुलंद कर रहे थे।
बेहद दिलचस्प किताब स्पेन:एक संक्षिप्त इतिहास (2022) के लेखक जाइल्स ट्रेमलेट आठवीं सदी के मध्य से ग्यारहवीं सदी की शुरुआत तक क़ायम रहे केंद्रीकृत मुस्लिम शासन के इस दौर की, जिसे अल-आंदालुस का स्वर्ण युग समझा जाता है, कई और ख़ासियतों पर बात करते हैं। वह बताते हैं कि जहाँ इस नए निज़ाम का शासक-वर्ग तथा उसके शुरुआती अभियानों के सैनिक अरबी तथा अफ्रीकी मूल के थे, उनके प्रभाव-क्षेत्र की बड़ी आबादी स्थानीय थी, जो सदियों के सांस्कृतिक सम्मिश्रण का परिणाम थी। इनमें ईसाई थे, तो यहूदी भी थे, जो लैटिन और स्थानीय भाषाओं के मिलने से बनी और तब उभर रही स्पेनी[2], कातालान, गाइएगो, आदि कई भाषाएँ बोलते थे। अब उन्होंने अरबी का भी ख़ूब इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था, जो आने वाली कुछ सदियों तक इस पूरे इलाक़े की साझा ज़बान (lingua franca) बनी रही।
नए तौर-तरीक़े, नई ज़बान में ढलने का एक ख़ूबसूरत उदाहरण वे ईसाई भी थे, जो अरबी और मुस्लिम प्रभाव में नई पहचान पा रहे थे। इस तरह के ईसाइयों को मोसाराबे (mozárabe)
कहा गया। कालांतर में दूसरे धर्मों में भी ऐसी ही नई पहचानें बनीं, जिनकी चर्चा आगे की जाएगी। आठवीं सदी के उत्तरार्द्ध[3] से 11वीं सदी के मध्य तक अल-आंदालुस संस्कृति, ज्ञान, कला आदि की दृष्टि से दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण जगह रहा, जिसके भौगोलिक-सांस्कृतिक संबंध दुनिया के कई हिस्सों से थे, जिनमें हमारा भारतीय उपमहाद्वीप भी शामिल था। साम्राज्य की राजधानी कोर्दोबा (Córdoba)
तथा दूसरे शहर शानदार वास्तुकला का प्रदर्शन करते महलों तथा दूसरी इमारतों से रोशन रहे। इनमें सबसे ज़्यादा देखी और सराही गई इमारतें हैं ग्रानादा स्थित ला अलाम्ब्रा (La Alhambra) तथा कोर्दोबा स्थित ला ग्रान मेस्किता (La gran mezquita)। आज भी देश-दुनिया के लाखों लोगों के आकर्षण का केंद्र रहीं इन इमारतों में दिखती अरबी तथा स्थानीय शैलियों के साथ आने से बनी मुदेखार (mudéjar) वास्तुकला शैली उस दौर की भव्यता तथा सभ्यताओं के संवाद से उपजती कलात्मक समृद्धि बयान करती है।
ज़ाहिर है, एक सुव्यवस्थित प्रशासन वाले तथा जल-थल सभी माध्यमों से दूर-दराज़ की समृद्ध सभ्यताओं से जुड़े तब के स्पेन में इन सभ्यताओं से व्यापार की वस्तुओं के साथ-साथ कला और साहित्य की शानदार कृतियाँ भी आईं। इनमें से कुछ हमारे अपने उपमहाद्वीप से भी गईं। चौरंग या शतरंज का खेल अरबों के ज़रिए स्पेन आया, जहाँ उसे स्पेनी भाषा में आखेद्रेस (ajedrez) नाम मिला। बाद में यह खेल साम्रज्यवाद के दौर में आज के लातीनी अमरीका पहुँचा, जहाँ उससे जुड़े कुछ बड़े ही दिलचस्प और ऐतिहासिक क़िस्से हुए। पंचतंत्र की कहानियाँ फारसी से होते हुए अरबी में दाख़िल हुईं और फिर स्पेनी भाषा में कालीला इ दिम्ना (Kalila y Dimna) के नाम से ख़ूब प्रचलित हुईं।
व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में अग्रणी रहे तब के स्पेन के लिए फिर यह हैरानी की बात नहीं थी कि अल-आंदालुस की राजधानी पश्चिमी यूरोप का सबसे बड़ा शहर था, जिसकी आबादी उस दौर में “एक लाख” थी (ट्रेमलेट, 2022-37)। उस आलीशान और किसी जादू से लगते शहर (लेखक को यहाँ आने का सौभाग्य प्राप्त है) की सबसे बड़ी उपलब्धि वो विशाल पुस्तकालय था, जिसे तब के मुस्लिम शासक[4] ने अपने एक यहूदी बैंकर की मदद से खड़ा कराया था। एक और ख़ास बात यह कि उस राजा के लिए सबसे अहम बौद्धिक सलाहकार का काम एक औरत लुबना ने किया था, जो उस दौर की एक मशहूर कवियित्री थी।
कई स्तरों वाले तथा हमेशा गतिशील इस तमाम सांस्कृतिक-राजनीतिक ताने-बाने में भाषा और अनुवाद की कई उल्लेखनीय परिघटनाएँ हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है, इस दौर में अरबी सुदूर उत्तर के कुछ इलाक़ों को छोड़कर पूरे स्पेन की आम ज़बान बनी रही। हालाँकि, पहले से चली आ रही वह प्रक्रिया भी चलती रही, जहाँ लैटिन और स्थानीय भाषाओं के घुलने-मिलने से नई ज़बानें आकार ले रही थीं, जिनमें कास्तेय्यानो या स्पेनी की भूमिका आगे चलकर महत्त्वपूर्ण होती गई। इस दौर में अनुवाद का काम मुख्यतः अरबी से लैटिन में ही हुआ। आगे की सदियों में यह काम लैटिन और अरबी से स्पेनी भाषा में हुआ।
अरबी ज़बान की इस मक़बूलियत का आलम यह था कि वह इस्लाम सहित दूसरे धर्मों से आने वाले आम लोगों के साथ-साथ उनके बुद्धिजीवियों की भी भाषा थी। जहाँ यह मोसाराबे ईसाईयों की ज़बान थी, तो यहूदी धर्म में हुए सबसे बड़े दार्शनिक मोइमोनिदेस (Moimonides) भी इसी भाषा में लिखते थे। यह बात ज़रूर है कि व्यापार और पैसे के लेनदेन में आगे रहने और इस वजह से सभी धर्मों के लोगों से रोज़ाना के ताल्लुक़ रखने वाले यहूदी आम और ख़ास उस दौर की सभी प्रमुख भाषाओं (अरबी, हिब्रू, लैटिन तथा तब उभर रही स्पेनी) का ज्ञान रखते थे। यह पहलू कुछ आगे चलकर और प्रबल हुए अनुवाद-कर्मों में महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हुआ, जब कई अनुवादों के दौरान पांडुलिपियों को अरबी से लैटिन और फिर लैटिन से स्पेनी में ढालने के वक़्त बहुभाषी यहूदी टिप्पणीकारों की सेवा ली गई।
अरबी का व्यापक प्रसार और उसका यहाँ एक आम ज़बान बनना केवल शासकों की भाषा होने की वजह से नहीं था। उसे यह मुक़ाम उस दौर में ज्ञान के विविध क्षेत्रों में लिख रहे लोगों की भाषा होने की वजह से भी हासिल हुआ था। कुछ सदियों पहले ही शुरू हुए और बड़ी ही तेज़ी से भारत से लेकर स्पेन तक के समृद्ध इलाक़े तक फैले मुस्लिम शासन में यहाँ स्पेन में विचारकों, वैज्ञानिकों आदि की भाषा मुख्यतः अरबी ही थी। ज्ञान के कई क्षेत्रों में काम कर रहे इन उन्नत दिमागों ने सुदूर पूरब से लेकर गुमनामी के अँधेरे में खो चुके रोमन-यूनानी सभ्यताओं से आते फलसफ़ों, आविष्कारों, सिद्धांतों आदि को ढूँढ-ढूँढकर पढ़ा, उनपर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ लिखीं। यही नहीं, उनसे सूत्र लेकर कई नए सिद्धांत और आविष्कार आदि लेकर आए। इनकी रचनाओं के अरबी से लैटिन में हुए अनुवादों के ज़रिए पहले स्पेन और फिर पूरे यूरोप में अभी तक अनुपलब्ध या फिर कई कारणों से विलुप्तप्राय हो चुकी चिंतन-प्रणालियाँ, तर्कशील बातें और ज्ञान की उपलब्धियाँ पहुँची। यह अनुवाद ही था जिसके ज़रिए इन सबके संयोग से उस दौर में उभर रही यूरोप की भाषाओं में मनुष्य-केन्द्रित, तर्कशील द्वंदों, बहसों, संकल्पनाओं और परिघटनाओं का उदय और प्रसार हुआ, जिन्हें हम एक समुच्चय के रूप में रेनेसाँ (renaissance) या पुनर्जागरण के रूप में जानते हैं।
इस ख़ास पहलू और इस पूरे दौर पर तफ़सील से बात करती अपनी महत्त्वपूर्ण किताब Negotiating the Frontier:
Translators and Intercultures in Hispanic History (2000) में एंथनी पिम यह बताते हैं कि 9 वीं सदी से ही यूरोप के बाक़ी हिस्सों के लिए मुस्लिम स्पेन ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत था (पिम, 2000-16)। फ्रांस से शुरू होकर उत्तर यूरोप के ये इलाक़े, जो वैसे तो मुस्लिम स्पेन को हिकारत की नज़र से देखते थे[5], यहाँ से लाइ गई पांडुलिपियों के उत्सुक ग्राहक थे। पिम बताते हैं कि फ्रांस-स्थित कई रियासतों के ईसाई शासक मुस्लिम स्पेन के पास अपने दूत भेजा करते थे, जो अन्य चीज़ों के साथ-साथ खास तौर पर ये पांडुलिपियाँ लाते थे। गौरतलब यह कि इन ईसाई दूतों के लिए मुस्लिम दरबार में मध्यस्थ और दुभाषिए का काम यहूदी लोग किया करते थे। इंग्लैंड तक पहुँचे ऐसे ही एक सिलसिले का नतीजा हम वहाँ उस दौर के एक महत्त्वपूर्ण अरबी ईजाद एस्ट्रोलोब (astrolobe) की उपस्थिति के रूप में पाते हैं, जो सामुद्रिक अभियानों के लिए महत्त्वपूर्ण हुआ करता था। तब ख़ासकर पूरे ईसाई यूरोप में यह मान्यता प्रचलित थी कि अरबी में लिखी पांडुलिपियों में वो सारा ज्ञान मौजूद था, जो उनके पास नहीं था। और इसी के साथ इन स्रोतों के अनुवाद की ज़रूरत भी शिद्दत से महसूस की जाती रही, जिसे पूरा करने के लिए यूरोप के दूसरे इलाकों से कई ज्ञानपिपासु, घुमक्कड़, यात्री आदि स्पेन के कई शहरों में आ जमे, जिनमें आगे चलकर तोलेदो का शहर महत्त्वपूर्ण केंद्र बना।
इब्न-सिना और अठारहवीं सदी का डॉक्टरी ज्ञान: तोलेदो का अनुवाद-संसार -
मध्यकालीन स्पेन में अरबी से लैटिन और कालांतर में लैटिन से स्पेनी भाषा में हुए अनुवाद के इस लंबे, बहुस्तरीय तथा कई विरोधाभासों से भरे (जिनकी चर्चा आगे की जाएगी)सिलसिले का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र मध्य भाग में स्थित शहर तोलेदो (Toledo) रहा था। रोमनों के समय से ही मौजूद तथा उसके बाद के विसिगोथ शासन की राजधानी, तीन तरफ़ से ताखो (Tajo) या टैगस (Tagus) नदी से घिरा यह शहर मुस्लिम शासन के दौरान भी अरबी भाषी मुस्लिमों, ईसाईयों तथा यहूदियों की तमाम गतिविधियों वाला एक रोचक केंद्र रहा था।
ग्यारहवीं सदी के आख़िर में उल्लेखनीय पैमाने पर और अपेक्षाकृत व्यवस्थित रूप से शुरू हुई अनुवाद-गतिविधियाँ अगली तीन-चार सदियों तक अलग-अलग स्वरूपों में जारी रहीं। पहले की कुछ सदियों तक ये गतिविधियाँ मुख्यतः अरबी से लैटिन की तरफ़ चलीं। दूसरा चरण जो तेरहवीं सदी के मध्य से आगे चला, अनुवाद-गतिविधियाँ अरबी और लैटिन से स्पेनी भाषा की दिशा में रहीं। हम यहाँ अपनी बात पहले चरण पर केंद्रित रखेंगे। दूसरे चरण की बात थोड़े विस्तार से आगे की जाएगी।
ऊपर हमने ज़िक्र किया है कि कैसे अरबी में उपलब्ध समृद्ध ज्ञान-संदर्भो को जानने और उनका अनुवाद करने के लिए देश-विदेश से तरह-तरह के लोग स्पेन आते रहे थे। ऐसा ही एक अनोखा किरदार इटली से आया जेरार्ड दे क्रेमोना (Gerard de Cremona) था, जो प्राचीन यूनानी ज्ञान, जो अब अरबी पांडुलिपियों में सुरक्षित था, को खोजने यहाँ आया था। और फिर ऐसा रमा कि उसने बाक़ायदा अरबी सीखी और फिर इनका चुन-चुनकर अनुवाद किया और इस काम में अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी। उसके अनुवाद-कर्म का सबसे उल्लेखनीय हिस्सा प्राचीन रोमन-यूनानी चिकित्साशास्त्री और दार्शनिक रहे गालेन (Galen) तथा मशहूर हरफ़नमौला विद्वान, दार्शनिक इब्न-सीना (Ibn-Sina), जिन्हें लैटिन में अबिसेन्ना के नाम से जाना गया, की रचनाओं के अनुवाद थे।
दो सदी पहले हुए अबिसेन्ना के कई विषयों पर लिखे मौलिक ग्रंथों ने अनुवाद के ज़रिये लैटिन तथा फिर दूसरी यूरोपीय भाषाओं में दाख़िल हो तमाम विषयों में चल रहे विमर्शों को मूलभूत तरीक़े से प्रभावित किया। यहाँ चिकित्सा पर लिखी उनकी किताबों का ज़िक्र ख़ासतौर से होना चाहिए, जिनके अनुवादों को पढ़ कर पूरे यूरोप में डाक्टरों की पीढ़ियाँ तैयार होती रहीं। इन ग्रंथों में द कैनन ऑफ मेडिसिन (The Canon of Medicine) सर्वप्रसिद्ध रहा। ऊपर संदर्भित जाइल्स ट्रेमलेट की किताब के अनुसार इन ग्रंथों का इस्तेमाल "अठारहवीं सदी तक होता रहा" (ट्रेमलेट, 2022-50)।
इब्न-सिना या आबिसेन्ना तो सुदूर फारस (आज का ईरान) के थे, लेकिन एक ऐसी ही मिलती-जुलती बहुआयामी शख़्सियत जेरार्द दे क्रेमोना के समकालीन और स्पेन में ही जन्मे इब्न-रश्द या आबेर्रोएस (Averroes) थे। दूसरे क्षेत्रों के अलावा उनकी ख्याति विशेषकर एक दार्शनिक के तौर पर रही। वह और मुस्लिम स्पेन की राजधानी रही कोर्दोबा से ही आनेवाले उनके समकालीन दार्शनिक मोईमोनिदेस (Moimonides),जो यहूदी थे,अरस्तू पर पर लिखी अपनी टीकाओं के लिए जाने गए। इनके ज़रिये उस महान दार्शनिक की कई अहम बातों को और विस्तार देकर वे यूरोप में पुर्नर्जागरण या रिनेसाँ (renaissance) के अग्रदूतों में रहें। दोनों ने, जो अपने-अपने धर्मों के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिकों में थे, तर्कशील आचरण और धार्मिक विश्वासों के ज्वलंत प्रश्नों पर बुनियादी चिंतन किया और मिलते-जुलते निष्कर्ष पर पहुँचे। आबेर्रोएस ने यह राय दी कि यदि ईश्वर ने हमें बुद्धि दी है, तो हमें उसे ईश्वरीय उपहार मान उसका इस्तेमाल करना चाहिए। वहीं मोईमोनिदेस ने इसी को आगे बढ़ाते हुए तर्क के परीक्षण पर खरी न उतरने वाली सभी रहस्यवादी और अंधविश्वासी मान्यताओं का खंडन किया। आज भी इस तर्कशील बात को रिनेसाँ सहित पूरी आधुनिकता की बुनियाद मानने वाले हममें से कितने लोग अपने दौर से इतना आगे सोचने वाले इन दार्शनिकों को जानते हैं?
हममें से ज़्यादातर लोग आबेर्रोएस या मोईमोनिदेस को भले न जानते हों, उनकी टीकाओं के तब लैटिन और फिर स्पेनी तथा दूसरी यूरोपीय भाषाओं में हुए अनुवादों ने उस दौर तथा आगे के कितने ही दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकों को कई ऐसे सिद्धांतों, दर्शनों तथा आविष्कारों के लिए तैयार किया, जो विज्ञान, धर्म तथा सृष्टि के बारे में इंसानी नज़रिए को नाटकीय रूप से प्रभावित कर रहे थे। ट्रेमलेट बताते हैं कि इन विचारकों में यूरोपीय पुनर्जागरण के प्रतिनिधि नाम जैसे कि थॉमस आकिनास, रोजर बेकन और कोपरनिकस आदि उल्लेखनीय रहे (ट्रेमलेट, 2022-51)।
कॉनबिबेंसिया (convivencia) तथा रीकोन्किस्ता
(reconquista): मध्यकालीन स्पेन में अनुवाद के अंतर्संघर्ष -
अभी तक हमने कुछ विस्तार से यह देखा कि कैसे ग्यारहवी सदी से आगे चले अनुवाद के सिलसिले का पहला चरण इसके ज़रिये भाषाओं, संस्कृतियों, धर्मों आदि के संवाद और उससे निकलते दिलचस्प अनुवाद-कर्मों का गवाह रहा था। आगे बढ़ने से पहले यह ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है मध्यकालीन स्पेन में भाषाओं, संस्कृतियों, धर्मों आदि के मिलने की ज़मीन एक समान नहीं थी। यह लगातार बदलते राजनीतिक-धार्मिक-सैन्य कारकों से निर्धारित हो रही थी। इस गतिशील परिदृश्य की परिस्थितियों को थोड़ा विस्तार में देखकर ही हम उस दौर तथा विशेषकर तेरहवीं सदी के मध्य से सामने आते अनुवाद के दूसरे चरण को बेहतर तरीक़े से समझ सकते हैं। इनकी चर्चा से हम यह भी समझ सकते हैं किन घटनाक्रमों में तोलेदो शहर क्रमशः अनुवाद का प्रमुख केंद्र बनता गया।
ऊपर हमने यह देखा है कि मुस्लिम स्पेन या अल-आंदालुस का शुरआती, मजबूत केंद्रीय सत्ता वाला दौर, जो इस लेख के लिए अनुवाद के पहले चरण का दौर है, संस्कृतियों और धर्मों के साथ-साथ भाषाओ की विविधता का दौर था, जहाँ अंतरधार्मिक दार्शनिक, सांस्कृतिक संवाद भी क़ायम हुए। यह सब इन विविध धर्मों, भाषाओं, संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व का भान देता है।
लेकिन क्या इससे यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि यह कालखंड और उसके बाद का काल सिर्फ़ सांस्कृतिक मेल-जोल का था? इतिहास इतना सरल नहीं होता। इस कालखंड और उसके बाद का दौर,जो अनुवाद की दृष्टि से हमारे लिए प्रासंगिक और इस लेख के विचाराधीन है, कई टकराहटों का भी गवाह रहा। इनकी प्रतिध्वनियाँ तब के अनुवाद-कर्मों में मौजूद हैं, जिनमें से कुछ पर यहाँ विस्तार से बात होगी।
लेख के इस हिस्से का शीर्षक कॉनबिबेंसिया या सह-अस्तित्व इस संदर्भ में काफ़ी प्रासंगिक है और इस दौर के खुरदुरे सामाजिक-धार्मिक तथा सांस्कृतिक अनुभवों को समझने में हमारी मदद करता है। यह मध्यकालीन स्पेन पर हो रही अकादमिक चर्चाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण बिंदुओं में एक रहा है। यहाँ यह सवाल अक्सर ही प्रमुखता से उठाया गया है कि यह ठीक है कि ऐतिहासिक कारणों से यह संभव हुआ कि एक लंबे समय तक उस ख़ास क्षेत्र में तीन धर्मों के लोग रहे, लेकिन यह किस हद तक सह-अस्तित्व रहा था। यह भी कि सतह के नीचे की विसंगतियों और टकरावों को भी ध्यान में लेकर अगर समग्रता में देखा जाए तो फिर हम आज जिन अर्थों में सह-अस्तित्व को समझते हैं, वह वैसा सह-अस्तित्व शायद नहीं था। उस दौर के अनुवाद-कर्म को बेहतर तरीके से समझने के लिए इस पहलू पर थोड़ा विस्तार से बात करना आवश्यक है। अनुवाद और ख़ासकर इस तरह की परिस्थितियों में यह भाषा और उसके अविच्छिन्न सांस्कृतिक-सामाजिक सूत्रों के साथ-साथ इन सबकी निर्मिति में अगर निर्णायक नहीं तो बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सत्ता-संरचनाओं से गहरे जुड़ा होता है।
अल-आंदालुस के शुरुआती बेहतर दौर में भी शहरों में तीन मुख्य धर्मों (इस्लाम, कैथोलिक ईसाई तथा यहूदी मत) को मानने वालों के रिहाइशी इलाक़े स्पष्ट तौर पर अलग-अलग निर्धारित थे। यह इस ऐतिहासिक तथ्य के बावजूद था कि जहाँ ये तीनों धर्म अलग-अलग दौर में बाहर से आए या लाए गए थे, उनको माननेवाले ज़्यादातर वहाँ के स्थानीय लोग ही थे और उन्हें देख कर उनमें फ़र्क़ करना मुश्किल था। इसलिए सिर्फ़ रिहाईश ही नहीं, उनके लिए धर्म के आधार पर अलग-अलग क़ानून, टैक्स, पूजा-स्थल के अलावा उनके अलग-अलग पहनावे भी तय थे। विभाजन की ये और दूसरी रेखाएँ वक़्त-बेवक़्त हिंसक भी हो उठती थीं। यह बात ज़रूर है कि कम-से-कम 11 वीं सदी तक इनका स्वरूप स्थानीय था और ये राज्य की शासन-नीति का हिस्सा नहीं थे। यही वजह रही कि ईसाई और यहूदी एक बड़ी संख्या में यहाँ लगातार मौजूद रहे। ऊपर वर्णित अपनी किताब में ट्रेमलेट बताते हैं कि चौदहवीं सदी के आख़िर में दुनिया की सबसे बड़ी यहूदी आबादी स्पेन में रहा करती थी। उनके मुताबिक़ स्पेन के मध्य भाग में स्थित कास्तिय्या के इलाक़े में यहूदियों की आबादी ढाई लाख थी, तो अल-आंदालुस के दक्षिण में स्थित सेविय्या (Sevilla) में उनकी संख्या 35,000 होने के साथ-साथ उनके कई पूजा-स्थल तथा उस दौर में दुनिया का सबसे बड़ा यहूदी मोहल्ला भी था। (ट्रेमलेट, 2022-52)।
ग्यारहवीं सदी की शुरुआत तक मुस्लिम स्पेन या अल-आंदालुस का इलाक़ा पिछली दो-तीन सदियों से बाक़ी यूरोप से हर क्षेत्र में आगे था और सिर्फ़ एक सदी पहले तक बकौल इतिहासकार रिचर्ड फ़्लेचर "पश्चिमी दुनिया का सबसे संपन्न, सबसे बेहतर प्रशासित, सबसे शक्तिशाली तथा सबसे प्रतिष्ठित राज्य रहा था" (ट्रेमलेट, 2022-39)। लेकिन, तब से लेकर आगे कई सालों तक चलने वाले कबीलाई हमले में राजधानी कोर्दोबा में चलती आ रही बौद्धिक, सांस्कृतिक गतिविधियाँ बर्बरता से तहस-नहस कर दी गई थीं। उत्तरी अफ्रीका से आए इन हमलावरों के हाथों मचे क़त्लेआम में कई कलाकार, लेखक, विचारक आदि मारे गए। अनुवाद और ज्ञान के नज़रिए से बेहद त्रासद इस घटनाक्रम में सिर्फ़ एक बात यह अच्छी रही कि कोर्दोबा के शानदार पुस्तकालयों में रखी कई बहुमूल्य पांडुलिपियाँ किसी तरह से तोलेदो शहर पहुँचा दी गई थीं। इसी के साथ ऊपर देखे गए अनुवाद के पहले चरण की गतिविधियों की नींव पड़ती है।
ज्ञान के विविध बिंदुओं पर लिखी इन पांडुलिपियों का तोलेदो पहुँचना अगली कुछ सदियों तक लगातार जारी रहा। यह ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी तक के सालों में विभिन्न परिस्थितियों में में हुआ, जिसके विविध कारण और ख़ासकर अनुवाद और संस्कृति के नज़रिये से दिलचस्प परिणाम रहे।
जहाँ दक्षिण में अफ्रीका से आए कबीलाई हमलों[6] में अल-आंदालुस की राजनीतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न होकर कई छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गई (जिन्हें अरबी में ताइफ़ा कहा गया), वहीं उत्तर से भी अब एक नए तरह का धार्मिक-राजनीतिक-सैन्य अभियान आगे बढ़ रहा था। इस अभियान ने पहले से ही उथल-पुथल से भरे परिदृश्य को और ज़्यादा जटिल तथा उनकी राजनीतिक-धार्मिक विभाजन रेखाओं को और तीखा बनाया। अनुवाद के लिए भी जहाँ इसने तोलेदो में चल रहे अनुवाद-कर्मों को कई नए ग्रंथ उपलब्ध कराकर तेज़ी दी,तो वहाँ से निकले अनुवादों के राजनीतिक निहितार्थों को ज्यादा प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित और नियंत्रित भी किया।
इस अभियान की शुरुआत स्पेन में स्थापित हुए मुस्लिम शासन के शुरुआती सालों में हो गई थी। यह अभियान स्पेनी भाषा, इतिहास और विमर्शों में रीकोन्किस्ता (reconquista) यानी पुनर्विजय के नाम से जाना जाता है। इसके प्रवर्तकों ने इसके तईं स्पेन को आदि-अनंत से एक कैथोलिक ईसाई स्थान माना और उनके मुताबिक़ वहाँ स्थापित मुस्लिम शासन तथा उसके साथ आए धर्म तथा संस्कृति के तत्व स्पेन की मूल आत्मा के लिए बाहरी और उस पर हमला थे। इस धार्मिक मान्यता को सैन्य शब्दावली में पेश कर इसके लिए राजनीतिक अभियान सुदूर उत्तर के कान्ताब्रिया (Cantabria) प्रांत से शुरू हुआ, जो कभी तेज़ गति से तो कभी आहिस्ते-आहिस्ते दक्षिण की तरफ़ बढ़ता रहा। केंद्रीय मुस्लिम-सत्ता के ह्रास के बाद से इसकी रफ़्तार बढ़ी। जैसे पहले के दौर में तनाव, हिंसा तथा ईसाई-यहूदियों का धार्मिक उत्पीड़न दुर्लभ नहीं था, वहीं इस दौर में यह सब यहूदियों और मुस्लिमों की तरफ़ लक्षित दिखा।
रीकोन्किस्ता का एक अहम पड़ाव 1086 में आया जब तोलेदो का महत्त्वपूर्ण शहर तब इस अभियान के नेता तथा कास्तिय्या प्रांत के राजा 1086 में अल्फोंसो VI (Alfonso VI) के अधीन आया। लेकिन, अल्फोंसो ने विध्वंस की जगह पहले से क़ायम पुस्तकालयों को बचाने का काम किया। यह तथ्य एक बार फिर से इस महत्त्वपूर्ण परिघटना की गवाही देता है कि पहले के अल-आंदालुस और अब ईसाई निज़ाम में धर्मों के बीच टकराव के साथ-साथ संपर्क और संवाद की बहुस्तरीय प्रक्रियाएँ भी चलती रहीं। जहाँ पहले मुस्लिम शासन में मुस्लिम तौर-तरीक़े अपनाए मोसाराबे ईसाई रहे, तो अब ईसाई तौर-तरीक़ों में ढले मुदेखार (mudéjar) मुस्लिम, ईसाई बने मोरिस्को (morisco) मुस्लिम तथा कॉनबेर्सोस (conversos) यानी ईसाई धर्म अपना चुके यहूदी मौजूद रहे। यह भी गौरतलब कि शायद इसी वजह से नए शासक अल्फोंसो VI (Alfonso VI) ने ख़ुद को "दो धर्मों का शासक" कहलवाया (ट्रेमलेट, 2022-48)। उसके बाद आए अल्फोंसो VII (Alfonso VII) ने 1150 में ख़ुद को "तीन धर्मों का शासक" बताया (पिम, 2000-15)।
कोर्दोबा के बाद एक दूसरा महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तर-पूर्व स्थित सारागोसा (Zaragoza) का था। और जब 1118 ई. में यह ईसाई सेना से पराजित हुआ, तब वहाँ का शासक सैफ अल-दवला अपनी बची-खुची ज़मीन नए राजा अल्फोंसो VII को सौंप तोलेदो आ गया था। यही नहीं, उसने बाक़ी की ज़िंदगी अल्फोंसो VII की तरफ़ से दूसरे मुस्लिम शासकों से लड़ते हुए बिताई। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह कि उसके शासन में क़ायम हुए पुस्तकालय की अमूल्य पांडिलिपियाँ भी अब तोलेदो की सांस्कृतिक धरोहर और इनसे निकलते अनुवाद-कर्मों का हिस्सा बन गई थीं।
इस तरह, तोलेदो से चली अनुवाद गतिविधियाँ लगातार बदलती और असमान होती राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य समीकरणों के बीचों-बीच हो रही थीं। यह संक्रमण का वह दौर था जब स्पेन के बड़े हिस्से की राजनीतिक सत्ता निर्णायक रूप से मुस्लिम शासकों के हाथ से निकलकर ईसाई शासकों के पास जा रही थी। लेकिन, ये नए शासक सत्ता और संपत्ति के सभी पदों से हटाने के बावजूद मुस्लिमों और यहूदियों के ख़ात्मे या बेदख़ली की बात अभी नहीं कर थे। यह स्थिति तो दो सदियों के बाद आती है जब अंततः 1492 में यहूदियों को समूचे स्पेन से बेदख़ल करने का शाही फ़रमान जारी होता है तथा ग्रानादा स्थित अंतिम बचा मुस्लिम राज्य ईसाई शासक-द्वय इसाबेल और फर्दीनांद के अधीन लाया जाता है। जैसाकि हम ऊपर देख चुके है,इस संक्रमण काल की गवाही इस बात से मिलती है कि पूर्व में मुस्लिम शासन में रहे बड़े शहरों, राजधानियों, सांस्कृतिक केंद्रों के नए ईसाई शासकों ने ख़ुद को सभी धर्मों का शासक कहलवाना पसंद किया। हमें ऐसे शासकों के उदाहरण भी मिलते हैं, जो लैटिन, अरबी, हिब्रू, स्पेनी आदि सभी भाषाएँ बोलते और बरतते थे।
यहाँ फर्दीनांद III (Ferdinand III, शासन काल 1217-1252) का उदाहरण बड़ा दिलचस्प है। यह वो ईसाई राजा था, जिसके सैन्य अभियानों ने पूर्व के शासन के कई बड़े केंद्रों को नए ईसाई शासन के अधीन लाया था। शुरू के मुस्लिम-राज्य की राजधानी कोर्दोबा 1236 में तो आगे चलकर नया आर्थिक-सांस्कृतिक केंद्र बनने वाला सेविय्या (Sevilla) 1248 में नए निज़ाम में शामिल किया गया। सेविय्या में इस नए राजा के हुक्म पर मुस्लिम शासन के दौर की सबसे बड़ी मस्जिद को एक ईसाई कथीड्रल में तब्दील कर दिया गया। उसने मृत्यु के बाद अपने आख़िरी विश्राम के लिए भी इसे ही चुना, जहाँ आज भी उसकी संगमरमर की क़ब्र कथीड्रल के बीचोबीच देखी जा सकती है। क़ब्र से ज़्यादा दिलचस्प और मानीखेज़, हालाँकि, उसपर लिखी इबारत है जो “एक साथ चार भाषाओं लैटिन, हिब्रू, अरबी और स्पेनी में दर्ज है” (पिम, 2000-15)।
इस तरह उसकी क़ब्र उस पूरे दौर के उथल-पुथल से भरे, विरोधाभासी और बहुस्तरीय धार्मिक-सांस्कृतिक ताने-बाने की सटीक बानगी बन जाती है। एक और उदाहरण सेविय्या स्थित अल्कासार (Alcázar) परिसर है। वहाँ के मुस्लिम शासक को हरा देने के बाद भी फर्दीनांद III ने उस दौर की ख़ास मुस्लिम वास्तुकला या मुदेखार (mudéjar) शैली की इस शानदार इमारत को मुस्लिम कारीगरों की मदद से दोबारा बनवाया, जहाँ अब इस शैली के साथ-साथ रिनेसाँ के दौर की गोथिक शैली का भी अच्छा मिश्रण था[7]।
संक्रमण-काल के ख़ास परिदृश्य में हम यह देख सकते हैं कि नए ईसाई शासक सालों पहले से बनती-बदलती कॉनबिबेंसिया यानी सह-अस्तित्व के कुछ तत्वों को जारी रखते हुए उनपर रिकोंकिस्ता यानी अपनी धार्मिक विजय की स्थापनाओं को भी थोप रहे थे।
यह अनुवाद का भी संक्रमण-काल था,जब ऊपर वर्णित पहले चरण की अनुवाद-गतिविधियों में दूसरी धाराएँ भी दिख रही थीं, जो तेरहवीं सदी के बाद और प्रबल हो अनुवाद के दूसरे चरण की शुरआत करती हैं। इस संक्रमण काल तथा इसके बाद ज़्यादा स्पष्ट दिखने वाले दूसरे चरण में नई राज्य-सत्ता अपने राजनीतिक-धार्मिक लक्ष्यों के लिए अनुवाद का कही ज़्यादा सीधे तौर पर और अधिक सुचिंतित,व्यवस्थित तरीक़े से इस्तेमाल करती दिखती है।
फर्दीनांद III के बाद अल्फोंसो X (Alfonso X) के शासन-काल (1252-1284) में यह सब कुछ और दिलचस्प तरीक़े से दिखता है, जहाँ ख़ासकर अनुवाद एक बार फिर बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका में दिखता है। अल्फोंसो X को उसके उपनाम एल साबियो (el sabio) यानी विद्वान या बुद्धिमान से ज़्यादा जाना गया। वजह यह कि, उसके शासन-काल में नए-नए उभर रहे स्पेनी राज्य को एक सुगठित राज्य में ढालने का काम शुरू किया गया। इसके लिए नए राज्य को चलाने के लिए ज़रूरी क़ानून, उसे एक ऐतिहासिक मान्यता देने के लिए स्पेन का तब तक का इतिहास तथा दूसरे तमाम वो ग्रंथ तैयार कराए गए, जिन्हें आधुनिक राष्ट्र-राज्य की निर्मिति के संदर्भ में होमी भाभा "nation and narration" के युग्म से समझते हैं (भाभा, 1990)। यह बात भी बेहद महत्त्वपूर्ण है कि ये सारे काम तब उभर ही रही[8] स्पेनी भाषा में हुए, जो अब से आगे इस राज्य की आधिकारिक भाषा होनी थी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि नए राज्य की वैधानिक, ऐतिहासिक आधारशिलाएँ रखने वाले ग्रंथ अनुवाद के रास्ते तैयार किए गए। अरबी में उपलब्ध, विषयों की व्यापक विविधता लिए संदर्भों का बाक़ायदा राज्य के प्रोत्साहन, संरक्षण और उसकी संस्थाओं के ज़रिए अनुवाद हुआ।
अपनी ऊपर संदर्भित किताब में एंथनी पिम यह बताते हैं कि यह तमाम काम तब हो रहे थे जब ठीक उसी दौरान अल्फोंसो X विरोधी मुस्लिम शासकों से जंग भी लड़ रहा था (पिम, 2000-24)। पिम बताते हैं कि यह इसी दौरान हुआ कि अल्फोंसो X ने 1254 में सेविय्या शहर में अरबी और लैटिन भाषा एवं साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के लिए एक महत्त्वाकांक्षी संस्था की स्थापना कराई थी (पिम 2000 24)।
दूसरे शब्दों में, अरबी भाषा के ग्रंथ ठीक उसी वक़्त उस राज्य की बौद्धिक मान्यता और उसके बौद्धिक पोषण के लिए इस्तेमाल हो रहे थे, जब वह राज्य इस भाषा को बोलने वाले और हाल-हाल तक शासक रहे समूहों को सत्ता से अपदस्थ कर हाशिए पर धकेल रहा था। यह तथ्य पहले आई बात से जुड़ता है कि तब अनुवाद असमान राजनीतिक-धार्मिक-सैन्य धरातलों पर खड़ी भाषाओं-संस्कृतियों के सत्ता-संबंधों के विरोधाभासों और गैर-बराबरियों की गवाही देता और कहीं-कहीं पुष्ट भी करता है।
उस दौर में सत्ता का एक और बड़ा केंद्र कैथोलिक चर्च था, जो अक्सर ही शासक या शासक-वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा में रहता था। चर्च ने भी उस दौर में हुए अनुवादों के निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाई। तब चर्च का सबसे बड़ा लक्ष्य इस्लाम के ख़िलाफ़ चल रहे राजनीतिक-सैन्य अभियानों को धार्मिक मान्यता देना था। इसके लिए अनुवाद का व्यवस्थित रूप से इस्तेमाल किया गया। यहाँ एक उदाहरण प्रासंगिक हो जाता है। 1142 ई. में जब एक तरफ़ स्पेन के मध्य और दक्षिण में जेरार्ड दे क्रेमोना जैसे लोग विविध विषयों के शानदार अरबी ग्रंथों का उत्साह से लैटिन अनुवाद करने में लगे हुए थे, उत्तर में एक महत्त्वपूर्ण कैथोलिक हस्ती पीटर द वेनेरेबल (Peter de Venerable) क़ुर’आन का लैटिन में अनुवाद करवा रहे थे। उनका घोषित उद्देश्य उनकी नज़र में विधर्मी मुस्लिम लोगों को ईसाई मत में ले आना था। लेकिन, यहाँ यह सवाल उठता है कि इसके लिए ज़्यादा कारगर तो यह होता कि वह बाइबिल का अरबी अनुवाद करवाते। इस स्पष्ट विसंगति का उत्तर एंथनी पिम तब चर्च द्वारा संचालित उस व्यापक अभियान में देखते हैं, जहाँ इस्लाम मत की खामियाँ दिखाने और सिद्ध करने के लिए बड़े पैमाने पर क़ुरआन और संबंधित ग्रंथों का लैटिन में अनुवाद करवाया गया। पिम बताते हैं कि पीटर द वेनेरेबल और चर्च-राज्य सत्ता-केंद्र के दूसरे प्रतिनिधियों के लिए इस्लाम के ख़िलाफ़ तर्कों से भरे लैटिन ग्रंथों से सुसज्जित पुस्तकालय आगे आनी वाली राजनीतिक-सैन्य लड़ाइयों के लिए स्पष्टतः एक युद्ध का सामान थे। अल्फोंसो X के द्वारा स्थापित अरबी और लैटिन अध्ययन संस्थान की स्थापना भी इसी तर्क की परिणति थी। (पिम, 2000-23)।
निष्कर्ष : अनुवाद-सैद्धांतिकी की मौजूदा चर्चाओं में यह बात हमेशा जोर देकर कही जाती रही है कि यह सिर्फ़ तकनीकी मसला न होकर संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान है। यहाँ यह बात भी जोड़ी जाती है कि इसके साथ-साथ अनुवाद संस्कृतियों के अंतर्संघर्षों को भी दर्ज करता है, कई बार न सिर्फ़ उसका परिणाम बल्कि एक महत्त्वपूर्ण कारक भी होता है। इस नज़रिए से देखें तो मध्यकालीन स्पेन का अनुवाद-परिदृश्य ज़रूर असमान रूप से वितरित कारकों से निर्धारित हो रहा था। यह भी ज़ाहिर है कि तब चली अनुवाद-गतिविधियाँ संस्कृतियों, धर्मों के संवाद ही नहीं बल्कि अंतर्संघर्ष की भी गवाह बन उनसे प्रभावित हो रही थीं। अनुवाद की परिस्थितियाँ बनाते ये सारे कारक राज्य-सत्ता के अलग-अलग पायदानों पर खड़े थे और उनके पीछे खड़ी राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य शक्तियाँ एक नहीं बल्कि सत्ता के बदलते समीकरणों के हिसाब से ज़्यादा या कम प्रभावशाली हो रही थीं। जहाँ कुछ सत्ता-केंद्रों से वरीयता पा रही थीं, तो कुछ हाशिए पर डाली जा रही थीं।
इसकी गवाही इस तथ्य से मिलती है कि ऊपर वर्णित दोनों चरणों में अनुवाद-कर्मों की दिशा और प्रकृति इन बदलते सत्ता-समीकरणों से तय होती रही,इन्हें प्रतिध्वनित करती रही। जहाँ पहले चरण में अरबी से दार्शनिक,सांस्कृतिक ज्ञान तथा विमर्श की ग्रंथों का अनुवाद हुआ,तो वहीं दूसरे चरण में अरबी के ज़्यादातर उन्हीं ग्रंथों का अनुवाद हुआ,जो तब की ईसाई राज्य-सत्ता केंद्रों (राज्य तथा चर्च) को सैद्धांतिक,वैमर्शिक मजबूती देने के लिहाज से मुफ़ीद समझे गए। मसलन, अल्फोंसो X के समय क़ानून, खगोलशास्त्र आदि के ग्रंथों का अनुवाद हुआ,जो राज्य के लिए उपयोगी माने गए। यहाँ यह बात भी जोड़नी चाहिए कि कई बार तो यह राजा की व्यक्तिगत ज़रूरत से भी तय हो रहा था। अब इन अरबी मूल ग्रंथों की स्थिति हरा और हाशिए पर डाले दिए गए पूर्व शासकों की भाषा की थी, जिसका नई सत्ता के लिए आवश्यकता-अनुसार इस्तेमाल होना था। यह पहले चरण की स्थिति से अलग था, जहाँ अरबी लैटिन के साथ बराबर का और कहीं-कहीं ज़्यादा रुतबा रखती थी,क्यूंकि तब वह सत्ता में बैठे वर्ग की भाषा थी, पूरे यूरोप के लिए तब प्रचलित हो रहे नए विमर्शों, दर्शनों की कुंजी थी।
इस तरह,मध्यकालीन स्पेन में दिखती अनुवाद-गतिविधियों तथा परिघटनाओं को समझना अनुवाद और ख़ासकर उसकी अंतर्निहित राजनीतिक प्रकृति को लेकर मौजूदा दौर में हमारी समझ को और समृद्ध कर सकता है।
[1] पुर्तगाली-भाषी इलाक़ों को, जिनमें यूरोप में पुर्तगाल, लातीनी अमरीका में ब्राज़ील तथा अफ्रीका के कुछ देश शामिल हैं, इसी वजह से लुसोफोन क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।
[2] तब वह भाषा वहाँ के भौगोलिक केंद्र रहे कास्तिय्या (Castilla) प्रांत से आने की वजह से कास्तेय्यानो कही जाती थी, जो आज भी इस भाषा का दूसरा नाम है।
[3]784 ई. के बाद जब बग़दाद से आया नया शासक अब्द अल-रहमान गद्दीनशीन हुआ और उसने ख़ुद को अमीर की उपाधि दे एक शाही राजवंश का सिलसिला शुरू किया था।
[4] अब वो ख़ुद को ख़लीफ़ा घोषित कर चुका था।
[5] तब यह नस्लवादी मान्यता ख़ूब प्रचलित थी कि अफ्रीका तो दरअसल पिरिनिस (pyrenees) दक्षिण से ही शुरू हो जाता है। ये पहाड़ियाँ फ्रांस के दक्षिण में स्पेन के साथ एक प्राकृतिक सीमा बनाती हैं।
[6] Berber के बाद Almoravid तथा Almohad समूहों के द्वारा।
[7] यह दीगर बात है कि इस इमारत की एक सबसे ख़ास खुली जगह का नाम पातियो दे लास दोंसेय्यास (patio de las doncellas) यानी कुँवारी लड़कियों वाला आँगन रखा गया। यह मुस्लिमों को एक ख़ास अय्याश और बेरहम छवि देने के ईसाई दुष्प्रचार का जायज़ ठहराने जैसा था, जिसमें यह बताया जाता था कि वे ईसाई लड़कियों की मांग कर उन्हें अपनी हवश का शिकार बनाया करते थे।
[8] जिसके पास तब अपना सर्वमान्य व्याकरण भी नहीं था। यह महती काम 1492 में हुआ जब एलिओ अंतोनिओ दे नेबरिखा ने स्पेनी भाषा का पहला व्याकरण तैयार किया, जो किसी भी आधुनिक यूरोपीय भाषा का पहला लिखित व्याकरण ग्रंथ था।
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