दलित साहित्य की चर्चित बहस ‘सहानुभूति या स्वानुभूति’ का साहित्य पर बीते दो दशक में काफी तर्क-वितर्क हुए हैं और निष्कर्ष सरीखा आज भी कुछ कहाँ निकल पाया है। यह चर्चा आज भी जरूरी है। प्रसिद्ध और प्रतिबद्ध लेखक-सम्पादक पंकज बिष्ट के अनुसार “भोगा हुआ यथार्थ नई विचारधारा नहीं है। पहले भी इस तरह का साहित्य रचा गया है। अच्छा साहित्य जो कहीं भी लिखा गया है वह हमारे लिए मान्य हैं। फ्रांसीसी लेखक बांजा, जो सामंती व्यवस्था में रहता है लेकिन जब लिखता है तो सामंती व्यवस्था के खिलाफ ही लिखता है। अगर इस तरह से साहित्य रचा गया तो पायलट ही जहाज के बारे में लिख सकता है, रसोईया ही पकवान के बारे में लिख सकता है, बैलगाड़ी चालक ही बैलगाड़ी के बारे में लिख सकता है। इस तरह साहित्य की रचना नही होती। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे तुलसीराम के अनुसार ‘आत्मकथा’ को छोड़कर कोई भी गैर दलित लेखक, अन्य साहित्यिक विधाओं में दलित जीवन का चित्रण कर सकता है और उसे दलित साहित्य ही माना जाना चाहिए।”[1] इस तरह से प्रो. तुलसीराम कुछ प्रगतिशील रवैया अपनाते हैं। शायद यही कारण है कि तुलसीराम की आत्मकथा के दोनों भाग बाकी दलित आत्मकथाओं के बरक्स ज्यादा चर्चित और स्वीकारे गए।
रचनाकारों ने अपने स्वयं के जीवन को ही आधार बनाकर बेबाकी
से लिखा है। “आत्मकथाओं के केंद्र में लेखक का निजी जीवन होता है, समाज उसके साथ चलता है। इसलिए यथार्थत: आत्मकथा
का तात्पर्य केवल लेखक के निजी जीवन की झाँकी मात्र नहीं है, अपितु वह लेखक के समकालीन सामाजिक
एवं युगीन स्थितियों,
परिस्थितियों व परिवर्तनों का आईना होती है। लेखक उनसे प्रेरित
और प्रभावित होता है तथा वह अपना प्रभाव भी उन पर छोड़ता है।”[2] खासकर दलित साहित्य
के सन्दर्भ में आत्मकथा लेखन के बारे में कहते हैं कि यह समूचे समाज का सामूहिक बयान माना जाए।
समाज है तो समस्याएँ रहेंगी
मगर बेहतर करने की मंशा के साथ सभी वर्ग आगे आएँ तो यह परिदृश्य बदला जा सकता है। आपसी गैर-बराबरी
को कुछ हद समाप्त कर इसे बेहतर किया जा सकता है। आपसी सामंजस्य से प्रत्येक उत्पीड़न
का हल है। आज के समाज में अधिकांश समस्याएँ आपसी गलतबयानी और गलतफहमियों की वजह से भी मौजूद हैं। आपसी संवाद की गुंजाइश लगातार कम हुई है। समाज अक्सर खेमों में बँटा हुआ अनुभव हुआ। शोषक और शोषित के अपने-अपने गणित हैं। समीकरण हैं और परिभाषाएँ हैं। मान्यताएँ हैं। हालात बेहतरी की तरफ बढ़ें, यह सभी की समान रूप से जिम्मेदारी है, तभी एक सशक्त देश का सपना पूरा हो सकेगा।
बजरंग बिहारी तिवारी लिखते हैं कि “आज दलित साहित्य और दलित समुदाय के समक्ष जो चुनौतियाँ
हैं वह भारतीय
समाज की चुनौतियाँ
भी हैं। भारत का लोकतंत्र मजबूत रहे तो इन समस्याओं से पार पाया जा सकता है। जब संविधान पर, संवैधानिक संस्थाओं पर, परम्पराओं पर संकट के बादल गहराते जा रहे हों तो लोकतंत्र, दलित समुदाय, दलितेतर समुदाय संकट की जड़ से बाहर नहीं हो सकते। डॉ. अम्बेडकर ने जिस समतामूलक न्याय आधारित समाज का सपना देखा था और उस सपने को पूरा करने की मुहीम आरम्भ की थी उसे संगठित करके नई ताकत से आगे बढ़ाने की जरूरत है। शिक्षा और चिकित्सा सेवाओं का निजीकरण अंतत: वंचित तबके पर कहर बनकर टूटेगा। अभी यह प्रक्रिया घटित होती दिख रही है।”[3]असल में हमें विभिन्न समकालीन
समस्याओं के हल खोजते समय अम्बेडकर के आलोक में सोचना और समझना ही होगा तभी समतामूलक
समाज का निर्माण
पूरा हो सकेगा।
दलित साहित्य के लिए मिलने वाली वैचारिक खुराक के स्रोत पर प्रो. मैनेजर पांडेय कहते हैं कि “यह बहुत दु:खद है कि अछूतानंद के बारे में, उनके लेखन और विचारों के बारे में लोग बहुत अधिक नहीं जानते हैं। हाल ही के दिनों में उन पर कुछ दलित लेखकों ने लिखा और उनके महत्त्व को सामने लाने की कोशिश की है, बहुत पहले चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने अछूतानंद के जीवन और रचनात्मक तथा आंदोलनात्मक प्रयत्नों पर एक पुस्तक लिखी थी जिसको अब दलित लेखक याद करने लगे हैं। हिंदी के दलित साहित्य के उभार के विलंब का कारण इस क्षेत्र में फुले या अम्बेडकर जैसे किसी विचारक का न होना ही है।”[4]इस तरह प्रो. मैनेजर पांडेय
तयशुदा मानकों
से कुछ भिन्न राय रखते हैं और अपने तर्क देकर दलित साहित्य
को दिशा भी देते रहे हैं। यहाँ डॉ. अर्चना वर्मा का मानना है कि “दलित लेखन सिर्फ एक वर्गीकरण है, आरक्षण सरीखा विशेषाधिकार नहीं। जीवन हर लेखक के सामने समूचा खुला पड़ा है, वह कहीं से भी अपनी विषयवस्तु उठा सकता है, किसी विशेष वर्गीकरण में रखा जाए अथवा नहीं। प्रेमचंद, निराला, राहुल सांकृत्यायन आदि जिनका नाम आपने लिया है वे अपने समाज से बेहद नजदीक से जुड़े हुए लोग थे। ठाकुर का कुआँ, सद्गति, चतुरी चमार, जैसी रचनाओं में अनुभूति की प्रामाणिकता में संदेह का कोई कारण मुझे तो नहीं दिखता।”[5] तो हिंदी साहित्य के आलोचना जगत में दलित साहित्य को लेकर दो तरह की राय लिखी-पढ़ी जाती है।
सामाजिक कार्यकर्ता
भँवर मेघवंशी राजस्थान
में दलित आन्दोलन
पर एक आलेख में लिखते हैं कि “सन 2000 के बाद कई प्रकार की गतिविधियाँ हुईं, पश्चिमी राजस्थान
में छुआछूत व भेदभाव को लेकर ‘उन्नति’ नामक संस्था ने एक व्यवस्थित अध्ययन
किया, इसी प्रकार
से ‘एक्शन एड’ नामक फंडिंग एजेंसी
ने अनटचेबिलिटी इन इंडिया नामक व्यापक शोध किया, जिससे जाहिर हुआ कि राजस्थान
में बहुत सारे रूपों में अन्याय,
अत्याचार, उत्पीड़न,
भेदभाव व शोषण मौजूद है। मसलन सार्वजनिक स्थानों
पर पानी नही लेने देना, मंदिरों
में नहीं घुसने देना, हेयर कट नहीं करना, दूल्हा
दुल्हनों को घोड़ी पर नहीं बैठने देना, अच्छे कपड़े और आभूषण नहीं पहनने देना, साईकल पर बैठकर गैर दलित रिहाइशों
से नहीं निकलने
देना, यहाँ तक कि अपने बच्चों
के सुंदर नाम नहीं रखने देना जैसे कई तौर तरीके सामाजिक जीवन का हिस्सा बने हुए थे और आज भी हैं। अब उत्पीड़न और सघन हो गया है, वह अपने क्रूरतम स्वरूप
में दिख रहा है।”[6]
रमणिका गुप्ता ने सक्रिय दलित लेखक शरण कुमार लिंबाले के बारे में लिखा कि “दलित चेतना के विकास का जीता-जागता उदाहरण स्वयं लिंबाले हैं। उनका साहित्य दलित सोच का विकास है। वे केवल आत्मकथा लेखक नहीं एक इतिहासज्ञ एवं एक दलित चिन्तक भी हैं। उन्होंने अपने जीवन के विकास के साथ-साथ दलित चेतना और उसके साहित्य को विकसित होते देखा है, महसूसा है, या यूँ कहूँ उन्होंने इस विकास को जिया है।”[7]
पिछड़े समाज से सम्बद्ध तेजपाल
सिंह धामा द्वारा
दलित पात्र के साथ भेदभाव का एक वाकया इस तरह है जो धामा की आत्मकथा
अग्निचक्र में है। लेखक बताता है कि “मैं गाँव के प्राइमरी स्कूल के कक्षा तीन का छात्र था। मेरा सबसे प्रिय सहपाठी गुरुवचन था। एक दिन यह मेरे साथ मेरे घर चला गया। माँ ने मेरे साथ उसको भी खाना खिला दिया। मेरे दादाजी ने मेरे मित्र से पूछा- तुम किसके बेटे हो? मेरे मित्र ने सहज भाव हाथ जोड़कर जवाब दिया- बाबा मैं तो चमार का हूँ। फिर क्या था? मेरे दादाजी तो मुझ पर बरस पड़े- म्लेच्छ चमारों से यारी करता है। जिस कटोरे में मेरे मित्र ने साग खाया था, दादाजी ने वह उठाकर सड़क पर फैंक दिया।”[8]
संभवतया इस तरह का भेदभाव
अब नहीं होता होगा मगर यह सच है कि अब भी समाज के मानस में इस तरह के भेद की जड़ें बहुत गहरे में हैं। हाँ, नई पीढ़ी जो ग्रामीण
परिवेश से बाहर आ शहरों में बसने लगी है या काम धंधों के कारण शहर आ गयी वहाँ जरूर छुआछूत
कुछ कम है। परेशानी एक नहीं है, दलित समाज में बहुतेरी मुश्किलें हैं जिनका जिक्र गाहे-बगाहे दलित आत्मकथाओं में आया हैं। “एक औरत कहाँ-कहाँ लड़े ? घर में भोजन के लिए, स्कूल में समानता और अस्तित्व के लिए एवं बस्ती में समाज बिरादरी में अपने को स्थापित करने के लिए। कितना संघर्ष कितनी तकलीफें हैं? नारी जीवन में। ऐसा लग रहा था कि शादी के बाद कौसल्या जी के जीवन में खुशहाली आएगी और आमों पर मंजरियाँ लगेगी। पर जीवन साथी के सारे रंग एक के बाद एक दिखाई देने लगे। ऐसा नहीं कि नारी को जन्म से शादी तक के जीवन में ही तपती रेत में पॉपकोर्न की तरह उछलना पड़ता है, वह तो मृत्युपर्यंत अपने नारीपन का कर्ज घर, परिवार व समाज को साँस दर साँस चुकाती रहती है। शूद्र और उस पर भी लड़की होने के दंश को पल-पल भोगते कौसल्या जी ने अनेक-अनेक उम्मीदों और सपनों के साथ देवेन्द्र कुमार से विवाह किया। वे लिखती हैं कि उसने मेरी इच्छा, भावना और खुशी की कभी कद्र नहीं की। बात-बात पर गाली, वह भी गन्दी-गन्दी और हाथ उठाना। मारता भी था बहुत क्रूर तरीके से। जैसे-जैसे हाथों की मेहंदी का रंग उतरता गया वैसे-वैसे देवेन्द्र कुमार के सारे रंग दिखाई देने लगे। पति कभी घर की समस्या या अन्य किसी बात पर कौसल्या जी से अधिक वार्तालाप नहीं करता है।”[9] कैसा भयावह दृश्य है। जीवन दूभर है। यह भी हमारे समय का सच है। इसे ही कहते हैं शिकंजे का दर्द। जन्म से लेकर पढ़ने-लिखने की जिद के चलते दर्जनों समस्याओं
से मुकाबला करती सुशीला टाकभौरे
ने पूरे हौसले के साथ अपने जीवन-संघर्ष को पार किया है।
असल में जब हम दलित साहित्य
के चुनिन्दा आत्मकथा
पढ़ेंगे तो पाएँगे कि जिस तरह का समाज हमने रचा या समाज में एक वर्ग विशेष के साथ जैसा बर्ताव किया गया, आज समूची मानवता को शर्मसार करता है। कारण चाहे जो भी हों। भले सत्ता का संघर्ष हो या वर्चस्व की लड़ाई, स्थिति बड़ी चिंतनीय रही है। जो घटित हुई वही लिखा गया या उसके आसपास का सत्य उकेरा गया है। सच से हम मुँह नहीं फेर सकते हैं। आत्मकथाओं में वर्णित समाज की हकीकत हमें अपनी जीवन शैली पर पुनर्विचार करने और मानवीय व्यवहार पर कुछ रुककर चिंतन करने के लिए बाध्य करती है। “हिंदी की दलित आत्मकथाओं ने अपने उत्पीड़न की मर्मान्तक पीड़ा से साहित्य के पाठक को अवगत कराया है। अपने अपने पिंजरे से लेकर मणिकर्णिका और गेबरहा तक दलित आत्मकथा लेखन ने लम्बी यात्रा तय की है। उल्लेखनीय है कि भदेसपन के आरोपों का सुर मणिकर्णिका तक आकर बदल गया है। स्वयं इन आत्मकथाओं का भी आक्रोश प्रतिशोधपूर्ण आक्रामक स्वर आगे चलकर गंभीर और निष्पक्ष हुआ है। यह दलित आत्मकथा का स्पष्ट विकास दर्शाता है। इन आत्मकथाओं ने दलित जीवन की मूलभूत समस्याओं को भलीभाँति उजागर किया है। उत्पीड़न, शोषण, गरीबी, अशिक्षा, जातिभेद, अस्पृश्यता, अंधविश्वास, कुप्रथा, पिछड़ापन, अज्ञानता, आतंरिक जातिवाद आदि ऐसी प्रमुख समस्याएँ हैं जो हमें लगभग सभी आत्मकथाओं में समान रूप से दिखायी देती हैं। ये आत्मकथाएँ सामाजिक विषमता, विसंगति के साथ व्यक्ति की उत्कट जिजीविषा को भी सामने लाती है।”[10]इन्हीं सब दृष्टिकोणों से बाकी साहित्य से दलित साहित्य कुछ जुदा अनुभव होता है।
जीवनभर दलित लेखक-आलोचक होने के साथ पत्रकारिता में इस वंचित वर्ग की पीड़ा को स्वर देने वाले मोहनदास नैमिशराय लिखते हैं कि “दलित लेखक को लेकर ये सारे प्रश्न, आरोप, आशंकाए और सद्भावनाएँ अनेक बार उठेंगी और रामचंद्र शुक्ल से लेकर रवींद्र वर्मा तक इस ‘फूहड़’ और अधकचरे को खारिज करने के तर्क तलाश करेंगे। पता नहीं, इसके पीछे कुरूप और कुरुचिपूर्ण को न देख पाने की जुगुप्सा है, अपने ही बीच इस दुनियाँ के बने रहने का अपराधबोध है या उनके होने के बचे रहने की साहसहीनता। कुछ भी कहें, दलित आत्मकथाओं ने सवर्ण समाज के ठहरे हुए पानी को हिला जरूर दिया। भविष्य में और भी आत्मकथाएँ आएँगी जो सवर्ण और सनातनी समाज को और भी जोरदार ढंग से झकझोरेंगी। यही दलित आत्मकथाओं की उपलब्धियाँ होंगी।”[11]
भारतीय परिवेश
में जाति एक बहुत जरूरी संप्रत्यय
है जिसके बहुत गंभीर और खास मायने हैं। “अपने
अपने पिंजरे इस रीति-नीति से थोड़ी सी हटी हुई आत्मकथा है। दरअसल यह एक प्राचीन समाज की एक ऐसी जाति की कथा है जिसमें व्यक्तिगत अनुभव को जातीय अनुभव से अलग करके पढ़ना एक निरर्थक पाठकीय प्रयास हो सकता है। वहाँ व्यक्ति की मात्र इतनी पहचान है कि वह इन अनुभवों को लिपिबद्ध करने वाला एक व्यक्ति है। इसलिए मराठी के विख्यात दलित कथाकार बाबुराव बागुल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि मेरा साहित्य मेरे समय का साहित्य है। मैं जब पढ़ने लगा तब शम्बूक की कथा, एकलव्य की कथा मेरे कानों में पड़ी और बालपन में मेरे मन पर इन कथाओं का एक प्रभाव पड़ चुका था। इसी आधार पर मेरी आगे की मानसिकता तैयार हुई। मेरा आगे का लेखन इसी मानसिकता का परिणाम है। आत्मकथाओं में समूचा इतिहास आता है, संघर्ष आता है और आते हैं दहकते हुए अनुभव। जैसे लोहा भट्टी में जाने के बाद कुछ बनता है, ऐसे ही दलित कथाकार समाज में तैयार होता है।”[12] लेखक की शब्दावली में ही उनके जीवन के कड़वे अनुभवों
का ताप महसूस कर सकते हैं। यह सबाल्टर्न थ्योरी
का एक संकेतभर
है।
यह भी एक बड़ा सत्य है कि आत्मकथा साहित्य
का पर्याप्त विकास होने के बावजूद
साहित्य की दुनियाँ में इस विधा को बहुत अधिक महत्त्व
प्राप्त नहीं हुआ। इसी सन्दर्भ में दलित आत्मकथाओं का विकास एक बड़े परिवर्तन का संकेत है। हालाँकि आदिकाल से ही दलित चेतना के तत्त्व मौजूद रहे मगर असल में इसकी वैचारिकी अम्बेडकर के प्रभाव से ही फली फुली। एक हजार वर्ष के हिंदी साहित्य में आधुनिक काल तक आते-आते ही दलित साहित्य को लेकर हालात कुछ उनके पक्ष के बन पड़े। यही यथार्थ था जिससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता था।
दलित आत्मकथाओं में छिपी कई परतें हैं। समाज का एक दूजा पक्ष भी है जिसका जिक्र लाजमी है। “भूख, गरीबी, भेदभाव, अशिक्षा, पिछड़ापन, अंधविश्वास, शोषण, उत्पीड़न, कुरीतियाँ, झाड़-फूँक आदि जादू-टोना ग्रामीण समाज का वह स्याह पक्ष है, जो अधिकांश दलित आत्मकथाओं में वर्णित है किन्तु इसी ग्राम्य भूमि के लोकधर्मी सांस्कृतिक स्वर भी हैं, जिसकी हिंदी की प्रारम्भिक आत्मकथाएँ अधिक चर्चा नहीं करतीं। दलित लेखन ग्रामीण जगत के नकारात्मक पक्ष को अनेकविध उजागर करता रहा, जो जरूरी भी था, किन्तु इस लोक जीवन में रचे बसे कई जीवंत सांस्कृतिक तत्त्व थे जिसने सदियों के उत्पीड़न को लोक संस्कारों द्वारा उबरने की जीवट शक्ति दी। हिंदी की आरंभिक दलित आत्मकथाओं में इसके संकेतभर आने के बाद डॉ. तुलसीराम कृत मुर्दहिया ने लोक संस्कृति, लोक पात्रों, लोकभाषा, लोकोक्तियों, गीत, नृत्य, कोहबर कला के साथ मनुष्य के जीवंत सबंधों को व्यापक रूप से दिखाया। निश्चित ही दलित अपनी पीड़ा और संघर्ष का विरेचन इन लोक माध्यमों से ही करते रहे होंगे।”[13]
मराठी साहित्य का जूठन के लेखन में असर के बारे में प्रश्न का जवाब देते हुए प्रसिद्ध दलित कवि-कहानीकार और आलोचक ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि “नहीं ऐसा नहीं है। चीज़ों को समझने की तकनीक इन लोगों से सीखी है। दया पवार से, लिंबाले से, प्रेमचंद से, गोर्की से, चेखव से, जेम्स वाल्डविन से, आज भी मुझे रिचर्ड राइट प्रभावित करता है, दूसरा कोई नहीं। अपनी बात को कैसे कहें छोटे-छोटे वाक्यों में। रिचर्ड राइट का भी वही कमाल है, वाक्य होते हैं, लेकिन छोटे-छोटे होते हैं। यह जानने की जरूरत है कि भाषा को प्रभावशाली कैसे बनाया जाता है और उसका प्रस्तुतीकरण कैसे करना होता है। वही रचना को मजबूत बनाता है। मुझे लगता है कि जूठन में मैंने सहज रूप में यह इस्तेमाल किया है। छोटे-छोटे वाक्य हैं, ज्यादा लम्बे वाक्य नहीं हैं और भाषा प्रभावशाली है।”[14] तो यहाँ दलित साहित्य में भाषा और शिल्प सहित इसके सौन्दर्यशास्त्र को लेकर वक्त-बेवक्त चली बहस को एक जवाब यह भी है। सारे दलित लेखकों को एक सरीखा मानकर घेरना या खारिज करना भी उचित नहीं है।
यह हमारे पर है कि दलित आत्मकथाओं में आया सत्य हम किस तरह से लेते हैं। इतने बड़े स्तर और लगातार सभी प्रदेशों में विभिन्न भाषाओं में उभर रहा यह दलित साहित्य गंभीरता से समझने और विमर्श का विषय है। खासकर हिंदी की दलित आत्मकथाओं में स्त्री और पुरुष दोनों ने ही साहसपूर्वक बयान दर्ज किया है। बहुत बेबाकी से बयान दर्ज किए गए हैं, इन्हें पूरे समाज का सत्य या सामूहिक बयान माना जाना चाहिए। “दलित आत्मकथाएँ केवल व्यक्तिगत जीवन की एक त्रासदीभर
नहीं हैं, ये सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश
की क्रूरता पर प्रश्न चिह्न हैं। अभिजात्य या कुलीन मानसिकता द्वारा उत्पन्न अमानवीय परिस्थितियों का आख्यान हैं तथा उसकी क्रूर निष्ठुर हो चुकी संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयत्न हैं। यह राजनीतिक शक्तियों को दिया जाने वाला मानवीय एजेंडा है, तो साथ ही साहित्य की कलात्मकता में दलित के प्रति सोई हुई संवेदनशीलता को जगाने का प्रयास भी है। वास्तव में दलित चिंतन पर लगने वाले आरोपों-प्रत्यारोपों के विरुद्ध आत्मकथाओं में वर्णित अमानवीय स्थितियों में शक्ति का संघर्ष उजागर है, जिसे केवल आक्रोश, रोना कल्पनाभर मान लेना भारी गलती होगी।”[15] उपर्युक्त वर्णन को संकेत कहें या उलाहना, समझ से बाहर है। गैर दलित समाज और साहित्य के अन्य खेमों को दलित साहित्य को लेकर फिर से सोचना चाहिए। दलित आलोचकों की अपील है कि अपनी बनी हुई राय पर पुनर्विचार
की जरूरत है।
यह भी समझना बहुत आवश्यक है कि वे कौनसे मूल्य हैं? जिन्हें
केंद्र में रखकर यह समूचा दलित साहित्य लिखा गया है। वे कौनसे विचारक हैं? जिनके प्रभाव में यह लेखन अपनी वैचारिक खुराक प्राप्त करता रहा है। किसी भी देश के संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना उस देश के सभी नागरिकों का कानूनी दायित्व होता है। अब अगर आजाद भारत में भी दलित वर्ग के साथ किसी भी तरह का भेदभाव और अन्याय कायम है तो समाज के प्रत्येक वर्ग और जागरूक नागरिक की सामूहिक जिम्मेदारी है कि संविधान बचा रहे। न्याय कायम रहे। सभी को सम्मान से जीने का अधिकार मिले। “लम्बे समय तक साहित्य कुछ स्थापित विषयों
पर ही लिखा जाता रहा है। दलित साहित्य सामाजिक आन्दोलन का परिणाम है इधर उसका समाजशास्त्रीय अध्ययन एक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप है। दलित साहित्य का आधार ही दलित की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति है इसलिए मोहनदास नैमिशराय का यह विचार उल्लेखनीय है कि यह हमेशा ध्यान में रखना होगा कि दलित साहित्य का सौन्दर्य विचार अम्बेडकर सोच का प्रतिफल है और दलित साहित्य का सौन्दर्य मूल्य सामाजिक मूल्य है इसलिए वे समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व के विचार को दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र कहे जाने पर सहमति देते हैं। यह विचार अंबेडकर-दर्शन का मूल है।”[16] अम्बेडकर के बगैर दलित विमर्श की कल्पना असंभव है।
खैर दूजी तरफ मोहनदास नैमिशराय
के इस वर्णन में सामाजिक परिदृश्य
को समझने में सहायता मिलेगी
जहाँ वह लिखते हैं कि “पहले शादी-ब्याह होने इतने आसान न थे। कई-कई महीने तक बिचौलिया
लड़के वालों के परिवार से लेकर लड़की के घर तक के चक्कर लगाया करता था। दोनों के बीच जमती तो मामला आगे बढ़ता। फिर पंडित जी, जन्मपत्री और न जाने किस-किस चक्कर में नहीं भागना-दौड़ना पड़ता था। पंडित जब तक शुभ मुहूर्त नहीं निकाल देता था तब तक रिश्ते
की गाँठ नहीं बंधती थी। शादी से पहले घेर या रोक, फिर सगाई या मँगनी, बाद में ब्याह (शादी) और फिर गौना, इन सब प्रक्रिया से गुजरना होता था। इस तरह घेर से लेकर गौने तक का समय कम से कम दस वर्ष का होता था। आज की तरह नहीं कि चट मँगनी पट शादी।”[17] दलित समाज की अपनी परम्पराएँ और उनके अपने समीकरण
हैं।
एक से बढ़कर एक वर्णन इन आत्मकथाओं में भरे पड़े हैं। ब्योरे हैं और यथार्थ की तरह पेश आते हैं। डॉ. रमाशंकर
आर्य की आत्मकथा
घुटन के सन्दर्भ में जानने योग्य बात यह है कि “दलित लेखन पर एक आरोप लगता रहा है कि वह अपनी बात कह चुका तथा दलित आत्मकथाएँ लगभग एक ही धरातल पर समान समस्याओं
को रेखांकित करती हैं, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाली ये रचनाएँ दर्शाती हैं कि जातिगत भेदभाव प्रत्येक क्षेत्र में मौजूद है। वह गाँव में है तो शहर में भी, निरक्षर में है तो उच्च शिक्षितों में भी, वह विचार में है तो व्यवहार में भी। दरअसल गुण-कर्म की अपेक्षा जन्म-आधारित जाति आज भी समाज में पहचान निर्धारित कर रही है। इस यंत्रणा को इस तरह भी समझा जा सकता है कि जब एक सामान्य व्यक्ति तक अपनी जन्मभूमि की ओर बार-बार लौटना चाहता है, उस मिट्टी का स्पर्श करना चाहता है, तब डॉ. रमाशंकर आर्य कहते हैं, गाँव ने मुझे नहीं छोड़ा है, मैंने ही अपने गाँव को छोड़ दिया है।”[18] यहाँ समूचे भारतीय समाज को सोचना चाहिए कि ऐसी क्या परिस्थितियाँ थीं जिनके कारण डॉ. रमाशंकर को अपना गाँव छोड़ना ही पड़ा?
वर्ष 2019 में भँवर मेघवंशी की आत्मकथा मैं एक कार सेवक था प्रकाशित हुई, जिसकी समीक्षा करते हुए डॉ. राजेश चौधरी ने लिखा है कि “हिन्दी पट्टी में दलित आत्मकथा-लेखन महाराष्ट्र की तुलना में देर से शुरू हुआ और अब भी संख्यात्मक दृष्टि से कम है। भँवर मेघवंशी का आत्मकथा पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है, जो कि इस अभाव की एक हद तक पूर्ति करता है। इसे लेखक का सम्पूर्ण आत्मकथा कहने के बजाय एक अंश कहना ज्यादा ठीक होगा; क्योंकि इसमें उनकी छठी कक्षा से लेकर 2013 तक के जीवनानुभव हैं। 2013 के बाद एक लम्बी पारी वे और खेलेंगे; उसके दस्तावेजीकरण की प्रतीक्षा हमें रहेगी। ‘मैं एक कारसेवक था’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लेखक के जुड़ाव, संघ के जाति आधारित दुराव परिणामत: भँवर का उससे अलगाव, तदनंतर भटकाव और अंतत: एक उचित निश्चय पर ठहराव (टिकाव) को समेटे हुए है। साथ ही इसमें मौजूदा दौर के दलित प्रश्नों, सांप्रदायिकता, राजनीति, धार्मिक पाखंड पर भी तीखी एवं प्रामाणिक टिप्पणियाँ हैं।”[19]तो इस तरह से भँवर मेघवंशी का यह लेखकीय दखल हिंदी साहित्य में एक अलग तरह की बहस पैदा करता है। कुल जमा दलित साहित्य में बहसतलब ज्यादा है क्योंकि वह हमारी आँखें खोलने वाला सत्य ज्यादा और साहित्य को मनोरंजन मानने वाली परिभाषाओं को तोड़ता हुआ काम है। दलित साहित्य में अन्य विधाओं के बरक्स आत्मकथाओं पर जितना काम हुआ है वह मानीखेज है। कई दलित लेखकों से मेल-मुलाकात के बाद जाना कि बहुत लंबा रास्ता तय करके आज वे इस तरह के मुकाम पर पहुँचे हैं। आज सुशीला टाकभौरे जी कॉलेज शिक्षा में प्रोफेसर पद से रिटायर्ड हुईं तो इधर दिल्ली विश्वविद्यालय में लम्बे संघर्ष के बाद हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन पदस्थापित हुए हैं। रत्नकुमार साम्भरिया जनसम्पर्क विभाग में उच्च पदस्थ रहे हैं। कई उदाहरण हैं। लक्ष्मण गायकवाड़ आज प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते हैं मगर उनका संघर्ष आज भी कम नहीं हुआ है।
निष्कर्ष : अभी तक प्रकाशित भारतीय हिंदी दलित साहित्य में आत्मकथाओं का बहुत सशक्त हस्तक्षेप रहा है। यहाँ प्रस्तुत कुछ विवरण बानगी मात्र हैं। पाठक के मानस पर बहुत गहरा असर डालने वाले ऐसे चित्रण भोगे हुए यथार्थ और ओढ़े हुए यथार्थ की बहस को ही बेमानी कर देते हैं। मनुष्य का विराट संघर्ष व्यवस्था और व्यवस्थापक दोनों को निरुत्तर करता प्रतीत होता है।
[1] अमरेन्द्र कुमार आर्य : ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति के आइने में साहित्य’, अपनी माटी (अंक 19 दलित-आदिवासी विशेषांक), सितम्बर-नवम्बर, 2015, http://www.apnimaati.com/2015/09/blog-post_47.html
[2] मोहनदास नैमिशराय : हिंदी दलित साहित्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पेपरबैक 2018, पृ. 181
[3] बजरंग बिहारी तिवारी : ‘यह विशेषांक’, कथादेश (दलित साहित्य विशेषांक), सितम्बर 2019, पृ. 5
[4] मैनेजर पाण्डेय : ‘दलित साहित्य हिंदी साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहा है’, हंस सत्ता-विमर्श और दलित विशेषांक (सं. श्यौराज सिंह बेचैन), अगस्त, 2004, पृ. 200
[5] अर्चना वर्मा : ‘दलित साहित्य हिंदी साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहा है’, हंस सत्ता-विमर्श और दलित विशेषांक (सं. श्यौराज सिंह बेचैन), अगस्त, 2004, पृ. 209
[6] भँवर मेघवंशी : ‘राजस्थान : दलित अत्याचारों का सामंती किला!’, हंस (दलित विशेषांक-द्वितीय सोपान), दिसम्बर, 2019, पृ. 63
[7] शरणकुमार लिम्बाले : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र (मराठी से अनुवाद : रमणिका गुप्ता),वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ. 9
[8] मोहनदास नैमिशराय : हिंदी दलित साहित्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पेपरबैक 2018, पृ. 182
[9] प्रभु लाल वर्मा : हिंदी में महिला आत्मकथाकारों का आत्मकथा लेखन, ज्ञान प्रकाशन, कानपुर, 2017, पृ. 93
[10] पुनीता जैन : हिंदी दलित आत्मकथाएँ, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 31
[11] मोहनदास नैमिशराय : हिंदी दलित साहित्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पेपरबैक 2018, पृ. 213
[12] वही, पृ. 178
[13] पुनीता जैन : हिंदी दलित आत्मकथाएँ,सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 33
[14] ओमप्रकाश वाल्मीकि : अंतिम संवाद (भँवरलाल मीणा), बनास जन (सं. पल्लव), अप्रैल, 2014, पृ. 12
[15] पुनीता जैन : हिंदी दलित आत्मकथाएँ, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 37
[16] वही, पृ. 45
[17] मोहनदास नैमिशराय :अपने-अपने पिंजरे (भाग-दो), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2013, पृ. 18
[18] पुनीता जैन : हिंदी दलित आत्मकथाएँ, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 211
[19] राजेश चौधरी : ‘दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबाँ और’, इकरा(पाक्षिक), 25 दिसम्बर 2019, पृ. 6
दलित साहित्य पर महत्वपूर्ण आलेख। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ 🌼
जवाब देंहटाएंवाह....शानदार आलेख 👌💐
जवाब देंहटाएंशोधपत्र की भाषा में भी ऐसा बहाव लाया जा सकता है , यह इस आलेख को पढ़कर जाना। आलेख शोधपरक, परिचयात्मक और पाठक से संवादोन्मुख है।
जवाब देंहटाएंसार्थक और महत्त्वपूर्ण आलेख। सहज और प्रवाहमयी भाषा।हार्दिक बधाई
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