आज हम अपने बचपन के उस घर में गए, जहां हमारा बचपन पुष्पित और पल्लवित हुआ था। उस घर की दरो-दीवार को निहारते-निहारते और बचपन की उन मधुर स्मृतियों में मुग्ध सी चली जा रही थी कि सहसा मैं लड़खड़ा कर गिरने लगी, किसी तरह खुद को संभालकर अपने को गिरने से बचा लिया और नीचे जमीन पर देखने लगी कि आखिर मैं किस चीज से टकराकर गिरने लगी, तो मैंने देखा कि वहां जमीन पर कोई और नहीं बल्कि दरवाजे की ड्योढ़ी थी वही ड्योढ़ी जो कि पहले के भारतीय घरों के वास्तु का प्रमुख हिस्सा हुआ करती थी। किंतु प्रश्न यह है कि आज मैं कैसे टकरा गई? मुझे क्यों याद नहीं रहा इस ड्योढ़ी की? इसका कारण क्या था? पहले हम अपने घर या किसी के घर भी जाया करते तो इस ड्योढ़ी का सम्मान अवश्य करते थे और इसको बड़े सावधानी से लांगते थे, इसलिए कभी भी गिरते या लड़खड़ाते नहीं थे, किंतु आज का लड़खड़ाना केवल मेरा लड़खड़ाना नहीं है, बल्कि यह तो इस आधुनिक समाज का लड़खड़ाना भी है, जहां के आधुनिक घरों से ड्योढ़ियाँ विलुप्त सी हो गई है। इसलिए आज मैं इसका सम्मान नहीं कर सकी अर्थात् सावधानी नहीं बरत सकी और गिरने लगी।
भारतीय समाज में ड्योढ़ी का अपना महत्व है। प्राचीन काल से ही दरवाजे की ड्योढ़ी जिसे उर्दू में दहलीज कहते हैं, भारतीय भवन के वास्तुशास्त्र का प्रमुख हिस्सा रही है, शायद ही कोई घर या मकान बिना ड्योढ़ी के बनाए जाते थे। आज की पीढ़ी तो शायद ही इसके नाम से भी परिचित हो। ड्योढ़ी वास्तव में दरवाजे का चौखट होता है या वह थोड़ा ऊंचा स्थान जिसे लांघकर घर के अंदर प्रवेश किया जाता है। पहले दरवाजे का चौखट दरवाजे के चारों ओर होता था और इसी चौखट के नीचे वाला भाग जो जमीन से सटा हुआ होता था, उसी को ड्योढ़ी कहते थे। चौखट की ड्योढ़ी केवल चौखट नहीं था, जिसे लोग पार करके घर के अंदर प्रवेश करते थे बल्कि यह ड्योढ़ी घर के मान, मर्यादा और संस्कार का भी प्रतीक था।
आज के आधुनिक शहरी घरों, फ्लैटों, बंगलो से यह ड्योढ़ी विलुप्त सी हो गई है, इन घरों से चौखट के निचले जमीन से इस सटे हिस्से को अलग कर दिया गया है क्योंकि इन घरों में ड्योढ़ी को आधुनिकता की राह में बाधक समझा जाने लगा है अर्थात् आज के आधुनिक घरों के चौखट में चार की जगह केवल तीन भाग ही होते हैं। विडंबना देखिए कि आधुनिक घरों से ड्योढ़ी लुप्त क्या हुई उसके साथ ही मान, मर्यादा, संस्कार भी अब धीरे-धीरे विलुप्त होने की कगार पर आ गए हैं क्योंकि अब इन्हें भी आधुनिकता की राह में बाधक समझा जाने लगा है। वह दिन दूर नहीं जब मान मर्यादा और संस्कार किताबों तक ही सीमित रह जाएंगे और मानव के व्यावहारिक जीवन से विलुप्त हो जाएंगे। आधुनिक समाज में संयुक्त मर्यादित परिवार का स्थान अब एकल परिवार ने ले लिया है, जहां न कोई मान होती है और ना ही मर्यादा का संस्कार देने वाले बड़े बुजुर्ग ही। यह परिवार खुद अपनी जमीन से कटे हुए होते हैं और दरवाजे की इस ड्योढ़ी को आधुनिकता में बाधक समझते हैं।
मर्यादा की ड्योढ़ी, मान की ड्योढ़ी, संस्कार की ड्योढ़ी जब से आधुनिक घरों से विलुप्त हुई है, या यूं कहें कि उसने जब से अपना अस्तित्व खोया है, तब से हमारे घर मकान में परिवर्तित हो गये हैं। ड्योढ़ी के साथ-साथ ये घर भी समाज से विलुप्तप्राय होकर अब अपने अस्तित्व के लिए मानो संघर्ष कर रहे हैं।
स्वच्छंदता ने नयी पीढ़ी को अपने नशे में इतना मदमस्त कर दिया है कि उन्हें मान, मर्यादा, संस्कार आदि शब्द खोखले और चोंचलें प्रतीत होने लगे हैं। वह अपनी स्वच्छंदता के सम्मुख किसी का भी अस्तित्व जैसे स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं। कुछ सभ्य और संभ्रांत परिवार यदि इस परंपरा को सँजोये रहना चाहते हैं, तो उन्हें रूढ़िवादी और आधुनिकता विरोधी कहकर उपेक्षित किया जाता हैं।
सच कहें तो इस स्वतंत्रता ने अब धीरे-धीरे नग्नता का रूप धारणकर लिया है। नग्नता तो उस आदिम संस्कृति की प्रतीक है, जहां मानव के पास विभिन्न प्रकार के संसाधनों का अभाव था। उन अभावों और विकास के पिछड़ेपन की प्रतीक नग्नता अब धीरे-धीरे आधुनिकता का पर्याय बनने लगी है, जो जितना नग्न प्रदर्शन करता है, मर्यादा का उल्लंघन करता है, वह उतना ही आधुनिक कहलाता है। मर्यादा में बंधकर रहना इन्हें मंजूर नहीं। ये मर्यादा की डोर से स्वयं को स्वतंत्र करके स्वछंद रहना अपना अधिकार समझते हैं।
किसी भी प्रकार की अतिशयता हानिकारक होती है, चाहे वह स्वतंत्रता की हो या कोई और। अनुशासन का जीवन में अपना महत्व है, अनुशासन के अभाव में जीवन में अपने लक्ष्य तक पहुंचना दुष्कर होता है। मर्यादा वास्तव में अनुशासन ही तो है। वह अनुशासन जो हमें अनैतिकता की ओर ले जाने से रोकता है, हमारे भटकाव को नियंत्रित करता है। इसलिए भारतीय समाज में मर्यादा का संस्कार बच्चों में प्रारंभ से ही पल्लवित किया जाता था। संयुक्त परिवार की सामाजिक संरचना अपनी नई पीढ़ियों में मर्यादा के संस्कारों को विकसित करने में समर्थ थी, किंतु आज न तो वो संयुक्त परिवार रहा है और न ही मर्यादा को पुष्पित पल्लवित करने वाली पीढ़ियां। ऐसे संक्रमण काल में यदि हम किसी पर दोषारोपण करते हैं भी हैं, तो वह भी उचित नहीं प्रतीत होता। जिसने संस्कार में, मर्यादा में रहना सीखा ही नहीं, वह स्वच्छंद न होगा तो और क्या होगा? किंतु भय तो लगता ही है, यह स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की ओर बढ़ी और अब स्वच्छंदता से नग्नता की ओर बढ़ रही है। नयी पीढ़ी आगे किस ओर बढ़ेगी यह कल्पना करने से भी अब डर लग रहा है। इस विचार में भविष्य का डर इसलिए समाहित है क्योंकि यदि सामाजिक संरचना से मर्यादा का संस्कार विलुप्त हो जाए तो डर है कि सामाजिक नैतिकता, सामाजिक मूल्य कैसे टिक पाएगा और अगर कहीं इसका अस्तित्व शेष भी रहा, तो इसका स्वरूप क्या होगा?
मान अर्थात् सम्मान, ड्योढ़ी का एक पर्याय मान से भी लिया जाता है। जिसका अर्थ खुद को प्रतिष्ठित करना है अर्थात् स्वाभिमानी, स्वावलंबी बनना है। इसमें अपना सम्मान करना और दूसरों को सम्मान देना आदि इस शब्द में निहित है। मान का अर्थ परिवार के सम्मान, समाज के सम्मान और देश के सम्मान से भी लगाया जाता था, किंतु वर्तमान में मान का अर्थ स्वयं तक सीमित हो गया है। सम्मान व्यक्ति केंद्रित होकर रह गया और उसका अपना स्वार्थ ही सर्वोपरि बन गया है। व्यक्ति के स्व का सम्मान इतना बड़ा हो गया है कि उसके सम्मुख समाज और देश का सम्मान उसके लिए गौण हो गया है। परिणाम सामने है, परिवार तेजी से टूट रहे हैं, संयुक्त परिवार से विघटित होकर एकल परिवार निर्मित हुए और अब यह भी विघटित होकर एकल अभिभावक परिवार का रूप ले रहे हैं। ऐसे में पारिवारिक, सामाजिक और नैतिक मूल्यों का विकास करने वाली इकाई ‘परिवार’ किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आज की पीढ़ी में ही दोष है। दोष तो सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण करने वाले माध्यमों में आ गया है। वास्तव में माध्यम का मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया है। जिससे संचरण माध्यमों में अवरोध उत्पन्न हो गया है। ऐसे में यदि अब समाज मूल्यहीन मानव का निर्माण कर रहा है, तो इसमें आश्चर्य कैसा? जैसा वातावरण, खाद, पानी, प्रकाश मिलेगा वैसा ही बीज से पौधा उत्पन्न होगा।
संस्कार ड्योढ़ी का एक महत्वपूर्ण पर्याय है, जो प्रत्येक भारतीयों की अमूल्य धरोहर है, जिसको संजोए रखना हम सभी का कर्तव्य भी है। संस्कार वास्तव में सदियों से संचित वो वह परंपराएं हैं, जो हमारे आचार- व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन, परिधानों के द्वारा हम भारतीयों में परिरक्षित होती है। ये संस्कार एक समाज विशेष को पहचान देती है और दूसरे से उसे अलग स्थापित करती है। इसलिए समाज अपनी नवीन पीढ़ियों तक इन संस्कारों को स्थानांतरित करने की व्यवस्था करता है, ताकि उसकी पहचान बनी रहे। ये संस्कार समाज के आरंभिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक अपने को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इसलिए आपने देखा होगा कि प्रत्येक परिवार के कुछ अपने संस्कार होते हैं, जो वह अपनी आगामी पीढ़ी को स्थानांतरित करता है। इसी प्रकार प्रत्येक समुदाय विशेष, जाति विशेष, समाज विशेष के भी संस्कार होते हैं, जिसे वह स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
हमारे भारतीय संस्कार निःसंदेह सदियों से संचित ज्ञान का वह भंडार है, जिस पर हम सभी को गर्व है, किंतु आधुनिकीकरण की इस अंधी दौड़ ने हमारे संस्कारों को बहुत नुकसान पहुंचाया है। माना कि कुछ रूढ़िवादी विचारों के परिमार्जन में इन आधुनिक विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है किंतु कहते हैं न कि अति हर चीज की बुरी होती है, वही बात यहां भी चरितार्थ होती है। इस भोगवादी आधुनिक युग के संस्कारों ने हमारे भारतीय संस्कारों को बुरी तरह प्रभावित किया है। हमारे संस्कारों के प्रतीक हमारे खान-पान, जिसकी अपनी समृद्ध परंपरा है, उस पर भी बाह्य संस्कृतियों के संक्रमण के कारण अस्वास्थ्यकर जंक फूड का प्रभाव सर्वत्र दिखने लगा है। गली चौराहों के ठेलों से लेकर बड़े-बड़े रेस्टोरेंट और होटलों में बर्गर, पिज़्ज़ा, चाऊमीन और न जाने किन-किन का बोलबाला होने लगा है। बच्चों और युवाओं में इन जंक फूड्स का बहुत प्रभाव हुआ है। वे केवल इन व्यंजनों को ही स्वादिष्ट मानने लगे हैं, जो कि अपौष्टिक होते हैं और कई गंभीर बीमारियों के कारण भी है।
आधुनिक युग की दूषित जीवन शैली हमारे युवा पीढ़ी के भटकाव का प्रमुख कारण है। खासकर मेट्रोपॉलिटन सिटी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई की रात्रि परंपराओं ने युवाओं को आकर्षित कर उन्हें तेजी से आकर्षित किया है, उनकी चका-चौंध में भारतीय शांत जीवन शैली युवाओं को बोरिंग प्रतीत होने लगी है। उन्हें इस अस्वास्थ्यकर जीवन शैली की इतनी बुरी लत लग गई है कि वह वे इससे बेहतर कुछ मानने को तैयार ही नहीं है। इसके कारण हमारी युवा पीढ़ी बहुत कम उम्र में ही कई प्रकार की गंभीर बीमारियों का शिकार हो रही हैं और भारतीय जीवन शैली की स्वस्थ दिनचर्या से दूर होती जा रही है। हालांकि अभी भी छोटे-छोटे शहरों में इन रात्रि परंपराओं का असर उतना नहीं दिख रहा है, किंतु इसका इक्का-दुक्का प्रभाव अब दिखने लगा है, जो कि घातक है।
भारतीय परिधान जो हमारे संस्कारों का प्रतीक भी है, वो हम सभी भारतीयों को गरिमायी व्यक्तित्व प्रदान करने में सक्षम है। यह परिधान केवल उनके व्यक्तित्व को ही नहीं बल्कि उनके सौंदर्य में भी चार चांद लगाते हैं, किंतु आधुनिकता और फैशन के नाम पर नग्नता का प्रदर्शन न तो स्त्री गरिमा का प्रतीक है और न ही उनके सौंदर्य का, क्योंकि यदि सौंदर्य नग्नता में होता तो सुंदर-सुंदर परिधानों का आविष्कार न हुआ होता और न ही लोग सुंदर परिधानों को धारण करने के लिए लालायित होते। माना कि रूढ़िवादी सोच का परिमार्जन समय-समय पर आवश्यक होता है। इसलिए आधुनिक वातावरण में हमारे परंपरागत परिधानों में कुछ बदलाव तो स्वीकार्य हैं, किंतु ऐसे परिधान जिन्हें पहन कर हम स्वयं सहज महसूस न कर सकें, वो परिधान निःसंदेह उपयुक्त नहीं है किसी के लिए भी।
आज का मानव सोशल मीडिया पर छाये रहने के लिए और अधिक से अधिक फॉलोअर और व्यू प्राप्त करने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार हो गया है। नैतिक, अनैतिक उसके लिए मायने नहीं रखते और किसी भी तरह वह इन प्लेटफॉर्मों पर अपने आप को प्रदर्शित करने के हाल में वह सबसे आगे रहना चाहता है। इन प्लेटफॉर्मों ने हमारे युवा वर्ग का पथ भ्रमित कर दिया है। ये उन्हें ऐसी स्वच्छंद संस्कृति की ओर धकेल रहे हैं , जो उन्हें परिश्रम से दूर और भोग के निकट ला रही है। ऐसी पीढ़ी हमारे समाज का गर्व बन सकेगी, इस पर मुझे संदेह है।
सामाजिक विचलन का एक दूसरा कारण हमारे रोल मॉडल में परिवर्तन भी है। जब युवा अपने रोल मॉडल को बड़े-बड़े मंचों से संस्कारों की बड़ी-बड़ी बातें करते देखते हैं, किंतु जब वह मंच पर आसीन आमुख के वास्तविक संस्कार और व्यक्तित्व से परिचित होते हैं, तो उसके भ्रम धरे के धरे रह जाते हैं और अंत में शायद वह युवा यही आत्मसात् करता है कि जिसकी शक्ति है, उसी का संस्कार है और शायद वही संस्कार है।
भोगवादी जीवन शैली ने हमारे भारतीय जीवन शैली की गहरी जड़ों पर कड़ा प्रहार किया है। हमारे आचार व्यवहार भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके हैं। आज का लघु मानव स्व तक केंद्रित होकर रह गया है। उसके व्यक्तित्व में सर्व हिताय के बजाय स्वहिताय की संकल्पना समाहित हो रही है। स्व के हित को साधने के लिए परिवार, समाज और देश के हित की तिलांजलि दी जा रही है। परिणाम सामने है परिवार टूट रहे हैं, समाज टूट रहा है और इन सब में कहीं न कहीं व्यक्ति का व्यक्तित्व भी टूट रहा है।
आधुनिक युग में विकास तो आवश्यक है, लेकिन किस कीमत पर, यह विचारणीय है। केवल अंधी दौड़ में दौड़ते रहना तो मूर्खता है। माना, यह दौड़ तो आवश्यक है किंतु अपनी मान, मर्यादा और संस्कार की कीमत पर नहीं। इसलिए इस दौड़ में उद्देश्यपूर्ण प्रतिभाग करना होगा। ड्योढ़ी के संस्कारों को नई पीढ़ी तक पहुंचाना आज के समाज के लिए माना चुनौती आवश्य है, किंतु असंभव नहीं। संस्कारों को पुष्पित और पल्लवित करने वाले बड़े संयुक्त परिवार न सही, किंतु छोटे संयुक्त परिवार, जिसमें माता-पिता के साथ-साथ दादा दादी भी हो, को पुनः समाज में स्थापित करने पर बल देना होगा, ताकि हमारे संस्कारों का नयी पीढ़ी तक सहज संरचण संभव हो सकें। आरम्भ से ही बच्चों में मान, मर्यादा में रहना, संस्कारों को आत्मसात करना, उनके सहज स्वभाव के अंग के रूप में विकसित करना होगा, ताकि ये उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाए और पाश्चात्य स्वच्छंद संस्कारों के बड़े से बड़े तूफान का सामना ये डटकर कर सकें और किसी भी परिस्थिति में विचलित न हो। तभी हमारा आज और कल सुरक्षित और संस्कारवान बनेगा और ड्योढ़ी की तरह हमारे मान, मर्यादा और संस्कार भी विलुप्तप्राय नहीं होंगे।
श्री अग्रसेन महिला महाविद्यालय, आजमगढ़
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