कैम्पस के किस्से : हैदराबाद विश्वविद्यालय / जसवंत सिंह (दो_सान)

हैदराबाद विश्वविद्यालय
जसवंत सिंह (दो_सान) 

हॉस्टल से लगभग तीन किलोमीटर दूर कैंपस के जंगल में ’दो_सान’ जामुन के पेड़ पर चढ़ा हुआ लटक-लटककर जामुन खा रहा है और इक्कठे कर रहा है। तीन जामुन खाता है तो दो प्लास्टिक की थैली में इक्कठे कर लेता है; वैसे ही जैसे बचपन में पीलू (एक रेगिस्तानी फल) इक्कठे करता था। नीचे आग जलाई जा रही है, चावल धोए जा रहें हैं। पेड़ के बीच वाले जामुन एक दिन पहले ही तोड़ लिए गए थे। अब जामुन शाखाओं के किनारों पर बचे हुए हैं। हाथों से मजबूत शाखा को पकड़ कर, एक पैर को खुरदरी जगह पर टिका कर दूसरे पैर के अंगूठे और उंगली के बीच में जामुन वाली शाखा की पत्तियों को फसाकर अपनी ओर हौले-हौले खींचता है और फिर संतुलन बना कर जामुन तोड़ लेता है, इस तरह से कि टहनी न टूटे। फल तोड़ते वक्त टहनी न टूटे इसकी आदत बचपन से ही पड़ी हुई है। नन्हा ‘दो_सान’ जाळ (रेगिस्तानी पेड़ जिसमें पीलू होते है) से पीलू तोड़ते हुए इसका ख्याल रखता था कि टहनी न टूटे क्योंकि उसे बताया गया था कि जाळ कपूर-शाह पीर की होती है और उसे काटने से पीर नाराज़ हो जायेंगे और फिर वो कुत्तों से बकरियों की रक्षा नहीं करेंगे। दो_सान हौले-हौले जामुन इक्कठे कर रहा होता है तब वह सोच रहा है कि जब बाकी दोस्त नीचे चावल और मछली बना रहे होंगे, तब वह जामुन खाता और खिलाता रहेगा। तभी नीचे से आवाज़ आती है कि पानी लेने जाना पड़ेगा। थोड़ी देर पहले जब दो_सान कह रहा था कि पानी कम पड़ा तो लेने वह जायेगा, क्योंकि साइकिल चलाना उसे बिल्कुल भी मुश्किल नहीं लगता। तब दोस्त बोल रहे थे कि पानी तो काफ़ी है, जरूरत भी नहीं पड़ेगी। आधे घंटे के भीतर ही पानी ने बता दिया कि वह कितना जरूरी है।

नीचे चूल्हा बन चुका था, आग भी जला दी गई थी। चावल धो लिए थे तो पानी की ढ़ेर सारी बोतलें जो हॉस्टल से भर कर लाए थे, कुछ खाली हो गई थी। भरी हुई बोतलों का पानी बर्तनों में भरा। दो_सान और जूनियर दोस्त, जो है तो जूनियर (आईएमए हिंदी) लेकिन किसी भी सीनियर से ज्यादा पढ़ा-लिखा और टैलेंटेड है, पानी लेने चल दिए। दो_सान को मछलियाँ धोनी नहीं आती है, कारण रेगिस्तान में रेत के समुंदर में पानी जितनी रेत तो है लेकिन उसमें मछलियाँ नहीं होती हैं। जाने से पहले दो_सान ने प्लास्टिक में इक्कठे किए गए जामुन पीछे छूट रहे दो दोस्तों को दे दिए थे लेकिन देने से पहले वह एक क्षण के लिए अपने बचपन के अवतार में घुसा और मुट्ठी में जितने जामुन भरे जा सकते थे, भर लिए। मुट्ठी में ढ़ेर सारे जामुन आए थे लेकिन दो_सान खाने में इतनी जल्दबाजी करता है कि साइकिल पर बैठने से पहले ही सारे के सारे जामुन होठों और जीभ पर जामुनी रंग छोड़ते हुए पेट तक पहुँच चुके थे।

विश्वविद्यालय के जंगल के तालाब से मछली पकड़कर बनाने का प्लान अचानक ही बना था। वैसे अचानक बने प्लान ही अपनी परिणीति तक पहुँचते है। हम चार दोस्त लौटती शाम के अंधकार में जंगल में आग जला रहे थे, मछ्ली बनाने के लिए। दो दिन पहले ही जूनियर दोस्त घर से लोट आया था और उसी दिन अपने साथी यानी हमारे दूसरे जूनियर दोस्त के साथ साइकिल से गया और जामुन का पेड़ ढूंढकर हमारे लिए बोतल में जामुन भर कर ले आया। यूजीसी नेट का एग्जाम कैंसल हो गया था, इसी अपशगुन के साथ घर जाने का टिकट भी कैंसल हो गया था। फिर से तैयारी में लग जाने के इरादे से लाइब्रेरी के चक्कर काटते थे, पर सुस्ताने के मौसम के साथ पढ़ाई में मन ही नहीं लग रहा था। तभी जूनियर दोस्त कैंपस के जंगल में गुजरते हुए नया रास्ते खोज निकालता है और कुछ दिनों तक सुस्ताने की जरूरत नहीं रहती है। पिछले कैंपस के किस्से में जो दो_सान ने लिखा था कि "बनाने में रास्ता बनाना सबसे आसान है, इसलिए नए रास्ते बनते रहते हैं।" वो इन्हीं जूनियर दोस्तों जैसे लोगों के लिए था। उस दिन लाइब्रेरी से चाय पीने के लिए बाहर निकले थे, पर दोस्त का कॉल आता है और दो_सान उसके साथ जामुनों की तरफ़ निकल पड़ता है, चाय को छोड़कर। उस चाय को छोड़कर जिसके बारे के वह कहता फिरता था कि "चाय ने मुझे आबाद किया है और बर्बाद भी। चाय ने दुनिया से की जाने वाली नफ़रत को खत्म किया और खुद से नफ़रत करना सिखाया भी। मैं चाय को पीता हूँ और चाय मेरा खून। दुश्मन भी चलकर चाय पीने का कहे तो मैं मना नहीं कर पाऊंगा।"

जूनियर दोस्तों से जामुन के पेड़ का रास्ता पूछता है तो पता चलता है कि वो दोनों भी उसी जामुन के पेड़ तक पहुँच चुके हैं। रास्ता समझाया जाता है कि ‘ए’ हॉस्टल से सीधा आने वाले रोड़ पर चले आना है और कच्ची सड़क को पकड़ लेना है। लाइव लोकेशन भी भेजी जाती है लेकिन दो_सान और उसका दोस्त ‘ए’ हॉस्टल के अगल-बगल और शूटिंग रेंज के आसपास रास्ता ढूंढते रहते है। रास्ता है कि मिलता ही नहीं। फोन पर लंबी समझाइश के बाद पता चलता है कि उस रास्ते की बात हो रही है जो ‘ए’ और ‘एच’ हॉस्टल से शूटिंग रेंज के बगल में, एन एस एस पार्क के पास और केंद्रीय विद्यालय के पीछे से होकर जाता है। कच्ची सड़क के मिलते ही दो_सान और उसके दोस्त को साइकिल चलाने का नशा हो जाता है। वे उबड़-खाबड़ सड़क पर मजे से चलते रहते है। इतना चलते है कि जामुन के पेड़ को बहुत पीछ छोड़कर पावर हाउस तक पहुँच जाते है। मंजिल की परवाह किए बगैर रास्ते में बस चलते रहना कितना खूबसूरत होता है? उसी धुंधली शाम में जामुन खाते-खाते ’हाफमून लेक’ का जिक्र आता है और किसी दिन मछली पकड़कर खाने की बात होती है। जामुन के पेड़ से लौटते वक्त ही जब थोड़ी-थोड़ी रात होने लगी थी, साइकिलें ‘हाफमून लेक’ की तरफ़ चल देती हैं। मछली पकड़ने के जाल ढूंढते है, लेकिन नहीं मिलता है। एक जाल का छोटा सा टुकड़ा मिलता है जिसे लेकर पानी में उतरते है लेकिन उतरते ही समझ जाते है कि इस टुकड़े से मछली नहीं पकड़ी जायेगी।

’हाफमून लेक’ पर मछ्ली पकड़ने के असफल प्रयास के साथ रात हो चुकी थी, इसलिए दो_सान को उन दोस्तों को जिनके साथ वह खाना खाता था, फ़ोन पर हिचकिचाते हुए कहना पड़ा कि तुम लोग खाना खा लो, मैं नहीं आ पाऊंगा। ऐसे वाक्य सहज तरीके कहना अभी तक दो_सान सीखा नहीं है जिसमें जिनके साथ रोज़ खाना खाते है, उन्हें कहा जाए कि आज मैं आपके साथ नहीं खाऊंगा। अगर ऐसे वाक्य कहना सीख जाए तो फिर वो वाक्य कहना थोड़ा कम मुश्किल हो जायेगा जिसमें कहा जाता है कि अब मैं तुमसे नहीं, किसी और से प्यार करने लगा हूँ।

पैरों पर कीचड़ था इसलिए केंद्रीय विद्यालय की तरफ से होकर नहीं जाया जा सकता था। साइकिलों के पहिए उस रास्ते पर चलने लगते है जो रास्ता ’एफ’ हॉस्टल के सामने से निकलता है। इसी रास्ते पर विश्वविद्यालय के लिए बिल्डिंग बन रही है और बिल्डिंग बनाने वाले मजदूर रहते है। एकदम अलग दुनिया, झुग्गी बस्ती से भी बदतर हालत महा गरीबों की। हैदराबाद विश्वविद्यालय सस्ता विश्वविघालय है। यहाँ गरीबों के बच्चे भी पढ़ते हैं। कुछ हज़ार फीस, हॉस्टल में रहने के लिए प्रत्येक सेमेस्टर करीब 500 रुपए देने पड़े और खाने के लिए मेस बिल अलग से। सबसे सस्ते विश्वविद्यालय में से एक होने के बावजूद फीस भरते वक्त हाथ कांपते हैं। मेस बिल भरने का घरवालों को कहते वक्त जुबान लड़खड़ाती है और एक गहरी श्वास छूटती है। चाय-नास्ते के लिए स्कॉलरशिप के पैसे जो सेमेस्टर के अंत में तीन से पाँच हजार के बीच में मिलते हैं, बचा कर रखते हैं। गरीब बच्चों के पढ़ने के लिए इन गरीबों से भी गरीब मजदूर बिल्डिंग बनाते हैं, ताकि इन महा गरीबों की बनाई बिल्डिंगों में पढ़कर हम गरीब बच्चें एक बेहतर दुनिया बना सकें। वहाँ से गुजरते हुए कई बार रोना आता है और खुद की मस्ती पर थूकने का मन करता है जो कैंपस में घूम-घूम हम कर रहे होते हैं। अगर एक बार कोई सारी की सारी संवेदनाओं को साथ लेकर कैंपस में बसी इस बस्ती से गुजर जाए तो दोस्तोवेस्की के रस्कोलनिकोव की तरह वह किसी की हत्या कर देगा या किसी पहाड़ी से सर टकरा लेगा।

हॉस्टल पहुंचकर हम लोगों ने महफ़िल की हैदराबादी बिरयानी ऑर्डर की, खाई और अपने अपने रास्ते चल दिए। बिरयानी खाने के बाद लंबी नींद आ जाती है। इतनी लंबी कि सुबह उठकर, तैयार हो, नाश्ता कर जब लाइब्रेरी पहुँचते है तो साढ़े दस बज ही जाती है। लाइब्रेरी पहुंचकर दो_सान ने ’विष्णु प्रभाकर’ का ’आवारा मसीहा’ खोला ही था कि दोस्त का फ़ोन आ जाता है और मछ्ली पकड़ने की तैयारी होने लगती है। जाल था नहीं जिससे मछ्ली पकड़ी जाए। नया जाल खरीदा जाता है और हम रवाना होते हैं मछ्ली पकड़ने के लिए।

‘हाफमून लेक’ पहुँच कर दो दोस्त मच्छरदानी (जाल) लेकर मछ्ली पकड़ने तालाब में उतरते है, तीसरे को मछलियाँ इक्कठी करनी है लेकिन दो_सान क्या करे!, वह भी पानी में मच्छरदानी पकड़े दोस्तों के पीछे चल देता है, वैसे ही जैसे नन्हा दो_सान काकू (चाचा जी) के पीछे चलता था; जब वो धोरे की ढलाई में ऊंट से खेत जोतते थे। पहले राउंड में वह मच्छरदानी के पीछे-पीछे चला तालाब में, दूसरे राउंड में वह बाहर ही रहा और छोटी-छोटी सुंदर-सुंदर मछलियाँ जो मच्छरदानी के साथ आई थीं, को देखने लगा। तीसरे राउंड में फिर से अंदर चल दिया। ऐसे ही छोटी-छोटी मछलियाँ इक्कठी होती रही और दो_सान भी तालाब से अंदर-बाहर होता रहा। पहली बार जब मछलियाँ बाहर आई तो दो_सान ने उन्हें पहली बार छुआ। सब दोस्त उन मछलियों को पकड़ कर झोले में डाल रहे होते है। दो_सान भी मछ्ली को उंगली की चिपटी में पकड़ने की कोशिश करता है तो नन्ही सी ख़ूबसूरत मछ्ली अपनी पूंछ दो_सान के हाथ पर जहाँ अंगूठे और हथेली का जुड़ाव होता है, पर मारती है। बड़ा हो चुका दो_सान नन्हें दो_सान की तरह उछलने लगता है, उसके चेहरे पर वही बचपन वाली मुस्कान होती है। धोरों के देश से आए दो_सान की इससे पहले मछली से पहचान ‘मछली जल की रानी है’ कविता से हुई थी। मछ्ली को छूना, उसे उठाना और झोले में डालना दो_सान के लिए पहला अनुभव था। माहौल में क्यूट-सी मस्ती घोलने के लिए दो_सान लगातार बच्चों जैसी हरकतें कर रहा था। वह कह रहा था कि मैं तुम लोगों को रेगिस्तान की रेत में पाई जाने वाली मछलियाँ एक दिन खिलाऊंगा। मच्छरदानी लेकर तालाब में कई चक्कर निकाले गए, दो तीन बार दो_सान भी मच्छरदानी पकड़कर तालाब में गया लेकिन ढ़ेर सारी छोटी मछलियाँ तो इक्कठी हो गई थी लेकिन बड़ी मछ्ली हाथ नहीं आई। दो बजने को आई थी, हम थक कर चूर हो चुके थे। इस खुशी के साथ कि छोटी मछलियाँ और चावल बनाएंगे। बिना बड़ी मछ्ली पकड़े ही चल दिए।

नहाने के बाद मैगी बनाकर एक बैग में पानी की बोतलें रखी जाती हैं, एक में मछलियाँ और एक में बर्तन। दो_सान नॉर्थ शॉपकोम जाकर समोसे, कोल्डड्रिंक ले आता है और चारों चल देते हैं जामुन के पेड़ की तरफ़। वहाँ पहुँचकर मैगी और समोसे खाए जाते है। चूल्हा बनाया जाता है, आग के लिए लकड़ियाँ इक्कठी की जाती है, दो_सान जामुन खाने पेड़ पर चढ़ता है तो समय वहाँ पहुँचता है जहाँ से इस किस्से को लिखना शुरू किया था यानी अब पानी लेने जाना होता है।

जंगल के बीच की पतली कच्ची सड़क जिस पर पत्थर जैसे उग आए है, पर दो लड़के मछलियाँ धोने और पानी लाने चल दिए हॉस्टल की तरफ़। वह रास्ता दो_सान के घूमने ने अपने कब्जे में ले लिया। अब उस पर साइकिल दौड़ाई जा सकती है। मानव कौल कहते है कि “चाय के दो प्याले बनाना अकेलेपन का उत्सव मनाने जैसा है।” चाय के दो प्याले बनाकर अकेलेपन का उत्सव कैसे मनाया जा सकता है? वो तो अकेलेपन के दर्द का उत्सव हुआ। अकेलेपन पर विलाप हुआ। अकेलेपन का उत्सव तो अकेली सड़क पार साइकिल दौड़ाने में है। नहीं? दो_सान गलत है। अकेलापन नहीं, बनाया गया अकेलापन। झूठ बोलकर या बिना किसी को बताए साइकिल से निकलकर जो अकेलापन बनाया जाता है उसमें साइकिल दौड़ाई जाती है। तो ऐसा कह सकते है कि उत्पन्न हुए अकेलेपन का उत्सव दो प्याले चाय बनाकर मनाया जाता है और निर्मित किए गए अकेलेपन का जश्न साइकिल दौड़ाकर मनाया जाता है। पिछले कई दिनों से दो_सान एच सी यू की सड़कों पर ऐसे ही दौड़ रहा है, झूठ बोलकर या बिना बताकर, भागकर बनाए गए अकेलेपन में। बारिश के मौसम में सफ़ेद रंग की तितलियाँ उसके साथ रेस लगाती हैं। योगेंद्र भईया ने ढ़ेर सारे स्टेट्स लगाकर उन्हें एक अंक का नाम दिया था। व्हाट्सएप एक पत्रिका हुआ जिसमें लगे स्टेट्स छोटे-छोटे लेख, जिनसे अपने विचार, अपनी बात रखी जाती है। बहुत पहले जब दो_सान को किसी एक को चुनना था, जब लाल रंग की दीवार और काले रंग की चिड़ियाँ उसे अपनी तरफ बुलाने को आवाज़ दे रही थी, तब उसने गुलाबी रंग को चुना और स्टेट्स में लिखा, "एक दीवार है, जिस पर क्रांति लिखा है।” इमली का पेड़ है जिसमें इमलियाँ लगी हुई हैं। पहले पेड़ उदास रहता था, पहले हम इमलियाँ नहीं खाते थे लेकिन अब इमलियाँ तोड़कर खाने लगे है। हमारे इमलियाँ खाने से पेड़ ने उदास होना छोड़ दिया है। दीवार अब भी उदास है। पेड़ से चिड़िया चहक रही है, चिड़िया के चहकने का रंग काला है। दीवार का रंग हल्का लाल या कहें कि हल्का भगवा है। पेड़ पर लगी इमलियों के स्वाद का रंग गुलाबी है। पेड़ से बहुत दूर लायब्रेरी है, लायब्रेरी की किताबें खुश हो जाती हैं, जब मैं उन्हें पढ़ता हूँ। लटकती हुई इमली पर पैर जमाकर बैठी चिड़ियाँ उड़कर दूसरी इमली पर बैठ जाती है। जिससे वो इमली गिर जाती है, जिसे उठाकर मैं खाने लगता हूँ। पेड़ के लिखे गए स्वाद को पढ़ने से पेड़ खुश हो जाता है। चिड़िया के चहकने का काला रंग, मैं पढ़ नहीं पाता हूँ लेकिन थोड़ा बहुत समझ लेता हूँ। थोड़ी बहुत चिड़िया भी खुश हो जाती है। दीवार अब भी उदास है, खून की भाषा मैं पढ़कर भी समझ नहीं पाता हूँ। चिड़िया अपनी काले रंग की भाषा में समझाती है कि ज्यादा मीठा खाने के बाद थोड़े मीठे का स्वाद अच्छा नहीं लगता है। जिस देश ने एक बार बिना खून की क्रांति देख ली उसे फिर खून वाली क्रांति अच्छी नहीं लगेगी। चिड़िया कहती हैं कि इस देश में क्रांति गांधी की विरासत है; उनके सिद्धातों को छोड़कर की गई क्रांति नैतिकता का स्वाद नहीं देगी। तब दीवार चीखकर कहती है कि मैं नैतिकता पर थूकती हूँ। गुलाबी रंग का स्वाद जो मेरा इंतजार कर रहा होता है उसे भूलकर मैं सोचता हूँ कि अभी तक मैंने लायब्रेरी में जाकर काले रंग के स्वाद के बारे में क्यों नहीं पढ़ा? मैं दीवार की तरफ़ देखता हूँ; दीवार मेरी तरफ़ उम्मीद से देखती है। चिड़िया अब भी वहीं है। मुझे चक्कर आने लगते है। खुद के होने पर हँसी आती है। मैं इमली खाता हुआ चिड़िया की तरफ़ गुस्से से देखता हूँ और दीवार पर थूककर गुलाबी रंग के स्वाद की तरफ़ चल देता हूँ।"

उसके बाद दो_सान सचमुच ही गुलाबी रंग की तरफ़ चल दिया। पहले पहल नई सड़क पर जो ‘बी’ और ‘डी’ हॉस्टल के बीच में से शुरू होकर एडमिन बिल्डिंग के सामने से निकलती है, अर्थ साइंस बिल्डिंग से गुजरते हुए। शुरू-शुरू में नई सड़क की चढ़ाई उसे बहुत बड़ी लगती थी, फिर उस चढ़ाई की तुलना ‘एफ’ हॉस्टल से साउथ कैंपस जाते वक्त एंफी थियेटर के बाद पड़ने वाली चढ़ाई से हुई। इन दोनों चढ़ाइयों से थियेटर आर्ट्स बिल्डिंग से होकर मसरूफ़ रॉक जाने वाली नई सड़क की चढ़ाई बड़ी नज़र आने लगी। लेकिन जल्द ही दो_सान समझ गया कि मुग्ध होकर साइकिल चलाते वक्त ये चढ़ाइयाँ कुछ भी नहीं लगती है। नई-नई साइकिल थी, तब नींद में होठों पर गुलाबी रंग की मुस्कान आती और सुबह-सुबह उठकर दो_सान चल देता। एफ हॉस्टल से नॉर्थ शॉप कॉम जाने में थोड़ी सी चढ़ाई है फिर रास्ता सपाट है। सपाट और लंबा रास्ता जो सुकून ग्राउंड, योगा सेंटर होते हुए कैंपस के छेअले(अंतिम) हिस्से तक जाता है। वहाँ से दाई तरफ मुड़कर ’गचीबोवली रोड़’ पर लम्बे से जंगल की पतली लम्बी सड़क पर चलकर मसरूफ़ रॉक पहुँच जाता है। एक बड़ा सा पत्थर है, उसके ऊपर उतना ही बड़ा पत्थर है, छाते जैसा। बीच में लोगों के खड़े रहने जितनी ऊँचाई में खाली जगह है जहाँ पर खूबसूरत लोग बैठकर दुनियाँ की खूबसूरती देखते है। मसरूफ़ रॉक के पीछे जंगल है, जंगल की घास पर चलकर वहाँ भी दो_सान की साइकिल गई है और कई बार गई है। एम्फी थियेटर की दीवार पर दो डांसर लड़कियों की तस्वीरों के बीच में इसी मसरूफ़ रॉक का चित्र बना हुआ है।

सबसे शांत तो ‘पीकॉक लेक’ है जहाँ साइकिल नहीं जाती है। साइकिल स्कूल ऑफ ह्यूमैनिटीज के पीछे वाले ओपन थियेटर तक ही जाती है। वहाँ से घने जंगल में सुरंग नुमा रास्ते पर बचते-बचते जाना पड़ता है। एक बार तो दो_सान के क्लासमेट्स वीरू की अगुवाई में लाइब्रेरी के पीछे से होकर गहरी शाम के वक्त पूरा जंगल और नाला पार करते हुए भी पिकॉक लेक तक पहुंचे हैं, पहली बार में वो रास्ता सच में खौफनाक था। पीकॉक लेक के किनारे बैठकर लहरों को निहारा जा सकता है, खूबसूरत तरीके से। ‘बफेलो लेक’ लायब्रेरी और एफ हॉस्टल के बीच के जंगल में पड़ती है। ‘बफैलो लेक’ बहुत ही लंबी चौड़ी है। एडमिशन के बाद दो_सान के क्लासमेट्स पहली बार बफेलो लेक ही घूमने गए थे। ‘बफैलो लेक’ से वर्जिन रॉक दिखती है, जहाँ बड़े बड़े पत्थर है, वर्जिन रॉक पर चढ़कर एचसीयू की खूबसूरती देखी जाती है। वर्जिन रॉक ‘बफैलो लेक’ से होकर ही जाया जाता है लेकिन खतरनाक तरीके से। अक्सर लोग शाम को टहलते हुए जाते है और लौटने से पहले रात हो जाती है। लौटते वक्त खो जाते हैं फिर अंधेरे में जुगनुओं को देखते हुए घने जंगल में भटकते हुए या तो कई किलोमीटर चलकर साउथ कैंपस में एल हास्टल के पास से निकलते है या फिर जंगल की भटकन नर्सरी तक पहुंचा देती है तो जाली कूदकर अंदर से अमरूद खाते हुए बाहर निकलते हैं।

पानी और मछलियाँ लेकर दो_सान और जूनियर दोस्त जिस रास्ते से जामुन के पेड़ की तरफ़ जा रहे है, उस पर और बहुत लंबा आगे चलने पर वो टेंपल रॉक होते हुए नई सड़क पर अर्थ ’साइंस बिल्डिंग’ के पास निकलता है। हॉस्टल के इस तरफ़ जहाँ के जंगल में टेंपल रॉक, लोटस रॉक, हाई रॉक, हॉफमून लेक, चेक डेम आदि आदि है की तरफ़ दो_सान का घूमना अभी-अभी शुरू हुआ है, जिसे समझने में कई महीने घूमना होगा। इन जगहों पर दो_सान जा चुका है लेकिन दोस्तों के साथ। साइकिल से इधर घूमना अभी शुरू ही किया है।

मछलियाँ धोकर, पानी ले आए तब तक आधे चावल पकाए जा चुके थे। पकाने का बर्तन छोटा था तो एक बार में आधे चावल ही पकाए जा सकते थे। थोड़े बहुत जामुन भी बचे हुए थे जो दो_सान ने पानी लेने जाने से पहले तोड़े थे। दो_सान को गुदगुदी वाली हँसी आ गई। कितने अच्छे वाले बेवकूफ लोग है, जामुन बचाकर कौन रखता है? जामुन तो पहली ही फुरसत में झपटकर खाए जाते हैं। दो_सान का मन हुआ कि वो बचे हुए चावल बनाए, मिर्ची वाले चर्के चावल। चर्के चावल बनाने के लिए दो_सान को थोड़ा ज्यादा तेल चाहिए, लेकिन तेल तो कम ही बचा है। इतना कम कि मछलियाँ भी नहीं भूंझी जाएगी। रात हो गई है फिर भी दो_सान कहता है कि वह साइकिल से हॉस्टल तक चला जायेगा। वहाँ से इंस्टामार्ट से ऑर्डर कर देगा, इस बात का सबूत पेश करने के लिए कि वह साइकिल से कभी भी कहीं भी जा सकता है। दो_सान को जाने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि जामुन के पेड़ के पास और सिक्योरिटी टॉवर के नीचे बने कमरे के पीछे जहाँ उन्होंने चूल्हे बनाए है, उसके एक किनारे बड़ा सा तालाब है जिसे ’नाला गदला लेक’ कहते है, जो कैंपस के बाहर पड़ता है, उस तालाब के दूसरी तरफ़ मेन रोड दिखाई दे रहा था। तालाब के किनारे-किनारे बनी कच्ची सड़क से दो_सान और एक दोस्त जाते है मेन रोड की तरफ़ तेल और लाल मिर्च पाउडर लेने। कैम्पस की टूटी दीवार लांघ कर तालाब के किनारे-किनारे चलते हैं जल्दी-जल्दी, क्योंकि बारिश भी आने वाली है। सुबह कुछ समोसे और मेगी ही खाई है। तालाब के किनारे ही बड़ी मछलियाँ बेची जा रही होती है। ताजी पकड़ी हुई जिंदा मछलियाँ जिसे जब तोला जाता तब भी उछल रही थी। बचपन में ’मछ्ली जल की रानी है।’ कविता पढ़ते वक्त दो_सान ने बड़ी मछ्ली की ही कल्पना की थी, टिंटूड़ी(छोटी) उंगली जितनी छोटी मछली की नहीं। बचपन की कल्पना की हुई बड़ी मछ्ली को दो_सान ने पहली बार देखा। पास में मछली काटी भी जा रही थी बीस रुपए प्रति किलो के भाव से। एक व्यक्ति उछलती मछली के सिर पर पत्थर जैसा कुछ मारता तो वह उछलना बंद कर देती, यानी मर जाती। फिर मरी हुई मछली के पंख छील कर वह दूसरे व्यक्ति को देता। वह दूसरा व्यक्ति मछली को काटता, गैरजरूरी हिस्से फेंकता और बाकी ब्लैक प्लास्टिक में पैक कर देता। दो_सान नहीं जानता लेकिन दो_सान का दोस्त जानता है कि छोटी मछलियों का स्वाद थोड़ा कड़वा होता है। इसलिए बड़ी मछलियाँ खरीदते है। दो गोल्डन मछलियाँ अस्सी रुपए की। मछलियों से पहले से परिचित दोस्त कहते है कि मछलियाँ महँगी होती है, यहाँ तो सस्ती मिल रही है। दुकान एक बस्ती में होती है, तंबुनुमा घरों की बस्ती जहाँ पर देश के कोने-कोने से खासकर उतर भारत से आए मजदूर रहते हैं। एक बार फिर से पूरे शरीर में रोंगटे भागने लगते है। रोंगटे दौड़ते नहीं हैं, भागते हैं जैसे बचना चाहते हो गरीबी की संवेदना से, वैसे ही जैसे घर के लंबे चौड़े हाल-चाल नहीं लेते ताकि घर की संवेदनाएं किताबों से पैदा हुई संवेदनाओं के आड़े न आए। ऐसी बस्तियाँ देखते हैं तो सरकार पर थूकने का भी मन नहीं करता हैं। गैर-जिम्मेदार लोग वोट तो क्या गालियाँ और थूके जाना भी डीजर्व नहीं करते हैं, लेकिन वोट पांच साल बाद इन्हीं नेताओं पर थूकती हैं जनता, जाति और धर्म के नाम पर। फिर से संवेदनाओं को उतना ही स्थान मिलता है जितना लिखा जा सके।... चॉकलेट, तेल, मिर्च पाउडर और मछली पकाने का मसाला लेकर फिर से कैंपस के अंदर जामुन के पेड़ की तरफ़ लौटते हैं। पीछे रुके हुए लोगों का फ़ोन आ रहा होता है कि हवा से आग उड़ रही है।

जब कटी हुई मछलियाँ और सामान लेकर पहुँचते है, तब तक बारिश की बूंदे गिरना शुरू हो जाती हैं। बाकी लोग सामान उस सिक्योरिटी टॉवर के नीचे बने कमरे में रखते है। दो_सान पक रहे चावलों में चम्मच घुमाता है लेकिन चावलों को थोड़ा-थोड़ा खराब कर देता है। बाहर से चूल्हों की आग बुझा दी जाती है। अंदर चूल्हे बनते है, मछलियाँ भूंझी जाती है। बड़ी और छोटी मछलियों का ग्रेवी भी बनाया जाता है। पकाए हुए मछली चावल लेकर टॉवर पर चढ़ते हैं और पहली बार रेगिस्तान के लड़के के होठों पर मछली का स्वाद आता है। मजे से मछली खाते है और कैम्पस की दीवार लांघकर तालाब के किनारे-किनारे होकर मेन रोड पर उस जगह निकलते है जो डीमार्ट के भी पीछे निकलती है। इस बीच हुई बहुत सारी मजेदार बातों में से एक को बता दूं कि तालाब के किनारे बर्तन धोकर बैग में भरे गए, तालाब के किनारे तालाब के पानी से बर्तन धोना मुश्किल भरा लेकिन मजेदार होता है। बारह बजे के क़रीब मेन रोड पर होते हैं। वहाँ से साइकिल दौड़ाकर साउथ गेट की तरफ़ चलते हैं। बीच में आईसक्रीम भी खाते हैं। इससे पहले दो_सान इन्हीं में से दो दोस्तों के साथ रात को साइकिल दौड़ा चुका है। विश्वविद्यालय की नर्सरी से आम चौरी करके खा रात ढाई बजे तीन साइकिल नॉर्थ गेट से बाहर निकली थी और सुबह छह बजे साउथ गेट से अंदर घुसी थी।

हैदराबाद विश्वविद्यालय एक प्राकृतिक विश्वविद्यालय है। यहाँ का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जहाँ अक्सर जाना नहीं होता है, सिर्फ़ घूमने के लिए ही जाते हैं। जहाँ पेड़ खामोश नहीं होते है। गिलहरियाँ आग बोटती हुई (रास्ता काटती हुई) निकलती है। जिस हिस्से को आने से पहले देखा तो नहीं था लेकिन उसके होने को महसूस कर लिया। ये उस हिस्से के होने की आहट ही थी कि बिना जाने ही एचसीयू से इश्क हो गया था। वहाँ से गुजरते हुए जयपुर की याद आती है। वहाँ सड़क पर एक दूसरे की तरफ़ मुड़ी हुई, दो साइकिले दिखती है जो एक दूजे को देखकर मुस्कुराती रहती है। वहाँ मोरिया भी दिखाता है और ढेल(मोरनी ) भी। वहाँ के पत्थर इश्क में पागल होने की गवाहियाँ देते हैं। वहाँ पहुँचकर उन दोस्तों की याद आती है जिनसे दोस्ती तोड़ चुके हैं और उस पर पछतावा और सुकून एक साथ आता है।

हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्राकृतिक वातावरण की ऐसी बहुत सी घटनाएं है जो घटी और घटकर विश्वविद्यालय को सच्चा वाला प्राकृतिक विश्वविद्यालय बनाया। ऐसे बहुत से प्राकृतिक किस्से है, कौनसा किस्सा ज्यादा मजेदार है, कहा नहीं जा सकता है। बस जो लिखा गया वो आलेख में आ जाता है, बाकी स्मरण में। खजूर के मौसम में पहले पहुँचने की होड़ में दौड़कर खजूर चुग कर खाई है। आधी रात को कई बार नर्सरी पर धावा बोला है और ज्यादातर आम और कभी-कभी अनार, जेतून और चीकू चुराए हैं। मालाबार कुंड में डुबकिया लगाई है और हाइरॉक में रात को पार्टियाँ की हैं। बारिश में दो_सान साइकिल के साथ अकेला और पैदल दोस्तों के साथ भीग-भीगकर घूमा है। पहली बारिश में जो सच में खतरनाक बारिश थी। एफ हॉस्टल से दो_सान और एक दोस्त निकले और स्टूडेंट केंटीन पर मुश्किल से जेब से दस रुपए का नोट और दो रुपए का सिक्का निकला जिससे दो चाय ली क्योंकि मोबाइल प्लास्टिक में बंद था। एक बारिश में गुडविल केंटीन से भागे, लायब्रेरी के एक दोस्त को सबके फ़ोन पकड़ाए और सी हॉस्टल गए जहाँ जितने भी हिंदी विभाग के दोस्त थे, सबके दरवाजे बजा-बजाकर बाहर निकाला और चलती बारिश में ले गए मसरूफ़ रॉक वाले रास्ते, खजूर के पेड़ गिनते-गिनते, ताकि कभी लौटकर खजूर खाई जाए। भीगने के बाद दो_सान के व्हाट्सएप स्टेट्स के अंक में लिखा हुआ मिला कि "अभी तक सबसे अच्छे दिन की कल्पना मैंने की नहीं है लेकिन सबसे बुरा दिन वह होगा जब पानी बरस के थम जाएगा और मैं भीगूगा नहीं।"

पिछले कैंपस के किस्से में राजस्थान विश्वविद्यालय के कॉलेज ’राजस्थान कॉलेज’ को दो_सान ने रोहिड़े का फूल कहा था। हैदराबाद विश्वविद्यालय तो एक तरीके से फूलों का विश्वविधालय है। साल पर पूरे कैंपस में रंग बिरंगे फूल छाए रहते है। यह विश्वविधालय जैसे आदिवासियों का गाँव है, हम गाँव में रहकर गाँव को याद करते हैं।

जसवंत सिंह ( दो_सान )
विद्यार्थी, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
9001222953

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

2 टिप्पणियाँ

  1. हैदराबाद विश्वविद्यालय एक प्राकृतिक विश्वविद्यालय है। यहाँ का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जहाँ अक्सर जाना नहीं होता है...... सहमत हूं आपकी टिप्पणी से ।
    और आपने बात को स्पष्ट और सिलसिलेवार लिखा है , अच्छा लिखा है। आपके लिखे में रूपक है जो कैंपस की डायरी को पढ़ने में रचना का सुख दे रहा है। बधाई हो। आप लिखते रहिए आपमें कहानीकार के बीज है।

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  2. भिन्न राह का राही। बनता हुआ लेखक। एचसीयू का जीवंत चित्रण। बहुत खूब। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

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