शोध सार : ‘अनुवाद’ वर्तमान युग की प्रथम अनिवार्यता है। आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ अनुवाद ने अपनी जगह न बनाई हो। शिक्षा का क्षेत्र हो या वाणिज्य-व्यापार, राजनीति, धर्म-संस्कृति, अंतरराष्ट्रीय संबंध, जनसंचार, साहित्य या अनुसंधान इत्यादि में अनुवाद की भूमिका सर्वत्र विद्यमान है। वास्तव में ‘अनुवाद’ एक ऐसी प्रक्रिया को कहा जाता है, जिसमें एक भाषा में प्रकट की गई किसी बात को अन्य भाषा में उसके संपूर्ण भावों को सुरक्षित रखते हुए पुनः प्रकाशित किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ‘अनुवाद’ कही हुई बातों या विचारों का ही पुनर्कथन होता है। वस्तुत: भारत जैसे बहुभाषी देश में अनुवाद मानव जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है। अब एक भाषा-भाषी क्षेत्र के लोग अन्य भाषा-भाषी लोगों के विचार-भावों व क्रियाओं को न केवल जानने हेतु जिज्ञासु होते हैं बल्कि वे क्षेत्र विशेष के भाषाई भेद को कम करने के प्रति भी इच्छुक हैं। अत: ऐसे में भाषाओं को आपस में जोड़ने के लिए ‘अनुवाद’ का योगदान अतुलनीय सेतु का कार्य करता है।
बीज शब्द : अनुवाद, भाषांतरण, स्रोत भाषा, लक्ष्य भाषा, सांस्कृतिक बोध, अंतरराष्ट्रीय संबंध, आधुनिकता, रूपांतरण।
मूल आलेख : वास्तव में अनुवाद का सबसे अधिक प्रयोग साहित्य के क्षेत्र में होता है। हमारे संविधान की आठवीं अनुसूची में देखा जाए तो इसमें अधिसूचित 22 भाषाएँ हैं, जिन भाषाओं का साहित्य और इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है। इतना ही नहीं इसके साथ अनेक ऐसी क्षेत्रीय बोली-बानियाँ भी हैं, जिनमें आज उत्कृष्ट साहित्यिक रचना कर्म हो रहा है। साहित्य का समाज व संस्कृति से सीधे-सीधे जुड़ाव होने के कारण आज पाठकों के मन में भी साहित्य के प्रति गहरी रुचि विकसित हुई है। यही कारण है कि आज का पाठक केवल निज भाषा तक ही सीमित नहीं है बल्कि अलग-अलग भाषाओं के प्रति भी आकृष्ट होने लगा है। ऐसे में अनुवाद ही सेतु बनकर दो भाषाओं के बीच की गहनतम खाई को पाटने का कार्य कर रहा है, जिससे कि पाठक अपनी मनचाही भाषा के साहित्य का रसास्वादन आसानी से कर सकें। अवश्य, अनुवादक की भूमिका इसमें सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि अनुवाद करने की जो श्रम-साध्य प्रक्रिया है, इसमें उसे अकेले ही गुज़रना पड़ता है। एक अनुवादक को “विश्लेषण के स्तर पर अर्थग्रहण के प्रकार्य के लिए पाठक की भूमिका, अंतरण के स्तर पर अर्थांतरण के प्रकार्य के लिए द्विभाषिक की भूमिका और पुनर्रचना के स्तर पर अर्थ संप्रेषण के प्रकार्य के लिए लेखक की भूमिका निभानी पड़ती है।”1 उत्कृष्ट अनुवादक का यह कर्तव्य ही होता है कि वह ध्यानपूर्वक अनुवाद कार्य को संपूर्ण करे क्योंकि उसकी थोड़ी-सी अज्ञानता या भूल-चूक किसी भी भाषा के पाठ के अर्थ का अनर्थ कर सकती है। इसलिए अनुवादक से यह अपेक्षा की जाती है कि जिन दो भाषाओं में वह अनुवाद कर्म करे, उसकी समुचित जानकारी उसे हो। स्रोत भाषा के पाठ का लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय भावों में परिवर्तन न करके केवल भाषांतरण ही करें क्योंकि अनुवाद का अर्थ होता है केवल भाषिक रूप से किसी मूल सामग्री का अंतरण करना। फलत: इससे जो अनूदित सामग्री प्राप्ति होती है, उसे अनूदित पाठ या अनूदित साहित्य के नाम से अभीहित किया जाता है।
आज अनुवाद साहित्य एक स्वतंत्र विधा के रूप में उभरता हुआ परिलक्षित हो रहा है। भाषा के संदर्भ में आकलन करें तो न केवल भारतीय भाषाओं का आपस में अनुवाद हो रहा है बल्कि विश्व की भाषाओं में भी भारतीय भाषाओं को खूब सराहा जा रहा है। विज्ञान और तकनीक के प्रचार-प्रसार के कारण यह और भी संभव हो पाया है कि अनुवाद आज एक व्यापक क्षेत्र में आवश्यक विषय बन गया है। वर्तमान भारत ने भी जिस प्रकार अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को मजबूती से सहेजा है, इसका भी एक कारण अनुवाद को ही माना जा सकता है। साहित्य का उदाहरण लें तो अनुवाद करना एक जटिल कार्य है किंतु तमाम साहित्यिक रचनाएँ हैं, जो आज अनुवाद के माध्यम से ही वैश्विक रूप से प्रसिद्धि प्राप्त कर रही हैं। इससे भी प्रमुख बात यह है कि अनूदित साहित्य के कारण कोई भाषा किसी एक क्षेत्र विशेष या वहाँ रहने वाले लोगों तक ही सीमित या संकुचित नहीं रहती बल्कि अनुवाद से उसकी व्यावहारिक सीमा में भी विस्तार होता है, जिससे भाषा का संवर्धन हो जाता है।
सुप्रसिद्ध ओड़िया कथा लेखिका ‘प्रतिभा राय’ के साहित्य को माध्यम बनाकर अनुवाद की महत्ता को भली-भाँति समझा जा सकता है। वास्तव में ‘प्रतिभा राय’ ओड़िशा प्रदेश की प्रख्यात रचनाकार हैं, जो मूलत: ओड़िया भाषा में ही लेखन कार्य करती हैं। उपन्यास, कहानी, यात्रा-वृतांत, निबंध, नाटक आदि सभी विधाओं में लेखिका अब तक दर्जनों साहित्य गढ़ चुकी हैं। उनकी सभी रचनाएँ विषय विविधता के कारण विशिष्ट हैं, इसलिए प्रतिभा राय जी मात्र ओड़िया साहित्य जगत् में ही नहीं अपितु समस्त भारतीय साहित्य जगत् की प्रतिष्ठित लेखिका के रूप में सुप्रसिद्ध हैं। उनकी रचनाओं का अनुवाद देश की विभिन्न भाषाओं जैसे- हिंदी, बंगला, मराठी, असमिया, तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मैथिली आदि में देखने को मिलता है। अंग्रेज़ी भाषा में भी उनके उपन्यासों का अनुवाद अनुवादकों ने किया है, जिस कारण उन्हें विश्व लेखिका भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अत: यहाँ देखा जा सकता है कि अनुवाद ही वास्तव में वह माध्यम है, जिसने प्रतिभा राय जी के साहित्य को वैश्विक आँगन में ले जाकर पहुँचाया है तथा विश्व-पटल पर उन्हें मान-सम्मान भी दिया है। इस क्रम में विवेच्य लेखिका को उनके साहित्यिक अवदान हेतु अनेक पुरस्कार-सम्मान मिले हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख पुरस्कारों का नाम लेना यहाँ यथोचित भी है, जैसे- ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार, केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, मूर्तिदेवी पुरस्कार, ‘पद्मश्री’ सम्मान एवं साहित्य और समाज सेवा में उत्कृष्ट कार्य करने हेतु भारत सरकार का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ इत्यादि। इससे स्पष्ट होता है कि ‘अनुवाद’ ने प्रतिभा राय जी को ओड़िया जगत् की उत्कृष्ट लेखिका से अंतरराष्ट्रीय स्तर की वैश्विक लेखिका बनाया है। इस संबंध में प्रतिभा राय जी स्वयं कहती हैं “लेखिका की कोई शारीरिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक सीमा नहीं होती| वह अगर सीमाबद्ध है तो अपनी संस्कृति में, अपने संस्कारों मे, अपनी शारीरिक सीमा में, जैविक सीमा में| मेरी लेखकीय सत्ता नारी नहीं है और न ही पुरुष है| मैं केवल ओड़िया या केवल भारतीय लेखिका नहीं, विश्व की लेखिका हूँ|”2
वस्तुत: कोई भी साहित्यकार जब किसी साहित्य की रचना करता है, वह केवल साहित्य ही नहीं गढ़ता बल्कि वह उस भाषा तथा उससे जुड़ी संस्कृति व समाज को भी जननी की भाँति आँचल में समेटकर साथ-साथ लेकर चलता है। अत: प्रतिभा राय जी की अनूदित रचनाओं से अखिल भारतीय पटल पर ही नहीं अपितु विश्व-पटल पर भी ‘ओड़िया’ भाषा तथा उसकी संस्कृति को पहचान मिली है। उदाहरण के रूप में प्रतिभा राय जी के ओड़िया से हिंदी में अनूदित उपन्यास ‘कोणार्क’ के एक उद्धरण को देखा जा सकता है, जिसमें उपन्यास की पात्र ‘प्राचीप्रभा’ कहती है- “जगन्नाथ इस विश्व के स्रष्टा हैं, आदमी के बनाए किसी रूप ने उन्हें पूरी तरह प्रकट नहीं करना चाहा। जो स्वयं अपना निर्माता है, उन्हें कौन बनाएगा? अत: जगन्नाथ अपूर्णता में पूर्णता के प्रतीक, असुंदर से सुंदरता के प्रतीक, असफलता में सफलता के प्रतीक और निराशा में आशा की ज्योति हैं। इसी पर मैं जी रही हूँ- जी रहे हैं अगणित लोग।”3 यहाँ मूल ओड़िया भाषा से हिंदी भाषा में सफल अनुवाद के साथ ही ओड़िशा के जगन्नाथ संस्कृति के विषय में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है। प्रस्तुत उपन्यास के अनुवादक श्री शंकरलाल पुरोहित जी हैं, जिनके जीवंत अनुवाद ने मूल उपन्यास की आत्मा की रक्षा करते हुए इसे जन-जन का प्रिय बनाया है।
प्रतिभा राय जी के ओड़िया से हिंदी में अनूदित साहित्य का समग्र अवलोकन करें तो यह स्पष्ट होता है कि अनुवादक कुछ क्षेत्रीय बोली व भाषा के शब्दों का प्रयोग मूल भाषा के अनुरूप ही यथावत करते हैं। इसको अनुवाद करने में हो सकता है कि अनुवादक की अपनी सीमाएँ रही हों क्योंकि अनुवाद करना एक जटिल कार्य है। अनुवादक को अनेक बार ऐसे शब्दों के यथारूप प्रयोग करने से पूर्व यह मंथन करना पड़ता है कि इससे मूल रचना का अनूदित रचना के भाव बोध में कोई बाधा उत्पन्न न हो। इस प्रकार की समस्या अगर आती है तो एक श्रेष्ठ अनुवादक होने के नाते उसका कर्तव्य होता है कि वह निकटवर्ती समान भावार्थबोधक शब्द का प्रयोग मूलभाषा के स्थान पर करें। इससे अनूदित साहित्य की प्रभावमयता बनी रहती है। प्रतिभा राय जी की अनूदित रचनाओं में मूल ओड़िया भाषा के शब्दों को बिना परिवर्तन प्रयोग करने पर भी कोई कमी नहीं लगती है। जैसे- ‘द्रौपदी’ उपन्यास के एक कथांश को उदाहरणस्वरूप देखा जा सकता है- “शंखध्वनि, हुलूध्वनि, वेदपाठ, हवन, घंटाध्वनि, मंगल महुवरि आदि वाद्यों के बीच विवाह-प्रार्थी वीर आने लगे। एक-एक हास्यजनक स्थिति उत्पन्न कर पराजित होते गए। कोई तो शर-संयोजन ही नहीं कर पाए। कोई धनु-उत्तोलन में असमर्थ रहे। आहात और विस्मित विषादग्रस्त एक के बाद एक वीर लौटते गए।”4 यहाँ इस कथांश में दो शब्द ‘हुलू ध्वनि’ और ‘शर’ ऐसे हैं, जिनका प्रयोग विवेच्य उपन्यास के अनुवादक श्री शंकरलाल पुरोहित जी सीधे-सीधे ओड़िया से हिंदी अनुवाद में करते हैं। वास्तव में ‘हुलू ध्वनि’ का अर्थ होता है- ‘एक विशेष प्रकार की मुखध्वनि जो किसी मंगल कार्य से पहले औरतों द्वारा जिह्वा की मदद से निकाली जाती है। ओड़िशा, बंगाल, झारखंड और छत्तीसगढ़ आदि क्षेत्रों में इसकी मान्यता अधिक है। ‘हुलूहुली’ नाम से भी इसका बोलचाल में प्रयोग होता है। वहीं ‘शर’ शब्द का अर्थ धनुष के ‘तीर-कमान’ से है। जहाँ तक अर्थ संप्रेषण की बात है यहाँ इस प्रसंग में ‘द्रौपदी’ के स्वयंवर सभा का चित्रण है। अत: अनुवादक ने वातावरणानुसार जिस प्रकार मूल ओड़िया शब्दों का प्रयोग उपन्यास में किया है, इससे कोई संप्रेषणीय बाधा उत्पन्न नहीं होती है अपितु सांस्कृतिक बोध का विस्तार होता है एवं भाषिक शब्द-संपदा में वृद्धि होती है। ऐसे भी शब्द भंडार में वृद्धि होना किसी भी भाषा के लिए अमूल्य निधि के समान ही है। “अनुवादक को स्रष्टा इसलिए भी कहा गया है कि वह अन्य भाषा के शब्दों को लाकर उसे अपनी भाषा में और अधिक सुंदर ढंग से संयोजित कर देता है, उसके अंदर अधिक अर्थ भी भर देता है।”5 अत: शब्द-संपदा के विकास से भाषाएँ अनंतकाल तक जीवित रहती हैं। वह कभी विलुप्त नहीं होती हैं।
कथा लेखिका प्रतिभा राय जी के समस्त अनूदित साहित्य में अनुवादकों ने मूल कृति का अनुवाद करते हुए उसके मूल भाव के साथ कोई बदलाव नहीं किया है। उत्तम भावानुवाद के माध्यम से कथा की मूल संवेदना को पूर्णत: संरक्षित करते हुए विभिन्न भाषाओं में इसको पुन: प्रस्तुत किया है। यहाँ प्रतिभा राय जी के ‘महामोह’ उपन्यास को ही उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है जो उनके मूल ओड़िया उपन्यास ‘महामोह’ का हिंदी अनुवाद है। इस उपन्यास में विशेषत: पंच सती कन्याओं में से एक ‘अहल्या’ के जीवन चरित्र का आत्मकथात्मक शैली में वर्णन किया गया है। रामायणकाल की बहु उपेक्षित स्त्री पात्र ‘अहल्या’ को मुखर होने का अवसर देकर प्रतिभा राय जी ने यहाँ स्त्री-विमर्श की दृष्टि से स्त्री-अंतर्मन व स्त्री-जीवन के तमाम उलझनों को उजागर किया है। उपन्यास में अहल्या का ही स्वालाप है, जिसमें वो कहती है कि- “मेरा यह आत्मकथन उन लोगों के लिए है जो सिर्फ़ सुनते हैं, देखते हैं, सह जाते हैं, पर उफ्फ तक नहीं करते। अपना पक्ष तक नहीं रखते। अन्याय नहीं करते, बल्कि अन्याय और अत्याचार को सर झुकाकर, चुपचाप सह जाते हैं। अन्याय करना पाप है और अन्याय को मुँह बंद करके प्रश्रय देना भी पाप है। पाप की विचित्र रूपरेखा तैयार करना मेरे आत्मकथन का अंत:स्वर है। कौन है पतित- जो दूसरे को पतन की ओर धकेल देता है या जो असहाय-सा दूसरों के द्वारा पतित होकर पतन के गर्त में गिर पड़ता है? इस पृथ्वी के असहाय, पतित और पापियों को अपने पाप और लाचारी से सामना करने के लिए मेरी यह स्वीकारोक्ति है... एक विनम्र आह्वान।”6 यहाँ द्रष्टव्य है कि प्रतिभा राय ‘महामोह’ में पात्र अहल्या को एक आम स्त्री के रूप में चित्रित करती हैं,जो सभी देश, जाति, धर्म, वर्णभेद आदि से ऊपर है। वह कोई मिथकीय पात्र नहीं है बल्कि उस व्यवस्था का प्रतीक है जहाँ स्त्रियाँ अभिशप्त जीवन जीने के लिए विवश हैं तथा जहाँ एक स्त्री को हरबार कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। अनुवादक डॉ. राजेंद्र प्रसाद मिश्र जी ने सफलतापूर्वक मूल उपन्यास के इस भाव को हिंदी में अनुवाद किया है, जिसके कारण प्रतिभा राय जी के साहित्य का पाठकीय परिवेश विश्व-पटल पर समृद्ध हुआ है। उसी भाँति प्रतिभा राय जी के मूल ‘याज्ञसेनी’ उपन्यास का हिंदी अनुवाद ‘द्रौपदी’ में देखा जाए तो पात्र ‘कृष्णा’ का स्वलाप है, जिसमें वह कहती है कि “इस पृथ्वी पर धर्मरक्षा और दुष्ट नाशन का मैं अस्त्र होने जा रही हूँ। इसलिए पृथ्वी पर आई हूँ। क्या युग-युग में धर्म रक्षा और दुष्ट संहार के लिए नारी को ही माध्यम होना पड़ेगा? नारी ही क्या सृष्टि और विनाश का कारण है?”7 यहाँ विवेच्य लेखिका स्त्री जीवन की तमाम व्यथाओं को कथा में दर्शाने का प्रयास करती हैं। यह अनुवादक ‘श्री शंकरलाल पुरोहित’ जी के उत्कृष्ट अनुवाद कला का परिणाम है कि अनूदित रचना होने पर भी यहाँ द्रौपदी ‘कृष्णा’ वैश्विक विश्वास की पात्र बन जाती है। यहाँ ‘कृष्णा’ की अभिव्यक्ति मात्र उसकी अभिव्यक्ति नहीं रह जाती वरन समस्त नारी जाति का स्वर बन पड़ती है। अत: यह कहना कदापि निरर्थक नहीं कि जिस प्रकार ‘‘अनूदित पाठ का गुण होता है कि उसमें वे सभी सूचना तत्त्व आ जाएँ जो मूल पाठ में अभिप्रेत हुआ हो’’8 लेखिका प्रतिभा राय जी के समस्त अनूदित रचनाओं में ‘मूल पाठ’ के समान ही भाव बोध ‘अनूदित पाठ’ में भी संप्रेषित होता है। ‘अनुवाद’ के संबंध में प्रतिभा राय जी काकथन है कि “अनुवाद ही साहित्यकु आंचलिकतार सीमा पार कराई सार्वजनीन करे।”9 अर्थात् यहाँ लेखिका कहती हैं कि ‘अनुवाद ही वो माध्यम है जो किसी साहित्य को आंचलिकता की सीमा से पार सार्वजनिक करता है।’ विवेच्य लेखिका अनुवादक की भूमिका को भी सर्वदा नमस्य एवं श्रेष्ठ समझती हैं। इसलिए वो अपनी आत्मकथा ‘पद्मपत्र रे जीबन’ में कुछ प्रमुख अनुवादक जैसे- डॉ. शंकरलाल पुरोहित(हिंदी), डॉ. राजेंद्र प्रसाद मिश्र(हिंदी), डॉ. कविता दत्त गोस्वामी(असमिया), सुप्रभात भट्टाचार्य (बंगला), डॉ. जयश्री मोहनराज(तेलुगु), श्रीमती जी. तिलकाबती(तमिल), प्रदीप भट्टाचार्य(अंग्रेज़ी), श्रीमती भुवना नटराजन(तमिल), श्रीमती स्नेहा रोहेड़कर(कन्नड़), वी.एस जोगलकर(मराठी), राधा जोगलकर(मराठी), श्री यशोदानंद झा(मैथिली), डॉ. भगीरथी नंद(संस्कृत)’ आदि का नामोल्लेख कर उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करती हैं।
प्रतिभा राय जी के साहित्य को अनुवाद ने न केवल विशिष्ट पहचान दी है बल्कि उसे वैश्विक क्षितिज पर भी पहुँचाया है। यही कारण है कि आज उनकी अनूदित रचनाओं पर अनेक शोध कार्य हो रहे हैं। विशेष रूप से तुलनात्मक दृष्टि से शोध अध्ययन विविध विश्वविद्यालयों में किए जा रहे हैं, जिसके फलस्वरूप दो अलग-अलग भाषाओं का आपस में समन्वय हो रहा है। हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषी भी क्षेत्रीय साहित्य को पढ़ने में रुचि ले रहे हैं, जो भाषा संवर्धन के क्षेत्र में लेखिका और अनुवादक दोनों की उपलब्धि को दर्शाता है। वास्तव में “अनुवादक का स्थान साहित्य के सर्जक की भाँति होता है, जिसकी सहायता के बिना व्यापक मानवीय संस्कृति की परिकल्पना ही संभव नहीं होती है।”10 अत: भाषा के संवर्धन में अनुवादकों का अतुल्यनीय योगदान सदैव रहता है।
आज दुनिया जितनी तेज़ी से आधुनिकता को आत्मसात करते हुए प्रगति पथ पर बढ़ रही है इससे लोगों को समय का अभाव स्पष्ट अनुभव हो रहा है। ऐसे में प्रतिभा राय जी के कुछ अनूदित रचनाओं का ऑडियो किताब के रूप में उपलब्ध होना किसी वरदान से कम नहीं है। यह संभव भी अनुवादकों के उत्कृष्ट अनुवाद कला के कारण हुआ है। उदाहरण के लिए ‘द्रौपदी’ उपन्यास जो प्रतिभा राय जी की सबसे लोकप्रिय एवं बहु-पुरस्कृत उपन्यासों में एक है, उसे देखा जा सकता है। ऑडियो के स्वरूप में आसानी से प्राप्त होने के कारण इसकी माँग तथा पहुँच देश-विदेश तक हो चुकी है। इसे कोई भाषा-भाषी व्यक्ति किसी भी स्थान पर रहकर आसानी से पढ़-सुन सकता है। ठीक इसी प्रकार “आज भारत ही नहीं, बल्कि अन्य सभी विकासशील देशों में दूरदर्शन की संस्कृति का जन्म हो रहा है। आदमी अब मुद्रित वाक्य पढ़ने की अपेक्षा उसे स्क्रीन पर देखना चाहता है और यहीं से सब कुछ प्राप्त करना चाहता है।”11 अत: प्रतिभा राय जी के ‘द्रौपदी’ उपन्यास का धारावाहिक स्वरूप दूरदर्शन पर फिल्मांतरण होने के कारण भी उन्हें वैश्विक सफलता मिली है, जो अनुवाद का ही एक अंग है। द्रौपदी ‘कृष्णा’ का वैश्विक पात्र बन जाना इस बात को पुष्ट करता है कि अनुवाद से भाषा का उचित संवर्धन हुआ है।
निष्कर्ष : ‘अनुवाद’ आज की मुख्य आवश्यकता का विषय बन चुका है। ‘अनुवाद’ ही मुख्य कारण है कि भाषा के साथ संस्कृति, जो भाषा को निरंतर संबल प्रदान करती है; वैश्विक प्रांगण में अपनी पहचान सिद्ध कर रही है। ‘विश्व एक ग्राम’ की संकल्पना को साकार करने के लिए ‘भाषा’ एक महत्त्वपूर्ण घटक है, इसलिए अनूदित साहित्य की ज़रूरत आज शीर्ष पर है। प्रतिभा राय जी की प्रसिद्ध रचनाओं को देश-विदेश में जो पहचान मिली है, उसमें अनुवाद की विशेष भूमिका है क्योंकि इसके द्वारा ही साहित्य की सोद्देश्यता विस्तृत धरातल पर उतरती है। आज जब हिंदी पाठक के सम्मुख ‘कोणार्क’ और ‘द्रौपदी’ के रूप में अनूदित रचनाएँ उपलब्ध हुई तभी वह प्रतिभा राय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘शिलापद्म’ और ‘याज्ञसेनी’ की कथाभूमि से परिचित हो सका है। अस्तु! अनूदित रचनाओं के प्रकाशन से भाषाओं के बीच अभिव्यंजना शक्ति बढ़ रही है, जो भाषिक संवर्धन हेतु सकारात्मक है।
सन्दर्भ :
1. प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 2008, पृष्ठ संख्या- 53
2. ‘लेखिका प्रतिभा राय से राजेंद्र उपाध्याय की बातचीत’- www.vaniprakashan.in से उद्धृत
3.प्रतिभा राय, कोणार्क, (अनु.- शंकरलाल पुरोहित), राजपाल एंड सन्ज़, 2019, पृष्ठ संख्या- 239
4. प्रतिभा राय, द्रौपदी, (अनु.- शंकरलाल पुरोहित), राजपाल एंड सन्ज़, 2020, पृष्ठ संख्या- 32
5. डॉ. महेन्द्रनाथ दुबे, अनुवाद-कार्यदक्षता भारतीय भाषाओं की समस्याएं, वाणी प्रकाशन, 2006, पृष्ठ संख्या-86
6. प्रतिभा राय, महामोह, (अनु.- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र), राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 2014, पृष्ठ संख्या-19
7. प्रतिभा राय, ‘द्रौपदी’, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, 2020, पृष्ठ संख्या-11
8. डॉ. गार्गी गुप्त (सं), ‘अनुवाद बोध’, प्रो. अशोक कालरा, आलेख- ‘अनुवाद समीक्षा और अनुवाद-मूल्यांकन’, भारतीय अनुवाद परिषद्, पृष्ठ संख्या- 107
9. प्रतिभा राय, पद्मपत्र रे जीवन, आद्या प्रकाशनी, कटक,2014, पृष्ठ संख्या-332
10. रीतारानी पालीवाल, अनुवाद प्रक्रिया और परिदृश्य, वाणी प्रकाशन, 2004, पृष्ठ संख्या-108
11. डॉ. गार्गी गुप्त (सं), ‘अनुवाद बोध’, डॉ. श्याम सिंह शशि, आलेख- ‘अनुवाद का भविष्य’, भारतीय अनुवाद परिषद्, पृष्ठ संख्या- 91
1. प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 2008, पृष्ठ संख्या- 53
2. ‘लेखिका प्रतिभा राय से राजेंद्र उपाध्याय की बातचीत’- www.vaniprakashan.in से उद्धृत
3.प्रतिभा राय, कोणार्क, (अनु.- शंकरलाल पुरोहित), राजपाल एंड सन्ज़, 2019, पृष्ठ संख्या- 239
4. प्रतिभा राय, द्रौपदी, (अनु.- शंकरलाल पुरोहित), राजपाल एंड सन्ज़, 2020, पृष्ठ संख्या- 32
5. डॉ. महेन्द्रनाथ दुबे, अनुवाद-कार्यदक्षता भारतीय भाषाओं की समस्याएं, वाणी प्रकाशन, 2006, पृष्ठ संख्या-86
6. प्रतिभा राय, महामोह, (अनु.- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र), राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 2014, पृष्ठ संख्या-19
7. प्रतिभा राय, ‘द्रौपदी’, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, 2020, पृष्ठ संख्या-11
8. डॉ. गार्गी गुप्त (सं), ‘अनुवाद बोध’, प्रो. अशोक कालरा, आलेख- ‘अनुवाद समीक्षा और अनुवाद-मूल्यांकन’, भारतीय अनुवाद परिषद्, पृष्ठ संख्या- 107
9. प्रतिभा राय, पद्मपत्र रे जीवन, आद्या प्रकाशनी, कटक,2014, पृष्ठ संख्या-332
10. रीतारानी पालीवाल, अनुवाद प्रक्रिया और परिदृश्य, वाणी प्रकाशन, 2004, पृष्ठ संख्या-108
11. डॉ. गार्गी गुप्त (सं), ‘अनुवाद बोध’, डॉ. श्याम सिंह शशि, आलेख- ‘अनुवाद का भविष्य’, भारतीय अनुवाद परिषद्, पृष्ठ संख्या- 91
पी. अंजली
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल (केंद्रीय) विश्वविद्यालय श्रीनगर, गढ़वाल, (उत्तराखंड), 246174
panjali.hindi1@gmail.com, 7789927979
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
एक टिप्पणी भेजें