शोध सार : भारतीय सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं की उपेक्षा की पड़ताल करें तो इसकी बड़ी वजह पितृसत्तात्मक सोच रही है, जो कि अपने मूल स्वरूप में एक ऐसे विमर्श की संकल्पना प्रतिस्थापित करती है जिसके केंद्र में पुरुष सर्वोपरि रहा है। यह संकल्पना लैंगिक भेद के आधार पर पितृसत्ता को स्थापित करने के लिए हिंसा को अपना हथियार बनाती रही है। साथ-ही-साथ महिलाओं पर तमाम तरह के एकतरफा सामाजिक बंधन आरोपित कर दिया करती है। इसके गंभीर एवं दुःखद परिणाम हमें पर्दा प्रथा, सती प्रथा, जौहर, वैधव्य कलंक, घरेलू हिंसा आदि के रूप में देखने को मिलते हैं। भारतीय सामाजिक संरचना को गतिशीलता प्रदान करने में जिस संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को अपनाया गया उस संस्कृतिकरण की प्रक्रिया ने विभिन्न जातियों की महिलाओं की आजादी पर बन्दिश लगा दी और उनकी धुरी घर की चारदीवारी तक सीमित कर दी। वहीं विधवा महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय रही है।
बीज शब्द : हिंदू, परिवार, विधवा, संरचना, जीवन, स्वरूप, महिला, पितृसत्ता, समाज, अधिकार आदि।
मूल आलेख : भारतीय समाज में विधवा महिलाओं के प्रति उपेक्षा का भाव हमेशा से दिखता रहा है। यह उपेक्षा का भाव सदियों से रहा है। इसका एक रूप विधवा महिलाओं के जीवन में दिखता है। साथ ही यह उपेक्षित भाव परिवार के स्तर पर, समाज के स्तर पर, राजनीति के स्तर पर, धार्मिक स्तर पर, पितृसत्ता के स्तर पर, आर्थिक स्तर आदि पर भी दिखाई देता है। इसी संदर्भ में प्रेमचंद ने विधवा की पारिवारिक स्थिति को ‘बेटों वाली विधवा’ कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इस कहानी में फूलमती पति की मृत्यु के बाद अपने बेटों, बहुओं के द्वारा सतायी जाती है, “कानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है”1। उपर्युक्त कथन की पुष्टि इस बात से होती है कि हर समय में समाज और परिवार विधवा स्त्रियों को छलने का ही काम किया है। भारतीय पारिवारिक संरचना की भी यही दशा है। इतिहासकारों ने प्राचीन अथवा वैदिक काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा है। इस काल में महिलाओं को समस्त अधिकार प्राप्त थे। वहीं विधवा महिला के सन्दर्भ में हम देखें तो इस काल में विधवा महिला को पुनर्विवाह का अधिकार था। साथ ही उन्हें वैयक्तिक स्वतंत्रता भी थी। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के अध्याय 40 का दूसरे एवं 18वें अध्याय का आठवां श्लोक विधवा विवाह से संबंधित है। वैदिक काल में पति की मृत्यु के उपरांत जो भी पुरुष स्त्री को दाह-संस्कार स्थल से ले जाता था और स्त्री को अपने विश्वास में रखता था उससे उसका विवाह वैध माना जाता था। ऋग्वेद संहिता में वेन राजा के पुत्र पृथु का उल्लेख मिलता है जिसके बारे में मनु ने स्पष्ट लिखा है कि उसने विधवाओं का पुनर्विवाह जबरदस्ती करवाया था। ऋग्वेद संहिता में एक विधवा स्त्री को संबोधित करते हुए कहा गया है, “तुम मृत पति को छोड़कर भावी पति को प्राप्त करो”2। उत्तर वैदिक काल में विधवा विवाह की संख्या में गिरावट आने लगी क्योंकि कन्याएँ दूसरा विवाह करके अपने स्वाभिमान के साथ समझौता करने में अपनी प्रतिष्ठा का भंग होना मानती थी। फिर भी विधवा विवाह हेय नहीं माना जाता था बल्कि यह प्रशंसा का प्रतीक था। अथर्ववेद में भी नारी के द्वितीय विवाह का उल्लेख है। यास्क ने ‘निरुक्त’ में देवर शब्द का अर्थ द्वितीय वर बताया है जिससे स्पष्ट है कि प्रथम पति के कालग्रस्त हो जाने पर द्वितीय विवाह की प्रथा मौजूद थी। गौतम, बौधायन और वशिष्ट ने नियोग का समर्थन किया है परन्तु मनु विधवा विवाह और नियोग दोनों का विरोध करते थे। विवाह संबंधी मंत्रों में कहीं भी नियोग की अनुमति नहीं दी गई है और न दूसरे पुरुष से विवाह की चर्चा हुई है। ‘याज्ञवल्क्य’ सदाचार की बात करते हुए कहते हैं, ‘सदाचारिणी स्त्रियों का दूसरा पति नहीं होता’। मनु सगोत्रिय बालक को गोद लेने की आज्ञा देते हैं, विधवा विवाह की नहीं। विधवाओं के उत्पीड़न और अत्याचार की नींव यहाँ गहरी होती है। परिवार से बाहर द्वितीय विवाह करने पर स्त्री के सम्पत्ति से वंचित होने का उल्लेख मिलता है। पूर्व में विधवा की स्थिति के साथ संभव है कि कलंक न जुड़ा हो किंतु यौन-पवित्रता और स्त्री को सम्पत्ति समझे जाने से, विधवा की स्थिति को कलंक से जोड़ा गया। आर्य ग्रन्थों में वैधव्य की कठिनाईयों और असुविधाओं के संकेत भी मिलते हैं जहाँ विधवा की स्थिति की तुलना काँपती हुई धरती से की गई है। विधवाओं की स्थिति को मनुस्मृति की वैचारिकी ने पूर्णतया हाशिये पर खड़ा कर दिया था, जबकि भारतीय हिंदू परम्परा में मनुस्मृति को विधि के रूप में एक महत्त्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। इस संदर्भ में मनुस्मृति की वैचारिकी की तथ्यपरक विवेचना किया जाए तो दो तथ्य उभर कर सामने आते हैं। पहला, जहाँ एक तरफ मनुस्मृति में यह सुझाव दिया गया है कि विधवा स्त्री को पति के साथ चिता पर नहीं जलाना चाहिए। वहीं दूसरी ओर उल्लेख मिलता है कि विधवा स्त्री को एकाकी, ब्रह्मचर्य एवं अविवाहित के समान सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए। लेकिन कालान्तर में स्वार्थपरक शक्तियों ने वैयक्तिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु एकतरफा सामाजिक निर्योग्यताओं को आरोपित किया तथा बाद में यह आरोपण और बढ़ता गया।
भारतीय समाज में विधवा के प्रति दृष्टिकोण का अंदाजा इस बात से लग जाता है कि अतीत में उसे जीने का अधिकार भी समाज द्वारा नहीं दिया गया था और उसे पति की चिता के साथ ही ‘सती’ होना पड़ता था। यह एक ऐसी क्रूर प्रथा थी जिसकी कल्पना भी कोई स्त्री नहीं करना चाहती। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह प्रथा भगवान शिव से जुड़ी है। महाभारत के राजा पाण्डु की पत्नी माद्री ने भी उनके साथ सती होने का निश्चय किया था। शायद इसी प्रकार की कुछ ऐसी घटनाएँ थीं जिसने सती प्रथा को भारतीय सिद्धान्तों में पनाह दी। हालाँकि सती प्रथा जैसे बर्बर सामाजिक नियम को 1829 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन आज भी समाज के दृष्टिकोण में कोई खास बदलाव नहीं आया है। आज की विधवा महिला को भी कुछ ऐसे नियम-कायदों का पालन करना पड़ता है जो उसके लिए पाँव में बंधी बेड़ियों के बराबर है। इस सन्दर्भ में पण्डिता रमाबाई ने अपनी पुस्तक में देवेन्द्र एन. दास के ‘नाईनटीन्थ सेन्चुरी’ के सितम्बर 1886 के अंक में ‘द हिन्दू विडो’ शीर्षक से छपे एक लेख को भी उद्धृत किया है, “The English have abolished sati (Sutee) but also! Neither the English
nor the angels know what goes on in our horses, and the Hindus not only do not
care, But think it good! Such were the words of a
window''3 इसी संदर्भ को पाठक ‘सीमन्तनी उपदेश’ में भी देख सकते सकते हैं, “अंग्रेज सरकार ने हिन्दुस्तान में सती करने के रिवाज को बन्द किया। मगर यह घर में सती करते हैं जिसकी सरकार के फरिश्तों को भी खबर नहीं। कोई महात्मा हिन्दू भाई इस पर ख्याल नहीं करता, बल्कि अपना फायदा समझते हैं कि रांड के जीने से खराबियाँ ही होंगी”4।विधवा स्त्री के लिए केवल पति की मृत्यु का शोक ही काफी नहीं होता, उसके बाद उसका अकेलापन अन्य कट्टर रिवाजों में बंधकर उसे पल-पल मारता है। इसी घुटन में वह स्त्री सोचती है कि काश इससे अच्छा तो वह अपने पति के साथ सती हो जाती। इस संदर्भ में सीमन्तनी उपदेश के संपादक डॉ. धर्मवीर लिखते हैं, “विधवा औरतें अपने जीते जी उस हालात को देख लेती हैं जो आदमी के मरते वक्त होती है। जैसे महिला पर उस वक्त जो गुजरती है अपनी ही जान पर, दूसरा कोई साथी उसका साथ देने के लिए नहीं होता, वैसे ही इस वक्त जो बीतती है अपने ही ऊपर जैसे बीमारी के वक्त अपने दिल का दर्द आप ही सहारता है वैसे इस बीमारी को यह आप ही झेलती है”5। कितने आश्चर्य की बात है कि इस समय तसल्ली करना तो दूर लोग उनका दु:ख ही बढ़ाते हैं। इस संदर्भ में उसकी माँ कहती है, “मेरे सामने मशाल जल रही है, चिता सुलग रही है, भला मुझसे कब देखी जाएगी”। सास कहती है- “मेरे सामने साँपनी ने मेरे लड़के को डस लिया। अब लहर आ रही है। इस कमबख्त को मौत न आई। भाड़ में झोकूँ इस बहू को जिसने कुल का सत्यानाश कर दिया। मेरे सामने से दूर ले जाओ, मुझसे देखी नहीं जाती”6। इस वक्त माँ-बाप, सास-ससुर यही सोचते हैं कि हमारी बहू की वजह से ही हमारा बेटा मरा है। अतः अब इसको भी परेशान करना है। इसी संदर्भ में डॉ. माधवी सेठ का कहना है कि, “पति के गुजरने के बाद महिला को कदम-कदम पर एहसास दिलाया जाता है कि अब उसे पहले की तरह जीने का अधिकार नहीं”7। ऐसी स्थिति में विधवा स्त्री की परिवार में जो दुर्दशा होती है उसका एक उदाहरण प्रस्तुत है, “विधवा होने की सबसे बड़ी तकलीफ महिला को उस वक्त होती है जब अपनों की खुशी के मौके पर उसे दूर रहने के लिए कहा जाता है। घर में शादी हो या कोई शुभ कार्य, आज भी कई घरों में खुशी के मौकों पर घर की विधवा स्त्री को शामिल नहीं किया जाता। कई जगहों पर तो उसके माथे पर टीका लगाने के बजाय अंगूठे पर टीका लगाया जाता है। घर में होने वाला ये भेदभाव महिला को बुरी तरह तोड़कर रख देता है”8।
एक विधवा के लिए हिन्दू मान्यताओं में खास नियम बनाये गए हैं। उसे दुनिया भर के रंगों को त्याग कर सफेद साड़ी पहननी होती है, वह किसी भी प्रकार के आभूषण एवं श्रृंगार नहीं कर सकती। उसे आखिरी सांस तक भगवान को याद करके अपना बचा हुआ जीवन व्यतीत करने को मजबूर किया जाता है। आप सोच रहे होंगे कि आज के आधुनिक युग में यह सब कहाँ होता है। आजकल तो पति की मृत्यु के कुछ समय पश्चात महिलाएँ दूसरा विवाह करके अपना आगे का जीवन सुखपूर्वक चलाने की कोशिश करती हैं। परन्तु सच मानिये आज भी देश के कई हिस्सों में एक विधवा को बोझ मानकर घर के एक कोने में फेंक दिया जाता है। उसका जीवन पति के मरने के बाद व्यर्थ है ऐसा उसे बार-बार महसूस कराया जाता है पर क्यों? एक विधवा से उसके अधिकार, उसके रंग एवं श्रृंगार को छीन लेने का क्या अर्थ है? वेद में एक कथन है, “उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि। हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ”9। इसका अर्थ है कि पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा उसकी याद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दे। ऐसा कोई धर्म नहीं कहता। उसी स्त्री को पूरा अधिकार है कि वह आगे बढ़कर किसी अन्य पुरुष से विवाह करके अपना जीवन सफल बनाए। लेकिन हमारा समाज इस बात को नहीं मानता। सामाजिक नियमों के अनुसार पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा रंगीन वस्त्र नहीं पहन सकती, कोई श्रृंगार नहीं कर सकती, किसी प्रकार के आभूषण धारण नहीं कर सकती बल्कि वह स्त्री उन सभी नियमों के साथ बंध जाती है जो उसे विधवा धर्म सिखाते हैं। पति के जीवित होते हुए जिस प्रकार से वह खुद को सुन्दर बनाकर रखती थी, उसके जाने के बाद उसे उससे भी ज्यादा खुद को बदसूरत बनाने के लिए कहा जाता है। कुछ संस्कारों में तो एक विधवा का मुंडन भी किया जाता है। ऐसा करने के पीछे कई सारे सामाजिक एवं वैज्ञानिक कारण दिए जाते हैं। कहते हैं कि एक इंसान जितना साधारण होगा, कम आकर्षक होगा उतना ही लोग उस पर कम ध्यान देगें। विधवा को सबकी नजरों से, खासतौर से पराए मर्दों की नजरों से बचकर रहने की सलाह दी जाती है, क्योंकि पति की मृत्यु के बाद इस समाज में उसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं होता। कम-से-कम तब तक नहीं जब तक वह पुनः विवाह नहीं कर लेती। इसलिए उसे सफेद साड़ी एवं बिना किसी श्रृंगार के रहने की सलाह दी जाती है।
पति की मृत्यु के बाद साजो-श्रृंगार के अलावा एक विधवा के जीवन में खान-पान के तरीके में भी बदलाव देखने को मिलता है। शास्त्रों में ने बताया गया है कि विधवा स्त्री को बिना लहसुन-प्याज वाला भोजन करना चाहिए। साथ ही मसूर की दाल, मूली एवं गाजर से भी परहेज करना चाहिए। सिर्फ इतना ही नहीं उसके भोजन में मांस-मछली परोसना घोर अपमान व पाप समझा जाता है। उनका भोजन पूरी तरह सात्विक होना चाहिए और शाम को सूरज ढ़लने के बाद वह पानी के अलावा कुछ ग्रहण नहीं कर सकती। ये कड़े नियम आज देश के सभी तो नहीं लेकिन कुछ हिस्सों में विधवा के लिए एक अभिशाप के समान कायम हैं, जिससे वह उबरना चाहती है और अपने जीने का एक मकसद ढूँढना चाहती है। ताराबाई शिंदे ने समाज में स्त्री की स्थिति और प्रचलित मान्यताओं पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करती हैं। उन्होंने साल 1882 में मराठी भाषा में ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ शीर्षक से एक किताब लिखी थी। दुनिया भर की स्त्री जाति की वास्तविक स्थिति पर विचार-विमर्श करने का आह्वाहन उन्होंने अपनी इस रचना में की है। ताराबाई निःसंतान विधवा थीं। उनका दूसरा विवाह नहीं हुआ, क्योंकि ब्राह्मणों के प्रभाव से मराठों में भी विधवा विवाह का चलन उठ-सा गया था। पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री जो बे-आवाज़ थी उसकी आवाज ताराबाई के स्वर में बोल उठी। पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्त्री चेतना ने प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया। पुरुष द्वारा विधवा पर किये जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने आवाज उठायी। तत्कालीन समाज में विधवा की दयनीय स्थिति की ओर ध्यान से सोचने के लिए उन्होंने लोगों को मजबूर किया। आक्रोश भरे स्वर में पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था को चुनौती देती हुई ताराबाई शिंदे ने पूछा, “पत्नी के मरते ही दूसरा विवाह की आजादी यदि पुरुषों को है तो फिर कौन-सी ताकत है जो विधवाओं को पुनर्विवाह करने से रोकती है”10। ताराबाई शिंदे तत्कालीन धार्मिक कट्टरताओं और अनाचारों पर तीखा प्रहार करती हुई धार्मिक अंध-विश्वासों पर प्रहार करती हुई लिखती हैं, “जिस प्रकार तुम्हारे प्राण तुम्हें प्रिय हैं वैसे ही क्या स्त्री को उसके प्राण प्रिय नहीं रहेंगे? तुम्हारे प्राण सोने से बने और स्त्री के लोहे से बने हैं क्या? या फिर स्त्री को तुम पत्थर समझते हो, भावना हीन पत्थर। पति की मृत्यु के बाद उसकी स्थिति बदतर हो जाती है। उसका केशवपन किया जाता है। इस सृष्टि की सारी सुन्दर चीजों से, सुख-सुविधाओं से उसे वंचित किया जाता है। मंगल कार्यों में भाग लेने की उसे अनुमति नहीं होती। भले ही वह एक निरीह अबोध बालिका क्यों न हो, उस पर बंधन डाले जाते हैं। विधवा का किसी के सामने आना अपशगुन माना जाता है। क्या यह सब उचित है? पति की मृत्यु हुई, इसमें उसी की पत्नी का क्या दोष”11? इसी संदर्भ में सीमंतनी उपदेश की लेखिका एक अज्ञात हिन्दू औरत से कटाक्ष करते हुए प्रश्न करती हैं,“अगर रांड का मुँह देखने या परछाई लेने से ही कोई रांड हो जाती हैं, तो नाइनें जो रांड के पास रहती है, चाहिए रांड हो जाएँ”12। फिर जिनके (विधवा) माँ-बाप नहीं होते उन्हें भाई भौजाइयों की गुलामी करनी पड़ती है। यह आम बात है- जिसके घर में माँ, बहन, बेटी, विधवा होती हैं उन्हें नौकर रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जो काम नौकर नहीं करते उन्हें रोटियों के पीछे वह भी करना पड़ता है। विधवा औरत से यही उम्मीद की जाती है कि वह मेहनत करे फिर रोटी खाए। चाहे कैसी हो, अमीर हो या गरीब, भौजाइयाँ हर वक्त उन पर हुकूमत चलाती हैं और इन्हें उनका ऐश आराम देख अपना ध्यान आता है। बस वे इन पर हर वक्त लड़ाई करने का इल्जाम लगाती हैं।
अनपढ़ होने की वजह से इन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने पर मजबूर हो जाती हैं। विधवाओं के लिए राज्य और केन्द्र सरकार की कई योजनाएँ हैं लेकिन अशिक्षा की वजह से इन योजनाओं का लाभ उन तक नहीं पहुँच पाता। एक अनुमान के मुताबिक भारत में 4.5 करोड़ विधवाएँ हैं। इनमें से चार करोड़ विधवाओं को विधवा पेंशन नहीं मिल पाती। राम आहूजा अपनी पुस्तक सामाजिक समस्याएँ में लिखते हैं “सब विधवाएँ एक ही प्रकार की समस्याओं का सामना नहीं करती। एक विधवा ऐसी हो सकती है जिसके कोई बच्चा न हो और जो अपने विवाह के एक या दो वर्षों में ही विधवा हो गई हो, या वह ऐसी हो सकती है जो पाँच से दस वर्ष के पश्चात विधवा होती है और उसके एक या दो बच्चे पालने के लिए हों, या ऐसी हो जो 50 वर्ष की आयु से अधिक हो। यद्यपि इन तीनों श्रेणी की विधवाओं को सामाजिक, आर्थिक और भावात्मक समंजन की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन पहली दो श्रेणियों की विधवाओं को जैविक समंजन की समस्या का भी सामना करना पड़ता है। इन दो किस्मों की विधवाओं का अपने पति के परिवार में इतना आदर-सत्कार नहीं होता जितना कि तीसरी किस्म का”13। वास्तव में जहाँ एक ओर परिवार के सदस्य विधवाओं की पहली दो श्रेणियों से मुक्ति पाना चाहते हैं वहीं दूसरी और तीसरी श्रेणी की विधवा अपने पुत्र के परिवार में मूल व्यक्ति हो जाती है, क्योंकि उसको अपने पुत्र के बच्चों की देख-रेख का और काम पर जाने वाले पुत्रवधू की अनुपस्थिति में खाना पकाने का दायित्व सौंप दिया जाता है। विधवाओं की तीनों श्रेणियों की आत्मछवि और स्वाभिमान भी भिन्न होते हैं। एक विधवा की आर्थिक निर्भरता उसके स्वाभिमान और उसकी पहचान की भावना के लिये एक बड़ा खतरा पैदा कर देती है। परिवार की भूमिकाओं में उनके सास-ससुर और परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा निम्न दर्जा प्रदान किये जाने से उनका स्वाभिमान कम होता है। विधवा होने का कलंक ही अपने-आप में एक स्त्री को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है और उसका सम्मान अपनी ही दृष्टि में कम हो जाता है। दौलतमंद विधवाओं के बारे में सीमंतनी उपदेश की लेखिका लिखती हैं, “जो दौलतमंद विधवा होती है, बिरादरी के सब मिल के, भाई या देवर का या किसी और रिश्तेदार का लड़का गोद में बिठा देते हैं। उसके सब माल असबाब का मालिक बना देते हैं”14। कहने के लिए तो देश में महिलाओं के लिए कई कानून है। लेकिन असल में इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता है। अक्सर पति की मौत के बाद घर की जमीन भाइयों और बेटों में बँट जाती है और विधवा महिला पूरी तरह असहाय हो जाती है। कई बार ऐसा भी होता है कि विधवा के पति अपनी मृत्यु से पहले अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर देते हैं लेकिन उन्हें यह अधिकार हासिल करने के लिए कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ता है। उन्हें इसके लिए अपने बेटों से एनओसी लेनी पड़ती है। एक अनुमान के अनुसार पति की मौत के बाद अभिशाप समझकर परिवार द्वारा निकाली गई, ऐसी महिलाओं की संख्या करीब चार करोड़ के आस-पास है। वर्ष 2014 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में पाँच करोड़ विधवाएँ हैं। परंपरा, रीति-रिवाज के नाम पर इन्हें इनको अधिकारों से वंचित रखा जाता है एवं परिवार के अन्दर उन्हें बोझ समझा जाता है।
विधवा स्त्रियों को व्यंग्य बाणों, शंकाओं और गलतफहमियों के दर्दनाक आघात झेलने पड़ते हैं। एक विधवा क्या करती है? कहाँ-कहाँ जाती है? उसके यहाँ कौन-कौन आता है? इन सभी बातों को जरूरत से ज्यादा तूल देकर उसका जीना दूभर कर दिया जाता है। इतना ही क्यों? जिन बच्चों को पाल-पोस कर वो बड़ा करती है, उन्हीं की शादी में उसकी छाया अशुभ मानी जाती है। क्या एक माँ, जो विधवा है इसलिए अशुभ हो सकती है? आखिर कब बदलेंगे हमारे समाज के मानदंड? वास्तव में एक विधवा की तड़प को महसूस करना बहुत ही मुश्किल है। समाज जो बंधन लगाता है। उसकी तो कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि उसके पास तो अपने स्वयं के बंधन ही काफी हैं। यानी कि पति की याद का बंधन। वृन्दावन और बनारस में रह रही हजारों विधवाएँ पिछले कई सालों से समाज की मुख्य धारा से दूर एक गुमनाम जिंदगी बिता रही हैं। इनमें से अधिकतर विधवाएँ पश्चिम बंगाल एवं उत्तर भारत की हैं जो पति की मौत के बाद परिवार से निकाल दी गईं और देश के कई हिस्सों में भटकने के बाद वृन्दावन और बनारस के विभिन्न आश्रमों में पहुँची या खुद परिवार द्वारा यहाँ जबरन पहुँचा दी गईं। विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा एक बड़ी वजह है। जहाँ अशिक्षा है, वहाँ गरीबी होना तय है। गरीबी की वजह से विधवाओं की बुनियादी जरूरतें जैसे- भोजन, कपड़े और दवाएँ उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अनपढ़ होने की वजह से इन महिलाओं को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने को मजबूर हो जाती हैं। मानव समाज अपनी विकास यात्रा आदिम अवस्था से होते हुए उत्तर-आधुनिकता तक पूरी कर चूका है लेकिन वैधव्य कलंक के सन्दर्भ में आज भी परम्परागत मान्यताओं को लेकर जी रही है। इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं मानवशास्त्री मदान साहब कहते हैं, “पति की मृत्यु के बाद एक स्त्री की सामाजिक पहचान ही बदल जाती है”14। वहीं इस सन्दर्भ में वृंदा करात कहती है, “भारत में जहाँ स्त्री की पहचान पुरुषों के साथ जुड़ी है वहीं विधवापन पति की मृत्यु से अधिक आयाम रखता है”15। विधवाओं को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए अधिनियम- 1956, विधवा उत्तराधिकार अधिनियम एवं भरण-पोषण अधिनियम आदि कानून के रूप में आ चुके हैं जिसके माध्यम से विधवा हो चुकी महिलाओं को मुख्य धारा से जोड़ने का सार्थक प्रयास लगातार किया जा रहा है। फिर भी बड़ी संख्या में ऐसी विधवाओं को समाज की मुख्यधारा में वापस लाए जाने की जरुरत है, जो अपने तन पर सफेद साड़ी आते ही समाज के रिश्ते-नातों और दुनिया के रंगों से अलग हो जाती है। वे अब बदलते समय के साथ समाज की मुख्यधारा में लौटना चाहती हैं और इसमें से कई विधवाएँ एक बार फिर विवाह बंधन में बंधने एवं नई जिन्दगी जीने का सपना भी देखती हैं। विधवा महिलाओं को समाज में बिल्कुल अनदेखा कर दिया जाता है, जबकि उन्हें फिर से रिश्ते जोड़ने का हक मिलना चाहिए, समाज के लोगों को इसमें उनका साथ देना चाहिए। महिला कम उम्र में विधवा हो जाती है तो उसे पुनः घर बसाने का मौका दिया जाना चाहिए। इसके लिए समाज को एवं समाज के हर वर्ग को जागरुक होना होगा और रीति-रिवाज और परम्पराओं को परे रखकर विधवाओं को उनके अधिकार दिलाने की कोशिश करनी होगी। जिस समाज में सभी को समान रूप से जीने का अधिकार है, वह समाज इन विधवाओं के साथ खड़ा क्यों नहीं होता, उनका शोषण क्यों करता है? क्यों उन्हें अनदेखा किया जाता है? क्यों उन्हें अछूत की दृष्टि से देखा जाता है? क्यों उनके प्रति दुर्भावना रखी जाती है?
निष्कर्ष रूप में यदि विचार करें तो कह सकते हैं कि विधवाओं के साथ ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। उन्हें समाज में समानता का दर्जा दिया जाना चाहिए। वह दोबारा विवाह करना चाहती हैं तो हमें विरोध करने की बजाय उनका साथ देना चाहिए। नई जिंदगी की शुरुआत करने का सपना देखती हैं तो उनके अंदर सपने साकार करने का हौसला भरना चाहिए। उनकी शोषित, दुःखभरी, अनदेखी दुनिया को समाप्त कर फिर से उनके जीवन को खुशियों से भर देना चाहिए, क्योंकि रीति-रिवाज इंसान के लिए हैं न कि इंसान रीति-रिवाज के लिए, अगर किसी अच्छे काम के लिए रीति-रिवाज को बदलना पड़े तो हमें बदल देना चाहिए। सामाजिक ताना-बाना व्यक्ति की भावनाओं से समभाव स्थापित करने के लिए होने चाहिए न कि इस भावना को तोड़ने के लिए। इस आलेख में स्त्री जीवन की उस स्थिति का चित्रण मिलता है जिसमें परिवार का ताना-बाना बनने के बाद जीवन में आये बदलाव के कारण उस स्त्री का सब कुछ टूट सा जाता है। इस आलेख में रिश्तों के बनते-बिगड़ते और टूटते भावों को दिखाया गया है। टूटता हुआ भाव स्त्री के मन का ही भाव है।
संदर्भ:
- प्रेमचंद,नारी जीवन की कहानियाँ, प्रेम प्रकाशन मन्दिर, दिल्ली, 1987, पृ. 63
- त्रिवेदी, रामगोविन्द, ऋग्वेद-संहिता, चौखम्भा सुभारती प्रकाशन, 2016, पृ. 68
- अज्ञात हिन्दू औरत,सीमन्तनी-उपदेश, संपादन, डॉ धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,2008, पृ. 13
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- https://www.bhaskar.com
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- शिंदे, ताराबाई, स्त्री-पुरुष तुलना, संवाद प्रकाशन, 2002, पृ. 47
- वहीं पृ. 97
- वहीं पृ. 50
- आहूजा, राम, सामाजिक समस्याएँ, रावत पब्लिकेशन्स, 2013, पृ. 244
- अज्ञात हिन्दू औरत,सीमन्तनी-उपदेश, संपादन, डॉ धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,2008, पृ. 24
- लहरी, विमल कुमार, भारतीय विधवाएँ : प्रस्थिति एवं भूमिका, भारती प्रकाशन, 2015, पृ. 6
- वहीं पृ. 6
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