- कृष्णा पंडित
शोध सार : विभिन्न संस्कृतियों के मेल
से
जिस
संस्कृति की उत्पत्ति होती है,
उसे
सामासिक
संस्कृति कहा जाता
है।
भारत
की
संस्कृति सामासिक संस्कृति है जिसमें
अनेक
धर्मों, समाजों, जातियों-जनजातियों की संस्कृतियाँ समाहित हैं।
राही
के
साहित्य
में
सामासिक
संस्कृति का चित्रण
बहुतायत
में
देखने
को
मिलता
है।
राही
साझी
संस्कृति के पक्षधर
हैं।
उन्होंने हमेशा से
उन
शक्तियों का विरोध
किया
है
जो
धर्म
के
नाम
पर
संस्कृति का बंटवारा
करते
हैं।
वे
गंगा
को
माँ
कहते
हैं, वे गंगा
को
हिन्दू-मुस्लिम
सांस्कृतिक एकता के
प्रतीक
के
रूप
में
देखते
हैं।
भारतीय
संस्कृति के विभिन्न
स्वरूपों की चर्चा
राही
के
साहित्य
में
दिखाई
पड़ती
है।
राही
के
साहित्य
में
संस्कृति के विभिन्न
तत्वों
का
समावेश
हुआ
है।
वे
अपने
साहित्य
के
माध्यम
से
भारतीय
संस्कृति की विविधता
और
एकता
की
रक्षा
का
भरपूर
प्रयास
करते
हैं।
बीज शब्द : सामासिक संस्कृति, रीति-रिवाज़,
रहन-सहन,
खान-पान,
लोकजीवन,
लोकगीत,
पर्व-त्यौहार,
जीवन-मूल्य,
गंगा-जमुनी
संस्कृति, सांस्कृतिक एकता,
भारतीयता।
मूल आलेख : राही
मासूम
रज़ा
की
पहचान
उन
विरले
साहित्यकारों में होती
है
जिनकी
संवेदना
गहरे
अर्थों
में
गंगा-जमुनी
तहजीब
का
प्रतिनिधित्व करती है।
उनके
जीवन
में
गंगा
का विशेष महत्त्व रहा है। उन्होंने गंगा को भारतीय संस्कृति का महत्पूर्ण अंग स्वीकार किया है।उन्होंने अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में गंगा को ममतामयी माँ के रूप में स्वीकार किया है। उनके साहित्य में होली, मुहर्रम, दशहरा, रक्षाबंधन, ईद, आदि पर्व-त्यौहारों के चित्रण के साथ-साथ हमारे रहन-सहन, रीति-रिवाज़, प्रकृति, लोक-जीवन आदि सब कुछ का परिचय मिलता है। ‘आधा गाँव’ उपन्यास में यह सामासिक संस्कृति बहुधा दिखाई देती है। इस उपन्यास में यह दिखाया गया है कि गंगौली गाँव में मुहर्रम के वक्त जो ताज़िये निकलते हैं उसमें हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। इस ताज़िये में हिन्दू घराने की औरतें और बच्चे भी शामिल होते हैं। इस ताज़ियेमें हिंदू औरतें अपने बच्चों को ताज़िये के नीचे से पार करवाती हैं, ज़ारी पढ़तीं और शरबत चढ़ाती हैं, साथ ही मन्नत भी मानती हैं। ताज़िये की आगे-आगे गाँव के लठ्ठबन्द अहीरों का एक समूह चलता है जो उलतियाँ गिराने में मदद करते हैं। एक बार ताज़िये के वक्त मजदूरों की गलती से एक बेवा ब्राह्मणी की उलती गिराये बिना ही ताज़िया आगे निकल गयी तो वह बेवा ब्राह्मणी रोने लगी कि इमाम साहब उससे नाराज़ हो गए हैं इसलिए उसकी द्वार की उलती नहीं गिराया गया। वह डर गयी और अपने दोनों बेटे को साथ लेकर मज़ार पर पहुँच गयी और इमाम साहब से माफ़ी मांगने लगी। वह हम्माद मियाँ को घेर कर उसकी उलतीया गिरवाने के लिए अनुरोध करते हुए कहती है “पइसा ना चाही। लइकनवन की जान चाही। उलतिया गिरवाये लेई। हम पाँव पड़त बाड़ीं।”1इस बेवा ब्राह्मणी की आस्था के माध्यम से राही ने भारतीय सामासिक संस्कृति का जीता-जागता उदहारण प्रस्तुत किया है।
‘आधा गाँव’ उपन्यास में राही ने हिन्दू-मुस्लिम के प्रेम को दिखाते हुए साझी संस्कृति के सकारात्मक पक्ष को उज़ागर किया है।मुहर्रम के समय गंगौली में ताज़िये के सिलसिले में उत्तर पट्टी और दक्षिण पट्टी में टकराव होता है तब उस गाँव के हिन्दू लोग भी अपने टोले के मुसलमानों के साथ उनका साथ देते हैं और लड़ने के लिए तैयार रहते हैं। उपन्यास का उदाहरण देखिए “बड़े ज़ोर का मातम हो रहा था। लट्ठबन्द अहीर लाठियाँ ताज़िये पर रखकर मातम कर रहे थे। सिर्फ़ चंद लट्ठबंद बड़े ताज़िये के सामने सीना-सिपर थे कि अगर उत्तर-पट्टी वाले कोई गड़बड़ करें तो उनका सिर तोड़ दिया जाय। उन्हीं चार-पाँच अहीरों के साथ सुलैमान मियाँ खड़े थे।”2इस प्रकार राही ने यहाँ तक दिखाया है कि किस तरह बिना किसी धार्मिक भेदभाव के मुस्लिम के साथ हिन्दू भी धार्मिक क्रियाओं में भाग लेते हैं।
गंगौली गाँव में सामासिक संस्कृति का इतना प्रभाव था कि फुन्नन मियाँ की बेटी रज़िया का देहांत हो जाने के बाद उसके जनाज़े में गाँव का एक भी मुसलमान नहीं आता है क्योंकि फुन्नन मियाँ ने एक बार गाँव में किसी बात पर ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह का साथ दिया था। इस पर गाँव के मुसलमानों ने उन्हें अपनी बिरादरी से उन्हें बाहर कर दिया था। फुन्नन मियाँ की बेटी रज़िया के जनाज़े में पृथ्वीपाल सिंह का पूरा परिवार शामिल हुआ, यहाँ तक की पृथ्वीपाल सिंह ने ख़ुद कब्र में उतर कर लाश को उतारा। इस उपन्यास में गंगौली गाँव के फुन्नन मियाँ एक बड़े जमींदार हैं। वे अपनी ज़मीन मन्दिर के निर्माण के लिए मातादीन पंडित को दान में दे देते हैं। उस गाँव में कुछ संकीर्ण मनोवृति वालें लोगों के भड़कावे में आकर कुछ हिन्दू लाठियाँ लेकरबारिखपुर के मुसलमानों को मारने, लूटने पहुँच जाते हैं और उनके घरों को आग लगा देते हैं। तब ठाकुर साहब ही वहाँ के मुसलमानों की रक्षा करते हैं। इस तरह ‘आधा गाँव’ उपन्यास में ठाकुर साहब सामासिक संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में नज़र आते हैं। एक ऐसे प्रतीक के रूप में जो सद्भावना को भारतीयता समझता है।
राही ने सामासिक संस्कृति को दर्शाने के लिए अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में विवाह में गाए जाने वाले गीतों का उदाहरण प्रस्तुत किया है।भारतीय संस्कृति को हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही अपनाते हैं। उपन्यास में दिखाया गया है कि शिया मुसलमानों के यहाँ विवाह में जो लोकगीत वहाँ की महिलाएं गा रही हैं, वही गीत हिन्दुओं के विवाह में भी गाया जाता है। राही ने बड़े ही समझदारी के साथ इस लोकगीत को प्रस्तुत कर सामासिक संस्कृति का परिचय दिया है। उपन्यास में दिखाया गया है कि बदरून की विवाह के समय उसकेद्वार पर जब बारात आती है तब बदरून के घर के अंदर से लड़कियों और औरतों ने मिलकर एक गीत गाया, जो एक तरफ सामासिक संस्कृति का उदाहरण हैं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति में व्याप्त कमजोरियों का भी-
‘टोपी शुक्ला’ उपन्यास में भी राही ने भारतीय सामासिक संस्कृति के स्वरुप को दर्शाया है। इस उपन्यास में टोपी शुक्ला एक हिन्दू पात्र है जिसका वास्तविक नाम बलभद्रनारायण शुक्ला हैऔर दूसरा पात्र इफ्फ़न मुसलमान है। इन दोनों के बीच गहरी मित्रता है। इस उपन्यास में टोपी और इफ्फ़न की मित्रता के माध्यम सेराही ने भारतीय सामासिक संस्कृति की विशेषताओं को उजागर किया है। राही इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम के मैत्री संबंध के बिना देश का विकास असंभव है,इसलिए उन्होंने ‘टोपी शुक्ला’ उपन्यास में दो हिन्दू-मुसलमान पात्रों की मित्रता के माध्यम से भारतीय सामासिक संस्कृति की जड़ों को मज़बूत करने का प्रयास किया है।उन्होंने इस उपन्यास में टोपी और इफ्फ़न की दोस्ती के माध्यम से उस संकीर्ण मानसिकता पर कड़ा प्रहार किया है जो धर्म के आधार पर पहनावे, वेशभूषा एवं संस्कृति का बंटवारा करते हैं। ‘टोपी शुक्ला’ उपन्यास में आबिद रज़ा एक ऐसे मुस्लिम पात्र हैं जो होली खेलते हैं और आबिद रज़ा की पुत्री सकीना हिन्दू लड़के को राखी बाँधती है।
‘हिम्मत जौनपुरी’ उपन्यास में राही ने एक भारतीय मुसलमान की जीवन कथा के माध्यम से भारतीय सामासिक संस्कृति को प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास में हिम्मत जौनपुरी एक ऐसा पात्र है जिसको हिन्दुस्तान की संस्कृति से बेहद लगाव है। उसे यहाँ की मिट्टी, पानी, हवा से इतना गहरा लगाव है कि वह इसी मिट्टी में समा जाना चाहता है। वह जौनपुर का निवासी था पर मुम्बई जाने के बाद भी वह गाज़ीपुर को भूल नहीं पाता है क्योंकि उसके पूर्वज यहीं के रहने वाले थे। इस उपन्यास में रचनाकार ने मनुष्य के जीवन-मूल्यों एवं पारिवारिक संबंधों के अंतर्द्वंद को उद्घाटित किया है। राही को अपने देश की मिट्टी और देश की सामासिक संस्कृति से असीम प्रेम है जिसका प्रमाण इस उपन्यास में गंगा पर लिखी पंक्तियाँ हैं-
गंगा को माँ कहना राही की सामासिक संस्कृति का ही परिचायक है। राही के ‘हिम्मत जौनपुरी’ उपन्यास में सामासिक संस्कृति के अनेक रूपों का वर्णन किया गया है। उनके सम्पूर्ण साहित्य में गंगा-जमुनी संस्कृति का सुन्दर चित्रण हुआ है। वे अपने साहित्य के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम के आपसी बैर को, मंदिर-मस्जिद के नाम पर चलने वाली लड़ाइयों को ख़त्मकरने के लिए गंगा-जमुनी संस्कृति को अपनाने की बात करते हैं। वे इस उपन्यास में सामासिक संस्कृति के रूपों की चर्चा करते हुए लिखते हैं- “इसी हिन्दुस्तान में यह भी होता था कि एक ही आदमी मस्जिदभी बनवाता था और ‘मसनवी दरबयाने-इश्क़े-रामो-सीता’ भी लिखता था। राम और मस्जिद का बैर बहुत पुराना नहीं है। यदि इनमें झगड़ा होता तो ‘रसखान’ ने मक्के के गड़रिये की जगह ब्रज के गड़रिये को अपने काव्य की आत्मा क्यों बनाया होता और सूफ़ियों ने कृष्ण की काली कमली अपने मौहम्मद को उढ़ाकर उन्हें काली कमलीवाला क्यों कहा होता।”5
‘ओस की बूँद’ उपन्यास में जिस कटरे में वज़ीर हसन का मंदिर था उस मुहल्ले में ज्यादातर मुस्लिम रहते थे। रामऔतार उस मंदिर में पूजा करता है और शंख बजाता है तो मुहल्ले वाले चौंक पड़ते हैं क्योंकि उस मंदिर में पूजा करने पर वहाँ के कुछ संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों ने रोक लगाई हुई थी। शहर में कर्फ्यू लग जाता है। वहाँ भीड़ इकठ्ठा होने लगती है और साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ने लगता है। उस इलाके के लोग वज़ीर हसन को उस मंदिर में पूजा करने और शंख बजाने से मना कर रहे थे, लेकिन वज़ीर हसन को यह बात स्वीकार्य नहीं थी। वज़ीर हसन रामऔतार को शंख फूंकने के लिए कहता है। वज़ीर हसन मुसलमान होते हुए भी मंदिर की रक्षा और मंदिर में पूजा करवाना चाहता है। इस उपन्यास में वज़ीर हसन सामासिक संस्कृति की मिसाल कायम करता है। वहाँ के लोगों द्वारा धमकी मिलने के बावजूद वज़ीर हसन अपने जान की परवाह किये बगैर मंदिर में पूजा करवाता है। वह कहता है कि- “अरे जब हम ई मंदिर के वास्ते अल्लाह मियाँ से ना डराने तो दीनदयाल या आपकी क्या हैसियत है! ऊ मंदिर हमारे घर में है और हम कह रहें कि पूजा होगी।”6 इस प्रकार इस उपन्यास में राही ने वज़ीर हसन के माध्यम से भारतीय सामासिक संस्कृति की समृद्धि का बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत किया है।
‘ओस की बूँद’ उपन्यास में वज़ीर हसन की पोती शहला भी सामासिक संस्कृति के प्रतीक के रूप में ही सामने आती है। वह अपने दादा वज़ीर हसन की मज़ार उसी जगह पर बनवाना चाहती है जहाँ उनकी हत्या हुई थी। वह अपने दादा के मित्र दीनदयाल से तर्क करती है कि उसके दादा की मज़ार वह ख़ुद अपने हाथों से बनाएगी। वज़ीर हसन का मज़ार बनने पर वहाँ के लोगों को आपत्ति थी, पर शहला इस आपत्ति के खिलाफ तर्क करती है। शहला के तर्क से दीनदयाल आश्चर्य चकित हो जाते हैं। बाद में दीनदयाल शहला से कहते हैं कि “ए बिटिया वजीर हसन का मज़ार तूँ हमरे आँगन में बनवाल्यो।...इ मत समझल्यो कि खाली वज़ीर हसन मरे हैं। हमहूँ मर गए हैं आधे।”7दीनदयाल हिन्दू होने के बावजूद अपने आँगन में मज़ार बनवाने की बात करते हैं। इस तरह राही दीनदयाल और वज़ीर हसन जैसे पात्रों के माध्यम से उस हिन्दुस्तान से हमारा परिचय कराते हैं।कुछ ऐसे ही मनोभाव राही के उपन्यास ‘कटरा बी आर्ज़ू’ में भी मिलते हैं।इस उपन्यास के प्रमुख पात्र देशराज को शम्सू मियाँ अपने गैरेज में काम सिखाते हैं। शम्सू मियाँ का बेटा अब्दुल हक़ भी उसी गैरेज में अपने पिता से काम सीखता है। जब पाकिस्तान का निर्माण होता है तब लोगों के बहकावे में आकर अब्दुल पाकिस्तान चला जाता है। इस बात से शम्सू मियाँ को बहुत दुःख होता है लेकिन वह पाकिस्तान नहीं जाते और देशराज को ही अपना बेटा स्वीकार कर लेते हैं।शम्सू मियाँ की दो और बेटियाँ हैं- महनाज और शहनाज।देशराज शहनाज को अपनी सगी बहनके जैसा प्यार करता है और उसके लिए उसके घरवालों से भी तर्क-वितर्क कर लेता है। वह शहनाज को प्यार से अम्माँ कहकर पुकारता है। शहनाज भी देशराज को अपने सगे भाई के समान प्रेम करती है और उसके लिए दुआएँ भी माँगती है।वह देशराज को राखी भी बाँधती है। जब भी रक्षाबंधन आता है तो वह बहुत खुश हो जाती और देशराज कोराखी बाँधकर उसे मिठाई खिलाती है। राही ने इन चित्रों के माध्यम सेदेश की सामासिक संस्कृति की विशेषताओं को रेखांकित किया है। भारतीय सामासिक संस्कृति की यह विशेषता है कि वह भाईचारे, सद्भाव, प्रेम और त्याग से बनी संस्कृति है।राही ने इन मूल्यों से निर्मित सामासिक संस्कृति का चित्रण बड़े मनमोहक रूप में किया है। भारतीय सामासिक संस्कृति के इन समृद्ध तत्वों कोकुछ सांप्रदायिक शक्तियां निरंतर तोड़ने का प्रयास करती हैं और राही उन मूल्यों की समृद्धि का परिचय देकर जोड़ने का।
‘कटरा बी आर्ज़ू’ उपन्यास में कटरा मीर बुलाकी नामक स्थान में हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की तरह मिलजुल कर रहते हैं। वहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एक दूसरे के पर्व-त्यौहारों को मिलजुल कर पालन करते हैं।इस उपन्यास में यह दिखाया गया है कि कटरा मीर बुलाकी में होली और जुमा एक ही दिन था। मोलवी खैराती और शम्सू मियाँ दोनों जुमे के लिए निकल रहे होते हैं तभी उस गाँव के लोग होली खेल रहे होते हैं। मुसलमानों में एक रीति है कि जुमे के वक्त उनके कपड़े साफ़ होना चाहिए। मोलवी खैराती और शम्सू मियाँ दोनों पीछे की गली से छिप कर जुमे के लिए जा रहे होते हैं क्योंकि अगर उस गली से जाते जहाँ लोग होली खेल रहे थे तो उनके कपड़ों पर होली का रंग लग सकता था। मौलवी खैराती और शम्सू मियाँ दोनों के मन में होली के प्रति कोई सांप्रदायिक भावना नहीं है। वह दोनों भी होली खेलते हैं, पर उस दिन जुमा भी था तो उनको यह एहतियात बरतना पड़ा। पर होली में बच कर निकल पाना इतना आसान भी नहीं-“दोनों दबे पाँव चोरों की तरह पिछवाड़ेवाली गली की तरफ़ बढ़े। देश वगैरा तो इस ताक ही में थे। सब निकल आए। कुछ कटरा मीर बुलाकी के लोग थे और कुछ कटरा मीर बुलाकी के लोग नहीं थे। मोलवी खैराती और शम्सू मियाँ ने घिघियाकर पहलवान की तरफ़ देखा। ‘बहुत चंट बनते रहे।’ ‘जुम्मे के मारे लुका गए रहे।’ शम्सू मियाँ ने कहा, ‘नहीं तो का कभई ऐयसा भया है कि हम होली न खेलें। अभई रंग खेलेंगे तो फिर नहाए को पड़ेगा। जुम्मे का बखत निकल जाएगा।”8 वहाँ बाहर से आया एक व्यक्ति कहता है कि मुसलमान होली न खेलने का बहाना बनाते हैं। तब वहाँ उपस्थित पहलवान उस व्यक्ति को थप्पड़ मारता है और उस व्यक्ति को धमकी देता है कि यहाँ हिन्दू-मुसलमान में भेद उत्पन्न करने वाला कोई बात नहीं करेगा।पहलवान हिन्दू-मुस्लिम में कोई फ़र्क नहीं समझता था।शम्सू मियाँ जुमे की नमाज़ छोड़कर होली खेलने के लिए भी तैयार हो जाते हैं पर वहाँ के लोग यह नहीं चाहते हैं कि होली के लिए वे जुमे की नमाज़ छोड़ें।न हिन्दू चाह रहे हैं कि मुसलमानों की भावना को ठेस पहुँचे और न मुसलमान चाह रहे हैं कि हिन्दुओं के दिल में कोई टीस रह जाए। एक सच्ची सामासिक संस्कृति के निर्माण के लिए सर्वाधिक सशक्त भाव ये ही हैं। राही ने यह दिखाने की निरंतर कोशिश की है कि देश का बंटवारा हो जाने के पश्चात् सांप्रदायिकता की भावना बढ़ी जरूर, पर भारत के कई ऐसे गाँव थे जहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों एक दूसरे की धार्मिक भावना एवं संस्कृति के सम्मान एवं रक्षा के लिए तत्पर रहतेथे।हिन्दुस्तान की बहुतायत जनता गाँवों में रहती है और वहाँ इससामासिक संस्कृति की जड़े मज़बूत थीं। ‘कटरा बी आर्ज़ू’ उपन्यास में कटरा मीर बुलाकी में रहने वाले लोगों, जैसे- मौलवी खैराती, शम्सू मियाँ, देशराज और पहलवान आदि पात्रों के माध्यम से रचनाकार ने उन संबंधों का दस्तावेजीकरण कर लिया है जो धीरे-धीरे पूँजीवादी-सांप्रदायिक शक्तियों की आक्रामकता में होम होती जा रही हैं।राही की कृति ‘असन्तोष के दिन’ भी इस सामासिक संस्कृति को परवान चढ़ा देती है जब एक मुस्लिम पात्र अब्बास मूसवी अपनी बहन का एक हिन्दू लड़के से यह कहकर शादी करवा देता है कि मज़हब का इश्क़ से क्या लेना-देना।9 अब्बास मूसवी का चरित्र वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का प्रतिरूप है और उसकी संगत भी ऐसे ही एक व्यक्ति गोपीनाथ बर्क़ के साथ है।बर्क़ साहब और अब्बास इंसानी रिश्तों में मज़हब व जाति को दूर रखते हैं।जब बर्क़ साहब की हिन्दू-मुसलमान दंगे में मृत्यु हो जाती है तो अब्बास मूसवी के हृदय को बहुत ठेस पहुंचती है। वह बर्क़ साहब के मौत की ख़बर सुनकर बहुत रोता है और कहता है-
राही मासूम रज़ा जिस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए थे उसके परिसर में जन्माष्टमी, गुरुनानक दिवस और जश्ने-मिलादुन-नबी भी मिलजुलकर मनाया जाता है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रति राही बेहद आकर्षित इसीलिए थे कि वहाँ उन्हें सामासिक संस्कृति का प्रतीक बन पाने की संभावना दिखाई पड़ती थी।प्रो. कुँवरपाल सिंह द्वारा सम्पादित ग्रंथ ‘सिनेमा और संस्कृति’ में संकलित राही के लेख ‘मैं एक फेरी वाला बेचूँ यादें’ में राही लिखते हैं, “अलीगढ़ यूनिवर्सिटी उन मायनों में मुस्लिम यूनिवर्सिटी कभी नहीं थी। अलीगढ़ में जन्माष्टमी धूम-धाम से मनाई जाती है। जश्ने-मिलादुन-नबी भी होता है और गुरु नानक दिवस भी मनाया जाता है। क्या किसी और यूनिवर्सिटी के पास त्योहारों का यह तिरंगा झंडा है?”11राही उन जगहों और रचनाकारों से सहज ही प्रेरणा लेते दिखाई देते हैं जहाँ उन्हें इस सामासिकता की संभावना दिखाई पड़ती है।कुर्रतुल ऐन हैदर का उपन्यास‘आग का दरिया’ उन्हें इसीलिए पसंद था कि उसमें अवध प्रदेश की सामासिक संस्कृति का चित्रण बड़े ही मनमोहक ढंग से किया गया है।राही ने अपने लेख ‘तिलिस्मे होशरुबा: अवध की तहजीब’ में कुर्रतुल ऐन हैदर के‘आग का दरिया’ उपन्यास के एक अंश को उद्धृत किया है,“यहाँ हिंदू और मुसलमान का फ़र्क कोई नहीं जानता...मोहर्रम में बलवे नहीं होते...हिंदू ताजियादारी करते हैं और मुसलमान दीवाली मनाते हैं, कैसा उलटा ज़माना है, नव्वाब बहू बेगम हर साल होली मनाने फैजाबाद से अपने बेटे के पास लखनऊ आती है।”12 स्पष्ट है कि राही सामासिक संस्कृति के गहरे पक्षधर हैं और भारतवर्ष के विभिन्न कोनों से उन संभावनाओं को तलाशते रहते हैं जहाँ यह संस्कृति देखने को मिलती हो। अपने साहित्य के माध्यम से वे सामासिक संस्कृति को जिन्दा रखने का प्रयास किया गया है।सामासिक संस्कृति की जड़ों को कुछ सांप्रदायिक शक्तियां तोड़ने का प्रयास कर रही हैं, उन शक्तियों को राही का साहित्य मुहतोड़ जवाब देता है।
राही मासूम रज़ा गाजीपुर में पले-बढ़े। राही का बचपन गाज़ीपुर में गंगा की गोद में स्थित गंगौली गाँव में बीता। गाज़ीपुर के गंगौली गाँव में स्थित सदियों से रहने वाले हिन्दू-मुसलमान आपस में मिलजुल कर रहते हैं। गंगौली गाँव में रहने वाले लोग एक दूसरे की संस्कृति में भाग लेते आए हैं। राही गंगौली गाँव से बेहद प्रभावित रहे हैं और उनके साहित्य में गंगौली गाँव के लोगों के बीच के रिश्ते, रीति-रिवाज़, सामासिक संस्कृति आदि का ज़िक्र भी हुआ है।
राही के गद्य की तरह उनकी कविताओं में भी सामासिक संस्कृति की शानदार झलकियाँ मिलती हैं।अपनी कविता ‘यह आदमी की गुज़रगाह!’ में उन्होंने हिन्दू संस्कृति के ईश्वर कृष्ण और आरती के दीये का उल्लेख किया है और उन दंगाइयों पर प्रहार किया है जो यह सब नष्ट कर देने पर आमादा हैं-
राही की कविता ‘मैं हूँ अब इक लफ़्ज़’ में भी इस सामासिक संस्कृति का और उस पर हो रहे हमलों का मार्मिक चित्रण मिलता है। बज़रिया 1857 वे इस चेतना का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
यहाँ राही ने वीर जवानों के देशप्रेम का चित्रण करते हुए यहाँ की सामासिक संस्कृति का उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में एक तरफ ईद का ज़िक्र हुआ है तो वहीं दूसरी तरफ़ दीवाली और होली का। उनके कविता में एक तरफ़ गंगा है, तो दूसरी तरफ़ जमुना भी है। यहाँ राही का कहना है कि देश की रक्षा में हिन्दू और मुसलमान सबका योगदान है।अपनी देशप्रेम की कविता ‘क्रांति-कथा’ में भी राही इस सामासिकता का निदर्शन कराते हैं-
इस कविता में जिस प्रकार के प्रतीकों एवं शब्दों का प्रयोग दिखाई पड़ता है, इसे देखकर ऐसा कतई नहीं लगता कि यह कविता किसी हिन्दू की लिखी न हो।राही की कविता में बहुत से ऐसे प्रतीकों का प्रयोग किया गया है जिसका संबंध हिन्दू संस्कृति से है। उनकी कविता ‘नये शंकर’ में उन्होंने कैलाश का ज़िक्र किया है जो ठेठ हिन्दू प्रसंग है।उन्होंने अपनी इस कविता का शीर्षक हीहिन्दू देव शंकर के नाम से रखा है।इस कविता में शंकरजीके साथ गंगा का भी उल्लेख मिलता है।कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
निष्कर्ष : राही के लेखन में सामासिक संस्कृति के अनेक उदाहरण प्रामाणिकता के साथ पेश किये गये हैं।इनमें से कुछ तथ्यों को यहाँ रखा गया है।यह कहा जा सकता है कि राही भारतीयों के बीच कोई भेदभाव नहीं मानते थे और उनकी संस्कृति को एक समझते थे। उनके साहित्य में सांस्कृतिक एकता स्थापित करने की कोशिश ही की गई है। राही एक ऐसे क्रान्तिकारी रचनाकार हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति में इतनी गहरी आस्था है कि वे स्वयं को गंगा की गोद में समर्पित करते हैं।यह सही है कि जिन छवियों और चित्रों को वे दिखाते हैं वे धीरे-धीरे पीछे छूटते जा रहे हैं, लेकिन राही को इस संस्कृति में अगाध आस्था है और यह उम्मीद उनके स्वर में फूटती रहती है कि यह देश उस रूप में बचा रह जाए, जैसा इस देश को आजाद कराने वालों ने सोचा हुआ था। इस प्रकार राही मासूम रज़ा के पूरे साहित्य में भारतीय सामासिक संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है।
2.वही, पृ. 78
3.वही, पृ. 161
4.राही मासूम रज़ा, हिम्मत जौनपुरी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृ. 74
5.वही, पृ. 08
6. राही मासूम रज़ा, ओस की बूँद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1976,, पृ. 53
7.वही, पृ. 69
8.राही मासूम रज़ा, कटरा बी आर्ज़ू, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 77
9.राही मासूम रज़ा, असन्तोष के दिन,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 11
10.वही, पृ. 27
11.राही मासूम रज़ा, सिनेमा और संस्कृति, संपादन एवं संकलन- कुँवरपाल सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ. 120
12.वही, पृ. 129
13.राही मासूम रज़ा, 1857 क्रांति कथा, संपादन एवं संकलन- कुँवरपाल सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 24
14.वही, पृ. 168
15.वही, पृ. 34
16.राही मासूम रज़ा, शीशे के मकां वाले, संपादक: कुँवरपाल सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृ. 85
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